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हे आत्मन् । एक पर ( श्रसक्ति) को छोडकर अन्य कोई भी शत्रु नही (है) । जिसके द्वारा कर्म निर्मित हुए ( हैं ), ( उस) पर ( - श्रसवित ) को ( जो ) दूर हटाता है, वही यति है ।
यदि ( मैं ) मन को (आत्मा मे) रोकता हूँ, तो (भी) (वह) वहाँ 'पर' मे ही ( जाता है), (और) ( खेद है कि ) ( वह) ( मन ) श्रात्मा को धारण नही करता है । जीव (मनुष्य) विषयो के कारण नरको के दुखो को सहन करता है ।
हे जीव 1 (तू) मत समझ ( कि ) (तू) जैसे-तैसे ( विषयरूपी) फलो को क्यों पकाता है ? को पैदा करेंगे ।
इन्द्रिय - विषय मेरे ( तेरे) अपने होगे ।
वे तेरे लिए दुखो
हे मनुष्य । तू इन्द्रिय-विषयो का सेवन करता है । इससे तो (तू) दु खो IT HTET ( ही ) (होता है ) । इसलिए (तू) निरन्तर (जलता है) जैसे घी से अग्नि जलती है ।
जिस (मनुष्य) का जीते हुए ही पचेन्द्रिय के साथ मन मरा हुआ (है), वह मुक्त समझा जाता है, ( क्योकि ) ( उसके द्वारा) शान्ति (या) ( उसका ) मार्ग प्राप्त किया गया ( है ) ।
हे मूर्ख' (उन) बहुत शब्दो ( के ज्ञान) से क्या (लाभ) प्राप्त किया जा है, जो (कुछ) समय मे विस्मरण को प्राप्त होते हैं ? ( वास्तव मे ) जिस (ज्ञान) से (तू) अक्षररहित (हो जावे ) ( वह) तेरे लिए मोक्ष है । सत और मुनि ( ऐसा ) कहते हैं ।
पाहुडदोहा चयनिका ] '
( मन मे ) छह दर्शनो की गाँठ के कारण बहुत ( दार्शनिक) एक दूसरे के विरुद्ध गरजते हैं । (सच तो यह है कि ) जो ( दुख का ) कारण ( है ), वह (आसक्ति) एक ( ही ) ( है ), किन्तु ( वे लोग ) विपरीत समझते हैं ।
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