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( जिस प्रकार ) ( प्रकाश और अन्धकार की परम्परा के भेद को दिखानेवाला) सूर्य महान (होता है), चन्द्रमा महान ( होता है), (तथा) दीपक (भी) महान (होता है ), ( उसी प्रकार ) जो देव (समतावान व्यक्ति ) ( श्रात्मा के ) स्वभाव और परभाव की परम्परा के भेद को समझाता है, वह (मी) महान (होता है) ।
जो भी सुख स्वय के अधीन (रहता है), (तू) उसमे ही सन्तोष कर । हे मूर्ख | दूसरो के ( अधीन ) सुख का विचार करते हुए ( व्यक्तियो ) के हृदय मे कुम्हलान (होती है), (जो कभी नही मिटती है ।
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जो (इन्द्रिय-) विषयो ( से उत्पन्न ) सुखो को सब ओर से भोगते हुए ( भी ) ( उनको ) कभी भी हृदय में धारण नही करते हैं, वे (व्यक्ति) शीघ्र ( ही ) अविनाशी सुख को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार जिनवर ( समतावान व्यक्ति ) कहते हैं ।
(जो ) (व्यक्ति) (इन्द्रिय-) विषयो के सुखो को न भोगते हुए भी ( उनके प्रति ) श्रासक्ति को हृदय मे रखते हैं, (वे) मनुष्य नरको मे गिरते हैं, जैसे बेचारा सालिसित्य ( नरक मे ) ( पडा था ) |
( जो ) (व्यक्ति) आपत्ति मे अटपट बडवडाता है, ( उससे ) (तो) लोक ( ही ) खुश किया जाता है ( और कोई लाभ नही होता है), किन्तु ( आपत्ति मे ) मन के कषायरहित होने पर (और) अचलायमान और दृढ होने पर ( यहाँ ) पूज्यतम जीवन प्राप्त किया जाता है ।
धे मे पडा हुआ सकल जगत ज्ञानरहित ( होकर ) ( हिंसा आदि के) कर्मों को करता है, ( किन्तु ) मोक्ष (शान्ति) के कारण श्रात्मा को एक क्षण भी नही विचारता है ।
पाहुडदोहा चयनिका ]
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