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शास्त्रो का अन्त नही है । समय थोडा है। और हम दुद्धि हैं। (इसलिए) केवल वह (ही) सीखा जाना चाहिए, जिससे (तू) जरा-मरण को नष्ट करे । हे योगीजिसका चित्त सभी प्रासक्तियो द्वारा, छ रसो द्वारा, पाच स्पो द्वारा (इस) पृथ्वीतल पर नही रगा गया है, उसको (तू) मित्र बना ।
देह के गलती हुई होने पर, इन्द्रिय-ज्ञान, शब्द-ज्ञान. मन की स्थिरता और ध्येय सब कुछ क्षीण हो जाता है । हे मूर्ख । तव उस अवसर पर बहुत थोडे (लोग) देव का स्मरण कर पाते है ।
जिसका मन आत्मा मे ठहरा (है), (उसका) (मन) सुन्दर (हुआ है)। और वह ससार (मानसिक तनावो/आसक्तियो) से दूर हुआ (है)। (ऐसा) (व्यक्ति) जिस प्रकार (उसको) अच्छा लगता है, वैसा व्यवहार करे, (क्योकि) (उसके) (कोई) भी आसक्ति नहीं है (और) (इसलिए) (उसके) भय भी नही है । सुख दो दिन तक (रहते हैं), फिर दुखो की परम्परा (चल जाती है) । हे हृदय! मैं तुझको सिखाता हूँ, (कि) (तू) मार्ग पर चित्त लगा।
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जैसे प्राणियो के लिए झोपडा (होता है), अरे | वैसे ही (जीव के लिए) काय (होती है) । वहा ही प्राणपति (आत्मा) रहता है, (इसलिए) हे योगी | उसमे ही मन लगा।
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मूल को छोडकर जो डाल पर चढता है, वहां योग कहाँ (है), (तू) कह । हे मूर्ख! ओटे हुए कपास के विना, वुनने के लिए (सामग्री) निश्चय ही नही
(होती है) (और) (वहाँ) (कोई भी) वस्त्र नही बुनता है । 61 सव विकल्पो के टूटे हुए होने पर, आत्मा के स्वभाव मे पहुंचा हुआ होने
पर और निर्मल ध्यान मे ठहरा हुआ होने पर व्यक्ति दूसरे (पदार्थ) के साथ (केवल) क्रीडा ही करता है (उसमे आसक्त नही होता है)। (आत्म-शान्तिरूपी) लक्ष्य को स्वीकार करके और (सयम को) ग्रहण करके, तेरे द्वारा (इन्द्रियरूपी) ऊँट आज ही जीते जाते है (जीते जा सकते हैं) । जहाँ आरूढ होकर सभी परम-मुनि ससारी गमनागमन से मुक्ति
(शान्ति) (प्राप्त करते हैं)। : पाहुडदोहा चयनिका ]
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