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यदि आत्मा नित्य और केवलज्ञान स्वभाववाली समझी गई ( है ), तो हे मूर्ख । ( इस श्रात्मा से ) भिन्न शरीर के ऊपर श्रासक्ति क्यो की जाती है I
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जिस ( मुनि) के हृदय मे ( प्राध्यात्मिक) ज्ञान नही फूटता है, वह मुनि सभी शास्त्रो को जानते हुए भी सुख नही पाता है (और) विभिन्न कर्मों (मानमिक तनावो) के कारणो को करता हुआ ही (जीता है) ।
श्राध्यात्मिक ज्ञान (से रहित ) के असत्य मानता है । (तथा) कर्मों को (तू) स्वयं की (चित्तवृत्ति) समझता है ।
बिना हे जीव । तू (ग्रात्म - ) तत्व को से रचित उन ( शुभ - अशुभ) चित्तवृत्तियो
( हे मनुष्य ) । न ही तू पडित ( है ), न ही (तू) मूर्ख ( है ), न ही (तू) घनी (है), न ही (तू) निर्वन ( है ), न ही (तू) गुरु ( है ) । कोई शिष्य (भी) नही ( हैं ) | ( ये ) सभी ( बातें) कर्मों की विशेषता ( हैं ) ।
हे मनुष्य 1 न ही तू कारण ( हैं ), न ही (तू) कार्य ( है ), न ही (तू) स्वामी (है), न ही (तू) नौकर (है), न ही (तू) शूरवीर ( है ), ( न ही ) (तू) कायर ( है ), न ही (तू) उच्च (है) और न ही (तू) नीच ( है ) ।
हे मनुष्य 1 तू पुण्य, पाप और मृत्यु नही ( हैं ) । (तू) धर्म, अधर्म और शरीर नही ( है ) | ( वास्तव मे ) (तू) ज्ञानात्मक स्वरूप को छोडकर कुछ भी नही है ।
(हे मनुष्य ) ' (तू) न गोरा ( है ), न काला ( है ) । इस प्रकार ( तेरा) कोई भी वर्ण नही । (तू) न ही दुर्बल अगवाला ( है ) और न ही स्थूल ( शरीरवाला ) है | ( अ ) तू स्ववर्ण (स्व-स्वरूप) को समझ ।
हे मनुष्य । देह का बुढापा औौर ( उसकी ) मृत्यु को देखकर भय मत्त कर । जो अजर-अमर परम ब्रह्म ( है ), वह ( तेरा ) स्वरूप ( है ) । ( इस बात को ) (तू) ससझ ।
पाहुडदोहा चयनिका ]
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