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जो न जीर्ण होता है, न मरता है, न उत्पन्न होता (है), (जो) कोई उच्चतम (है), अनन्त (है), त्रिभुवन का स्वामी (है), ज्ञानमय (है), वह निम्सन्देह शिवदेव है।
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जव तक तुम्हारी अनोखी ज्ञानमय स्थिति नही समझी गई (है), (तव तक ही) विचार और सशय किया हुआ वेचारा अशुभ ज्ञानमय चित्त (स्थित रहता है)।
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जिसके द्वारा उच्चतम आत्मा नित्य, निरोग, ज्ञानमय और परमानन्द स्वभाववाली समझ ली गई (है), उसके लिए अन्य झुकाव निश्चय ही नही (रहता है)।
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जिसके हृदय मे केवलज्ञानमय आत्मा निवास करती है, उसके पाप नही लगता है, (और) (वह) त्रिभुवन मे बन्धन-मुक्त (तनाव-मुक्त) होता
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जो मुनि वधन (मानसिक तनाव) के कारण को न कभी (मन से) विचारता है, न (वचन से) कहता है और न (काय से) करता है, वह केवलज्ञान से जगमगाता हुआ शरीरवाला (बन जाता है), (इसलिए) (वही) देव (है), (वही) परमात्मा (है)।
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मीतरी चित्त मैला किया हुआ होने पर बाहर तप से क्या (लाम) है। चित्त मे किसी निरजन को धारण कर जिससे कि (ताकि) मल से छुटकारा पा जाए।
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हे जीव । यदि (तू) खाते हुए (और) पीते हुए ही नित्य शान्ति पा ले (तो) पूज्य ऋषभ ने सब ही इन्द्रिय-सुख क्यो छोडे ?
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हे मूर्ख । (आश्चर्य है) गुणो के आश्रय आत्मा को छोडकर (तू) दूसरे विचार का ही चिन्तन करता है । (समझ) अज्ञान से जुडे हुए (व्यक्तियो)के लिए वहाँ (उस स्थिति मे) केवलज्ञान (आत्मज्ञान) कैसे होगा?
पाहुडदोहा चयनिका ]