Book Title: Bhugol Vigyan Samiksha
Author(s): Rudradev Tripathi
Publisher: Punamchand Panachand Shah
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bhlidka IK _જૈન ગ્રંથમાળા DETENIRM, M4M2. eechest-2020 : 300४८४७ KA HTRA मेरु पर्वत भगोत्त-विज्ञान-समीक्षा प्राचीन तथा अर्वाचीन भौगोलिक विचारों का मार्मिक मन्थन Shree Sudharmaswami anbhandar-Umara Surat toe Suarararaswam umeraguan hand Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल - विज्ञान - समीक्षा [ प्राचीन एवं अर्वाचीन भौगोलिक विचारों का मार्मिक मन्थन ] यदस्ति सत्यं किल भासमानं, तदेव नित्यं हृदि नश्श्र्चकास्तु । -: निबन्धक :पूज्य मुनि श्रीश्रभयसागरजी महाराज के निर्देशानुसार पूज्य मुनि श्री क्षमासागरजी महाराज -: सम्पादक : - पं० रुद्रदेव त्रिपाठी साहित्यसांख्ययोगाचार्य एम० ए० (संस्कृत-हिन्दी), बी० एड, साहित्यरत्नादि, संचालक - साहित्य-संवर्धन-संस्थान, मन्दसौर म० प्र० -: प्रकाशक : पूनमचन्द पानाचन्द शाह कार्यवाहक – जम्बूद्वीप-निर्माण-योजना, कपड़वंज (गुजरात ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण वीर निर्वाण संवत् २४६३ विक्रम संवत् २०२४ मूल्य-१-५० विशेष सूचना यह विषय समीक्षात्मक दृष्टि से विचारने । योग्य है, अतः किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह अथवा ! मान्यता के प्रावेश में न आते हुए तटस्थ दृष्टि से । विमर्श करने के लिये प्रत्येक विद्वान को भावभीना आमन्त्रण है। मुद्रक पं० पुरुषोत्तमदास कटारे, हरीहर इलैक्ट्रिक मशीन प्रेस, कंसखार बाजार, मथुरा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय I वर्तमान समय में विज्ञान द्वारा प्रदत्त अनेकानेक भौतिक सुविधाओं की चकाचौंध से सर्वसाधारण जन-जीवन आमूल-चूल प्रभावित प्रतीत होता है । जागतिक सुखों की आँधी में उत्तरोत्तर प्रतिस्पर्धा करता हुआ आज का मानव धीरे-धीरे हमारे ऋषि-प्रणीत उत्तमोत्तम सारभूत धर्मग्रन्थों के प्रति भी शिथिल श्रद्धा वाला बनता जा रहा है । भारतीय प्रास्तिक जगत् को अपने धर्मशास्त्रों में वरिंगत भूगोल - सम्बन्धी विचारों के प्रति निष्ठा स्थिर रखने के लिये ऐसे अवसर पर एक महत्त्वपूर्ण उद्बोधन की पूर्ण आवश्यकता है, अन्यथा यह हसनशील प्रवृत्ति क्रमशः निम्नस्तर पर पहुँचती ही जायगी तथा ईश्वर न करे कि वह दिन भी देखना पड़े कि जब स्वर्ग, नरक, पुण्य-पाप, ग्रात्मा-परमात्मा आदि सभी निरर्थक कल्पनामात्र कहने लग जाँय ! इस विषम परिस्थिति को ध्यान में रखकर गत सोलह वर्षों से परमपूज्य उपाध्याय श्रीधर्मसागरजी महाराज के चरणोपासक पूज्य गरिणवर्य श्री अभयसागरजी महाराज ने स्वदेश एवं विदेश के भौगोलिक - विज्ञान का अध्ययन-अनुशीलन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ किया और सतत परिशीलन के परिणाम स्वरूप अनेक ऐसे तथ्य ढूंढ़ निकाले कि जिससे 'पृथ्वी के आकार, भ्रमण, गुरुत्वाकर्षण, चन्द्र की परप्रकाशिता' जैसे विषयों पर आधुनिक वैज्ञानिकों की मान्यताओं के मूल में स्थित 'भ्रान्तधारणाएँ, कल्पनाएँ, तथा अपूर्णताएँ' प्रत्यक्ष प्रस्फुटित होने लगीं। ऐसे सारपूर्ण विचारों को भूगोल वेत्ताओं के समक्ष उपस्थित करने और एतद्विषयक मनीषियों के उपादेय विचारों को जानने के लिये अनेक मनीषियों ने मूनिवर्य से प्रार्थनाएँ की, और उन्होंने अपनी साधना में निरन्तर संलग्न रहते हुए भी लोकोपकार की दृष्टि से अपने विचारों को लिपिबद्ध करने की कृपा की। उन्हीं के शुभ निर्देशन में प्रस्तुत पुस्तिका शासन दीपक पूज्य आचार्य श्री कैलाश सागर सूरीश्वर शिष्य पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज द्वारा गुजराती में तैयार करके दीगई थी, जिसका हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन करके प्रकाशन किया गया है । विश्वास है विज्ञ पाठक इसका सावधान-मस्तिष्क से परिशीलन करेंगे तथा इस विषय पर अपने विचारों से हमें अवगत कराने की अनुकम्पा करेंगे। -रुद्रदेव त्रिपाठी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल विज्ञान - समीक्षा वर्तमान भागोलिक धोरणारा और हमारा कर्तव्य आज निरन्तर द्रुतगति से बढ़ते हुए इस विज्ञान के युग में "पृथ्वी वस्तुतः गोल है अथवा घूमती है" इस विषय पर कुछ लिखना क्या उचित है ? ऐसा प्रश्न बहुतों के मन में उत्पन्न हो, यह स्वाभाविक है । क्यों कि कोमल हृदय बालकों को, उनके माननीय अध्यापकों को तथा मुझ जैसों को भी प्रारम्भ में विद्यालयों से ऐसा ही ज्ञान मिला है कि "पृथ्वी घूमती है, सूर्य नहीं घूमता।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि अब तो ऐसा भी कहा जाता है कि- 'सूर्य भी आकाशगंगावर्ती सौरि नामक ग्रह की ओर दौड़ रहा है । इस प्रकार "पृथ्वी का भ्रमण तीन गतियों से होता है:१- स्वयं की धुरा पर होने वाली गति । २-सूर्य के आसपास की भ्रमण गति । ३–पृथ्वी सहित अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ होने वाली सूर्य के साथ भ्रमण गति।" यह बात हम जहाँ-तहाँ और जब-तब सुनते ही आये हैं। फलतः हम में से अनेक महानुभावों की यह मा यता रूढ होगई है कि-"पृथ्वी गोल-गोल भंवरे को तरह घूमती है । पृथ्वी के धुरो पर होने वाले भ्रमण के कारण रात और दिन की व्यवस्था होता है तथा सूर्य के आसपास के भ्रमण के कारण वर्ष की गणना होती है।" वैज्ञानिकों का अधिकांश बहुमत आज भू-भ्रमण की बात को ही सत्य मानकर अन्य संशोधन कर रहा है। 'भू-भ्रमण' इनका सिद्धान्त ( Theory) बन गया है। इस विषय को अधिक स्पष्ट करने अथवा विचार-विमर्श करने के लिये कोई तैयार नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही हम में से अधिकांश व्यक्तियों की बुद्धि पर विज्ञानवाद की गहरी छाप पड़ चुकी है जिससे कतिपय अर्ध. सत्य बातों को भी सत्य मानने की विकृत भावनाओं से हमारा मन अभ्यस्त बन गया है। ऐसी परिस्थिति में शास्त्रीय मान्यताओं को बुद्धिवादियों के हृदय में स्थान मिलने में बिलम्ब हो, यह सम्भव है। इसके लिये विज्ञान की रूढ बनी हुई मान्यता का हृदय से विदा करने और शास्त्रीय मान्यता को तर्कबद्ध-पद्धति से समझने-समझाने की नितान्त आवश्यकता है। किन्तु केवल तदर्थ धर्मशास्त्रों की बात को समक्ष रखकर कुछ बतलाया जाय, तो सही चीज भी अनेक बुद्धिशालियों के मस्तिष्क में जम नहीं सकती? __ अतः भारतीय धर्मशास्त्र, आगम, वेद और अन्य भारतीय ग्रन्थों के प्रमाण प्रस्तुत करने के साथ ही वैज्ञानिक जगत् के प्रसिद्ध–'श्रीपाइथागोरस, अरस्तू, टोलेमी, कोपरनिक्स, जेम्स जिन्स, सर आइन्स्टीन, जोर्ज, मेकडोनल्ड, हेनरी फोस्टरआदि पाश्चात्य विद्वानों की मान्यता के साथ "भू-भ्रमण की भ्रमणा" की वास्तविकता अथवा अवास्तविकता का विचार यहाँ करेंगे ।* *प्रस्तुत लघु-पुस्तिका में सभी विद्वानों के सर्वविध विचारों का अङ्कन सम्भव नहीं है, अतः अत्यावश्यक विचारों को ही सूत्र रूप में उपस्थित किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) धर्मशास्त्रों के प्रणेता निःस्पृह महर्षि एवं वर्तमान काल के वैज्ञानिक अनेक व्यक्ति ऐसा कहते हैं और सुनते हैं कि-धर्मशास्त्रों में 'भूगोल-विज्ञान के बारे में कोई व्यवस्थित वर्णन नहीं है और जो थोड़ा बहुत है वह भी यों ही है।' किन्तु स्थिति इससे कुछ विपरीत ही है। इस दृष्टि से हमारे धर्मशास्त्रों की मान्यता क्या है - यह दिखलाने से पूर्व एक बात और बतला देना आवश्यक समझते हैं कि धर्मशास्त्रों के प्रणेता कैसे थे ? धर्मशास्त्रों के प्रणेता मुनिवर एवं ऋषिवर थे। वे लोग स्वार्थ की भावना से सदा परे रहते थे। वे लोक-कल्याण के लिये जीवित रहने वाले तथा जगत् का कल्याण चाहने वाले थे । उन्हें अपनी नाम-प्रसिद्धि की लोकपणा तनिक भी व्याकुल नहीं करती थी। राज्य के लोभ अथवा अन्य तामसी भावनाओं को उनके उदार अन्तःकरण में स्थान नहीं था। किसी भी प्रकार की जातीय आकांक्षा उनमें विद्यमान नहीं थी। उन महापुरुषों के पास अनेक भौतिक सुख उपस्थित करने की अतुलशक्ति विराजमान थी, तथापि वे भौतिक सुखों से अलिप्त रहते थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ उन ज्ञानी पुरुषों ने अपने आन्तरिक ज्ञानचक्षु के द्वारा जो देखा और उसमें जो बातें विश्व के लिये उपकारी-हितकारी प्रतीत हुई, वे ही बातें शास्त्रों के रूप से विश्व के विशाल प्राङ्गण में प्रकट की तथा अन्य अनावश्यक बातों को अपने विराट् अन्तः करण में समा ली थीं। जब कि 'पाश्चात्य जगत् के वैज्ञानिकों में स्वार्थभावना नहीं है' ऐसा प्रमाणित करना सम्भवित नहीं है। अधिकांश वैज्ञानिकों में अपने नाम को अमर बनाने की तामसिक तृष्णा बनी ही रहती है। कुछ धन की लालसा से अथवा नोबल पुरस्कार के विजेता बनने की इच्छा से भी कार्य करते रहते हैं। . इससे इनमें परोपकार की वृत्ति वाले कोई नहीं हैं ऐसा हमारा अभिप्राय नहीं है, किन्तु परोपकारी वृत्ति वाले वैज्ञानिकों की संख्या अंगुलियों के पर्यों पर गिनी जा सके इतनी ही होगी। आधुनिक वैज्ञानिक मान्यता एवं विचारणीय प्रश्न साधारणतः आधुनिक वैज्ञानिकों की मान्यता नीचे लिखे अनुसार है १-पृथ्वी अपनी धुरी पर १ घण्टे में एक हजार मील की गति से घूमती है। २-पृथ्वी सूर्य के आसपास १ घण्टे में ६५००० मील को गति से घूमती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३–सूर्य पृथ्वी सहित अपने ग्रहमण्डल के साथ एक घंटे में ७.२०,००० मील घूमता है। ४–पृथ्वी अरबों वर्षों से पूर्व सूर्य से पृथक् बना हुअा एक ग्रह है। ५-इसका व्यास पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में सीमित है, इसका आकार नारंगी अथवा सेवफल के समान है। विज्ञान की इन धारणाओं ( Theory) पर ही आज अनेकानेक शोधकार्य हो रहे हैं । और रॉकेट चन्द्र, शुक्र और मंगल की ओर बढ़ रहे हैं, छः मास के रात-दिन जैसी अनेक बातों में पृथ्वी के घूमने के सिद्धान्त को ही केन्द्र माना जाता है। संक्षेप में आप जो कुछ पूछेगे उसका आज उत्तर दिया + कुछ वैज्ञानिक एक घण्टे में दस करोड़ मील को गति भो मानते हैं किन्तु वर्तमान समय में बहुमत ७,२०,००० मील को गति का ही है। * पृथ्वी का आकार कैसा है और यह किस आधार पर कहा जाता है, इसके लिये यथाशीघ्र एक सुविशव लेख पृथक् प्रस्तुत करने की भावना है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाएगा । लाखों प्रयत्न हए और उनसे भी अधिक साधन दिये गये, किन्तु वे सब उपर्युक्त मान्यता को ही केन्द्र मानकर दिये गये हैं। इस विषय में वैज्ञानिकों के बीच कोई विशेष मतभेद नहीं हुआ। अब प्रश्न यह होता है कि क्या आधुनिक वैज्ञानिकों को मान्यताएं सत्य होंगी? शुक्र, मंगल, चन्द्र जैसा ही क्या पृथ्वी ग्रह है ? क्या शुक्र, मंगल,चन्द्र आदि देवताओं के विमान नहीं होंगे ? आज के वैज्ञानिक वहाँ पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं तो क्या वे वहाँ पहुँच जाएंगे? इन दिखाई देनेवाले सूर्य, चन्द्र आदि में देव-देवियों की स्थिति की बातें क्या मिथ्या हो जाएंगी? क्या प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने कपोल कल्पनाएँ ही प्रस्तुत की होगी? ___उपर्युक्त प्रश्न तथा ऐसे ही अन्य अनेक प्रश्नों पर विशद रूप से विचार करना अत्यावश्यक है। अतः हम इसके दृष्टिकोण में पृथ्वी सम्बन्धी धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त को समझ लें । धर्म शास्त्रीय मान्यताएँ लगभग प्रत्येक धर्मशास्त्रों का इस विषय में एक ही अभिप्राय है कि "पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य गतिमान है।'' ये धर्मशास्त्र पूर्व के हों अथवा पश्चिम के, किन्तु प्रत्येक की यही मान्यता है । जैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम 'सूर्य-प्रज्ञप्ति" सूत्र में सूर्य की गति का स्पष्ट प्रमाण है। वहाँ गणधर गौतम महामुनि ने भगवान् श्री महावीर देव से प्रश्न किया है कि "हे मदन्त, सूर्य जब सर्व अभ्यन्तर मण्डल में से सब से बाहर के मण्डल में जाए और उसी प्रकार सब से बाहर के मण्डल में से सब से अभ्यन्तर के मण्डल में आये तो इस सूर्य को इतनो गति करने पर कितनी रात और दिन का समय लगता है ? भगवान् महावोर देव ने उत्तर में बतलाया कि-गौतम इस गतिक्रिया में तीन सौ छाछठ रात और दिन का समय लगता है। इस विषय की अधिक पुष्टि के लिए पुनः प्रश्न किया गया है कि--- भदन्त, इतने समय में ( तोन सौ छाछठ रात-दिनों में ) सूर्य कितने मण्डलों का परिभ्रमण करता है ? दो बार कितने 'त. जवाणं ते सूरिए सम्वन्भंतरामो मंडलातो सव्वा बाहिरं मंडलं उक्कमित्ताचारं चरति सब्वबाहिरातो मंडलातो सबभतरमंडलं उपसंकमित्ताचारं चरति, एस णं श्रद्धा केवइन रातिदियग्गेणं प्राहित्तेति वदेज्जा ? ता तिरिण छाय? रातिदियसए रातिदियग्गेणं आहित्तेति वदेज्जा ? श्री सूर्य प्राप्ति सूत्र प्रथम प्राभृत सूत्र : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) मण्डलों में भ्रमण करता है तथा एक बार कितने मण्डलों में परिभ्रमण करता है ? प्रभु ने उत्तर में बतलाया कि गौतम, सामान्यतः सूर्य एक सौ चौरासी १८४ मण्डलों में परिभ्रमण करता है इनमें से एक सौ बयासी मण्डलों में दो बार परिभ्रमण करता है जो इस प्रकार है-निष्क्रमण के समय और प्रवेश के समय । (प्राते हुए और जाते हुए एक पहला और एक अन्तिम इस प्रकार दो मण्डलों को छोड़कर शेष सभो में दो बार भ्रमण होता है इसलिये -) दो मण्डलों में एक बार परिभ्रमण होता है-सब से जअन्दर का मण्डल और सब से बाहर का मण्डल ।* जैसे जैसे समय समय पर सूर्य पूर्व की ओर आगे बढ़ता जाता है उसी प्रकार पीछे के देशों में रात्रि होती जाती है । *ता एताए अद्धाए सूरिए कति मंडलाइं चरंति ? कति मंडलइ दुखुत्तो चरइ ? कति मंडलाइं एग खुत्तो चरति ? । ता चुलसीयं मंडलसतं चरति बासीती तं मंडलसतं दुखुत्तो चरति, तं जहा णिखम्ममाणे चेव पवेसमाणे चेवदुवेय खलु मंडला सई चरइ, तं जहासम्वन्भंतरं चेव मंडलं, सव्वबाहिरं चेव मंडलं, ॥ श्री सूर्य प्रज्ञप्ति सूत्र प्रथम प्राभृत सत्र १० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) इसके अनुसार देश और क्षेत्र भेद होने के कारण उदयअस्त का भेद होता है । और इसी से कालभेद होता है । प्रथम प्रहर आदि काल जम्बूद्वीप के दो विभागों में एक साथ प्राप्त हो सकते हैं । इस प्रकार देशभेद से प्रत्येक काल ( जम्बूद्वीपादि ) प्राप्त होता है । भावना - जैसे कि भारत में जिस स्थान से सूर्योदय होता है, वहाँ से दूर पीछे के लोगों के लिये वही अस्तकाल माना जाता है । उदयस्थान और अस्तस्थान के मध्यभाग में बसने वालों के लिये यही काल मध्याह्न समय माना जाता है । इसी प्रकार यह काल किसी के लिये पहला प्रहर किसी के लिये दूसरा प्रहर, किसी के लिये तीसरा प्रहर, किसी स्थान पर मध्यरात्रि तो किसी स्थान पर सन्ध्या का समय भी होगा । इस प्रकार की विचारणा से आठों प्रहर सम्बन्धी काल एक साथ मिल सकेगा । जम्बूद्वीप स्थित मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य के परिभ्रमरण द्वारा काल को आठ प्रहर के समय की *जह जह समये पुरी, संचरइ भक्खरो गयणे । तह तह इम्रो विनियमा, जायइ रयणीइ भावत्थो । एवं च सइ नराणं, उदयत्थमरणारिंग हीति नियमाँइ । सइ देसकाले भेए, कस्सइ किचिवि दिस्सए नियमा ॥ श्री भगवती सूत्र वृत्ति शतक ५ उद्ददेश १ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकाल में प्राप्ति होती है । इस रूप में समस्त नरलोक ( अढीद्वीप ) में विचार लेना चाहिए । यत्र मे धावा-पृथ्वी सद्य: पर्येति सूर्यः । -श्री अथर्व वेद 'सूर्य द्यु लोक तथा पृथ्वी के चारों ओर प्रदक्षिणा करता है । दिवं च सूर्यं च पृथ्वों च देवीमहोरात्रे विभजमानो यदेषि ॥ -श्री अथर्ववेद १३-२-५ । 'धुलोक और पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ सूर्य काल के रात और दिन ऐसे दो विभाग करता है।' *गढम पहराइ काला, जंबुदीवम्मि दोसु पासेसु । लभंति एग समयं तहेव सव्वत्थ नरलोए । प्रथमप्रहरादिकाला उदयकालादारभ्य रात्रेश्चतुर्थयामान्तये कालं यावान् मेरोः समन्तादहोरात्रस्य सर्वे काला: समकालं जम्बूद्वीपे पृथक् पृथक् क्षेत्रे लम्यन्ते । श्री मण्डल प्रकरण टीका भावना:- यथा भारते यतः स्थानात् सूर्य उदेति, तत्पाश्चात्यानां दूरतराणां लोकानामस्तकालः । उदयस्थानादधोवासिनो जनानां मध्याह्नः एवं केषाञ्चित् प्रथम-प्रहर; केषाश्चिद् द्वितीयः प्रहरः केषाञ्चित् तृतीयप्रहरः क्वचिर मध्यरात्रः क्वचित् सन्ध्या, एवं विचारणयाऽष्टप्रहरसम्बन्धि-कालः समकं प्राप्यते । तथैव नरलोके सर्वत्र जम्बूद्वीपगतमेरोः समन्तात् सूर्यप्रमाणेनाष्टप्रहरकालसम्भावनं चिन्त्यम् । श्रीमण्डलप्रकरणटोका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) पृथ्वी ध्रुवा । पृथ्वी स्थिर, है ।' द्योश्च भूमिश्च तिष्ठतः । - श्रीअथर्ववेद १० -८-२ । द्य और पृथ्वी ( ये दोनों) स्थिर हैं । पृथिवीवितस्थे । 'पृथ्वी पूर्णं स्थिर है ।' ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः । ऋग्वेद १-७२ - ६ । करता है।' - श्री प्रथर्ववेद ६०८६ - १। 'सूर्यं अपनी नियत गति के अनुसार गमन किया ध वा स्थिरा धरित्री । - ऋग्वेद १- ५०-६ । - श्री यजुर्वेद १४.२ ' पृथ्वी ध्रुव है और स्थिर है ।' ध्रुवासि धरित्री ध्रुवा स्थिरा सति धरित्री भूमिरूपा चासि सति । - - श्री सायण भाष्य 'पृथिवी ध्रुव है, ध्रुव होते हुए भी वह स्थिर रूप में विराजमान है ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ -श्री यजुर्वेद ३३-४३ 'सूर्य ( सात अश्व वाले ) रथ से भुवनों को ( धुलोक ) और पृथ्वी को ) देखता हुआ गमन करता है।' प्रतिष्ठे वै द्यावा-पृथिवी। -कोषितकी ब्राह्मण 'द्य लोक एवं पृथिवी सुस्थिर हैं।' इस प्रकार आगम तथा वेदों में पृथ्वी की स्थिरता और सूर्य के भ्रमण की कैसी मान्यता है ? यह उपर्युक्त प्रमाणों से ज्ञात हो जाता है। पुराण ग्रन्थों और स्मृतियों में भी इनके अनरूप ही कई उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसी तरह मुस्लिम धर्म ग्रन्थ कुरान में भी इस विषय में कहा गया है केवल खुदा ही जमीन और पास्मान को स्थिर रखता है क्यों कि कहीं वे अपने-अपने स्थान से खिसक न जाँय ! और यदि वे अपने स्थान से खिसक गये तो खुदा के अलावा कोई भी उसे स्थिर कर सके ऐसा नहीं है। और रात दिन होने का कारण सूर्य की गति है। पारा नं० २२, सूरे फातिर आयत ४१ पारा नं० २३, सूरे यासोन अायत नं. ३६-४० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] बौद्ध ग्रन्थों में और बाइबल में भी 'पृथ्वी स्थिर है' यह दृढ़ता-पूर्वक प्रतिपादित किया गया है । अब हम पाश्चात्य जगत् के वैज्ञानिकों की मान्यता की ओर घूमकर देखते हैं। पाश्चात्य जगत् के वैज्ञानिकों की मान्यताएं जहाँ तक बाईबल आदि धर्मग्रन्थों का सम्बन्ध है, वहाँ कट्टरता-पूर्वक 'पृथ्वी की स्थिरता' का सिद्धान्त बताया है । वहाँ के ज्योतिषाचार्य और गणिताचार्य भी पृथ्वी की स्थिरता को ही मानते थे । उनमें श्री अरस्तू और श्री टोलेमी प्रसिद्ध हैं। प्रायः ई० सन् पूर्व ५०० में श्री पाइथागोरस ने पृथ्वी के चर होने की मान्यता प्रस्तुत की थी, किन्तु उससे पूर्व किसी ने स्वप्न में भी पृथ्वी के घूमने की कल्पना नहीं की थी। ई० सन् की १६ वीं शताब्दी में कोपरनिक्स ने पृथ्वी को चर बताया तथा सूर्य को स्थिर बताया। ई० सन् १६११ के मार्चमास में गेलेलियो ने पृथ्वी को चर बताया और कोपरनिक्स की अनेक बातों का समर्थन किया। किन्तु सूर्य की स्थिरता के बारे में गेलेलियो ने मतभेद बतलाया । इसने प्रमाणित किया कि सर्य भी अपनी धुरी के ऊपर घूमता है और एक भ्रमण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) पूरा करने में उसे एक मास लगता है। ई० सन् १६१५ में खिस्ती रोमन कैथोलिक सर्वाधिकारी पोप ने गेलेलियो को रोम बुलाया और एकाध घण्टा बातचीत को। गेलेलियो और कोपरनिक्स के विचार सत्य हैं कि टोलेमो के मतानुसार “पृथ्वी स्थिर है' यह बात सत्य है इसका निश्चय करने के लिये एक समिति की स्थापना की गई। समिति ने गेलेलियो को असत्य सिद्ध किया, उसके विचारों पर प्रतिबन्ध लगाया गया। ई० सन् १६२३ में पुराने पोप को मृत्यु हुई और नया पोप बार्बेरिनो बना । गेलेलियो ने फिर से अपने सिद्धान्तों का प्रचार धीरे-धीरे प्रतिबन्ध में बाधा न आये इस रूप में किया। इससे पोप अत्यन्त ऋद्ध हुए और पुन: उसे रोम में बुलाया। १४ फरवरी १६३३ को वह रोम पहुँचा और उसे नजर कैद कर लिया गया। अन्त में उसने यह लिख दिया कि 'मेरो मान्यता असत्य है, यह उसने पीड़ा और अत्याचार से त्रस्त होकर लिख दिया था किन्तु उसकी मान्यता 'पृथ्वी और सूर्य दोनों चर हैं ऐसी ही बनी रही। उसका अन्तिम समय जेल में ही गया । गेलेलियो से पूर्व ब्रुक नाम का एक वैज्ञानिक हुआ और वह 'पृथ्वो सूर्य के आसपास घूमती है" ऐसा प्रचार करता था, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) इस कारण पोप ने उसको कैद में रख दिया और उसने छः वर्ष की सजा भोगी । बाद में अपनी मान्यता में परिवर्तन न करने के कारण पोप की आज्ञा से उसे जीवित जला दिया गया । ब्रुक ओर गेलेलियो की करुरण मृत्यु से उनकी मान्यता नष्ट नहीं हुई अपितु और भी व्यापक बनने लगी । पृथ्वी को चर मानने में जो आपत्तियाँ आतीं उनका तर्क से समाधान ढूंढ़ा गया । (१) पृथ्वी की दैनिक और वार्षिक गति का मेल बिठाने के लिये २३ १३ अंश (Degree) भुकी है ऐसा मानना । (२) पृथ्वी के चारों और वायुमण्डल ( Atmosphere) की कल्पना की जाय । ( पहले ऊपर ४८ मील तक वायुमण्डल माना जाता था किन्तु आज हजारों मील तक माना जा रहा है ।) (३) गुरुत्वाकर्षण (Gravitation ) नामक पदार्थ माना जाय । * ( इस गुरुत्वाकर्षण के मानने से प्राचीन तर्कों का *गुरुत्वाकर्षण कोई वास्तविक पदार्थ है अथवा नहीं है, यह विचारणीय है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ ) समाधान किया जाता था। आकाश में उड़नेवाले पक्षी घोंसले में वापस कैसे आ सकते हैं ? बाण का निशाना बराबर कैसे लगे ? प्रचण्ड वायु से वस्तुओं का विनाश क्यों नहीं होता? इत्यादि बातों का समाधान वातावरण एवं गुरुत्वाकर्षण पदार्थ से माना गया है।) यह सिद्धान्त बहुत व्यापक बना और अन्य वैज्ञानिकों की बातें गौरण बन गई । पृथ्वी के चर होने का सिद्धान्त राजमान्य हो गया। आज की समस्त पाठ्य पुस्तकों में इसी सिद्धान्त को स्थान मिला है। गुरुत्वाकर्षण (Gravit, ation) तथा वायुमण्डल की पूरक कल्पनाएँ करने पर भी भूभ्रमणवादियों के समक्ष कतिपय प्रश्न आज भी यथावत् स्थित हैं । समाधान परिपूर्ण अथवा सन्तोषकारक नहीं हुए हैं। __ जैसे कि ध्र वतारा उत्तर दिशा में स्थिर है । जब देखोगे तभी वह उत्तर दिशा में ही दिखाई देगा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार उत्तर में ध्र व तारा और पृथ्वी भी स्थिर है इसलिये यह सम्भव है। परन्तु पृथ्वी को परिभ्रमणशील माना जाय तो यह ध्र वतारा एक ही स्थान पर नहीं देखा जा सकता। यह बात हम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अबोध बालक और अनसमझ ग्रामीण को भी समभा सक ऐसी सरल है। विज्ञान सूर्य को स्थिर मानकर पृथ्वी को चर मानता है और पृथ्वी के भ्रमण के कारण ही सूर्य पूर्व से पश्चिम में दिखाई देता है तो फिर ध्र व का तारा उत्तर में ही क्यों दिखाई देता है ? भू-भ्रमणवादी इसका समाधान देते हैं किन्तु वह बुद्धिगम्य हो वैसा नहीं है । वे कहते हैं कि- पृथ्वी के उत्तर ध्र व (Northpole) की समश्रेणी में भ्र बतारा स्थित है, अतः वह पूर्व - पश्चिम परिभ्रमण करती पृथ्वी के निवासियों के लिये एक ही समान रहेगी। । परन्तु यह समाधान पूर्ण नहीं है क्यों कि उनका मान्यता के अनुसार पृथ्वी एक घण्टे में १००० मील की गति (Speed) से चलती है। बारह घण्टों में वह सर्वथा विपरीत दिशा में आ जाती है । न्यास की दृष्टि से ८००० मील उसका स्थानान्तर होता है तथापि ध्रुव तारा वैसा का वैसा ही रहता है यह कैसे कहा जा सके ? ___ आज तो सिर के केश की परत उतार कर उसका माप तथा सिगरेट के पतले कागज की चौड़ाई में स्थित अणुओं की संख्या गिनी जा सकती है । तब ध्रव का तारा और उसका प्रकाश जैसा है वैसा ही दिखाई देता है यह कैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना जा सकता है ? और दूसरी बात यह है कि चरवादियों के मतानुसार "पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है इतना ही नहीं किन्तु वह प्रति घण्टा ६६००० मील की गति से सूर्य की परिक्रमा दे रही है। तथा सूर्य का व्यास ८, ६००० मील का और २६००,००० मील लगभग परिधि वाला है तथा पृथ्वी से सूर्य ६, ३०,००,००० मील दूर है यह माना जाता है, इतना होने पर भी प्रत्येक मास में और अनेक बार प्रत्येक दिन में सूर्य का स्थलान्तर हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। परन्तु ध्र व का तारा सदा के लिये सभी महीनों के सभी दिनों में एक समान और एक ही स्थान पर दिखाई दे यह सर्वथा असम्भव है। साथ ही ध्रव का तारा सदा के लिये सभी को उत्तर को ओर ही एक ही स्थान पर स्थिर दिखलाई देता है इस लिए उसे "ध्र व" कहते हैं । पृथ्वी को वैज्ञानिक सूर्य के आसपास ६६००० मील तीव्र की गति से घूमती हुई मानते हैं अतः वह २४ घण्टों में १५, ८४००० मील दूर जाती है। सूर्य के दक्षिण भाग से वामभाग की ओर आने में प्रायः १८३ दिन लगते हैं और इसमें ३२, ६४,७२,००० मील की गति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) हो जानी है। इतनी सुदीर्घ यात्रा कर लेने पर भी ध्र व का तारा वहीं का वहीं दिखाई दे यह कैसे सम्भव हो सकता है ? अर्थात् सूर्य के प्राकाशीय विभाग में जिस स्थल पर पृथ्वी हो और वह दूसरे विभाग में जाए इतने में लगभग १८३ रात-दिन हो जाते हैं, और उसमें ३२,६४, ७२,, ००० मील का महाप्रवास होता है । इतना विशाल प्रवास कर लेने पर भी ध्र व तारा जहाँ हो नहीं दिखलाई दे वह बात बुद्धिगम्य नहीं बनती है । यदि पृथ्वी को स्थिर माना जाय तो यह आपत्ति सिर पर नहीं आती। बब से पृथ्वी के चर होने का सिद्धान्त राजमान्य बना तब से पृथ्वी के स्थिर और चर होने की खोज का विषय व्यक्तिगत बन गया है । इस सम्बन्ध में किसी व्यक्ति ने विशेष विचार किया तो वह उसे लोक - समक्ष लाया, किन्तु राज्य ने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। सन् १९४८ में दि० २ को प्रकाशित The SundayNews Of India नामक अंग्रेजी पत्र में हेनरीफॉस्टर द्वारा लिखे गये - How round is the earth" शीर्षक निबन्ध में बताया गया है कि* 1. *Many people have spent years trying to prove that the earth is flat, but few have revealed such zeal as Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) "पृथ्वी चपटी है" इस बात को सिद्ध करने के लिए कुछ मनुष्यों ने वर्षों तक श्रम किया किन्तु बहुत कम लोगों ने ही "विलियम एडगल" जितना उत्साह दिखाया होगा। विलयम एडगल ने ५० वर्ष तक इस विषय पर विचार किया। कितनी ही रातें तारागरणों को देखने में बिताई। बिस्तर पर आराम से सोया नहीं, कुर्सी पर बैठे-बैठे रातें बिताई। उसने अपने बगीचे में उत्तर दिशा के ध्र व तारे की श्रेणी में लोहे का नल खड़ा किया था। वह नल ध्रुव तारे के सामने हो रहता। उत्साह पूर्वक इस अन्वेषण के पश्चात् उसने घोषित किया कि "पृथ्वी थाली के समान चपटी है और सूर्य पृथ्वी के चारों ओर प्रदक्षिरण करता है।" ध्र वतारा केवल ५००० मील दूर है ओर सूर्य का व्यास केवल १० मील है। the late William Edgell of Midsomer Norton, Somerset. Edgelstrove for over 50 years in order to study the night skies, he never went to bed but slept in a chair. Also he created still tube in his garden pointing towards the Pole star which was visible through it. This eccentric man evenqually evolved the theory of a flat, basin shaped earth with tha Sun moving north end south across it. He contented that the pole star was only 5000 miles away and that the sun was only 10 miles in diameter. --The Sunday News of India, May 2nd 1948. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) *स्ट्रोलाजिकल मैगजोन' *सन् १६४६ के जुलाई और अगस्त के अंकों में 'जे मेकडो नल्ड द्वारा लिखित 'क्या पृथ्वी चपटी है ?" शीर्षक लेख दो विभामों में प्रकाशित है। वहाँ 'भूगोल है। इस सिद्धान्त का सभी वैज्ञानिक प्रमाणों से खण्डन किया गया है। तथा पृथ्वी के चर होने की बात को भी तार्किक रूप से मिथ्या सिद्ध किया है "सूर्य गति करता है" यह सिद्धान्त उपस्थित किया गया है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और वह भी एक घण्टे में १००० मील. की गति. (Speed) से इस चीज को प्रश्रद्धेय बनाई है. । भारत और भारत से बाहर इस सम्बन्ध में बहुत. अनुसन्धान चल रहे हैं। पी० एल० जाँग्रेफी (P. L. Geography) प्रादि ग्रन्थ *The concentric and progressive motion of the Sun over the Earth is in every sense practically demonstrable. The earth like all over plenets floats iu space. The Sun moves and is the centre of our (Known) nniverse. The idea that the earth moves op. its axis at the rate of 1000 nilis an hour is ridiculoms. -ऐस्ट्रोलोजिकल मंगजीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) भारतीयों द्वारा लिखे गये ग्रथं हैं। इनमें न भ्रमण सम्बन्धी प्रत्येक समस्याओं का तार्किक पद्धति से विचार किया गया है जो एक सुन्दर विश्लेषणात्मक वर्णन है । पृथ्वी-भ्रमण के सम्बन्धों में स्थिर हुई वैज्ञानिकमान्यता सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइन्स्टाइन के सापेक्षवाद से शिथिल हो जाती है। सापेक्षवाद के अनुसार गति और स्थिति ये दोनों ही ही सापेक्ष वस्तु बन जाती हैं । अतः पृथ्वी को ही घूमती हुई बताना असंगत-सा हो जाता है। इसके बारे में "जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान" नामक पुस्तक पृष्ठ ११५ से १२० में 'सापेक्षवाद के नये प्रकाश में' इस शीर्षक के नीचे दिये गये विचार मननपूर्वक पटनीय हैं: बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सापेक्षवाद का उदय हुआ और वैज्ञानिक जगत् के बहुत सारे अभिमत अपेक्षा के एक नये मानदण्ड से परखे गये । न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण जो आधुनिक भूगोल शास्र की बहुत सारी कठिनाइयों को दूर करने वाला था सापेक्षवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरा । सूर्य और पृथ्वी की भ्रमणशीलता में जो 'ही' और 'भी' का मतवाद चलता था अर्थात् सूर्य ही चलता है या पृथ्वी भी चलतो हैं । प्राईस्टीन ने एक नया दृष्टिकोण उपस्थित किया। उसने बताया "गति व 1. Rest and motion are merely relative. -Mysterionus Universe. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति केवल सापेक्ष धर्म है।" : प्रकुति ऐसी है कि किसी भी ग्रह पिण्ड की वास्तविक गति किसी भी प्रयोग द्वारा निश्चित रूप से नहीं बताई जा सकती।" सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी चलती है या पृथ्वी की अपेक्षा में सूर्य चलता है इस विषय में सापेक्षवाद' का स्पष्ट मन्तव्य है कि “सौर जमत् (Solar System) के ग्रहों का सापेक्ष भ्रमण पुराने तरीके से भी समझाया जा सकता है और कोपरनिकस के सिद्धान्त से भी दोनों ही ठीक हैं और गति का ठीक-ठीक वर्णन देते हैं । किन्तु कोपरनिकस का मत सरलतम है । एक स्थिर पृथ्वी के चारों ओर सूर्य और चन्द्रमा प्रायः गोल कक्षा पर भ्रमण करते हैं, परन्तु सूर्य के नक्षत्रों और उपग्रहों के पथ अटिल गुघरीली रेखाएं हैं जो मस्तिष्क के लिये श्रमग्राह्य हैं और गणना में जिसका हिसाब बड़ी अड़चन पैदा करता हैं जक कि एक स्थिर सूर्य के चारों ओर महत्वपूर्ण पथ प्रायः वृत्ताकार 2. Nature is such that it is impossible to derermine absolute by any experiment whatever. - Mysterious Universe. 3), 78, 3. The relative motion of the members of the solar system may be "explained on the older geocentic mode and on the other introduced by Copernicus Both are legitimate and give a correct description of the motion but Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) सारांश यह हुआ कि पृथ्वी को स्थिर मान कर और सूर्य को चर मानकर चलने में कुछ गरिणत सम्बन्धी कठिनाइयाँ पैदा बुध पृथ्वी चन्द्रमा सूर्य मंगल शनि वृहस्पति प्राचीन' गणिताचार्य प्रायः सभी इस अभिमत की एक स्वर मे पुष्टि करते हैं । the Copernicus is far the simpler. Around a fixed earth the sun and moon describe almost circulas paths but the paths of sun,s planets and of their satellites are complex curly lines difficule for the mind to grasp and onward to deal with in calculation while around a fixed sun the more important paths are almost circular. - - Relativity and Commonsense by Denton. १. बराह मिहिर – चन्द्रादूर्ध्वबुधसितर विकुजजीवार्कजास्ततो भानि । प्राग्गतयस्तुल्यरूपा जवाग्रहास्तु सर्व स्वमंडलगाः ॥ - पंडपि० ० अ० १३, श्लोक २६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती हैं और सूर्य को स्थिर व पृथ्वी को चर मान लेने में कुछ गणित सम्बन्धी सुविधायें मिलती हैं। भ-भ्रमण पर जो बल दिया जा रहा है वह गणितज्ञों का सुविधावाद है। इसमें रस लेने वाले समझते हैं कि प्राचीन ग्रह कक्षाओं में और नूतन ग्रह वेत्ताओं में इस सम्बन्ध को लेकर कोई अधिक उथल-पुथल नहीं हुई है । भारतीय व अभारतीय प्राचीन व्यवस्था में पृथ्वी केन्द्र है और चन्द्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल बृहस्पति तथा शनि क्रमश: अपनी-अपनी कक्षा पर घूमते हैं । सौर केन्द्रिक जगत् की कक्षायें केन्द्र का परिवर्तन होकर इस प्रकार बनती हैं-केन्द्र में सूर्य और तत्पश्चात् क्रमशः बुध, शुक्र, पृथ्वी मंगल, बृहस्पति, शनि ये छः ग्रह हैं। चन्द्रमा को नवीन विज्ञान में ग्रह नहीं माना है। वह पृथ्वी की परिक्रमा करता है, इस लिये पृथ्वी का उपग्रह है। नवीन कक्षा व्यवस्था में तीन ग्रह बूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो (बारुणी, वरुण और यम ) और जोड़े गये हैं। आज सूर्य चलता है या पृथ्वी यह विषय अधिक महत्व लल्लाचार्य-चन्द्र, न, भार्गव, दिनेश, कुचार्य सौरिभानिधिते क्रमत उध्र्वगतिस्थितानि। -शि• • बम्बमाधिकारी खोक १२ । भास्कराचार्य-भूपेः पिण्ड शशांकज कवि रवि कुज्याकि नक्षत्रकक्षा। -सिद्धान्त शिरोमणि गोमायाग भुवनकोष २ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) नहीं रखता। लिओपोल्ड इन् पोल्ड लिखते हैं-'एक अाधुनिक भौतिक विज्ञान वेत्ता यदि टोलेमी ओर कोपरनिकस के बस्पति मंगल अबुधक्र पृथ्वी सिद्धान्तों को मानने वालों के बीच होते हुए वार्तालाप को सुने तो सम्भवतः वह कटाक्षपूर्ण हंसी किये बिना न रहेगा। सापेक्ष वाद के सिद्धान्त ने विज्ञान में एक नई बात उपस्थित कर दी Yet a modern physicist, listening to a discussion between supporters of the respective theories of Ptolemy and Copernicus might well be tempted to a sceptical smrile The Theory of Relativity has introduced a new factor into science and revealed that a new aspect of deci Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २= ) है । यह जान लिया गया है कि कोपरनिकस के मत में टोलेमी के मत के सम्बन्ध में निर्णय करना अब निरर्थक है । और वास्तव में दोनों के सिद्धान्तों की विशेषता अब महत्व नहीं रखती है | चाहे हम यह कहें कि पृथ्वी घूमती है और सूर्य स्थिर है या पृथ्वी स्थिर है और सूर्य घूमता है, दानों ही अबस्था में हम ऐसो बात करते हैं जिसका कोई अर्थ नहीं । कोपरनिकस की महान खोज आज केवल इतने ही वक्तव्य में समाने जितनी हो गई है कि कुछ एक प्रंसगों में यह अधिक सुविधाजनक है कि नक्षत्र की गति का सम्बन्ध सूर्य के साथ जोड़ वनस्पत इसके कि उसे पृथ्वी के साथ जोड़ा जाय ।" ding between the copernican view and that of Ftolemy is pointless and that in fact the proposition of both of them have lost thier significance, whether we say. "The earth moves and the sun is at rest" or "The earth is at rest and the sun moves," in either case. We are saying something which really conveys nothing. Copernicus's great discovery is today reduced to the modest statement that in certain cases it is more convenient to relate the motion of heavenly bodies to the solar than to the terrestrial system. Tic World in Modern Seince by leopoled Infelfd. p 18 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्सजोन्स के शब्दों में उक्त गणितिक सुविधा का इतिहास यह है "विज्ञान का इतिहास ऐसी नाना परिस्थितियों को प्रस्तुत करता है जिन पर तर्कवितर्क होते रहे हैं । टोलमी और उसके अन्य अनुयायियों ने चक्र और उरचक ( Cycles and Epicycles ) का निर्माण किया, और उसके अनुसार वे ग्रहों की भविष्यकालीन स्थिति बताने में सफल रहे। १३ वीं शताब्दी में क्रस्टायल एलफान्जो नामक व्यक्ति ने कहा था कि यदि विश्व की रचना ऐसी जटिल है जैसी कि हम अब तक जान रहे हैं, यदि विधाता उस समय मेरी सलाह लेता तो उसे मैं एक अच्छी सलाह दे सकता था। कुछ समय बाद कोपरनिकस ( Copernicur ) ने यह माना कि टोलेमी का सिद्धान्त इतना जटिल है कि वह सच्चा नहीं लगता। वर्षों के विचार और श्रम के बाद उसने बताया कि ग्रहों की गति अधिक सुगमता से बताई जा सकती है यदि उसकी गति संबन्धी भूमिका बदल दी जाये। टोलेमी ने पृथ्वी को स्थिर माना था । कोपरनिक्स ने सूर्य को स्थिर माना । किन्तु अब हम । मानते हैं कि सूर्य पृथ्वी की अपेक्षा अधिक स्थिर एकान्त रूप से नहीं माना जा सकता । जैसे-पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है ऐसा माना जाये तो सूर्फ़ भी उन लाखों और करोड़ों तारों में से एक ताराह जो सारे मिल कर एक ग्लेस्टिक सिस्टम बनाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं और अपने केन्द्र के चारों ओर एकसाथ घूमते हैं । इस ग्लेस्टिक सिस्टम का केन्द्र भी स्थिर नहीं माना जा सकता है; क्यों कि लाखों को संस्था में ग्लेस्टिक सिस्टम का केन्द्र भी स्थिर नहीं माना जा सकता हैं; क्यों कि तारों की संख्या में ग्लेस्कि सिस्टम आकाश में दिखाई दे रहे हैं जो हमारे ही ग्लेस्टिक सिस्टम के बराबर हैं और सबके सब ग्लेस्टिक सिस्टम अपने ग्लेस्टिक सिस्टम की अपेक्षा से और दूसरे की अपेक्षा से गति करते हैं। एक भी ग्लेस्टिक सिस्टम स्थिर नहीं है जो सबका केन्द्र या गति का मापदण्ड बन सकता हो। तो भी हम मान लें कि सूर्य स्थिर है न कि पृथ्वी। तो बहुत सारी उलझनें दूर हो जाती हैं। एकान्त दृष्टि में न सूर्य स्थिर है और न पृथ्वी। फिर भी एक दृष्टि से पृथ्वी स्थिर सूर्य के आसपास घूमती है, यह सत्य के अधिक समीप है वनस्पति सूर्य एक स्थिर पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। कोपरनिकस को भी कुछ एक उपचक्र (EpicJcles) मानने पड़े। दृश्य तथ्यों के साथ अपने सिद्धान्तों का संतुलन रखने के लिए यह इसका अनिवार्य परिणाम था कि ग्रहों की कक्षायें गोल थीं। कोपरनिकस ने या और किसी ने अरिस्टोटल के वर्तुंलाकार कक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त का खण्डन करने का साहस नही किया । केपलर ने कोपरनिकस के वर्तुल सिद्धान्त के स्थान पर अण्डाकार कक्षा को सिद्धान्त माना। तब से उपचक्र (Epicycles) का सिद्धान्त अनावश्यक हो गया और ग्रहों की गति का सिद्धान्त अत्यन्त सरल हो गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) यह सिद्धान्त शताब्दियों तक चलता रहा । उससे भी अधिक सरलता आईस्तीन के प्रापेक्षवाद सिद्धान्त ने दी। {The history of science provides many instances of situations such as we have been discussirg. To begin with the most obvious Ptolemy and his Arabian successors built up the famous system of cycles and epicyclcles wbich ena. bled them 10 predict the future positions of the planets. Many, indeed felt that it was too complex to correspond to the ultimate facts. In the thirteenth century, Alphonso X of castille is reported to bave said that if the heavens were really like that, 'I could have given the Deity good advice, had He cousulted me at their creation. At a later date Copernicus also thought the Ptolemaic system too complex to be true and after yearəs of thought and labour, showed that the planetary motions could be deseribed much more simply if the background of the motions were changed. Ptolemy bas assumed a fixed earth; Comperuicus substiuted a fixed Sun. We now know that the Sun can no more be said to be at rest, in any absolute sense, than the earth; it is one of the thousands of millions of stars which together form the galactic system, and it moves round the centre of this system just as the earth moves round the Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) पूर्व और पश्चिम के उल्लिखित अनुसन्धानों से हमें यही रहस्य मिलता है कि उनका मुख्य लक्ष्य पृथ्वी चलती हैं या सूर्य यह न होकर ग्रह गरणों की स्थिति में प्राकृतिक नियमों से जो centre of the solar system. And even this centre of the galactic system cannot be said to be at rest. For millions of galactic systems can be seen in the sky, all pretty much like our and all in motien relative to our own galaxy and to one another. No one of all these galaxies has a better claim than any other to constitute a standard 'rest' from which the 'motions' on the others can be measured. Nevertheless, many complicatons are avoided by imagining that the sun and not the earth is at rest. Neither the sun nor the earth is at rest in any absolute sense and yet it is, in a sense, nearer to the truth to say that the earth moves round a fixed sun than to say that the sun moves round a fixed earth. 1 Copernicus had still to retain a few minor epicycles to make his system agree with the facts of observation. This, as we now know, was the inevitable consequence of his assumption that the planetary orbits were circular; neithers he nor any one else had so far dared to challange Aristotle's dictum that the plantes must necessarily move in circular orbits, because the circle was the only perfect course. As Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ हो रहा हैं उसका मूल सूत्र कहाँ हैं यह रा हैं । इसी का परिणाम यहाँ तक पहुँचा कि सर्य को मध्य बिन्दु मान लेना कुछ पारिपतिक सुविधायें उत्पन्न करता है। स्थिर और चर की अपेक्षा में सत्य क्या है यह विषय आज भी वैज्ञानिकों की आँखों से प्रोझल हैं । पृथ्वी ही चलती हैं इसे मानकर जो वैज्ञानिक प्रागे बढ़े आईस्टीन के युग ने उन्हें एक कदम पुनः पीछे की ओर खिसका लिया है। -soon as Kepler substituted ellipsed for the copernician circles, epicycles were seen to be unnecessary, and the theory of planetary motions assumed an exceedingly simple form-the form it was to retain for more than threce cento uries, untill an even greater simplicity was imparted to it by the relativity theory of Einstein, to vbich we shall come in a moment." Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) भूगोल- भ्रमण - सिद्धांत और प्राचीन भारतीय विद्वान् उपर्युक्त विवेचन से पृथ्वी की गोलाई एवं गतिशीलता की बात अपूर्ण भ्रामक प्रतीत होती है । इस लिये भूगोल संबंधी वैज्ञानिक मान्यताएँ परिहार्य हो जाती हैं । क्यों कि यदि भूगोल - भ्रमरणवाद को प्राधान्य दिया जाय तो आत्मवाद के आधार स्वरूप आत्मा, पुण्य, पाप, स्वर्ग नरक आदि वस्तुएँ श्रद्धय बन जाँय । श्रतः भूगोल भ्रमणवाद अनात्मवाद का पूरक प्रतीत होता है । भारत में ई० भूगोल- भ्रमरण इसी लिये पाश्चात्य वैज्ञानिकों से भी पहले सन् ४७६ में आर्यभट्ट नामक विद्वान् ने इस सिद्धान्त को प्रस्थापित किया था, किन्तु वह यहाँ भारत में पनपा नहीं; चूँकि उसकी आधारशिला अनात्मवाद थी । अतएव पं० श्री वराहमिहिर, श्रीपति, आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी आदि ने पृथ्वी सम्बन्धी चरवादियों के तात्कालिक तर्कों का सुस्पष्ट समाधान किया है और साथ ही उनका खण्डन भी किया है । भारत में इस मान्यता का आरम्भ यूरोप और अमेरिका खण्ड की खोज से पहले भी अस्तित्व रखता तो था ही । पृथ्वी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चर होने की मान्यता को श्वेतवैज्ञानिकों ने ही खोज की है ऐसा मानना युक्ति-संगत नहीं है, किन्तु स्थिरवादियों का वर्चस्व था और चरवादियों के तर्कों का सुसम्बद्ध तर्कों द्वारा समाधान किया जाता था, इस कारण यह मान्यता भारत में अधिक विकसित नहीं हो पाई। इसके बीज गहराई में नहीं पहुँच सके किन्तु पृथ्वी के चर होने की मान्यता तो थी ही। अब इस विषय पर दृष्टिपात करें: भूगोलवेगजनितेन समोरणेन प्रासादभूधरशिरांस्यपि सम्पतेयुः । भूगोलवेगजनितेन; समीरणेन, केत्वादयोऽत्वपरदिग्गतयः सदाम्स्युः ।। -पण्डित श्री श्रीपति पृथ्वी के भ्रमणजन्य वेग से उत्पन्न होने वाले वायु के द्वारा बड़े मकानों और पर्वतों के शिखर अवश्य ही गिर जाएँ, तथा ध्वजा आदि भी सदा पश्चिम दिशा की ओर ही फरकती रहनी चाहिये। तीव्र वेग होने के कारण किसी भी वस्तु का स्थिरता होना असंभव हो जाता। यथोष्णतानिलयोश्च, शीतसा, विज्ञ, इतिः के कठिनत्वमश्मनि मरुषलो भूरचला स्वभावतो, पतो विचित्रा बत ! वस्तु शक्तयः ।। -श्री सिद्धान्त शिरोमणि, गोलाध्याय श्लोक ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार सूर्य और अग्नि में उष्णता हैं, चन्द्रमा में शीतलता है, पानी में द्रवता है, पत्थर में कठोरता है और वायु में चञ्चलता है इसी प्रकार पृथ्वी अपने स्वभाव से ही स्थिर है। वस्तुओं की शक्तियाँ विचित्र प्रकार की होती हैं । "स्थिरत्व यह पृथ्वी का स्वभाव है।" भ्रामति भ्रम स्थितेव क्षितिरित्यपरे वदन्ति नोडुगणः। क्यक भ्योनादयो न खान: स्वनिलयमुपेयुः ।। श्री वराहमिहिर पंच० सि० अ० १२-६ कुछ विद्वान् कहते हैं कि पृथ्वी घूमती है और तारा-ग्रह गरण नहीं घूमते हैं, यदि ऐसा ही हो, तो अपने घोंसले को छोड़ कर आकाश में उड़े हुए पी कुछ समय के पश्चात् घोंसले में पुनः किस प्रकार आ सकते हैं । पदि च भ्रमति क्षमा वदा, स्वकुलार्य कथमाप्नुयुः खगाः। इषवोऽपि नभः समुज्झिता, निफ्तन्तः सुखमापतेदिशः। पूर्वाभिमुखे भ्रमे भुवो बहणाशाभिम खो व्रजेद धनः । अथ मन्दगमात् तदा भवेत् कथमेकेन दिवा परिभ्रमः॥ -शि० वृ० गो० मध्याधिकार श्लोक ४२-४३ यदि पृथ्वी भ्रमण करती हो, तो पक्षी अपने घोंसलों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापस कैसे आ सकते हैं ? आकाश में फेंके गये वाण विलीन क्यों नहीं हो जाते ? अथवा बाण को पूर्वाभिमुख फेंका हो, तो उसे पश्चिमाभिमुख बन जाना चाहिये ? पृथ्वी को गति मन्द है, अतः यह सब नहीं होता, ऐसा कहा जाय तो एक दिन में पूर्ण गोल कैसे फिर सकती है ? एक रात-दिन में इसका परिभ्रमरण कैसे सम्भव हो सकता है ? * __ भ्रमण का सिद्धान्त प्रत्यक्ष बाधित है, पृथ्वो घूमती है इसका निर्णय प्रत्यक्ष से नहीं होता है क्यों कि पृथ्वी स्थिर है ऐसा अनुभव सभी कर सकते हैं इस लिये भू-भ्रमण के सिद्धान्त को एक प्रकार का भ्रम भी नहीं कह सकते, क्यों कि *नहि प्रत्यक्षतो भूमे भ्रमण-निर्णीतिरस्ति । स्थिरतयवानुभवात् । न चायं भ्रान्तः, सकलदेशकालपुरुषाणां तद् भ्रमणाऽप्र. तीतेः । कस्यचिन्नावादि-स्थिरत्वानु-मवस्तु प्रान्तः । परेषां तभ्रमणानु. भवेन बाधनात् । नापि अनुपानतो भू-म्रमण-विनिश्चयः कर्तुं सुशकः । तदविना भाविलिङ्गाभावात् । स्थिरे प्रवके सूर्योदयास्तसमयमध्याह्नादि भूगोलभ्रमणेऽविनाभावि लिङ्गमिति चेद्, न, तस्य प्रमाण बाधितविषय. त्वात् । पावकानोण्यादिषु द्रव्यत्वादिवत् । भचक्र प्रमणे सति भूभ्रमणमन्तरेणपि सूर्योदयादि प्रतीत्युपपत्तेश्च । ( श्री तत्त्वार्थ सूत्र श्लोक वा तका अध्याय ४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) सर्वदेश और सर्वकाल में सर्व पुरुषों को भू-भ्रमण होता है ऐसा अनुभव नहीं होता। किसी ( नौका आदि में बठे हुए) को नौका स्थिर है ऐसा अनुभव होता अवश्य है, किन्तु यह स्थिरता का अनुभव भ्रमपूर्ण है क्यों कि दूसरों को ( दूसरी नौका में बैठे हुए व्यक्तियों को अथवा किनारे पर रहने वालों को ) नौका आदि के भ्रमण का अनुभव होता है। ( इस तर्क से ) नौका की स्थिरता का अनुभव मिथ्या ठहरता है। अनुमान प्रमाण से भी भू-भ्रमण का निश्चय करना सम्भव नहीं है । क्यों कि ऐसे प्रकार का अबिनाभावी लक्षण जाना नहीं जा सकता। यदि ऐसा कहा जाए कि नक्षत्र-तारा समूह स्थिर हैं गौर सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्याह्न आदि जो होते हैं वे भूगोलभ्रमण द्वारा होते हैं और यह अविनाभावी लक्षण है, तो यह त तनिक भी उचित नहीं है क्यों कि यह विषय प्रमाणावधित बन जाता है। कोई ऐसा कहे कि उष्ण है इस लिये प्रग्नि द्रव्य है, तो उसको यह भी मानना पड़ेगा कि ठंडा होने से जल भी द्रव्य है। इस पद्धति में उष्णता के समान शीलता भी द्रव्य की सिद्धि का कारण बन सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार नक्षत्रगण के भ्रमण से पृथ्वी स्थिर होते हुए भी सूर्योदयास्त आदि की प्रतीति हो सकती है और यह वस्तु मानने योग्य भी है। * पृथ्वी भ्रमणशील नहीं है । पृथ्वी में गुरुत्व और स्थितिस्थापक धर्म विद्यमान हैं अतः वह गति नहीं कर सकती। जो भ्रमणशील है, वह गुरुत्व और स्थिति स्थापकत्व गुण से युक्त नहीं हो सकता । जैसे कि वायु और अग्नि । वायु में गुरुत्व नहीं है इस लिये वह स्थिर नहीं है । अग्नि में स्थितिस्थापकत्व नहीं है इस लिये वह भी स्थिर नहीं है। पृथ्वी में ऐसा नहीं होता, इस लिये पृथ्वी भ्रमणशील नहीं है। यद्यपि श्रीवराह मिहिर और श्रीपति के तर्कों का खण्डन आज अन्य तर्कों द्वारा किया जाता है किन्तु वह खण्डन कितना अपूर्ण है इसका विचार आगे किया जाएगा। *पृथ्वी न प्रगतिमती । गुरुत्व-स्थिति स्थापकोभयगुणवत्त्वात् । प्रगतिमत्, यत् न तद् गुरुत्व स्थितिस्थापकेत्युभयगुणवत् । यथा वायु तेजसी । न चेयं तथा । तस्मात् न तप्यति ॥ -सूर्यगतिविज्ञान पृ० ८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) उपसंहार स्पष्ट करना है कि स्थिरता - वादियों के इस बिषय के उपसंहार में इतना विज्ञानवादियों के प्रत्येक समाधान पर अनेक प्रश्न अभी समाधान के स्वरूप को प्राप्त नहीं हुए हैं । और विज्ञानवादियों के प्रश्नों का स्थिरतावादी बराबर उत्तर देते हैं जब कि उत्तर के ध्रुव तारा सम्बन्धी प्रश्नों को विज्ञान वादी तनिक भी स्पर्श नहीं करते हैं और गुरुत्वाकर्षण तथा वातावरण के सिद्धान्त तो अपूर्ण हैं । साथ ही वैज्ञानिक स्वयं अनेक वस्तुनों के बारे में कहते हैं कि हमारा यह निर्णय अपरिवर्तनीय और अन्तिम नहीं हैं । इसमें परिवर्तन होने की सम्भावनाएँ शेष हैं । किन्तु हमारे यहाँ अनेक बुद्धिशाली जन इसको अन्तिम और अपरिर्बतीय निर्णय मान लेते हैं । परन्तु इस प्रकार अपनी बुद्धि के द्वार स्वयं ही बन्द कर देना यह समुचित नहीं हैं । सभी को विचार करना चाहिये कि - विज्ञान पर सर्वाधिक श्रद्धा रखने की अपेक्षा अपने भारतीय आगमों और वेदों पर श्रद्धा रखने में कौन-सा अनर्थ है ? आगमों और वेदों को सापेक्षता समझ में आएगी तो हमें तनिक भी कठिनाई नहीं होगी मुझे तो श्रद्धा में अत्यन्त लाभ दिखाई देता है, परन्तु सब के लिये स्वतन्त्र विचार की आवश्यकता रहती है । सम्यग् ज्ञान की ज्योति में सभी सत्य पदार्थों को देखें, यही आन्तरिक अभिलाषा है । इस विषय में परमात्मा की आज्ञा से कुछ विरुद्ध लिखा गया हो, तो मैं क्षमा चाहता हूँ । ॥ ओम् शान्ति ॥ मुद्रक :- त्रिलोकीनाथ मीतल, अग्रवाल प्रेस, मथुरा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ allobllo tenrope वर्तमान विज्ञान की बातों के एवं शास्त्रीय बातों के त --की दिशा में प्रेरक / 1. भूगोल-विज्ञान-समीक्षा- (प्राचीन विच। नागा गया 2. सोचो और समझो-(पृथ्वी के गोल आकार एवं भ्रमण के बारे में विज्ञान द्वारा प्रस्तुत कतिपय तर्कों का बुद्धिगम्य निराकरण) / 3. क्या पृथ्वी का आकार गोल है ? - (विज्ञान की कसौटी पर आवश्यक विश्लेषण) 4. पृथ्वी को गतिः एक समस्या 5. प्रश्नावली हिन्दी-(पृथ्वी के आकार एवं भ्रमण के विषय में) 6. प्रश्नावली-गुजराती / 7. प्रश्नावली-अंग्रेजी ( 8. शुए खरू हशे? (गुजराती) (भौगोलिक तथ्यों (!) के बारे में परिसंवाद) 8. कौन क्या कहता है ? भाग-१-२ (पृथ्वी की गति और आकार आदि के बारे में लब्ध प्रतिष्ठ भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों का संकलन) इस विषय के अधिक विमर्श के लिये नीचे लिखे पते पर पत्र व्यवहार करें पूज्य मुनिराज श्री अभयसागर जी महाराज पुस्तक प्राप्तिस्थान c/o पं० रतिलालजी दोशी सेठ पूनमचन्द्र पानाचन्द्र शाह दिलीप नोवेल्टी स्टोर्स कायवाहक जम्बूद्वीप निर्माण योजना पो० प्रॉ० महेसाणा दलाल वाड़ा, पो० कपडवंज जि० अहमदाबाद जि० खेडा (गुजरात) (गुजरात) आवरण मुद्रक-त्रिलोकी नाथ मीतल, अग्रवाल प्रेस, मथुरा Shree Sudharmaswami Gyanbbandar-Umara Surat www.umeragyanbhandar.com