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के चर होने की मान्यता को श्वेतवैज्ञानिकों ने ही खोज की है ऐसा मानना युक्ति-संगत नहीं है, किन्तु स्थिरवादियों का वर्चस्व था और चरवादियों के तर्कों का सुसम्बद्ध तर्कों द्वारा समाधान किया जाता था, इस कारण यह मान्यता भारत में अधिक विकसित नहीं हो पाई। इसके बीज गहराई में नहीं पहुँच सके किन्तु पृथ्वी के चर होने की मान्यता तो थी ही। अब इस विषय पर दृष्टिपात करें:
भूगोलवेगजनितेन समोरणेन प्रासादभूधरशिरांस्यपि सम्पतेयुः । भूगोलवेगजनितेन; समीरणेन, केत्वादयोऽत्वपरदिग्गतयः सदाम्स्युः ।।
-पण्डित श्री श्रीपति पृथ्वी के भ्रमणजन्य वेग से उत्पन्न होने वाले वायु के द्वारा बड़े मकानों और पर्वतों के शिखर अवश्य ही गिर जाएँ, तथा ध्वजा आदि भी सदा पश्चिम दिशा की ओर ही फरकती रहनी चाहिये। तीव्र वेग होने के कारण किसी भी वस्तु का स्थिरता होना असंभव हो जाता।
यथोष्णतानिलयोश्च, शीतसा, विज्ञ, इतिः के कठिनत्वमश्मनि मरुषलो भूरचला स्वभावतो, पतो विचित्रा बत ! वस्तु शक्तयः ।।
-श्री सिद्धान्त शिरोमणि, गोलाध्याय श्लोक ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com