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भूगोल- भ्रमण - सिद्धांत और प्राचीन भारतीय विद्वान्
उपर्युक्त विवेचन से पृथ्वी की गोलाई एवं गतिशीलता की बात अपूर्ण भ्रामक प्रतीत होती है । इस लिये भूगोल संबंधी वैज्ञानिक मान्यताएँ परिहार्य हो जाती हैं । क्यों कि यदि भूगोल - भ्रमरणवाद को प्राधान्य दिया जाय तो आत्मवाद के आधार स्वरूप आत्मा, पुण्य, पाप, स्वर्ग नरक आदि वस्तुएँ श्रद्धय बन जाँय । श्रतः भूगोल भ्रमणवाद अनात्मवाद का पूरक प्रतीत होता है ।
भारत में ई०
भूगोल- भ्रमरण
इसी लिये पाश्चात्य वैज्ञानिकों से भी पहले सन् ४७६ में आर्यभट्ट नामक विद्वान् ने इस सिद्धान्त को प्रस्थापित किया था, किन्तु वह यहाँ भारत में पनपा नहीं; चूँकि उसकी आधारशिला अनात्मवाद थी । अतएव पं० श्री वराहमिहिर, श्रीपति, आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी आदि ने पृथ्वी सम्बन्धी चरवादियों के तात्कालिक तर्कों का सुस्पष्ट समाधान किया है और साथ ही उनका खण्डन भी किया है ।
भारत में इस मान्यता का आरम्भ यूरोप और अमेरिका खण्ड की खोज से पहले भी अस्तित्व रखता तो था ही । पृथ्वी
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