Book Title: Arthashastra aparnama Rajsiddhanta
Author(s): Kautilya Acharya, 
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला ***********[ ग्रन्थांक ४७ ]•********** संस्थापक स्व० श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी * प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि योग्घम - नामाचायर्रचित नीतिनिर्णीतिनाम्नी कौटलीय - राजसिद्धान्त - टीकासंयुक्त अर्थशास्त्र श्री डाली निघो वि. सं. २०१६] आचार्य कौटल्यकृत अपरनाम • राजसिद्धान्त ( कतिपय त्रुटित अंशमात्र ) • संपादनकर्ता पुरातत्त्वाचार्य, जिन विजय मुनि (निवृत्त - ऑनररि डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन ) “[ प्रकाशनकर्ता ]...** सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई. ७ 5 ***** [ मूल्य रू. ४/४० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 44 स्वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी श्री बाबू जन्म - वि. सं. १९२१, मार्ग. वदि ६ 'बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्यश्लोक पिता स्वर्गवास - वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ThilUIT ARARIA RELtwaltilittuttiatioindiNTRE दानशील-साहित्यरसिक - संस्कृतिप्रिय ख० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी अजीमगंज-कलकत्ता जन्म ता. २८-६-१८८५] ता. ७-७-१९४४ D பெயாயாம் பயாவைப்பயன் URATRAILERRAIAD ESIHALALIMITRAMATIPRITALIRI, SHRIllyHIRI c on international For Private & Personal use only www.janeiro Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला ***********[ ग्रन्थांक ४७] **** आचार्य योग्यमविरचित नीतिनिर्णीतिनानी कौटलीय राजसिद्धान्त टीका संयुक्त आचार्य कौटल्य कृत अर्थशास्त्र - अपरनाम - राजसिद्धान्त [कतिपय त्रुटित अंशमात्र] La -MOREA - -- a SRI DAICHAND JI SINGHT ILLLLLLLTATION .n.to- Wwwwwwwwwwwww४७ th................ 卐 श्री दालेचदजी सिंधी ..... .. SINGHI JAIN SERIES ####*****[NUMBER 47]********************* A FRAGMENT OF THE KOUTALYA'S ARTHA SASTRA With the commentary of Yagghama Acharya Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला [जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर,- राजस्थानी आदि नाना भाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन वाङ्मय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि] प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंधीसत्पुत्र ख. दानशील - साहित्यरसिक -संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी SRISALAHER SICHANA SIMU S धामी बदादरी मिश्री प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जि न वि जय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर भारतीय विद्या भवन, बम्बई ऑनररी संस्थापक-डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर (राजस्थान) ऑनररी मेंबर जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर (पञ्जाब) संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी अधिष्ठाता, सिं घी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्याभवन, बम्बई प्रकाशक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कौटल्यकृत अर्थशास्त्र - अपरनाम - राजसिद्धान्त ( मुग्धविलासाङ्क आचार्य योग्यमविरचित नीतिनिर्णीतिनाम्नी व्याख्या समन्वित तथा बहुविध प्राचीन टिप्पनकसंयुक्त) [ कतिपय त्रुटित अंशमात्र ] देवनागर लिपिलिखित - सर्वथा अद्वितीयखरूप - प्राचीनतम ताडपत्रीय पुस्तकाधारेण संपादनकर्ता मुनि जिन विजय ( प्रोफेसर श्री दामोदर धर्मानन्द कोसंबी लिखित प्रास्ताविक निबन्धयुक्त ) 146922 विक्रमाब्द २०१५ ] ग्रन्थांक ४७ ] 55 प्रकाशनकर्ता अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्याभवन, बम्बई प्रथमावृत्ति सर्वाधिकार सुरक्षि भाभवन अ बंबई [ ख्रिस्ताब्द १९५९ [ मूल्य रु० ४/४० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSHA AND OLD RAJASTHANIGUJARATI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS ESTABLISHED IN THE SACRED MEMORY OF THE SAINT LIKE LATE SETH ŚRI DALCHANDJI SINGHI OF CALCUTTA BY HIS LATE DEVOTED SON DANASILA-SAHITYARASIKA-SANSKRITIPRIYA ŚRI BAHADUR SINGH SINGHI DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ACHARYA JINA VIJAYA MUNI ADHIṢTHATÄ, SINGHI JAIN SASTRA SIKSHA PITHA (Retired Honorary Director, Bharatiya Vidya Bhavana, Bombay.) Honorary Founder-Director, Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur; General Editor, Rajasthan Puratan Granthamala; etc. (Honorary Member of the German Oriental Society, Germany; Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona; Vishveshvranand Vaidic Research Institute, Hosiyarpur; and Gujarat Sahitya Sabha, Ahmedabad.) PUBLISHED UNDER THE PATRONAGE OF ŚRI RAJENDRA SINGH SINGHI AND ŚRİ NARENDRA SINGH SINGHI BY THE ADHISTHĀTĀ SINGHI JAIN SHASTRA SHIKSHAPITH BHARATIYA VIDYA BHAVAN, BOMBAY Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A FRAGMENT OF THE KOUTALYA'S ARTHASASTRA alias RAJĀSIDDANTA With the fragment of the commentary named Nitinirņīti of Achārya Yogghama alias Mugdhavilāsa Based on only available an old palm-leaf fragmentary Manuscript in Devanagari Script of 12th Century. Edited with veriant readings and old țippanakas by MUNI JINA VIJAYA Preface by Prof. D. D. KOSAMBI PUBLISHED BY Adhisthata, Singhi Jain Sastra Siksapitha BHĀRATİYA VIDYA BHAVANA BOMBAY V. E. 2015) First Edition [A. D. 1959 प्रकाशक - जयन्तकृष्ण ह. दवे, ऑनररी डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बम्बई, नं. ७ मुद्रक - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाट स्ट्रीट, बम्बई, नं. २ Vol. No. 47] [Price Rs. 4/40 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ . . . . . अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ बहवो निवसन्त्यत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसम्मान्या धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सञ्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एव गतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रीयया सद्बुद्ध्या सद्वृत्त्या च सनिष्ठया । उपायं विपुलां लक्ष्मी कोट्यधिपोऽजनिष्ट सः ॥ तस्य मनुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । जाता पतिव्रता पत्नी शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादरसिंहाख्यो गुणवाँस्तनयस्तयोः । सातः सुकृती दानी धर्मप्रियश्च धीनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवता तेन पत्नी तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यचन्द्रेण भासितं तत्कुलाम्बरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्य ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् दक्षिणबाहुवत् पितुः ॥ नरेन्द्र सिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुर्वीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवस्तस्याभवन् स्वस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धः सन् स राजेव व्यराजत ॥ अन्यच्चसरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्यासीत् सदाचारी तच्चित्रं विदुषां खलु ॥ नाहंकारो न दुर्भावो न विलासो न दुर्व्ययः । दृष्टः कदापि यद्गेहे सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां स विनीतः सजनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽभूत् प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽसौ विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादि-साहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ।। समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचाराय च शिक्षाया दत्तं तेन धनं धनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दत्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहिताश्च कर्मठाः॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । अकरोत् स यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं स कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग-ज्ञानरुचिः स्वयम् । तस्मात् तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थ यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धेयानां स्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति नि के त ने । सिंघीपदाङ्कितं जैन ज्ञान पीठ मतिष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयः प्राज्ञो मुनिनाम्ना च विश्रुतः । स्वीकर्तुं प्रार्थितस्तेन तस्याधिष्ठायकं पदम् ॥ तस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूय मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण स्वीयपावनपाणिना । रस-नागाङ्क-चन्द्राब्दे तत्प्रतिष्ठा व्यधीयत ॥ प्रारब्धं मुनिना चापि कार्य तदुपयोगिकम् । पाठनं ज्ञानलिप्सूनां ग्रन्थानां ग्रथनं तथा ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसा तेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्यसुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नैकेषां विदुषां तथा । ज्ञानाभ्यासाय निष्कामसाहाय्यं स प्रदत्तवान् ॥ जलवाय्वादिकानां तु प्रातिकूल्यादसौ मुनिः । कार्य त्रिवार्षिकं तत्र समाप्यान्यत्रावासितः ॥ तत्रापि सततं सर्व साहाय्यं तेन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशाय महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नन्दे-निध्यङ्क-चन्द्राब्दे कृता पुनः सुयोजना । ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्तराय च नूतना ॥ ततो मनेः परामर्शात सिंघीवंशनभस्वता। भाविद्याभव ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ भासीत्तस्य मनोवाञ्छाऽपूर्वग्रन्थप्रकाशने । तदर्थ व्ययितं तेन लक्षावधि हि रूप्यकम् ॥ दुर्विलासाद् विधेर्हन्त ! दौर्भाग्याचात्मबन्धूनाम् । स्वल्पेनैवाथ कालेन स्वर्ग स सुकृती ययौ ॥ विधु-शून्य-खं-नेत्रा-ब्दे मासे आषाढसझके । कलिकातानगयां स प्राप्तवान् परमां गतिम् ॥ पितृभक्तैश्च तत्पुत्रेः प्रेयसे पितुरात्मनः । तथैव प्रपितुः स्मृत्यै प्रकाश्यतेऽधुना त्वियम् ॥ सैषा ग्रन्थावलिः श्रेष्ठा प्रेष्टा प्रज्ञावतां प्रथा । भूयाद् भूत्यै सतां सिंघीकुलकीर्तिप्रकाशिका ॥ विद्वजनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके श्रीसैंधी ग्रन्थमालिका ॥ MY Mrr 9 . M r mmon mmmmm .७.०० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः ॥ २ R 4 6 . . स्वसि श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नाम्नी पुरिका यत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्धयभूमिपः ॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिभाक् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले । किं वय॑ते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक् सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाणी प्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्रव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः । रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामाऽत्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः॥ मागतो मरुदेशाद् यो भ्रमन् जनपदान बहून् । जातः श्रीवृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढः स्वगृहात् सोऽथ यदृच्छया विनिर्गतः ॥ तथा चभ्रान्स्वा नैकेषु देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा जातो जैनमुनिस्ततः ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्वगवेषिणा ॥ भारिप-विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न-नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैके ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः ॥ बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च स सत्कृतः । जिनविजयनाम्नाऽयं विख्यातः सर्वत्राभवद् ॥ तस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयः शिक्षणालयः । विद्यापीठ इति ख्यात्या प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ भाचार्यत्वेन तत्रोच्चैर्नियुक्तः स महात्मना । रस-मुँनि-निधीन्द्वब्दे पुरा त त्वा ख्य मन्दि रे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत् पदं ततः। गत्वा जर्मनराष्ट्रे स तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत भागत्य सल्लग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन स्वातन्त्र्यसङ्गरे ॥ क्रमात् ततो विनिर्मुक्तः स्थितः शान्ति नि के त ने । विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंघीपदयुतं जैन ज्ञानपीठं तदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यथ निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च तस्यासौ पदेऽधिष्ठातृसञ्ज्ञके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे ह्येषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ भथैवं विगतं तस्य वर्षाणामष्टकं पुनः । ग्रन्थमालाविकासादिप्रवृत्तिषु प्रयस्यतः ॥ बाणेरने-नेवेन्द्वन्दे मुंबाईनगरीस्थितः । मुंशीति बिरुदख्यातः कन्हैयालाल-धीसखः ॥ प्रवृसो भारतीयानां विद्यानां पीठनिर्मितौ । कर्मनिष्ठस्य तस्याभूत् प्रयत्नः सफलोऽचिरात् ॥ विदुषां श्रीमतां योगात् पीठो जातः प्रतिष्ठितः । भारतीय पदोपेत विद्या भवन सज्ञया ॥ भाहूतः सहकार्यार्थ स मुनिस्तेन सुहृदा । ततःप्रभृति तत्रापि तत्कार्ये सुप्रवृत्तवान् ॥ सझवनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका ह्यपेक्षिता । स्वीकृता च सद्भावेन साऽप्याचार्यपदाश्रिता ॥ नन्दे-निध्यक-चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः । एतद्ग्रन्थावलीस्थैर्यकृते नूतनयोजना । परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंघीकुलभास्वता । भा विद्या भ व ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ प्रदत्ता दशसाहस्त्री पुनस्तस्योपदेशतः । स्वपितृस्मृतिमन्दिरकरणाय सुकीर्तिना ॥ दैवादस्पे गते काले सिंधीवों दिवंगतः । यस्तस्य ज्ञानसेवायां साहाय्यमकरोत् महत् ॥ पितृकार्यप्रगत्यर्थ यत्नशीलैस्तदात्मजैः । राजेन्द्रसिंहमुख्यैश्च सत्कृतं तद्वचस्ततः ॥ पुण्यश्लोकपितुर्नाम्ना ग्रन्थागारकृते पुनः । बन्धुज्येष्ठो गुणश्रेष्ठो ह्यर्द्धलक्षं धनं ददौ ॥ ग्रन्थमालाप्रसिद्ध्यर्थ पितृवत् तस्य कांक्षितम् । श्रीसिंघीसत्पुत्रैः सर्वं तगिराऽनुविधीयते ॥ विजनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिन विजय भारती॥ .. . mSC ७ MMmmmmmmmmmmmmm Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES -00000000 अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि , मेरुतुजाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि | २० शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति. मूल संस्कृत ग्रन्थ. २१ कवि धाहिलरचित पउमसिरीचरिउ. (अप०) २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतिह्यतथ्यपरिपूर्ण २२ महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. (प्रा.) अनेक निबन्ध संचय. २३ श्रीभद्रबाहुआचार्यकृत भगबाहुसंहिता. ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. २४ जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. (प्रा.) १ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. २५ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य. ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य. | २६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. (प्रा.) ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. २७ कोऊहलविरचित लीलावई कहा. (प्रा.) ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. २८ जिनदत्ताख्यानद्वय. (प्रा.) ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. २९ स्वयंभूविरचित पउमचरिउ. भाग १ (अप०) ९ प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषांतर. १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. ३१ सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. ३२ दामोदरपण्डित कृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण. १२ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. ३३ भिन्न भिन्न विद्वत्कृत कुमारपालचरित्रसंग्रह. १३ हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश. ३४ जिनपालोपाध्यायरचित खरतरगच्छ बृहनलि. १४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, ३५ उयोतनसृरिकृत कुवलयमाला कहा. (प्रा.) १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूर्ताख्यान. (प्राकृत) ३६ गुणपालमुनिरचित जंबुचरियं. (प्रा.) १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. (प्राकृत) ३७ पूर्वाचार्यविरचित जयपायड-निमित्तशास्त्र.(प्रा.) १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. ३८ भोजनृपतिरचित शृङ्गारमअरी. (संस्कृत कथा) १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. (अपभ्रंश) | ३९ धनसारगणीकृत-भर्तृहरशतकत्रयटीका. १९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. । ४० कोटल्यकृत अर्थशास्त्र - सटीक. (कतिपयअंश) Shri Bahadur Singh Singhi Memoirs Dr. G. H. Bühler's Life of Hemachandrāchārya. ___ Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph. D. 1 स्व. बाबू श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ [भारतीयविद्या भाग ३] सन १९४५. 2 Late Babu Shri Bahadur Singhji Singhi Memorial volume. BHARATIYA VIDYA [Volume V1 A. D. 1945. 3 Literary Circle of Mahāmātya Vastupāla and its Contribution to Sanskrit Literature. By Dr. Bhogilal J. Sandesara, M. A., Ph. D. (S.J.S.33.) 4-5 Studies in Indian Literary History. Two Volumes. By Prof. P. K. Gode, M. A. (S. J. S. No. 37-38.) संप्रति मुद्द्यमाणग्रन्थनामावलि विविधगच्छीय पट्टावलिसंग्रह. ७ गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र. (बौद्धशास्त्र) २ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, भाग २. ८ रामचन्द्रकविरचित-मलिकामकरन्दादिनाटकसंग्रह. ३ विज्ञप्तिसंग्रह विज्ञप्ति महालेख - विज्ञप्ति त्रिवेणी ९ तरुणप्राभाचार्यकृत षडावश्यकबालावबोधवृत्ति. आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. १० प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण-सटीक. ४ कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. ११ हेमचन्द्राचार्यकृत छन्दोऽनुशासन. ५ गुणचन्द्रविरचित मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. १२ स्वयंभुकविरचित पउमचरिउ. भा०३ ६ महेन्द्रसरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा. (प्रा.) | १३ सिंहतिलकसूरिरचित मश्रराजरहस्य (प्रा.) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE TEXT OF THE ARTHASASTRA By D. D. KOSAMBI, Tata Institute of Fundamental Research. 09 The discovery of the Patan Bhaṇḍār palm-leaf fragments (dated on palaeographic grounds at about the 12th century A. D.) was the first real step forward in the textual problem of the Arthasāstra since the appearance of printed editions' based on southern texts. Acarya śrī Jinavijaya Muni has made the new material available to all scholars, and lightened their future labours, by this comparative edition of the Patan folios. The actual text-fragment covers the whole of the first book (adhikarana) except the very beginning, the first six chapters of the second, and substantial portions of 27 and 2.10. Here, the gloss is in the form of minuscule notes on the margin by several different hands. The other part with the commentary of Yogghama extends, with lacunae, only over the first three chapters of book two and the opening of 2.4. Nevertheless, the importance of the material is far greater than its relative extent, because substantial contributions are made thereby not only to the problem of the Arth. transmission, but to Indian textual criticism in general. 1. To consider minor points first: The author's personal name, also preserved by the later drama Mudrārākṣasa, seems to have been Viṣṇugupta. Caṇakya is presumably the patronymic; the possible connection of this appellation with a Canaka-raja-niti reported in the Tibetan Tanjur is not clear. The gotra name by which the brahmin author would be known outside his gens was generally taken as Kautilya, and the gotra name survives in that form today3. However, T. 1). First edition of R. Shama Sastry, Mysore 1909; 2nd edition, 1919; 3rd, 1924. By T. Ganapati Sastri, Trivandrum 1923-5, (in three parts, with a commentary, Trivandrum Sanskrit Series, 79, 80, 82). J. Jolly and R. Schmidt, Lahore 1923-5. The fine German translation by J. J. Meyer, Leipzig 1926 deserves special mention. 2).. In the Tanjur Catalogue by M. Lalou; but no analysis of the specific text is ⚫ available to me. 3), J. Brough: The early brahmanical system of gotra and pravara (the Gotra-pravara-mañjarī of Purusottama). Cambridge, 1953, pp. 82, 88, 96 (Bhrgus); 107, 109 (Gautamas); a Kulkarni family with this gotra was reported by V. T. Shete: Sukla-Yajurvediya-Madhyandina brahmanamci gotrāvalī (in Marathi); 2nd ed. (Poona 1951) p. 33. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ し ( 2 ) Ganapati Sastri showed that the correct form should be Kauṭalya, and adopted it for his own edition (beyond the initial fascicules). The Paṭan folios resolve the question by writing the name uniformly as Kauṭalya, which is also a strong variant in the Mysore edition, and must be taken hereafter as definitively established. The change in orthography was due, in all probability, to obsolescence of the rare name, and a false derivation from kutila = crooked, an adjective that could easily be applied to the author's writings from the point of view of later niti morality. Similarly, the discovery is not without significance for the problem of authenticity, which scholars like Keith have disputed with acrid and even rabid expression of views, in theological intensity. A set of folios, even of the 12th century, that comes to light in Rajasthan or Gujarat, cannot disprove the arbitrary conjecture that the work was forged in the name of the Magadhan chancellor by some Western Indian upstart, say about 300 A. D. However, the actual glosses make Keith's view even more unlikely than before. Not only does the codex prove the antiquity of the Kauṭalyan tradition, but the glossators are shown by their vocabulary to be Jains and Buddhists. The late 12th century was so full of upheavals in the North, due primarily to the steady advance of Muslim religious and military penetration, that such a work could most plausibly have been brought from some distant, peripheral vihara (like Jagaddala) on the verge of extinction, by scholars who preferred coming south to exile in Nepal or Tibet. Had it been a local effort in Western India, we shoud have expected more copies. Neither Buddhists nor Jains could have had any reason to adopt a forgery of about 300 A. D. as genuine, whatever a brahmin scholar might have done. The much-discussed Sukraniti which some insist upon taking as a document of the Gupta period (in spite of five references to gunpowder, and a good formula for its preparation), is nothing but a 19th century forgery by Oppert's Sanskrit pandits at the Presidency College, Madras. For this information, I am indebted to Prof. V. Raghavan. At least, the Patan fragments are a guarantee against such recent provenance for the Arth. 4). Keith: A history of Sanskrit literature, Oxford, 1928 ( photo-reprint, 1941), pp. xvii-xx, 458-62; see also, Jolly's preface to the Lahore edition, and M. Winternitz, Geschichte des Indischen Literatur, 3.518 ff, for doubts as to the authenticity; see also note 8, below. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) 2. The critical Mahabharata Prolegomena of V. S. Sukṭhankar, followed by W. Ruben's critical sample-survey for the Rāmāyaṇa, show what happened in India to great popular narratives. In general, the North preserves a shorter version without regard to grammatical polish and Paninian rules, while the South inflates and rearranges in the interest of logic. In particular, the Kasmiri in the North and Malayalam in the South often preserve archaic readings. For smaller works preserved in numerous copies and local versions, my own work on Bhartṛhari's epigrams yields somewhat different results, when due allowance is made for the formlessness of verses collected by different redactors without the logical nexus of a story or drama. The South again shows logical rearrangement and rigid attention to syntax; North presents growth by accretion but preserves archaisms. Arth. problem is not similar. The work was never popular in any sense of the word, being at first a special treatise for princes and their high councillors, and later a rare book studied only by the most erudite, e.g. Daṇḍin, Baṇa, and Rajasekhara. Most of the technical terms had become obscure long before the commentators came upon the scene, though some (like the verb apavah) now reflect a remarkable light because of the Aśokan edicts. In any case, the work is represented by very few copies and was, indeed, lost completely till 1905. All southern MSS (including those in Kerala, Adyar, Mysore and in Europe) seem to derive from a single original, which could not have been the Patan text. The immediate peculiarities of transcription are not very informative. The southerners often interchange the prefixes apa and ava without substantial change in the meaning. The northern folios have some local peculiarities such as an occasional Parasara for sara. North contains somewhat more matter for the same portion than South. Some of this can be explained (as perhaps in 1.19 p. 46) by a marginal gloss having entered into a later copy of the text. The explanation is not too attractive, for the Arth. (and in imitation the later Kamasutra of Vatsyayana) combines sutra maxims in a running text with brief bhāṣya type explanations. The largest additions in Jinavijayaji's text are of 5 granthas in 1.9 plus a tag anusṭup at the end; 7 slokas in tag verses at the end of 2.2; three granthas or so in 2.3. The remaining differences are of a 5). V. S. Sukṭhankar Memorial Edition (Bombay, 1944) vol. I, pp. 10-140, from his edition of the Adi-parvan, (BORI, critical edition, vol. I, Poona, 1933). 6). W. Ruben: Studien zur Textgeschichte des Rāmāyara (Stuttgart, 1936). See also, the Bhartṛhari edition by D. D. Kosambi, Singhi Jain Series no. 23. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( 4 ) word or phrase scattered at random. The additional matter in the North cannot generally be explained by such inflation, nor the occasional word or phrase in the southern (printed) texts missing in these palm-leaf finds. To cut short the discussion: it seems to me that the divergence can best be explained by long neglect and progressive dying out of the tradition. That is, most copyists were not ignorant professional scribes but scholars of ability who changed as little as possible. But they were totally unable to comprehend the forgotten technical terms and fundamentally different social structure of a vanished epoch; and there were so few of them that the occasional loss of a word, phrase, or short passage in each transcription was not compensated by any matter added by mistake. This applies both to North and South. The main reason the northern copy contains a little more is that it is older. The Southerners had at least six centuries more of recopying in which to accumulate the slow losses. Had the work been popular, or obligatory reading (like Panini's grammar) no such loss would have occurred. 3. By substantiating most of the readings of the list of contents in 1.1, the new discoveries permit inner criticism which reveals losses in the text very much greater than might have been estimated by the direct comparison of the surviving textual matter in the portion covered by the Northern folios. The printed Arth. text would have to be augmented by about twenty five percent in order to reach the original extent of the work. This conclusion points in the same direction as comparative study of the codices, but it has a totally different basis. The list of contents gives the extent of the whole work as 15 books (adhikarana) in 180 sections (prakarana ) or 150 chapters (adhyaya), and 6000 slokas. The last cannot refer to the actual stanzas found in the book. The word sloka must here be taken with T. Gaṇapati Sastri as the grantha unit of 32 syllables. Such is the uniform practice of early scribes in describing their copy. The stray anuṣṭup quarters one can pick out of the Arth. text come from the genius of the Sanskrit language and not from a lost metrical original, as some would like to believe. The round number 6000 may be suspected but, at worst, it ought to be a reasonable estimate made by counting every letter on a few sample folios, whether of the original composition, or of the archetype of the definitive redaction. The possibility that a rough grantha count, had at some time been made for the whole work is not entirely to be excluded. Even Dandin, in the final chapter of his Dasakumara-caritam refers to Caṇakya's précis of dandaniti written for the Maurya as being Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) 6000 slokas in extent; so the traditional count is old, and no variant known. That Dandin was referring to the Arth, is amply proved by his exact quotations from the Arth. in Vihārabhadra's raillery about the rigorous discipline imposed upon the king's daily life-not to speak of numerous other phrases inspired by, when not picked out from, the Arth. In counting the text, the question still remains of changes in the number of syllables due to the chapter headings, colophons, variant readings and samdhi not rigidly enforced. The Pāțaņ folios, and the custom of other MSS of the oldest known periods show that a chapter would have had a colophon, but no rubric. The colophons of the Pāțaņ text are always shorter than those of the printed editions. A rough (unchecked) count, syllable by syllable, of Shāmasāstry's (3rd) Mysore edition gives 4640 slokas, including the colophons, but not the shapter headings. The combined error from all the causes mentioned above, and from miscounting, would be less than 100 such grantha units, in either direction. To compare results with the traditional scribe's estimate, the counts were taken of 73% of the pages in the same edition. Alternate half-letters not combined in a ligature were counted to give a slight overestimate, simply to allow for the same tendency in a professional copyist paid by the amount of work done. The estimate thus obtained was 4762 slokas of 32 syllables each, with a standard deviation of 108. A scribe's estimate from his manuscript would have been more accurate than from the printed pages. The manuscripts write the text continuously where as the modern publication separates the words within the line, and further breaks up the text into small paragraphs, sometimes of half a line, so that the variation per page (in this work at least) is decidedly greater than from folio to folio of a manuscript. Any codex would continue with a gap of much less than a line when a chapter or a book ended, where the printed Arth. texts leave more space, insert headings and colophons in different types. The deficit of about 1200 granthas is not to be denied. The difference is much too great to be explained by a miscount in antiquity. · The deficit in the Arth. text can actually be taken as another argument in support of its general (overall) authenticity. Any forger would have been careful to give full measure. The original text seems to have leaked away over the centuries, for lack of application to current administrative problems. The result is that small bits have disappeared from every portion. In a late document, a defect of the Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6 ) magnitude we have just measured would have arisen, mainly from missing folios, which means that the gaps would be long, connected passages. At no place does the surviving Northern text show a foliosize difference from the southern. 4. It does not reduce our difficulties in any way to note that even the enumeration by sections does not coincide in North and South. The Northern text actually lists a total of 184 sectional titles though the number is given as 180. The list agrees in books 1, 4-6, 8, 11-12, and 15. North contains 3 more in book 2, two more in book 14, one each in 7 and 10; it contains one less than the South in each of books 3, 9, and 13. The southern total is, therefore, accurately 180 sections. The difference arises primarily by combining two adjacent sections, or subdividing a long title. The original scribe had completely omitted the contents of the fifth book in the Pāțan folios of 1:1; this has been entered on the margin in minuscule by another hand. One hitherto unknown sectional title in the second book is illegible on the northern folios of 1.1; the seventh book contains one and the fourteenth two more new ones, not found in the South. Just how much additional matter these might have yielded cannot now be conjectured, but one could not reasonably expect more than 250 granthas, if indeed these sections really had a separate existence. It is possible to show by internal criticism that missing psesages are indicated in certain contexts. Shāmasāstry's indispensable wordindex to the Arth. (3 vol., Mysore 1924–25) records 78 places where the author refers to himself with the specific emphasis iti Kautalyaḥ. The reason for this underlining of his own name is clear, because the adjoining text cites other authorities of the science either by name, or together in a group as ity ācāryāḥ; and the opinion qualified with Kautalya's name differs from the others in important particulars, or contradicts them all flatly. Only in three of the 78 cases does iti Kautalyaḥ occur without any other ācārya or contrary views in context. The presumption is therefore very strong that in these three cases (namely in 3.4, 7.15, and 13,4), some other opinions have been lost from the original composition. That the name of an authority, even of Kautalya himself, could drop out along with the maxim is proved by the sentences reported as additive variants to Shāmasāstry's text of 8.1 and 8.2 (pp. 324, 325 of his edition); the extra quotations appear as part of the main text in the edition by T. Gaņapati Sāstri. This precisely illustrates my thesis that the text has been steadily whittled down by inadvertent negligence in successive transcription. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) The One of these rare, solitary Kauṭalya citations does not appear in Shamasastry's index namely, that in 1.7. However, it occurs in that part of the Southern text which is covered also by the Northern fragment, and is well worth discussing for that reason. In 1.7, the southern texts agree in giving the sentence: artha eva pradhanaḥ iti Kautalyah; artha-mulau hi dharma-kamav iti. North drops out the first half, before our semicolon; neither version fits the context at all well. iti here indicates what is left of a quotation, so that South is more plausible, but the source might not be Kauṭalya himself. The phrase after the semicolon appears again in 8.3, but as part of a quotation from the Parāśara school, to which Kauṭalya is there strongly opposed; it is cited anonymously as a type of maxim in 15.1. The text that precedes the quotation in 1.7 absolutely requires (and appears disjointed for lack of) some discussion of dharma, artha, and kāma, (say: ethics, economics, erotics) in relation to each other. In both North and South, haplography is indicated; the scribe's eye must have jumped to the word artha repeated further on. The mark of such a happening indicates that very few manuscripts of the work existed at that time. This illustrates once again the effect of long disuse and fading away of the level-headed, frankly treacherous, and realistic theory of pre-feudal statecraft. 2 One may feel tempted to make a similar conjecture about the tenth book, where it seems to me that tactical considerations: pattyasva-ratha-hasti-karmani are not sufficiently developed in the southern text that now survives. The main reason would be that the structure and purpose of the army changed. The word patti means the heavyarmed soldier of the line, a hoplite, in the Arth., but a composite squad in later works. New tactical units such as the gulma (which only means thicket or wharf in the Arth.) made up of combined arms were used also for policing the countryside from Satavahana times. This has been argued elsewhere. The only guide we have at present outside the text itself is Kamandaki's Nitisarta", written under the influence, of Caṇakya's work. But this is rather dangerous as a guide because both tone and content show how the basis of society 7). D. D. Kosambi: The Parvasamgraha of the Mahabharata, vol. 66, 1946, pp. 110--117. 8). D. D. Kosambi Introduction to the study of Indian history (Bombay, 1956), pp. 276-8; for the Arth. state, ibid pp. 199-226. 9). Nitisära of Kamandaki. ed. T. Gaṇapati Sastri, Trivandrum Sanskrit Series, No. 14. (1912). : Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) and of the state had developed, and the extent to which the great Magadhan arthasastra tradition had fallen into desuetude. The trivial verses variously ascribed to Caṇakya under the titles: Canakyaniti-sara, vṛddha-Canakya etc. mark the penultimate stage to complete oblivion. It may at least be said that Muni Jinavijayaji's edition, even of so tiny a portion of the Northern text, will be a stimulus to the internal criticism of the Arth.; a task very well worth the attempt and one which must soon be undertaken. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुग्धविलासाङ्क-योग्घमविरचिता नी ति नि ी त्य भि धा ना कौटलीय-राजसिद्धान्त-टीका द्वितीयमधिकरणम् । [जनपदनिवेशनामा प्रथमोऽध्यायः।] इदानीमध्यक्षप्रचारो द्वितीयमधिकरणमभि[ धीयते]........." []थ्वीभागो जनपदस्तस्मिंश्चातुर्यादेर्यथायोगमवस्थापनमिति सूत्रार्थः।........." रे जनपददुर्गकोशदंडादीनामभिधीयत इति महासंबंधः। अनंतरसंबंधस्तु तंत्रावापयोः साधारणत्वादा......... सुप्रतिविहिततंत्रस्यावापेधिकारः । तंत्रं चाध्यक्षप्रचारधर्मस्थीयकंटकशोधनयोगवृत्तपर्यंत तेषामादावधिकरणमध्यक्षप्रचारः। अध्यक्षा इति खव्यापारे......... नि सावधानतयाक्षी." णींद्रियाणि येषां ते प्रचरंत्यनेनेत्यध्यक्षप्रचारः। तस्याप्यादौ जनपदः सर्वकर्मणां योनिरिति । जनपदनिवेश इत्यनंतरसंबंधः । अथवा...... राजा राज्यं रक्षतीत्युक्तं च । राज्यं च जनपद एव यस्माजनपदादेव सर्वप्रकृतीनामुत्पत्तिरुक्तं च । 'मात्स्यन्यायाभिभूताः प्रजा मनुं वैवस्वतं राजानं प्रचक्रिरे।' । पश्चाद्राजा मंत्रिणमुत्पादयति । जनपदादेव दुर्ग कोशो दंडश्च । तस्मादेव मित्रव्यवस्था । भूमेरेकातरं मित्रमित्येवं जनपदः शेषप्रकृतीनां योनिस्तस्यादौ लाभः पालनं चाभिधीयते ।* भूतपूर्वमभूतपूर्व वा जनपदं परदेशापवाहनेन स्वदेशाभिष्यंदवमनेन वा निवेशयेदिति ॥ [२.१.२.] पूर्व भूतो भूतपूर्वः । निविष्टपूर्व इत्यर्थः । अभूतपूर्व"स्तद्विपरीतः । अनिविष्टपूर्वे जनपदशब्दो न प्रवर्तते । पर्वतसमुद्रादौ कथं तस्य निवेश इति चेत्, स्मर्यमाणनिवेशो " भूतपूर्वः खल्पवीरुल्लतादिसुखसाध्यः, अस्मर्यमाणनिवेशो महावृक्षावलुप्तनिःशेषनिवेशचिह्नो दुःखसाध्य इति भावः । तमुभयखरूपं । परदेशापवाहनेन परदेश इति । तत्रस्था:} प्रजास्तासामपवाहनेना"[18] कर्षणेन [1] तच्च द्विधा दंडेन दाहलोपविध्वंसमयदर्शनेन + The Ms. begins with the words "६० ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥" The dots indicate that some letters have been lost as a part of the palm-leaf is broken here. (1) These figers indicate the end of the lines. * This asterisk shows that there is such mark "॥ छ ॥" in the Ms. at this place. J परदेशप्रवाहेण; T परवेशप्रवाहणेन । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिमिर्णीतिनानी कदाचिदनुग्रहपरिहारप्रदानादिभिः स्वदेशाभिष्यंदवमनेन चेति । यथा निझरासननिने कालांतरेण निष्यंदो जलसंग्रहो भवति । तद्वत्ततः प्रजाभिष्यंदः संततिबाहुल्यं एकस्मिन्नेव कुटुंबे पुत्रनप्तृभ्रातृभागिनेयादिबाहुल्यात् । न धान्यादिप्राचुर्यात् । मूलकुटुंबमव स्थाप्य शेषाणामपकर्षणं वमनं तेन वा निवेशयेत् । । लाभपालनार्थं च निवेशक्रममाह ।* शूद्रकर्षकप्रायं कुलशतावरं पंचकुलशतपरं' ग्रामं क्रोशद्विक्रोशसीमानमन्योन्यारक्षं निवेशयेदिति ॥ [२.१.३] शूद्रकर्षकबाहुल्यं विष्टयादिभिरुपभोग्यत्वात् । वैश्यकर्षकाः खल्पाः, क्षत्रियब्राह्मणी कर्षकत्वेन नेष्यते । धर्मार्थक्षतेः [1] कुलशतावरमिति कुलशतभेदे मतभेदस्तथा हि । चुल्याधाने कुलं विद्यादित्यांभीयाः प्रचक्षते । दंपत्यं कुलमित्येके हलं त्वन्ये प्रचक्षत इति ॥ चुल्याधानदंपल्ययोः क्षेत्रविभागेऽनं[ग]"त्वादेकद्वित्रिहलत्वेन कुलं तदुत्तममध्यमारतयेष्यते । कुलशतकृष्योऽवरो निकृष्टः क्रोशसीमा । पंचकुलशतकृष्यः पर उत्तमः क्रोशद्वयसीमा। [सार्द्धद्व]"यकुलशतकृष्यो मध्यमः सार्द्धक्रोशसीमा भवतीत्यर्थादापद्यते । तं ग्रामं । शूद्रादि15 जातिसमूहो ग्रामः । चतुर्हस्तधनुः सहस्रद्वयं क्रोशः । गोरुतमिति पर्याय......"शावसाने थावत्तं प्रदेशं गवां रुतं क्रुष्टं व्याप्नोति । तद्गोरुतं क्रोश इति च । पूर्वस्मात्क्रोशे पश्चिमचिह्नमुत्तरस्मात्क्रोशे दक्षिणचिह्नमिति । शेषयोरप्ये......... धनुःसहस्रप्रमाण आयामो द्विधनुःसहस्रप्रमाणेन विस्तरेण गुणितश्चत्वारिंशद्धनुर्लक्षप्रमाणं क्षेत्र......" षष्टिलक्षाधिका धनुषां कोटिरिति । न चायं नियमो द्रष्टव्यः भूमेः सारासारत्वात्.........10[24] हारिका 20 चतुर्गवं च म्लेच्छानां द्विगवं तु गवाशिनामिति ॥ इति दिग्दर्शनमेतत् ।........." च प्रामनिवेशः । गृहक्षेत्रगोप्रचारपुण्यस्थानदिग्विभागेन केचिदित्यत्रापि नियमो निरर्थकः । अन्योन्य.........[] विवादपरिहारार्थ चिह्नान्याह ।* नदीशैलवनधेष्टिदरीसेतुबंधशमीशाल्मलीक्षीरवृक्षानंतेषु सीम्नां स्था४. पयेत् ॥ [२.१.४]... भ्रष्टिरिति पाषाणोषरसिकतादेा...... पर्वतविकार एव । सेतुबंधः कृत्रिमो जनविदितः । शमीशाल्मलीक्षीरवृक्षग्रहणं चिरस्थायित्वार्थ । शेषं प्रतीतं । - ग्रामविशेषानाह ।* अष्टशतग्राम्या मध्ये स्थानीयं चतुः]"शतग्राम्या द्रोणमुखं द्विशतग्राम्याः कार्वटिकं दशग्रामीसंग्रहेण स्थापयेदिति ॥ [२.१.५] . SJG पंचशतकुलपरं। २ SJG गृष्टि'; ३ SJG read it before शमी । SJ खार्व, Sv.l. का", Gv.l, खा। ५ SJG संग्रहेण संग्रहणं । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीयराजसिद्धान्त टीका अष्टशतग्रामसमाहारस्य मध्ये चतुर्दिशं द्वे द्वे ग्रामशते निवेश्य तन्मध्ये स्थानीय समुदायव्यवहारस्थानाय हितमिति । तथैव चतुःशतग्राम्या मध्ये द्रोणमुखं । यथा द्रोणमुखं चतुराढकोपलक्ष्यमेवं ग्रामशतचतुष्टयोपलक्षितं । तद्वद् द्विशतग्राम्याः [का] ' टिकमिति रूढिसंज्ञा । दशग्रामीसंग्रहेणेति । दश दश ग्रामाः " (7) संगृह्यते येन मुख्यग्रामेणासौ संग्रह एवं स्थानीयस्य द्वे द्रोणमुखे चत्वारि कार्वदिकानि । अशीतिः संग्रहाः । अनेन विभागेन जनपदनिवेशः कार्यः । पालनार्थमाह । * (5) अंतेष्वंतपालदुर्गाणि जनपदद्वाराण्यंतपालाधिष्ठितानि स्थापयेत् । तेषामंतराणि वागुरिकशब " रपुलिंदचंडालारण्यचरा रक्षेयुरिति ।। [२.१.६] अंतेषु जनपदस्य चतुर्दिशं । अंतपालदुर्गाणि जनपदरक्षाक्षमाणि । जनपद- 10 द्वाराण्यन्यतः प्रवेशनिर्गमयोर्निषेधात् । अंतपालैः प्रबलबलयुक्तैरधिष्ठितानि स्थापयेत् । तेषां चतुर्णां द्वाराणामंतराणि वागुरा मृगबंधार्थं जालं तेन व्यवहरंतीति वागुरिका व्याधाः । शबराः किंचिज्जनपदभाषाभिज्ञा वनेचराः । [2B] पुलिंदास्तु भाषानभिज्ञाः। चंडालाः प्रतीताः । अरण्यचराः सर्व्वग्रहादयः । ते रक्षेयुः प्रवेशनिर्गमप्रतिषेधं कुर्युरित्यर्थः । (10) धर्म्मोद्देशेन भूमिदानमाह । * ऋत्विगाचार्यपुरोहितश्रो "त्रियेभ्यो ब्रह्मदेयान्यदंडकराण्यभिरूपदायादकानि प्रयच्छेदिति ॥ [२.१.७] ऋत्विजः शांतिगृहाधिकृताः षोडश । आचार्या विद्यानामुपाध्यायाः । पुरोहितः प्रतीतः । श्रोत्रियारछंदोध्यायि " नः स्नातकास्तेभ्यो । ब्रह्मदेयानि । तदभिधानक्षेत्राण्यदंड - 20 कराणि । अभिरूपदायादकानि । यस्मै दत्तं तदनुरूप एव दायादो भवितुमर्हतीत्यर्थः । प्रकर्षेण यच्छेदपुनर्वि" " लोपाय । अर्थोद्देशानाह । * अध्यक्षसंख्यायकादिभ्यो गोपस्थानिकानीकैस्थचिकित्सकाश्वदमकजंघाकारिकेभ्यैश्च विक्रयाधानवजनीति ॥ [२.१.८] SJ ण्या, Sv. 1. ण्यं । २ SJG दायकानि । ३ Sv. 1. स्थानिनानीक | SJG अंधारिके, SGv. 1. जंघालके । ५ SJC वर्ज । 15 अध्यक्षाः समाहर्तादयः । (*) संख्यायका गणितज्ञा आदिग्रहणाद्रूपदर्शकनीवीग्राहकोत्तराध्यक्षाः । गोपो विंशतिकुलीं विंशतिग्रामीं वा गोपायतीति । स्थानिको गोपानामेवाधिष्ठातृस्थाने " नियुक्तः । अनीकस्थाः प्राधान्याद्धस्तिन एवानीकं तद्विनयाधानाय तत्र तिष्ठतीत्यनीकस्था हस्तिशिक्षाविदः । चिकित्सका नरहस्त्यश्वादिभिषजः । अश्वदमकाः शालिहोत्रवि ' दोश्वानां विनयकर्तारः । जंघाकारिका दीर्घाध्वगा लेखहारका - 30 25 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनानी दयः । तेभ्यो विक्रयाधानवर्जानि । अनेन ब्रह्मदेयानामभिरूपेषु विक्रयाधानमनिषिद्धं भवति ।[अ]"दंडकरत्वं ब्रह्मदेयैः समानमेतेषामपि ॥ छ । करदेभ्यः कृतक्षेत्राण्येकपौरुषिकाणि प्रयच्छेदिति ॥ [२.१.९] करदकर्षकेभ्यो निवेशकाले कृते क्षेत्राण्यचिरकाला......"नि सुकरत्वादेकपुर5 षिकाणि प्रयच्छेत् [1] उपगते तु पुत्रादौ पालने खेच्छा ॥ छ । अकृतानि चे कर्तृभ्यो नादेयानीति ॥ [२.१.१०] अकृतान्य......र्यमाणसंस्काराणि । वृत्त.........[3A ]दिकं कृत्वा ये कुर्वन्ति । तेभ्यः कर्तृभ्यो नादेयानि तत्संततेरपीत्यर्थः ।। उभयापवादमाह ।* अकृषतामाच्छिद्यान्येभ्यः प्रयच्छेदिति ॥ [२.१.११] कृतमकृतं वा क्षेत्रमकृषिताम् आच्छि]"द्यान्येभ्यः प्रयच्छन्मा भूत् क्षेत्रफलहानिरिति ॥ छ । ग्रामभृतकवैदेहका वा कृषेयुरिति ॥ [२.१.१२] ग्रामभृताः कुंभकारायस्कारादयो ग्रामेण भ्रियंत इति । वैदेहका वा......॥॥ अकृषंतो वाऽवहीनं दद्युरिति ॥ [२.१.१३] खयमकर्षणेऽन्येषामपि निषेधेऽवहीनं विनष्टक्षेत्रफलं क्षेत्रिणो दधुः। कर्षणसामग्रीसंपादनायाह ।* धान्यपशुहिरण्यैश्चैताननुगृह्णीयात् तान्यनुसुखेन दद्युरिति ॥[२.१.१४] धान्यैर्भोजनार्थ पशुभिः कर्षणाय बलीवर्दादिभिर्हिरण्यैराच्छादनार्थमाहत...... 2० पश्चात्कृष्यादिफलात् सुखेन तर्जनावरोधादिभिर्विना भूयोप्यनुग्रहं करिष्यामीति संतोषिता दद्युरिति ॥ छ । अनुग्रहपरिहारौ चैतेभ्यः कोशवृद्धिकरौ दद्यात् । कोशोपघातको वर्जयेदिति ॥ [२.१.१५] दत्त्वाऽनमनुग्रहः पश्चादपीडया ग्रहणमनुग्रहः । दंडकरादेर्माह्यस्य परिहरणमग्रहणं 25 परिहारः। तौ कोशवृद्धिकरौ चैतेभ्यो दद्यात् । अनुग्रहः परिहारो वा यत्र दत्तः कृष्यादिभिः कोशवृद्धिं करोति । तादृग्भूतौ दद्यात् । कोशोपघातकी वर्जयेदित्येतस्मिनर्थापत्त्या सिद्धे अत्यंतनिषेधार्थ वचनं । प्रमादिनां व्यसनिनां च नैव दद्यात् । कोशस्यानुत्पत्तेरुत्पन्नस्य च वा भक्षणात् ।। SJG °ण्यैकपुरुषिकाणि । २ SJG च dropped | ३ SJG °यातू । SJG an dropped i 4 SJ 9° 1 & SJG à dropped I SJ Parferant, G Sv.l. घातिको. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीयराजसिद्धान्तटीका • अवर्जने दोषं दर्शयन्नाह ।* अल्पकोशो हि राजा पौरजानपदा"नेव ग्रसत इति ॥ [२.१.१६] कोशोपघातकानुग्रहपरिहारदानादल्पकोशो हि राजा पौरजानपदानेव प्रसते पीडयति ॥ "क्षीणा नरा निःकरुणा भवंती'त्यन्यायेनापि प्रजाभ्योऽर्थान् गृह्णाति । ततश्च प्रकृतयः क्षीयंते । तस्मात्कोशक्षयकरौ वर्जयेदिति भावः । निवेशे परिहारविधिमाह ।* निवेशसमकालं यथागतकं वा परिहारं दद्यात् निवृत्त [3B]परिहारान् पितेवानुगृह्णीयादिति ॥ [२.१.१७] निवेशे पूर्वागतानां यः कालः पश्चादागतानामपि तदैव निवृत्तो भवतीति [1] तद्यथा पंचवार्षिकादिः परिहारो यत्र तत्र वर्षेण वर्षद्वयन वा पश्चा"दागतानामपि निवेशोदित एव ।। कालः समः प्रथमनिवेशो दुःकरः पश्चात्सुकर इति भावः । अयं च भूतपूतपूर्वे (भूतपूर्वे:) दएण्यः । यथागतकमिति। यदा आगतो भवति तदा परिहारकालो गम्यत इति द्वितीयः पक्षः । अयं चाभूतपूर्व द्रष्टव्यः । निवृत्तपरिहारान् जनपदान् पितेवानुगुलीयात्। जनपदे तु परिहृतमित्यनुशयो न कार्यः । सांत्वपूर्व करादिकमनुगृह्णीयादित्यर्थः । ___प्रामादीनां निवेशमभिधाय कोशोत्पत्तिस्थानानां निवेशमाह ।* आकरकांतद्रव्यहस्तिवनव्रजवणिक्पथप्रचारान् वारिस्थलपथपण्यपत्तनानि च निवेशयेदिति ॥ [२.१.१८] आसमंताक्रियते सुवर्णादि येष्यित्याकराः[i] आकराद्युत्पन्नानां रत्नसारफल्गुकुप्यानां संस्कारकर्मणामंतःसमाप्तिर्येषु ते काताः [1] द्रव्यहस्तिव ने इति द्रव्यं शाकतिनिशाद्विसारदार तस्य वनानि। हस्तिनां च वनानि । व्रजानि गोमंडलानि पशुपालपरिकल्पनया । 20 वणिक्पथप्रचारान् । वणिजां पंथा वणिक्पथः स्थले जले च तत्र प्रचारा गल्यागमाश्चौराअपनयनेन [0] वारिस्थलपथपण्यपत्तनानि च । उपवनं उपसमुद्रं वा पतदित्यापतत्पण्यं तन्यते क्रयविक्रयाभ्यां विस्तार्यत इति । [कार्वटिका]"दिविशेष एव पत्तनं ततोन्यत्र क्रयवि. यनिषेधान्निवेशयेदिति संबंधः ॥ छ ॥ सहोदकमाहार्योदकं वा सेतुं बंधयेदिति ॥ [२.१.१९] सहोदकं सहजोदकं आहार्यो......[अन्य]"स्मादानीयमानजलं सेतुमुदकनिरोधार्थ । मृत्पाषाणादिभिबंधयेदिक्षुशाल्याद्यर्थं ॥ छ । अन्येषां वा बनतां भूमिमार्गवृक्षोपकरणानुग्रहं कुर्यात् । पुण्यस्थानारामाणां] चेति ॥ [२.१.२०] अन्येषां वा जनपदादीनां ब[भतां भूमिमार्ग]'' [4A ]वृक्षकुद्दालाद्युपकरणा-30 नुग्रहं कुर्यात् । पुण्यस्थानारामाणां च देवगृहादीनामारामा}णां भूम्यादिभिरनुग्रह ......[कुर्यात् ] Sv. 1. गतं । २ T पणा । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनानी [सम्भूय सेतुबन्धादप्रकामतः कर्मकरबलीवर्दाः]"कर्म कुर्युः । व्यय. कर्मणि च भागी स्यात् । न चांशं लभेतेति ॥ [२.१.२१] संभूय सह सेतुबंधं करिष्याम इति समयं कृत्वा व्ययकर्मणि......कर्मकरबलीवः ......"मणि च भागी हिरण्यभागदायी स्यान्न च फलस्यांशं लभते ॥छ।। मत्स्यप्लवहरितपण्यानां सेतुषु राजा स्वाम्यं गच्छेदिति ॥[२.१.२२] मत्स्यानां प्लवानां...... हरितानां नालिकादीनां पण्यानां श्रृंगाटककसेरुकादीनां सेतुषु जनपदबद्धेष्वपि राजा स्वाम्यं गच्छेत् । निविष्टस्य जनपदस्य विनयार्थमाह ।* दासाहितकबंधू"नशृण्वतो राजा} विनयं ग्राहयेदिति ॥ [२.१.२३] दासा गृहजातादयः। आहितका अन्यैराधी न कृताः।बांधवाः पुत्रभ्रात्रादयः। खामिवचनं गुरुवचनं वा विनयादशृण्वंतो राजा विनयं" ग्राहयेत् साम्ना दंडेन वा ॥छ। बालवृद्धव्यसन्यनाथांश्च बिभृयात् । स्त्रियमप्रजातां प्रजातायाचे पुत्रान् ॥ [२.१.२४] राजेति संबंधः। बालादीनामंतपतितोऽप्यनाथशब्दो विशेषणमन्यथातिप्रसंगं स्यात् । 15 व्यसनिनः पंग्वादयः । स्त्रियमप्रजातां गर्भिणीमनाथामित्यक्ष्यं । प्रजातायाश्च पुत्रान् न तेषां मातृसद्भावमात्रेण सनाथतेति भावः ।। छ । बालद्रव्यं" ग्रामवृद्धा वर्द्धयेयुराव्यवहारप्रापणात् देवद्रव्यं चेति ॥ [२.१.२५] अनाथबालद्रव्यं ग्रामवृद्धा ग्रामकूटादयो वर्द्धयेयुः। कृष्यादिभिराव्यवहार20 प्रापणात् । द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहार इति । देवद्रव्यं च ग्रामवृद्धा वर्द्धयेयुरिति समुच्चयः । वृद्धाश्चात्र धर्मतोऽर्थतश्च द्रष्टव्याः । श्रोत्रियभोग्यत्वापायनाद्धर्मतो वृद्धिं यास्यति । उक्तं हि । अश्रोत्रियभोग्यं देवद्रव्यमपरुद्धकुमारहार्यमितिसनाथ.......[4B]बालादीनामभरणे दंडमाह ।* अपत्यदारं मातापितरौ भ्रातृनप्राप्तव्यवहारान् भगिनीः कन्या विधवा2 श्वाबिभ्रतः शक्तिमतो द्वादशपणो दंडः। अन्यत्र पतितेभ्योऽन्यत्र मातुः॥" [२.१.२६] [अ]पत्यदारं मातापितरौ भ्रातृनप्राप्तव्यवहारान् भगिनीः कन्याविधवाश्चाबिभ्रतः शक्तिमतो भरणशक्तिरस्तिचेद्गृहस्थस्य द्वादशपणो दंडः। पण इति मुख्यमाहतद्रव्यं [1] अस्याप"वादः। अन्यत्र पतितेभ्यः महापातकयुक्तेभ्योऽन्य30 त्राभरणे दंडः । अस्याप्यपवादः । अन्यत्र मातुरिति पतिताऽभिशस्ता वा न माता त्यागमहतीति उक्तं च मनुना। J°त् । २ Sv.1. हत। ३ SJG व्याधित after वृद्ध। ४Jv.1. व्यांश्च । ५ वर्ज [] | G वर्ज। ६G Sv.1. °दारान् । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीयराजसिद्धान्तटीका नास्ति मातृसमो देवो नास्ति मातृसमो गुरुः। पतिता वाऽभिशस्ता वा न माता त्यागमहति ॥ प्रजाक्षयनिषेधायाह ।* .. पुत्रदारमप्रतिविधाय प्रव्रजतः पूर्वःसाहसदंडः स्त्रियं च प्रवाजयतः॥ [२.१.२७] पुत्रदारमप्रतिविधाय ग्रासाच्छादनादिभिः प्रव्रजतः तपसे गच्छतः पूर्वः साहसदंडः।सार्द्धसाग्रपणशतद्वयप्रमाणो दंडः । अन्यथा अविरक्ता अपि कुटुंबभरणक्केशभयात् प्रव्रजंति । उक्तं च । मत्यै गृहाश्रमो घोरः पार्थिवैरपि दुस्तरः। क्लिश्यंत्यत्रासमर्था ये क्लीबाः पाषंडमाश्रिता इति ॥ स्त्रियं च (चा ?)लुप्तव्यायामामनिवृत्तरजस्कामिति द्रष्टव्यं । प्रव्राजयतः प्रजोत्पत्तिनिरोधदोषात्पूर्वः साहसदंडः ॥ छ॥ ... लुप्तव्यायामः प्रव्रजेदापृच्छय धर्मस्थानन्यथा नियम्येत ॥ [२.१.२८] लुप्तव्यायामः प्रजननशक्त्यभावात् प्रव्रजेद् वार्द्धके(क्ये) मुनिवृत्तिरिष्यते । तत्राप्यापृच्छय धर्मस्थान् वक्ष्यमाणन्यायात् प्रव्रज्योपदेशार्थ धर्मश.........दिति । 15 अन्यथा करणे नियम्येत । दी......[5A] प्रजाविप्लवनिषेधार्थमाह ।* वानप्रस्थादन्यः प्रव्रजितभावः संजातादन्यः संघः सामुत्थायिकादन्यः समयानुबंधो वा नास्य जनपदमभिनिवेशेत ॥ [२.१.२९] वानप्रस्था[दन्यः प्रव्रजि]"तभावः । श्रमणसौगतादिः [1] सजातादन्यः 20 संघो बहूनामेकीभावः सहोत्पन्नानामेव तस्मादन्यः संघः श्रेणीबंधः । सामुत्थायिकादन्यः समयानुबंधः । सम्यगुत्थानं धर्मार्थ[मिति स]"मुत्थायस्तेन चरतीति । सेतुबंधतडागाद्यर्थः समयानुबंधस्तस्मादन्यः चौर्यादिसमयानुबंधो नास्य जनपदमुपनिवेशेत । अयं निवेशविषयो नियमः । आगतवस्तु.........[पा]"पंडादयो राज्ञानुज्ञाताः प्रविशंत्यन्यथोदास्थितपरिव्राजकाश्रमादिपाषंडानामुपादानं व्यर्थं स्यात् । श्रेण्याः सेनांगत्वं च हीयते । । कोशवृद्ध्यर्थमाह ।* न च तत्रा[रामा] विहारार्था वा शालाः स्युः। नटनर्तकंगायनवादकवाग्जीवनकुशीलवा वा न कर्मविघ्नं कुर्युरिति ॥ [२.१.३०] . न च अ(त?)त्र निवेशे आरामाः विलासैरारमंते कर्षका इति । छायामात्रो"पयोगिनस्तु स्युः । विहारार्था वा शाला द्यूतादिक्रीडार्थाः शाला न स्युः । कर्षणे विह-३॥ रणात् कर्मविघ्ने कोशावृद्धिरिति भावः । नटादयः प्रतीतास्ते च कृषिकर्मविनं प्रेक्षाणा]"दिभिर्न कुर्युरिति । SJG व्यवायः। २ Jv.l. S प्रव्रजेदावृश्चय धर्मस्वान्। Sv.l. प्रव्रजेदापृच्छय धर्मस्थान् । ३G सु। ४ Jv.1. GS य', TSv.1. यि. ५SJ राम विहारार्थाः । Gरामा विहारार्थाः। Sv.1. रामा। ६JG वा dropped । ७SJG न । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनाम्नी अत्र हेतुः । निराश्रयत्वाद्रामाणां क्षेत्राभिरामंत्वाच्च पुरुषाणां कोशविष्टिद्रव्यधान्यरसवृद्धिर्भवतीति ॥ [२.१.३१] निराश्रयत्वाद्रामाणां शालारामाभावात् क्षेत्राभिगमत्वाच्च पुरुषाणां नटा5 धभावात् । कोशादिवृद्धिर्भवति । कोशोहि हिरण्यदानात् । विष्टिः सीतादिसाहाय्यदानात् । द्रव्यं वस्त्रादि । ध{}न्यानां रसानां तैलघृता"[5B]दीनां वृद्धिर्भवति । तद्वृद्ध्या राज्यवृद्धिः । उत्तरत्रापि परिहारमाह ।* परचक्राटवीग्रस्तं व्याधिदुर्भिक्षपीडितम् । देशं परिहरेद्राजा व्ययक्रीडाश्च वर्जयेदिति ॥ [२.१.३२] परचक्रं शत्रु[स]'न्यं । अटव्याटविकस्ताभ्यां ग्रस्तं कृतदाहविलोपं व्याधिदुर्मिक्षपीडितं देशं परिहरेत् दण्डकरादि न गृह्णीयादित्यर्थः । व्ययक्रीडाश्च कर्षकादीनां परस्परस्पर्द्धया......[व्य]"यक्रीडा निषेधयेत् । विघ्नं मा भूदिति । वातरक्षार्थमाह ।* दण्डविष्टिकराबाधै रक्षेदुपहतां कृषिम् । । स्तेनव्यालविषग्राहैाधिभिश्च पशुव्रजान् ॥ [२.१.३३] दण्डविष्टिकरै......"चितादभ्यधिकगृहीतैः समाहर्तादिभिर्ये आबाधास्तैरुपहतां पीडितां कृषि रक्षेदिति सम्बन्धः । स्तेनैश्चौरैालाघ्रादिभिर्विषैः स्थावरजङ्गमैग्राहैः शिशुमारादिभिर्व्याधिभिरीशानज्वरादिभिरुपहतान् पशुव्रजान् रक्षेत् ॥ छ । वल्लभैः कार्मिकैः स्तेनैरन्तपालैश्च पीडितम् । शोधयेत् पशुसङ्घश्च क्षीयमाणं वणिक्पथ[मिति ॥ [२.१.४३] वल्लभै राज्ञीकुमारादिभिः । काम्मिकैः शुल्काध्यक्षादिभिः । स्तेनैरन्तपा[6A] "लैश्च पीडितं रक्षेदिति वर्तते । पशुसबैश्च क्षीयमाणं वणिक्पथं शोधयेदिति । राजा स्वपशुदानैरनुगृह्णीयादिति भावार्थः । 25 .. अतिदेशमाह ।* एवं द्रव्य[द्विपवनं सेतुबन्ध]"मथाकरान् । रक्षेत् पूर्वकृतान् राजा नवांश्चाभिप्रवर्तयेदिति ॥ [२.१.४४] एवमनंतरोक्तविधानेन वल्लभादिभिः पीड्यमानं द्रव्यवनं {द्विपवनं} हस्तिवनं सेतुबन्धमथाकरान...... पूर्वकृतान् राजा नवांश्चाभिप्रवर्तयेत् ॥ छ । 30. इति मुग्धविलासाङ्कयोग्यमविरचितनीतिनिर्णीत्यभिधानायां कौटलीयराजसिद्धान्तटीकायामध्यक्षप्रचारे प्रथ[मो अध्यायः॥ छ ॥ छ । SJG °रतत्वाच्च । २ SJG वारवत्। ३ दन्यं द्विप’, J ज्यद्विप । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय-राजसिद्धान्तटीका [भूमिच्छिद्रापिधाननामा द्वितीयोऽध्यायः।] भूमिच्छिद्रापिधानमिति सूत्रम् ॥ [२.२.१] भूमेश्छिद्रमिव च्छिद्रमकृष्यत्वं धान्याद्यभावात् । अपिधानमावरणमपिधानमिवापिधानम् । धर्मार्थकामाख्यफलखभावात् । अपिपूर्वो दधातिरावरणे वर्त्तत इति सूत्रार्थः । सम्बन्धस्तु जनपदनिवेशशेषमेवैतत् । कृष्यायां भूमौ निवेश उक्तः । अकृष्यायामुच्यत इति॥छ। 5. अकृष्यायां भूमौ पशुभ्यो विवीतानि प्रयच्छेदिति ॥ [२.२.२] पाषा[6B]णादिभिरकृषियोग्यायां भूमौ पशुभ्यो गोमहिष्यादिभ्यो विवीतानि तृणारण्यानि प्रयच्छेत् ।वी प्रगतिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु पठितोऽत्र खादने द्रष्टव्यः ॥छ॥ प्रदि"ष्टाभयस्थावरजंगमानि चे ब्रह्मसोमारण्यानि तपस्विभ्यो गोरु तपैराणि प्रयच्छेदिति ॥ [२.२.३] ..प्रदिष्टं दत्तमभयं छेदवधनिषेधात् स्थावराणां वृक्षादीनां जंगमानां पक्षिमृगादीनां येषु तानि, तपस्विभ्यो वानप्रस्थस्नातकादिभ्यो ब्रह्मसोमारण्यानि ब्रह्मारण्यं यत्रारण्यकादिवेदोपनिषदधीयते । सोमारण्यं यज्ञभूमिस्तानि । गोरुतपराणि क्रोशपराणि । क्रोशः परं प्रमाणमिति । अधिकं प्रमाणं नेष्यते चौराद्याश्रयदोषात् । धर्मापिधानमुक्त्वा कामापिधानमाह ।* तावन्मात्रमेकद्वारं खातगुप्तं स्वादुफललतागुल्मगुच्छमकंटकिद्रुममुत्तानतोयाशयं दान्तमृगचतुष्पादं भग्ननखदंष्ट्रव्यालं मॉर्गयुकहस्तिहस्तिनीकलभं मृगवनं विहारार्थ राज्ञः कारयेत् ॥ [२.२.४] [तावन्मा]"नं गोरुतपरमेव च । एकद्वारं रक्षासौकर्यार्थम् । खातगुप्तं द्वारखातयोरुपादानात् प्राकारोपपन्नम्। स्वादुफला गुल्माः करमर्दकादयः। गुच्छा बदरामलका- 20 दयस्थाः शाखिनो यस्मिन् । अकंटकिनो द्रुमा यस्मिन् । उत्ताना अगाधेतरास्तोयाशया यस्मिन् ।दांता विनयं ग्राहिता मृगा एणादयश्चतुष्पदा महिषगवयादयो......"योगार्थम् । भग्ना नखा दंष्ट्राश्च वालत्व एव येषां व्यालानां व्याघ्रादीनां ते यत्र । मार्गयुकमिति । मृगयुर्व्याधस्तस्य कर्म मार्गयुकं हस्तिशिक्षोक्तं येषां हस्तिहस्तिनीकल'[7]भानां यस्मिन् । ते हि शिक्षावशात् मृगं विधृत्य हत्वा वा राज्ञोऽर्पयंतीति मृगयावनं विहारार्थ 25 राज्ञः कारयेत् ॥ छ॥ सर्वातिथिमृगं प्रत्यंते चान्यत् मृगवनं भूमिवशेन वा[निवेश]"येत्॥ [२.२.५] SJG भूमिच्छिद्र विधानम् । २ SJG read ब्राह्मणेभ्यो after च। ३ SJG तपोवनानि च after ब्रह्म। 1 S,Jv). गोत्र (त); Svi., Jvl. गोरूत'; J गोत्रक । ५ SJG लता dropped । ६ SJG पई। ७SJ व्यालमा । ८ SJG मार्गा। ९६° कलभमृग। कौट० 2 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नीतिनिर्णातिनानी सर्वेऽतिथिवत् पूज्यंते दत्ताभयाः पोष्यंते धर्मार्थं यत्र प्रत्यंते तस्मिन् निबेशयेत् । अन्यद् वा वनं रक्षया निवेशयेदिति संबंधः । चशब्दादन्यदपि मृगवनं निवे[शयेत् ] मृगयारण्ये निक्षेपार्थ भूमिवशेन वा अप्रत्यंतेऽपि यत्र मृगाः संतीति । अर्थापिधानमभिधातुमाह ।* कुप्यप्रदिष्टानां च द्रव्याणां तरूणामेकैकशो वनानि' निवेशयेत् । द्रव्यवनकर्मातानटवीश्च द्रव्यवनापाश्रया इति ॥ [२.२.६] कुप्याध्यायप्रदिष्टानां द्रव्याणामिति । तरूणां शाकतिनिशादीनां प्रत्येकश एकजातीयानां पृथक्पृथग वनानि नि वेशयेत् । द्रव्यवनकम(म्मा)तांश्च वृक्षच्छेदनत क्षणादिस्थानानि निवेशयेत् । अटवीश्चाटविकांश्च द्रव्यवनापाश्रया रक्षणार्थं निवेशये10 दिति संबंधः । हस्तिवननिवेशमाह ।* प्रत्यंते हस्तिवनमटव्यारक्षं निवेशयेदिति ॥ [२.२.७] प्रत्यंते जनपदमध्ये पीडावहत्वात् । हस्तिवनं निवेशयेदिति संबंधः । अटव्यारक्षमाटविकारक्षम् ॥ छ । नागवनाध्यक्षः पार्वतं नादेयं सारसमानूपं च नागवनं विदितपर्यन्तप्रवेशनिष्कासं नागवनपालैः पालयेदिति ॥ [२.२.८] चतुर्विधं वनं पालयेदिति संबंधः । पर्वते भवं पार्वतं तस्य लक्षणं क"टुतिक्तकषायाम्लवृक्षौषधिरसद्रवः । पार्वतस्तृणपाषाण विषमो देश उच्यते । नद्यां भवं नादेयम् । तथा च उक्तम् । नलवंजुलविष्यंदिवालुकास्थलसंयुतः। सर्वसाधारणद्रव्यो नादे [7B]यो देश उच्यते ॥ सरसि भवं सारसम् । उक्तं च । उत्तृणः स्थलसंरोधी स्निग्धमूलवनौषधिः । विदाही जलविष्यंदी सारसः संप्रकीर्तितः॥ तथा। सुस्वादुमधुरस्निग्ध-कषायौषधिवीरुधः। बहुपंकोदकक्षारः सोऽनूपो देश उच्यते ॥ तत्र भवमानूपम् । एवं चतुर्विधमपि वनं नागवनपालैः कृत्वा नागवनाध्यक्षः पालयेत् [1] हस्तिनां वनं सर्वोप......वनिषेधात् । विदितपर्यन्तप्रवेशनिष्कासमिति 30 संबंधः ॥ छ । 20 25 SJG तरूणां dropped. २ SJG वा वनं। 1SJ read this sutra with the following one. ३J रक्ष्य; Jvl. रक्षन् । ४SJG निष्कसन; Svl. निष्कास। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय -राजसिद्धान्तटीका • हस्तिघातिनं हन्युर्दतयुगं स्वयंमृतस्याहरतः सपादचतुष्पणो लाभः ॥ [२.२.९] हस्तिघातिनं हन्यु गवनपालाः । दंतयुगं स्वयंमृतस्य हस्तिनो नागवनपालस्यान्यस्य वाऽऽहरतः सपादचतुष्पणो लाभः। पादस्याधिकत्वं तात्कालिकभोजनार्थमन्यथा पंचादिष्वपि संपूर्णेषु पणेषु दत्ते...... भोजनाय पणभंगमस्थिभंगमिव मन्यमाना नातिप्रहृष्यंतीति भावः ॥ महणार्थ हस्तिकुलाग्रज्ञानायाह ।* । नागवनपाला हस्तिपकपादपाशिकसैमिकंवनचरकपारि"कर्मिकसखा हस्तिमूत्रपुरीषच्छन्नात्मगंधा भल्लातकीशाखापत्रप्रच्छन्नाः पंचभिः स. प्तभिर्वा हस्तिबंधकीभिः सह चरंतः शय्यास्थानपद्यालेंडनंदीकूलघा- " • . तोद्देशेन हस्तिकुलपर्यग्रं विद्युरिति ॥ [२.२.१०] नागवनपालाः, हस्तिपक आरोहकः, पादपाशनियुक्तः, सैमिको वनमर्यादाभिज्ञः। वनचरकः शबरादिः, पारकर्मिकः शिक्षोक्तपरिकर्मकुशल'"स्तेषां सहाया भूत्वा, हस्तिमूत्रपुरीषच्छन्नगंधास्तद्रसभावितकंचुकिभिः । भल्लातकी आरुष्करवृक्षः तस्य पत्रोपलक्षितशाखाच्छन्नरूपाः । हस्तिनो हि भल्लातकी...... हरतीति । पंचभिः सप्त- 15 भिरिति विषमसंख्याग्रहणं हस्तिप्रलोभनार्थम् । उक्तं च । संयोगकामो नैराश्य युग्मासु प्रतिपद्यते। __अयुग्माचारयेत्तस्मात्पूरणा सं.........[ujoy हस्तिबंधक्यो गणिकाबंधक्य इव । हस्तिप्रलोभनात् । ताभिरिति तदारूढः सह- 21 चरंतः कुल.......[8A] .........निक्षेपचिह्नाकारतः, लिं(ले?)डं पुरीषाकारतः, कूलघातो दंतोत्खाताकारतः, तदुद्देशे........."रिग्रहार्थं पर्यग्रं समस्तप्रमाणं विद्युर्महणार्थम् ॥ छ । यूथचरमेकचरं नियूथं यूथपति हस्तिनं [व्यालं मत्तं पोतं बन्र्धमुक्त च निबन्धेन ] विद्युः ॥ [२.२.११] यूथे चरतीति यूथचर ......... एकचरमिति, खयमेव यूथान्निःसृतं नियूथं यूथान्निर्धारि(टि.)तं यूथपतिं हस्तिनं तेष्वपि व्यालं दुष्टं मत्तं हस्तिनमिति सर्वत्र योज्यम् । पोतं बालं बंधमुक्तं केनाप्य.........यं वा निबंधेन लेख्यपुस्तकारोपणेन विद्युः॥छ।। S मृग। २S सौमि । ३ SJG °च्छन्नगन्धा। ४ SJG शाखाप्रतिच्छन्नाः, Jvl. प्रतिच्छन्नान् । ५ SJG °लण्डकूलपा-[ Svl. कुलपो.] तोद्देशेन । ६ SG बद्ध, Svl., Gvl.-बन्धमु; Gvl. बद्धं मु°। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 25 30 नीतिनिर्णीतिमानी अनीकस्थप्रमाणैः प्रशस्तव्यञ्जनाचारान् हस्तिनो गृह्णीयुः ।। [२.२.१२] अनीकस्था हस्तिशिक्षाविदस्तेषां येऽतिकुशलत्वात् .... . *माणभूतास्तैः प्रकर्षेण शस्तानि व्यज्यते शुभत्वादिर्यैस्तानि व्यंजनानि लक्षणानि, आचाराश्चरितानि प्रशस्तानियेषां तान् हस्तिनो [ गृह्णी ] युः । ग्रहणोपायाश्च पञ्चतन्त्रान्तरोक्तास्तद्यथा । वशाकल्पावपातौ च वारिकर्म्मानुगम्य यत् । आपाने च पतत्येतदनुसृत्य च बंधनम् ॥ इति ॥ कथमेतेषां महाप्रयत्नेन ग्रहणमित्याह । * १२ हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञं इति । [ २.२.१३] विजये हस्तिन एव प्रधानं तदायत्तत्वात् विजयस्य । यस्मात्तदेव दर्शयतीति । * परानीक व्यूहदुर्गस्कन्धावारप्रमर्दना ह्यतिप्रमाणशरीराः प्राणहरकणो हस्तिन इति ॥ [२.२.१४] अनीकं सैन्यं व्यूहं दंडभोगादि । दुर्गं वप्रप्राकाराद्युपलक्षितम् । स्कंधावारः `शिविरसन्निवेशः। परेषामनीक" व्यूहस्कंधावारप्रमर्दनाः । यतस्तेऽन्यचतुष्पदेभ्योऽतिप्रमाणशरीरास्तथा प्राणहरकर्माणः 'स्पृशन्नपि गजो हंती'ति । तस्मात् संग्राह्या हस्तिन इति । वनायां श्रेष्ठतामा " ह । * wwwwwwwww कालिंगांगर (ग) जाः श्रेष्ठाः प्राच्याश्चेदिकरूपजाः । दशार्णाश्चापरांताश्च गजानां मध्यमा मताः ॥ सौराष्ट्रकाः पांचनदास्तेषां प्रत्यवराः स्मृताः ॥ इति ॥ [२.२.१५] उत्कलानां च देशस्य (20) [8B] दक्षिणस्यार्णवस्य च । सह्यस्य च कलिंगस्य मध्ये कालिंगकं वनम् ॥ तथा । वैदेशं नर्मदा चैव ब्रह्मवर्द्धनमित्यपि । मध्ये च पारियात्राणां वनं स्यादांगरेयकम् ॥ इति वनद्वयजाः श्रेष्ठाः तथा । लोहित्यस्य प्रयागस्य गंगा हिमवतोरपि । मध्ये प्राच्यं वनं तत्र संभवंति दिशां गजाः ॥ मेकला त्रिपुरी चैव दशार्णो देश इत्यपि । उन्मत्त गंगामित्येषां मध्ये चेदिकरूपकम् ॥ SJG राज्ञाम् । २ SJCG कर्माणो । ३ SJG कलिंगा । ५ SJG द्विपानां । ६ SJG सौराष्ट्रकाः । ७ SJ, Gvl. पांचजनाः । ४ SJ श्रेति । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय-राजसिद्धान्तटीका तथा। • देशस्य च दशार्णानां ख्यातस्य च महागिरेः। विंध्याद्रेर्वेत्रवत्याश्च मध्ये दाशार्णकं वनम् ॥ तथा । अवंतीनां च देशस्य नर्मदायास्तथैव च । द्वारकार्बुदयोश्चैव मध्ये सौराष्ट्रकं वनम् ॥ कुरुक्षेत्रस्य देशस्य कालिकाकाननस्य च । सिंधोहिमवतश्चैव मध्ये पांचनदं वनम् ॥ कालिंगकांगरेयकवनभवाः श्रेष्ठाः । प्राच्यचेदिकरूपवनदाशार्णापरांतकभवा मध्यमाः । सौराष्ट्राः पांचनदभवा अवराः । अस्यापवादः ।* सर्वेषां कर्मणा वीर्य' जवस्तेजश्च वर्द्धत इति ॥ [२.२.१६] • • अवराणामपि कर्मणा स्थितभौमोत्तरा...यादिना......... बलं उत्साहलिंग जवो वेगस्तेजः शौर्यं च वर्द्धते ॥ इति मुग्धविलासा [9A] कयोग्यमविरचितनीति निर्णात्यभिधानायां कौट. . लीय-राजसिद्धान्तटीकायामध्यक्षप्रचारे द्वितीयोऽध्यायः ॥ छ ॥ छ॥ -----ococc[दुर्गविधाननामा तृतीयोऽध्यायः ।] दुर्गविधानमिति सूत्रम् ॥ [२.३.१] दुःखेन गम्यते परैरिति दुर्गस्त"स्य विधानं वप्रादिरचनयेति सूत्रार्थः । संबंधस्तु खाम्यमात्यजनपदानां लाभः पालनं चाभिहितम् , दुर्गप्रकृतेरभिधीयत इति महासंबंधः। अनं-१ तरसंबंधश्च जनपदनिवे.........न्तपालदुर्गाण्युद्दिष्टानि । स्थानीयं च यत्र निशांतमभिहितं तेषां विधानमिति । जनपदरक्षार्थ तावत् स्थानीयादिदुर्गविधानमाह ।* चतुर्दिशं जनपदांते सांपरायि के देवकृतं दुर्ग कारयेदिति ॥२.३.२] .. चतुर्दिक्षु जनपदांते सांपरायिकमिति । परेषां शत्रूणां आय आगमनं परायः, 25 सम्यक् सर्वसामग्र्या परायस्तस्मै प्रतिस्खलनाय प्रभवतीति सांपरायिकम् । अथवा सम्यक परेषामायः कोशसंपत् तद्विनाशाय प्रभवतीति सांपरायिकम् । स्वजनपदरक्षायै परजनपदविलोपाय प्रभवतीत्यर्थः । दैवकृतं खर...... नेव दुर्ग देवखाततडागवत्कारयेत् परिखादिभिः संस्कारयेदित्य [ 9 B ]र्थः । चतुर्दिशमित्युक्ते चत्वार्यतपालदुर्गाणीत्यर्थापन्नम्। दुर्गस्य मूलप्रकृतयश्चतस्रः । औदकं पार्वतं धान्वनं वनदुर्गमिति । . वीर्य । २ Svl., JvI. देव। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनानी प्रत्येकं द्वैविध्यादष्टौ दुर्गाणि तानि दर्शयन्नाह ।* अंतीपं स्थलं वा निम्नावरुद्धमौदकम् । प्रास्तरं गुहा वा पार्वतम् । निरुदकस्तंबमिरिणं वा धान्वनम् । खंजनोदकं स्तंबगहनं वा वनदु मिति ॥ [२.३.३] द्विधागता आपो यस्मिंस्तद्वीपम् । द्वीपस्यांतर्नदीस्रोतसामंतरे भवमन्तीपमित्येकम् । स्थलं वा निम्नेन जलेनावरुद्धं दैववशात् । निम्नशब्देनात्र तात्स्थ्याजलमभिधीयते । 'निम्नयोधिन' इति वचनात् । एवं द्विविधमुदकस्येदमौदकम् । प्रास्तरं गुहा वा पार्वतमिति । प्रस्तरे एकखंडे भवं प्रास्तरम् । गुहा वा गूहनात् गुहा । यत्र पर्वतश्चतुर्दिशं वेष्टयित्वा द्वारमेकं मुक्त्वा गृहनात् सा गुहा । एवं द्विविधं पार्वतम् । निरुदकं निस्तंबं निस्तृणं " निर्विटपं च एकम् । इरिणमूषरं यत्नोत्पादिततृणोदकमेवं द्विविधं धान्वनम् । 'निरुदकोदेशो धन्वे' त्याम्नायात् । खंजनोदकं 'खजिगतिवैकल्य' इति पाठात् , सपंकजलम् । स्तंबगहनं केवलवृक्षस्तंबगहनं वा एवं वनदुर्गमपि द्विविधम् ॥ छ । तेषां नदीपर्व®[ 10 ] तदुर्ग जनपदारक्षस्थानम् । धान्वनं वनदुर्गमटवीस्थानमापद्य {पसारो वेति ॥ [२.३.४] . तेषां दुर्गाणां मध्ये नदीदुर्ग पर्वतदुर्ग च जनपदारक्षा अंतपालाः, तेषां स्थान परप्रवेशनिषेधात् ।" धान्वनं दुर्ग वनदुर्ग च अटवीस्थानमाटविकानां स्थानं जनपदरक्षार्थमेव । आपद्यपसारो वा आपदि पराभियोगलक्षणायां अपसारो वा कलत्रमपसार्य स्थाप्यत इति । मध्ये दुर्गविधानमाह ।* जनपदमध्ये समुदायस्थानं स्थानीयं निवेशयेदिति ॥ [२.३.५] सर्वतोऽनन्तरारीणां व्यवहितत्वात् समुदयमुदयहेतुत्वात् कोशस्तस्य स्थानम् , स्था[नीयमिति । राज्ञः स्थानाय हितं निवेशयेदिति। दुर्ग विधायेति भावः । दैवकृतं चेद्भवति संस्कुर्यान्न चेद्वक्ष्यमाणोपदेशेन कुर्यात् ॥ छ । _ वास्तुकप्रशस्ते देशे नदीसंगमे हृदस्याविशोष्यस्यांके* सरसस्तडाँगस्य वा वृत्तं दीर्घ चतुरस्रं वा वास्तुवशेन वा प्रदक्षिणोदकं पण्यपुटभेदनमंसपथवारिपाभ्यामुपेतम् ॥ [२.३.६] वास्तुकप्रशस्ते देशे वास्तुविद्याविद्भिः श्लाघिते देशे नदीसंगमे दुर्गत्वाजलसौकर्यार्थ च । तदलाभे” हृदस्याविशोष्यस्यांके सरसो देवखातस्य तडागस्य वा मनुष्य J°; Jvl. प्रा। २ SJ ख; Svl. खं। ३ Svl., Jvl. स्थम्ब । ४S, Jvl, आपाद्यप्रसारो; Svl. आपद्य। ५ हृदस्य वा अविशोषस्याङ्के; Svl. वाटविशोषं; J वा विशोष । ६ SJG तटा। SJG °स्तुकवशेन । ८SJ °भेदनमंसवारिपथा etc. 20 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय-राजसिद्धान्तटीका खातस्यांक इति वर्तते । वृत्तं दीर्घवृत्तं वा । चतुरस्र दीर्घचतुरस्रं वा । दीर्घशब्दो मध्यस्थ [10B] उभयत्र योज्यः । त्रिकोणार्द्धचंद्रादीनामप्रशस्तानां निवृत्त्यर्थं वा । वास्तुवशेन वा भूमिवशेन दीर्घत्वमपि भवतु । प्रदक्षिणोदकं प्रशस्तत्वात् । पण्यपुटभेदनं ततोऽन्यत्र न "पण्यपुटा भिद्यत इति कृतनियमं पण्यानां संग्रहार्थम् । शुल्कस्य चाविनाशार्थम् । अंसपथः स्थलपथः पुरुषबलीव>ष्ट्राद्यसैः स्कंधैरुह्यमानपण्यत्वात् । वारिपथश्च । ताभ्यामुपेतं पण्यशुल्कसंग्रहार्थमेव ॥ छ । - तस्य परिखास्तिस्रो दंडांतरा द्विदंडांतरी वा कारयेत् ॥ [२.३.७] तस्य स्थानीयस्य परि समंतात् खन्यन्त इति परिषा(खा)स्तिस्र इति न्यूनाधिकत्वे दोषदर्शनात् । दंडांतरा द्विचत्वारिंशदङ्गलहस्तेन चतुर्हस्तो दंडस्तत्प्रमाणतः परस्परांतर(रा.)लाः । अतो न्यूनान्तरा विशीर्यते । अधिकांतराः परेषामाश्रया भवंति ॥ छ ॥ 10 चतुर्दश द्वादश दशेति दंडान् विस्तीर्णा विस्तरादवगाढाः पादोनमर्द्ध भूमिवशेन वा त्रिभागमूला मूल(ले) चतुरस्रा वा पाषाणोपहिताः पाषाणेष्टकाबद्धपार्था वा तोयांतिकीरागंतुतोयपूर्णा वा सपरिवाहाः पद्मग्राहवतीश्चेति ॥ [२.३.८] अभ्यंतरे चतुर्दशदंडान् विस्तीर्णा,मध्यपरिखा द्वादश,बहिःपरिषा(खा) दशदंडान् । विस्तीर्णा कार्या । न बाह्यतोयगणनाक्रमो गृह्यते । चतुर्दश दंडान् विस्तीर्णायां बाह्यपरिखायां गृहीतायामितरयोरध्यवसायो ग्रहणे भवतीति भावः । विस्तरादवगाढाः पादोनमर्द्ध चेति । चतुर्दशदंडविस्तीर्णायाः पादोनो विस्ता......... दश दंडाः। अर्द्ध वा सप्त दंडाः । द्वादशदंडविस्तारायाः पादोनत्वं नव दंडाः । अर्द्ध वा षट् दंडाः । दशदंडविस्तारायाः सार्द्धसप्तदंडाः, पंचदंडा वा गांभीर्यमित्यर्थः । त्रिभाग) इति विस्तारादेव त्रिभागो १० मुले यासामूर्ध्व विस्तारादेव तृतीयभागो मूले विस्तारो भवतीत्यर्थः । तद्यथा चतुर्दशदंडायाश्चत्वारो दंडा हस्तद्वयमष्टाविंशत्यंगुला......याश्चत्व( त्वा )रो दंडाः । दशदंडाया दंडत्रयमेको हस्तश्चतुर्दशांगुलानीति । मूल......10 [11].........पाषाणैरुपहिता वा दंडप्रमाणेष्वंतरालेष्वेव बद्धा दाार्थं तृणाद्यभावार्थ......... मंतिके समीपे सिरागतं यासां आगंतुकतोयपूर्णा वा उद्भिजतोयाभावे सति परैरलक्ष्यमार्गा.........लक्ष्यमूलतां कर्तुं 25 सपरिवाहा अधिकजलप......"रिवाहनार्थं सह परिवाहेन वर्तत इति । अन्यथान्योऽन्यसंप्लवो वप्रोपघातश्च स्यात् । पद्मग्राहवत्वे च दुःखावतारिणीं कारयेदिति संबंधः । वप्रविधानायाह ।* चतुर्दण्डा"वकृष्टं परिखायाः षट्दंडोच्छ्रितमवरुद्धं "द्विगुणविष्कभं खाताद् वप्रं कारयेदिति ॥ [२.३.९] १ SJG द्विदंडांतरा वा dropped. २ SJG °गाधा । ३ SJG भूमिवशेन dropped. ४ SJG तत् before द्वि। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनानी चतुरो दंडानवकृष्याभ्यंतरपरिखायाश्चतुर्दडप्रमाणमंतर मुक्त्वेत्यर्थः । पट्एंडोच्छ्रितं चतुर्विंशतिहस्तोत्सेधमवरुद्धं पाषाणादिभिर्बद्धोभयपाच पांशुविसरणनिषेधार्थम् । द्विगुणविष्कंभमुच्छ्रयाद् द्विगुण विस्तारं द्वादशदंडविस्तारमित्यर्थः । खातादिति खातोत्थपांशुभिर्वप्रं प्राकाराधिष्ठानं सेत्वाकारत्वाच्च वप्रशब्दप्रयोगः । तं कारयेत् ॥ छ । अर्द्धचयं मंचकपृष्ठं कुंभकुक्षिकं वा हस्तिभिर्गोभिश्च क्षुण्णं कण्टकि गुल्मविषवल्लीप्रतानवंतमिति ॥ [२.३.१०] ऊर्द्धचयमंतर मुक्त्वा चयाः शिलादीनां कर्तव्या दाार्थम् । ततश्च चल्मीकशिखराकारो भवतीति भावः । मंचकपृष्ठं मध्ये किञ्चिन्निम्नं प्राकार"दाार्थम् । कुंभकुक्षिकमिति । आयतशिलास्तंभवत्त्वात् कुंभसमानकुक्षिकश्चीयते। दुरारोहो भवत्विति । हस्तिभिर्गो"मिश्च क्षुण्णं हस्तिभिर्महाकायत्वात् गोभिस्तीक्ष्णखुरत्वात् घनत्वापादनार्थम् । कंटकिनो बदर्यादयः । गुल्मा भल्लातक्यादीनां(नि), विषाणि हलिनीकरवीरादीनि, वह्यो हस्तिवारुणीकरमर्दाद्यास्तत्प्रतानवंतं मूल इत्यर्थः ॥ छ॥ पां"[11B]शुशेषेण वास्तुच्छिद्रं राजभवनं वा पूरयेत् ॥ [२.३.११] पांशुशेषेण च प्रपूरणावशिष्टपांशुभिर्वास्तुच्छिद्रं नगरवास्तुनिम्नं राजवास्तुनि15 शांतभूमिनिम्नं वा पूरयेत् । समत्वापादनार्थम् ॥ छ । वास्योपरि प्राकारं विष्कंभद्विगुणोत्सेधमैष्टकं द्वादशहस्तादूर्द्धमोज युग्मं वा आचतुर्विंशतिहस्तादिति कारयेदिति ॥ [२.३.१२] - उक्तलक्षणस्य वप्रस्योपरि प्राकारं प्रकृष्टाकारं विष्कंभद्विगुणोत्सेधमिति विस्तारद्विगुणोच्छ्रायम् । अनुक्तोऽपि विष्कंभस्त्रयोदशविधः प्राकाराणां वक्ष्यमाणादुत्सेधात " प्रत्येकमर्द्धप्रमाणः कार्य इति व्याप्त्यर्थं वचनम् । ऐष्टकं इष्टकचितम् । द्विचत्वारिंशदंगुलहस्तेन द्वादशहस्तादाद्यात् प्राकारादूर्द्धमुपरिष्टादोजं विषमहस्तसंख्यं युग्मं समहस्तसंख्यम् । तद्यथा । त्रयोदशहस्त ओजश्चतुर्दशहस्तो युग्मः, पंचदशहस्त ओज इत्येवं योज्यमाचतुर्विशतिहस्तात् द्वादशहस्तादूनः चतुर्विंशतिहस्तादधिको न कार्य इति नियमः। ओज युग्मग्रहणं च ह......न्यूनेन वितस्त्यंगुलादिभिरुत्सेधवृद्धिर्न कल्पनीयेति ज्ञापनार्थम् । ४ एवं च त्रयोदशैव प्राकारा भवंति । विष्कंभप्रमाणमपि षट्हस्तादित्यर्थादापद्यते । एवं ल......"कारयेत् ॥ छ । रथचर्यासंचारं तालमूलं मुरजकैः कपिशीर्षकैश्चाचिताममिति ॥ [२.३.१३] रथचर्यासंचारस्य प्रमाणं पंचारनिप्रमाणा वक्ष्यति । पंचारत्नयो रथपथ 30 ई......"[12A ]मुरजक-कपिशीर्षकावरुद्धं प्रदेशं विहाय प्राकारमस्तके पंचारनिप्रमाणोऽ SJG °क° dropped | RSJ विशेषेण। ३ SJG राजभवनं dropped. SJG ओजं यु। ५ SJG आ seperated from चतु। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय-राजसिद्धान्तटीका वकाशो योधानां संचारार्थ कार्यः । तालमूलं तालवृक्षाकारमूलं दाार्थम् । मुरजकै". मुरजकाकार्योधावरणकुट्टाकैः कपिशीर्षकैः कपिशीर्षकाकोरस्तीक्ष्णाप्रैरेकजातीयैर्विमित्रैर्वा आचितम बहिर्मस्तकधारा यस्य छ॥ . पृथुशिलासंहतं वा शैलं नत्वेव काष्ठमयं कारयेत् । अग्निरवहितो हि तस्मिन् वसतीति ।[२.३.१४] संपत्तौ तु पृथ्वीभिः शिलाभिः संहतं शैलं वा प्राकारं कारयेत् । न त्वेव काष्ठमयं कारयेत् । हि यस्मादग्निर[वहितः]"सन्निहितस्तस्मिन् वसति । अल्पेनापि यत्नेन परैर्निहितः सर्वं दहतीति भावः । प्राकारमस्तके युद्धार्थमट्टालकादिविधानायाह ।* _ विष्कंभचतुरस्रमहालकमुत्सेधसमावक्षेपसोपानं कारयेत् त्रिंशइंडां- " : तरं चेति ॥ [२.३.१५] ' 'विष्कंभेन पंचारनिप्रमाणेन समानाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यस्य तमहालकम् । 'अट्टातिक्रमहिंसयोरिति पाठात् । प्राकारातिक्रमं परहिंसां च आ समंताल्लातीत्यट्टालकः । प्राकारोपरि युद्धार्थ कोष्ठसन्निवेशः । तद्यथा । पंचावरणस्तंभचतुष्टयोपरि तुलाफलकास्ताराच्छाद्यककपोतपाल्यादिपरिकरोद्ध मुरजकपताकादिरचनोऽट्टालकः । उत्सेधसमावक्षेप-15 सोपान इति । सवप्रस्य प्राकारस्य य उत्सेधस्तस्य समो योऽवक्षेपः तत्र सोपाना'[12]न्यारोहणार्थ निश्रेणीपदानीव यस्य । तद्यथा । वप्रमूलात् प्राकारोत्सेधं यावदायातं सूत्रमवक्षिप्यान्तर्मुखं तत आरभ्य सोपानानि क्रियते । ततश्चायुधव्यापृतोभयकराणा "मपि योधानामारोहणं सुखेनैव संपद्यत इति भावः । तमेवंभूतं कारयेत् । त्रिंशदंडांतरं च त्रिंशत्रिंशइंडा अंतरं यस्य । जातावेकवचनम् ।यावत्प्राकारस्यायतत्वं [त]"त्रिंशत्रिंशइंडेष्वद्यालकः कर्तव्य । इत्यर्थः । एवमट्टालकयोः सर्वत्र त्रिंशदंडमंतरं कर्तव्यमिति भावः ॥ छ । द्वयोरहालकयोर्मध्ये सहर्म्यद्वितलामध्यर्धा यामां' प्रतोलीं कारयेत् ॥ [२.३.१६] द्वयोरिति वीप्सा द्रष्टव्या । द्वयोर्द्वयोरट्टालकयोर्मध्ये त्रिंशदंडांतरे सहर्म्यद्वितलां हHिमुत्तरा]गारं घंटाद्युपेतं तेन सह द्वे तले यस्यास्ताममध्य यामाम् । 23 अट्टालकः समचतुरस्रो भवति । तदपेक्षयाऽध्यीयामामर्द्धनाधिक आयामो भवतीत्यर्थः । त"धथा । पंच[]रनिविस्तार आयामस्तदर्द्धनाधिक आयामो भवतीत्यर्थः । आयतचतुरस्रा प्रकर्षण तोल्यते परानीकमस्यां स्थितैरट्टा [13A] लाधिकोत्सेधायामिति प्रतोली तां कारयेत् ॥छ। SJ सहितं; G संहितं । २ SJG कारयेत् after शैलं। ३ SJG कारयेत् dropped. ४ SJ Sutra ends at कारयेत् ; त्रिंशद्दडा read with the following sutra. ५ SJ द्वितला अर्धायामां; Jvl. °मर्धायामां । कौट.3 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौतिनिणीतिनानी अहालकप्रतोलीमध्ये त्रिधानुष्काधिष्ठानं संपिधानं छिद्रफलकसंहतमिंद्रकोशं' कारयेत् ॥” [२.३.१७] अट्टालकप्रतोलीमध्ये सार्द्धदशांगुलोपेतचतुर्दशदंडप्रमाणेऽत्रापि वीप्सैव त्रिधानुष्काधिष्ठानं पंचारनिधनुस्तत्र धन्विनं स्थापयेदिति वचनात् । त्रयाणामधिष्ठानं पंच। दशहस्तायतं भवति । सापिधानैश्छिद्रफलकैस्संहतम् । सच्छिद्रफलकत्वं शरनिर्गमार्थ सापिधानत्वं परशरप्रतिस्खलनार्थम् । इंद्रकोशं इंद्राकार: कोशः । अक्षिसमानसहनच्छिद्रोपेतत्वात्तं कारयेत् ॥ छ । अंतरेषु द्विहस्तविष्कभं पार्थे चतुर्गुणायाम देवपथं कारयेत् ॥ [२.३.१८] 10 अंतरेषु स(सा)द्वैकत्रिंशदंगुलाय"तपंचदंडेषु द्विहस्तविष्कभम् । पार्षे प्राकारबहिःपार्श्वे चतुर्गुणायाम अष्टहस्तं सारदारुमयम् । ताम्रपत्रिकाबद्धमधाकृतसरमार्ग सर्वतः छादितं देवपथमा प्रवेशनिर्गमत्वात् प्राकारमूलरक्षणार्थं कारयेत् ॥छ। [13B] दंडांतरा द्विदंडांतरा वा चर्याः कारयेत् ॥ [२.३.१९] दंडांतरा चतुर्हस्तांतरा द्विदंडांतरा वा अष्टहस्तांतराश्चर्या उत्सेधसमावक्षेप॥ सोपाना अस्यांतरतः कारयेत् प्राकारारोहणार्थम् । प्राकार समालक्ष्य...... । अष्टा"लकसोपानानि तु महान्ति एकदैव बहुपुरुषारोहणार्थानि । चर्यारूढाश्च योधाः कपिशीर्षकाच्छादिता युध्यते । अग्राह्ये देशे प्रधावनिका(का) निष्किरद्वारं चेति ॥ [२.३.२०] महाखातवप्रयोर्मध्ये चतुर्दडप्रमाणेऽवकाशे गोमूत्रिकाकारा पुरुषप्रमाणमुंडप्रा0 कारेणाग्राह्ये परेषां निष्किरद्वारैर्निर्गत्य परिखारक्षार्थं प्रधावंति योधा अस्यामिति प्रधावनिकां कारयेत्।" निष्किरद्वारं च अग्राह्य एव देशे देवपथस्याधस्तात् प्राकारकुक्षिप्रदेशेषु, निष्किरद्वारं निष्कीयते बहिःपरिखारक्षार्थ योधा येन तदारोहणावतरणार्थं कृतं तिर्यप्राकारबाह्यभित्तिषु खल्पतरसोपानं कालायसदृढकपाटं कारयेत् । जातावेकवचनम् । वक्ष्यति च दुर्गलंभोपाये 'निष्किरादुपनिष्कृत्य दुर्गस्थान् घातयेदिति । ४ परिखादीनां रक्षार्थमाह ।* Svl. G सा; S, J स| The Ms. here reads स° but in the comm. सा। २ SJG °मितीन्द्रकोशं । ३ SJG °गुणायाममनुप्राकारमष्टहस्तायतं । ४ The Ms. reads देवपकथं । ५ SJ चार्या:; Svl. चर्या; G वाचार्या but in his comm. he seperates वा from चार्याः, the latter explained as भारोहावरोहे भूमिः। T चार्य =paths । ६SJG प्रधावितिकां । ७SJ निष्कुर; Svl. निष्कर; G निष्कुहद्वारं = कोटरविचरं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय-राजसिद्धान्तटीका 'पहिर्जानुभंजनीशूलप्रकरकूपकूटावपातकंटकप्रतिसराहिपृष्टतालपत्र नाटकश्चदंष्ट्रार्गलोपस्कन्नपादुकांबरीषकोदपानकैः प्रतिच्छन्नं छन्नपथं कारयेत् ॥ [२.३.२१] बहिर्जानुभंजनीति जानुभंजनप्रयोजना सचक्राष्टपादसमन्विता सरभस्येवाधश्चत्वार ऊर्द्ध......ति सायं......भंजनं करोतीति।शलाप्रकारकूपसारदारुमयशूलप्रकरोपल-: क्षितकटपांशुच्छादितकूपैः कूटानि मृगपक्षिवधार्थमिव.........बंधनार्थमिव कृता गर्ताः , कंटकप्रतिसरा अयोमयकंटकमाला, अहिपृष्टं निर्मासाहिपृष्टसमानमयोमयमेव । ...... ......ति । शंगाटक[14A]श्वदंष्ट्रा लोहमय्यो हस्तिगतिस्खलनाय । अर्गलाः सारदाझमय्यो यंत्रेण निपातिता मार्गनिरोधं कृत्वा तिष्ठंति.........देशैर्वा पादुका प"दप्रमाणागत वितस्त्यवगाढा यत्र पतितः पादोऽस्थान एव भज्यते। अंबरीषो निधूमः कारीषाग्निः...... शयाः, तैश्छन्नमिति निरंतर व्याप्तम् । छन्नपथमिति कटपांशुभिः प्रच्छादितत्वात् परैरल-" क्ष्यत्वादापदि रात्रौ गूढं पिहितत्वाच्च तं छन्नपथं......दिति । .:........दिद्वाराण्याह ।* प्राकारमु भयतो मेंढकमध्यर्द्धदंडं कृत्वा प्रतोलीषट्तुलांतरं द्वारं निवेशयेदिति ॥ [२.३.२२] प्राकारस्य द्वारप्रतोलीक्षेत्रमात्राविशेषितभूप्रदेशस्य, उभययोगे षष्ठ्यपवादे द्वितीया, is तम् ।उभयत इति उत्तरद्वारे पूर्वापरयोः, पूर्वद्वारे दक्षिणोत्तरयोः, दक्षिणद्वारे पूर्वपश्चिमयोः, पश्चिमद्वारे दक्षिणोत्तरयोः, प्राकारोत्सेधयोरुभयत इति योज्यम् । मेंढकमिति वास्तुशास्त्रे लोके च मेषस्य संज्ञा । तत्र शृंगाकारग्रहणार्थमुपादानं कपिशीर्षकमुरजादिवत् । मेषभंगद्वयसंस्थान द्वारशुषिराभिमुखाग्रबाहुप्राकारं तयो.........रतोऽपि कृत्वा मेंढकाकारप्रतिपादने च निराश्रितत्वात् प्राकारकोणेनादाार्थं भवति इति भावः । अध्यर्द्धदंडमिति । षहस्तविष्कंभं आयामस्तु द्वारक्षेत्रत एव सिद्धः......"मुभयमेंढक श्रृंगचतुष्टयमध्येऽष्टहस्तं द्वारमार्गावकाशं मुक्त्वा कार्य इत्यर्थः। तमेवंविधं मेंढकं कृत्वा प्रतोलीषट्र तुलांतरं द्वारं निवेशयेदिति संबंधः । प्रतोल्याः ष......नामंतराणि यस्मिन् कपाटयुगद्वितयांतरे तत्प्रतोलीषट्तुलांतरं द्वारं निवेशयेत् । प्रतोलीक्षेत्रस्य प्रमाणमाह*। पंचदंडादेकोत्त[14]रमा अष्टदंडादिति चतुरस्रं षड्भार्गमायामाद- 3 धिकमष्टभागं वेति ॥[२.३.२३] द्वादशहस्तोत्सेधस्य प्राकारस्य पंचदंडं द्वारक्षेत्रम् । तस्मादेकोत्तरमिति एकैकेनाशोनोत्तरमा अष्टदंड...... च दंडस्योपरि दंडनयमधिकम् , तच्च द्वादशधा क्रियमाणं S भगिनीं; Svl. भयञ्जनी; J भञ्जनी; T भञ्जनी । २ SJ त्रिशूलप्रकारकूटा'; G निहालSJG स्कन्दन।४SJG अम्बरीषोदपानकैः। ५SJG प्रतिच्छन्नं dropped. ६SJ मण्डलक; Svl. मण्डक; G मण्डपक। ७G तलान्तरं । The Ms. reading after पंचदंडा is not quite clear. 'देकोत्त' can be read with the help of the other texts. After it SJG read वृध्याऽऽष्ट । ९ गा ',Jvl. गा, गममा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनानी हस्तमात्रमेव भवति । ततश्च प्रथमप्राकारे पंचदंडं, द्वितीये हस्तोत्तरं, तृतीये द्विहस्तोत्तरं, चतुर्थे त्रिहस्तोत्तरं, पंचमे......"डमेवं चतुर्विंशतिहस्तेऽष्टदंडकमिति । षड्भागमायामादधिकमष्टभागं वा खकीयखकीयप्रमाणात् षड्भागमायामादधिकमष्टभागं वा । पंचदंडे आयामे षड्भागो हस्तत्रयं चतुरंगुलानि । अष्टमभागः सार्द्धहस्तद्वयमित्येवं द्वादशखपि क्षेत्रेषु योज्यम् । तथैव द्वारतलस्योत्सेधं त्रयोदशविधमेव दर्शयन्नाह ।* पञ्चदशहस्तादेकोत्तरमा अष्टादशहस्तात् तेलोत्सेधः ॥ [२.३.२४] मेंढकप्राकारस्यायमुच्छ्यो द्रष्टव्यः । तन्मस्तक एव यस्मात्तलं तस्य तलोच्छ्रयः । साढ़े द्व......रुत्तर.........ह्यम् ॥ छ । स्तंभस्य परिक्षेपाः षडाया "मा द्विगुणो निखातश्चलिकायाश्चतुर्थो भागो वेति ॥ [२.३.२५] द्वादशहस्तोत्सेधे प्राकारे द्वादशहस्तोत्सेध.........द्वारग्रहतुलापिंडपल.......स्तारभूमिकाबंधादौ द्रष्टव्यम् । तलोच्छ्यवृद्ध्यैव स्तंभोच्छ्यवृद्धिाख्याता। स्तंभस्थौल्यमाह। स्तंभस्य परिक्षेपाः......[15A] द्वादशहस्तायामस्य द्विहस्तं स्थौल्यं भवतीत्यर्थः । स्तंभायामस्य षष्ठोंशो विष्कंभ इति भावः। द्विगुणो निखा......। न त्वेव काष्ठमयं कार". is येत् । अग्निरवहितो हि तस्मिन् वसतीति वचनसामर्थ्यात् । प्रतोल्यां सकलकाष्ठं ताम्रवेष्टितं द्रष्टव्यम्...... परिक्षेपचतुर्थभागप्रमाणं भवति ।” एवं द्वारनिवेशमभिधाय मेंढकप्राकारमस्तकनिविष्टस्यादितलविधानमाह* । आदितलस्य पंचभागाः शाला वापी सीमा [गृहं च । दशभागिकौ] द्वौ प्रतिमंचौ ॥ [२.३.२६] तद्यथा । एवं भागा स्तले कार्याः प्रत्यंशं पंचकोष्ठकाः । यथायोगं विभागोऽत्र शालासीमागृहादिषु॥ कोष्ठकस्य त्रिभिख्यंशैः कोष्ठको जायतेऽत्र तु। त्रिभिः षडशैः कोष्ठार्द्ध पादोऽपि द्वादशांशकैः ॥ ......कोष्ठत्रयं व्यंशैरुभयोः पार्श्वयोरपि । पंचकोष्ठा भवेद्वापी मध्यस्थं कोष्ठकत्रयम् ॥ द्वारबंधप्रदेशस्तलव्यपदेशं न लभते । जनावकाशप्रदेशाभावात् । आदितलस्य पंच .........” प्रमाणस्य पंचभाग आयामेन विंशत्यादिहस्तविष्कंभेन दंडादिप्रमाणोऽभ्यंतरभागावस्थितः । शाला प्रहरणावरणादिस्थानम् । शालाग्रतः स्थितं षडंगुलांतरं शुषिरं वापी 30 ......रत्वात् । यया प्रविशतः शत्रूनुपरिस्थिताः प्रहरति । अग्रस्थितः शालाप्रमाणो भागस्सीमागृहम् । बाह्याभ्यंतरभागयोः सीन्नि स्थितत्वात्। [15B] सीमागृह युद्धार्थम् । 3S माऽष्टादश। २G तु। ३ Svl. क्षेप। ४ SJ डायामो। ५SJG वा dropped. ६ G समत्तवारणौ after दशभागिको । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीय-राजसिद्धान्तटीका २१ युद्धार्थी दशभागिको द्वौ प्रतिमंचौ । अिर्द्धदंडादिप्रमाणौ वापीभागस्योभयतः द्वाररक्षकावस्थानभूतौ प्रतिमंचौ प्रविशतां परिज्ञानार्थम् । आदितलस्य । ......."धा कृत्वा वाप्याः पार्श्वद्वयेऽपि च । प्रतिमंचौ च तौ कार्यो गोप्तृणां स्थितये सदा॥ प्रविशतां परिज्ञानार्थम् ॥ छ । अंतरमाणी' हयं चेति ॥ [२.३.२७] शाला - वापी- सीमागृहप्रतिमंचावरुद्धप्रदेशे.........” मंतरमित्युच्यते । तत्र आणी इत्याणिद्वयं सोपानमार्गद्वारद्वयमित्यर्थः । शेषप्रदेशद्वये हयं रक्षकशयनासनार्थ धवलगृहम् । द्वितीयतलविधिमाह ।* समुच्छ्रयादर्द्धतले स्थूणा बंधश्चेति ॥ [२.३.२८] समुच्छ्रयात् पंचदशहस्तादद्धं सार्द्धसप्तहस्तः समुच्छ्रयः । उच्छ्यापेक्षयाऽर्द्धतलमुच्यते । क्षेत्रं त्वादितलसमानम् । स्थूणाबंधश्चात्र स्थूणाः क्षुद्रस्तंभा आदितलस्योपरि स्थूणा......न्यासं कृत्वा, बंधो द्वितीयतलबंधः। स्तंभतुलादिभिः कार्य इति वाक्यशेषः॥छ। अर्द्धवास्तुकमुत्तमागारं त्रिभागान्तरं वेति ॥ [२.३.२९] .........वास्तुतश्च भूतलं चार्द्धप्रमाण......तीयतलमित्यर्थः। उत्तमागारं च घंटाकलशादिरचनया, त्रिभागांतरं वा द्वितीयतलात्तृतीयतलं त्रिभा............" कर्तव्यमित्यर्थः ॥ छ । इष्टकावबंद्धपार्श्व वामतः प्रदक्षिणसोपानमिति ॥ [२.३.३०] इष्टकावबद्धपार्श्वमिति काष्ठ......"निषेधार्थ वामत इति द्वारनिर्गमे भागे । ॥ प्रदक्षिणसोपानमिति । पश्चिममेंढकभित्तेरारभ्य पश्चि...... मेंढककभित्तिलग्नानि द्वारं यावत्सोपानकानि धीयंत इत्यर्थः ॥ छ । गूढभित्तिसोपानमितरतः [16A] द्विहस्तं तोरणशिरः। त्रिपंचभागिको द्वौ कपाटयोगौ, द्वौ परिघाविति ॥ [२.३.३१] दक्षिणतोऽभ्यंतरभागे गूढ मेंढक......"कभित्तौ सोपानं कार्यम् । गूढप्रवेशनिर्ग- 25 मार्थम् । द्विहस्तं तोरणशिर इति । उत्तरदेहल्यां द्विहस्तं शुषिरं मुक्त्वा......करतोरणं विधातव्यम् । वातप्रवेशनार्थ शरमोक्षार्थं च । त्रिपंचभागिको द्वौ कपाटयोगाविति । पंचधा वि...... अंतर्बहिश्चैकैकं पंचभागं परित्यज्य मध्यमास्त्रयः पंचभागा अंतरंगयोः कपाटयोगयोस्तौ त्रिपंच[ भागिको द्वौ कपाट ]योगौ.........पंचमयोश्च पंचमभागयोः संधौ भवत इत्यर्थः । कपाटयोगद्वयग्रहणं द्विर्बद्धं सुबद्धं भवतीति । द्वौ परिघौ प्रत्ये- 38 कमित्यर्थः । समंततः कपाटोपघातकं हंतीति परिघा......कपाटयोर्मध्ये त्रिभागपार्थे अभ्यंतरतः स......"म्य भवतः । द्वितीयस्यापि तथैव ॥ छ । ___+'सपाददंडादिप्रमाणौ' पाठांतरम् । These words are written in the upper margin of the leaf. . SJ अंतरामणि; G अंतरम् आणिः। २ SJG आध। ३SJ बन्ध । ४ Svl. द्वौ द्वौ । ५ SJG °वा। ६ SJG द्वौ द्वौ। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ...... नीतिनिर्णीतिनानी अरनिरिंद्रकीलक इति ॥ [२.३.३२] चतुर्विंशत्यंगुलो लौहः कपाटयुगसंधिमाक्रम्याधोदेहलीविवरं प्रविशति कीलस्तस्मिन् इंद्रजिता किलेंद्रो बद्ध इंद्रकील इत्युच्यते । ऊर्द्धभागेऽपीष्यते, मस्तककीलाख्यः ॥छ॥ पंचहस्तमाणिद्वारमिति ॥ [२.३.३३] कपाटयोगयोरेकैकवामकपाटे पंचहस्तोत्सेधं आणिद्वारं क्षुद्रकद्वारमित्यर्थः । ."तेऽपि द्वारे प्रवेशनिर्गमार्थ अत्रापि कपाटार्गलादिकं चार्थप्राप्तं कपाटानां च लोहकंटकचितत्वमर्थापन्नम् , दुर्गविधानप्रस्तावात् ॥ छ । चत्वारो हस्तिपरिघा इति ॥ [२.३.३४] कपाटरक्षार्थ......"हस्तिनामसाध्याश्चत्वारः परिघाः हस्तिनिवारणार्थ हस्तिपरिघाः ॥ छ॥ निवेशार्द्ध हस्तिनखैमिति ॥ [२.३.३५] निवेशः प्रतोल्याः पंचदंडादिस्तदई सार्द्धदंडद्वयादि हस्तिनखं देहलीतो......” [16B] कारेण क्रमान्निम्नं शिलामयम् ॥ छ । मुखसमः संक्रमः संहार्यो' भूमिमयो वा निरुदक इति ॥ [२.३.३६] मुखं द्वारशुषिरं तत्समः परिखासु संक्रमो मार्ग इत्यर्थः । अधिकस्य प्रयोजनाभावात् ।......"रुषा मुखे मांति तावतामेव परिखासु संक्रमणं युक्तम् । स च संहार्यः काष्ठयंत्रादिना सोदके खातप्रदेशे, भूमिमयो वा निरुदके। तावती भूमिमपहाय खातव्यमित्यर्थः । प्रतोली........."शेषमाह ।* प्राकारसमं मुखमवस्थाप्य त्रिभागगोधामुखं गोपुरं कारयेदिति ॥ [२.३.३७] मुखमादितलादधःशुषिरं तच्च द्वादशहस्ते प्राकारे पंचदशहस्तं 'पंचदशहस्तस्तलोत्सेध' इति वचनात् । अत्र गोपुरे प्राकारसममेव मुखं कर्त्तव्यम् । द्वादशहस्ते प्राकारे द्वादशहस्त एव मेंढकः । दशहस्ताः स्तंभाः हस्तद्वयं च स्तंभो परिकरस्य । एवं सपरिकरः स्तंभोऽपि द्वादशहस्त...... एवं प्रतोलीतस्त्रिहस्तान्न्यूनोच्छ्यमित्येको विशेषः । त्रिभा25 गगोधामुखमिति त्रिभागं क्षेत्रस्य पंचदंडा...मग्रतोधि......मुखाकारो मेंढकप्राकार एव .........यो योधानां युद्धसौका(कर्यार्थ द्वाररक्षातिशयार्थ च । प्रायो विवीताभिमुखं गवामेतत् द्वारमिति गोपुरं......टकयोः शृंगाटकाकारेण वि...... तयोर्गोधामुखाकारं द्वारं भवति तत् कारयेत् । शेषं प्रतोलीसमानम् । SJG क dropped. २ SJG °मणि'; Svl. °माणि' । ३ SJ शार्ध। ४ SJG नखः। SJG read this Sutra with the following मुखसमः etc. ५ SJG संक्रमोऽसंहार्यो वा भूमि etc. ६J suggests to read त्रिभागमधोमुर्ख for more and translate “Gopura is to be in three parts and with its entrance below." Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ कौटलीय-राजसिद्धान्तडीका पु"[17A] करिणीद्वारमाह ।* प्राकारमध्ये वापी कृत्वा पुष्करिणीद्वारम् ॥ [२.३.३८] प्राकारयोर्मेढकयोर्मध्ये यच्छुषिरं तत्सम......फलकास्तारो भूमिकाबंधो......." युद्धसौका(क)र्यार्थमनेनैव विशेषेण प्रतोल्येव पुष्करणीद्वारमित्युच्यते । चतुरस्रा वापीत्युच्यते......चतुरस्रा तु......णीत्येकोऽर्थः । कुमारीपुरमाह ।* चतुः"शालमध्य विवृतांतरं साणिकं कुमारीपुरमिति ॥ [२.३.३९] चतस्रश्चतुर्दिशं शाला एव कार्याः । न सीमागृहव्यपदेशः । प्रतोल्यपेक्षया अन्तरमर्द्धनाधिकं वापीस्थाने विधेयम् , प्रतिमंचक...... पनीय तत्क्षेत्रमपि वापीमध्ये प्रक्षिप्यैवमर्द्धनाधिकमंतरं भवति । तच्च साणिकं आणियुक्तं तुलाफलकांतरे छिद्रयुक्तं युद्धसौक- " र्यार्थ कुमारीपुरमित्र सर्वतः कुट्यमुक्त......"नं शेषप्रतोलीसमानमिति । .मुंडकद्वारमाह ।* मुंडहर्म्यद्वितलॅमुंडकद्वारमिति ॥ [२.३.४०] मंडेनोत्तमागाराभावात् । हर्म्यद्वितलेन युक्तं प्रतोलीद्वारमिव मुंडकद्वारम् । यथा......"रहितो मुंड इत्युच्यते । तथा द्वारमप्युत्तरागाररहितमिति । पंचद्वारभेदानभिधाय सर्वापवादमाह ।* भूमिद्रव्यवशेन वा निवेशयेदिति ॥[२.३.४१] भूमेः समत्वं विषमत्वं च......[17B]निम्नता च दुर्गा भूमिस्तदैकयैव परिखया पर्याप्तमथ समा तदा पंच सप्त वा परिखाः कारयेदिति मानवाः । यदि द्रव्यं काष्ठहिरण्याअधिकं तदा उक्तादधिका अपि विशेषात् । न्यूने द्रव्ये न्यूना इति । निवेशयेदुर्गमिति । वाक्यशेषः ॥ छ । प्राकाराचारूढयोधरणोपकरणस्थानार्थ...... ।* [त्रिभो]"गाधिकायामा भांडवाहिनीः कुल्याः कारयेदिति॥[२.३.४२] यदि दशहस्तो विष्कंभस्तदा पंचदशहस्त आयाम इत्यादि । भांडं रणोपकरणं तद्वहंति चाविच्छिनतया नियूंढेऽन्यदाधेयमिति]......"कुल्यासु जलमविच्छिन्नं तथात्र 22 भांडमिति । कुल्याव्यपदेशो भांडशालानाम् , ताश्चानुप्राकारमंतः कारयेत् । यद्वहंति तास्तदिदानी भांडमाह*।। SIG कृत्वा वापी। २ S पुष्करिणी द्वार; Svl. °णीद्वार; J reads पुष्करिणी, bub reads द्वारं with the following sutra चतुः शालमध्यर्धान्तराणीकं, and says it should be read as सद्वारं चतुःशालमध्यमर्धान्तराणीकं । ३ SJ °र्धान्तराणीकं. Svl. धाववृत्तान्तरमाणिकं; Gर्थान्तराणिकं । SIG हयं द्वितलं; Svl. हयद्वितलं । + SJ read this Sutra with the following. SJG Aarrera dropped. y A part of the FIAT is lost But SJG read the Sutra with त्रिभागा; so does the commentary. J यामाः। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिनिर्णीतिनानी तासु पाषाणकुद्दालाः कुठारीकांडक[ल्पनाः] । मुधुंढीमुद्गरा दंडाश्चक्रयंत्रशतघ्नयः॥ कार्याः कारिकाशूलोवेधनाग्राश्च वेणवः। उष्ट्रग्रीव्यग्निंसंयोगाः कुप्यकल्पे च यो विधिः ॥ [२.३.४३] तासु कुल्यासु पाषाणा हस्तयंत्रादिक्षेप......"लाः खननयुद्धार्थाः, कुठार्यश्छेदनयुद्धार्थाः, कांडकल्पनाः शरसंस्कारोपकारणानि । मुषंढ्योः गदादि......। मुद्रा रजकमुद्गराकाराः प्रहरणविशेषाः, दंडा लोहदारुमया ... [चक्रा]"णि हस्तयंत्रक्षेप्याणि, यंत्राणि जामदग्यसर्वतोभद्रबहुमुखादीनि, बाणपाषाणादि......चिताशतं हंतीति...... कारिका इत्ययस्कारघटिताः, शूलावेधनायाश्चक्रकाख्याः, वेणव उष्ट्रग्रीवाकार... " दुर्गलंभे.........णैर्यत्रैस्तैलादिकानि यैः क्षिप्यते। कुप्यकल्पे च कुप्यानां कल्पना... .........[इति मुग्धविलासाङ्कयोग्यमविरचित] [18A]नीतिनिर्णीत्यभिधानायां कौटलीय-राजसिद्धान्तटीकायामध्यक्षप्रचारे तृतीयोऽध्यायः॥ . . [अथ दुर्गनिवेशनामा चतुर्थोऽध्यायः।] ........."विधीयत इति सूत्रार्थः । संबंधस्तु विहितमपि दुर्गमनिविष्टमनुपयोग। ......"नामा कश्चिद्देवविशेष इति प्रतिकूलत्वात्सर्वैर्देवैर्विजित्योत्तानः पातितस्तस्य...... दने ब्रह्मा स्थितः । देवो...... दंगमवष्टभ्य स्थितः । स तत्रस्थः पूज्यते । तस्य मर्मसिरावंसादि परित्यज्य निवेशः क्रियमाणः प्रशांतो भवतीति । वास्तुविभागः कर्त्तव्य इति शेषः । त्रयःप्राचीनाराजमार्गा......र्वाभिमुखमंचतीति।त्रय उदीचीना उदग्मुखाः प्रागुदग्ग्रहणं मंगल्यार्थम् । ते चैकाशीति पदे नवनवकविभक्ते वास्तुनि द्रष्टव्याः । वास्तुहृदया"दुत्तरे नवभागे यथोक्त............"पुरविधानमिति वचनसामर्थ्यात् । नह्येकाशीति पदं विहाय नवभागसंभवः । तथा चोक्तम् ।। "दश पूर्वायता वंशा दश चैवोत्तरायताः। नवभागकृता शेयाः पदानां नव............ । दश पूर्वामुखान्यनुवंशे सूत्राणि प्रसार्य दशैवोदग्मुखानीति। चतुरस्रपादानां नवनवका ॐ भवंति । नवके नवके मध्यमे पदे मर्मत्रिमर्मोद्धंगामिनः.........[रा]जमार्गास्तथैव त्रय उदीचीनास्ते च महामर्मरूपा वंशाः । तथा चोक्तम् । वंशमेकहृदयं नवमर्म चतुःशिरम् । उत्तानसंस्थितं विद्धि पुरुषं वास्तुक ......... ॥[18B] [इतोऽग्रे मूलादर्शस्त्रुटितः।] SJG कुद्दालकुठारी । २ SG मुसृण्ठि Svl. मुसृष्ठी । J भुशुण्डी। ३ SJG दण्डचक्र। ४SJG का। ५ G शूल'। ६ SJG ग्रीव्योऽग्निसंयोगाः। ७S,Jvl. योऽवधिः। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटलीयमर्थशास्त्रम् । विनयाधिकारिकम् -प्रथमाधिकरणम् । [प्रकरणाधिकरणसमुद्देशः।] tॐ नमश्शुक्र-बृहस्पतिभ्याम् । पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यैः प्रस्थापितानि । प्रायशस्तानि संहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम् । तस्यायं प्रकरणाधिकरणसमुद्देश: . विद्यासमुद्देशः॥ वृद्धसंयोगः ॥ इन्द्रियजयः॥ अमात्योत्पत्तिः॥ मत्रिपुरोहितोत्पत्तिः॥ उपधाभिश्शौचाशौचज्ञानममात्यानाम् ॥ गूढपुरुषोत्पत्तिः॥ गूढपुरुषप्रणिधिः ॥ स्वविषये कृत्याकृत्यपक्षरक्षणम् ॥ परविषये " कृत्याकृत्यपक्षोपग्रहः॥ मत्राधिकारः॥" दूतप्रणिधिः॥२ राजपुत्ररक्षणम् ॥ अवरुद्धवृत्तम् ॥" अवरुद्ध वृत्तिः॥"राजप्रणिधिः॥ निशान्तप्रणिधिः॥" आत्मरक्षितकम् ॥ इति विनयाधिकारिकं प्रथमाधिकरणम् ॥ [१ द्वि.] जनपदविनिवेशः॥' भूमिच्छिद्रापिधानम् ॥ दुर्गविधानम् ॥ दुर्गनिवेशः॥ सन्निधातृनिचयकर्म ॥ समाहर्तृसमुदयप्रस्थापनम् ॥ अक्षपट- ।। गौणनियंधिकारः ॥ समुदयस्य युक्तापहतस्य प्रत्यानयनम् ॥ उपयुक्तपरीक्षा ॥ शासनाधिकारः॥" कोशप्रावेशः ॥" रत्नपरीक्षा ॥२ आकारकमांतप्रवर्तनम् ॥२ अक्षशाली ॥४ सुवर्णाध्यक्षः ॥५ विशिषा(खा)यां सौवर्णिकप्रचारः ॥ कोष्ठागाराध्यक्षः॥ पण्याध्यक्षः ॥" कुप्याध्यक्षः ॥" आयुधागाराध्यक्षः॥ तुलामानपौतवम् ॥" देशकालमानम् ॥२ शुल्काध्यक्षः ॥३॥ ...व्यवहारः ॥२४ सीमाध्यक्षः ॥२५ ... ॥२६ सुराध्यक्षः ॥ सूनाध्यक्षः ॥२० गणिकाध्यक्षः ॥२९ नाविध्यक्षः ॥३° गोऽध्यक्षः ॥३१ अश्वाध्यक्षः ॥३२ हस्त्यध्यक्षः। ] [२ प्र.]रथाध्यक्षः ॥ पत्त्यध्यक्षः ॥३५ सेनापतिप्रचारः ॥६ मूलादर्शस्यायं पत्रमनुपलभ्यम् । अत एतद्विदण्डान्तर्गतः प्रथमाधिकरणप्रकरणसमुद्देशपरिज्ञापकः समग्रोऽपि सूत्रपाठः मुद्रितपुस्तकादर्शात् समुद्धृतोऽत्र । मूलादर्श यत्र यत्र पत्राणां किञ्चिदूर्वाधोभागानुटिताः, तेन च ये ये शब्दा वर्णा वा विनष्टा ते सर्वेऽत्र चतुष्कोणकोष्ठकान्तर्गताः मुद्रिताः ज्ञेयाः। 1 sIG °च्छिद्रविधानम्। 2 svl, G विनिवेशः । 3 तृचेय'; svl तृनिचेय। 4 आक्ष । 5 SIG पटले; svl °पाले। 6 svl °गण। 7 SIG °क्याधि। 8 SIG कोशप्रवेश्यरत्न । 9 SIG शालायां सुवर्णाध्यक्षः । 10 SIG सूत्राध्यक्षः। 11 SIG सीताध्य । सटि• कोट. अर्थ. 1 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् मुद्रा[ध्यक्षः ॥३७ विवीताध्यक्षः ॥ समाहर्तृप्रचारः ॥ गृहप]तिकवैदेशकतापसव्यञ्जनाप्रणिधयः ॥ नागरिकप्रणि [धिः॥” इति अध्यक्षप्रचारो द्वितीयमधिकरणम् ॥] व्यवहारस्थापना ॥' विवादपदनिबंधः ॥ विवाहसंयुक्तम् ॥ दायवि। भागः॥ वास्तुकम् ॥ समयस्यानपाकर्म॥ ऋणादानम् ॥ औपनिधिकम् ॥ दासकर्मकरकल्पः॥ सम्भूयःसमुत्थापनम् ॥° विक्रीतकीतानुशयः ॥" दत्तस्यानपाकर्म ॥२ अस्वामिविक्रयः स्वस्वामिसम्बन्धः ॥२ साहसम् ॥* वाक्पारुष्यम् ॥ दण्डपारुष्यम् ॥ द्यूतसमाह्वयम् ॥७ प्रकीर्णकमिति ॥" धर्मस्थीयं तृतीयमधिकरणम् ॥ छ । ॥ कारुकरक्षणम् ॥' वैदेहकरक्षणम् ॥ उपनिपातप्रतीकारः॥ गू[ २ द्वि.] ढाजीविनां रक्षा॥ सिद्धव्यञ्जनैर्माणवर्कप्रकाशनम् ॥ शंकारूपकर्माभिग्रहः॥ आशुमृतकपरीक्षा ॥ वाक्यकर्मानुयोगः ॥ सर्वाधिकरणरक्षणम् ॥ एकांगवधनिक(क)यः॥ शुद्धश्चित्रश्च दंडकल्पः॥" कन्याप्रकर्म ॥२ अतिचारदंडी इति ॥२ कण्टकशोधनं चतुर्थमधिकरणम् ॥ छ ॥ . 15 दिंडकार्मिकम् ॥' कोशाभिसंह[२]णम् ॥ भृ [त्यभरणीयम् ॥ अनु जीविवृत्तम्॥ समयाचारिकम् ॥ राज्यप्रतिसंधानम् ॥ एकैश्वर्यम् ॥ इति योगवृत्तं पञ्चममधिकरणम् ॥t] प्रकृतिसम्पद ॥' समथा(व्या?)यामिकम् ॥ इति मण्डलयोनिः षष्ठमधिकरणम् ॥ छ॥ 2. पाडण्यसमुद्देशः॥ क्षयस्थानवृद्धिनिश्चयः॥ संश्रयवृत्तिः॥ समज्या यसां गुणाभिनिवेशः॥ हीनसंधयः॥ विगृह्यासनम् ॥ संधायासनम् ॥ विगृह्य यानम् ॥ संधाय यानम् ॥ सम्भूय प्रयाणम् ॥ यातव्यामित्रयोरभिग्रहचिन्ता ॥" क्षयलोभविरागहेतवः ॥२ प्रकृतीनां सामवायिकविप[रि मर्शः ॥१३ संहितप्रयाणिकम् ॥१४ परिपणितापरिप] [३ प्र.] णितापसृताश्च 25 संधयः॥५ संधायप्रयाणकम् ॥६ द्वैधीसंभाविकास्संधिविक्रमाः॥ यातव्य इदं सर्वं पञ्चमाधिकरणं मूलादर्शलिपिकारेण परित्यक्तमतः पश्चात् केनापि विदुषा पत्रस्याधस्तनपार्श्वे सूक्ष्माक्षरेण लिपीकृतमस्ति । • 1 s पतिवै'; svl °पतिकः। 2 SIG "देहक। 3 SIG °नाः प्र। 4 svl °रीक । 5 SIG सम्भूय समुत्थानम् । 6 SJG पुस्तकेष्वेतत्पाठः पृथगविषयज्ञापकत्वेन पठ्यते। 7 SIG °कानि ॥ इति। 8 SIG °णवप्र । 9 sJG निष्क्रयः। 10 JG दण्डः। 11 SJG दाण्डक। 12 svl, IG °सामया। 13 SJG °पदः । 14 SJG °शमव्या । 15 SIG °समहीनज्या । 165 वायितवि'; svl °वायिक। 17 SIG नास्ति 'सन्धाय प्रयाणकम्'। 18 SJG °धीभावि। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् २४ २६ वृत्तिः ॥" अनुग्राह्यमित्रविशेषाः ॥ मित्रहिरण्यभूमिकर्मसंधयः || पाष्णग्राहचिन्ता ॥ " हीनशक्तिपूरणम् ॥२ बलवता विगृह्योपरोधहेतवः ॥ ३ दण्डोपनतवृत्तम् ॥ दण्डोपनायिवृत्तम् ॥ “ संधिकर्म ॥ समाधिमोक्षः ॥ २७ मध्यमचरितम् ॥" उदासीनचरितम् ॥” मण्डलचरितम् ॥ इति षाङ्गुण्यं सप्तममधिकरणम् ॥ छ ॥ प्रकृतिव्यसनवर्गः ॥ ' राजराज्ययोर्व्यसनचिन्ता ॥ पुरुषव्यसनवर्गः ॥ पीडनवर्गः ॥ स्तम्भवर्गः ॥ कोशसंगवर्गः ॥ बलव्यसनवर्गः ॥ मित्रव्यसनवर्गः ॥' इति व्यसनाधिकारिकमष्टममधिकरणम् ॥ छ ॥ ३ शक्तिदेशकालबलाबलज्ञानम् ॥' यात्राकालाः ॥ बलोपादानकालाः ॥ सन्ना[ ३ द्वि. ]हगुणाः ॥ प्रतिबलकर्म ||" पश्चात्को चिंता ॥ बाह्याभ्यंतरप्रकृ- 10 तिकोपप्रतीकारः ॥ क्षयव्ययलाभविपरिमर्शः ॥ बाह्याभ्यंतराश्चापदः ॥ दृष्यस (श) संयुक्ता अर्थानर्थसंशययुक्ताः ॥" तासामुपायविकल्पजाः सिद्धयः इति ॥" अभियास्यत्कर्म नवममधिकरणम् ॥ छ ॥ 5 स्कंधावारनिवेशः ॥' स्कंधावारप्रयाणम् ॥ वलव्यसनावस्कंदकालरक्षणम् ॥ कूटयुद्धविकल्पाः ॥ स्वसैन्योत्साहनम् ||" स्वबलान्यबलव्यायोगः ॥ 15 युद्धभूमयः ॥ पत्त्यश्वरथहस्तिकर्माणि ॥ पक्षकक्षोरस्यानाम् ॥ बलाग्रतो व्यूहभागः ॥ " सारफल्गुर्बलविभागः ॥ " पत्त्यश्वरथहस्तियुद्धानि ॥ दण्डभोगमण्डलासंहतव्यूहव्यूहनम् ॥ तस्य प्रतिव्यूहस्थापनम् ॥" [ इति साङ्ग्रा - मिकं दशममधिकरणम् ॥ १० ॥ १४ भेदो] [४] पादानानि ॥' उपांशु दण्डाः ॥ इति संर्गवृत्तमेकादशमधि [करणम् ॥ ११ ॥ दूतकर्म ॥' मंत्रयुद्धम् ॥ सेनामुख्यव]धः ॥ मण्डलप्रोत्साहनम् ॥ शस्त्राग्निरसप्रणिधयः॥ वीवधासार [प्रसारवधः ॥ योगातिसंधानम् ॥ दण्डातिसंधानम् ॥] एकविजयः ॥ इति आबालीयसं द्वादशमधिकरणम् ॥१२॥ उपजापः योगवामनम् ॥' अवसर्पप्रणिधिः ॥ पर्युपासनकर्म ॥ अव - 25 मर्दः * ॥ लु(ल) ब्धप्रशमनम् ॥' इति दुर्गलम्भोपायस्त्रयोदशमधिकरणम् ॥१३॥ परबलैघातप्रयोगः ॥' प्रलम्भनम् ॥' अद्भुतोत्पादनम् ॥ मन्त्र - भैषज्यप्रयोगः ॥ * स्वबलोपघातप्रतीकारः ॥ इत्यौपनिषदिकं " चतुर्दशमधिकरणम् ॥ १४ ॥ ४ 1 sJG सन्धिमो'; svl समाधि | 2G स्तम्भनव' । 3s गुल्फ; svl फल्गु । 4 svl 'बल' नास्ति । 5s संहतव्यूहनम् । 6 svl, a संस्था' । 7s °पदा । 8 svl प्रांशुद | 9sJG दण्ड: । 10 sJG सङ्घ । 11 sJG अप° । 12 SJG लब्धप्र° । 13 SJG बल° नास्ति । 14 sJG ‘अद्भुतोत्पादनम् || ३ मन्त्रभेषज्यप्रयोगः ।' सूत्रद्वयं नास्ति । 15 svl, G निषदं । 20 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् १५ ॥ तंत्रयुक्तयः ॥' तंत्रयुक्तमिति' पञ्चदशमधिकरणम् ॥ इति शास्त्रसमुद्देशः ॥ [४] द्वि.] पञ्चदशाधिकरणानि ॥ सासी (शी ) तिप्रंकरणशतम् ॥ सपञ्चाशदध्यायर्शतम् ॥ षट् श्लोकसहस्राणीति ॥ सुखग्रहणविज्ञेयं तत्त्वार्थपदनिश्चितम् । कौटल्येन कृतं शास्त्रं विमुक्तग्रंथविस्तरम् ॥ इति 'विनयाधिकारिके प्रथमेऽधिकरणे' प्रथमोऽध्यायः ॥ छ ॥ प्रकरणाधिकरणसमुद्देशः ॥ * [ आन्वीक्षिकीस्थापना । ] राजवृत्तिः । आन्वीक्षिकी' त्रयी * वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः । " त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति मानवाः । त्रयीविशेषो ह्यान्वीक्षिकी[ति । वा]र्ता दण्डनीतिश्चेति बार्हस्पत्याः । संवरणमात्रं हि [ ५१.] त्रयी लोकयात्रीविद इति । दण्डनीतिरेका विद्येत्यौशनसाः । तस्यां [हि सर्व ] "विद्यारम्भाः [ टिप्पनकानि ] १ राजवृत्तिरिति = अयमधिकारः । आत्मसंपगुणैर भिगामिकगुणैश्च जनरंजनाद्राजा । तस्य वृत्तिरनुष्ठानं अधिकृतं ... राजवृत्तिरिति प्रधान ...। २ प्रत्यक्ष परोक्षाभ्यामीक्षितस्यानु पश्चादीक्षणमन्वीक्षा । तच्चानुमानं तत्प्रयोजनं यस्याः सा आन्वीक्षिकी न्यायविद्या । ...... ३* अवस्था टिप्पनी विनष्टा । एवं अग्रेऽपि यत्र यत्र टिप्पन्य विनष्टा ज्ञातास्तत्र तत्र एतादृशं चिह्नमतिं ज्ञेयम् । ४ वार्तेति वृत्तिरेव वार्ता । जगद्वृत्तिहेतुत्वात् कृष्यादिका । ५ दंडनीतिरिति दंडो वधादिकस्तस्य नीतिः प्रणयनं दंडनीतिः । ६ विद्यते चतुर्विधः पुरुषार्थो काभिस्ता विद्या राजविद्याः । राजवृत्तिः राजविद्या पाठः । ७ मनोः शिष्याः । .. ८ स्वमते हेतुवचनमिदम् । आन्वीक्षिकी तर्कः स च त्रय्यनुगतो न्यायविद्या... । ९ कोकव्यवहारविदो राज्ञः । १० शुक्रशिष्याः । ११ सर्वा विद्याः = सर्वे आरंभा मात्स्यन्यायाभावे प्रारंभाणां प्रवर्तमात् । 1 sJG तन्त्रयु । 2 SJG इति तन्त्रयुक्तिः पञ्च । 3svl °तिः । 4 sJG सपञ्चाशदध्यायशतं ॥ साशीतिप्रकरणशतं ॥ 5 SIG मुद्रित पुस्तकेषु 'कौटिल्येन' इति पाठः पठ्यते । 6 SJG इति कौटि - लीयेऽर्थशास्त्रे । 7 SIG प्रथमाधिकरणे । 89 राजवृत्तिः प्रथमो ; a प्रथमोऽध्यायः राजवृत्तिः । 9 SJ सर्वत्र 'आन्वीक्षकी' इति पठ्यते । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् प्रतिबद्धा इति ॥ चतन एवं विद्या इति कौटल्यः । ताभिर्धर्मार्थों यद्विात्तद्विद्यानां विद्यात्वम् । साङ्ख्यं योगो लोकायतं च आन्वीक्षिकी। धर्माधर्मों त्रय्याम् । अर्थानौँ वार्तायाम् । नयापनयौ दण्डनीत्याम् । बलाबले चैतासां हेतुभिरेंन्वीक्षमाणा लोकस्योपकरोति । व्यसनेभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति । प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारद्यं च करोति । प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्म[५ द्वि.]णाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ॥ इति विनयाधिकारिके प्रथमेऽधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः॥ इति विद्यासमुद्देशे आन्वीक्षिकीस्थापना ॥ छ । [त्रयीस्थापना । सामऋक् यजुर्वेदास्त्रयस्त्रयी । अथर्ववेदेतिहासवेदौ" च वेदाः। १ एव शब्दोऽवधारणे। यस्मादभिधानस्वरूपोपकारकफला हि सर्वाभिन्नास्तसाचतस्र एव । ३ अभिभानतो भेदं दर्शयन्नाह । ताभिरिति । ४ विद्यादिति = विचारयेत् । जानीयात् । लभेत । सत्तापादनेन विद्यमानो कुर्यादित्यासां विद्यात्वम् । अनेन भिन्नाभिधानता । विद निवारणे विद ज्ञाने विद लाभे विद सत्तायामिति धातुचतुष्टयोपादनाभिधानत्वात्। ५ स्वरूपभेदं दर्शयन्नाह सांख्यमिति । पंचविंशतितत्त्वानां संख्यानं संख्या । तामधिकृत्य कृतं सांस्य योगो मोक्षेण सह संयोगकृत् । स च षडंगः । प्रस्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोथ धारणा। तर्कश्चैव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते ॥ सच न्यायवैशिषिकशास्रोक्तः । ७ लोकायतं वृहस्पतिप्रणीतं नास्तिकशास्त्रम् । तच पूर्वपदाविभागेनावस्थितम् । ८ संवरणमात्रमेव फलं नान्यदिति । तथा च वक्ष्यति । धर्मरुचिरुपांशुदंडप्रयुंजेतेति... ९ युक्तिभिः। १० उपकारांतरं दर्शयन्नाह व्यसने इति । ११ अभ्यायप्रांते श्लोकमाह । १२ बार्हस्पत्यैराक्षिप्तायास्त्रय्याः स्थापनामाह । स्वरूपतस्तावत् । सामेत्यादि । १३ दृष्टादृष्टमर्थ वेदयतीति सहस्रशाखातया सति वैपुल्यात्सामवेदस्य प्रथममुपन्यासः । तदनंतरं पाठसौंदर्याहग्वेदस्य । १४ प्रत्येकं वेदग्रहणमप्रसिद्धस्य वेदत्वस्य ख्यापनार्थम् । । 1s बन्धा(द्धा); svl °बद्धा। 2 SIG चेत्यान्वीक्षिकी। 3s नयानयो; svl °नयापन'; Jvl नयापनयौ। 4 svl क्ष्य। 5G °माणान्वीक्षिकीलोक। 6 G पुस्तके सर्वत्र पुष्पिकायां आदी 'इति कौटिलीयार्थशास्त्रे' एते शब्दाः मुद्रिता उपलभ्यन्ते। 7 sI 'प्रथमेऽधिकरणे विद्यासमुद्देशे अन्वीक्षकीस्थापना द्वितीयोऽध्यायः।' 8 अन्वी। 9 स्थापना नाम । 10 SIG सामर्दी । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् सि ( शिक्षा' कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोविचितिज्र्ज्योतिषं चांगानि । एष त्रयीधर्मश्चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां च स्वधर्मस्थापनादौपकारिकः' । I स्वधर्मो ब्राह्मणस्याध्ययन मध्यापनं यजनं याजनं दा[ ६ ]नं प्रतिग्रहश्चेति । क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं चेति । वैश्य· स्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वैणिज्या च । शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा वार्ता कारुकुशीलवकर्म च । गृहस्थस्य स्वधैर्माजीवस्तुल्यैरेसमानगोत्रर्षिभिर्वैवाद्यं ऋतुगामित्वं "देवपित्रतिथिपूजाभृत्येषु त्यागः शेषभोजनं च । ब्रह्मचारिणः स्वाध्यायोऽग्निकार्याभिषेको भैक्षनतित्वमाचार्ये प्राणां" तिकी वृत्तिः तदभावे गुरुसुते स ६ द्वि. ह्मचारिणि वा । वानप्रस्थस्य ब्रह्मचर्यं भूमौ शय्या जटाजिनधारणमग्निहोत्राभिषेको देवतापित्रतिथिपूजा वन्यश्चाहारः । परिव्राजकस्यै 'जितेंद्रियत्वमनारम्भो निष्किंचनत्वं संगत्यागो भैक्ष १ अत्र 'शिक्षा' शब्दोपरि विस्तृता टिप्पनी लिखिता ज्ञायते । परन्तु पत्रस्य कियत्पार्श्व भागस्य त्रुटितत्वात् केवलं निम्नगताः शब्दा एव पठितुं शक्यन्ते - "सामादीनां प्रयोजनं । अ... ..कादिकं । इतिहास ...नु... धनुर्वेद आयुर्वेदनाढ्य वेद... ।” २ इत्युपकारदर्शनम् | ३ कः कस्य स्वधर्म इति तस्प्रदर्शयन्नाह । स्वधर्म इत्यादि । धर्मशब्दोऽत्रानुष्ठाने | ४ योगविभागश्च पृथक् प्रयोजनप्रतिपादनार्थम् । ५ क्षत्रियस्यापि स्वानुष्ठानमाह । ६ अनुष्ठानमिति शेषः । ७ त्रयो वर्णा द्विजातय इति । ८ अत्र प्रायः द्वित्रिपंक्तिव्यापका विस्तृता टिप्पनी लिखिताऽनुमीयते परंतु पत्रस्यो - पार्श्वस्थ कियदंशस्य त्रुटितत्वात् केवलं एतद्वाक्यांश एवास्माभिः पठितुं शक्यते " आश्रमाणां स्वधर्ममाह...... ।” ९ श्रुतवित्तादिना । १० एकर्षिगोत्राणां च विवाहनिषेधात् । ११ देवशब्दोऽग्निगुरूणामुपलक्षणार्थ: पंचयज्ञनिर्वर्तनमेवमभिहितं भवति । १२ नैष्ठिकमुद्दिश्योच्यते । नोपकुर्वाणकम् । १३ परिव्रजतीति परिव्राजकः । ग्रामादिष्वे करात्रं नगरे पंचरात्रमित्यादिक्रमेण । 1 sJG °तिषमिति । 2 SJG 'इति' नास्ति । 3J वाणि° । 4 sJG स्वकर्मा' । 5 eJa 'गोत्र' नास्ति 1 6 SJC 'पूजा' नास्ति । 7 SIG तत्व । 8 sJG पुत्रे | 9sJG संयतेन्द्रि° । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् प्रतमनेकवारण्ये च वासों 'बाह्याभ्यन्तरं च शौचम् । सर्वेषामहिंसा सत्यं शौचर्मनसूयाऽऽनृशंस्यै क्षमा च । स्वधर्मः स्वर्गायानन्त्याय च । तस्यातिक्रमे 'लोकः संकरादुच्छिद्येत । तस्मात्स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत् । स्वधर्म संदधानो हि प्रेत्य चेह च नंदति ॥ व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः । [७ प्र.] त्रय्याभिरक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति ॥ इति विनयाधिकारि[ के प्रथमेऽधिकरणे तृतीयोऽ] ध्यायः॥ छ । विद्यासमुद्देशे यीस्थापना । [वार्तास्थापना दण्डनीतिस्थापना च] • कृषिपाशुपाल्ये वणिज्या* च वार्ता । धान्यपशुहिरण्यकुप्यविष्टिप्रदानादौपकारिकी। तया स्वपक्ष' परपक्षं च वशीकरोति कोशदंडाभ्याम् । आन्वीक्षिकीत्रयीवार्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डः । तस्य नीतिर्दण्डनीतिः। अलब्धलाभार्था लब्धपरिरक्षिणी'६* रक्षितविवर्धनी* वृद्धस्य तीर्थे" १ बाह्यमृजलादिभिः। भाभ्यन्तरं भावशुद्ध्या सा च सकलसस्वहितानुध्यानात् । २ ...साधारणधर्ममभिधातुमाह । ३ मोक्षाय । ४ चतुर्वर्णाश्रमः। ५ दुर्भिक्षव्याधिमरकादिभिः।। ६ ... पायप्रविण ... तं परासरप्रोक्त शास्त्रमपि कृषिः । ७ शालिहोत्रराजपुत्रपालकाप्यगौतमादिप्रोक्तं शास्त्रम......... ९ धान्यं कृषिः पशून् पाशुपाल्यं हिरण्यकुप्ये वणिजा विष्टिं त्रितयमपि ददाति । १० वार्तया। ११ तंत्रम् । १२ भावापम् । १३ उपप्रदाननिग्रहादिना। १४ इदमेव शास्त्रम् । १५ अलग्भयोधर्मार्थयोर्लाभार्थः । १६ * १७ * 1 sJG 'व्रत' नास्ति । 2 SG अरण्यवासो; svl °ण्ये वासो। 5 SI बाह्यमाभ्यन्तरं; svl ह्याभ्य। 4 'शौच' इति शब्दोऽर्द्धवृत्ताकारकोष्टके विनिहितः; svl शौचं । 5 SIG °नृशंस्यं । 6 sIG त्रय्या हिर। 7 svl तृतीय। 8 ss विद्यासमुद्देशे त्रयीस्थापना तृतीयोऽध्यायः। 93 वाणि। 10 svl °पचारि। 11 SIG रक्षणी। 12 SJG तीर्थेषु । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् प्रतिपादनी च । तस्यामायत्ता लोकयात्रा। तस्माल्लोकयात्राविन्नित्यमुद्यतदण्ड: स्यात्।न 'ह्येवंविधं वशोपन [७ द्वि.] यनमस्ति भूतानां यथा दण्ड इत्याचार्याः॥ नेति कौटल्यः । तीक्ष्णदण्डो हि भूतानामुद्वेजनीयो भवति । मृदुदण्डः परिभूयते । यथार्हदण्डः पूज्यते । सुविज्ञातप्रणीतो हि दण्डः प्रजा धर्मार्थकामैर्योजयति । दुष्प्रणीतस्तु कामक्रोधाभ्यामवज्ञानाद् वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति किमंग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतस्तु मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं हि ग्रसते दण्डधराभावे । स च तेन गुप्तः प्रभवतीति ॥ चतुर्वर्णाश्रमो लोको राज्ञा दण्डेन'* पालितः। स्वधर्मकर्माभिरतो वर्तते स्वेषु वर्त्मसु ॥ इति विनयाधिकारिके चतुर्थोऽध्यायः॥ विद्यासमुद्देशे वातास्थापना दण्डनीतिस्थापना च [८ प्र.] ॥ छ । ॥ विद्यासमुद्देशः समाप्तः ॥ [वृद्धसंयोगः] तस्माद्दण्डमूलास्तिस्रो विद्याः। विनय [मूलो दण्डः प्राणभृतां] योग। क्षेमावहः । कृतकः स्वाभाविकच विनयः । क्रिया हि द्रव्यं विनयति नाद्रव्यम् । शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्त्वाभिनिविष्टबुद्धिं विद्या विनयति नेतरम् । विद्यानां तु यास्वमाचार्यप्रामाण्याद्विनयो" नियमश्च । १ तमात् कस्मादित्याह न वंविधमिति । २ लोकः। ३ वृद्धि याति । ५ पूर्वकृतशुभकर्मणा। ६ विद्यावृद्धसंयोगलक्षणा। ७ द्रव्यं सहजविनयसंयुक्तम् । ८ द्रव्यं विनयतीत्यत्रैव नागव्यं विनयतीति सिद्धे पुनर्वचनं द्रव्याद्रध्यपरिग्रहार्थम् । ९ विद्याचतुष्टयम्। १० यो यस्या विद्याया उचितो.........नियमश्च । यथास्वम् । ११ प्रत्युस्थानविनयादिः । १२ ब्रह्मचर्यैकभक्तादिः । 1 SIG यात्रार्थीनि। 2 SIG भवति' नास्ति । 3 SIG पूज्यः। 4 SIG 'तु' नास्ति । 5 8JG °मज्ञाना। 6 SIG तो हि। 7 SIG 'सच' नास्ति । 8 G वेश्मसु । 9 SI इति विनयाधिकारिके प्रथमेऽधिकरणे विद्यासमुद्देशे वार्तास्थापना दण्डनीतिस्थापना च चतुर्थोऽध्यायः। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् वृत्तचौलकर्मा' लिपिं संख्यानं चोपयुञ्जीत । वृत्तोपनयनंस्त्रयीमान्वीक्षिकीं च सि (शि) ष्टेभ्यः' वार्तामध्यक्षेभ्यः । दण्डनीतिं वक्तृप्रयोक्तृभ्यः " । C ब्रह्मचर्यं त्वाषोडशाद्वर्षात् । अतो गोदानम् । दारकर्म चास्यं । नित्यश्च विद्यावृद्धसंयोगो विनयविवृद्ध्यर्थं तन्मूलत्वाद्विनयस्य । 'पूर्वमहर्भाद्वि.] गं हस्त्यश्वरथप्रहरणविद्यासु विनयं गच्छेत् । पश्चिममितिहासंश्रवणेषु । पुराणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरणम् । धर्मशास्त्रमर्यशास्त्रं चेतिहासः । शेषमहोरात्रभागमपूर्वग्रहणं गृहीतपरिचयं " च कुर्यात् । "अगृहीतानाभीक्ष्णं श्रवणं च । श्रुताद्धि प्रज्ञोपजायते प्रज्ञया योगो" योगीदात्मवत्तेति विद्यानां समर्थ्यम् ॥ विद्याविनीतो राजा" हि प्रजानां विनये रतः । अनन्यां" पृथिवीं "भुङ्क्ते सर्वभूतहिते रतः ॥ छ ॥ इति विनयाधिकारिके पञ्चमोऽध्यायः वृद्धसंयोगः ॥ १८. * १ गर्भपंचमवर्षे वृत्तं चौलकर्म यस्य । त्रय्युपयोगार्थं गुरोः समीपे नयनं उपनयनं तच्च ब्राह्मणस्य गर्भाष्टमवर्षे क्षत्रियस्यैकादशवर्षे | ३ अस्पष्टाक्षरेयं टिप्पनी । ४ पण्याध्यक्षादिभ्यः । ५ कर्मप्रधानत्वात् वार्तायाः । ६ विद्याविघ्नप्रतिषेधार्थम् । ७ मंत्रपूर्वकं समावर्तनाख्यं कर्म । मुंडनमित्यन्ये । ८ भोजनकालात् प्राक् । १० इति एवं ह स्फुटं आस बभूव भुवनकोशादिकम् । ११ इति राज्ञो वृत्तं नयानयाभ्यां संपत्तिविपत्तिप्रदर्शनार्थ भारतरामायणादि । १२ असंभूतकथावाक्यमुक्तप्रत्युत्तरान्वितम् । निदर्शनार्थमन्येषामुदाहरणमिष्यते । यथा तंत्र पंचकादि । ... १३ अभ्यासः । १५ आत्मसंपद्गुणैरिति शेषः । १७ अन्यनृपतिरहिताम् । ९ तद्विद्यावृद्धसंयोगात् । १४ मनोधारितानामर्थानाम् । १६ कुमारस्य भाविराजत्वं द्रष्टव्यम् । १८ प्रमाणतः फलतश्च । 1 BJ चाषोड; च आ षोड° । 2 sa च । अस्य । 3 SJG विनयवृद्ध्यर्थम् । 4 sJG "घु' नास्ति । 5 sJG चेतीतिहासः । 6 SJ 'नामाभी । 7 sJG क्ष्ण्यश्रवणं । 8 G प्रज्ञाया | 9 Jvl योगादात्मविद्यासामर्थ्यम् । 10 sua विद्यासाम । 11 SJ प्रथमेऽधिकरणे वृद्धसंयोगः पञ्चमोऽध्यायः । G प्रथमाधिकरणे पञ्चमोऽध्यायः वृद्धसंयोगः । सटि • कौट• अर्थ • 2 $ 10 18 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [अरिषड्वर्गत्यागः।] विद्याविनय ९ प्र.]हेतुरिंद्रियजयः कामक्रोधलोभमानमदहर्षत्यागाकार्यः। कर्णत्वगक्षिजिह्वाघ्राणेन्द्रियाणां शब्दस्पर्शरूपरसेगन्धेष्वनिप्रतिपत्तिरिंद्रियजयः । शास्त्रानुष्ठानं वा । कृत्स्नं हि शास्त्रमिदमिंद्रियजयः। । तद्विरुद्धवृत्तिरवस्थे(श्ये)द्रियश्चातुरंतोऽपि राजा सद्यो विनश्यति । यथा दाण्डक्यो' नाम भोजः कामात् ब्राह्मणकन्यकामभिमन्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश । करालश्च वैदेहः । कोपाजनमेजयो ब्राह्मणेषु विक्रांतः। तालजश्च भृगुषु । लोभादैलँश्चातुर्वर्ण्यमत्याहारी ९ द्वि.]यमाणः 'सौवीरश्चाजबिंदुः। मानाद्रावणः परदारानप्रयच्छन् दुर्योधनो राज्यादंशं च । " मदाद्दम्भोद्भवो भूतावमानी हैहयश्चार्जुनः। हर्षाद्वातापिरगस्त्यमत्यासादयन् वृष्णिसंघश्च द्वैपायनमिति । एते चान्ये च बहवः शत्रुषडर्गमाश्रिताः। सबंधुराष्ट्रा राजानो विनेशुरजितेंद्रियाः॥ . शत्रुषवर्गमुत्सृज्य जामदग्यो जितेंद्रियः। अम्बरीषश्च नाभागो' बुभु[ १० प्र.]जाते चिरं महीम् ॥ इति विनयाधिकारिके षष्ठोऽध्यायः ॥ छ ॥ इंद्रियजयेऽरिषड्वर्गत्यागः ॥ १ इदंति प्राप्नुवंति प्रभुत्वेन स्वविषयान् । २ चतुःसमुद्रांताव ... शापि। ३ दंडकविषयास्तेषां मुख्याः । बृहदश्वाभिधानः । * भोजान्वयः। ५ कामादिति शेषः। ६ कोपात् । ७ इलायाः इलस्य वाऽपत्यं ऐलः पुरूरवाः। ८ सर्वस्वमत्याजिहीर्षुः। ९ सुवीराणां राजा। १० अप्रयच्छन्निति शेषः। ११ नाभागपुत्रः। ____1 svl स्पर्शरस। 2 SJC शास्त्रार्थानु। 3 SICE कन्यामभिः । 4 svl बिन्दुस्सीवीरश्राजमा। 5 SJ मदाड'; G मदाद् ड°। 6 SJ °अगस्त्याम'। 7 5 इन्द्रियजयेऽरिषदर्गत्यागः षष्ठोऽध्यायः; J प्रथमेऽधिकरणे इन्द्रियः; G प्रथमाधिकरणे षष्ठोऽध्यायः इन्द्रिय । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [ इन्द्रियजयः । ] तस्मादरिषडुर्गत्यागेनेंद्रियजयं कुर्वीत । वृद्धसंयोगेन प्रज्ञाम् । चारेण चक्षुः । उत्थानेन * योगक्षेम साधनम् । कार्यानुशासनेनं स्वधर्मस्थापनम् । विनयं विद्योपदेशेन । लोकप्रियत्वमर्थसंयोगेन * हितेन वृत्तिः ' । एवं वश्येंद्रियः परस्त्रीद्रव्यहिंसाश्च वर्जयेत् । [ १० द्वि.] 'स्वप्नं' लौल्यम- ' नृतमुद्धतवेषमनर्घ्य' संयोगंर्मधर्मसंयुक्तमनर्थसंयुक्तं च व्यवहारम् । धर्मार्थाविरोधेन कामं सेव (वे ) त न " निःसुखः स्यात् । समं वा त्रिव र्गमन्योन्यानुबद्धं परस्परस्यानुपघातकं * एको ह्यत्यासेवितो धर्मार्थकामानामात्मानमितरौ च पीडयति । अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति । मर्यादां स्थापयेत् आचार्यानमात्यान्वा । य एनमपायस्थानेभ्यो वार - 10 येयुः । छायानीलिकाप्रतोदेन वाहनमिव" रहसि प्रमाद्यन्तमभितुदेयुः ॥ सहायसाध्यं राजत्वं चक्रमेकं न वर्तते । कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम् ॥ * इति विनयाधिकारिके सप्तमोऽध्यायः ॥ छ ॥ इन्द्रियजयः " ॥ 12 * · चक्षुरिंद्वियकार्यम् | २ * ३ वर्णाश्रमाणामनुष्ठानानि तेषां शासनेन शिक्षणेन दंडनेन वा । ४ * ५ कुर्वीतेति सर्वत्र योज्यते । ६ निर्दिष्टनिशा त्रिभागादन्यत्राकस्य निरासार्थम् । ७ द्यूतमृगया स्त्रीपानादिव्यसनकारकैः संयोगं वर्जयेत् । ८ यत्र क्रोधनः श्रोत्रियो न्यायपराजितोप्यात्महननं करोति । ९ मायायोगविश्याय पराजितोऽपि कोपान्मंत्रतंत्रादिभिरपकरोति । १० प्रतिषेधद्वयेनेत्युक्तम् । यदल्पसुखः स्यादिति । ११ अम्यो द्वावेकं वा स्वोत्पत्त्याऽनुबध्नाति । ११ १२ * १३ तान् मर्यादां कुर्यादित्यन्वयः । १४ राज्यचक्रम् । 1 sJa वृत्तिम् । 2s स्वप्नलौ । 3 sJG वेषत्वम° । 4 sJG • मनर्थसं; svl 'मान° । 5 sJG संयोगं च । अधर्मः । 6J चानर्थ । 7 SJG बन्धम् । 8 SJC 'परस्परस्यानुपघातकं' नास्ति । 9sJa अर्थ एव प्रधानः इति कौटिल्यः । अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति । 108 नाळिका । 11 SJG देना रहसि । 12 s इन्द्रियजये राजर्षीवृत्तं सप्तमोऽध्यायः; उ प्रथमेऽधिकरणे इन्द्रियजये ; a प्रथमाधिकरणे सप्तमोऽध्यायः इन्द्रिय° । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [अमात्योत्पत्तिः।] सहाध्यायिनोऽमात्यान् कुर्वी त दृष्टशौचसामर्थ्यत्वात् इति भारद्वाजः। ते ह्यस्य विश्वास्याः भवन्तीति ॥ ने] ११ प्र.)ति विशालाक्षः । सहक्रीडितत्वात् परिभवन्त्येन[म् ।ये. । ह्यस्य गुह्यसधर्माणस्तानमात्यान् कुर्वीत । समानशीलव्यसनत्वात् । ते ह्यस्य मर्मज्ञभयान्नापराध्यन्तीति ॥ . साधारणो दोष इति पाराशराः । तेषामपि मर्मज्ञभयात्कृताकृतान्यनुवर्तेत' ॥ यावद्भयो गुह्यमाचष्टे जनेभ्यः पुरुषाधिपः । अवशः कर्मणा तेन वश्यो भवति तावताम् ॥ य एनमापत्सु प्राणाबाधयुक्तास्वनुगृहीयुस्तानमात्यान् कुर्वीत । दृष्टानुरागत्वात् । नेति पिशुनः भक्तिरेषा* न बुद्धिगुणः। संख्यातार्थेषु कर्मसु नियुक्ता ये यथादिष्टमर्थ सविशेषं वा कुर्युस्तानमात्यान्कुर्वीत । दृष्टगुणत्वात् ॥ 15 नेति कौणपदेन्तः । अन्यैरमात्यगुणैरयुक्ता ह्येते । पितृपैतामहानमात्यान् कुर्वीत । दृ[११ द्वि.]ष्टावंदानत्वात् । ते ह्येनमपचरन्तमपि न त्यजन्ति । सगंधत्वात् । अमानुषेष्वपि चैतत् दृश्यते गावो ह्यसगंधं गोगणमतिक्रम्य सगंधेष्वेवावतिष्ठन्ते इति ॥ नेति वातव्याधिः । ते ह्यस्य सर्वमवगृह्यं स्वामिवत्प्रचति । तस्मा, न तत्र दंडप्रणयनं करोति सः। २ स्वप्राणदानेन रक्षेयुः। ४ * ५ कुणपदंतः शांतनुर्गगावापात्पूतिदंतोऽभूत्तस्थापत्यं भीष्मः ।। ६ दृष्टं पितृ.........कालेऽवदानमुपधाशुद्धिर्मेषाम् । दैङ् शोधनेऽसा धातो रूपमिदम्। ७ द्वितीयोपि हेतुः। ८वापारुष्यादिभिरुद्वैजयंतमपि । ९ गंधः परिचयजनितस्नेहः संवासाभ्यासजा प्रीतिः समानो गंभः सगंधः।। .१० सर्वमाक्रम्य प्रभुमात्रमेनं स्थापयित्वा स्वामिवनचरंति । तदेवं महानन्न दोषः। तमाचोकं वटवृक्षप्ररोहेव प्रकृतिः स्कंधनाशिनी । अमात्याख्यद्वियोगेन भवेन्मूलोपघातिनी ॥ ...वित्तविकारिणीति वचनात् । 1 J मर्मज्ञत्नभयात् । 2 SIG एष दोषः। 3 पराशरः। 4 sJG °त्वादिति। 5ssa त्वादिति। 6SIG °°7 J18 SJG प्रचरन्तीति । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् श्रीतिविदो 'नवानमात्यान्कुर्वीत । नवास्तु यमस्थाने दण्डधरं मन्यमाना भयानानपराध्यंतीति ॥ नेति बाहुदन्तीपुत्रः । शास्त्रविददृष्टकर्माकर्मसु विषादं गच्छेत् । तस्मादैभिजनप्रज्ञाशौचशौर्या[ १२ प्र.नुरागयुक्तानमात्यान्कुर्वीत । गुणप्राधान्यात् ॥ ___ *सर्वमुपपन्नमिति कौर्टल्यः। कार्यसामर्थ्याद्धि पुरुषसामर्थ्य कल्प्यते ।। सामर्थ्यतश्च । विभज्यामात्यविभवं देशकालौ च कर्म च । अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मत्रिणः॥ इति विनयाधिकारिके अष्टमोऽध्यायः॥ छ ॥ अमात्योत्पत्तिः ॥ . . [मत्रिपुरोहितोत्पत्तिः।] जॉनपदोऽभिजातः स्ववंग्रहः कृतशिल्पश्चक्षुष्मान् प्राज्ञोधारयिष्णुर्दशोर वाग्मी प्रगल्भः प्रतिपत्तिमानुत्साहप्रर्भावयुक्तः क्लेशसहः शुचिमैत्रो" [१२ द्वि.] १ क्रमागतान् पूर्वममात्यत्वेऽव्यवहृतान् । २ बाहुदंसी इंदमाता तस्याः पुत्रः। ३ सर्वेषाममास्यगुणानां मध्य एत एव गुणाः प्रधानभूताः। ५ कार्याणि विजिगीषोः समाहर्तृकादिनी खनिद्रव्यहस्तिवनकार्योपयुक्तकर्मपर्यवसानान्दे. बमादशस्वपि तीर्थेषु मूलामात्या अष्टादश । तेषां कारणिकत्वेन स्थिताः प्रत्येक त्रयस्त्रय एवमुपकातपंचाशत्सर्वेपि द्विद्विसप्ततिसंख्याः। तदपेक्षया उच्यते कार्यसामादिति । ६ अमास्यसंज्ञासामान्यान्मंत्रि...कर्तव्यत्वे प्राप्ते प्राह ।। ७ जनपदभवः । राज्ञ इति शेषः । ८ अभिजात इति । आहारे......योनी च गर्ने कर्मणि चापि यः। शुचिः कृत्वगतस्यापि न पापे रमतेऽस्य धीः॥ ९ उत्पथप्रवृत्तं स्वामिनं सुखेनावगृह्णातीति । १० शानचक्षुः। ११ अविस्मरणशीलः। १२ अस्पष्टाक्षरेयं टिप्पनी । १३ प्रतिपत्तिः प्रतिभा । अविमर्शेपि यथावदुत्तरं दीयते । १४ दैवजनिता प्रभुशक्तिः प्रभावः। १५ मित्र इति । मित्रसाधुकारी बहुमित्रो भवति । 1 SIG 'भयात्' नास्ति । 2 'ददृष्टकर्माकर्मसु; JG °ददृष्टकर्मा कर्मसु। 3 sJO "तस्मात् नास्ति । 4 SIG 'न्यादिति। 5 इतोऽप्रे व पुस्तके सर्वत्र 'कौटिल्य' स्थाने 'कौटल्य' इति पाठः खीकृतो दृश्यते । 6s अमात्योत्पत्तिः अष्टमोऽध्यायः; J प्रथमेऽधिकरणे अमा'; G प्रथमाधिकरणे अष्टमो017 G वाग्गमी। 8 svl कलेशहर । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् दृढभक्तिः शीलर्बलारोग्यसत्वयुक्तः स्तंम्भचापलेहीनः संप्रियो' वैराणमकर्तेत्यैमात्यसम्पत् । अतः पादार्धगुणहीनौ मध्यमावरौ । तेषां जनपदमभिजनमवग्रह चांप्ततः" "परीक्ष्येत समानवि' द्येभ्यः शिल्पं शास्त्रचक्षुष्मत्तां च । कर्मारम्भेषु प्रज्ञां धारयिष्णुतां दाक्ष्यं च । कथायोगेषु वाग्मित्वं प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं च । [ आपद्युत्साहप्रभावौ क्लेशसहत्वं चं ] संव्यवहाराच्छौचं मैत्रता दृढभक्तित्वं च । संवसेिभ्यः शीलबलारोग्य सत्त्व योगम् । अस्तम्भ चापलं' च । प्रत्यक्षतः * संप्रियत्वमवैरत्वं * च । 9 १ स्तंभो मिथ्याभिमानादविनयः । २ अस्थिति.... ...... ता । ३ ...... सौभाग्ययुक्तः । ४ स्वामिदोषादुत्पन्नानामपि प्रशमयिता । प्रत्यक्ष परोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः [स्वयंदृष्टं प्रत्यक्षम्, परोपदिष्टं परोक्षम् ] कर्मसु [ १३ प्र. ] कृतेनाकृतावेक्षणमनुमेयम् । 10 ८ जन्मभूमिम् । ९ ज्ञातिवर्गम् | अंतरंगत्यात् । ५ बुद्ध्यमात्य | ६ स्मृतिस्तत्परतार्थेषु बितर्को ज्ञाननिश्चयः । दृढता मंत्रगुप्तिश्च मंत्रिसंपत्प्रकीर्तिताः ॥ ७ मंत्रिणाविति शेषः । १० उभयाप्तात् । ११ परिसमन्तात् बहुभ्य इक्षेत । १२ * १३ इदं सूत्रं मूलादर्श लिपिकारेण परित्यक्तं ततः पश्चात् केनापि विदुषा पृष्ठस्याधोभागे लिपीकृतम् । * 5 १४ १५ * १६ अथ कथमाप्तात्समानविद्येभ्यः संवासेभ्यः परोपदेशाद्गुणाः परीक्ष्याः यथा कर्मारंमेषु कथायोगेष्वापदि संव्यवहाराच्च लिंगा ......... I १७ * १८ स्थैर्यम् । १९ * २० * २१ परी 6 ति सर्वत्र संबंधः । 1 svl भक्तिशील । 2 sJG संयुक्तः । 3 sJG चापल्यवर्जितः । 4 sJG 'अभिजन' नास्ति । 5s चाप्य [प्त ]तः svl; G चाप्यतः । GsJG क्षेत्र । 7 G वाग्मि । 8 sJa °सिभ्यः । 9 SJC चापल्यं । 100 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिष्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् , 'योगपद्यात्तु कर्मणामनेकत्वादनेकस्थ [त्वाच देशकाला त्ययो मा भूदिति परोक्षममात्यैः कारयेदित्यमात्यकर्म । पुरोहितमुदितोदितकुलँशीलं सांगे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां चाभिविनीतमापदां देवमानुषीणां अंथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत । तमाचार्य शिष्यः पितरं पुत्रो भृत्यः स्वामिनमिव चानुवर्तेत । ब्राह्मणेनैधितं क्षत्रं मंत्रिमंत्राभिमंत्रितम् । जयत्यजितमत्यंतं शास्त्रानुंगमशस्त्रितम् ॥ इति विनयाधिकारिके नवमोऽध्यायः ॥ छ । मन्त्रिपुरोहितोत्पत्तिः॥ . [उपधाभिश्शौचाशौचज्ञानममात्यानाम् ।] • • मंत्रिपुरोहितसर्खः सामा १३ द्वि.न्येष्वधिकरणेषु स्थापयित्वा आमा- 10 त्यानुपधाभिः शोधयेत् । पुरोहितमयाज्ययाजनाध्यापने नियुक्तममृष्यमाणं राजीवक्षिपेत् । सेसत्रिभिः शपथपूर्वमेकैकममात्यमुपजापयेत् । अधार्मिकोऽयं राजा साधुधा AAAAAAna २ अथर्वविहितप्रतिविधानैः । ३ दंडनीत्याभिहितैः सामादिभिः। ४ अनेन परस्परानुकूलता दर्शिता । ५ पुरोहितेन । ब्राह्मणवचनं च ब्राह्माणानुष्ठानतत्परताख्यापनार्थ तेन वृद्धिं नीता। ६ 'कर्तृ' इप्ति शब्दस्योपरि लिपीकृतम् । अपरा विप्पमी पृष्ठस्याधोभागे लिखिता । यथा__ 'क्षत्रेण ब्रह्मसंपृष्टं क्षनं च ब्रह्मणा सह । उदीर्णे दहतः शत्रून् वनानीवाभिमारुतौ ॥' ७ कर्म। ९ मंत्रिपुरोहितादिसख इति दृष्टव्यम् । सेनापतियुवराजयोरप्यत्रोपयोगदर्शनात् । लोह. कारोपकरणन्यायेन पुराणैर्मध्यादिभिरभिनवाः परीक्ष्यन्ते । १० त्रिवर्गभयालंबनाभिरुपजापोक्तिभिः । ११ असहनतया प्रतिपद्यमानम् । स्वामिसंकेतादेव परीक्ष्याणां परीक्षार्थम् । १३ सपुरोहितो बहिरवस्थितः । १४ पूर्वमेव शपथानमात्यं कारयित्वा यश्च ......... सः स्थितस्त्वं स्थित एवानभिमतेपि न मंत्रभेदः कर्तव्यः । १५ * 1 SI अयोग'; svl यौगं। 2 SJG षडङ्गे। नास्ति । 5 SG शौचयेत् । 6 svl शापथ । 3 svl; J; Jvl °नुगत। 4 svl 'सखः' Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् मिकमन्यमस्य तत्कुलीनमपेरुद्धं कुल्यमेकप्रैग्रहं सामन्तमाटविकमौपपादुकं वा प्रतिपादयामः । सर्वेषामेतद्रोचते कथं वा तवेति । प्रत्याख्याने शुचिरिति धर्मोपधा। . सेनापतिरसप्रग्रहेणावक्षिप्तः संसत्रिभिः शपथपूर्वमेकैकममात्यमुपजा। पयेल्लोभनीयेनार्थेनं राजविनाशाय सर्वेषामेतद्रोचते कथं वा तवेति । प्रत्याख्याने शुचिरित्यर्थोपधा। परिव्राजिका लब्धविश्वासाँऽन्तःपुरे कृतसत्कारा [महामात्रैमेकैकमुपजपेत् ] [ १४ प्र.] राजमहिषी त्वां कामयते कृतसमागमोपा[या महानर्थश्च भविष्यतीति । प्रत्याख्याने शुचिरिति] कामोपधा। प्रहवर्णनिमित्तमेकोऽमात्यः सर्वानमात्यानावाहयेत्।८*तेनोद्वेगेन राजा तानवरुन्ध्यात् । कापटिकरछात्रः पूर्वावरुद्धस्तेषामर्थमानावक्षिप्तमेकैकममात्यमुपजपेत् । असत्प्रवृत्तोऽयं राजा साध्वेनं हत्वा अन्यं प्रतिपादयामः"। सर्वेषामेतद्रोचते कथं वा तवेति । प्रत्याख्याने शुचिरिति भयोपधा। १ कर्मधारयोऽत्र अथवा साध्विति क्रियाविशेषणम् । २ कस्यचिदन्योऽभिमत इत्याह तस्कुलीनम् । तस्य राज्ञो भ्रातरं पुत्रं वा। ३ सोपि कृतार्थः सन् पित्रारिवैरमनुमरिष्यतीत्याशंकयाह कुल्यं कुलं च व्यवहितम् । ४ राज्ञा समानचिन्हं मानाहम् । ५ उत्पाद्यं यो राजा न भवत्यथ च राजयुक्तचंद्रगुप्तसमः। ६ राज्ये इति वाक्यशेषः । ७ ......... स्यादिस्याशंकायां सर्वेषामिति महापुरुषाणाम् । ९ पृष्टो विमृशति नायमनुजीविना ......... । १. * ११ यस्य यस्य यस्मिन्नर्थे लोभोऽस्ति । १२ परिव्रजनशीलवता। १३ परीक्ष्येषु। १४ 'महामानमेकैकमुपजपेत्' एतद्वाक्यमादर्श नोपलभ्यते किन्तु 'महामात्र'शब्दस्योपरि एताशी टिप्पनी लभ्यते-'मात्रा शब्देन विभूतिः। सा महती एषाम् ।' १५ * १७ संकेतादेव। 1 sa 'व। 2 SIG °पादुकं । 3 svl; J प्रतिग्रहे । 4 SIG 'स' नास्ति । 5 sIG 'शपथपूर्व' नास्ति। 6 svl °नार्थेन लोभयेद्राजवि। 7 8 विनाशनाय । 8 J ते भविष्यतीति । 9 SIG प्रवहण । 10J सहसैनं हत्वा। 11 SG °पादयिष्यामः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् तत्र धर्मोपधाशुद्धान् धर्मस्थीयकण्टकशोधनेषु* कर्मसु स्थापयेत् । अर्थोपधाशुद्धान् समाहर्तृसन्निधातृनिचयकर्मसु । कामोपधाशुद्धान् बाह्याभ्यंतरविहाररक्षासु । भयोपधाशुद्धानासन्नकार्येषु राज्ञः। सर्वोपधाशुद्धान मन्त्रिणः कुर्यात् । सर्वत्राशुचीन खनिद्रव्यहस्तिवनकर्मान्तेषूपैयो [ १४द्वि.]जयेत् । त्रिवर्गभयसंशुद्धानमात्यान् स्वेषु कर्मसु । अधिकुर्याद्यथाशौचमित्याचार्या व्यवस्थिताः ॥ न त्वेव कुर्यादात्मानं देवीं वा 'लक्ष्यमीश्वरः। शौचहेतोरमात्यानामेतत्कौटल्यदर्शनम् ॥ न दूषणमर्दुष्टस्य विषेणेवाम्भसश्चरेत् । कदाचिद्धि प्रदुष्टस्य नाधिगम्येत भेषजम् ॥ कृता च कलुषा बुद्धिरुपैधाभिश्चतुर्विधा । नागत्वाऽन्तर्निवर्तेत स्थिता सत्त्ववतां धृतौ ॥ तस्माद्वाह्यमधिष्ठानं कृत्वा कार्ये चतुर्विधे । शोचाशौचममात्यानां राजा मार्गेत* सत्रिभिः॥ इति विनयाधिकारि [१५ प्र.] के दशमोऽध्यायः ॥ छ ॥ उपधाभिश्शौचाशौच ज्ञानममात्यानाम्॥ छ॥ ३ उद्यानादि । ४ अंतःपुरादि। ५ ...... पालनेषु । ६ आसमेषु च कार्येषु निर्भयत्वात् । जनपदोत्पनात्...............। . * १० आचार्यमतमुपसंहरबाह। ११ न वयमिति वाक्यशेषः । १२ अमात्यहृदयस्य । १३ कुलिकवेलोपयुक्तात् । १४ * १५ कौटल्यः स्वमतमाह । १६ राजस्थाने दूष्यामात्यं लक्ष्यं कृत्वा राजमहिषीस्थाने दूष्यपरनी च दूष्यार्थादिकं चाधिष्ठानम् । १७ त्रिवर्गभयभयशुद्धिपरीक्षालक्षणे । I sJG 'कर्मसु' नास्ति । 25 लक्ष्मी; JG लक्षमी। 3G नागत्वान्तं । 4 G चायें। सटि. कौट. अर्थ.3 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १८ सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् [ संस्थोत्पत्तिः । ] उपधाभिः शुद्धामात्यवर्गो गूढपुरुषानुत्पादयेत् । कापटिकोदास्थितगृहपतिकवैदेहकतापसव्यञ्जनान् संत्रितीक्ष्णरसदभि क्षुकीश्च । पैरमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकैस्तमर्थमानाभ्यां प्रोत्साह्य मंत्री ब्रूयात् । राजानं मां च प्रमाणं कृत्वा यस्य यदकुशलं पश्यसि तत्तदानीमेव प्रत्यादिशेति । प्रव्रज्यायः प्रत्यवसितः प्रज्ञाशौचयुक्त उदास्थितः । स वार्ता कर्मप्रदिटायां भूमौ प्रभूतहिरण्यान्तेवासी कर्म" का १५ द्वि. ]रयेत् । कर्मफैलाच्च सर्व1. प्रत्रजितानां ग्रासाच्छादनावसथान् प्रतिविदध्यात् । वृत्तिकामांश्चोपजपेत् । एतेनैव वेषेण राजार्थश्चरितव्यो भक्तवेतनकाले चोपस्थातव्यमिति । सर्वप्रव्रजिताश्च स्वं स्वं वर्गमेर्वमुपजपेयुः । कर्षको वृत्तिक्षीणः प्रज्ञाशौचयुक्तो गृहपतिकव्यञ्जनः । स कृषिकर्मप्रदिष्टायां भूमाविति समानं पूर्वेण " । १८ १ तेषां लक्षणमभिधातुमाह । २ परेषां आत्मनोऽन्येषां मर्भाणीव नर्माणि यदुद्घटना तन्मर्मणि विद्ध इव व्यथते तानि जानातीति । ३ * ४ छात्र इव कपलिकामात्रपरिच्छदः । ५ कपटेन चरति कापटिकः । ६ प्रज्ञाशौचयुक्त इत्यपि दृष्टव्यम् । काकाक्षिगोलकन्याय ...... I ७ उदित्युत्कर्षवाचित्वान्मोक्ष एव । तस्मादास्थितः प्रतिनिवृत्तः । ८ वृत्तिकामत्वात् । ९ तत्कर्मानुरूप राजार्पितहिरण्यः प्रभूतशिष्यश्च । १० कृषिपाशुपात्यवणिज्यालक्षणम् । ११ मूलराशेरधिकात् । १२ शाक्या जीवपाशुपतादीनाम् । १३ प्रत्येकम् । १४ प्रव्रज्या प्रत्यवसितत्वाद्ये वृत्तिकामास्तानुपलक्ष्य उपजपेत् । १५ उपजाप प्रकारमाह । १६ उदास्थितवत् । १७ देवारक्षीणबीजबलीवर्दादिः । १८ कर्मफलाच्च सर्वेत्यादि द्रष्टव्यम् । 1 sJG उत्साद्य । 2 SJO प्रव्रज्याप्रत्य' । 3 svl प्रवृज्य प्रत्यवप्रतः ; avl प्रत्यपसुतः । 4 s दोषेण; svl वेषेण । 5 SJG 'एव' नास्ति । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • वाणिजको वृत्तिक्षीणः [१६ प्र.] प्रज्ञाशौचयुक्तो 'वैदेहेकव्यञ्जनः । स वणिकर्मप्रदिष्टायां भूमाविति समानं पूर्वेण । मुण्डों जटिलो वा वृत्तिकामस्तापसव्यञ्जनः । स नगराभ्यासे(शे) प्रभूतजटिलान्तेवासी शाकं यवमुष्टिं वा मासद्विमासान्तरं प्रकाशमश्नीयात् गूढमिष्टमाहारम्। 'वैदेहि(ह)कान्तेवासिनश्चन समिद्धयोगैरर्चयेयुः। शिष्याश्चा- 5 स्याँवेदयेयुरसौ सिद्धस्सामेधिक इति । सम[१६ दि.]धाशास्तिभिश्चाभिगतानामगविद्यया शिष्यसंज्ञाभिश्च कर्माण्यभिजनेसितानि प्रत्यादिशेत्" अल्पलाभमग्निदाहं 'चौरभयं दूप्यवधं तुष्टिदानं विदेशप्रवृत्तिज्ञानं 'इदमद्य श्वो वा भविष्यति इदं वा राजा करिष्यति" । तदस्य गूढाः सत्रिणः संपादयेयुः। .१ वणिगेव वाणिजकः। २ विदेहराजशास्त्रानुष्ठानाद्वैदेहकव्यंजनः । ३ शेषं गृहपतिसमानम् । ४ शाक्याजीवादिः। ५ पाशुपतादिः। ६ जटिलग्रहणं मुंडादीनामप्युपलक्षणार्थम् । यदि शाक्यः क्षपणको वा तापसव्यंजनस्तदा तच्छिण्या मुंडा भपि भवति । ७ सिद्धतापसव्यंजनस्य । ८ समेधायै वृद्धये प्रभवति । ९ समेधनं समेधः। १० भर्थिनाम् । प्रसिद्धिवशात् । ११ यया प्रष्टुः प्रश्नसमये अंगस्पर्श दृष्ट्वा आदेशः क्रियते। १२ संकेतितस्वांगनिकारैः। १३ जातेरनुरूपाणि । १४ प्रतिपुरुषम् । १५ मंत्री ते वस्त्रयुगं दास्यतीति । १६ चौरभयं अग्निदाहं च दूष्यगृहेष्वेव । १७ राज्ञः सकाशादस्य मृत्युरिति । १८ उदन्तः । शिक्षितपारापतगलबद्धपत्रकाद्विदित्वा । १९ आदिशेदिति संबंधः । 1 svl वैदेहिक । 2 SJC मुण्डजटिल; sv] मुण्डनको। 3 sJ यवससुष्टिं; G यवसमुष्टिं । 4 SIG वैदेहका। 5 J शस्तिभिः। 6 SIG जनेऽवसितान्यादिशेद। 7 SIG चोर । 8 sJavl तुष्टदानं । 9 SJG °करिष्यतीति। 10 SIG सत्रिणश्च। 11 SG संवाद । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् सत्त्वप्रज्ञावाक्यशक्तिसम्पन्नानां 'राज्यभाग्यमनुव्याहरेत् । मन्त्रिसंयोगं च ब्रूयात् । .मन्त्री' चैषां वृत्तिकर्मभ्यां वियतेत । ये च राज्ञः कारणाद्धास्तानर्थमानाभ्यां [१७ प्र.] शमयेत् । अकारणक्रुद्धास्तूष्णींदण्डेन राजद्विष्टकारिणश्च । पूजिताश्चार्थमानाभ्यां राज्ञा राजोपजीविनाम् । जानीयुः शौचमित्येताः पञ्च संस्थाः प्रकीर्तिताः ॥ इति विनयाधिकारिके एकादशोऽध्यायः॥छ। गूढपुरुषोत्पत्तौ संस्थोत्पत्तिः॥छ॥ [गूढपुरुषप्रणिधिः।] ये चाप्यसम्बन्धिनोऽवश्यकर्तव्यास्ते लक्षणमङ्गविद्यां जम्भविद्यां मायागतमाश्रमधर्मनिमित्तमन्तरचक्रमित्यधीयांनाः सैत्रिणः संसर्गविद्यां वा। १ अस्य राज्ञः सकाशात्तव भाग्यं लक्ष्मीभविष्यतीति । [रा] शो वा भाग्यं सकलचक्रव तित्वम् । अनेन सत्पुरुषसंग्रहः स्यात् । २ संकेतितः। ३ एवं च सर्वज्ञत्वे सिद्ध सर्वेऽपि वृत्यर्थिनः त्वामयं प्रकाशयति । क्रुद्धास्तुष्टाश्च ज्ञायते । तेषां प्रतिविधेयमाह । ४ अभिचारादिविधायिनः । ५ इति प्रकारे । एता उद्दिष्टा वक्ष्यमाणाश्च व्रजवास्यादयः । पंचतां तु न व्यभिचरंति । व्रजवास्याटविकादीनां गृहपतिकव्यंजनेऽन्तर्भावः । श्रवणस्य वा तापसव्यंजने । ६ सम्यगेकस्मिन् स्थाने स्थिताः । ७ संचारोत्पत्तिरभिधीयते । ८ आप्यानां मंत्रिपुरोहितोपाध्यायादीनां संबंधिनः । ९ अवश्यभर्तन्याः ।। १० ......... लक्षणादि ............परिचयकारकम् । ११ पूर्वोक्तां शुभाशुभज्ञान फलाम् । १२ * १३ * १४ * १५ भौमान्तरीक्षविकारैः शुभाशुभसूचकम् । १६ * १७ * १८ * १९ सत्रिणो विद्यमानमपि त्रायति गोपायतीति सन छन तद्विचते येषां ते सत्रिणः । २० संसृज्यन्ते जना यस्यां सा संसर्गविद्या गीतनृत्यादिका ताम्...... । 1 SJG राज। 2 SJG भाव्य । 3 svl °व्याहरेत। 4 SJG 'ब्रूयात्' नास्ति । 5 sJa 'राज्ञः' नास्ति । 6 SIG कारणादभिक्रुद्धाः । 7 G चास्यसम्बन्धिनो । 8 SIC भर्तव्या । 9s धर्म; svl धर्म । 10 SIG °विद्या। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् २१ • ये जनपदे शूरास्त्यक्तात्मानो हस्तिनं व्यालं वा [१७ द्वि.] पुरुष. मन्यादिकं वा' द्रव्यहेतोः प्रतियोधयेयुस्ते तीक्ष्णाः। . ये बन्धुषु निःस्नेहाः क्रूरा अलसाश्चै ते रसदाः । परित्राजिका वृत्तिकामा दरिद्रा विधवा प्रगल्भा ब्राह्मण्यन्तःपुरे कृतसत्कारा महामात्रकुलान्यधिगच्छेत् ।। एतया मुंण्डा वृषल्यो व्याख्याताः। इति सञ्चाराः । तान् राजा स्वविषये मत्रिपुरोहितसेनाधिपतियुवराजदौवारिकान्तशिकप्रशास्तृसमाहर्तृसन्निधातृप्रदेष्ट्रनायकपौरव्यावहारिककार्मान्तिकमश्रिपर्षदध्यक्षदण्डदुर्गान्तपालाटविकेषु श्रद्धेयदेशवेषशिल्पभाषाभिजनापदेशात् भक्तितसामर्थ्ययोगाच्चापसर्पयेत् । १निर्भयाः। २......मगणितजीविताः। ३ यद्युयोगिनो भवंति तदा रसदत्वं नांगीकुर्वन्तीति । ४ परिवाजकलिंगधारिणी सर्वत्र परिवजतीति । ५ वृत्तिकामस्वाद्राजकार्यकारिणी । ६ स्वतंत्रा। . ७ जितसभा। ८ पूज्यवादतःपुरे राजानुमत्या कृतसत्कारा । ९ ऋद्धिमदमात्यगृहाणि । १० चारसंचारार्थम् । ११ महंतबुद्धभिक्षुक्यः। १२ वेश्यामातरो देवतालिंगधारिण्यो न्याख्याता इति। वृत्तिकामाऽन्तःपुरे कृतसस्कारा __ महामात्यकुलानि गच्छेदिति योज्यम् । १३ इत्येवंप्रकाराः सध्यादयः कुरुजादयश्च संचाराः । संचरंनि संचारयति चामिति । १४ अंतःपुरे नियुक्तः । १५ * १६ समाहर्ता कोशसम ......... । १७ गृहामात्यः । १८ प्रदेष्टा कंटकशोधनाधिकृतः। १९ * २० पुरव्यवहारे नियुक्तः । २. ये केचन खनिद्रव्यहस्तिवनादीनां कर्मान्ताः तेषु नियुक्तः । २२ श्रद्धेयो यस्य यो देशः यस्य यो वेषः इत्याद्यपदेशात् । २३ * २४ गूढपुरुषप्रणिधानं चामात्यादीषु वृत्तांतपरिज्ञानार्थे ......... च निश्चित्य शस्त्ररसप्र योगार्थम् । 1 JG 'पुरुषमम्यादिकं वा' नास्ति। 2 SIG °श्चालसा। 3 SIG सेनापति। 4 J कान्तिक। 5 JG परिषद् । GSJG °देशान् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् - तेषां बाह्यं चारं छत्रभृङ्गारव्यजनपादुकासनयानवाहनोपग्राहिणः तीक्ष्णा'* विद्युस्तं सत्रिणः संस्थास्वर्पयेयुः । [सूदारालिकस्नापकसंवाहकास्तरककल्पकप्रसाधकोदकपरिचारका[१८ प्र.] रसदाः कुब्जवामनकिरातमूकबधिरान्धजड [च्छमानो नटनर्तकगायनवाद5 कवाग्जीवनकुशी]लवाः स्त्रियश्चाभ्यन्तरं चौरं विद्युस्तं भिक्षुक्यः संस्थास्ववसर्पयेयुः। संस्थानां कापटिकादीनामंतेवासिनः संज्ञॉलिपि*भिश्चारसश्चारं कुर्युः। न चान्योन्यं संस्थास्ते वा विद्युः। भिक्षुकीप्रतिषेधे द्वाःस्थपरम्परामातापितृव्यञ्जनाः शिल्पकारिकाः कुशीलवी दास्यो वा गीतवाद्यपाट्यंभाण्डेंगूढलेख्यसंज्ञाभिर्वा बाह्यानी चारं निर्हरेयुः । दीर्घरोगो*. 1 न्मादौग्निरसविसर्गेण वा गूढनिर्गमनम्"* । त्रयाणामेकवाक्ये सम्प्रत्यय इति । तेषामभीक्ष्णविनिपाते तूष्णीं दण्डः प्रतिषेधः" । कण्टकशोधनोताश्चावसर्पाः परेषु कृतवेतना वसेयुः । सम्पातनिश्चारार्थ त उभयवेतनाः । २ म्लेच्छजातिबर्बरशिराः। GMCCw ७ संस्थाः संस्थान्तरचारसंचाराः चारसंचाराम्तरं च । ८ मातापितृवत् व्यज्यंतीति भृत्या एवापत्यस्नेहं किल दर्शर्थतः । ९ तत्प्रतिषेधे स्त्री ......... १० तत् प्रतिषेधे इति शेषः। ११ तूर्यभांडांतरनिहितगूढलेख्यैः । १३ अनभिलक्षितशिरोवेदनादिः । १५ टिप्पनीयमस्पष्टाक्षरा । १९ अरिमित्रादिषु । २० अस्पष्टाक्षरा। 1 SIG °जडान्ध। 2 SJG खर्पयेयुः। 3 SJC 'कापटिकादीनां' नास्ति । 4 S 'पाठ्यः' नास्ति; svl JG गीतपाठ्यवाद्य 15 SJC 'बाह्यानां नास्ति। 6 J निर्हारयेयुः।7 svl त्रयाणामन्योन्यमेक 18 SIG 'इति' नास्ति । 9 C तूष्णीदण्डः । 10 S.Jप्रतिषेधो वा । 11 SJC: °श्वापसः । 128 °तश्चोरार्थ; svl तनिश्चारार्थ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् 'गृहीतपुत्रदारांश्च कुर्यादुभयवेतनान् । तांश्चारि [१८ द्वि.] प्रहितान् विद्यात्तेषां शौचं च तद्विधैः ॥ "एवं शत्रौ च मित्रे च मध्यमे चावपेच्चरान् । उदासीने च तेषां च तीर्थेष्वष्टादशस्वपि ॥ अन्तर्गृहर्गतास्तेषां कुब्जवामनपंडकाः । शिल्पवत्यः स्त्रियो मूकाश्चित्राश्च म्लेच्छजातयः ॥ दुर्गेषु वणिजः संस्था दुर्गाते सिद्धतापसाः । कर्षक दास्थितौ राष्ट्र राष्ट्रांते व्रजवासिनः ॥ वने वनेचरीः कार्याः श्रवणीविकादयः । परप्रवृत्तिज्ञानार्थाः शीघ्राश्चारपरम्पराः ॥ परस्य चैते बोद्धव्याः तादृशैरेव तादृशाः । चारसञ्चारिणः संस्था गूढाश्चागूढसंज्ञकाः ॥ अकृत्यान् [१९ . ] कृत्यपक्षीयैः "दर्शितान् कार्यहेतुभिः । 7 २ उभयचेतनान् । १ अस्पष्टाक्षरा । ३ उक्तं च : मत्स्यस्येव गतिं मत्स्याश्चाहेरिव पदान्यहिः । स्वचेष्टितैर्विजानन्ति धूर्तां धूर्त विचेष्टितम् ॥ ४ उभयवेतनैः स्वकीयैः । ५ अरिविषये गूढपुरुषप्रणिधानं दर्शयन्नाह । ६ शत्रौ च शब्दात् शत्रुमित्रे तन्मित्रे मित्रे च स्वकीये समुच्चयात् तन्मित्रेषु च मध्यमे उदासीने समुच्चयात् तन्मित्रेषु च निक्षिपेत् चरान् । ७ उक्तेन न्यायेन मंत्र्यादिषु तीर्थेष्वष्टादशसु च । तेषां पूर्वोक्तानाम् एवं द्वादश विजिगीषु विहायैकदेशराजानः प्रत्येकं तेषां मंत्र्यादितीर्थान्यष्टादशैव गूढप्रणिधानस्थानानां द्वेशते सप्तविंशत्यधिके । एषु स्थानेषु । ८ स्थानवशात् चरावापमाह । ९ संचारप्रणिधानमुक्त्वा संस्थाप्रणिधानमाह । दुर्गेषु वणिजः संस्था इत्यादि । १० वनेचरा गृहपतिक गृहपति... ......! १२ टिप्पनीयमस्पष्टाक्षरा । ......... २३ • भेदात् श्रवणा इति मुंडतापस बौद्धजैनाः । आटविकादयो १३ * [१४]....... .... तपस्वि ...... • गृहपतिकसंज्ञिताः । १५ परस्य शत्रोद्धुं न शक्यते । उक्तं चकः समानाभिहारेण नान् । भृत्यराशौ स्थितान्वेत्ति शंखे क्षीरकणानिव ॥ तत् परिज्ञानार्थं उपायान्तरमाह । अकृत्यानित्यादि । १६ क्रोधलोभ भयमानैः कारणभूतैः प्रनिरूपितान् । तद्यथा मंत्री सेनापत्यादीकान् कृतककृत्यान् कृत्वा मानाधिकारभ्रष्टान् राष्ट्रान्निर्वासयेत् । तेषु च परावसर्पा विश्वसन्ति । ततश्च ते विजिगीषोः सूचयन्त्येवं परावसर्पज्ञानार्थे मुख्यानन्ते वासयेदिति । ********* 1 sJE गृहचरास्तेषां । 2 so षण्डकाः; वञ्चकाः | 3 SJG "स्थिता । svl वनचराः । 5 sJG श्रमणा । 6s चैके; svl चैते । 7 sJG संज्ञिताः । *****... 4 s वनचरैः; 5 10 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् परोवसर्पज्ञानार्थ मुख्यानन्तेषु वासयेत् ॥ . ॥ इति विनयाधिकारिके द्वादशोध्यायः॥ छ ॥ गूढपुरुषोत्पत्ती संस्थोत्पत्तिः गूढपुरुषप्रणिधिः ॥ छ ।' [कृत्याकृत्यपक्षरक्षणम् ।] कृतमहामात्रांवसर्पः पौरजानपदानवसर्पयेत् । 'सत्रिणो द्वन्द्विनस्तीर्थसंभौपूर्गजनसमवायेषु विवादं कुर्युः । सर्वगुणसम्पन्नश्चायं राजा श्रूयते। न चास्य कश्चित् गुणो दृश्यते यः। पौरजानपदान अतिमात्रं दण्डकराभ्यां पीडयति । तत्र येऽनुप्रशंसेयुः तानितरस्तं च प्रतिषेधयेत् । मात्स्यन्यायाभिभूताः 16 [ १९ द्वि.] प्रजा मनुं वैवस्वतं राजानं चक्रिरे । धान्यषड्भागं "पण्यदशभागं हिरण्यं चास्मै" "भागधेयं प्रकल्पयामासुः । तेन भृता राजानः प्रजानां १ कृतलक्षणाः । कृता महामात्रेषु महर्द्धिषु सतीर्थेषु च शत्रुमित्रादिपु च अवसा येन । २ यत्रावतरंति जनाः पुण्यार्थमर्थार्थ वा सोमनाथ-कालप्रियादिकम् । ३ समायान्ति गोष्ठ्यां जना यस्यां सा सभा। ४ पूगाः श्रेणीगणास्तंतुवायादीनाम् । ५ प्रेक्ष्योत्स्वादिषु यत्र जनाः समवयंति। ६ द्वौ द्वौ भूत्वा द्वंद्व युगं युगलमिति पर्यायाः । विवादो वा द्वंद्वं तद्विचते येषां ते क्षुद्र ककृत्यपक्षरक्षार्थ विवादं कुर्युः। ७ विवादस्वरूपमाह । ८ कृत्याः । ९ साधूक्तमिति। १० कृत्यान् । ११ द्वितीयः सत्री। १२ तं च पूर्वपक्षवादिनं सत्रिणम् । १३ कुंकुमादि। १४ यथोचितम् । १५ भागम्। १६ रक्षणसामग्रीसंपादनाय । १७ भागेन पुष्टाः।. 1 SJG परापसर्प। 2 s गूढपुरुषोत्पत्ती सञ्चारोत्पत्तिः द्वादशोध्यायः; J प्रथमेऽधिकरणे गूढ सञ्चारो० गूढपुरुषप्रणिधिः द्वादशो; + प्रथमाधिकरणे द्वादशो° गूढ° सञ्चारो° गूढपुरुष । 3 5 गूढपुरुषप्रणिधिः कृतमहामात्या। 4 SC °मात्या; svl °मात्रा। 5 SIG °पसर्पः । 6 SIG °पसर्पयेत् । 7 SJG सभाशालापूग। 8 SJG 'अतिमात्रं' नास्ति । 9 पीज्यतीति । 10 Gvl चक्रुः। 11 SJG चास्य । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् योगक्षेमावहाः " । तेषां किल्बिषमदण्डकरा हरन्ति । अयोगक्षेमावहाश्च प्रा ( प्र ? ) जानाम् । तस्मादुछषड्भगमारण्यका अपि निर्वपन्ति 'तस्यैतद्भागधेयं योऽस्मान् गोपायतीति' । इन्द्रर्यमस्थानमेतत् राजानः प्रत्यक्षहेडप्रसादाः । तानवमी [२० प्र.] न्यमानान् देवोऽपि दण्डः स्पृशति । तस्माद्राजानो नावमन्तव्या इत्येवं' क्षुद्रकां प्रतिषेधयेत् । किंवदन्तीं च विद्युः । ये" चास्य धान्यपशुहिरण्यान्याजीवन्ति तैरुपकुर्वन्ति व्यसनेऽभ्युदये" वा कुपितं बन्धुं राष्ट्रं वा व्यावर्तयन्ति" अमित्रमाटविकं वा प्रतिषेधयन्ति । तेषां " मुण्डजटिल व्यञ्जनास्तुष्टातुष्टत्वं विद्युः । तुष्टान् भूयोऽर्थमानाभ्यां पूजयेत् । अतुष्टांस्तुष्टितोस्त्या [२० द्वि.] गेन प्रसादयेत् । परस्पराद्वा भेदयेदेतान सामन्तादविकतत्कुलीना परुद्धेभ्यश्च । " १ पुरुषार्थलाभपालन संपादका भवन्ति । .२ प्रजानां व्यवस्थां राजकृतामाह । राज्ञां पापमदत्तदण्डकराः प्रजा हरन्ति । प्रजानां च पापं अयोगक्षेमावहाः राजानो हरन्तीति संबंधः । ३ वानप्रस्थाः । ४ राजोद्देशेन भूमौ यच्छन्ति ५ पारत्रिक दोषं दर्शयित्वैहिकमपि दर्शयन्नाह । उपलक्षणपरं चैतत्सकललोकपालस्थानं राजानः । तथोक्तम्- अग्निवायुय मार्काणामिंद्रस्य वरुणस्य च । चंद्रवियोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः ॥ यस्मादेषां नरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः । तस्मादभिभवत्येव सर्वभूतानि तेजसा ॥ इति । ६ चित्रवधादिराबाधः । हेड विबाधायामिति पाठात् । ७ दैवस्यायं देवः । व्याधिमरकदुर्भिक्षादिः । ८ कृत्यभावोपगमान्निवारयेत् । ९ राशि अनुराग विरागविषयाम् । १० वैषयिकमहत्तरमामकूटश्रेष्यादयः । ११ धान्यादिभिः । १२ पुत्रजन्मादौ । १३ सामादिभिः परविषययानात् । १४ विलोपार्थं स्वविषयं प्रविशन्तं दंडेन । २५ १५ वैषयिकादीनां तुष्टातुष्टत्वं विदित्वा राज्ञो निवेदयेयुरिति भावः । १६ वैषयिकादीन् । १७ अन्य संहतानुद्दिश्याह । संसक्तांताः सामंता आटविका ये प्रचंडास्तत्कुलीना राजकुलोस्पना अपरुद्धाः परिवर्जितपुत्रादयस्तेभ्यश्च भेदयेदबलाः पश्चात्सामादिभिस्तुष्टा भवंति । 1 SJC क्षेमवहाः । 2 avl किल्बिषमदण्डकरा अयोग | 3 savla योग; svl अयोग । 4 sJG क्षेमवहा' | 5 SJC प्रजानाम् । 6 sJc निवपति; avl निर्वपन्ति । 7 svl इन्द्रिय । 8 sJa° मन्यमानान्; avl मानानां देवोऽपि दण्डं स्पृशति । 9 SJG ' एवं ' नास्ति । 10 SJG व्यावर्तयन्ति । 11 sa तुष्टान् भूयः पूजयेत्; svl अर्थमानाभ्यां पूजयेत्; तुष्टानर्थमानाभ्यां पूजयेत् । 12 SJG साम्ना च प्रसादयेत्; avl प्रतिसाधयेत् । 13 sa एनान् । 14 sJG अवरुद्धे । सटि० कौट० अर्थ • 4 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 सटिप्पनकं कौटलीयमर्थ शास्त्रम् तथाऽप्यंतुष्यतो दण्डकरसाधनाधिकारेण जनपेदविद्वेषं ग्राहयेत् । विद्विष्टानुपांशुदण्डेन जनपदकोपेन वा साधयेत् । गुप्तपुत्रदारानाकरकर्मान्तेषु वा वासयेत् परेषामास्पदभयात् । २६ क्रुद्धलुब्ध भीत ( ता ? ) मानिनस्तु परेषां कृत्याः । तेषां कार्तान्तिकनैमि तर्कमौहूर्तिकव्यञ्जनाः परस्पराभिसम्बन्धममित्राटविक संबंधं [२१५. ]वी विद्युः । तुष्टानर्थ मानाभ्यां पूजयेत् । अतुष्टान् सामदानभेददण्डैस्साधयेत् । एवं स्वविषये कृत्यानकृत्यांश्च विचक्षणः । परोपजापात्संरक्षेत् प्रधानान् क्षुद्रकानपि ॥ इति विनयाधिकारिके त्रयोदशोऽध्यायः ॥ छ ॥ * [ कृत्याकृत्यपक्षोपग्रहः । ] कृत्याकृत्यपक्षोपग्रहस्स्वविषये व्याख्यातः । परविषये वाच्यः । संश्रुत्यार्थान् विप्रलब्धंस्तत्तल्यकारिणः शिल्पे 'चोपकारे चं विमानितः बलैभापरुद्धसमाहूतपराजितः प्रवासोपतप्तः [२१ द्वि.] कृत्वा व्ययमलब्धकार्यः स्वधर्मा १ सामदानभेदैः । २ सजातीया यावद्राजकीयत्वं दर्शयति तदा विद्विष्टा भवंति । ३ रसदानादिना । ४ जनपद एव कुपितस्तन्निग्रहे प्रेर्यते । ५ निग्रहायोग्यान् । ६ परैरात्मसात् कर्तुं शक्यंत इति कृत्याः । ७ कृत्यानाम् । ८ कृतान्तः सिद्धान्तः स्त्रीपुरुषलक्षणज्ञानफलं तमधीयते । ९ वा शब्दादपरुद्रादिभिश्व संबंधं विद्युरुषायैस्तनिषेधार्थम् । संबंधविनाशाकिं तदाह । १० त्यक्तक्रोधादीन् । ११ कृत्यत्वापनयनपंडितः । १२ अर्थान् प्रतिपाद्य वंचितः । १३ एतच्छन्दोपरि विस्तृता पंक्तिपरिमिता टिप्पनी लिखिता दृश्यते परन्तु समग्राऽध्यवा व्याक्षरा । १४ राजवल्लभैर्बहिःकृतः । १५ समाहूय व्यवहारे पक्षपातास्पराजितः । १६ प्रवासेन भूयोभूयः क्रियमाणेनोपतसः । १७ कृत्वा व्ययं पण्यागारढोक निकया लब्धसमीहितकार्यः । १८ ब्राह्मणादीनां षट्कर्मादेः । 4 s svl बन्धं s स्वविषये कृत्याकृ 1 sJG वा जनपद° । 2 SJC अवमानिन । 3 SIG नैमित्तिक । अमित्रप्रति ; svlJ अमित्राटविकप्रति ; avl 'बन्धं मित्राटविक संबंध" । 5 त्यपक्षरक्षणं त्रयो'; J प्रथमेऽधिकरणे व कृत्या त्रयो; व प्रथमाधिकरणे त्रयो° स्व० कृत्या' । 6 svlJ तुल्याधिकारि । 7 SJC वोपकारे । 8 sJG वा । 9 SJC वरुद्ध: । 10 sJa समाहूय - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् ल्याद्याद्वापरुद्धः । मानाधिकाराभ्यां भ्रष्टः कुल्यैरन्तर्हितः प्रसभाभिम॒ष्टस्त्रीकः कारोभिन्येस्तः “परोक्तदंडितः मिथ्याचारंवारितः सर्वस्वाँहारितः बन्धनपरिक्लिष्टः प्रवासितबन्धुरिति क्रुद्धवर्गः ॥ स्वयमुपहतः विप्रकृतः पापकर्माभिख्यातः तुल्यदोषदण्डेनोद्विग्नः पर्यातभूमिः दण्डोपनतः सर्वाधिकरणस्थः सहसोपचितार्थः तत्कुलीनोपाशंसुः" , प्रद्विष्टो राज्ञा राजद्वेषी चेति भीतवर्गः॥ परिक्षीणः अन्यात्तस्वः कदर्यः मूलहरः तादात्विकः व्यसनी अत्याहितव्यवहारश्चेति लुब्धवर्गः॥ आत्मसंभावितः [२२प्र.] मानकामः शत्रुपूजामर्षितः नीचपहितः तीक्ष्णः साहसिकः भोगेनासन्तुष्ट इति मानिवर्गः ॥ १ न्यायलभ्यात् दायलभ्यद्व्यांशात् बहिःकृतः। २ आसनादिकात् मानात् समाहर्तृस्वादेरधिकारात् भ्रष्टः। ३ दायादैस्तिरोहितः। ४ बलाइषितस्त्रीको राज्ञाऽन्येन वा । उक्तं च तेनः साहसिको हिंस्रः पारदारिक एव वा । राज्ञा स्यादपराधेन ये चान्ये पापकारिणः ॥ ५दोषं विना बंदिशालायां क्षिप्तः। ६ पिशुनवचनेनाविचार्य दंडितः कुध्यति । उक्तं च यानि मिथ्याभिशस्तानां पतंत्यश्रूणि रोदनात् । तानि पुत्रपशून् नंति राज्ञस्त्राणमकुर्वतः॥ ७ त्रिवर्गशून्यात् यूतादिव्यसनान्निवारितः । उक्तं च रिपूभवंति दुःप्रज्ञा मिथ्याचारनिवारिता इति ॥ ८ गृहीतसर्वस्वः। ९ यमपुरं प्रेषितबांधवः ।। ५० वर्गग्रहणं वाक्पारुष्यादीनां ग्रहणार्थम् । ११ कोशं दण्डं च विनाश्याकृतकार्यों भीतो भवति । १२ विरुद्धं प्रकर्षेण कृतं राजद्विष्टमभिचारादि.........। १३ .........अनुक्तोऽपि शत्रुवधं प्रतिज्ञाय प्रार्थितकोशदण्डः। १४ यस्कुलं राज्ञस्तरकुलापत्यं स यदि राजा भवतीति कुलसंबंधः तेन राजनिग्रहा......... १५ स व्यवहारो महा......... । १६ रूपशोभादिभिरामनैवात्मानं संभावयन.........। १. अनारमसंभावितोऽपि मानमिच्छति । १८ कात्रौ पूजामसहमानः । अत्र च अमर्षोऽसहनं न क्रोधः। १९ टिप्पनीयमस्पष्टाक्षरा। 1 SIG उपरुद्धः। 2 svl भृष्टः। 3 savl तुल्यै; svl कुल्यै। 4 J कारादि । 55 परोक्ष; svl परोक्त। 6 Gv] °चारपातितः। 7 savl सर्वसमाहारितः; svl सर्वख । 8 svl svl विप्रकृष्टः। 9 JG दण्डेनोपहतः। 10 J साहसो.। 11s नोवाशंसुः। 12 SIG अत्यात्तखः । 13 sJG 'मूलहरः। तादात्विकः । नास्ति । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् तेषां* मुण्डजटिलव्यञ्जनों यद्भक्तिः कृत्यपक्षीयस्तं तैनोपजापयेत् । यथा मदान्धो हस्ती मत्तेनाधिष्ठितो यद्यदासादयति तत्सर्व प्रमृद्गाति एवमयमशास्त्रेचक्षुरन्धो राजा 'पौरजानपदवधायाभ्युत्थितः । शक्यमस्य प्रतिहस्तिप्रोत्साहनेनापकर्तुममर्षः क्रियतामिति क्रुद्धवर्गमुपजपे(जापये ?)त् । यथा लीनः सो यस्माद्भयं पश्यति तत्र विषमुत्सृजति । एवमयं राजा जातदोषाशङ्कस्त्वयि पुरा क्रोधविषमुत्सृजति अन्यत्र गम्यतामिति भी-[ २२ द्वि.] तवर्गमुपजापयेत् ॥ यथा श्वगणिनां धेनुः श्वभ्यो दुह्यते न ब्राह्मणेभ्यः। एवमयं राजा सत्त्वप्रज्ञावाक्यशक्तिहीनेभ्यो दुह्यते नात्मगुणसम्पन्नेभ्यः। असौ' राजा 10 पुरुषविशेषज्ञस्तत्र गयंतामिति लुब्धवर्गमुपजापयेत् ।। ___ यथा चण्डालोदपानश्चण्डालानामेवोपभोग्यो नान्येषामेवमयं राजा नीचो नीचानामेवोपभोग्यो न त्वद्विधानामार्याणामसौ राजा पुरुषविशेषज्ञः तत्र गम्यतामिति मानिवर्गमुपजापयेत् ॥ तथेति प्रतिपन्नांस्तान संहितान् पणकर्मणा । योजयेत यथाशक्ति सार्वसर्पान् कर्मसु ॥ लभेत सामदानाभ्यां कृत्यांश्च परभूमिषु । अकृत्यान् भेददण्डाभ्यां परदोषांश्च दर्शयन् । ___ इति विनयाधिकारिके चतुर्दशोऽध्यायः॥1 * .... २ शास्त्रचक्षुमंत्री । स न विद्यते यस्य यन्त्र स्थानीय स्वयमप्यंधः । ३ जनपदवधाय उद्यतः। ४ भवत्स्वामी। ५ विजिगीषुमुद्दिश्य । ६ विस्तृतायाः टिप्पन्या एतान्येव वाक्यानि पठ्यन्ते-"असौ भवत्स्वामी राजा नीचो नीचानामेवोपभोग्यो न भवविधानां मानीनामिति भावस्तथा चोक्तं कविषु कवयो......नीचा नीचेष्वभिरमंत इति ।" ७ ......पुरुषविशेषज्ञो मानीनां मानोन्नतिकर्ता । उक्तं च...... । ८ तथेति यथा मुंडादिभिरुपजप्योक्ता यथा अपकारार्थ भयापगमार्थ महालाभार्थं मानोसत्यर्थं च विजिगीषुराश्रयणीय इति । तथेति प्रतिपन्नांस्तान् क्रुद्धादीन् संहितान् कृतसन्धानान्यकर्मणो............क्रिय या योजयेन्नियोजयेद् । यथाशक्ति शत्यनतिक्रमेण । यत्कर्म यः कतुं शक्नोति । सावसान कृतगूढपुरुषप्रणिधानान् स्वकर्मसूद्दिष्टेषु कर्मसु । १ भेददंडाभ्यां शत्रुणा सह भेदं कारयित्वा उपांशुवधं शत्रुणा कृतं रूपयित्वा हतबांधवान कृत्यानपि पश्चाल्लभेत परदोषांश्च दर्शयन् । क्रूरो लुब्धः कृतघ्न इत्यादिकान् । 1G राजान्धेन मन्त्रिणाधिष्ठितः पौर। 2 svl नापकर्तुमेषः। 3 SIG उपजापयेत् । 4 J भीतः। 5 SIG दुग्धे। 6 SIG दुग्धे । 7 8G सेव्यतामिति; Jvl स सेव्य। 8 SIG सापस। 9 SJG स्वकर्मसु । 10 SJG दर्शयेत् । 115 परविषये कृत्याकृत्यपक्षोपग्रहः चतु; I प्रथमेऽधिकरणे पर° कृत्य चतु; G प्रथमाधिकरणे चतु पर कृत्या। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [मत्राधिकारः ।] कृतस्वपक्षपरपक्षोपग्रहः कार्यारम्भां श्चिन्तये [२३ प्र.] त् । मन्त्रपूर्वाः सर्वारम्भाः। तस्योद्देशः संवृतः कथानामनिःश्रावी पक्षिभिरप्यनालोक्यः स्यात् । श्रूयते हि शुकसारिकाभिर्भिन्नो मन्त्रः श्वभिरप्यन्यैश्च तिर्यग्योनिभिरिति । तस्मान्मत्रोद्देशमनायुक्तो नोपगच्छेत् । उच्छिद्येत हि । मन्त्रभेदी* । मन्त्रभेदो हि दूतामात्यस्वामिनामिङ्गिताकाराभ्याम् । इङ्गितमन्यथावृत्तिः। आकृतिग्रहणमाकारः। तस्य संवरणमायुक्तपुरुषरक्षणमाकार्यकालादिति । तेषां हि प्रमादमदसुप्तप्रलापाः कामादिरुत्सेकः प्रच्छन्नोऽवमतो वा मन्त्रं "भिनत्ति । तस्माद्रक्षेन्मन्त्रमिति प्रतीतम् । . मन्त्रभेदो ह्ययोगक्षेमकरो राज्ञस्तदायुक्तपुरुषाणां च । तस्माद्गुह्यमेको मन्त्रयेतेति भारद्वाजः । मन्त्रिणामपि हि मन्त्रिणो भवन्ति । "सैषा मन्त्रिपरम्परा मन्त्रं भिनत्ति । तस्मात १ पक्षशब्देन कृत्याकृत्यपक्षो गृह्यते। तस्योपग्रहः स्वीकारः। स्वमंडले परमंड[ले]च येन कृतः। २ संधिदुर्गादिकार्याणामारंभान् । ३ तस्योद्देशः प्रदेशो मंत्रणागारमित्यर्थः । ४ .........किभिस्तिर्यग्योनिभिरप्यनालोक्यः अदृश्यः स्यात् । ६ त एव यतो मंत्रे अधिकृताः। ७ इंगिताकारलक्षणस्य मंत्रभेदद्वारस्य गोपनमनुपलक्षणार्थम् । ८ दूतामात्यस्वामिनां रक्षणं स्वीपानादिपरिहारेण । ९ अन्यान्यपि मंत्रभेदद्वाराणि दर्शयन्नाह । १० कार्यान्तरासंगेन मंत्ररक्षाविस्मरणम् । ११ सुरादिना मत्तता। १२ निद्रालुब्धस्वंम् । १३ ते प्रलापाः। १४ कुड्यान्तरितः। १५ अरक्षणमवज्ञानं कामादीङ्गित विक्रियाः । प्रमादादिप्रलापश्च मंत्रमार्गास्त्रयोदशाः ॥ प्रयोदशेति मंत्रस्य ज्ञात्वा द्वाराणि पार्थिवः। संवृत्य मंत्रयन् विद्वान् कर्मणां फलमश्नुते॥ १६ यथा ध्रुवदेव्या कृतो रामगुप्तारीरस्य । 18 चिन्तयेत। 2 SIG तदुद्देशः। 3 SIG निस्त्रा। 4 SIG शारिकाभिः। 5 SG मत्रो भिमः। 6 sa 'अपि नास्ति । 7 SIG 'इति' नास्ति। 8 SIG 'हि' नास्ति । 9 SIG प्रलापकामा । 10 SIG 'इति प्रतीतं' नास्ति । 11 savl भेदोऽन्ययोग; svld भेदोऽयोग। 12 SIG भवन्ति । तेषामप्यन्ये; सैषा'; avl भवन्ति । सैषा । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् नास्य [ २३ द्वि.] गुह्यं परे विद्युः कर्म 'किञ्चिच्चिकीर्षितम्। . आरब्धारस्तु जानीयुरारब्धं कृतमेव वा ॥ नैकस्य मन्त्रसिद्धिरस्तीति विशालाक्षः । प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः । अनुपलब्धस्य ज्ञानमुपलब्धस्य निश्चितंबौधानमर्थद्वैधस्य संशय5 च्छेद॑नमेकदेशदृष्टस्य शेषोपलब्धिरिति मन्त्रिसाध्यमेतत् । तस्माद् बुद्धिवृद्धैः सार्द्धमध्यासीत मन्त्रम् । न कश्चिदवमन्येत सर्वस्य शृणुयान्मतम् । बालस्याप्यर्थवद्वाक्यमुपयुञ्जीत पण्डितः ॥ एतन्मन्त्रज्ञानं नैतन्मन्त्ररक्षणमिति पारासराः । यदस्य कार्यमभिप्रेतं 10 तत्प्रतिरूपकं मन्त्रिणः पृच्छेत् । १......रो जानीयुस्तत्राप्यारब्धं कृतमेव वा । आरब्धं विवेकिनः कृतमितरे जानंति । यथा राजा जनपदांते स्वनिहितं ध्रुवं निधि खानयन् ब्रूते-खन्यतामत्र कूप इति । तत्र विवेकिनो नेदं कूपस्थानमवश्यमन्त्र............कनककलशदर्शनात् । २ प्रत्यक्षागमानुमानप्रमाणत्रयेण राज्ञो व्यवहार एतदेव दर्शयसाह । ३ अप्रतीतस्याप्तवचनादेव ज्ञानम् । ४ उपलब्धस्यापि प्रत्यक्षेण । तत्वाभासभूयस्त्वे प्रत्यक्षाभासविप्रलब्धस्वानिश्चये बलं न भवति । तदाधानमपि मंत्रिसाध्यम् । ते हि निरपवादैः स्वमतिविभवै। पूर्वपक्षमु. भाव्य सिद्धान्तप्रदर्शनाद्राज्ञोपलब्धस्य निश्चितबलाघानं कुर्वन्ति । ५ कार्यद्वैधे मंत्रिण एव इत्युक्तिभिः संशयच्छेदः । ६ एकोऽवयवो राज्ञा दृष्टो यस्य कार्यस्याशेषावयवानां तु मंत्रिभिरुपलब्धिः क्रियते । तद्यथा संधिविग्रहयोस्तुल्यायां बुद्धौ संधिः श्रेयान् । विग्रहे हि क्षयम्ययादयो भवंति । इति राज्ञोपलब्धम् । तत्र मंत्रिणो विशेषं दर्शयति । संधिरपि भेदपूर्वः श्रेयान् न विग्रहपूर्व इति शेषोपलब्धिरेतदखिलं मंत्रिसाध्यं............ ॥ ७ एवं हि पाण्डित्यं भवतीति भावः । उक्तं च अप्युन्मत्तात्प्रलपतो गच्छतःस्वपतोपि वा । सर्वस्मारसारमादेयं धातुभ्य इव कांचनमिति ॥ ८ बहुश्रोतृगतत्वात् । ९ तत्समानमध्यारोपितं कृत्वा मंत्रिणः पृच्छेत् । 1 SIG तस्मान्नास्य परे विद्युः । 2 SIG अरब्धास्तु । 3 SI निश्चय; a निश्चयो निश्चितस्यः। 4 SIG °मासीत। 5 SI °वाख्यं। 6 पराशरः; JG पाराशराः। 7 SIG मुद्रितेषु पुस्तकेषु 'पृच्छेत्' इत्यनन्तरं “कार्यमिदमेवमासीदेवं वा यदि भवेत्तत्कथं कर्तव्यमिति । ते यथा श्रूयुः तस्कुर्यात् । एवं मन्त्रोपलब्धिः संवृतिश्च भवतीति ।" इति पठ्यते।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • नेति पिशुनः । मन्त्रिणो हि व्यवहितमर्थ वृत्तमवृत्तं वा पृष्टा अनादरेण युवन्ति प्रकाशयन्ति वा सदोषाः। तस्मात्कर्मसु ये ये [ २४ प्र.] ष्वभिप्रेतास्तैः सह मन्त्रयेत् । तैमन्त्रयमाणो मन्त्रसिद्धिं गुप्तिं च लभते । नेति कौटल्यः । अनवस्था ह्येषा । मन्त्रिभिस्त्रिभिश्चतुर्भिर्वा सह मन्त्रयेतेति । मन्त्रयमाणो ह्येकेनार्थकृच्छ्रे' निश्चयं नाधिगच्छेत् । एकश्च मन्त्री यथेधमनवग्रहश्चरति । द्वाभ्यां मन्त्रयमाणो विगृहीताभ्यां विनाश्यते । संहताभ्यामवगृह्यते । 'तत् त्रिषु चतुर्ष वा कृ णोपपद्यते । महादोषमुपपन्न" तु भवति । ततः परेषु कृछ्रेणार्थनिश्चयो गम्यते मन्त्री वा रक्ष्यते। देशकालकार्यवशेन त्वेकेन सह द्वाभ्यामेको वा यथासामर्थ्य मन्त्रयेत् । १ देशकालपुरुषादिभिः । २ कार्यम् । ३ नैतत्स्वामिकार्यमिति न सम्यक् परामर्शपूर्वकं कथयन्ति । 10 ५ दुर्गसन्ध्यादिषु ये पुरुषाः स्थपतिदूतादयः अभिप्रेता योग्यताप्रदर्शनेन । ६ विस्तृतायाः टिप्पन्या एतान्येव वाक्यानि पठ्यन्ते-"भारद्वाजमते...... गुप्तिमात्रमेव । असिद्धस्य च गुप्तिर्वृथा । विशालाक्षमते मंत्रसिद्धिरस्ति । न गुप्ति...... । पिशुनमतेऽपि कार्यानस्यानियुक्तपुरुषानंत्यम् । न च सर्वे मंत्रिणो भवंति । मंत्रिगुणाभावान मंत्रोपलब्धिरनुपलब्धस्य किं रक्षया नियतमंध्यभावे षडंगं......। एवं मंत्रस्थानवस्थानातू मंत्रि.........अनवस्थाप्रतिषेधार्थमाह । ७ कार्यघटने (?)। निरंकुशश्वरति राज्यमाक्रम्य भुक्ते । वृद्ध्या चित्तविकारे सति राज्यमपि गृहातीतिभावः। कौटल्यः न । व्यभिचार इति चेल ताग्विधानां निस्पृहाणामसंभवात् ।। ९ परस्परभेदाद्विवादेन......निश्चयाभावाद् विनाश्यते मंत्रमूलत्वात्सरिंभाणाम् । १० तदिति एकमंत्रिस्वे मंत्रनिश्चयानधिगमो यथेष्टाचरणं द्विमंत्रित्वे संहतस्वेन विग्रहो विगृ हीतरवेन विनाशनमित्येतदोषचतुष्टयम् । कृच्छ्रेणोपपद्यते। बहूनामेकमतस्य दुर्घटत्वात्। यदि तु काकतालीयत्वादुपपन्नं तदा तु ......महांत एव दोषा भवन्तीत्यर्थः । प्रकीर्णलोपत्वात् । १२ मंत्रे सामर्थ्य शास्त्रचक्षुष्मता निरतिशया प्रज्ञा लोकव्यवहारकौशलं च । तद्यस्य राज्ञस्तस्य मंत्रिदोषा न प्रभवंयुक्तं च-दोषवंतोऽप्यदोषत्वं विदुषो यांति मंत्रिणः । सदोषैरपि दीप्ताग्नि राज्य............॥ 1 SG पृष्टं'; Gvl'टा। 2 SJG स दोषः। 3 J येषु ये। 4 sG हि मन्त्रबुद्धिं; I वृद्धिं । 5 SIG लभत इति । 6 SI मन्त्रयेत् ; G मन्त्रयेत । 7 SJG कृच्छ्रेषु । 8 SIG द्वाभ्यां मन्त्रयमाणो द्वाभ्यां संहताभ्यामवगृह्यते (avl ह्यते तत् त्रि०) विगृहीताभ्यां विनाश्यते। 9 SJG 'तत्' नास्ति; svl तत्रिषु। 10 SIG नैकान्तं कृछ्रेणों। 11 svl Javl दोष उपपन्नस्तु । 12 SJG मन्त्रयेत । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् कर्मणामारम्भोपायः पुरुषद्रव्यसम्पत् देशकालविभागौ' विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धिरिति पञ्चाङ्गो मन्त्रः। तानेकैकशः पृच्छेत् स-[२४ द्वि.] मस्तांश्च हेतुभिश्चैषां मतिप्रविवेकान् विद्यात् । अवाप्तार्थः कालं' नातिकामेत् । न दीर्घकालं मन्त्रयेत् । नं तेषां पेक्षीयैर्येषामपकुर्यात् । मन्त्रिपरिषदं द्वादशामात्यां कुर्वीतेति मानवाः। षोडशेति बार्हस्पत्याः। विंशतिमित्यौशनसाः । यथासामर्थ्यमिति कौटल्यः। ते ह्यस्य स्वपक्षं परपक्षं च चिन्तयेयुः। अकृतारम्भमारब्धानुष्ठानमनु"ष्ठितविशेष नियोगसम्पदं च कर्मणां कुर्युः। अनासन्नस्सह पत्रसंप्रेष! २५ प्र.]णेन मन्त्रयेत् । आसन्नैः सह कार्याणि पश्येत् । इन्द्रस्य हि मंत्रिपरिषद् ऋषीणां सहस्रं स तच्चक्षुस्तस्मादिन्द्रं" सहस्राक्षमाहुः। १ तन्मतिभिराममतिशोधनार्थं च । उक्तं च आदायादाय मंत्रिभ्यो ज्ञानं ज्ञानेन शोधयेत् । पीतमाचमनेनेव तोयं तोयेन बुद्धिमामिति ॥ २ कालातिपत्तिर्हि कायरसं पिबतीयुक्तः । ३ मंत्रभेदभयात् । ४ दुर्योधनः पांडवपक्षपातिना विदुरेणेव । ५ अभिहितमंत्रिव्यतिकरेण मंत्रिपरिषदपिकर्तव्येत्याह । तत्र संख्या प्रत्याचार्यविप्रतिपत्तिः। ६ द्वादशराजकमंडलचरितनिरूपणाय । ७ अरिविजिगीषु मध्यमोदासीनेषु । एकेन निर्णेतुमशक्यत्वादादरायं च द्वौ द्वाविति मन्यते। ८ भादरनिरूप्ये मंडलचतुष्टये मंत्रित्रयं कृत्वा विंशतिमिति ।। ९ यदि पुरुषांस्तद्वृत्तये अर्थ लब्धं समर्थस्तदा सहस्रमंत्रिपरिकल्पिता परिषद् कुर्यादिति भावः । मंत्रिपरिषद्विधेयमाह ।। १० स्वपक्षं स्वमंडलं परपक्षमितराश्रय...... कृत्याकृत्यपक्षोपग्रहपाड्गुण्योपदेशादिना तथा। १५ पुरुषबाहुल्यम् । १२ कार्यादिव्यवहितैः पत्रसंप्रेषणेन कार्यप्रेरणपुरःसरणेन...... । १३ पारिषदैः सह कार्याणि तंत्रावापगतानि निरूपयेत् । १४ अनेनैतदभिहितं भवति । यथा राजा शास्त्रचक्षुश्चारचक्षुरेवं मंत्रिचक्षुरपि भवति । 1 SJG विभागः। 2 J एकैकं मतं प्रविशेद्विद्वान् । 3 JG कामयेत् । 4 SIG मन्त्रयेत । 5s च तेषां; 7 च तेषां च; G न च तेषां। 6 8 1ः, svl a पक्ष्यः; J रक्षेत् । 7 SIG मन्त्रयेत। 8 sv] अनासन्नेः। 9 SIG आसन्नस्सह कार्याणि पश्येत् । अनासभेस्सह पत्रसंप्रेषणेन मन्त्रयेत । 10s 'स' नास्ति । 11 SIG इमं । 12 $JG व्यक्षं सहस्रा। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • आत्ययिक कार्ये मन्त्रिणो मन्त्रिपरिषदं चाहूय ब्रूयात् । तत्र यद्भूयिष्ठा ब्रूयुः कार्यसिद्धिकरं च तत्कुर्यात् । नास्य गुह्यं परे विद्युच्छिद्रं विद्यात्परस्य चे। गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि यत्स्याद्विवृतमात्मनः ॥ यथा ह्यश्रोत्रियः श्राद्धं न सतां भोक्तुमर्हति । एवमश्रुतशास्त्रार्थो न मंत्रं श्रोतुमर्हति ॥ तथा च बृहस्पतिः अनधीत्य हि [२५ द्वि.] शास्त्राणि बहवः पशुबुद्धयः। प्रागल्भ्याद्वक्तुमिच्छंति मंत्रेष्वभ्यंतरीकृताः॥ अनर्थविदुषां तेषां श्रोतव्यं नहि भाषितम् । • .अर्थतत्त्वमविज्ञाय विपुलं श्रेय इच्छता ॥ इति विनयाधिकारिके पञ्चदशोऽध्यायः ॥ [दूतप्रणिधिः।] उद्धृतमन्त्री दूर्तप्रणिधिः । अमात्यसम्पंदोपेतो निसृष्टीर्थः । पादगुण १ विनाशोन्मुखे। २ विवक्षितमिति शेषः। ३ कुर्वतश्चेत्युत्तरेण संबंधः। ४ पूर्वोक्तचक्षुस्त्रयेण । ५ चकारात् आत्मनश्च परस्त्र प्रहर्तुमात्मनो निगूहनार्थम् । ६ आत्मन इति मंत्र एवारमा राज्ञः। ७ श्रोत्रियाणाम् । ८ भनधीतनीतिशास्त्रः। ९ दुनोति शत्रु स्वानुष्ठानेनेति दूतस्तस्य प्रणिधानं खण्यापारे स्थापनं दूत एव वा प्रणिधिः । प्रणिधिशब्दस्य चरपर्यायत्वात् । शत्रुवृत्तांतोऽ......नापि ज्ञातव्य इति । गृहीतो मंत्राधि. कारात् । मंत्रो येन स प्रतिष्ठेतेति संबंधः। १० जानपदादिपंचविंशतिगुणपरिकल्पितया उपेतो युक्तः । ११ निसृष्ट उत्सृष्टो नियमाभावारसंधिविग्रहादिको अर्थों यस्य । 1 SIG कार्यसिद्धिकरं वा ब्रूयुः। 2 SIG कुर्यात् । कुर्वतश्च । 3 SJG मुद्रितेषु पुस्तकेषु एते श्लोकाः न सन्ति। 4 s मन्त्राधिकारः पञ्चदशो'; J प्रथमेऽधिकरणे मन्त्रा' पञ्च; G प्रथमाधिकरणे पञ्च° मन्त्रा 1 5 SJ उद्धृत । सटि. कौट. अर्थ.5 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनर्क कौटलीयमर्थशास्त्रम् हीनः परिमितार्थः । अर्धगुणहीनः शासनहरः। सुप्रतिविहितयानवाहनपुरुषपरिवापः [२६ प्र.] प्रतिष्ठेत। शासनमेवं वायः परः स वक्ष्यत्येवं तस्येदं प्रतिवाक्यमेवमतिसन्धातव्यमित्यधीयानो गच्छेत्। अटव्यन्तपालपुरराष्ट्रमुख्यैश्च प्रतिसंसर्ग गच्छेत्। अनी। कस्थानयुद्धप्रतिJहापसारभूमीरात्मनः परस्य वावक्षेत" । दुर्गरौष्ट्रप्रमाणं "सा५ . अस्मान् वेत्थ परान् वेत्थ वेस्थान वेत्थ भाषितुम् । यद्यदस्मद्वितं कृत्स्नं तत्तद्वाच्यः सुयोधन इति ॥ अत्र वचनमर्थश्वानियतः । संधिर्विग्रहो वा कर्तग्य इति परिमितो नियतोऽथों यस्य । वचनानां त्वनियमः। २ अवरमंत्रिवच्छास्यतेति संधानाद्रक्ष्यतेऽनेनेति शासनं स्वामिसंदेशः । तं हरतीति चित्तस्थं पत्रस्थं वा । अत्र वचनार्थयोर्नियमः । ३ शिबिकादि। ४ हस्त्यश्वादि। ५ पौरुषयुक्ता आयुधीयाः पुरुषाः । ६ पटकुटीच्छनासनार्थादिः परीवापः। ७ गच्छतस्तस्यानुष्ठानमाह । ८ निसृष्टार्थोऽपि स्वमतिपरिकल्पितमुत्तरोत्तरवाक्यं अत एव शासनमिति नात्र लेखो गृयते । एवमिति हृदयस्थान बहून् वचनक्रमान् सूचयति । परिमितार्थोऽपि स्वमतिपरिकल्पितानामेवार्थानामनतिक्रमेण । शासनहरस्तु यथा संदिष्टं वाच्यः परः। ९ शत्रोरिति शेषः। १० अभ्यासस्योत्कर्षप्राप्त्यर्थ यात्रासौकर्यार्थमाह । अटवी = तत्स्थाः । ११ स्वपरमंडलांतरालवर्तिनोऽन्तपालाः । १२ स्वपरजनपदांतस्थाः पुरमुख्याः नागरिकादयः। १३ ग्रामकूटमहत्तरादयो राष्ट्रमुख्याः । १४ चकारात् श्रेणिमुख्यादयः । स्वकीयैः परोपजापज्ञानार्थ परकीयैरनिष्टप्रतिविधानार्थ यात्रा सौकर्यार्थ च। ५५ स्कन्धावारनिवेशभूमिः। १६ स्वबलानुकूला। १७ 'द्वेशते धनुषां गत्वा राजा तिष्ठेत् प्रतिग्रह' इति तस्य भूमिः। १८ कलत्रस्थानं अपसारः। १९ स्वस्वामिनः। २० शत्रोः। २१ अनुकूलानामात्मना प्रतिग्रहार्थ परभूमीनां च छिद्रप्रदेशज्ञानार्थम् । २२ ग्रहणाथं तदनुभू(रू?)पबलोपादानार्थ च । २३ परस्य तदनुरूपकोशपरिच्छित्त्यर्थ लाभे चोत्तमस्य प्रतिग्रहार्थं राष्ट्रप्रमाणम् । २४ सप्तांगेष्वपि यत्सारभूतम् । 1 svl J वाच्यम्। 2 SJC चावेक्षेत । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् ३५ रत्तिगुप्तिच्छिद्राणि चोपलभेत । पराधिष्ठानमनुज्ञातः प्रविशेत् । शासनं च यथोक्तं ब्रूयात् । प्राणीबाधेऽपि दृष्टे पर २६ द्वि. ] स्य वाचि वक्रे दृष्ट्यां च प्रसादं वाक्यपूजनमिष्टपरिप्रश्नं गुणकथासंगमासन्नमासनं सत्कारमिष्टेषु स्मरणं विश्वासगमैनं च लक्षयेत्तुष्टस्य विपरीतमतुष्टस्यै । 5 तं ब्रूयात् दूतमुखी हि राजानस्त्वं" चान्ये " च तस्मादुद्यतेष्वपि शस्त्रेषु यथोक्तं" वक्तारो दूताः । तेषामन्तावसायिनोऽप्यवध्याः । किमङ्ग पुनर्ब्राह्मणाः । परस्यैतद्वाक्यमेष दूतधर्म इति" । " वसेदेवि [ सृ]ष्टः । पूँजया' नोत्सिक्तः । परेषु बलित्वं " न १ कृष्यादीनां येन वर्तते । तनिरोधार्थम् । २ गुप्तिं रक्षाम् । ३ रक्षाशैथिल्यं व्यसनादि वा छिद्रम् । •४ अनुज्ञात इति वर्तते । ५ शास्त्रेण स्वामिना वा । ६ आत्मनो विनाशेऽपि दृष्टे । ७ प्राणाबाधश्चान्नतमिंगितादिभिर्दृश्यते । तावत्तुष्टेरिंगितमाह । ८ दूतवाक्यस्य साधूक्तमिति । ९ दूतस्य दूतस्वामिनो वा । १० इष्टेषु परस्य संपन्नेषु दूतस्य स्मरणम् । ११ गुह्याख्यानादि । १२ विपर्ययाख्या तंत्रयुक्तिरियम् । १३ तं अतुष्टं प्राणाबाधपरिहारार्थं ब्रूयात् । १४ न केवलमस्मरस्वाम्येव त्वं च । १५ भूतभविष्यवर्तमाना राजानः । १६ स्वामिनेति शेषः । ३७ ब्राह्मणोऽपि ब्राह्मणसमो दूतो द्रष्टव्यः । अब्राह्मणस्य च दूतत्वप्राप्तिः वक्ष्यमाणात्पाननिषेधात् । उक्तं च मनुना यथोक्तवादिनं दूतं क्षत्रधर्ममनुस्मरन् । यो हन्यात्पितरस्तस्य भ्रूणहत्या मवामुयुरिति ॥ १८ परस्यैतद्वाक्यमेष दूतधर्म इति । परस्य विजिगीषोरेतद्वाक्यं न मया त्वेषादभिधीयते इति भावः । तत्त्वं किमिति ब्रूषे एवं चेत् एष दूतस्य धर्मः । १९ दूतसमाचारमाह । २० परेणेति शेषः । २१ परकृतया । २२ दुर्बलेष्वपि । २३ स्वामिबलादात्मबलाद्वा बलवानिति वाक्पारुष्यं न ब्रूयादित्यर्थः । । 1.J°मिष्टेऽनुसरणं | 2svlavl दूतमुखेन राजा । 3sJa वै द्यते । 5 s वक्तारस्तेषां । 6 svl avl ' मन्तेवासिनो | 7 s ब्राह्मणः । 9 SJ प्रपूजया; svl पूजया । 4s ° दुद्धृते; svl 8 svl 'दवसृष्टः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् मन्येत । वाक्यमनिष्टं सहेतै। स्त्रियः पानं च वर्जयेत् । [२७.] एकः शयीत । सुप्तमत्तयोहि भावज्ञानं दृष्टम् । कृत्यपक्षोपजापमकृत्यपक्षे गूढप्रणिधानं रोगापरागौ भर्तरि । रन्धं च प्रकृतीनां सिद्धतापसवैदेहकव्यञ्जनाभ्यामुपलभेत । तयोरेन्तेवासिभिश्चिकित्सकपाषंडव्यञ्जनोभयवेतनैर्वा । तेषामसम्भाषायों 5 याचनकमत्तोन्मत्तसुप्तप्रलापैः पुण्यस्थानदेवगृहंचित्रलेख्यसंज्ञोंभिर्वा चारमुपलभेत । उपलब्धस्य उपजापमुपेयात् । परेण चोक्तः स्वासां प्रकृतीनां प्रमाणं नाचक्षीत । सर्व वेद भवानिति ब्रूयात् । कार्यसिद्धिकरं" वा ब्रूयात् कार्यस्यासिद्धावुपरुध्यमानस्तयेत्। १ उक्तं च-वासुदेवसहायोपि यो हतो हत एव सः। २ परेणोक्कमिति शेषः। ३ दूतकार्यसिध्यर्थम् । ४ प्रमादमंत्रभेदयोः प्रतिषेधार्थम् । ५ चित्त.........मंत्रस्य । ६ अन्यच्च। ७ उक्तेन न्यायेन । ८ कृत्यतापादनार्थम् । ९ अनुरक्तानां.........नार्थम् । १० विरक्तानां स्वीकरणार्थम् । ११ छिद्रम् । १२ तासामेव । परेति शेषः । १३ तयोरेव । १४ असंभाषायां शत्रुकृतनिषेधात् । १५ कृतक। १६ शालादि । १७ तेषु सर्वसाधारणत्वात् । १८ अक्षराणाम् । १९ शरीरविन्यासकल्पितया संज्ञया । २० कृत्यपक्षमुद्दिश्य । २१ मंञ्यादीनाम् । २२ चारचक्षुः। २३ सप्रशंसम् । २४ अधिके न्यूने वा प्रकृतिप्रमाणे कथिते कार्यसिद्धिं यदि पश्यति तथा ब्रूयात् । २५ उपरोधकारणान्युद्भावयेत् । 1 J मन्येत् । 2 svl रागोप। 3 SJG 'सिद्ध' नास्ति । 4 sJE याचक। 5 svl avl विचित्र । 6 SIG परिमाणं । 7 SJG 'ब्रूयात्' नास्ति । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • किं भर्तुमै व्यसेनमासन्नं [२७द्वि.] पश्यति । स्वं वा व्यसनं प्रतिकर्तुकामः पाणिग्राहमासोरमन्तःकोपमाटविकं वां समुत्थापयितुकामो मित्रं वा व्याघातयितुकामः। स्वं' वा परतो विग्रहमाटविकं वा प्रतिकर्तुकामः। संसिद्धं मे भर्तुर्यात्राकालमभिहंतुकामः । सस्यपेण्यकुप्यसङ्ग्रहं दुर्गकर्म बलसमुंदानं वा कर्तुकामः । स्वसैन्यानां वा व्यायामस्य देशकालावकाङ्क्षमाणः । । परिभवप्रंमादाभ्यां वा संसर्गानुबन्धार्थी वा मामुपरुणद्धीति ज्ञात्वा वसेदेपसरेद्वा । प्रयोजनमिष्ट मुंपेक्षेत शासनमनिष्टमुक्त्वा वा वैधबन्धभयाद् । अविसृष्टोऽप्यपगच्छेत् अन्यथा निर्यम्येत् । १ तद्यथा-किं भर्तुरित्यादि । २ दैवं मानुषं वा। ३ तद्विधमेव । ४ यात्राविधानाय । ५ पाणिग्राहमित्रं वा तत्साहाय्यदानाय । ६. अस्सनर्तुर्युवराजादिकम् । ७ प्रचंडम् । ८ मित्रमिति अस्मद्भर्तुरन्तर्गतं भाकंद वा मित्रमित्रम् । ९ अयं शत्रुः स्वकीयं वा । १० अन्यतः। ११ अंतःकोपादिकम् । १२ स्नेहक्षारलवणादि। १३ काष्ठतृणलोहादि । १४ भन्मस्फुटितसंस्कारम् । १५ विक्षिप्तानि बलान्येकत्र कर्तुकामः । १६ युद्धार्थभवानुकूलः। १७ कोयं कस्यायं येन संप्रेषयामि । १८ इन्द्रियार्थप्रसक्तिः प्रमादस्ताभ्याम् । १९ संसर्गो यौनः संबंधः। यतो द्वयोश्चिनसंश्लेषः । २० तेनानुबंध उभयसंततिसंबंधस्तदर्थी । २१ कृत्यपक्षोपग्रहादिके ज्ञात्वा स्वस्योपरोधं वसेत् । २२ दूषणप्रतिकारात् । २३ * २४ उपलब्धस्य चारस्य शासनैः । २५ यदि स्वाभिहितं कार्य पश्येत् संसर्गानुबंधार्थित्वं परिभवप्रमादाभ्यामुपरोधि यदि स्वस्वा. मिनः कालयापनमनुकूलमुक्तकारणैः प्रतिकूलं शत्रोस्तदा...... २६ अनपसरणे। २७ वधबंध.........। 1 SIG पश्यन् । sJG °ग्राहासार'। 3 sJG °सारावरावन्तःकोप'। 4 sJGvl °आक्रदाभ्यां वा; a आक्रन्दं वा। 5 SIG व्यापाद°। 6 SG मन्तःकोपमाटविकं। 7 SJG कुप्यपण्य। 8 SJG समुत्थान'; svl °द्धा'; avl 'हा। 9 SJG व्यायामदेश। 10 4 प्रमदा । 115 °मपेक्षेत वा; svl JC °मवेक्षेत वा। 12 sJG वा शासन। 13 SJG बंधवध; Jvl बंधुवध। 14 s °दपि विसृष्टो; svl °दविसृष्टो। 15 SJ व्यपगच्छेद। 16 svl नियम्यते। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् 'प्रेषणं सन्धिपालत्वं प्रतापो मित्रसङ्ग्रहः। उपजापः सुहृद्भेदो गूढदण्डातिसारणम् ॥ बन्धुरत्नापहरणं चारज्ञानपराक्रमः । सैमाधिमोक्षो दूतस्य कर्मयोगस्य चाश्रयः ॥ स्वदूतैः कारयेदेतत्परदूतांश्च [२८ प्र.] रक्षयेत् । प्रतिदूतावसर्पाभ्यां दृश्यादृश्यैश्च रक्षिभिः ॥ • इति विनयाधिकारिके षोडशोऽध्यायः ॥ [राजपुत्ररक्षणम् ।] रक्षितो राजा राज्यं रक्षत्यासन्नेभ्यः 'परेभ्यश्च । पूर्व दारेभ्यः पुत्रेभ्यश्च । १ दूतकर्मोक्तानुक्तं वार्तिकश्लोकैराह । rma ७ गूढानां पुरुषाणां दंडस्य चतुरंगबलस्य गूढं अतिसारणम् । भन्यापदेशैश्चित्रकूटे कोस. गोण्यंतर्गतदंडस्येव । ८ शत्रुबंधः। ११ परमंडलवृत्तांतः। १२ परेषां सारबलादिवधादाक्रमणम् । १३ * १४ तदेतत् । * * * १८ दूते अन्वागते यः संप्रेष्यते स प्रतिदूतः । अवसो गूढ......... १९ दृश्या रक्षिणो विजिगीषुनियुक्ताश्चोरादिरक्षणार्थम् । अदृश्याः कुड्यांतर्हिता गृढपुरुषा......। २० राज्ञो राज्यं स्यात् परिरक्षितम् । तदभावे हि संकीर्ण जगत् स्यादधरोत्तरम् । २१ आसन्नशब्दस्तरतमपर्यंतो ग्राह्यः । तेनासन्ना मंत्र्यादयः । आसन्नतराः पुत्रप्रासादयः । ___आसन्नतमाः दाराः । तेभ्यो रक्षितः। २२ परेभ्यश्चेति । सामंताटविकादिद्विपदचतुष्पदस्थावरजंगमेभ्यश्च । २३ अरिभयादासन्नेभ्यो रक्षा प्रागभिधेयेत्याह पूर्व दा० । २४ आसन्नतमेभ्यः । 1 G दण्डगूढ। 2 SJI दूतापसर्पा । 3s दूतप्रणिधिः षोडशो', J प्रथमेऽधिकरणे दूत षोडशो; G प्रथमाधिकरणे षोडशो दूत। 4 svl Gvl छात्रेभ्यश्च । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - • को सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् दाररक्षण तु निशान्तप्रणिधौ वक्ष्यामः । पुत्ररक्षणं तु जन्मप्रभृति राजां पुत्रान् रक्षेदिति सिद्धान्तः। जन्मप्र#ति राजपुत्रान् रक्षेत् । कर्कर्टकसधर्माणो हि जनकभक्षा राजपुत्राः। तेषामजातस्नेहे पितर्युपांशुदण्डः श्रेयानिति भारद्वाजः। नृशंसमदृष्टवधः क्षत्रवीजविनाशश्चेति विशालाक्षः। तस्मादेकस्थाना- 5 वरोधश्श्रेयानिति । अहिर्भयमेतदिति परासर्राः । कुमारो हि विक्रमभयान्मां पितावरुणंद्धीति ज्ञात्वा तदेवा?" कुर्यात् तस्मादन्तपालदुर्गे वासः श्रेयानिति । और_भयमेतदिति पिशुनः । प्रत्यापत्तेर्हि तदेव कारणं ज्ञात्वाऽन्तपालसखः स्यात् [२८ द्वि.] तस्मात् स्वविषयादपकृष्टे सामन्तदुर्गे वासः 10 श्रेयान् । १ तथापि विशेषः। २ जन्म च द्विविधमिष्यते । आधानं सूतिश्चेति । आधानात्प्रभृति राजा कौटि(टोल्ये नेष्यते । प्रसूतितो भारद्वाजादिभिः। ३ तत्र भारद्वाजमतमाह । ४ प्रसूतेः प्रभृतिः। ६ अन्न हेतुमाह। • यथा ते पितरि नापकुर्वति । यतो मातृबांधवास्तं प्रतिगृह्यापकुर्वति । ततस्तद्वारेणाप्यप करोति । ८ यावरलेहः पितुर्नोत्पयते तावदेवोपांशुदंडस्तेषां कर्तव्यः । ९ यदेवं राजपुत्ररक्षणं नृशंसं कम्मैतत् । १० अदुष्टवधश्चात्र निषिद्धः।। ११ एकस्मिक्षेव स्थाने यत्र पिता तत्रैवावरोधः । स्वातंत्र्यनिरोधदुष्टसंसर्गादिनिरोध......... १२ अहिनेवैकस्थाने सता यथा भयं तथा सर्पसमानेन छिद्रान्वेषिणा पुत्रेणेति पाराशराः । १३ अबुद्धमपि बुडा। १४ तदेवाहिभयं विनाशलक्षणं अंके समीपे स्थितः कुर्यात् । १५ विषयांतपालनार्थ.........दंडनायकदुर्गे वासस्तेनैवारक्षकेण कुमारस्य श्रेयान् । भरि भयादिति भावः। १६ उरभ्रो मेषस्तस्येदमौरभम् । यथाऽपस्तान्मेषाद्यं तथा तस्मादपि । १७ आसमंतादापतनमापत्तिः प्रतिविपरीता या आपत्तिः प्रत्यापत्तिः। पितुः सकाशादन्यत्र गमनमित्यर्थः। तस्याः प्रत्यापत्तेर्व्यवहितस्थापनस्य तदेव पूर्वोक्तं विक्रमभयं कारणभूतं ज्ञात्वा । [पाश्चात्यपत्रे*।। १८ दूरांतरिते । उरभ्रोऽपि दूरायातः प्रहर्तुमसमर्थो भवतीति भावः । 1 SIG 'तु' नास्ति । 2 SJG राज । 3 SIG "दिति सिद्धान्तः। जन्मप्रभृति राजपुत्रान् रक्षेत्' इति नास्ति । 4 SIG °मद्दष्टवधः; sv] °मदृष्टं वधः। 5G'बीज' नास्ति । G SIG पाराशराः। 7 SJC रुणद्धि । 88JG तमेवा)। 9 SJC °भ्रकं; svl भ्रगं । 10 SJG 'श्रेयानिति' । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् वत्सस्थानमेतदिति कौणपदन्तः। वत्सेनेव हि धेनुं पितरमस्य सामन्तो द्रुह्यात् । तस्मान्मातृबन्धुषु वासः श्रेयान् । ध्वजस्थानमेतदिति वातव्याधिः। तेन हि ध्वजेनादितिकौशिकवदस्य मातृबान्धवा भक्षेरन् । ग्राम्यसुखेष्वेनमवसृजेत् । सुखोपरुद्धा राजपुत्राः । पितरं नाभिद्रुह्यन्तीति । जीवन्मरणमेतदिति कौटल्यः। काष्ठमिव धुंणजग्धं राजकुलमविनीतपुत्रमभियुक्तमानं भज्येत । तस्मादृतुमत्यां महिष्यां ऋत्वि! २९ प्र. ] जैश्चरुमैन्द्राबार्हस्पत्यं निर्वपेयुः । आपन्नसत्त्वायाः कौमारभृत्ये गर्भकर्मणि प्रेसवे च वियतेत । प्रजातायाः पुत्रसंस्कार पुरोहितः कुर्यात् । समर्थ ॥ तद्विदो विनयेयुः। १ तेन च पुष्टो भूत्वा कुमारसहायोऽभियुंज्यादिति भावः । २ मातुलादिषु । ते ह्यस्य पितरं स्वापत्यवैधव्यभयानातिदुयन्तीति भावः । ३ तदेव व्याचक्षते । तेन ध्वजेन कुमारेण । ४ ध्वजचिन्हं नागराजादीनां तत्स्थानसमानमेतत् । ५ अदितिग्रहणमदितिपुत्राणां कालादिदेवानां परिग्रहार्थम् । कौशिकस्त्वाहितंडिकः कोशेन सर्प ग्रहेण चरतीति । अदितिवद्देवध्वजं दर्शयित्वा । तद्यथा। पणमहेत्यादिः कौशिको भिक्षते। योऽस्य नागस्य पूजा करोति तस्य सकुलस्य कुशलमकुशलमन्येषामिति निग्रहभयमनुग्रहाशां च.........कृतीः कर्षयित्वा तेनोपचयं कृत्वा मातृबांधवा अभिद्रुह्यतीति भावः। ६ ग्राम्यशब्देन शब्दस्पर्शरूपरसगंधाभिधाना विषया ग्राह्याः । ग्रामाणां साधूनि ग्राम्याणि विषयसुखानीत्यर्थः। ७ निरंकुशमिति शेषः। ८ परेणेति शेषः। ९ अनागतमेव कृतकोष्ठशुध्यां शालिघृतक्षीरपथ्याहारायां राज्यां ऋत्विजः । १० इन्द्रो बृहस्पतिश्च देवता अस्येति । ११ कुमारभृतये साधु कौमरभृत्य बालवैद्यं हिरण्याक्षीयं जीवकीयं वा यो वेत्ति स बालवैद्यो गर्भकर्मणि गर्भ......... १२ प्रसवे सुखप्रसूतौ च यत्नं कुर्यात् । एतेन राजपुत्ररक्षा भवति । तथा चोक्तं .........वथ योनौ च गर्भे कर्मणि चापि यः। शुचिः कृच्छ्रगतस्यापि न पापे रमतेऽस्य धीः ॥ १३ प्रसूताया। १४ जातकर्मादिभिः।। १५ अध्येतुं योग्यम् । १६ लिपिसंख्यानादिसकलराजविद्याधिदः । 1 SIG श्रेयानिति । 2 SJG भिक्षेरन् । 3 SJG तस्मात् ग्राम्यधर्मे प्वेनं। 4 SJCE °सृजेयुः। 5 sJG हि पुत्राः। 6 sJG हि घुण। 71 इन्द्र। 8 JG सत्वायां । SJG9 °भर्मणि । 10 SJ प्रजनने: svavl प्रसवने; G प्रजने । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • संत्रिणामेकश्चैनं मृगयायूतमद्यस्त्रीभिः प्रलोभयेत् । पितरि विक्रम्य राज्य गृहाणेति । तमेन्यः सत्री प्रतिषेधयेदित्यांभीयाः । - महादोषमबुद्धंबोधनमिति कौटल्यः । नवं हि द्रव्यं येन येनार्थजा"तेनोपदिह्यते तत्तदाचूंषति । तस्माद्धर्म्यमर्थं चास्योपदिशेत् नाधर्म्यमनर्थ्य च । सत्रिणस्त्वेनं तव स्मः इति वदन्तः पालयेयुः। __ यौवनोत्सेकात् परस्त्रीषु [ २९ द्वि.] मनः कुर्वाणमार्याव्यञ्जनाभिरैमेध्या"भिः शून्यागारेषु रात्रावुद्वेजयेयुः । मद्यकामं योगपानेनोद्वैजयेयुः। द्यूतकामं कापटिकैरुद्वेजयेयुः। मृगयाकामं प्रतिरोधकव्यञ्जनैस्त्रासयेयुः । .पितरि विक्रमबुद्धिं तथेत्यनुप्रविश्य भेदयेयुः। १ विद्याभिर्विनयसंपनो नवेति कुमारचित्तपरीक्षणार्थ आचार्यमतमाह । २ उक्तं च---अस्छिस्वा परमर्माणि अकृत्वा कर्म दुष्करम् । ___ महत्वा शत्रुवृंदानि महतीं नाप्नुयाच्छ्रियम् ॥ ३ उक्तं च-दोषान् दोषा इति ज्ञावा कालेनापि विरस्यति । __ काभूपपनिर्विरतेस्तगुणग्रहमानिनः ॥ ४ निंबकल्कगोमूत्रकपरादिना। ५ तन्मयं भवति । ६ न्यायेनार्थार्जनादि । ७ नाधर्म्यमित्यर्थापनेऽपि पुनरुच्यतेऽत्यंतनिरोधार्थम् । ८ अनर्थेभ्य रक्षयेयुः। ९ तथेत्यनुप्रविश्य । १० घटदासीभिः कृतकतकुलस्त्रीवेषाभिः । ११ अकृतशरीरसंस्कारामिनिवपलाण्डुभक्षणावलेपनादिभिर्दुर्गधाभिः। १२ तत्पतिपुरुषागमनैः।। १३ मदनीयविरेचनीयौषधयुक्तपानेन । १४ पूर्वोक्तगूढपुरुषैयूँताभिज्ञैक्पिारुष्यदंडपारुण्याभ्याम् । १५ उद्वेजनशब्दस्यावृत्तिरतिशयख्यापनार्थम् । १६ अनुप्रविश्य इति चित्तमूक्तं च-यस्य यस्य हि यो भावस्तस्य तस्य हितं नरः । अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवशं नयेत् ॥ पश्चात् भेदयेयुर्जाताशंकं कुर्युः।। __ 1 SIG तदन्यः । 2 svl त्याजीयः; Jvl त्याजयिः; avl त्याजीम्भी। 3 SIG मुद्रितेषु पुस्तकेषु चूषतीत्यन्ततरं 'एवमयं नवबुद्धिर्यदुच्यते ( °च्येत) तत्तच्छास्नोपदेशमिवाभिजानाति' इति पठ्यते। 4 SJG तस्माद्धर्म°। 5 SJG °धर्म'। 6 SJG मनर्थ । 7 svl avl श्चैनं । 8 SIG स्त्रीभिरमेध्या । 9 svl avl av] रसेव्याभिः। 10 SIG पुरुषैरुद्वेजयेयुः। सटि कोट० अर्थ. 6 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् अप्रार्थनीयोऽयं राजा विपन्ने घातसम्पन्ने नरकपातः संक्रोशः प्राभिरेकलोष्टेवधश्चेति विगं वेदयेयुः । [३० प्र.] प्रियमेकपुत्रं बनीयात् । बहुपुत्रः प्रत्यन्तमन्यविषयं वा प्रेषयेत् यत्र गर्भ: 'पण्यं' डिंबो वो न भवेत् । .....आत्मसम्पन्नं से(सै)नापत्ये यौवराज्ये वा स्थापयेत् । बुद्धिमानाहार्यबुद्धिदुर्बुद्धिरिति पुत्रविशेषाः। शिष्यमाणौ धर्मार्थावुपलभते चानुतिष्ठति च बुद्धिमान् । उपलभमानो नानुतिष्ठत्याहार्यबुद्धिः।। अपायनित्यो धर्मार्थद्वेषी" चेति दुर्बुद्धिः। स योकपुत्रःपुत्रोत्पी ३० द्वि. त्तावस्य प्रयतेत। पुत्रिकापुत्रानुत्पादयेद्वा। वृद्धस्तु व्याधितो वा राजा मातृबन्धुकुल्यगुणवत्सामन्तानामन्यत१ भेदप्रकारमाह । २ त्वत्पिता बलपौरुषसंपन्नत्वात्सुरक्षत्वाच्च योद्धुमशक्यः। रक्षाशैथिल्येऽपि नैकांतिकी सिद्धि___यतो विपन्नेऽस्मिंस्त्वत्फलीभूते घातोऽस्माकं नाशः। ३ शरीरसंजननसंवर्धनरक्षणैः पितुः परमोपकारित्वात् संक्रोशः । ४ अनुरक्तप्रकृतिश्चायं राजा ततश्च प्र० । ५ पितृघात्ययमिति । ६ अथैवमुक्तोऽपि जन्मांतरवैरानुबंधानिवर्तेत । तदा विरागं राज्ञे । ७ निगडैरिति शेषः । अन्यत्रगमनाशंकायाम् । ८ आटविकविषयम् । ९ परस्य राष्ट्र मित्रादिविषयम् । १० गर्भ इव गर्भः पुत्रत्वेन जामातृत्वेन वा न तैर्गृह्यते तं प्रदश्य न विकुठवते। ५१ पण्यवस्पण्यं कृत्वा वा पितृप्रकृतीर्भिक्षिरवा शक्तिमात्मनः पूरयति । १२ डमरो डमरकारको यत्र न भवति तं विषयं प्रेषयेत् । १३ बुद्धिवशादेव त्रैविध्यं राजपुत्राणां दर्शयन्नाह । अष्टगुणबुद्धिसंपन्नः। १४ प्रथमस्य लक्षणमाह । गुरुभिरुपदिश्यमानौ। १५ आचार्यादिभिः प्रतिक्षणमाहार्या बुद्धिर्यस्य । तत्प्रेरणयाऽनुष्ठाने प्रवृत्तः इत्यर्थः । तं प्रयत्नेन शिक्षयेत । १६ अपायहेतुषु कामादिव्यसनेषु नित्यप्रवृत्तः । १७ धर्मद्वेषी नास्तिकत्वात् । अर्थद्वेषी दैवपरत्वात् । १८ तस्य राज्यायोग्यत्वात् । दुर्बुद्धिनोत्पन्नो दुर्बुद्धिरेव स्थादित्याशंकायाम्-पुत्रिकेत्याचाह । पुत्रत्वेन गृहीतानां दुहितॄणां ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वा पुत्रा० तत्तुल्यः पुत्रिकापुत्र इति वचनात् । १९ क्षीणशुक्रः। २० क्षेत्रभूताया देव्या ज्ञातिः । २१ राज्ञः कुलोत्पन्नः। २२ प्रशस्तगुणवदिति संबध्यते । 1 SIG 'यं' नास्ति। 2 SJG 'वेदयेयुः' नास्ति । 3 SJG वा बनीयात् । 4 s.Jvl पण्डय; svl पण्यं; J पण्डो। 5 s डिमबो; svl डिम्बो; Jv] पण्यबिम्बो। GSJG सैनापत्ये। 7 8JG शिष्यमाणो। 6 G वियतेत । 9 तुल्य; svl कुल्य । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् मेम क्षेत्रे' बीजमुत्पादयेत् । न चैकपुत्रमविनीतं राज्ये स्थापयेत् । बहूनामेकसंरोधः पिता पुत्रहितो भवेत् । अन्यत्रापद ऐश्वर्य ज्येष्ठभागि' तु पूज्यते ॥ कुलस्य वा भवेद्राज्यं कुलसङ्को' हि दुर्जयः । अराजव्यसनाबाधः शश्वदावसंति क्षितिम् ॥ ॥ इति विमयाधिकारिके सप्तदशमोऽध्यायः ॥ छ ॥ * [ अपरुद्धवृत्तम् । ] विनीतो राजपुत्रः कृच्छ्रवृत्तिरसदृशे कर्मणि नियुक्तः पितरमनुवर्तेत अन्यत्र प्राणार्धप्रकृतिकोपपातकेभ्यः । पुण्ये कर्मणि' नियुक्तः पुरुषमधिष्ठातारं याचेत । पुरुषाधिष्ठितस्तु सविशेषमादेशमनुतिष्ठेत् । अभिरूपं च कर्मफलमौपायनिकं च लाभं पितुरुप- । नाययेत् । 10 १ देव्याम् । २ राजाईम् । ३ आहार्यबुद्धिमपि स्थापयेत् । बुद्धिमतोऽभावे दुर्बुद्धिमेकं न स्थापयेत् । अविनीतस्तु सर्वव्यसनास्पदत्वाद्राज्यमात्मानं च नाशयति । ४३ ४ विरक्तानाम् । ५ पितुर्हितत्वेऽहिभयाभावात् भिन्नमतत्वात् बहूनां पुत्राणामपि हितो भवेत् । परस्परं संघर्षेण विनयग्रहणात् । ६ यदि कुष्ठध्याध्यादिका आपद्भवति तदा कनिष्ठभाग्यपि भवति । राज्यं पूज्यते न्याय्यत्वात् । ७ ज्येष्टस्य भवतीत्यर्थः । ८ कुलस्येति बहूनामित्यर्थः । सौभ्रातृत्वे सति रामयुधिष्ठिरादीनामिव राज्यं भवेत् । ९ भिन्नकुलानामपि । १० * ११ * १२ * १३ * १४ यत्र स्वल्पबलो बलीयसि प्रेष्यते विनाशः संपद्यतामिति । ५५ न्याय्ये समाहर्तृस्वादौ परीक्षार्थम् । * १६ १७ आदिष्टशदधिकैः फलैः सहितम् । १८ * १९ * 1s भागी तु; भागस्तु; Jvl भागिति । 2s राजपुत्ररक्षणं सप्तदशोऽध्यायः; J प्रथमेsधिकरणे राज सप्त; व प्रथमाधिकरणे सप्त राज | 3 sJG 'विनीतो' नास्ति | 4 sJG बाधक | 5 svlJ कोपक । 6 SJG पुण्यकर्मणि । 7 sJd च । 8 svl avl अविरुद्धं । - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् तथाऽप्यतुष्यंतमन्यस्मिन् पुत्रे [३१ प्र.] दारेषु वा नियंतं तदनुरोधाद्वा द्वेषेणारण्यायापृच्छेत । वर्धबन्धभयाद्वा यस्सामन्तो न्यायवृत्तिर्धार्मिकः सत्यवागविसंवादकः प्रतिग्रहीता मानयिता चाभिपन्नानां तमाश्रयेत् । । तत्रस्थः कोशंदंडसंपन्नः प्रवीरपुरुषकन्यासंबंधम[टवीसम्बन्धं] कृत्यपक्षोपग्रहं च कुर्यात् । । ____एकचरः सुवर्णपाकमणिरागरसरूप्यपण्याकरकर्मान्तानाजीवेत् । पार्षण्डसङ्घद्रव्यमश्रोत्रियोऽपरंभोग्यं वा देवदैव्यमाढ्यविधवां" गूढमनुप्रविश्य सार्थयानपात्राणि च मदनरसयोगेनातिसंधाय तद् द्रव्यमपहरेत् । पारिग्राहिकं वा योगमातिष्ठेत् । मातुः परिजनोपग्रहेण वा 'चेष्टेत । कारुशिल्पिकुशीलवचिकित्सकवाग्जीवनपाषंडछद्मभिर्वा नष्टरूपस्तव्यञ्जनसंखः "छिद्रेषु३ प्रविश्य राज्ञः शस्त्ररसाभ्यां प्रहत्य ब्रूयादहमसौ कुमारः सहभोग्यमिदं [३१ द्वि.] राज्यमेको नार्हति भोक्तुं ये" कामयंते मां भैर्तुस्तानहं द्विगुणेन भक्तवेतनेनोपस्थास्यामीत्यपरुद्धवृत्तम् । ॥ इति विनयाधिकारिकेऽपरुद्धवृत्तं प्रकरणं" ॥ छ । १ स्वभावद्वेषात् । २ अन्यपुत्रदारानुरोधाद्वा भतुष्यंतम् । ३ अरण्यं तपसे यास्यामीति । ४ * ५ * १५० ७ धर्मविजयिनः कुमारस्य कोशोपार्जनोपायमुक्त्वा लोभविजय(यि)नः प्रोच्यते । - वक्ष्यमाणमदनीयमोहनीययोगैवैदेहकव्यंजनहस्तेन धनपतीनतिसंधायापहरेत् तेषां धनमित्यर्थः। ९ दुर्गलं भोपायाभिहितप्रयोगैरुपजापादिभिर्दुर्गसंस्थं द्रव्यमपहरेदित्यर्थः । १० भात्मनः शक्त्युपचयं कुर्यात् । ११ प्रच्छादितपूर्ववर्णवेषादि । वटकषायनातः सहचरकल्कदिग्धः कृष्णो भवतीत्यादिप्रयोगैः । १२ का दिव्यंजनानां सखा भूत्वा । १३ रक्षाशैथिल्येषु । १४ एकलोष्ठवधप्रतिषेधार्थम् । ___1 SIG बन्धवध । 2 प्रतिगृहीता। 3 SJG °माश्रयेत । 4 s कोदण्ड; svl कोशदण्ड । 5 °गृहं। 6 SIG वा। 7 svl सुपर्ण । 8 SIG हेम। 9 SIG श्रोत्रियभोग्यं। 10 G देश । 11SJ वा गूठं; G विधवाद्रव्यं वा । 12s पात्रणि । 13 SJ सन्धायापहरेत् ; 4 °वहरेत् । 14 SIG पारग्रामिक। 15 G पाषण्डच्छ। 16 sJG छिद्रे। 17 SJG तत्र ये। 18 SJG 'मां' नास्ति। 19 s मतुं (svl भर्तु) नाहं ( svl तानहं ); J भर्तुं नाहं; G भर्तु तानहं। 20 SIG नोपस्थास्ये इति। 21 SIG इत्यवरुद्ध । 22 SJG 'इति...प्रकरणं' नास्ति । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सटिप्पन कोटलीयमर्थशास्त्रम् ४५ • अपरुद्धं तु मुख्यपुत्रविसर्पाः प्रतिपाद्यानयेयुर्माता वा प्रतिगृहीता । त्यैक्तं वा गूढपुरुषाः शस्त्ररसाभ्यां हन्युः । अत्यतं तुल्यशीलाभिः खीभिः पानेन मृगयया वा प्रसंजयित्वा रात्रावुपगृह्यानयेयुः। उपस्थितं च राज्येन मंदूर्ध्वमिति सांत्वयेत् । एकस्थमथ संरुन्ध्यात् पुत्रवांस्तु प्रवासयेत् ॥ ॥ इति विनयाधिकारिके अष्टादशोऽध्यायः ॥ छ । [३२ प्र.] [राजप्रणिधिः ।] राजानमुत्थितमनूत्तिष्ठते भृत्याः। प्रमाद्यन्तमनुप्रमाद्यति । कर्माणि चास्य भक्षयंति द्विषद्भिश्चातिसंधीयते । तस्मादुत्थानमात्मनः कुर्वीत । नालिकाभिरहरष्टधा विभज्य रात्रिं च विभजेत् । छायाप्रमाणेन वा ।। १ पूर्व दुष्टे पितर्यदुष्टस्यापरुद्धस्य वृत्तमभिहितं भविष्यतो राज्ञो रक्षार्थमिदानी दुष्टेऽपरुद्ध अदुष्टस्य राज्ञो वृत्तिरभिधीयते। २ मंत्र्यादिपुत्रास्त एवावसा राज्ञा प्रणिहितत्वात् प्रतिपाद्य वा राज्यमानयेयुः। माता वा तस्य प्रतिग्रहीता राज्ञोपचारैरावर्जिता आनयेत् । ३ दौष्ट्यावसंधेयम् । ४ अदुष्टम् । ५ मस्परोक्षे तवैव राज्यमिति सांस्वयेदनुनयेत् बुद्धिमन्तम् । आहार्यबुद्धिं तु एकस्थं निरुद्धसंचारं संरुध्यात् । दुर्बुद्धिं तु पुत्रवांश्चदन्यस्मिन् योग्ये पुत्रे सति प्रवासयेद् उपांशुवधेन हन्यात् । राज्यरक्षार्थ सावद्यलेशो बहुपुण्यराशिरिति वचनात् । ६ आसमतरेभ्यः पुत्रेभ्यो रक्षणमभिधायासनेभ्यो मंत्र्यादिभ्यो रक्षाप्रकारमाह । ७ राजानमुत्थितं स्वव्यापारे सततोद्युक्तं अनूतिष्ठन्ते अनंतरमेवोत्तिष्ठते स्वव्यापारेषु सततो. यूक्ता भवंति । स यच्छीलस्तच्छीलाः प्रकृतय इति वचनात् । उक्कं च यस्किचिरकुरुते राजा शुभं वा यदि वाऽशुभम् । भृत्यास्तदनुकुवंति नर्तक्यो नर्तकं य [था] ॥ ......च भृत्येषु राज्ञो रक्षा संपद्यते । स्वयमुद्यूक्तो राजा न स्वैः परैश्वातिसंधीयते। एवं स्वतोऽपि रक्षा। प्रमाद्यंत इंद्रियार्थेषु प्रसज्यंतमनुप्रमाद्यति । उक्तं च राजानूस्थीयंते न स्वैः स्वयं कार्येष्वनुत्थितः।। न ह्युद्योगोऽस्ति गात्राणामनुद्युक्तेन्तरात्मनीति ॥ ततश्च रक्षाशैथिल्यं भवतीति भावः । दोषांतरं च दर्शयति । कर्माणि च । उपचारासमाहर्तारः कर्मणां फलानि चास्य भक्षयंति । राज्ञो निरवधानत्वात् । भक्षितवामने च कृत्याः परेषां भक्षयन्ति ततश्च प्रमादः । अत एव द्विषद्भिश्चातिसंधीयते । तस्मादुस्थानमुद्योगमात्मरक्षार्थ कुर्वीत । अनुष्ठानानां कालविभागार्थमाह । 1 SIG अवरुद्धं । 2 SJ पुत्र। 3 SJG °मपसर्पाः। 4 SJG 'वा' नास्ति । 5 sJG प्रसज्य रात्रा । 6 J ममोर्ध्वमिति । 7 SJG वा। 8 अवरुद्ध वृत्तमवरुद्धे च वृत्तिः अष्टा'; J प्रथमेऽधिकरणेऽवरुद्ध अष्टा'; G प्रथमाधिकरणे अष्टा अवरुद्ध। 9 sJG नमुतिष्ठमानम् ; svl नमुत्थितः। 108 नाळिका: J नाडिका: G नालिका। 11 SJG 'विभज्य' नास्ति। 12J विभजेत। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् त्रिपौरुषी पौरुषी चतुरंगुला नष्टेच्छायों मध्याह्न इति चत्वारः पूर्वेदिवसस्याष्टभागाः। {छायापौरुषाभिधानस्य द्वादशांगुलशंकोस्तत्प्रमाणेन वा दिनविभागस्तदेवाह त्रिपौरुषीति । आदित्योदये षण्णवत्यंगुला पौरुषच्छाया भवति । सा । यदि त्रिपौरुषी षट्त्रिंशदंगु ३२ द्वि.लावशिष्यते । तदा पूर्वो दिवसस्याष्टभागो व्यतीतो भवति । यदा पौरुषी द्वादशांगुला तदा द्वितीयोऽष्टभागः । यदा चतुरंगुला तदा तृतीयोऽष्टभागः । यदा शंकुमूलप्रविष्टा च्छाया भवति तदा चतुर्थोऽष्टभागः । नष्टच्छायो मध्यान्ह इति चत्वारः पूर्वेदिवसस्याष्टभागाः॥ अतिदेशमाह ॥ छ ॥} तैः पश्चिमा व्याख्याताः। तत्र पूर्वेदिवसस्याष्टभागे रक्षाविधानमायव्ययौ च शृणुयात् । द्वितीये पौरजानपदानां कार्याणि पश्येत् । तृतीये स्नानभोजन सेवेत् । चतुर्थे हिरण्यप्रतिग्रहमा ३३ प्र. ध्यक्षांश्च कुर्वीत। पञ्चमे मन्त्रिपर्षदा पत्रसंप्रेषणेन मंत्रयेत् , चारगुह्यबोधनीयानि बुद्ध्येत । षष्ठे स्वैरेविहारं मंत्रं वा सेवेत । सप्तमे हस्त्यश्वरथायुधीयान् पश्येत् । अष्टमे 15 सेनापतिसखो विक्रमं चिन्तयेत् । १ विभक्ताहोराने। २ नागरिकवदेष्टुसमाहर्त्रतपालादिभिः प्रजानां रक्षाविधानं दैवमानुषपीडादि । ३ अध्यक्षातिसंधान निवारणार्थम् । ४ धर्मस्थीयकंटकशोधनोक्तविधिना व्यवहारान् । ५ व्यायामोपलक्षणार्थम् । ६ देवपित्रतिथिपूजोपलक्षणार्थम् । ७ समाह दिसमानीतहिरण्यस्य स्वस्थचित्तत्वात् कुर्वीत । स्वयं दृष्टस्य न परिवर्तनादि ___ संभवतीति । अध्यक्षबुद्धिषणे दृष्टेऽन्यान् कुर्वीत । ८ संज्ञाभिः। ९ न तैः सुखं स्यादिति गीत्तनृत्तादिनिमित्तं विह.........। १० सति कार्योत्थाने । ११ स्नानभोजनसंतुष्टान् सारफल्गुविभागार्थम् । १२ प्रकाशकूटयुद्धव्यूहरचनादिभिः प्रतिदिनं चिंतितश्च विक्रमः सुश्लिष्टो भवति । 1 SIG 'नष्ट' नास्ति 2 5 °लाऽच्छायो'; svl °ला च छाया; a °ला च च्छाया। 3 SI 'चत्वारः' नास्ति; svl चत्वारः पूर्वे । 4 SIG मुद्रितेषु सर्वेषु पुस्तकेषु, 'छायापौरुषाभिधानस्य' इत्यारभ्य 'अतिदेशमाह' इति पर्यन्तानि वाक्यानि नोपलभ्यन्ते । 5 SIG मुद्रितेषु पुस्तकेषु 'सेवेत' इत्यनन्तरं 'खाध्यायं च कुर्वीत' इति पठ्यते। 6 Jvl प्रगहं । 7 SJC- परिषदा। 8 SJG मंत्रयेत । 9 SIG च बुद्ध्येत । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् • प्रतिष्ठितेऽहनि सन्ध्यामुपासीत । प्रथमे रात्रिभागे गूढपुरुषान् पश्येत्। द्वितीये स्नानभोजन सेवेत स्वाध्यायं च कुर्वीत । तृतीये तूर्यघोषण संविष्टेः, चतुर्थपंञ्चमौ शयीत । षष्ठे रात्रिभागे तूर्यघोषेण प्रतिबुद्धः शास्त्रमितिकर्तव्यतां च चिन्तयेत् । सप्तमे मन्त्रमध्यासीत गूढपुरुषांश्च [ ३३ द्वि.] प्रेषयेत् । अष्टमे ऋत्विगाचार्यपुरोहित[सखः] स्वस्त्ययनानि प्रतिगृह्णीयात् । । चिकित्सकमहानसिकमौहूंर्तिकांश्च पश्येत् । सवत्सां धेनुं वृषभं प्रदक्षिणीकृत्योपस्थानं गच्छेत् । आत्मबलानुकूल्येन वा निशाह गान् प्रविभज्य सेवेत । उपस्थानगतः कार्यार्थिनामद्वारासंगं कारयेत् । दुर्दों हि राजा कार्याकार्यविपर्यासमासन्नैः कार्यते । तेन प्रकृतिकोपरिवशं वा गच्छेत् । तस्मा.. १ समाते। २ स्मार्तधर्मशिष्टाचारस्य प्रतिपालनार्थम् । ३ [अ]प्रकाश्यत्वात् । ४ स्नानं स्वेदाथपनोदार्थम् । भोजनं बलाधानार्थम् । उक्तं च अजीर्णे भुज्यते यच्च यच्च जीणे न भुज्यते । रात्रौ न भुज्यते यञ्च तेन जीयंति मानवा इति ॥ ५ शय्यामारूढः । संविष्टः शब्दप्रयोगः कामं सूचयति सुरतप्रकाराणां संवेशनाभिधानात् । ६ अभ्यागाराधिकृताः। ७ आशीर्वादान् अभ्युदयार्थम् । ८ स्वास्थ्यास्वास्थ्यपरिज्ञानार्थम् । ९ काल-कायोचिताहारपाकोपदेशार्थम् । १० शुभाशुभदिवस ग्रहगतिपरिज्ञानार्थम् । आ[दिवा] रात्रकृतपापापनोदा[र्थम् ] । ११ धेनुं ब्राह्मणाय दरवा आस्थानं गच्छेत् । १२ भास्मनः शरीरस्य बलममिबलाद्भवति । तदानुकूल्येन निशाहर्भागान् प्रविभज्य सेवेत । तत्तृतीयेऽहर्भागे भोजनमभिहितं तस्य बुभुक्षाकाल एवाहर्भागः । तत्र यद्विधेयं तत्तुतीये कुर्यात् । तथा चतुर्थपंचमौ शयीतेत्युक्तं शरीरसाम्यवशात् न्यूनमधिकं वा कालम् । तथा स्त्रानभोजने च क्षणानां व्यत्ययो भवतु । निर्दिष्टानुष्ठानान्यनुष्ठेयान्येव । उक्तं च स्वस्वकर्मवशात्सर्वं कर्म कुर्वीत पार्थिवः । मयोपदेशः कृत्स्नोऽयमात्मार्थ हि विधीयत इति ॥ द्वितीये दिनाष्टविभागे विधेयमेव । प्रजापरिरक्षणार्थमाह । १३ पुरुषार्थप्राप्त्यनर्थप्रतीकारादिकार्यार्थिनां प्रवेश निषेधाभावम् । १४ भदंड्यो दंड्यः दंड्यो अदंड्य इति । १५ -विरक्ता यांत्यमित्रं वा भर्तारं नंति वा स्वयम् ॥ 1. S.ICE कुर्वीत । SJa 'कुर्वीत' नास्ति । 3 SIG 'रात्रिभागे' नास्ति। 4 SJG माहानासिक ।5 sJd वृषभं च । 6s Jvi G प्रतिविभज्य। 7 SJG कार्याणि सेवते । 8 svl पनिमासमा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् देवताश्रमपापं श्रोत्रिय पशुपुण्यस्थांनानां स्त्रीणां च क्रमेण कार्याणि पश्येत् । कार्यगौरवादात्ययिकवशेन वा । सर्वमात्यकिं कार्यं श्रुणुयान्नातिपातयेत् । कृच्छ्रसाध्यमतिक्रान्तमसाध्यं वापि जायते ॥ [ ३४प्र.] अभ्यंगार गतः कार्यं पश्येद्वैद्यतपस्विनाम् । पुरोहिताचार्य सेखः प्रत्युत्थायाभिवाद्य च ॥ तपस्विनां तु कार्याणि त्रैविद्यैस्सह कारयेत् । मायायोगविदां चैव न स्वयं कोपकारणात् ॥ राज्ञो " हि व्रतमुत्थानं यज्ञः कार्यानुशासनम् । दक्षिणा वृत्तिसौम्यं तु दीक्षा तस्याभिषेचनम् ॥ तथा चोक्तम् ४८ १ देवद्रव्यादिनिमित्तो विवादः । २ तीर्थतडागादीनाम् । ३ अप्राप्तव्यवहाराणाम् । ४ देवताकार्यं यद्यल्पा. न तपोभिर्व्रतैर्यज्ञः पुण्यमाप्नोति पार्थिवः । संरक्षितप्रजाधर्मात्षष्ठमंशं यथानुवन् ॥ प्रजार्मुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते " हितम् । नीत्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां हि' प्रियं हितम् ॥ ५ अत्ययो विनाशो यस्य दृश्यते तदेवादौ पश्येत् । ६ अनुष्ठानावसानं कुर्यात् । ७ होमशालास्थितः । अग्निप्रत्यक्षं साक्षिणः प्रष्टव्या इति । ८ पंडिततपस्विनामा दरख्यापनार्थम् । ९ पुरोहितोपाध्यायानां सखा भूत्वा संशय विच्छेदार्थम् । १० तेषामभ्यर्हितत्वात् । ११ स्तंभ मोहादिप्रयोगविदाम् । १२ कुपिता मूर्खतपस्विनः शापं प्रयच्छति । बालवृद्धव्याधितव्यसन्यनाथानां १३ * १४ अन्याय निवारणम् । १५ रिपौ सुतेऽपि वा शास्त्रोक्तदंडधारणात् । ३६ मात्स्यन्यायप्रतिषेधात् । १७ इहलोक सिद्धिलक्षणं राज्ञो भवति । १८ स्वधर्मप्रवर्तने तद्धर्मषडंशावाप्तिः । १९ मृगयादिव्यसनं हितं राज्ञो उभयलोकविरोधात् । २० रक्षानिराकुलत्वम् । २१ राज्ञो हितं लोकद्वय संसिद्धेः । 1SC वा विजायते ; वाभिजायते । 2 च । 3 व दीक्षितस्याभिषेचनम्। 4 sJG मुद्रितेषु पुस्तकेषु ' तथा चोक्तं .......... • यथाप्नुवन्' नास्ति | 5 SJG तु । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् तस्मानित्योत्थितो राजा कुर्यादानुशासनम् । अर्थस्य मूलमुत्थानमनर्थस्य विपर्ययः॥ अनुत्थाने ध्रुवो नाँशः प्राप्तस्यानागतस्य च । प्राप्यते फलमुत्थानाल्लभते चार्थसम्पदम् ॥ ॥इति विनयाधिकारिके [३४ द्वि.] एकोनविंशतितमोऽध्यायः॥ छ । [निशान्तप्रणिधिः। [*निशान्तप्रणिधिः।] वास्तुकप्रशस्ते देशे सप्राकारपरिषा(खा)द्वारमनेककक्षापरिगतमंतःपुरं कारयेत् । कोशहविधानेन मध्ये वासगृहम् । गूढभित्तिसञ्चार मोहनगृहं तन्मध्ये पासगृहं कारयेत् । भूमिगृहासन्नचैत्यदेवतापिधानद्वारमनेकसुरगा- . सारं वा 'तस्योपरि प्रासादं वा गूढभित्तिसोपानं शुषिरस्तम्भप्रवेशा१ प्रजानां करणीयार्थशिक्षणम् । m चतर्विधस्य । ३ राशोऽनुयोगे प्रजाभिः प्राप्तस्यार्थस्य विनाशो भवति । ४ भविष्यतवार्थस्य योगलक्षणं फलं राज्ञा प्राप्यते । ५ अर्थानां पुष्टश्वम्। * निशातप्रणिधिरिति सूत्रम् । निशाम्यति निश्चलीभवत्यत्र राजादयो निशाया तो घा यदन्न गम्यते तनिशांतमंतःपुरम् । तत्र प्रणिधिः प्रणिधानम् । स्थावरजंगमानां तत्र प्रणिधानं सावधानता । राज्ञ आत्मनो दाराणां च रक्षणार्थमिति सूत्रार्थः । संबंधस्तूद्दिष्टे स्पष्टमेव दाररक्षणं मिशांतप्रणिधी प्रवक्ष्याम इति । अत्र दारेभ्यो रक्षणं दाराणां चारक्षणमिति । ( इदं सूत्रं मूलभूतपंक्ती लिखितं नोपलभ्यते। टिप्पणी चेयं पृष्ठपार्श्वभागे लिखिता समुपलभ्यते-सं०) ६ दारणामात्मनश्च रक्षार्थ गृहरचनां तावदाह-वास्तुका वास्तुविद्याविदस्तैः प्रकर्षेण शते। • वक्ष्यमाणलक्षणे कोशगृहम् । तस्य विधामम् । चतुरस्त्रां वापी निरुदकोपलेही खानमिस्वेति सर्व योज्यम् । तन्मध्ये वासगृहम् । राज्ञो वासाय शय्यागृहम् । गूढभित्तिसंचारमिति-गूढो भित्तिसु संचारो यस्मिंसदपेकर्तुः प्रविष्टस्य मोहजननत्वात् मोहनगृहम् । तन्मध्ये वा वासगृहं कारयेत् । मूमिगृहं वा परैरविदितं तद्वोपनार्थ वा प्रकटराजगृहस्यांतः किल देवताचैत्य इष्टका. भिधीयत इति । श्रियः सरस्वत्या वा भवनम् । तत्रासन्नचैत्यकाष्टदेवतैव यंत्रप्रयोगादपिधानद्वारं तहेवतायतसमिति जनैः प्रतीयते । न भूमिगृहद्वारमिति भावः। अनेकसुरंगा संचारमापचपसारार्थ वासगृहं कारयेदिति संबंधः । ९ अनेकभूमिकं घंटामलसारककलशोपेतम् । १० भित्सिगर्भविरचितसोपानत्वात् । गूढेत्यादि । ११ शुषिरत मेत्यादि । शुषिरस्तम्भेषु रचितशू(सू)श्मसोपानत्वात् प्रवेशोऽपसारश्च स्तंभ मध्येमैव भवति । तद्वासार्थ कारयेत् । 1s राजप्रणिधिः एकोनविंशोध्याथः: J प्रथमेऽधिकरण राज० एकोन०; प्रथमाधिकरणे एकोनं राज। 29JC कक्ष्या। 3 SJ 'मध्ये' पतितः; svl G वा मध्ये वास । 4 SJG वा वासगृहं । 58JG 'कारयेत्' नास्ति। 6 JG हं वासन्नकाष्ठचत्य। 7 विधान। 88JG वा तस्योपरि' नास्ति । 98JG सुचिर। सटि. कौट. अर्थ.7 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् पसारं [३५प्र.] वा वासगृहं यन्त्रबद्धतलावपातं कारयेदोपत्प्रतीकारार्थम् आपदि कारयेत् । अतोऽन्यथा वा विकल्पयेत् । सहाध्यायिभयात् । मानुषेणाग्निना त्रिरपसव्यं परिगतमन्तःपुरमग्निरन्यो न दहति । न चात्रान्योऽग्निवलति । वैद्युतेन भस्मना मृत्संयुक्तेनोवल(लि)प्तं च । । 'जीवन्तीश्वेतामुष्ककपुष्पवन्दीकाभिरक्षीवे जातस्याश्वत्थस्य प्रतानेन गुप्तं सर्प विषाणि वा न [३५ द्वि.] प्रभवंति। .. मयूरपृषतनकुलोत्सर्गः सर्पान् भक्षयति । शुकसारिके. भृङ्गरोजो वा सर्पविषशङ्कायां क्रोशंति" । क्रौंचो विषाभ्यासे" माद्यति. ग्लायति "जीवंजीवको म्रियते मत्तकोकिलः । चकोरस्याक्षिणी विरज्येते । इत्येवमग्निविष७ सर्पेभ्यः प्रतिकुर्वीत । पृष्ठतः कक्षाविभागे स्त्रीनिवेशो" गर्भव्याधिसंस्था वृक्षोदकस्थानं च । बहिः कन्या-कुमारपुरम् । पुरस्तादलङ्कारभूमिमन्त्रभूमिरुपस्थानं कुमाराध्यक्षस्थानं च । कक्षांतरेष्वन्तर्वशिकसैन्यं तिष्ठेत् । . १तलं भूमिकातुलोपरि फलकास्तारादिलक्षणं तस्यावपातः शत्रोरुपरि पातः। स यंत्रेणावबद्धो यस्य कार्यकाले कीलापनयनात्पततीति कारयेदिति । राज्ञो वासगृहे यथापत्प्रयत्नकरणं आपत्प्रतीकारार्थम् । आपदि वा भविष्यंत्यां कारयेत् । पूर्वकृते तु मंत्रभेदः स्यादिति । २ मतिविभवैर्विभवं कल्पयेत् । सहाध्यायिनामप्येतदेव शास्त्रं ततश्च सावधाना नाति संघातुं शक्यते । ३ मानुषाग्निः शस्त्रहतस्य शूलप्रोतस्य वा नरस्य वामपार्श्विकायां कल्माषयेणुनिर्मथनोत्पन्नो मानुषोऽग्निस्तेनोल्कारूपेण । त्रिरपसव्यं त्रीन् वारान् प्रदक्षिणेन परिगतं नीराजितमग्निरन्यो न दहति । स एव दहतीति भावः । वक्ष्यति च मानुषेणाग्निना परदुर्गमादीपयेयुरिति । ४ महानसदीपादावपि । ५ विद्युद्दग्धस्य वृक्षस्य भस्मना वल्मीकमृदायुक्तेन करकजलेनार्द्रितेन । ६ डोडी। गिरिकर्णिका । ८ मुष्कके जातपुष्पोपलक्षितो वंदाकः । ९.शोभांजने। १० वंदनमालाविरचितेन । ११ एतेषां निशांते उत्सर्गो मोक्षः सपनि भक्षयति एते उत्सृष्टाः सर्पान् भक्षयंतीत्युपचारः। १.२ कृष्णः शुकप्रमाणः-पक्षी। १३ मध्यमकक्षावस्थितवासगृहात् पृष्टतः। १४ सुभगकुलस्त्रीगृहाणि । १५ एकतो गर्भिण्यः अन्यतो व्याधिताः। १६ कुमाराणां अध्याक्षाणां च । १७ प्राकारमूलेपु। १. अंतवंशो राज्ञः पुत्रदारं तत्र नियुक्तोऽन्तवंशिकस्तस्य सैन्यम् । 1st वा कारयेत्। कनकवारिणाऽवलिप्त; J1 °वारिणावलिप्त। 38. जीवान्ती । 1s क्षीपे; svl °क्षीवे। 5sJG चा गुप्तं । (6SJ प्रसहन्ते। 7 SJC मार्जारमयूर. नकुलपृषतो। 8 svl °गास्सान भक्षयन्ति । 9s शुकरशारिका; svl . शुकशारिका; शुकः शारिका। 10 sJG क्रोशति; Svl कोशन्ति। 11 S. विषाभ्याशे। 12 , जीवजीवकः । 13 svl ज्येत । 14 SJC या । 10वद्याख्यातसंस्था वैद्यपत्यारूपात'। 16 क्ष्या। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् अन्तर्गृहंगतः स्थ [३६ प्र. ] विरस्त्रीपरिशुद्धां देवीं पश्येत् । श्रूयते हि देवीगृहे निलीनो' भ्राता भद्रसेनं जघान । मातुःशय्यांतर्गतश्च 'जननीप्रोत्साहितः कनिष्ठपुत्रदत्तयौवराज्यं कारूपविषयाधिपं वज्राख्यं पुत्रो दुर्जयः <जघान इत्युत्तरत्रानुवर्तते > लाजान्मधुनी विषेण 'विपर्यस्य देवी' काशिराजम् । विषदिग्धेन नूपुरेण वैरन्त्यम् । मेखलामणिना "सौवीरम् । जालूषमादर्शन | वेण्यां गूढं शस्त्रं कृत्वा देवी विदूरथ जघान । तस्मादेतान्यास्पदानि परिहरेत् । जटिलकुहक प्रतिसंसर्ग वा ३६ द्विह्याभिश्च दासीभिः प्रतिषेधयेत् । न चैताः कुल्याः पश्येयुः । अन्यत्र गर्भव्याधिसंस्थाभ्यः " । रूपाजीवाः स्नानशरीराः प्रवर्तितवस्त्रालङ्काराः पश्येयुः । अंशीतिकाः पुरुषाः पञ्चाशत्का 10 वा "स्त्रियो मातापितृव्यञ्जनाः स्थविरवर्षर्धराभ्यागारिकाश्चावरोधानां शौचा शौचं विद्युः स्थापपयेयुश्च स्वामिहिते । स्वभूमौ च वसेत्सर्वः परभूमौ न सञ्चरेत् । न च बाह्येन संसर्ग कश्चिदाभ्यन्तरो व्रजेत् ॥ सर्व" चावेक्षितं वस्तु निबद्धागमनिर्गमम् । निर्गच्छेदभिगच्छेद्वा मुद्रासंक्रान्तभूमिकम् ॥ ॥ इति विनयाधिकारिके निशांतप्रणिधिः विंशोऽध्यायः ॥ * १ भद्रसेनस्य । २ भालोड्य । ३ अनिच्छन्ती बलादभिगच्छंतम् । ५] परंतपं ( ? ) .........| ४ व...... धिपं दण्डपारुष्यातिपीडिता । ६ अयोध्याभिपं स्वभावद्वेषात् ऋतावपि अनभिगता कामेन पीडिता । ७ वृष्णिविषयपतिं द्रव्यापहाराद् विद्विष्टा । ८ वाकूदंडयोश्च पारुष्यमर्थापहरणाक्रमौ । अन्यासक्तिस्तथा द्वेषः स्त्रीभ्यो भर्तुर्भयास्पदम् ॥ ९ माया योगविदः । ते हि वश्याद्युपदेशाद्वारेणाति ... . कौशलशालिनीभिः । 1 १० ११ देवी चित्ताऽविचलनार्थम् । १२ देवीनां कुलभवाः स्त्रियो भ्रात्रादयः कुमंत्र निषेधार्थम् । १४ स्नानोद्वर्तनं राजकीयवस्त्रालंकार...... ... । १६ अंतश्चराणां कृतकमातापितरः राजप्रणिहिता... । ५१ ........ १७ सावित्र्यादिमहासती निदर्शनादिभिः । १८ आस्तां वासः संचारोऽपि निषिध्यते । परिचयात् स्नेहस्ततः कुमंत्राः संभवति । १९ सर्वं च सारफल्गु कुप्यादि द्रव्यं भवेक्षितं अंतःपुरद्वारस्यैः । ..... ( 1 इथं टिप्पणी द्वित्रिपंक्तिपरिमिता विस्तृता ज्ञायते परं विनष्टाक्षराऽतोऽशक्यः पाठोद्धारोऽस्याः । ) १३ तत्र न दोषः । १५ उपतिष्ठेयुः । 1 gid पुस्तकेषु पश्येदित्यनन्तरं 'न काश्चिदभिगच्छेत्' इत्यधिकं पठ्यते । 2 SJG 'श्रूयते हि ' नास्ति । 3sJa °लीनो हि भ्राता । 4 sJc पुस्तकेषु 'जननी'त्यारभ्य 'वर्तते' पर्यन्ताः शब्दा नोपलभ्यन्ते । तत्स्थाने 'पुत्रः कारूश' मिति पठ्यते । 5sJG मधुनेति । 6 sJG 'वि' पतितः । 7 sJa जालूथ' । 8 s वेण्यागूटं । 9 Jd विडूरथं । 10 sa चैना: । 11 ° सस्थाभ्याम् | 12 sJG शुद्धशरीराः । 13 sJG परिव। 14 JG आ । 15 sJG स्त्रियो वा । 16 sJG 'वरा । 17 SJG द्रव्यं । 18 sa °धिग' | 19 J प्रथमेऽधिकरणे विंशोऽध्यायः 1; G प्रथमाधिकरणे विंशो निशान्तप्रणिधिः । 5 15 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [आत्मरक्षितकम् ।] . शयनादुत्थितः स्त्रीगणैर्धन्विभिः परिगृह्येत । द्वितीयस्यां कक्षायां कञ्चकोष्णीषिभिर्वर्षधराभ्यागारिकैश्च तृतीयस्यां कुनवामनकिरातैश्चतुर्थ्या मन्त्रिभिः संबन्धिभिदौ ३७ प्र. वारिकैः प्रासंपाणिभिः । पितृपैतामहमहासम्बन्धानुबद्धं शिक्षितमनुरक्तं कृतकर्माणं चं जनमासन्नं कुर्वीत । नान्यतोदेशीयमकृतार्थमानम् । स्वदेशीयं वापकृत्योपगृहीतम् । अंतर्वशिकसैन्यं राजानं अन्तःपुरं च रक्षेत् । __ गुप्ते "देशे माहानसिकः सर्वमास्वादबाहुल्येनं कर्म कारयेत् । तंद्राजा तथैव प्रतिभुञ्जीत। पूर्वमग्नये वयोभ्यश्च बलिं कृत्वा प्रतिभुञ्जीत । १ पंचादिपरिकल्पितो जनसमूहो गणः । तथा चोक्तम् पंचावरं गणं विद्यादाशतादिति भार्गवः। यथासामर्थ्य मित्येवं बार्हस्पत्याः प्रचक्षते ॥ २ धनुर्वेदप्रवीणैः । राजशरीररक्षार्थम् । अन्येषां शस्त्रिणां अंतःपुरे अप्रवेशात् । धनुर्महणं च सर्वायुधाधिक्यप्रदर्शनार्थमुक्तम् । ___ यान्यायुधानि शस्त्राणि स्थावराणि घराणि च। धनुषो गोचरे तानि न तेषां गोचरे धनुरिति । ३ प्रथमकक्षायामिति शेषः। ४ कंचुका भाप्रपदीनाः कूर्पासकाः । उष्णीषाः सर्वमुखव्यापीति शिरोवेष्टनानि । तानि वियते _ येषां वर्षधरादीनाम्। ५ यौनादिः संबंधः। ६ क्षेप्यायुधहस्तैः। ७ * (विस्तृताऽत्र टिप्पणी दृश्यते । परं विनष्टाक्षरा इति नोद्धर्तुं शक्यते।) ८कृतं बहुशः समरेषु अद्भुतं कर्म येन तं जनं शस्त्रपाणिं आसनम् । ९ तमपि कृतार्थमानं शिक्षितमनुरक्तं कृतकर्माणं आसनं कुर्वीत । १०पितृपैतामहादिकम् । ११ आसनं च कुर्वीतेति संबंधः । उक्तं चअपराद्धानि मित्राणि भृत्यानपि विरोधितान् । ..........श्वासान्न कुर्वीत विचक्षणः ॥ १२ पूर्वोक्तम् । १३ ..................मभिधाय रसदेभ्योऽभिधातुमाह । १४ नियुक्तव्यतिरिक्तानां अदृश्ये । १५ शाकतंदुलादि। १६ परिचारकपेषकपाचकादिभिः क्रमेण आस्वादितः। १७ ने(१)ति संबन्धः। १८ यदि न विषलिंगम् । 1 SIG °क्ष्या 1 2 SIG °वरा । 3 SJG 'च' पतितः। 4 SIG 'च' पतितः। 5 s वाऽप्य'; JG वाप्यपकृ । 6 SIG 'प्रतिभुञ्जीत' इति नास्ति । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् • अग्नेवालाधूमनीलता शब्दस्फोटनं च विषयुक्तस्य वयसां विपत्तिश्च । अन्नस्योष्मा मयूरग्रीवाभः शैत्यं आशुक्लिष्टस्येवं वैवयं सोदकत्वमस्विनत्वं च । व्यञ्जनानामाशुशुष्कत्वम् "क्वार्थध्यामफेनविच्छिन्नभावो गंधस्पर्शरसवधश्च । द्रवेषं हीनातिरिक्तच्छा-दर्शनं फेनपटलसीमंतो राजीदर्शनं च । रसस्य मध्ये नीला राजी पयसश्च ता[३७ द्वि.मा मद्यतोययोः काली । दनः श्यामा मधुनः श्वेता। द्रव्याणामाद्राणीमाशुम्लीनत्वमुत्पक्कभावः । वाथनीलश्यामता च । शुष्काणामाशुशातनं वैवर्ण्य च । कठिनानां मृदुत्वम् । मृदूनां च कठिनत्वम् । तदभ्यासे क्षुद्रजंतुवधश्च । आस्तरणप्रावरणानां ध्याममंडलता । तंतुरोमॅपक्ष्मशातनं च । लोहमणिमयानां पंकमलोपदेहता । "स्नेहरागंगौरवप्रभाववर्णस्पर्शवधश्चेति विषयुक्तस्य लिङ्गानि । विषपदस्य तु शुष्कश्यामवक्रता वाक्सङ्गः स्वेदो जॅम्भणं चातिमात्रं १ तदेव दर्शयमाह। २ शब्दोपलक्षितं भन्नादेरिति शेषः। ३ हस्तमृदितस्येव । ४ काथभावोऽमिट्यवधानेऽपि । ध्यामभावो द्रव्यान्तरास्पशेऽपि । फेनभावो विच्छिाभा. वश्च तद्धेस्वभावेऽपि। ५ रसादिषु। ६ प्रकृतेर्विकारः। ७ *। ८ । ९ वल्लुरवटकादीनाम् । १० भाम्रादीनामााणां आशुम्हानत्वं हरितानामप्युत्पकभावः । काथता बंतादिदेशे भ्यामता भीलता च ।। " कठिनानामिति शुष्कनालिकेरादीनाम् । १२ मृदूनामिति कदलीफलादीनाम् । १३ पिपीलिकादि। १४ तूलिकंबलादीनाम् । १५ ध्यामीकृतानि मंडलानि स्थाने स्थाने दृश्यते । १६ कर्षासादिमयानाम् । १७ अविमृगादिरोममयानाम् । १८ रलकादीनाम् । १९ लोहानि सुवर्णरजतताम्रकालायसादीनि तन्मयानाम् । २० पभरागादिमणिमयानाम् । २० पंकोपदेहता रजोधारणम् । २१ स्नेहादीनां वधः स्निग्धमस्निग्धम् । दृष्टरागस्य वैराग्यम् । गौरवस्य तुलने लघुत्वम् । प्रभा. ववधो भ्रामकादीनां सामर्थ्यविनाशः। वर्णवधो रक्तस्य श्वेतत्वम् । स्पर्शवधः श्लक्ष्णं स्पृश्य मानं परुषं भवतीत्यर्थः । २२ रागो लोहितादिविंशतिभेदः । २३ सामर्थ्यम्। २४ रागसमुदायः। २५ श्लक्ष्णत्वम् । २६ शुष्कवक्रमाशंकया मुखशोखे(षे) सति, श्यामवक्रता उद्वेगाद् वैवर्ण्यम् । २७ * 1 Jvl अग्नेधूमनीलता । 2 SIG °स्यैव। 3 SIG अक्लिन्नत्वं । 4 SIG च क्वाथ। 5 SIG श्याम । 6 SIG फेनपटल; sv] फेनमण्डल। 7 SIG 'च' पतितः। 8 SI Gvl श्यामा च । 9s प्रम्लात?; svl JG प्रम्लान। 10 SIG 'श्यावता। 11 SIG °त्वं च। 12 SIG शे। 13 8JG सत्व। 14 SJG श्याम'; svl ध्यायश्याम; Jvl ध्यामश्याम । 15s पाकलोप; svl पंकमलो'; Ivl पंकलोप। 16 SI विषयुक्तलिङ्गानि; G इति विषयुकलिङ्गानि । 17 SIG श्याव । 18 sJG विज। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 ५४ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् वेपथुः । प्र[३८] प्र.] स्खलनं वाक्यविप्रेक्षणमावेगः कर्मणि स्वभूमौ चानवस्थानमिति । तस्मादस्य जाङ्गुलीविदों' भिपजश्चासन्नाः स्युः । भिषगू भैषज्यागारादास्वादविशुद्धमौषधं गृहीत्वा पाचकपेषकाभ्यामात्मना च प्रतिस्वाद्य राज्ञे प्रयच्छेत् । पानं' पानीयं चौषधेन व्याख्यातम् । कल्पकप्रसाधंकाः स्नानशुद्धशहस्ताः समुद्रमुपकरणमन्तर्वंशिक हस्तादादाय परिचरेयुः । स्नापकसंवाहकास्तर कप्रसाधकोदकपरिचार[ ३८ द्वि.] करजकमालाकारकर्म दास्यः प्रसिद्धशौचाः कुर्युः । ताभिरधिष्ठिता वा शिल्पिनः । आत्मचक्षुषि निवेश्य वस्त्रमाल्यं दद्युः । स्नानानुलेपनप्रधर्षचूर्णवासस्नानीयानि चं स्वयंक्षसि" बहुषु च । एतेन परस्मादागतकं व्याख्यातम् । कुशीलवाः शस्त्राग्निरसक्रीडावर्ज नर्मयेयुः । अं ( आ ) तोद्यानि चैषामंतस्तिष्ठेयुः । अश्वद्विपरथालङ्काराश्च । १ समेऽपि गते । २ परवाक्याकर्णनं किमहं ज्ञातोऽस्मि मत्कथामेव कुत्यंतीत्याशंकया । . ३ भावेगः सर्वांगानामाकुलत्वम् । उक्तं च यः कश्चित्वरित गतिर्निरीक्षते मां संभ्रांतः स्थिरमभिसर्पति द्रुतं वा । तत्सर्वं खलु मम शंकतेऽन्तरात्मा स्वैर्दोषैर्भवति हि शंकितो मनुष्यः ॥ ४ यस्मादेवं परप्रयुक्ता विषं प्रयच्छन्ति तस्मात् । ५ बौद्धप्रसिद्धा विद्या जांगुली । उपलक्षणं गारुड मंत्रादीनामेतत् । ६ सुरादि । ७. तदपि यद्यस्य हस्तागृह्यते तेन प्रत्येकं प्रतिस्वादितं राज्ञे प्रयच्छेत् । चकारात्तांबूलादिकम् । . ८ केशनखच्छेदकर्तारः । ९ शरीरशोभाकर्तारः । ११ अथ तासां प्रावीण्यं नास्ति तदा ताभिर्विश्वास्याभिरधि० । १२. वस्त्रादिदाने प्रत्यशन कल्पविधिमाह । १३ सुकुमारत्वादवयवस्य विषस्य च महावीर्यत्वात् । १४ स्नानं सुगंधद्रव्य निर्मित साद्वै यच्छिरसि प्रयुज्यते । १५ कुंकुमादि । 4 १७ चूर्णः शुष्कः स्नानोत्तरकालं केशवासाय यः प्रयुज्यते । १९ सुकुमारस्थाने | २२ तत्राप्ययमेव विधिः प्रत्यशने द्रष्टव्य इति । २३ प्रत्येकं [ क्री ] डाशब्दः । २४ विनोदयेयुः । १० राजदास्यः । २५ अंतवंशिक हस्ते । 1 J बाह्यविप्रेक्षण; Jv] वात्मविप्रेक्षण । 2 so 'वेशः; svl वेगः । 3 J स्वकर्मणि । 4 EJG जाङ्गली । 5 s पाचकपोषका 6 SJC वस्त्रहस्ता | 7 SJG प्रसाधकोदकपरिचारक' नास्ति । 8 sJG 'प्रसिद्धशौचा:' नास्ति । 9 SJ 'च' नास्ति । 10 sJG स्ववक्षो । 11 so च व्याख्यातम् । 12 sJa ' क्रीडा' नास्ति । 13 sJC आतोद्यानि । 14 SIG रथद्विपालंकारा" । १६ उद्वर्तनं सुगंधमेव प्रधर्षः । १८ सुगंधकल्पः धूपः । २१ स्वगृहागतेन । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • आप्तपुरुषाधिष्ठितं यानवाहन[३९ प्र.मारोहेत् । नावं चाप्तनाविकाधिष्ठिताम् । अन्यनौप्रतिबद्धां वातवेगवशां च नोपेयात् । उदकान्ते सैन्यमासीत । मत्स्यग्राहविशुद्धमुदकमवगाहेत । ध्या ग्राहविशुद्धमुद्यानं गच्छेत् । लुब्धकश्वगणिभिरपास्तस्तेनव्या. लपराबाधभयं चललक्ष्यपरिचर्यार्थ मृगारण्यं गच्छेत् । __आप्तशस्त्रग्राहाधिष्ठितः सिद्धतापसं पश्येत् । मन्त्रिपरिषदा सह सामन्तदूतं प[३९ द्वि.]श्येत्। सन्नद्धोऽश्वं रथं हस्तिनं चारूढः सन्नद्धमनीकं पश्येत् ।। निर्याणांभियाने" च राजमार्गमुभयतः कृतारक्षं शैस्त्रिभिर्दण्डिभिश्च - पास्तशस्त्रहस्तप्रवजितव्यंगं गच्छेत् । न पुरुषसम्बाधमवगाहेत । . यात्रासमाजोत्सवप्रहवणानि च दर्शवर्गिकाधिष्ठितानि गच्छेत्। यथा च योगपुरुषैरन्यान् राजाऽधितिष्ठति । तथाऽयमन्यावाधेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवानिति" ॥ ॥ इाते विनयाधिकारिके एकविंशोऽध्यायः॥ छ । ॥ समाप्तं चेदं विनयाधिकारिकं प्रथममधिकरणम् ॥ * १ शिबिकादि । २ हत्यादि। ३ तत्रापि । ४ उदकान्ततटद्वये। ५ रक्षार्थ जलक्रीडायाम् । .. ६ शिशुमारादि। ... ७ उद्यानगमने विधानमाह । सिंहादि। ८ जलचर। ९ तथा। १० परातिसंधानभयात् । ११ प्रतिवाक्यादिदानार्थम् । १२ कृतकवचः । १३ स्वकीयम् । व्यूहरचनादौ विश्वासाभावात् । १४ निर्गमे प्रवेशे च। १५ निग्रहकर्तृभिः। १६ प्रत्यवायभयात् । अर्थकार्यवशादवगाहेत तथा। १७ यात्रा देवादीनाम् । समाजः यक्षादिः । उत्सवः पुत्रोत्पत्त्यादिः । प्रहवणं विवाहादि । १८ दशपुरुषवर्गनियुक्ता दशवर्गिकाः। १९ प्रत्यपायप्रतीकारार्थम् । १० अत्र हेतुमाह । २१ तीक्ष्णरसदादिभिः। २२ शत्रून् । २३ विजिगीषुः । २४ गृहीतविद्यः कृतवृद्धसंयोगः सुविशुद्धामात्यसंपन्न उपगृहीतस्वपरपक्षो निश्चितमंत्रो रक्षि तात्मपुत्रदार आत्मवानुच्यते । | SH: मौलपुरुष । 2 SL: 'उदकं' नास्ति । 3 JG परिशुद्ध। 4 SC लुब्धकैः । 5SIC चललक्ष । Gs.ti परिचयार्थ । 7S. 'सह' नास्ति । 8 SJA 'पश्येत्' नास्ति । 9 SIG हस्तिनं रथं। 10 SJ वाऽऽरूट। ।। S गच्छेत् । 12 SI निर्याणेऽभियाने। 13 SICE 'शत्रिभिः' नास्ति। 1453 'च' नास्ति। 15 S39 °मन्यबापेभ्यो। 16 9 'इति' नास्ति । 17 SJ आत्मरक्षितकम् एकविशोऽध्यायः। 18 SIG एतावता कौटि(ट)लीयस्यार्थशास्त्रस्य विनयाधिकारिकं प्रथममधिकरणं समाप्तम् । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनक कौटलीयमर्थशास्त्रम् द्वितीयमधिकरणम् । _ [जनपदनिवेशः।] जनपदनिवेश इति सूत्रम् । भूतपूर्वमभूतपूर्व वा जनपदं परदेशापवाहनेन स्वदेशाभिष्यंदवमनेन वा निवेशयेत् । . शूद्रकर्षकप्रायं कुलशतावरं पंचकुलर्शतपरं ग्राम क्रोशद्विक्रोशंसीमानमन्योन्यारक्षं निवेशयेत् । ___ नदी [ ४० प्र. ] शैलवनभ्रष्टिंदरीसेतुबन्धशमीशाल्मलीक्षीरवृक्षानन्तेषु सीना स्थापयेत् । अष्टशतग्राम्या मध्ये स्थानीयं चतुःशतग्राम्या द्रोणमुखं द्विशत"ग्राम्याः कार्यटिकं दशग्रामीसङ्ग्रहेण स्थापयेत् । अन्तेष्वन्तपालदुर्गाणि जनपदद्वाराण्यन्तपालाधिष्ठितानि स्थापयेत्। तेषामन्तराणि वागुरिकशवरपुलिंदचंडालारण्यचरा रक्षेयुः । ऋत्विगाचार्यपुरोहितश्रोत्रियेभ्यो ब्रह्मदेयान्यदण्डकाराण्यनिरूपदाया। दकानि प्रयच्छेत् । १ जनाश्चातुर्वण्ये ते पद्यतेऽवस्थानं कुर्वति यस्मिन् असौ पृथ्वीभागो जनपदस्तस्मिन् चातुर्व पर्यादेर्यथायोगमव[स्थापनमिति । ] २ निविष्टपूर्व अनिविष्टपूर्व च । अनिविष्टपूर्वे जनपदशब्दो न प्रवर्तते। पर्वतसमुद्रादौ कथं तस्य निवेश इति चेत् मर्यमाणनिवेशो भूतपूर्वः [स्वल्पवीरलतादिसुखसाध्यः।] अस्मर्यमाणनिवेशो महावृक्षावलुप्त [ निःशेषनिवेशचिन्हो दुःख ] साध्य इति भावः । ३ स्वदेशाभिष्यंदवमनेन वेति । यथा निरासन्ननिम्ने कालांतरेण निःष्यंदो जलसंग्रहो भवति। तद्वत्ततःप्रजाभिष्यंदः सन्ततिबाहुल्यम् । एकस्मिन्नेव कुटुम्बे पुत्रनप्तृभ्रातृभागिनेयादिबाहुल्यात् । न धान्यादिप्राचुर्यात् । मूलकुटुम्बमवस्थाप्य शेषाणामपकर्षणं वमनं तेन वा निवेशयेत् । ४ विध्यादिभिरुपभोग्यत्वात् । ५ कुलशतभेदे मतभेदस्तथा हिचुल्याधाने कुलं विद्यादित्यांभीयाः प्रचक्षते । दंपत्यं कुलमित्येके हलं स्वन्ये प्रचक्षते ॥ इति । चुल्याधान-दंपत्ययोः क्षेत्र-विभागेऽनंगस्वादेकद्वित्रिहलत्वेन कुलं तदुत्तममध्यमावरतयेष्यते। ६ अर्धतृतीयकुलशतकृष्यो मध्यमः साईक्रोशसीमा भवतीत्यर्थादापद्यते । ७ शूद्रादिजातिसमूहो ग्रामः। ८ गोरुतं निशावसाने यावन्तं प्रदेश गवां रुतं व्याप्नोति । पूर्वमाकोशे पश्चिमचिन्ह • उत्तरस्मारकोशे [ दक्षिणचिन्हमिति ।] 1 SG. नास्येतत्सूत्रात्मक वाक्यम् । 25IG शतकुल । 3 sJG गृष्टिदरी। 4 SJC शमीक्षार 1 5 svl वृक्षान्तरेषु सीमां । 6 SI Gvl खार्वटिकं । 7 SIG संग्रहेण संग्रहणं स्थापयेत् । 85 दण्डकराण्याभिरूप। 9 SJG दायकानि । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् ५७ • अध्यक्षसल्यायकादिभ्यो गोपस्थानिकानीकस्थचिकित्सकास्व(श्व)दमकजङ्घाकारिकेभ्यश्च विक्रयाधानवर्जानीति । करदेभ्यः कृतक्षेत्राण्येकपौरुषिकाणि प्रयच्छेत् । अकृतानि च कर्तृभ्यो ना[देयानि । अकृषतामाच्छिद्यान्येभ्यः प्रयच्छेत् । ग्रामभृतकवैदेहका वा कृषेयुः।। अकृषन्तो वाऽवही ४० वि.]नं दद्युः । धान्यपशुहिरण्यैश्चैताननुगृह्णीयात् । तान्यनुसुखेन दद्युः। _ अनुग्रहपरिहारौ चैतेभ्यः कोशवृद्धिकरौ दद्यात् । कोशोपघातको वर्जयेत् । अल्पकोशो हि राजा पौरजानपदानेव ग्रसते । ___निवेशसमकालं यथागतकं वा परिहारं दद्यात् । निवृत्तपरिहारान् । पितेवानुगृह्णीयात् । • • आकरकांतद्रव्यहस्तिवनव्रजवणिक्पथप्रचारान् वारिस्थलपथपण्यपत्तनानि च निवेशयेत् ।। ___ सहोदकमाहार्योदकं वा सेतुं बन्धयेत् । अन्येषां वा बनतां भूमिमार्गवृक्षोपकरणानुग्रहं कुर्यात् । पुण्यस्थानारामाणां च ।। • संभूय सेतुबन्धादपक्रामतः कर्मकरबलीवर्दाः कर्म कुर्युः। व्ययक[४१ प्र.मणि च भागी स्यात् न चांशं लभेत् । मत्स्यप्लवहरितपण्यानां सेतुषु राजा स्वाम्यं गच्छेत् । दासाहितकबन्धूनशृण्वतो राजा विनयं ग्राहयेत् । बालवृद्धव्यसन्यनाथांश्च विभूयात् । स्त्रियमप्रजातां प्रजातायाश्च पुत्रान् । बालद्रव्यं ग्रामवृद्धा वर्द्धयेयुराव्यवहारप्रापणात् देवद्रव्यं च । अपत्यदारं मातापितरौ भ्रातूनप्राप्तव्यवहारान् भगिनीः कन्या विधवाश्चाबिभ्रतः शक्तिमतो द्वादशः पणो दण्डः। अन्यत्र पतितेभ्योऽन्यत्र मातुः। पुत्रदारमप्रतिविधाय प्रव्रजतः पूर्वसाहसदण्डः स्त्रियं च प्रव्राजयतः। लुप्तव्यायामः प्रव्रजेदापृच्छय धर्मस्थानन्यथा नियम्येत । वानप्रस्थादन्यः प्रव्रजितभावः सजी तादन्यः सङ्घः [४१ द्वि.] सामुत्था1svl °स्थानिनानीक। 2 SJ जङ्घारिके; svl Gvl जंघालके; G जंघाकरिके। 3 JG वर्जम् । 4 SIG 'च' नास्ति । 5 SIG नादेयात् । 6 SI °न्तोऽपहीनं । 7 8JG एनान् । 8 SIG चैभ्यः। 9 ss कोशोपपातिको; svlG °घातिको। 10 svl यथागतं । 11 SIG लमेत । 12 svl दासाहतक। 13 SIG °वृद्धव्याधितव्यसन्य। 14 SIG राजा बिभृयात् । 15s वर्ज[र्ध]येयु'; G वर्जयेयु । 16 svld अपत्यदारान् । 17 sG पूर्वस्साहस'; I पूर्व साहस । 18 sJd लुप्तव्यवायः । 19 savl प्रव्रजेदापृच्छय धर्मखान%; svl °दापृच्छय भर्मस्थान । 204 सुजातादन्यः । सटि. कौट० अर्थ.8 25 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् यिकादन्यः समा(म)यानुबन्धो नास्य जनपदमभिनिवेशेत । न च तवररामा विहारार्था वा शालाः स्युः। नटनर्तकगायनवादकवाग्जीवनकुशीलवा वा न कर्मविघ्नं कुर्युः । निराश्रयत्वाद्रामाणां क्षेत्राभिरामंत्वाच्च पुरुषाणां कोशविष्टिद्रव्यधान्यरसवृद्धि5 भ(भवति । परचक्राटवीग्रस्तं व्याधिदुर्भिक्षपीडितम् । देश(शं) परिहरेद्राजा व्ययक्रीडाश्च वर्जयेत् ॥ दण्डविष्टिकराबाधै रक्षेदुपहतां कृषिम् । स्तेनव्यालविषग्राहैयाधिभिश्च पशुव्रजान् ॥ वल्लभैः कामिकैस्स्तेनैरन्तपालै[ ४२ प्र.श्च पीडितम् । शोधयेत् पशुसंधैश्च क्षीयमाणं [वणिक्पथम् ॥ एवं द्रव्यद्विपवनं सेतुबन्धमथाकरान् । रक्षेत् पूर्वकृतान् राजा नवांश्चाभिप्रवर्तयेत् ॥ ॥ इति अध्यक्षप्रचारे द्वितीयेऽधिकरणे प्रथमोऽध्यायः ॥ जनपदनिवेशः ॥ [भूमिच्छिद्रापिधानम् ।] अकृष्यायां भूमौ पशुभ्यो विधीतानि प्रयच्छेत् । प्रदिष्टाभयस्थावरजङ्गमानि च ब्रह्मसोमारण्यानि तपस्विभ्यो गोरुतपराणि प्रयच्छेत् । तावन्मात्रमेकद्वारं खातगुप्तं स्वादुफललतागुल्मगुच्छमकंटकिदुममुत्तानतोयाशयं दांतमृगचतुष्पदं भग्ननखदं [ ४२ द्वि. ] ष्ट्रव्यालं" मार्गयुकहस्ति20 हस्तिनीकलभं मृगवनं विहारार्थ राज्ञः कारयेत् । सर्वातिथिमृगं प्रत्यंते चान्यत् मृगवनं भूमिवशेन वा निवेशयेत् । कुष्यप्रदिष्टानां च द्रव्याणां तरूणामेकैकशो वनानि निवेशयेत् । द्रव्यवनकांतानटवीश्च द्रव्यवनापाश्रयाः। प्रत्यंते हस्तिवनमटव्या रक्षं" निवेशयेत् । नागवनाध्यक्षः पार्वतं नादेयं सारसमानूपं च नागवनं विदितर्पयन्तप्र 1 savld सामुत्थाय का; svl सामुत्थायिका। 2 SIG वा नास्य । 3 SIG °मुपनिवेशेत । 4 sJ तत्रारामविहारार्थाः; svl तत्रारामा। 5 SIG 'वा' नास्ति। 6 sJG नर्तन। 7 SIG क्षेत्राभिरतत्वात् । 8 SJG वारयेत् । 9 SI द्रव्यं द्विपवनम् । 10 SJ जनपदनिवेशः प्रथमोऽध्यायः । आदितो द्वाविंशः; G प्रजनं आदितो द्वाविंशः। 11 8JG विवीतानि । 12 SIG ब्राह्मणेभ्यो ब्रह्मसोमारण्यानि । 13 SIG तपोवनानि च तपखिभ्यो। 14 savl गोत्र(त); svl Jvl गोरन्त; गोत्रक°। 15 SIG 'लता' नास्ति । 16 s व्याळमार्ग'; व्यालमार्ग । 17 sG मार्गायुक। 18 savl कलभ । 19 SIG 'तरूणा' नास्ति । 20 SIG वा वनम् । 21 SIvI रक्षन् ; Jivl रक्यम् । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् वेशनिष्कासं नागवनपालैः पालयेत् । हस्तिघातिनं [ ४३ प्र.] हन्युदन्तयुगं स्वयं मृतस्याहरतः सपादचतुष्पणो लाभः । नागवनपाला हस्तिपक-पादपाशिक-सैमिक-वनचरक-पारिकर्मिकसखाः हस्तिमूत्रपुरीषच्छन्नात्मगन्धा भल्लातकीशांखापत्रप्रच्छन्नाः पञ्चभिः सप्तभिर्वा हस्तिबन्धकीभिः सह चरन्तः शय्यास्थान[प]द्यालेंडनदीकूलघातोद्देशेन हस्तिकुलपर्यग्रं विद्युः । __ यूथचरमेकचरं नियूथं यूथपति हस्तिनं व्यालं मत्तं पोतं बद्धमुक्तं च निबन्धेन विद्युः। [ ४३ द्वि. ] अनीकस्थप्रमाणैः प्रशस्तव्यञ्जनाचारान् हस्तिनो गृह्णीयुः । हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञः । परानीकव्यूहदुर्गस्कंधावारप्रमर्दना ह्यतिप्रमाणशरीराः प्राणहरकर्मणो हस्तिनः। कालिङ्गागरजाः श्रेष्ठाः प्राच्याश्चेदि करूजाः। . दशार्णाश्चापरांताश्च गजानां" मध्यमा मताः॥ . सौराष्ट्रकाः पाञ्चनदास्तेषां प्रत्यवा(व)राः स्मृताः।। इति ॥ {उत्कलानां च देशस्य दक्षिणस्यार्णवस्य च । सह्यस्य च कलिंगस्य मध्ये कालिंगकं वनम् ॥ तथा। विदेशं नर्मदा चैव ब्रह्मवर्द्धनमित्यपि । मध्ये च पारियात्राणां वनं स्यादांगरेयकम् ॥ इति वनद्वयजाः श्रेष्ठाः। लोहित्यस्य प्रयाग[ ४४ प्र. ]स्य गंगाहिमवतोरपि । मध्ये प्राच्यं वनं तत्र संभवंति दिशां गजाः ॥ [तथा] मिकला त्रिपुरी चैव दशार्णो देश इत्यपि । उन्मत्तगंगामित्येषां मध्ये चेदिकरूषकम् ॥ तथा। 1 SIG °निष्कसनं; svl निष्कासम् । 2 SIG मृगस्याहरतः । 3 SIG 'आत्म' नास्ति । 4 SIG शाखप्रातिच्छन्नाः; avl शाखाप्रतिच्छन्नान् । 5 SIG °पद्यालण्डकूल । 6 SIG °कूलपातो'; svl कूलपोतो। '7 syl avl बन्ध; avl बद्धं मुक्तम् । 8 SIG राज्ञाम् । 9s प्राणहरकर्माणो। 10 SG हस्तिन इति । 11 s कलिग; JG कलिङ्ग। 12 SIG °गजाः। 13 SI प्राच्याश्चेति । 14 SIG करूशजाः। 15 SIG द्विपाना। 16 SIG सौराष्ट्रिकाः। 17 SIGvl पाञ्चजनाः। 18 SIG प्रत्यवराः । 19 SIG 'इति' नास्ति। ({1} एतचिहांकिताः श्लोकाः मुद्रितेषु पुस्तकेषु नोपलभ्यन्ते) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सटिप्पन कौटलीयमर्थशास्त्रम् देिशस्य च दशार्णानां ख्यातस्य च महागिरेः । विंध्याद्रेत्रवत्याश्च मध्ये दाशार्णकं वनम् ॥ तथा । अवंतीनां च देशस्य नर्मदायास्तथैव च । द्वारकार्बुदयोश्चैव मध्ये सौराष्ट्रकं वनम् ॥ कुरुक्षेत्रस्य देशस्य कालिकाकाननस्य च । सिंधोहिमवतश्चैव मध्ये पांचनदं वनम् ॥} सर्वेषां कर्मणा वीर्य' जवस्तेजश्च वर्धते ॥ ॥इति अध्यक्षप्रचारे द्वितीयेऽधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः। भूमिच्छिद्रापिधान ॥[४४द्वि.] [दुर्गविधानम् ।] चतुर्दिशं जनपदांते सांपरायिकं दैवकृतं दुर्ग कारयेत् । अन्तीपं स्थलं वा निम्नावरुद्धमौदकम् । प्रास्तरं गुही वा पार्वतम् निरुदकस्तम्बमिरिण वा धान्वनम् । खंजनोदकं स्तम्बगहनं वा वनदुर्गम् । तेषां नदीपर्वतदुर्ग जनपदारक्षस्थानम् । धान्वनं वनदुर्गमटवीस्थानमापद्य[प]सारों वेति । जनपदमध्ये समुदायस्थानं स्थानीयं निवेशयेत् । वास्तुकप्रशस्ते देशे नदीसङ्गमे हृदस्याविशोष्यस्याङ्के सरसस्तडागस्य वा वृत्तं दीर्घ चतुरस्रं वा वास्तुवशेन वा प्रदक्षिणोदकं पण्यपुटभेदनमंसर्पथवारिपथाभ्यामुपेतम् । तस्य परिखास्तिस्रो दण्डान्तरा द्विदंडातरों वा कारयेत् । चतुर्दश द्वादश दशेति दण्डान्" विस्तीर्णा विस्तरादवगाढाः पादोनमर्द्ध भूमिवशेने वा त्रिभागमूला मूलँचतुरस्रा वीं पाषाणोपहिताः पाषाणेष्टकाबद्धपार्था वा[४५ प्र.] तोयान्तिकीरागंतुतोयपूर्णा वा सपरिवाहाः पद्मग्राहवतीच । चतुर्दण्डावकृष्टं परिखायाः पदण्डोच्छ्रितमवरुद्धं द्विगुणविष्कम्भं खाताद्वप(पं) कारयेत् । उ(ऊ)चंचयं मश्चकैपृष्ठं कुम्भकुक्षिकं वा हस्तिभिर्गोभिश्च क्षुण्णं कण्टकि11 वीर्य। 2 SI भूमिच्छिद्रविधानं द्वितीयोऽध्यायः । आदितस्त्रयोविंशः; G द्वि' भूमि आदितत्रयोविंशः। 3 svlavl देवकृतं । 4J प्रस्तर; Jvl प्रास्तरं। 5 SIG गुहां खजनो'; svl खंजनो। '7 sJG स्थम्ब°। 8 sJG धान्वनवनदुर्ग। 9 savl आपाद्यप्रसारो; srlsa आपद्यप्रसारो। 10 sva 'इति' नास्ति। 11 SG समदय। 12 sa हदस्य वा अविशोष', svl हृदस्य वाटविशोष; I °वाविशोष । 13 SIG तटाक। 14 वास्तुक। 15 SIG 'वा' नास्ति । 16 SIG 'पथ' नास्ति । 17 svl °मपेतस्य। 18 SJG 'द्विदंडातरा वा नास्ति । 19 s दण्डानु; svl दण्डान् । 20 SIG विस्ताराद। 21 SIG °गाधाः। 22 SIG 'भूमिवशेन' नास्ति । 23 SIG मूले चतु। 24 SIG 'वा' नास्ति। 25 SG 'च' नास्ति; avl वतीश्च । 26 SIG तद्विगुण । 27 JG मचपृष्ठं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् ६१ गुल्मविषवल्लीप्रतानवन्तम् । पांशुशेषेणं वास्तुच्छिद्रं राजभवनं वा पूरयेत् । वप्रस्योपरि प्राकारं विष्कम्भद्विगुणोत्सेधमैष्टकं द्वादशहस्तादूर्ध्वमोज - युग्मं वा आचतुर्विंशतिहस्तादिति कारयेत् । रथचर्यासञ्चारं तालमूलं मुरजकैः कपिशीर्षकैश्चाचिताग्रम् । पृथुशिलासंहतं वा शैलं नत्वेव काष्ठमयं कारयेत् । अग्निरवहि [ तो हि] तस्मिन् वसति । विष्कम्भचतुरस्रमट्टालकमुत्सेधसमावक्षेपसोपानं कारयेत् । द्वयोरट्टालकयोर्म्मध्ये सहर्म्यद्वितलीमध्यर्द्धायामां मंतोलीं कारयेत् । अट्टालक[] ४५ द्वि.] प्रतोलीमध्ये त्रिधानुष्काधिष्ठानं सपिधानच्छिद्रफलकसंहतमिंद्रकोशं कारयेत् । अन्तरेषु द्विहस्तविष्कम्भं पार्श्वे चतुर्गुणायामं देवपथं कारयेत् । दण्डान्तरा 10 द्विदण्डान्तरा वा चैर्याः कारयेत् । अंग्राह्ये देशे प्रधावनिकी निष्किरद्वारं च । बहिर्जानु भंजनी [त्रि ] शूलप्रर्केर कूपकूटावपातकण्टकप्रतिसरा हिपृष्ठतालपत्र शृङ्गाटकश्वदंष्ट्रार्गलोपस्कन्न पादुकाम्बरीपकोदपानकैः प्रतिच्छन्नं" छन्नपथं कारयेत् । प्राकारमुभयतो मेंढकैमध्यर्धदंडं कृत्वा प्रतोलीषट्तुलांतरं द्वारं निवे- 1 शयेत् । पञ्चदण्डादेकोत्तरमा अष्टदण्डादिति चतुरस्रं षड्भागमायामादधिकमष्टभागं वा । पञ्चदशहस्तादेकोत्तरमा ४६ प्र. ] अष्टादशहस्तादिति तैलोत्सेधः । स्तम्भस्य परिक्षेपः षडायामी द्विगुणो निखातश्चलिकायाश्चतुर्थो भागोवेति" । आदितलस्य पंचभागाः शाला वापी सीमागृहं च । दशभागिकौ द्वौ प्रति मंचौ । तद्यथा । एवं भागास्तले कार्याः प्रत्यंशं पंचकोष्ठकाः । यथायोगं विभागोऽत्र शालासीमागृहादिषु ॥ 1 sJo पांसु । 2 SJ विशेषेण । 3 SJG 'राजभवनं' नास्ति । 4 SJC ओजं युग्मम् । 5 Grl °चारचिताग्रम् | 6 sJ सहितं; a संहितं । 7 SJG शैलं कारयेत् । न त्वेव काष्ठमयमग्नि ं । 8 SJ द्वितयर्धायाम; Jvl मर्धायामां । 9s प्रतोळीं । 10 svla सापधान । 11 sJa 'मितीन्द्रकोशं । 12 sJG चतुर्गुणायाममनुप्राकारमष्टहस्तायतं देवपथं । 13 sJ चर्या ; svl चर्याः; वाचार्याः । 14 sJ आप्राये । 15 sra प्रधावितिकां । 16 sJ निष्कुर'; svl निष्कर; निष्कुह । 17s भगिनीं; svl 'भयञ्जनी | 18 SJ त्रिशूलप्रकारकूश' ; svl आशूलप्रकर कूपकूश । 19s ळोप | 20 SJG स्कन्दन° । 21 sJa षोदपानकैः । 22 sJG 'प्रतिच्छन्नं' नास्ति । 23 SJ मण्डलक; svl मण्डक; G मण्डपक । 24 sJG उत्तरवृद्ध्याऽष्टदण्डा । 25 sJvl षमागायामा; Jvl षङ्गागममा । 26 तुलो | 27 svl क्षेप | 28 svl षडायामो; J लषडायामो । 29 sJa चतुर्भागः । 30 SJC 'वेति' नास्ति । 31 BIG 'तद्यथा' इत आरभ्य 'कोष्ठकत्रयम्' इत्यन्तः पाठो नास्ति । 20 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 अन्तरमाणीहर्म्य च । समुच्छ्रयादर्द्धतले स्थूणावन्धंश्च । अर्द्धवास्तुकमुत्तमागारं त्रिभागोत्तरं वा । इष्टकावबर्द्धपार्श्व वामतः [ ४६ द्वि. ] प्रदक्षिणसोपानम् । गूढभित्तिसोपानमितरतो द्विहस्तं तोरणशिरः । त्रिपंचभागिकौ द्वौ ' कपाटयोगौ द्वौ परिघाविति । अरत्निरिन्द्रकीलक इति" । पञ्चहस्तमी - णिद्वारं चत्वारो हस्तिपरिघा इति । निवेशार्द्ध" हस्तिनखम् " । मुखसमः " सङ्क्रमः संहार्यो भूमिमयो वा निरुदके । 15 ६२ 20 सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् कोष्ठकस्य त्रिभित्र्यंशैः कोष्ठको जायतेऽत्र तु । त्रिभिः षडंशैः कोष्ठार्द्ध पादोऽपि द्वादशांशकैः ॥ युक्ता कोष्ठयं त्र्यंशैरुभयोः पार्श्वयोरपि । पंचकोष्ठा भवेद्वापी मध्ये व कोष्ठकत्रयम् ॥ प्राकारसमं मुखमवस्थाप्य त्रिभागगोधामुखं गोपुरं कारयेत् । प्राकारमध्ये वापीं कृत्वा पुष्करिणीद्वारम्" । चतुःशालमध्यर्द्धविवृतां[४७प्र.] तरं साणिकं" कुमारीपुरम् । मुंडहर्म्यद्वितलं मुण्डकद्वारम्" । भूमिद्रव्यवशेन वा निवेशयेत् । त्रिभागाधिकायामी भांडवाहिनीः कुल्या [:] कारयेत् । तासु पाषाणः कुद्दालाः कुठारीकाण्डकल्पनाः । मुबुंढी" मुद्गरा दण्डीश्चकयंत्रशतघ्नयः ॥ कार्याः कर्मारिकाशूला वेधनाग्राश्च वेणवः । उष्ट्रग्रीव्यग्निसंयोगाः कुप्यकल्पे च यो विधिः" ॥ ॥ इति अध्यक्षप्रचारे द्वितीयेऽधिकरणे द्वि(तृ) तीयोऽध्यायः । दुर्ग विधानम्" ॥ 1 s अन्तरामाणि; व अंतरम् आणिः । 2 sJG तलं । 3 sJG गावबन्धश्च । 4 sJG आर्धवास्तुक ं । 5 SIG त्रिभागान्तरं । 6SJ 'बन्धपार्श्व | 7 svl द्वौ द्वौ । 8 SJG कवाट । 9 SIG द्वौ द्वौ । 10 sJG 'इति' नास्ति । 11 sJG " क इति' नास्ति । 12 SJG मणि द्वारं । 13 SJG 'इति' नास्ति । 14 sJ निवेशार्थं । 15 sJG 'नखः । 16 sJa असंहार्यो वा । 17 sJG कृत्वा वाप । 18 srd पुष्करिणीं द्वारं; svl 'रिणीद्वार; °रिणीं । द्वारचतुःशालमध्य' । 19 sJG मध्यर्धान्तराणीकं; svl 'मध्यर्धाववृत्तान्तरमाणिकं मध्यर्धाराणीकं । 20 sJG हर्म्य द्वितलं मुण्डक; svl हर्म्यद्वि । 21 sJG 'निवेशयेत्' नास्ति । 22 SJ °यामाः | 23BJG पाषाणकुट्टा°। 24 SJG कुद्दालकुठारी° 25 so मुसृण्ठि; svl मुसृण्ठी; J भुशुण्डी । 26 sJG दण्डचक्र । 27 BIG कार्मारिका । 28 शूलवेधना । 29sJG ग्रीव्योऽग्नि 30s Jvl योsवधिः । 31 SJ दुर्गविधानं तृतीयोध्यायः; । आदितश्चतुर्विंशः ; G तृदु आदि । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [ दुर्गनिवेशः।] त्रयः प्राची[४७ द्वि.]ना राजमार्गास्त्रय उदीचीना इति वास्तुविभागः । द्वादशद्वारो युक्तोदक_मच्छन्नपथः । चतुर्दण्डान्तरा रथ्या राजमागर्गद्रोणमुखस्थानीयराष्ट्रविवीतपथाः । संयानीयव्यूहश्मशानग्रामपथाश्चाष्टौं दण्डा इति । चतुर्दण्डः सेतुवनपथः । द्विदण्डो हस्तिक्षेत्रपथः । पञ्चारत्नयो । रथपर्थः । द्वौ अरनी' क्षुद्रपशुमनुष्यपथः । प्रवीरे वास्तुनि राजनिवेशश्चातुर्वर्ण्यसमाजीवः । वास्तुहृदयादुत्तरे नवमे" भागे यथोक्तमन्तःपुरविधीनं प्राग्मुखमुदग्मुखं वा स्थापयेत् । तस्य पूर्वोत्तरं भागमाचार्यपुरोहितेज्यातोयस्थानं मंत्रिणश्चाधिवसेयुः। पूर्वदक्षिणभागं महानसं हस्तिशालाः कोष्ठागारं च । ततः ॥ परं गंधमाल्यधान्यरसपण्याः प्रसाधनकारवः । क्षत्रियर्थं पूर्व दिशमधिवसेयुः । दक्षिणपूर्वभागं भाण्डागारमक्षपटलं कर्मनिषद्याश्च । दक्षिणपश्चिमभा[४८ प्र. ]गं कुप्यगृहमायुधागारं च । ततः परं नगरधान्यव्यावहारिककान्तिकबलाध्यक्षाः 'पक्वान्नसुरामांसपण्याः रूपाजीवास्तालावचरा वैश्याश्च दक्षिणां दिशमधिवसेयुः। पश्चिमदक्षिणं भागं खरोष्ट्रगुप्तिस्थानं कर्मगृहं च ।। [पिश्चिमोत्तरभागं यानरथशालाः। ततः परमूर्णासूत्रवेणुचर्मवर्मशस्त्रावरणकारवश्शूद्राश्च पश्चिमां दिशमधिवसेयुः।] उत्तरपश्चिमं भागं पण्यभैषज्यगृहम् । उत्तरस(पूर्वभाग कोशो गवाश्वं च। ततः परं नगरराजदेवतालोहमणिकारवो ब्राह्मणाश्चोत्तरां दिशमधिवसेयुः। वास्तुच्छिद्रानुशालेषु श्रेणीप्रणिनिकाया वसेयुः। अपराजिताऽप्रतिहतजयंत वैजयन्त कोष्ठान शिववैश्रवणाश्विश्रीमदिरागृहाणि" च पुरमन्ये(ध्ये) कारयेत् । यथोद्देशं वास्तुदेवता[:] स्थापयेत् । ब्राहयैद्रयाम्यसैनापत्यानि द्वाराणि । बहिः परिखायाः धनुःशतावकृष्टाश्चैत्यपुण्यस्थानवनसेतुबन्धाः कार्याः । यथादिशं च दिग्देवताः। 20 1st स द्वादश। 2 SIG भूमि° 1 3 SJ सयोनीयः। 4 SIG श्वाष्टदण्डा। 5 SJG 'इति' नास्ति । 6 SIG स्थपथश्चत्वारः पशुपथः। 7 sJG 'अरनी' नास्ति । 8 5 निवेशाः; svl निवेशः। 9 sJG जीवे । 10 SJG नवभागे। 11 SG 'यथोक्तविधानमन्तःपुरविधानं' नास्ति । 12 SJG कारयेत् । 13 SIG आवसेयुः । 14 SJG दक्षिणं भागं। 15 SJG प्रधानकारवः। 16 SIG क्षत्रियाश्च । 17 8JG पूर्व भागं । 18 sJG °पश्चिमं भागं । 19 sJd काान्तिक । 20 ताळापचारा; J तालापचारा। 21 SI °दिशाम । 22 SG पूर्व भागं। 23 SIG °छिद्रानुलासेषु । 24 sIG प्रवहणी; svl प्रवहणि" 1 25 s आपराजिता। 26 SIG जयंतवैजयन्तकोष्ठकान् । 27 SIG गृहं । 28 SIG कोष्टकालयेषु यथोरेशं; svl कोठालेषु । 29svl परिषायाः। 30 शतापट्टष्टा । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् __ • उत्तरः पूर्वो वा श्मशानभागो वोत्तमानाम् । द[४८-द्वि. ]क्षिणेन इमशानं वर्णावराणाम् । तस्यातिक्रमे पूर्वः साहसदंडः। पापं(पं)ड-चण्डालानां श्मशानांते निवासः। . कर्मान्तक्षेत्रवशेन कुटुंबिनां सीमानं स्थापयेत् । तेषु पुष्पफलवाटधान्यपण्यनिचयांश्चानुज्ञाताः कुर्युः । दशकुलीवाट कूपीस्थानम् । सर्वस्नेहधान्यक्षारलवणगंधभैषज्यशुष्कशाकयवसवल्लूरतृणकाष्ठलोहचङ्गिारस्नायुविषविषाणवेणुवल्क[ल]सारदारुपहरणावरणाश्मनिचयाननेकवपभोगसहान् कारयेत् । नवेन वा नवं शोधयेत् ।। हस्त्यश्वरथपदातमनेकमुख्यं च स्था[४९ प्र.]पयेत् । अनेकमुख्यं हि " परस्परभयात्परोपजातं(पं) नोपैति" । एतेनांतपालदुर्गसंस्कारा व्याख्याताः। न च बाहिरिकां कुर्यात्पुरराष्ट्रोपघातिकान् । क्षिपेजनपदे चैतां सर्वान् वा दापयेत् करान् ॥ ॥ इति अध्यक्षप्रचारे द्वितीयेऽधिकरणे चतुर्थोऽध्यायः ॥ दुर्गनिवेशः ॥ [ सन्निधातृचेयकर्म।] 15 सन्निधाता कोशगृहं कोष्ठागारं "पण्यगृहं कुप्यगृहमायुधागारं बन्धनागारं च कारयेत् । चतुरस्रामैनुदकोपस्नेहां वापी खानयित्वा पृथुशिलाभिरुभयतः पाचमूलं च प्रचित्य सारदारुपञ्जरं भूमिसमं त्रितलमनेकविधानं कुट्टिम[ ४९ द्वि.]देशस्थानतलमेकद्वारं यन्त्रयुक्तसोपानं भूमिगृहं कारयेत् । " तस्योपर्युभयतोनिषेधं सप्रेग्रीवमैष्टकं भाण्डवाहिनीपरिक्षिप्तं कोशगृहं कारयेत् प्र(प्रा)सादं च। जनपदान्ते ध्रुवनिधिमापदर्थमभित्यक्तैः कारयेत् । पक्वेष्टकास्तम्भचतुःशालमेकद्वारमनेकस्थानतलं विवृतस्तंभापसारमुभयतः पण्यगृहम् । कोष्ठागारं च दीर्घबहुशालम् । कक्षावृतकुड्यमन्तःकुप्यगृहम् । 1 SIG श्मशानवाटः । 2 SJ दक्षिणेन वर्णोत्तराणाम् ; a वोत्तमानाम् । 3 SIG °ते वासः । 4_SIG °वशेन वा कुटुम्बिनां। 5 sJG °वाटषण्डकेदारान् धान्य । 6 SJG कूपस्थानं । 7 sJG 'गंध' नास्ति । 8 svlG नवेनानवं। 9 SIG °रथपादातम् । 10 SIG मुख्यमवस्थापयेत् । 11 sJG नोपैतीति । 12 SIG °घातकान् । 13 SJ दुर्गनिवेशः चतुर्थोऽध्यायः आदितः पश्चविंशः; 4 चतुर्थों दुर्ग भादित। 14 SIG पण्यगृह कोष्ठागारं । 15 SIG चतुरश्रां वापीमनुदको । 16 SI 'सोपानं देवताविधानं (G पिधानं) भूमि । 17 ss सवप्रग्रीव। 18 SIG प्रासादं वा । 19 svl °भियुक्तः । 20 SIG पुरुषैः कारयेत् । 21 SIG 'स्तम्भं चतुः। 22 SIG बहुलबार्सि। 23 SIG कराया। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् तदेव भूमिगृहयुक्तमायुधागारम् । पृथग्धर्मस्थीर्यमहामात्रीयम् । विभक्तस्त्रीपुरुषस्थानमपराधतः' सुगुप्तकक्षं बन्धनागारं कारयेत् । [ सर्वेषां शालाखातोदपानवच्च स्नानगृहाग्निविषत्राणमार्जारनकुलारक्षास्था दैवपूजनवृत्ताः (svl. युक्ताः ) कारयेत् । ] कोष्ठागारे वर्षमानमरत्निमुखं कुण्डं स्थापयेत् । तज्जातकरणाधिष्ठितः पुराणं नवं वा रत्नं सा[ ५० प्र. ]रं फल्गुकुप्यं वा प्रतिगृह्णीयात् । तत्र रत्नोपधावुत्तमो दण्डः कर्तुः कारयितुश्च सारोपधौ मध्यमः फल्गुकुप्योपधौ तच्च तावच्च दण्डः । रूपदर्शकविशुद्धं हिरण्यं प्रतिगृह्णीयात् । अशुद्धं छेदयेत् । आहर्तु[:] पूर्वः साहसदण्डः । शुद्धं पूर्णमभिनवं च धान्यं प्रतिगृह्णीयात् । विपर्यये मूल्यद्विगुणो दंडः । एतेन पण्यं कुप्यमायुधं च व्याख्यातम् । ६५ तस्मादाप्तपुरुषाधिष्ठितः सन्निधाता [ ५० द्वि.] निचयानैनुतिष्ठेत् । बाह्यमाभ्यन्तरं चायं विद्याद्वर्षशतादपि । यथा पृष्टो न सज्जेत व्यये शेषे च संचये ॥ ॥ इति अध्यक्ष प्रचारे द्वितीयेऽधिकरणे" पञ्चमोऽध्यायः " ॥ सर्वाधिकरणेष्वार्युक्तोपयुक्ततत्पुरुषाणां पणद्विपणचतुः पर्णपरमापहारेषु पूर्वमध्यमोत्तमवधा दण्डा[:] । कोशाधिष्ठितस्य कोशावच्छेदे घातः । तद्वैयावृत्यर्कराणामर्द्धदण्डाः । परिभाषणमविज्ञाते" चौराणामभिप्रधर्षणे ।" चित्रो घातः । 15 * [ समाहर्तृसमुदयप्रस्थापनम् । ] समाहती दुर्ग राष्ट्रं खनिं सेतुं वनं ब्रजं वणिक्पथं चाव (वे) क्षेत् । 1 sJa स्थीयं महा' | 2 SJG ° स्थानमपसारतः । 3 SJG कक्ष्यं । 4 sJG च । ( + एषा पंक्ति: मूलादर्श नोपलब्धा । ) 5 sJG तेन । 6 SJG 'करणेषु युक्तो' । 7s पणादिचतुष्पणाः; svl पद्विपणचतुष्पण पर; पणादि चतुष्पणपरमा; पणद्विपणचतुष्पणपणाः । 8 SJC °त्यकाराणाम' । 9 SJG दण्डः । 10 svlJ विज्ञाने । 11 sJG चोराणा° । 12 SJG निचयानानुतिष्ठेत् । 13 sJG व्ययशेषं च दर्शयेत् । 14s 'द्वितीयेऽधिकरणे' नास्ति । 15s सन्निधातृनिचयकर्मः पञ्चमोध्याय आदितः षट्त्रिंशः, पचमो° सन्नि आदितः । 16 sJG चावेक्षेत । सहि० कौट० अर्थ. 9 10 20 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • शुल्कं दण्डा' पौतवं नागरिको लक्षणाध्यक्षो मुद्राध्यक्षः सुरा सूना सूत्रं तैलं घृतं क्षारः सौवर्णिकः पण्यसंस्था वेश्या द्यूतं वास्तुकं कारुशिल्पिगणौ देवताध्यक्षो द्वारं बाहिरिकादेयां च दुर्गम् । सीता भागो बलिः का५१प्र.रो वणिक् नदीपालस्तरो नावः पत्तनं विवीतं वर्तनी रज्जुश्चौररज्जुश्च राष्ट्रम् । - सुवर्णरजतवज्रमणिमुक्ताप्रवालशङ्खलोहलवणभूमिप्रस्तररसधातवः खनिः। पुष्पफलवाटखण्डकेदारमूलकंदवापासेतुः। पशुमृगद्रव्यहस्तिवनपरिग्रहो वनम् । गोमहिषमजाविकं खरोष्ट्रमश्वाश्वतरं च व्रजः। स्थलपथो वारिपथश्च वणिक्पथः । इत्यायशरीरम् । मूल्यं भागो व्याजी परिघः क्लृप्तं रूपकमत्ययश्चायमुखम् । देवपितृपूजादानार्थ स्वस्तिवाचनमंतःपुरं" महानसं [५१ द्वि.] दूरत(?) प्रावर्तिम" कोष्ठागारमायुधागारं पण्यगृह" कान्तो विष्टिः पत्त्यश्वरथद्विपपरिग्रहो गोमण्डलं पशुमृगपक्षिव्यालवाटाः काष्ठतृणवाटाश्चेति व्ययशरीरम । राजवर्ष मासः पक्षो दिवसश्च व्युष्टम् । वर्षाहेमन्त ग्रीष्माणां तृतीय" सप्तमा दिवसोनाः पक्षाः । शेषाः पूर्णाः पृथगधिमासक इति कालः । करणीयं सिद्धं शेषम् । आय-व्ययौ नीवी च । संस्थानं प्रचारः शरीरावस्थापनमादानं सर्व[स]मुदयपिंडः सञ्जातमेतत्करणीयम् । कोशार्पितं राजहारः पुरव्ययश्चाप्रविष्टं परमसंवत्सरानुवृत्तं शासनमुक्तं मुखाज्ञप्तं चापैतनीयमेतत् सिद्धम् । 20 सिद्धिकर्मयोगो दण्डशेषमाहरणीयम्। बलात्कृतप्रतिष्टब्धमवमृष्टं च प्रांशोध्यमेतच्छेषमसारमल्पसारं च।। वर्तमानः पर्युषितोऽन्यजातश्चायमिति । दिवसानुवृत्तो वर्तमानः। परमसांवत्सरिकः परप्र[५२ प्र.]चारसंक्रांतो वा पर्युषितः। नष्टप्रस्मृतमायुक्तदण्डः पार्श्व पारिहीणिकमौपायनिकं डमराँगतकस्वमपुत्रकं निधिश्चान्यजातः। 1 svl शुल्कदण्डः । 2 sJ क्षारं । 3 SIG शिल्पिगणो। 4 SIG द्वारबाहि । 'आदेयमिति सर्वत्र योज्यं' इति टिप्पणी। 5 SIG पट्टनं; svl पत्तनं। 6 8 प्रवाळ । 7 sJG 'कंद' नास्ति। 8 srG वापाः सेतुः। 9 SIG अश्वतराश्च । 10 SIG मूलं। 11 SIG रूपिकम। 12 8 °मन्तःपुरमहानस;.svl पुरम् । 13 SIG दूतप्रा। 14 SJG प्रावर्तनं; I प्रवर्तनं । 15.sJG कुप्यगृहं कर्मान्तो। 16 SIG °वाटश्चेति; svl वाटा। 17 SIG पिण्डसजात° । 18 JG श्वाप्रविष्टः; sG °श्व प्रविष्टं। 19 SIG चापातनीय। 20 SIG प्रकर्मयोगः। 21 SIG प्रतिस्तब्ध°। 22 SIG भवसृष्ट; svl °मप्रसृष्टं । 23 SIG प्रशोध्यम् । 24 SIG °चायः। 25 SIG डमरगतक'; svl उमरगतमृत° डमरगतमृत । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् विक्षेपव्याधितांतरारंभशेषं च व्ययप्रत्यायः । विक्रये पण्यानामर्घवृद्धिरुपजा मानोन्मानविशेषो व्याजी क्रयसङ्घर्षे वाऽर्घवृद्धिरित्यायः । नित्यो नित्यौत्पादिको लाभो लाभौत्पादिक इति व्ययः । • दिवसानुवृत्तो नित्यः । पक्षमाससंवत्सरलाभो लाभः । तयोरुत्पन्नो नित्यौत्पादिको लाभौत्पादिक इति व्ययः । संजातादायव्ययविशुद्धा नीवी । प्राप्ता चानुवृत्ता चं । एवं कुर्यात्समुदयं वृद्धिं चायस्य दर्शयेत् । ह्रासं व्ययस्य च प्राज्ञः साधयेच्च विपर्ययमिति ॥ ॥ इति अध्यक्षप्रचारे द्वितीयेऽधिकरणे" षष्ठोऽध्यायः । समाहर्तृसमुदयप्रस्थापनम् ॥ ॥ * ६७ [ अक्षपटले गाणनिक्याधिकारः । ] अक्षपटलमध्यक्षः प्राग्मुखमुदग्मुखं वा विभक्तोपस्थानं निबन्ध[५२ द्वि.] पुस्तकस्थानं कारयेत् । तत्राधिकरणानां सङ्ख्यामँचारसञ्जाताग्रम् । कर्म्मान्तानां द्रव्यप्रयोगवृंद्धिक्षयव्ययप्रयामव्याजीयोगस्थानवेतनविष्टिप्रमाणम् । रत्नसारफल्गुकुप्याना - 15 मर्घप्रतिवर्णकमानप्रतिमानोन्मानावमनभाण्डम् । देशग्रामजातिकुलसंघानां " धर्मव्यवहारचरित्र[सं]स्थानम् । राजोपजीविनां प्रग्रहप्रदेश भाग परिहार भक्तवेतनलाभम् । राज्ञश्च पत्नीपुत्राणां साररत्नभूमिलाभ” निर्देशोत्पातिकप्रतीकारलाभम् । मित्रामित्राणां च सन्धिविग्रहप्रदानादीनं निबन्धपुस्तकस्थं का[ ५३ प्र. ]रयेत् । ततः सर्वाधिकरणानां करणीयं सिद्धं शेषमायव्ययौ नीवीमुपस्थानं प्रचारं चरित्रं संस्थानं च निबन्धेन प्रयच्छेत् । उत्तममध्यमावरेषु च कर्म्मसु तज्जातिकमध्यक्षं कुर्यात् । सामुदायिकेष्ववक्लृप्तिकं [ व्य] यमुपहत्य राजा नानुतप्येतेति" । 1 sJca ° शेषश्च । 2 SJ प्रत्ययः | 3 SJG वा वृद्धिरित्यायः । 4 sJG नित्यो । 5 sJG लाभो । 6 sJa नित्यो° । 7 sJG लाभो° । 8 s इति व्ययसंजात । 9 SJC चेति । 10 sJG 'इति' नास्ति । 11 s 'द्वितीयेऽधिकरणे' नास्ति । 12 sJ समाहर्तुसमुदयप्रस्थापनं षष्ठोऽध्यायः आदितः सप्तविंशः; ७ षष्ठो° समाहर्तु आदितः । 13 प्रत्यङ्मुखः; svl प्राङ्मुख' । 14 sJ सख्यां प्रचार° । 15 sJG प्रयोगे वृद्धि | 16 SJG 'वर्णकप्रतिमानमानोन्माना। 17s °मानावामानभाण्डं मानोन्मानभाण्डं | 18s संघातानां । 19sJG भोग । 20 sJG 'सार' नास्ति । 21 s लाभनिर्देशो°। 22 G निर्देशौत्पादिक° | 23 sJG 'विक्रम' | 24 SJ दानानि ; svl दानं । 25 sJo प्रचारचरित्रसंस्थानं | 26 sJ समुदायि । 27 sJG राजाऽनुतं । 28 sJG 'इति' नास्ति । 20 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् • सहग्राहिणः प्रतिभुवः कर्मोपजीविनः पुत्रा भ्रातरों भार्या दुहितरो । भृत्याश्चास्य कर्मच्छेदं वहेयुः। त्रिशती' चतुःपंचाशच्चाहोरात्राणां कर्मसंवत्सरः। तमा[षा]ढीपर्यवसानमूनं पूर्ण वा दद्यात् । करणाधिष्ठितमधिमासकं कुर्यात् । । अवसाधिष्ठितं च [५३ द्वि.] प्रचारं प्रचारचरित्रसंस्थानान्यनुपलभमानी हि प्रकृतः समुदयमज्ञानेन परिहापयति । उत्थानक्लेशासहत्वादालस्येन । शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषु प्रसक्तः प्रमादेन । संक्रोशाधानर्थभीरर्भयेन । कार्यार्थिप्वनुग्रहबुद्धिः कामेन । हिंसाबुद्धिः कोपेन । विद्याद्रव्यवल्लभापाश्रयादर्पण । तुलामानतर्कगणितांतरोपधानाल्लोभेन । तेषामानुपूर्व्या यावानर्थोपघातस्तावानेकोत्तरो दण्ड इति मानवाः । सर्वत्राष्टगुण इति पारासराः। दशगुणं [इति] बार्हस्पत्याः। विंशतिगुण इत्यौशनसाः । यथापराधमिति कौटल्यः। . गाणनिक्याल्पाढीमागच्छेयुः। आगतानां समुद्रपुस्तकभाण्डनीवी'कानामेकंत्रासम्भाषा[५४ प्र.वरोधं कारयेत् । आयव्ययनीवीनामग्राणि श्रुत्वा 15 नीवीमहारयेत् । यच्चानादायस्यान्तरपणे" नीव्यां" वर्द्धत व्ययस्य वा तत्परिहापयेत् । तदष्टगुणमध्यक्षं दापयेत् । विपर्यये तदेव प्रति स्यात् । यथाकालमनागतानामपुस्तकभांडनीवीकानां वा देयदशबन्धो दण्डः। कार्मिके चोपस्थिते कारणिकस्याप्रतिबनतः पूर्वसाहसदण्डः । विपर्यये कार्मिकस्य द्विगुणः । प्राचारसमं महामात्राः समग्राः श्रावयेयुरविषममन्त्राः पृथ. ग्भूतो मिथ्यावादी चैषामुत्तमं दण्डं दद्यात् । अकृताहोरूपहरं मासमाकांक्षेत्" । मासादूर्द्ध मासद्विशतोत्तरं दण्डं दद्यात् । ___अल्पशेषलेख्यनीवीकं पंचरात्रमाकांक्षेत। ततः परं कोशपू ५४ द्वि.... [इतोऽग्रे पुस्तिका त्रुटिता । केवलं ६४ तममेकं पत्रमुपलभ्यते । तत्र च निम्नावतारितः पाठः पठ्यते ।] 1 SIG त्रिशतं । 2 SIG अपसर्पा । 3 sJG 'प्रसक्तः' नास्ति । 4 SIG °गणिकान्त । 5 SJG पाराशराः। 6 SJG गुंणः। 7 SJG निकयान्या 18 sa पुस्तभाण्ड198 मेकत्र सम्भा। 10 SIG °मवहारयेत् । 11 °न्तरवणे। 12 SIG निव्या। 13 SIG तमेव। 14 sa पुस्तनीविकानां । 15 ss °मन्त्रः; G °मात्राः। 16 SIG °मुत्तमदण्डं। 17 SI काखेत। 18 SI नीविक; svl नीवीकं । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् [२ अधि० १० अध्या० २९ प्रक० कोशप्रवेश्यरत्नपरीक्षाधिकारगतमिदं वर्णनं ज्ञेयम् । ] . ति । शुद्धा मणिमध्या वा यष्टिः । हेममणिचित्रा रत्नावली । हेममणिमुक्तान्तरोपवर्तकः । सुवर्णसूत्रान्तरं सोपानकम् । मणिमध्यं वा मणिसोपानकम् । तेन शिरोहस्तपादकटीकलापजालकविकल्पा व्याख्याताः । 5 मणिः कौटो मीलेयकः पारसमुद्रश्च । सौगंधिकः पद्मानवद्यरागः पारिजातपुष्पको बालसूर्यकः 'पंचधा पद्मरागः । वैडूर्य उत्पलवर्णः शिरीषपुष्पक उदकवर्णी वंशरागः शुकपत्रवर्णः पुष्परागो गोमूत्रको गोमेदकः । शुद्धस्फटिको मूलाटीवर्णः । इंद्रनीलो" नीलावलीयकः कलायपुष्पकः । महानीलो जंब्वाभो जीमूतप्रभः । नंदकः स्रवन्मध्यैः शीतवृष्टिः सूर्यकांतश्चेति मणयः । " पश्रिश्चतुरस्रो वृत्तो वा ती[ ६३ प्र. ]वरागः संस्थानवानच्छः स्निग्धो गुरुरचिष्मांनंतर गतप्रभः प्रभानुलेपी चेति मणिगुणाः । ६९ मन्दरागप्रभः सशर्करः पुष्पच्छिद्रः खंडो दुर्विद्धो लेखाकीर्ण इति दोषाः । विमलकः सस्यकों जनमूलकः पित्तकः सुलभको लोहिताक्षो" मृगाश्मको ज्योतीरसको मालेयकोर्डे हिच्छत्रकः कूर्पप्रतिकूपः सुगंधिकूपः । क्षीरयकैः 15 शुक्तिचूर्णकः शिलाप्रवालकः पुलकः शुक्लपुलकः इत्यन्तरजातयः । शेषाः काचमणयः । सभाराष्ट्रकं तर्जमाराष्ट्रकं कास्तीरराष्ट्रकं श्रीकटनकं मौणिमन्तकं इंद्रवानकं च वज्रम् । खनिः स्रोतः प्रकीर्णकं च योनयः । माजराक्षकं " शिरीषपुष्पकं गोमूत्रकं गोमेदकं शुद्धस्फटिकं मूलीटीवर्णम् । [ ६४ द्वि.] * * * 1 $JQ °लि । 2 $JG शुद्धा । सैव मणि । 3 sa 'वा' नास्ति । 4 svl ° कटि । 5 sx मौलेयकः ; sv l मालेयकः । 6 SIG ° मुद्रकश्च । 7 sJG पद्मरागः अनवद्यरागः; sv] पद्मानवयरागः । 8 s ‘पंचधा पद्मरागः' नास्ति । 9 sJG 'शुद्ध... वर्णः ' नास्ति । 10 sra नीलावलीय (svl यक) इन्द्रनीलः । 11 sJG जाम्बवाभो । 12 G मध्यः । शुद्धस्फटिकः मूलाटवर्णः शीतवृष्टिः । 13 sJG षडन । 14 s°नुलोपी । 15 sJ लोहितकोऽमृतांशुको; G लोहिताक्षो मृगाश्मको । 16 sJa मैलेयक ं । 17 sra आहि' । 18 sa क्षीरपकः; svl J क्षीरबकः । 19s पुळकः । 20s शुक्रपुळकः; JG शुक्रपुलकः । 21 sJa मध्यमराष्ट्रकम् । 22 कारमक° [ कान्तीर° ] svlJ काश्मीर'; a कास्तीर° । 23 sJG मणि° । 24 sJG च शिरीष । 25 sJG मूलाटीपुष्पक ( syl पुष्प ) वर्णम् । 20 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयविशिष्टार्थबोधकपदानां टिप्पणीनिर्दिष्टव्याख्योपेतशब्दानामकाराद्यनुक्रमेण सूचिः । * अग्न्यागारगत होमशालास्थित° ४८ | आशुम्लानत्व हरितानामप्युत्पक्कभाव ५३ अपचरन्तम् वाक्पारुष्यादिभिरुद्वेजयन्तम् १२ आहार्यबुद्धि आचार्यादिभिः प्रतिक्षणमाअपसार कलत्रस्थान ३४ हार्या बुद्धिर्यस्य ४२ अपरुद्ध परिवर्जितपुत्रादि० २५ इतिवृत्त इति राज्ञो वृत्तं नयानयाभ्यो संपअपायनित्य अपायहेतुषु कामादिव्यसनेषु _ त्तिविपत्तिप्रदर्शनार्थ भारतरामायणादि ९ ___ नित्यप्रवृत्त ४२ | इष्टेषु स्मरणम् परस्य संपन्नेषु दूतस्य स्मरणम् ३५ अभ्यन्तरविहार अंतःपुरादि° १७ उत्थित खव्यापारे सततोद्युक्त° ४५ अभ्युदय पुत्रजन्मादि २५ | उदकान्त° तटद्वय अमेध्या अकृतशरीरसंस्कारा निम्बपलाण्डु- उदास्थितः उदित्युत्कर्षवाचित्वान्मोक्ष एब भक्षणावलेपनादिभिर्दुर्गन्धा तस्मादास्थितः प्रतिनिवृत्तः . १८ अमृष्यमाण° असहनतया प्रतिपद्यमान° १५ | उद्देशः प्रदेशो मंत्रणागार' अत्यक्त° अदुष्ट | उन्मादाग्निः अनभिलक्षितशिरोवेदनादिः अद्वारासंग प्रवेशनिषेधाभाव | उपधा त्रिवर्गभयालंबना उपजापोक्ति अथोपाय दंडनीत्याभिहितसामादि° १५ उष्णीष° उष्णीषाः सर्वमुखव्यापीनि शिरोअर्थजात निंबकल्कगोमूत्रकर्पूरादि° ४१ | वेष्टनानि ५२ अर्थानुशासन प्रजानां करणीयार्थशिक्षण ४९ ना करणायाथाशक्षण° ४९ | एकप्रग्रह राज्ञा समानचिन्हमानार्ह अनासन्न कार्यादिव्यवहित° | एकलोष्टवध पितृघाति ४२ अनुलेपन कुंकुमादि० | औपकारिक इति उपकारदर्शन अन्तर्वशिक अंतःपुरे नियुक्त २१ औपपादुक उत्पाद्य यो राजा न भवत्यथ अनन्त्य मोक्ष ७ च राजयुक्तश्चंद्रगुप्तसम १६ अवग्रह ज्ञातिवर्ग १४ | कञ्चक कञ्चुका आप्रपदीनाः कूर्पासकाः ५२ अवसर्प मंत्र्यादिपुत्र ४५ कल्पक केशनखच्छेदकर्ता अंगविद्या शुभाशुभसूचक २० कक्षान्तर प्राकारमूल आचूषति तन्मयं भवति कार्तान्तिक कृतान्तः सिद्धान्तः स्त्रीपुरुषआटविक° प्रचंड ३७ लक्षणज्ञानफलं तमधीयते २६ आत्मप्रिय मृगयादिव्यसन ४८ कपटेन चरति आत्मवान् गृहीतविद्यः कृतवृद्धसंयोगः सुवि- कापाटक पूर्वोकगूढपुरुषयताभिज्ञः ४१ शुद्धामात्यसंपन्न उपगृहीतखपरपक्षो निश्चित कार्मान्तिक ये केचन खनिद्रव्यहस्तिवनामंत्रो रक्षितात्मपुत्रदार आत्मवान् ५५ दीनां कर्मान्ताः तेषु नियुक्तः २१ आत्ययिक विनाशोन्मुख° ३३ / कार्यानुशासनेन वर्णाश्रमाणामनुष्ठानानि आर्याव्यञ्जना घटदासी कृतकधृतकुल- तेषां शासनेन दंडनेन वा ___ स्त्रीवेषा ४१ कार्यारम्भ संधिदुर्गादिकार्याणामारंभ २९ आवेगः सर्वांगानामाकुलत्वम् ५४ किरात म्लेच्छजाति बर्बरशिराः आस्तरणप्रावरण तूलिकंबलादि° ५३ कुप्य काष्ठतृणलोहादि आसार° पाणिग्राहमित्र ३७ | कुल्य राज्ञः कुलोत्पन आशुक्लिष्ट' हस्तमृदित ५३ ] कुल्या देवीनां कुलभवाः स्त्रियो भ्रात्रादयः ५१ ५४ १८ ११ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ WWW 0.64 . 2MMM ३५ . १९ सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् कुहक मायायोगविद् ५१ नष्टरूपप्रच्छादितपूर्ववर्णवेषादि० कृतकर्मा कृतं बहुशः समरेषु अद्भुतं | नियम ब्रह्मचर्यैकभक्कादि० · कर्म येन ५२ नियोगसम्पद पुरुषबाहुल्य कृत्वाव्यय पण्यागारढोकनिकयाऽलब्ध. निर्वपन्ति राजोद्देशेन भूमौ यच्छन्ति समीहितकार्य २६ | निसृष्टार्थ निसृष्ट उत्सृष्टो नियमाभावाकृत्या परैरात्मसात् कर्तुं शक्यंत इति । २६. संधिविग्रहादिको अर्थो यस्य । 'गुप्तदेश नियुक्तव्यतिरिक्तानां अदृश्य । अदृश्य° ५२ प कुंकुमादि गुप्तपुत्रदारा निप्रहायोग्या २६ स्नेहक्षारलवणादि प्राम' शूद्रादिजातिसमूहो प्राम पराक्रम परेषां सारबलादिवधादाक्रमण ग्राम्यसुख ग्राम्यशब्देन शब्दस्पर्शरूपर- परिमितार्थ संधिर्विग्रहो वा कर्तव्य इति सगंधाभिधाना विषया साह्याः ग्रामाण परिमितो नियतोऽर्थो यस्य साधूनि प्राम्याणि विषयसुखानीत्यर्थः ४० परिवाप° पटकुटीच्छत्रासनार्थादि गृहीतपरिचय अभ्यास शालादि पुण्यस्थान तीर्थतडागादि चक्षुष्मान् शास्त्रचक्षुः पुण्यकर्म न्याय्य चक्र रोज्यचक्र चक्षु इन्द्रियकार्य पुरुष पौरुषयुक्त आयुधीयपुरुष पूगाः श्रेणीगणातंतुवायादीनाम् छिद्र रक्षाशैथिल्यं व्यसनादि वा जटिल° पाशुपतादि प्रगल्भा जितसभा जनपद जनाश्चातुर्वण्यं ते पद्यतेऽवस्थानं । प्रच्छन्न कुड्यान्तरित कुर्वति यस्मिन् असौ पृथ्वीभाग प्रतिदूत दूते अन्वागते यः संप्रेष्यते स प्रतिदूतः जाडली बौद्धप्रसिद्धा विद्या प्रतिपत्ति प्रतिभा-अविमर्शेऽपि यथाजीवन्ती डोडी वदुत्तरं दीयते तलावपात तलं भूमिकातुलोपरि फलकास्ता प्रत्यन्तम् आटविकविषयम् रादिलक्षणं तस्यावपातः शत्रोरुपरि पात° ५० प्रत्यापत्तिः आसमंतादापतनमापत्तिः प्रति= मिंत्र्यादि २३ | विपरीता या आपत्तिः प्रत्यापत्तिः तीर्थ र यत्रावतरति जनाः पुण्यार्थमर्थार्थ प्रदेष्टा कंटकशोधनाधिकृतः ( वा सोमनाथ-कालप्रियादिक २४ प्रघर्ष उद्वर्तनं सुगंधमेव प्रघर्षः त्यक्त' दौष्ट्यावसंधेय. दशवर्गिका दशपुरुषवर्गनियुक्ता दैवजनिता प्रभुशक्तिः प्रभावः १३ प्रभावः । मिथ्येम् द्रव रस कार्यान्तरासंगेन मंत्ररक्षाविस्मरणम् २९ द्रव्य वल्लखटकादि इन्द्रियार्थप्रसक्तिः दायाद्यावापरुद्ध न्यायलभ्यात् दाय- प्रसाधकाः शरीरशोभाकर्तारः लभ्यद्रव्यांशात् बहिःकृत २७ प्रवासितबन्धुः यमपुरं प्रेषितबांधवः देवताकार्य देवव्यादिनिमित्तो विवाद | फेनभाव विच्छिन्नभाव हश्यारश्या दृश्या रक्षिणो विजिगीषु नि बन्धु शत्रुबंधुः युक्ताश्ोरादिरक्षणार्थम् । अदृश्या कुड्यां- बाह्यविहार उद्यानादि तर्हिता गूढपुरुषाः ____३८ | भाण्डगूढलेख्य तूर्यभांडांतरनिहितधर्मार्थद्वेषी धर्मद्वेषी नास्तिकत्वात् । अर्थ- गूढलेख्य २२ द्वेषी दैवपरत्वात् ४२ | भृगराज कृष्णः शुकप्रमाणः पक्षी धारयिष्णु अविस्मरणशील १३ । भृता भागेन पृष्टाः २४ २१ ५४ ५० Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ मत्स्य' शिशुमारादि • मातुलादि मातृबन्धु क्षेत्रभूताया देव्या ज्ञातिः मानुषाग्निः शस्त्रहतस्य शूलप्रोतस्य वा नरस्य वामपार्श्वकायां कल्माष वेणुनिर्मथनोत्पन्नो मानुषोऽभिः मायायोगविद् स्तंभमोहादिप्रयोगविद् मिथ्याचार' द्यूतादिव्यसन मुण्ड शाक्याजी वादि मुण्डा आईतबुद्धभिक्षुक्यः सटिप्पनकं कौटलीयमर्थशास्त्रम् मुष्कक पुष्पवन्दाक मुष्कके जातपुष्पोपलक्षितो वंदाक विग्रह अंतः कोपादिक विधवा स्वतंत्रा विनय प्रत्युत्थान विनयादि ० विप्रकृतम् विरुद्धं प्रकर्षेण कृतम् ५५ | वैदेहकव्यञ्जनः विदेहराजधानानुष्ठानाद् वैदेहकव्यंजनः ४० ४२ | वृद्ध क्षीणशुक्र ५० ४८ २७ १९ ४२ २१ व्यञ्जनसख कार्यादिव्यंजनानां सखा भूत्वा ४४ व्यावहारिक' पुरव्यवहारे नियुक्त' सगंध ः गंधः परिचयजनितस्नेहः संवासाभ्यासजा प्रीतिः समानो गंधः सगंधः सत्रि विद्यमानमपि त्रायति गोपायतीति सत्र छद्म तद्विद्यते यस्य स गृहामात्य २० सन्निधा २१ सभा समायान्ति गोष्ठ्यां जना यस्यां सा सभा २४ समवाय प्रेक्ष्योत्खादिषु यत्र जनाः समवयंति १९ २१ याचनक' कृतक ३४ ४ योगपान' मदनीयविरेचनीयोषधयुक्तपान ४१ योगपुरुष' तीक्ष्णरसदादि राष्ट्रप्रमाणम् परस्य तदनुरूपकोश परिच्छित्त्यर्थं लाभे चोत्तमस्य प्रतिग्रहार्थं राष्ट्रप्रमाणम् ३४ राष्ट्र मुख्य ग्रामकूटमहत्तरादि लोकयात्राविद् लोकव्यवहारविद् चनेचर' मुण्डतापसबौद्धजैन ' वर्ण' रागसमुदाय वाक्यपूजन' दूतवाक्यस्य साधकमिति वाक्य विप्रेक्षणम् परवाक्याकर्णनम् वास' सुगंधकल्पः धूप° वास्तुक' वास्तुविद्याविद् २३ ५३ ३५ संज्ञा ५४ ५४ ४९ वार्ता वृत्तिरेव वार्ता जगद्वृत्तिहेतुत्वात् कृष्यादिका ५० ३६ | समाहूतपराजितः समाहूय व्यवहारे पक्षपातात्पराजितः २६ ५५ समुहानं कर्तुकामः विक्षिप्तानि बलान्यैकत्र कर्तुकामः सुप्त निद्रालुब्धत्व' स्तम्भ° मिथ्याभिमानादविनय स्त्रीनिवेश' सुभगकुलस्त्रीगृहाणि संचाराः सत्र्यादयश्च कुब्जादयः संचरति संचारयति चारमिति । संकेतितवांग विकार' शरीरविन्यासकल्पिता संज्ञा संबन्धि यौनादि संबंध संविष्टः शय्यामारूढः संसर्ग' यौनसंबंध' संसर्गविद्या संसृज्यन्ते जना यस्यां सा संसर्गविद्या गीतनृत्यादिका ४ ३७ | संस्था सम्यगेकस्मिन् स्थाने स्थिता २१ शस्त्रिः निग्रहकर्ता ८ श्वेता गिरिकर्णिका २७ | हेड' चित्रवधादिराबाध १२ २४ ३७ २९ १४ ५० २१ १९ ३६ ५२ ४७ ३७ २० २० ५५ ५० २५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीय भवन अमृतं तु विद्या बंबई Jain Ecua tematonal ,