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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
- अनुसंधान
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
(३९
24
VIIIIIIIIIIIIMLAILA
प्रासाद
प्रासाद
जैन मुनि द्वारा चित्रित पोथीचित्र (जुओ आ अंकमां ढूंक नोंध)
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
2007
,
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन,माहिती वगेरेनी पत्रिका
३९))
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
HDinimuTIM Tiwanp0000)
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
२००७
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आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया A- 9, जागृति फ्लेट्स, पालडी
महावीर टावर पाछळ
अनुसन्धान ३९
प्रकाशकः कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद
अमदावाद- ३८०००७
फोन : (०७९) २६५७४९८१, (M) ९९७९८५२१३५
प्राप्तिस्थान: (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद - ३८०००७
मुद्रक:
मूल्य: Rs. 80-00
(२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अमदावाद- ३८०००१
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद- - ३८००१३ (फोन: ०७९- २७४९४३९३)
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निवेदन विश्वख्यात भारतीय पुरातात्त्विक डॉ. हसमुखभाई सांकळिया साथे, अने त्यार पछीना अग्रणी पुरातत्त्वविद डॉ. र. ना. महेता साथे, ज्यारे पण सम्पर्कमा आववानुं बन्युं, त्यारे एक मुद्दो सतत सांभळवा मळ्या कर्यो : "अमारे तो ठीकरां-पथरा कहे ते ज मानवान; ते सिवायनी, परम्परागत वातो अमे न मानीए."
मने थतुं, अने हुं दलील पण करतो ज, के "तो वीतेला शतकोमां जे घटनाओ खरेखर घटी गई होय, अने छतां अनेक कारणोसर सर्जाती रहेली उथलपाथलोने कारणे तेना पुरावारूप सामग्री मात्र अनुपलब्ध होय, तो शुं ते घटनाओने अवास्तविक-काल्पनिक गणीने ज चालवायूँ ? पुरातात्त्विक के ऐतिहासिक गणावीए तेवा स्थूल-भौतिक पुरावा न जडे, अने छतां ते बाबत परत्वे सेंकडो के सहस्रो वर्षोथी एक अविच्छिन्न परम्परा चाली आवती होय, तो तेने केवळ अप्रमाण गणीने ज चालवानुं ?" जेम ए लोको आ दलीलनो अस्वीकार ज करे, अम एमनी आ धारणा पण मारा गळे न ज ऊतरे.
__ अलबत्त, परम्परागत धारणाओनो यथावत् स्वीकार थाय, एवो आग्रह तो कोई विवेकी न राखे. एमां संशोधनने तथा कांट-छांटने अवकाश होय ज, होवो ज घटे. सवाल एना सदंतर इन्कारनो छे. शुं अमुक बाबतो एवी न होय के जे खरेखर बनी होवा छतां, विदेशी-विधर्मी आक्रमणो, युद्धो अने लूंटफाट तथा कुदरत-सर्जित आसमानी सुलतानीने कारणे, ते अंगनां पुरावारूप साधनो नाश पाम्यां होय ?
मारा हिसाबे, सत्यनी प्राप्ति, परम्परा अने पुरातत्त्व/इतिहासना समन्वयने आधीन छे.
- शी.
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अनुक्रमणिका
वा. श्रीसकलचन्द्रगणिकृत : मुनिमाला सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 1 षड्भाषामय श्रीऋषभप्रभुस्तवः सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय 9 तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्याय .सं. उपा. भुवनचन्द्र 20 श्रीवाचक सकलचन्द्रगणि-विरचित सत्तरभेदी पूजा - सस्तबकः अवलोकन विजयशीलचन्द्रसूरि 24 उ. श्रीसकलचन्द्रगणिकृत सत्तरभेदी पूजा । सस्तबक ।
सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री 39 कविवर-श्रीहेमरत्नप्रणीतो भावप्रदीप: म. विनयसागर 76 ट्रंक नोंध
विजयशीलचन्द्रसूरि 93 विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र 94 नवां प्रकाशनो
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अप्रिल-२००७
वा. श्रीसकलचन्द्रगणिकृत मुनिमाला
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
स.
1
तपगच्छपति विजयदानसूरिगुरुना शिष्य उपाध्याय सकलचन्द्रगणिनी आ एक भक्तिप्रधान लघु रचना छे : मुनिमाला, प्राकृतमा 'मुणिमाल'. ५० गाथानी आ रचना तद्दन सरल प्राकृत-महाराष्ट्री प्राकृतमां गाथाबद्ध छे. आमां कर्ताए पुरातन तपस्वी, त्यागी, संयमी, मोक्षगामी एवा अनेक मुनिराजोनां नामोनुं स्मरण करतां जईने तेमने वन्दना करी छे. हृदयनी भक्तिभावनानुं ज प्राधान्य होईने आ नामस्मरणमां कोई क्रम-व्यवस्था नथी. आ तो कवितुं भक्त हैयुं भावविभोर बनीने महापुरुषोने याद करवामां लीन बन्युं होय अने ते क्षणे जेम जेम नामो याद आवतां जाय तेम तेम गाथामां गुंथातां-वणातांवर्णवातां जाय. अटले आमां कालनो के बीजी कोई रीतनो पण कम न जळवातो होय तो ते फरियादनो विषय नथी बनतो.
प्रथम गाथामां मुनिपदे प्रतिष्ठित एवा मुनिओनी मालानुं स्मरण करवानी प्रतिज्ञा करीने, २ थी ८ गाथाओमां ऋषभदेव, तेमना भरतराजा आदि सो पुत्रो, पौत्रो, गणधरो, आदर्शभुवनमां ज्ञानप्राप्त करनार ८ राजाओ तथा सिद्धि अने सर्वार्थसिद्ध देवविमानने वरनारा असंख्य मुनिओने स्मरेल छे. गा. ९मां सगरादि चक्रवर्ती राज-मुनिओनु, १०मां सुदर्शन शेठ-मुनिनु, ११मां ८ बलदेवोनुं, १२मां बलरामर्नु, मल्लिनाथजिनना ६ राज-मित्रो, १३मां विष्णुकुमारनुं तथा स्कन्धकसूरिना ४९९ शिष्यो, १४मां कार्तिक शेठ तथा तेमनी साथे दीक्षित ८ हजार वणिक्पुत्रोनुं तेमज सुकोशल अने कीर्तिधर मुनिओनु, १५ मां कष्णना मोक्षगामी पुत्रो तथा अक्षोभ, सागरचन्द्र, रथनेमि, नेमिनाथनु, १६मां जालि-मयालि-उवयालि-पुरुषसेन-वारिषेण-प्रद्युम्न-शाम्बअनिरुद्ध-सत्यनेमि-दृढनेमिनु, १७मां शत्रुजय पर्वत पर सिद्ध थनारा ६ देवकीपुत्रो, अने गजसुकुमाल(कृष्णपुत्र)नुं, १८मां ढंढणऋषि, थावच्चापुत्र तथा तेना हजार साधुओ, शुक मुनिनु, १९मां ५०० मुनियुक्त शेलगाचार्य तथा सागर अने सारण (?)मुनि अने नारदमुं, २०-२१मां नेमिनाथ-तीर्थमा दीक्षित
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अनुसन्धान ३९
नारदादि २०नुं तेमज पार्श्वनाथना तीर्थमां १५ अने महावीरजिनना तीर्थमां १० प्रत्येकबुद्धोनुं के जेमणे ४५ ऋषिभाषित अध्ययनोनुं प्रतिपादन-कथन करेलु तेनुं, २२मां दमदन्तमुनि, कुब्जवारक (बलदेवपुत्र) मुनि, पांच पाण्डव तथा केशीकुमारनुं, २३मां कालिक तथा मेखलि स्थविर तथा आनन्दरक्षितनुं तेमज पार्खापत्य काश्यप मुनिनु, २४मां एक राजर्षिनु, जे दीक्षा लई मरण पामी सर्वार्थसिद्ध विमाने गया छे तेनु, स्मरण कयुं छे.
___गा. २५-२६मां वीरजिनना इन्द्रभूति आदि ११ गणधरोनुं, २७मां वीरजिनना पूर्व पिता-माता ऋषभदत्त-देवानन्दानु, २८मां ४ प्रत्येकबुद्धोनुं तथा प्रसन्नचन्द्र ऋषिमुं, २९मां वल्कलचीरी, अइमुत्त, क्षुल्लककुमार, अर्जुनमाली, लोहार्य तथा दृढप्रहारीनु, ३०मां कूरगडु तथा ४ तपस्वी साधुओनुं अने गौतमस्वामीना सोबती १५०० तापस साधुओ, ३१मां शिवराजर्षि, दशार्णभद्र, नन्दिषेण, मेतार्य, इलापुत्र, चिलातीपुत्रनु, ३२मां मृगापुत्र, बहुपिण्डिक एवा इन्द्रनाग केवली, धर्मरुचि, तेतलिपुत्र तथा सुबुद्धिमुं, ३३मां सुबुद्धिना वचने बोध पामेल जितशत्रु, तथा प्रतिमाना दर्शनथी बोध पामेल आर्द्रकुमारनु, ३४मां पेढालपुत्र, सुदर्शन, गांगेय, जिनपालित, धर्मरुचिर्नु, ३५मां जिनदेव, कपिल, इषुकारराजा वगेरे ६ साधको (इसुयारिज्जं, उत्तरज्झयणे), संजयराजर्षि, क्षत्रियमुनि, हरिकेशी मुनि, ३६मां शीलकसूरि तथा तेमना केवलज्ञानी भाणेजो, सुबाहुकुमार अने ९ मुनिवरो, ३७मां रोह, पिंगल, स्कन्धक, तिष्य, कुरुदत्त, अभयकुमार अने मेघकुमार, ३८मां हल्ल-विहल्ल, सर्वानुभूति-सुनक्षत्र, सिंह अणगार तथा धन्य-शालिभद्रनु, ३९मां अन्तिम राजर्षि उदायन के जेने वीतभय पत्तनमां वीरजिने स्वयं दीक्षा आपेली तेनु, ४०मां जम्बूस्वामी, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, सम्भूतविजय तथा भद्रबाहुनु, ४१-४२मां भद्रबाहुना चार शिष्यो के जेमणे राजगृहीमां रात्रिना चार पहोरमां पोतानुं कार्य साधेलु : एके सिंहगुफामां रहीने, बीजाए दृष्टिविष सर्पना राफडे रहीने, जीजाए कूवाना थाळे ऊभा रहीने अने चोथाए कोशा-वेश्याना घेर रहीने (स्थूलभद्र), तेनु, ४३मां सम्प्रतिराजाना गुरु सुहस्ती तथा आर्य महागिरि अने पनवणासूत्रनिर्माता श्यामार्य तथा अवन्तीसुकुमालनु, ४४मां कालकाचार्य, आर्यसमुद्र, सिंहगिरि, धनगिरि, समित, वज्र, अर्हद्दत्त, ४५मां वज्रसेन, दुर्बलिका पुष्यमित्र,
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अप्रिल-२००७
आर्यरक्षित,वन्ध्य (विन्ध्य) तथा स्कन्दिलसूरिनु, ४६मां देवधिगणितुं तथा तपवंत, जिनशासनना भूषण होय एवा तमाम गणि-आचार्यो- स्मरण कर्यु छे.
४७मां अढी द्वीपना जिनोने वन्दन छे. ४८मां आ काळना छेल्ला थनार आचार्य दुप्पसहसूरिने वन्दन करीने चन्दनबालादि श्रमणीगणने संकलित वन्दना करी छे. ४९मां सीमन्धरजिन अने तेमना गणधर तथा लब्धिसम्पन्न मुनिओने वन्दन करीने कर्ता पोताना गुरुनु तथा पोतानुं नाम निर्देशे छे. गा. ५०मां मुनिमाला ते मुनिओना नामरूपी मन्त्रनी माला होवानुं जणावीने तेनुं माहात्म्य वर्णवी रचना पूर्ण करे छे.
ऐतिहासिक कही शकाय तेवी केटलीक वातो आमांथी जडे छे ते आम छे : १. आजे 'इसिभासियाई' (ऋषिभाषित) ना नामे अलग अलग ऋषिओनां सुभाषितो के उपदेशोना संग्रहरूप जे आगमग्रन्थ प्राप्त थाय छे, ते नेमिनाथ भगवानना नारद वगेरे २०, पार्श्वनाथना १५ तथा महावीरस्वामीना १०- एम कुल ४५ प्रत्येकबुद्ध साधुओना उपदेशोना संकलनरूप छे (गा. २०). आ ऋषिओनां नामो तथा केटलांक वचनो वर्तमान प्रचलित परम्पराना सन्दर्भमां विलक्षण जणाय तेवां छे. आ प्रत्येक ऋषिने ते ग्रन्थमा ‘अर्हत्' तरीके ओळखावेल छे. सार एटलो के ते तमाम जैन साधको हता; तेओ मात्र महावीरनी परम्पराना ज न होतां तेमना पुरोगामी बे तीर्थंकरोनी परम्परामांना पण हता.
२. वीरस्वामीना ११ गणधरो पैकी चोथा 'व्यक्त' ने अहीं 'विउत्त' नामे तथा 'मौर्यपुत्र'ने अहीं 'मोरीसुत' नामे वर्णवाया छे (गा.२५). तो 'करकण्डु' नामे प्रख्यात राजषिने अहीं 'वरकुण्ड' मुनिना नामे ओळखाव्या छे. प्रसिद्ध छे के 'करकण्डु' ए तेमनुं उपनाम हतुं. (गा. २८). ३. प्रचलित कथानुसार स्थूलभद्रादि ४ मुनिओ सम्भूतविजयसूरिना शिष्यो होवानुं समजाय छे, ज्यारे अहीं तेओने आ. भद्रबाहुना शिष्य गणाव्या छे. वळी, 'चऊहिं रयणिजामेहिं' ए पद द्वारा, ते चारे मुनिओ, एक ज रात्रिना ४ प्रहरोमां, क्रमशः, कालधर्म पाम्या होवानो संकेत पण प्राप्त थाय छे. (गा. ४१-४२).
आ रचनानी, सम्भवतः १७मा शतकमां लखायेली, ३ पत्रोनी
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अनुसन्धान ३९ हस्तप्रतिनी झेरोक्स नकल मांडवी - कच्छना श्रीखरतरगच्छ संघना ग्रन्थभण्डारमाथी प्राप्त थई छे, तेना आधारे आ सम्पादन करेल छे. प्रति जरा अशुद्ध छे. पडिमात्रामां लेखन छे. नकल आपवा बदल ते संघना प्रमुख हरनीशभाईनो आभारी छु.
मुनिमाला
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महोपाध्याय श्रीसकलचन्द्रगणिगुरुभ्यो नमः || वंदिअ सिद्धसमिद्धं पणटुकम्मरिउजूहं । परमिट्ठपंचमपए ठिअ मुणिमालं विचितेमि वंदे पढमनरिंदं पढममुणिदं [च] पढमजिणचंदं । जगसुहसुरतरुकंदं रिसहं भुवणम्मि कयभद्दं भरहस्स पुत्त - नत्तुअ - मुणिवसहसए सए य समरंतो । हिए नमामि भरहं दसहिं सहस्सेहिं सममेअं ॥३॥
॥२॥
बंभीसुंदरिबुद्धं बाहुबलि तह जुगाइपुत्ताणं । अट्ठावणीणं केवलनाणीण वंदामि
॥४॥
11411
भरहस्स पढमपुत्तं आइच्चजसं नमामि केवलिणो (णं) । तह आसबलमुणिदं बलभद्दं वसुबलं वंदे तत्तो महाबलं तह अमिअबलं मुणिसुभद्दकेवलिणं । सागरभद्दमुणिदं वंदेइ (मि?)अ अट्ठ केवलिणो ॥६॥ अन्ने रिसहजिणस्स य तित्थे गणहरसुलद्धिपत्ताणं । अइसइअणगारीणं आयरियाणं च तह वंदे एवमसंखमुणिदे सिद्धाणुत्तरविमाणसुहपत्ते । जावजिअजिअ (ण) मुणिदं गणहरमुणिसंजुअं वंदे
॥८॥
सगरं मघवं मुणिवं सणकुमारं च संति- कुंथजिणं । वंदामि अरमुणिदं पउमं हरिसेण जयसेणं
॥९॥
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अप्रिल-२००७
विमलजिणतित्थदिक्खं महाबलं मुणिवरं च वंदामि । तं च पुणोवि सुदंसण-सिट्ठिमुणि वीरजिणसीसं ॥१०॥ अयलं विजयं भदं वंदे सुप्पभ सुदंसणं सिद्धं । आणंदनंदणं चिअ पउमं इअ अट्ठ बलदेवे ॥११॥ रामं सुरत्तपत्तं निक्खंतं रायछक्कमवि वंदे । जं मल्लिजिणसमीवे तं मल्लिजिणं सपरिवारं ॥१२॥ सिद्धं विण्णुकुमारं खंधगसीसे नमामि जे सिद्धे । एगूणे पंचसए मुणिवसहे विजिअउवसग्गे ॥१३।। नेगम अट्ठसहस्से सह घित्तूणं च कत्तिओ सिट्ठी । पव्वइओ तं वंदे सुकोसलं तह य कित्तिधरं ॥१४|| किन्हास्स) सुए सिद्धे अट्ठ य अक्खोह-सागरप्पमुहे । तह रहनेमि वंदे वंदे नेमि सपरिअ(वा)रं ॥१५॥ जालि-मयालि-उवयालि-पुरिससेणे अ वारिसेणे अ । पज्जुन-संब-अनिरुद्ध-सच्चनेमी अ दढनेमी ॥१६।। सित्तुंजयम्मि सिद्धे देवइपुत्ता य सिद्धिमणुपत्ता ।। ते वंदिऊण सिरसा गयसुकुमालं नमसामि ॥१७॥ ढंढणमुणिं च वंदे थावच्चापुत्तयं सहस्सेणं । पुरिसाणं संजुत्तं सुगमणगारं च तह वंदे ॥१८॥ पंचसयसाहुजुत्तं सिद्धं वंदे अ सेलगायरियं । सागर-सारणमुणिणो क(व?)च्छल्लं नारयं वंदे ॥१९॥ नारयरिसिपामुक्खे वीसं सिरिनेमिनाहतित्थम्मि । पन्नरस पासतित्थे दस सिरिवीरस्स तित्थम्मि ॥२०॥ पत्तेअबुद्धसाहू नमिमो जे भासिउं सिवं पत्ता । पणचालीसं रिसिभासिआई अज्झयणपवराई ॥२१॥ वंदे दमयंतमुणिं बलदेवसुअं च कुज्जवारययं । पंच य पंडवमुणिणो सपरिकर केसिकुमरगणि ॥२२॥
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अनुसन्धान ३९
॥२४॥
कालिअमेहलिथेरं आणंदरक्खिअं तइअं (?) । तह कासवयं वंदे पासावच्चिज्जमुणिपवरं ॥२३।। सिरिओ..... राया निक्खंतो पालिऊण वरचरणं । सव्वटुं जो पत्तो रायरिसिं तं च वंदामि वीरस्स इंदभूइं तहग्गिभूअं च वाउभूई च । मुणिव विउत्त-सुहम्मे मंडिअ-मोरीसुए वंदे ॥२५।। वंदे अकंपिअं पुण गणहारि अयलभायरं चेव । मेअज्जं च पभासं वीरस्स[य] सव्वमुणिवंसं ॥२६।। वीरजिणपुव्वपिअरो देवाणंदा य उसभदत्तो अ। सिद्धिसुहं संपत्ते तेसिं वंदामि तिविहेणं ॥२७॥ वरकुंडमुणिं दुमुहं, नर्मि च वंदामि निग्गई(इं) सुगई । पत्तेअबुद्धमुणिणो पसन्नचंदं च रायरिसिं ॥२८|| वंदे वक्कलचीरिं अइमुत्तरिसिं[चाखुड्डगं कुमरं । अज्जुणमालागारं लोहज्ज दढप्पहारिं च ॥२९॥ वंदामि कूरगडुअं चउरो खवगे अ तावसे मुणिणो । गोअमदंसणबुद्धे दसपंचसए अ वंदामि वंदे सिवरायरिसिं दसन्नभदं च नंदिसेणमुणिं । मेअज्जमिलापुत्तं चिलाइपुत्तं नमसामि
॥३१।। वंदामि मिआपुत्तं बहुपिंडिअ इंदनागकेवलिणं । जाइसरं धम्मरुइं तेअलिपुत्तं सुबुद्धिं च जिअसत्तुं पडिबुद्धं सुबुद्धिवयणेण जं च तं वंदे । पडिमादसणबुद्धं तं वंदे अद्दकुमरं च ॥३३॥ पेढालपुत्तयं तह वंदे अ सुदंसणं महासत्तं । गंगेअं जिणपालय धम्मरुइं पत्तसव्वटुं जिणदेवं कपिलमुणिं इसुआरनिवाइसाहुछक्कं च । संजयरायरिसिं नम-खत्तिअमुणिवं च हरिकेसि ॥३५।।
॥३०॥
॥३२॥
॥३४॥
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अप्रिल-२००७
॥४१॥
वंदे सीलयसूरिं तह तस्स य भाइणिज्जकेवलिणो । वंदे सुबाहुकुमरं तयव्व तह नव य वरमुणिणो ॥३६॥ रोहं च पिंगलमुणिं खंधगमवि तीसयं च कुरुदत्तं । अभयकुमारमुणिदं मेहकुमारं च वंदामि ॥३७॥ वंदे हल्लविहल्लं साहुं सव्वाणुभूइनक्खत्ते । सीहं अणगारं तह धन्नमुणिं सालिभदं च ॥३८|| चंपाउ वीअभए गंतुं वीरेण दिक्खिओ जो उ । वंदे परमपयत्थं उदायणं चरमरायरिसिं
॥३९॥ वंदे जंबूसामिं पभवं सिज्जंभवं च जसभदं । संभूअविजय(यं) भद्द-बाहु सुअकेवलाभोगं ॥४०॥ एगं गुहाइ हरिणो बीअं दिट्ठि(ट्ठी)विसस्स सप्पस्स ।। तइअं च कूवफलए कोसघरे थूलभदं च ॥४१॥ चउरो सीसे सिरिभद्दबाहुणो चऊहिं रयणिजामेहिं । रायगिहे सीएणं निअकज्जकरे नमसामि ॥४२॥ संपङ्गुरुं सुहत्थि अज्जमहागिरिगणिं च वंदामि । पन्नवणासामेज्जं वंदे अ अवंतिसुकुमालं ॥४३॥ वंदे कालिगसूरिं अज्जसमुदं च सीहगिरिसूरिं । धणगिरि समिअं वयरं वंदे तह अरिहदिन्नगुरुं ॥४४|| वंदामि वयरसेणि(ण) दुब्बलिआपूसमित्तआयरिअं । सूरिं च अज्जरक्खिअ वंज्झं तह खंदिलायरिअं ॥४५।। देवड्डिखमासमणा-दिअ मुणिगुणगणेहिं जे गणिणो । वंदे तवाधण]धणिणो जिणसासणभूसणे मुणिणो ॥४६।। "पुक्खरवरदीवड्ढे धायइसंडे अ जंबुदीवे अ । भरहेरवयविदेहे धम्माइगरे नमसामि" उस्सप्पिणीइ चरिमं दुप्पसहगणहरं च वंदामि । एए अन्ने अ तहा चंदणबालाइ समणीओ ॥४८।।
॥४७॥
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अनुसन्धान ३९
सीमंधरजिणगणहर, आमोसहिआइलद्धिसिद्धिजुए । सिरिविजयदाणसीसो वंदइ ते सयलचंदमुणी ॥४९॥ मुणिणाममंतमालं सिवयं समरेइ. जो सयाकालं । सो पावई विसालं पुण्णं पावक्खए मूलं ॥५०॥
इति श्रीमुनिमाला सम्पूर्णा ॥ शुभं भवतु ॥
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अप्रिल-२००७
षड्भाषामय श्रीऋषभप्रभुस्तवः
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
१-४
आर्या
आर्या
आर्या
श्रीऋषभप्रभुस्तव ए श्रीऋषभदेवभगवाननी, ४० श्लोकोमा पथरायेली एक सुन्दर स्तुतिमय रचना छे. तेमां संस्कृत, समसंस्कृत तथा प्राकृतनी छ भाषाओ, एम कुल आठ भाषाओमां विविध अलङ्कारो तथा व्याकरणना प्रयोगो द्वारा श्रीऋषभदेव भगवाननी अत्यन्त भाववाही स्तुति करवामां आवी छे.
भाषाओमां स्तुतिओनो क्रम आ प्रमाणे छे : भाषा
स्तुतिना श्लोको संस्कृत प्राकृत
५-८ मागधी ९-१२
आर्या पैशाचिकी १३-१६
आर्या . चूलिका पैशाचिकी
१७-२० शौरसेनी २१-२४
आर्या समसंस्कृत-प्राकृत २५-२८ अपभ्रंश २९-३७
दोधक ३८मा श्लोकमां तो कविए पोतानी सघळी प्रतिभा कामे लगाडीने कमाल करी दीधी छे. आ श्लोक आठेय भाषामां रच्यो छे. तेमां दरेक भाषामां ते ते चरणना अर्थो अलग अलग थाय छे. प्रथम चरण संस्कृत, समसंस्कृत-प्राकृत, प्राकृत छन्दद्वितीय चरण पैशाचिकी, चूलिकापैशाचिकी शार्दूलविक्रीडित तृतीय चरण मागधी, शौरसेनी चतुर्थ चरण अपभ्रंश
३९ मा श्लोकमां संस्कृतभाषामां चक्रबन्ध बनाव्यो छे, जेमां कविए पोतानुं नाम पण गर्भित रीते मूकी दीधुं छे. अहीं पण छन्द शार्दूलविक्रीडित छे.
४० मा श्लोकमां कविए आ स्तोत्रनी महत्ता बतावी उपसंहार कर्यो
आर्या
छे.
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10
अनुसन्धान ३९
छे. छन्द मालिनी छे.
आ स्तवमां कविए काव्यशक्तिनी साथे साथे अलङ्कारशास्त्र तथा व्याकरणना ज्ञाननो पण सफळ विनियोग को छे. तेमां पण प्राकृतनी पांच भाषाओ-मागधी, पैशाचिकी, चूलिका पैशाचिकी, शौरसेनी तथा अपभ्रंश-मां रचेली स्तुतिओमां तो तेओ जाणे व्याकरणना उत्सर्गो तथा अपवादोनां उदाहरणो आपतां होय ते रीते प्रयोगो करे छे. जेमके :
(१) मागधीभाषामां क्ष नो श्क (क ) थाय छे, परंतु प्रेक्ष तथा चक्षु धातुना क्ष नो स्क थाय छे. आ त्रणेय प्रयोगो कविए १०मा श्लोकमां कर्या छे.
(२) शौरसेनी भाषामां धातु पछी आवेला क्त्वा-प्रत्ययनो इय तथा दूण आदेश थाय छे. पण कृ तथा गम् धातु पछी आवेल क्त्वा-प्रत्ययनो डडुअ आदेश थाय छे. आ त्रणेय प्रयोगो कविए २२मा श्लोकमां कर्या छे.
आ ज रीते बीजा पण अनेक प्रयोगो बीजी भाषाओमां कविए कर्या छे जे व्याकरणना अभ्यासीओने रुचे तेवा छे. आ साथे, जे अलङ्कारो शृङ्गार अथवा वीर रसना वर्णन वखते वपराता होय तेवा अलङ्कारोनो पण कविए भक्तिरसमां भरपेट उपयोग करेल छे.
कविए अर्थान्तरन्यास, निदर्शन, उत्प्रेक्षा, उपमा, विरोधाभास, व्याजस्तुति व. अर्थालङ्कारो तथा श्लेष, अनुप्रास, चक्रबन्धादि शब्दालङ्कारोनो उपयोग कर्यो छे. (जुओ श्लोको - २, ३, ४, ६, ७-८, १३, १८, २२, २९, ३९ वगेरे.)
आम, आ श्रीऋषभप्रभु स्तव एक श्रेष्ठ काव्यरचना छे.
कर्ता : आ स्तवना कर्ताए पोताना नामनो उल्लेख गर्भित रीते ३९मा श्लोकमां को छे. तेमां चोथा चरणमां रत्नाज्ञान० (रत्नज्ञान) एवं पद आवे छे, तेना उपरथी एवी अटकळ करी छे के कवि- नाम ज्ञानरत्न होवू जोइए, जे निर्विवादपणे जैन मुनि ज छे. अने आ प्रतिमां बीजी बे कृतिओ खरतरगच्छीय मुनिओनी छे ते जोतां आ मुनि पण खरतरगच्छीय ज हशे, एम मानी शकाय.
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अवचूर्णि : आ स्तवनां विषम पदोनो सरळ अर्थ (संस्कृत भाषामा) अवचूर्णिरूपे आपवामां आव्यो छे, जेना लीधे श्लोकोनो पदच्छेद करवामां तथा अर्थ समजवामां घणी सरळता रहे छे. साथे साथे केटलेक ठेकाणे व्याकरणनां सूत्रो पण ते ते प्रयोगोने अनुसारे आपवामां आव्या छे. जो के, केटलाक विषम स्थानो अवचूर्णिकारे नजरअंदाज पण कर्या छे, जेना कारणे अमुक स्थानो सन्दिग्ध रह्यां छे.
अवचूर्णिकार : आ अवचूर्णिना कर्ता तपगच्छीय मुनि मतिविजय छे एवं तेना छेडे आपेल पुष्पिकाथी जणाय छे.
प्रतिपरिचय: आ प्रति कया ज्ञानभण्डारनी छे ते जाणी शकायुं नथी. प्रति पंचपाठी छे जेमां वच्चे स्तव तथा चारे बाजुए अवचूर्णि छे. आ प्रतिमां आ स्तव सिवायनी बीजी पण त्रण कृतिओ छे :
१. श्रीजिनप्रभसूरिरचित श्रीनेमिनाथ क्रियागुप्त स्तव, २. पद्मनन्दिमुनि - रचित यमकबद्ध श्रीपार्श्वजिनस्तव, तथा ३. श्री सोमसुन्दर ( सूरि) रचित यमकबद्ध श्रीपार्श्वजिनस्तव. आमांनां बन्ने पार्श्वजिनस्तव अवचूर्णि / वृत्ति सहित छे.
प्रतिमां अक्षरो स्पष्ट - स्वच्छ छे. लेखनमां अशुद्धिओ छे. पद्मनन्दिमुनिरचित पार्श्वजिनस्तवनी अवचूरिमां तेनो रचना संवत् १७७९ आप्यो छे उपरथी आ प्रतिनो लेखनकाल १८मो सैको अनुमानी शकाय छे.
॥ ६० ॥
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श्रीऋषभप्रभुस्तवः षड्भाषामयः
निरवधिरुचिरंज्ञानं दोषत्रेयविजयिनं सतां ध्येयम् । जगदवॅबोधनिबन्धन - मादिजिनेन्द्रं नेवीमि मुदा ॥१॥
अवचूर्णि: १. ज्ञानातिशयः । २. रागद्वेषमोहरूपम्, अपायापगमातिशयः । ३. पूजातिशय: । ४. वचनातिशयः । ५ णुक् स्तुतौ णुवु-रु-स्तुभ्य ईत्, प्र. ई ॥
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कस्तव 'मितिद्विषोऽलं वदितुं परितो गुणान् गुरुनिभोऽपि । चुलुकैः प्रमिमासति वा क इव जलं चरमनीरनिधेः ॥२॥ १. मानवैरिणः =प्रमाणरहितानित्यर्थः ॥ तदपि त्वद्भक्तिरस-प्रतरलितो. वच्मि तावकगुणाणुम् । र्चापलनुन्नोऽस्फर स्फु )टमपि लपञ् शिशुर्वा निरपवादः ॥३॥ १. चापलप्रेरितः । २. भवति [इति शेषः]॥ ज्ञानप्रदीपजमिव स्निग्धाञ्जनमुपैहितं चरणलक्ष्या । सद्ध्यानदृगञ्जितये चिकुरचयस्तेऽसयो रुरुचे ॥४॥
संस्कृत भाषा॥ १. ढौकितम् || तमकसिणसप्पखयमोर ! मोरउल्लाह ते 'किलिमंति । तुह सासणा 'पिधं जे कुणंति विविहे तवकिलेसे ॥५॥ १. मोरउल्ला मुधार्थे । २. ते क्लाम्यन्ति । ३. पिधं = पृथक् ॥ तज्जिअ कल्लाणसिरिं देवं कल्लाणसिरिविलासगिहं । तुह वंदे देहमहं विलसिरमोहं पि हयमोहं ॥६॥ १. कल्याणं = स्वर्णम् । २. मोहं पि = मयूखमपि ॥ तुह मुहरण्णा सयला-रविंदलच्छीमरट्टफुसणेणं । जं विजिओ हिमरस्सी निअकंती( ति )निवि( व )हसुहडेहिं ॥७॥ १. तव मुखचन्द्रेण । २. मरट्टो देशीभाषयाऽहङ्कारः ॥ असई तमभिभवभरं सहिउं सहिउं पहू ! ससंको सो । दुग्गं खु रयइ घणपरिहिदंभओ परिनिसेहट्ठा ॥८॥
युग्मम् ॥प्राकृतम् ॥ १. असई-तं पूर्वगाथोक्तमभिभवभरं स्मृत्वा हे प्रभो ! । २. शशाङ्कः । ३. परिनिषेधार्थं = स्वारिमुखचन्द्रनिवारणाय, अन्योऽपि यः सशङ्को भवति स दुर्गं रचयति ॥ तुह शुस्तिदभावस्तं गदपत्रे 'शमयपथमवञ्जते । चिणकुमदलश्कशवशे मिश्चदिस्टी पदेदि भवे ॥९॥ १. तव स्वस्तिदभावस्थम् । २. गतप्रज्ञः । ३. समयपथमव्रजन् । ४. जितकुमतराक्षसवशो । ५. मिथ्यादृष्टिः पतति भवे ॥
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तमवय्यवय्यिदर्मिधं आचस्किदसुस्ट शुस्टु)मोश्कपुलमग्गं । काला चिट्ठामि हगे हलिँसभरे पेस्कि, धन्ने ॥१०॥ १. तं समयपथमवद्यवर्जितं पापरहितम् । २. इह जगति । ३. आख्यातसुष्ठुमोक्षपुरमार्गम् । ४. कदा स्थास्यामि अहम्, अहमहं वयं वयमोहंगे । (अहं वयमोर्हगे [सिद्धहेम० ८/४/३०१]) । ५. हर्षभरो । ६. प्रेक्ष्य धन्यः ॥ केलिहंलाह गुणाहं हिलेज-कसवस्ट-लायि-किलणाह । दुह अपुलवभत्तिलसं वदामि हंगे शलीलाह ॥११॥ १. केलिगृहस्य गुणानाम् । २. हिरण्यकषपट्टराजिकिरणस्य । ३. तवाऽपूर्वभक्तिरसं यथाभक्ति । ४. वन्दामहे । ५. हगे = वयम् । ६.. शरीरस्य । द्वितीयार्थे षष्ठी प्राकृतत्वात्, अवर्णाद् वा ङसोडाह [सि.हे.८i ४/२९९], आमो डाहं वा [सि.हे. ८/४/३००], अहं वयमोर्हगे [सि.हे. ८/४/३०१] ॥ शे 'यणिदधनकमले ये पक्खालिद-महंद-पंकमले । धिद पलमहिमसलूवे य॑यदु भवं शे शदाकोहे ॥१२॥ मागधी ॥ १. स जनितधन्यकमलः, पक्षे सञ्जनितधान्यलक्ष्मीकः । २. यः प्रक्षालित[महा] पङ्कमलः । ३. धृतपरमहिमस्वरूपः । ४. जयतु भवान् स सदाऽक्रोधः, पक्षे तु कौघो =जलसमूह: ॥ विqधान रचिञानत ! अनञ्ज-सामञ-पुञ ! तिसँ पञ्ज । रंतूंन हितपके मे कतसिद्धिकतंबनीपनया ! ॥१३॥ १. विबुधानां देवानाम् । २. राजनत ! । ३. अनन्यसामान्यपुण्य ! । ४. दिश-देहि प्रज्ञां-बोधिरूपाम् । ५. रत्वा हृदये मे । ६. कृतसिद्धिकुतु(टु)म्बिनीप्रणय ! ॥ भत्तिभरातो दूरे चिंष्टति यो' तुह रमिय्यते नेन । कसटभरे चरनसुधा-विहितसुनातो( नो) |ना सो भाति ॥१४॥ १. भक्तिभराद्दूरे । २. तिष्ठति । ३. यस्तव रम्यतेऽनेन । ४. कष्टभरे । ५. चरणसुधा[विहित] नानो न स भाति ॥
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युह्मातिसे वि तेवे 'अपुरवसुरपातपे 'सुतय्येव । कीरति नो येन रती से कथं वपते सुकतबीजं ? ॥१५॥ १. युष्मादृशेऽपि देवे । २. अपूर्वसुरपादपे । ३. सदैव । ४. येन न क्रियते रतिः । ५. स कथं वपते. सुकृतबीजम् ? ॥ नत्थून तुरितरिपुनो भगवं ! चि(ति?)ढे तुमंमि मलरूपा । विलसिरपमतच्छीजल-पेंक्खालितगा इवाऽपगता ॥१६॥पैशाची ॥ १. नंष्ट्वा । २. दुरितरिपवः । ३. भगवन् ! दृष्टे त्वयि मलरूपाः । ४. विलसन्ति च तानि प्रमाता/दाक्षिजलानि च, तैः । ५. प्रक्षालितगा इवाऽपगताः, भवद्दर्शनेऽपि पापानि प्रणष्टानीत्यर्थः ॥ काठं सिनेहेफलिता तुह वदनं सेवते रैमा अनखं । हातून पंकुरकुनं पोमं(म्म) सँकलंकमपि च विधुं ॥१७॥ १. गाढम् । २. स्नेहभरिता । ३. तव [वदनम् । ४. लक्ष्मी अनघं-निर्दोष सेवते । ५. किं कृत्वा?-इत्याह - हातून = हित्वा । ६. किं ? -- भङ्गरगुणं = विनश्वरस्वभावं पद्मम् । ७. सकलङ्कमपि च विधुं = चन्द्रम् ।। चलथलमंडलपटिमा चिकुराली शोफते तवंऽशयुके ।
चलनसिरितितसथेनूचरनाय तंतव्व नवतुव्वा ॥१८॥ १. जलधरमण्डलप्रतिमा = जलदश्यामेत्यर्थः । २. चिकुराः केशास्तेषामाली श्रेणी । ३. शोफते = शोभते । ४. तवांऽसयुगे = स्कन्धयुगले । ५. इवोत्प्रेक्ष्यते, तता विस्तीर्णा, नवा = सपल्लवा, अतिहरितत्वेन नीता दूर्वा । ६. कस्मै ?, चरणश्रीरूपा या त्रिदशधेनुः = चरित्रलक्ष्मीरूपा या कामधेनुः, तस्याश्चरणायाऽऽहरणायेत्यर्थः ।। तुच्छंसकिलितटे फुलति नवखनालि ब्व मंचुकचलाची । गतरच-कपोलतलरुचि-फासुरसोदामिनीतामा ॥१९॥ १. तवांऽसगिरितटे । २. नवा-सजला [स्फुरति]=गर्जती(ति) या घनालिः =मेघपटलीस्तद्वत्( ० पटली, तद्वत्) । ३. म ः (मञ्जव:) कचा = वालास्तेषां राजी श्रेणिः । ४. गतरज:कपोलतलरुचिभास्वरा सौदामनीदाम = विद्युन्माला यस्यां सा ॥१९॥
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सिर्फ सुमुं (म) क्कानापिल-चनपरिहिनसंखनीलवाहखटा । पथमं फुर्विं सव्वकला निअनीती तंसिँआ तुमए ॥ २० ॥ चूलिकापैशाची ॥
१. हे ऋषभ ! । २. सुमार्गानाबि (वि) लजन[ बर्हि = ] मयूरसङ्घनीरवाहघटा अनाबि (वि)ला-निर्मला । ३. भुवि । ४. दर्शिता त्वया ॥ कुंमदमकज्जनिदाणं ता 'इध भवमाणविज्जदे भयवं ! | चिदाँ वि तावि नॅज्जेव भोदि पावाण धना इमा ॥२१॥
१. कुमत [ म ? ] कार्यनिदानं यतस्ततः । २. इह राजा (?) इह भवानानम्यते भगवन् ! | ३. चिन्ताऽपि तावदीदृशी । ४. नैव भवति पापानां जनानाम् ||
डुअ अलं हरिपदवि गैडुअ अलं वा महिं (हं) दविसह (य) सुहे । खेलु लहिअ अपुलवपदं पैणइजणं पाविदूण खलु ॥२२॥ १. इन्द्रपदवि (वीं) कृत्वाऽलम्, अलम् इन्द्रपदवीकरणेन सृतमित्यर्थः । २. गत्वाऽलं वा महाविषयसुखान् । ३. अपूर्वपदं लब्ध्वा खलु पर्याप्तम् । ४. प्रणयिजनं प्राप्य खलु पर्याप्तं, तेनाऽपि न कार्यं ममेति भावः ॥ 'दव्वादु विरागमिदो पज्जत्तं गच्छत्तरज्जेणं । णविर तुह भत्तिपथिमा जिर्णरायं फुरद (दि) हृदयंमि ॥२३॥ युगलम् ||
गुरुता ।
१. द्रव्याद् विरागमितो गतः । २. णः पूरणे, एकच्छत्रराज्येन पर्याप्तम् । ३. नवरं केवलम् । ४. तुह तव । ५. भक्तिप्राथिमा ६. जिनराजन् (राज) ! । ६. स्फुरति हृदये, ममेति शेषः ॥ हीर्माणही भवादो चकिदो हं अम्हहे ( अम्महे) अ दिट्ठा वो । ताइथ ताइध मंससेवगं सामिआ ! तत्तो ॥ २४ ॥
शौरसेनी ॥
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१. विस्मयनिर्वेदे । २. अस्मन्हर्षेण ( अम्महे - हर्षेऽव्ययं) । ३. वो यूयं दृष्टाः । ४. णं नत्वर्थे । ५. त्रायस्व त्रायस्व । ६. मां स्वसेवकं स्वामिन् ! | ७. कस्मात् (तस्मात्) भवात् = संसारात् ॥
हमसरोरुहभासं कलिमलकमलालिमंथहिमभासं । भवभयधूलिमहाबल ! नाभेय ! भवंतमभिवंदे ॥ २५ ॥
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१. सुवर्णकमलकान्ति[म्] । २. पापपद्मश्रेणिविनाशचन्द्रः । ३. संसारभयरेणूत्पाटने महाबल ! || 'तव चलणोभयजलडह-पालीसेवापरायणा देवं ! ।
वं(विं?)दंति 'नरालिगणा वरसिद्धिरमामरंदलवं ॥२६॥ १. तव चरणरूपोभयपद्मसेवातत्पराः । २. लभन्ते । ३. नरभ्रमरगणाः ।
४. प्रधानमोक्षलक्ष्मीरूपो मकरन्दो रसस्तस्य लव एकाग्रता ।। - महिमधरं तमसमहिम-विमलं वरधीसरोरुहरविमलं ।
समयं दयारसमयं सुगम सेवे तवाऽसुगमं ॥२७॥ १. क्लीबेऽव्ययं (?), शोभना गमाः सदृशपाठा यत्र । २. असु[गमः] दुर्जेयः ।। तव नामधेअचिंता बुद्धिरसा भुवि नरावली धत्ते । संरुद्धारिनरामरभंदरमालिंगकेलिरसं ॥२८॥ समसंस्कृतभाषा ॥ १. भद्रं कल्याणम् । २. आलिङ्गनम्-आलिङ्गः ॥ तउ रेहइ अलिसामली चिहुराउल अपिट्टि । 'निज्जिअरिउबलझाणदुग-सुहडह नं असिलट्ठि ॥२९॥ १. तव राजते शोभते । २. भुजपृष्ठे । ३. निर्जितरिपुबल-धर्मशुक्लध्यानसुभटयसिरिट्ठी (सुभटस्याऽसियष्टिः ?) । ४. इवार्थे नं तेउरनाइ नावजवणिजणव (इवार्थे नं-नउ-नाइं-नावइ-जणि-जणवः [सिद्धहेम० ८/४/४४४]) ॥ हदु मिल्हिवि सहज ठिआ छड्डिअ जणववहार । पइं झायइं मुणिहंस पर रुभिअ करणपयार ॥३०॥ १. हठं मुक्त्वा , स्यमोरस्योत् [सि.हे. ८/४/३३१] अनेनोकारः, स्यम्जस्-शसां लुक् [सि.हे. ८/४/३४४]२. अपभ्रंशे पई = त्वाम् । ३. ध्यायन्ति । ४. पराः = सावधानाः । ५. निरुध्य ॥ भामु महाभवजलहिजलि नरु निविडइ हुँहुरत्ति । जंब न पंबिअ तुज्झ पहु सासणनाव झड त्ति ॥३१॥ १. हुहुरभि-अभिशब्दानुकरणम् । २. तव । ३. झटिति-शीघ्रम् ॥ सुकृदु कहंतिहु तासु घाइं कहं तँसु सफलउ जन्म । दिवि दिवि जीवा जि न करति पई वतउं जिणधम्मु ॥३२॥
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१. कहंतिहु = कुत: । २. तासु = तस्य । ३. घई पूरणे । ४. तसु = तस्य । ५. करोति । ६ त्वयोक्तं जिनधर्मम् कान्तस्याऽत उं स्यमो: [सि. हे. ८/४ / ३५४ ] ॥
बुंविहि कुतित्थिअ जं वयणु वरुप्परई विरुद्ध ।
तं नरसिव पंडिअ 'तई जि देव प्रमाणुहिं (प्रणामुर्हि ? ) सुद्ध ॥३३॥
१. ब्रुवते यस्य तदिव, क्लीबे जस्-शसोरि [सि.हे. ८/४ / ३५३ ], तद्वचनम् । २. निरस्य= निराकृत्य, पण्डिताः । ३. त्वामेव शुद्धं देवं प्रणमन्ति (प्रमाणयन्ति ? ) |
ईक्कसु तेहाभाव विणु छेडु पणमिअ तुह पाय । भुंजिज्जइ त सुरसुहइं करिविणु दुक्खविधाय ॥३४॥
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१. एकशस्तादृग्भावं विना । २. छडु = यति (दि ? ) प्रणतास्तव पादा यैरिति गम्यते । ३. भोक्ष्यन्ते सुरसुखानि । ४. ता = गम्यते ॥
तस्मात्, तैरिति
मज्झ कहंतिहु भावरिउ - बैंडवडतणउ बुक्क । सामि असड्ढल तेउ छुडु नहु चंपई परचक ॥३५॥
१. कुतो मम । २. भावारिधौद्याभयं (भावारियोधाद् भयं ?) । ३. अवस्कन्दस्य दडवडु । ४. भयस्य हबक्कु । ५. यदि स्वामी असाधारणस्तेजा ( असाधारणतेजा) स्तदा नैव चंपते [ = आकामति] परचक्रम् ॥ जुतवि किरिआ - नाणहरि धेड़ मणिसुद्धजुगग्गि । कु कु न पहुच्चइ सिवनयरि तुह सासणरह लग्ग ॥ ३६ ॥ १. योजयित्वा क्रिया- ज्ञानतुरगौ । २. घई पूरणे । ३. मनः शुद्धियुगाग्रे । ४. भुवः पर्याप्तौ हुच्च [ सि.हे. ८/४ / ३९० ] । ५. तव शासनरथे लगित्वा कस्को न न शिवनगरे प्राप्नोति ? ।।
पिक्खवि तुहत भूहडी कंचैणकंतिरवण्ण । विअसह मुह- नलडी तो मई भवदुह तिण्णि ॥३७॥
अपभ्रंशः ॥
१. प्रेक्ष्य तव; २. तनु भूर्मी, डडीप्रत्ययाभ्यां रूपनिष्पत्ति:; ३. काञ्चनकान्तिरम्याम्, रम्यस्य वन्न: [ सि.हे. ८/४/४२२ ]; ४. नयनानि, डुल्ल - डउप्रत्ययौ; ५. ततो मया भवदुःखानि तीर्णानि ॥
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नार्यालीहयमं दयामयमलं भासं धरन्तं परं रांकालिं पवलोतयं अखचयासत्तं कमालाचितं । धीरं लोअमहंददावहकलं छिन्नाहमायालदं नाधा निदरेसि वंद( उं) पई साणंदसीसल्लहं ॥३८॥
आद्ये अंहौ संस्कृतं १, सम. २, प्रा. ३ । द्वितीये पैशाची(चि)की-चूलिकापैशाचिके । तार्तीयीके मागधी-सूरसेन्यौ ।
तुर्येऽपभ्रंशः ॥ १. अयाली लाभश्रेणिस्तत्र ईहा-आकाङ्क्षा येषु ते तथा, एवंविधा यमा अहिंसाद्या यस्य स, नैवंविधि(ध), समसंस्कृतेऽप्येवम्; न्यायालीहतमन्दतामदमलं भाषां धरन्तं पराम्, अथवा हिट् गतिवृद्धौ, हयनं हयोऽच्प्रत्ययः (२); आयाली = वृद्धिहन्तारं (३) भाषाम; २. राकासखी नैर्मल्येन प्रबलोदयं, नेन्द्रियचयासक्तं, सुखा(?)मालाचितं =व्याप्तम् (१); रागारिप्रवरोदयम्, अघजयासक्तम्, ज्ञानश्रीराजितम्(२); ३. धीरं लोकमहत्ताविधकरं, छिनाधमाचारभावम्(१); धीमन्तं बुद्धिग्राहकं, धिया वा ईला स्तुतिर्यस्य तं, लोकमहत्ता(त्तावहा) कला यस्य स तं, छिन्नदुःखमायालतम् (२); ४. हे नाथ ! निर्वृत्त्यर्थं, तादर्थ्य केहिं तेहिं रेसि रेसिं तणेणाः [सि.हे. ८/४/४२५]. अपभ्रंशे तादर्से द्योत्ये एते पञ्च निपाताः; वन्दे, अप्रत्ययस्याऽऽद्यस्य उ(अन्त्यत्रयस्याऽऽद्यस्य उ) [सि.हे. ८/४/३८५] त्यादीनामन्त्यत्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्याऽपभ्रंशे उं इत्यादेशो वा स्यात्; त्वां सानन्दं यथा भवति शीर्षेण ॥ नन्दाऽऽप्तोरुविशुद्ध-योगरभस(सो)न्मीलन् प्रतोषान्वितं सुष्टः सौष्ठवभग्नमोहरचनस्त्वं 'कञ्जहस्तच्छविः । रुच्या भास्करतिग्मशुद्धिरमणीसङ्क्लुप्तभावः परं रत्नाज्ञान(रत्नज्ञान?)रमांशमास्तरु(र)थ मे तन्याः सुविद्यां चिरम्
॥३९॥ कविनामगर्भं चक्रम् ॥ १. नन्द त्वमिति सम्बन्धः, हे प्राप्तोरुविशुद्ध-योग-रभसोन्मीलन्, प्रतोषान्वितं यथा भवति; २. एवं कमलहस्तच्छविः; ३. रुच्या कान्त्या सूर्य = तीव्र !॥
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जंगति विविदवान् यस्त्वत्कमाग्न्या( ज्ञा )स्वरूपं तव शुचिपदभावं संस्तवादध्यवस्य । रचयति निजकण्ठालडिक्रयां स्तोत्रमेतत् भवति भवकरीणां सिंह सोऽभीष्टलक्ष्मीः (?) ॥० ॥ ॥ इति श्रीऋषभप्रभुस्तवः ॥ षट् ड्)भाषामयः ॥ ॥ लेखक-वाचकयोः शिवाभीष्टदायी आयतौ ॥ १. विश्वे ज्ञानमान्(वान्) यस्त्वदीयमाज्ञास्वरूपम्; २. तव संख्यावान् (संस्तवात् ?) शुचि = पवित्रं च तत् पदं च शुचिपदं मोक्षमित्यर्थः, तस्य लाभम्, अध्यवस्याऽवगम्य; ३. भूङिति सू(सौ)त्रो धातुः, प्राप्तौ विकल्पत्वाणिङ इति ङकारानुबन्धकरणेनाऽऽत्मनेपदस्याऽनैकान्तिकत्वं सम्भाव्यते इति ॥ ॥ इति श्रीनाभेयात्मजस्य(?) कुमतादिदुर्जयोलूकमदपारायने (?) सूर्यसन्निभस्य, कर्माद्रिचूर्णने कुलिशायते प्रथमजिनस्याऽष्टभाषामयस्तवनावचूर्णिः ॥
|| लि. मु०मतिविजयेनेयम् ॥
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तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्याय
सं. उपा. भुवनचन्द्र
पार्श्वचन्द्रगच्छ जैन संघ, मांडलना हस्तलिखित संग्रहनी प्रकीर्ण पत्रोनी पोथीमां एक पत्रमांथी मळेली त्रण रचनाओ अहीं रजू करी छे.
तपागच्छ गुर्वावली सज्झायना कर्ता वि. हीरसूरिजीना शिष्य पण्डित विजयहंसना शिष्य मुनि विनयसुन्दर छे. पट्टावलीनां नामो तो प्रसिद्ध छे, परन्तु कविए केटलीक महत्त्वनी विगतो पण सांकळी छे ते इतिहासनो अभ्यासीओने रसप्रद जणाशे. जेमके
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२६मा पट्टधर समुद्रसूरि खुमाणकुलना हता; मानदेवसूरि हरिभद्रसूरिना मित्र हता; विमलचन्द्रसूरि सुवर्णसिद्धि जाणता हता; पेथडशाहे धर्मकीर्तिगुरुना उपदेशथी १०८ जिनालयोनो जीर्णोद्धार कराव्यो हतो; विजयदानसूरि वडलिपुरमां स्वर्गवासी थया हता; विजयहीरसूरिना समुदायमां त्रण उपाध्यायो मेरु समान गणाता हता इत्यादि.
पट्टक्रमांकमां गरबड छे, प्रतिमां जेम छे तेम ज अहीं राख्या छे. गुर्वावली पछी वि. दानसूरिनी स्तुतिना श्लोको छे, ते अशुद्ध अने त्रूटक छे छतां अहीं लीधा छे. त्यार बाद हंसराज रचित वि. हीरसूरिगीत छे ते पण अहीं आप्युं छे. हीरसूरिजी महाराज प्रत्ये तेमनी विद्यमानतामां ज सकल संघमां केवो उत्कृष्ट अहोभाव प्रवर्ततो हतो तेनुं प्रतिबिम्ब गुर्वावली तथा गीतमां जोइ शकाय छे.
(१)
सकल सुरासुर सेवित पाय । प्रणमी वीर जिणेसरराय ।
तस शासन गुरुपद पटधरू । भगति थुणस्युं सोहाकरू ||१||
पहिलउं प्रणमउं गोतम स्वामि । १ सर्वसिद्धि हुइ जस लीधर नामि । सुधर्म स्वामि २ पंचम गणधर । जंबूस्वामि ३ नामि जयकार ||२|| प्रभवस्वामि ४ तस पटधर ५ नमउ । शय्यंभव पटधर पांचमउ | यशोभद्र ६ भद्रबाहु ७ मुणिंद । थूलभद्र ८ नमतां आणंद ||३||
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तेहना शिष्य दोह पटधार । सूरीश्वर गुणमणि भंडार । आर्य महागिरि आर्य ९ सुहस्ति । संप्रति राजगुरु घणी प्रशस्ति ॥४॥ श्री कौटिक काकंदक सूरि । इंद्रदिन्न १० दिन ( 7 ) सूरि १२ गुणभूरि । तस पाटे सीहगिरि १३ श्रीवयरस्वामी । १४ वज्रसेन १५ गुरु नमउं सिरनामि ॥५॥ नागेंद्रादिक कुल हूआ च्यार । पणि हुउ चंद्रगच्छ विस्तारि । चंद्रसूरि १६ चंद्र यम निर्मलउ । सामंतभद्रसूरि गुणनिलउ ||६|| देवसूरि अभिनवदेवसूरि १७ (१८) । प्रद्योतनसूरि १९ शमसुख पूरि । शांतिस्तवकर श्रीमानदेव २० । मानतुंग २१ सूरि कृतसूरसेव ॥७॥ वीराचार्य सूरि २२ जयदेव २३ । देवानंद गुरु २४ प्रणमउं हेव । विक्रमसूरि २५ सूरि नरसिंह २६ । सामुद्रसूरि खुमाण कुलसिंह ॥८॥ हरिभद्रसूरि मित्र मानदेव २७ । विबुधप्रभ गुरु २८ सारउं सेव । जयानंद सूरि २९ रविप्रभ वली ३१ । यशोदेवसूरि नमउं ३२ मनरली ॥९॥ विमलचंद्रसूरि ३३ सोवनसिद्धि । उद्योतनसूरि ३४ बहुत प्रसिद्ध । सर्वदेवसूरि महिमावंत पाटि ३५ । ज्ञानादिक गुणनई नही घाटि ॥१०॥ अर्बुदपरिसरि टेलीगामि । शुभमुहुरति वड वडतरु ठामि । आठ पटोधर गुरू थापनां । करतां भय भांगा पापनां ॥ ११ ॥ वडगच्छ नाम हुउं ते भणी | आज लगई तस महिमा घणी । रूपश्री गुरुश्री देवसूरि ३६ । सर्वदेवसूरि ३७ नमउं गुणभूरि ॥ १२ ॥ यशोभद्रसूरि ३८ श्रीनेमिचंद्र । तस पटि प्रणमउं श्रीमुनिचंद्र । ४० अजितदेवसूरि ४१ महिमावंत । वादीदेवसूरि अतिबलवंत ॥१३॥ विजयसिंहसूरि ४३ करउं प्रणाम । सोमप्रभ ४५ सूरिनउं लिउं नाम । तास पट्टि गुरु श्रीमणिरत्न । सूरि ४६ सुगुरु मंडलि सिरिरत्न ॥१४॥ वड तपगछ जलनिधि चंद्रमा । जगचंद्र विमलआतमा ।
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संवत बार पंच्यासी वरसि । तिणि तपगछ थापिउ मन हरसि ॥ १५ ॥ तस पाटे सूरी श्रीदेवेंद्र | विद्यानंदसूरि सदा अतंद्र ४८ सुविहित यति गुरु श्रीधर्म्मघोष । धर्मकीर्ति गुरु कृतगुणपोष ॥ १६ ॥ मालव मंडलि मंडपिदुर्गि । पृथ्वीधर साह गुरु संसर्गि ।
अठहत्तर जिणहर उधरी । निज संपद सुकृतारथ करी ॥१७॥ सोमप्रभसूरि ४९ तस पटि भलउ । सोमतिलकसूरि ५० गुणगण निलउ ।
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श्रीदेवसूंदरसूरि ५१ मुनिराय । ज्ञानसागरसूरि प्रणमउं पाय ||१८|| श्रीसोमसुंदर सूरि ५३ तस पटि धणी । अष्टविध गणिसंपद जस घणी । मुनिसुंदरसूरि ५४ अतिगुणवंत । रत्नशेखरसूरि ५५ महिमावंत ॥१९॥ श्रीलक्ष्मीसागर ५६ सूरिंद । सुमतिसाधुसूरि ५७ नमउं मुणिंद । हेमवरण जिम निरमल काय । हेमविमलसूरि ५८ नमउं मुनिराय ॥२०॥ तस पटि गुरु मुनिजनअवतंस । युगप्रधान सम जास प्रसंस । आनंदविमलसूरि ५९ आनंदकार । दूरि करिउं जेणई सिथिलाचार ॥२१॥ भव्यजीव प्रतिबोध्या घणा । गीतारथ मुनिनी नहीं मणा । उदयवंत शासन तिहां थयउं । कलि कसमल सवि दूरइं गयुं ॥२२॥ विजयदान दायक सपराण । श्रीविजयदानसूरि ६० शासन भाण । विजयवंत शासन तिहां करी । वडलिपुरि पामिउ सूरपुरी ॥२३॥ संप्रति विजयमान गुरुराज । तस पटि ध्रुवाजिम अविचल राज । श्रीहीरविजयसूरि ६१ सुगुरु मुणिंद । तां प्रतपउं जां मेरू गिरिंद ॥२४॥ श्रीआचारय पदवी धार । श्रीविजयसेनसूरि गुणधार । तस पट वर मणितिलक समान । उदयवंत हु जुगप्रधान ॥२५॥ श्रीधर्मसागर उवझाय प्रधान । विमलहरष निरमल अभिधान । कल्याणविजयगुरु करइ कल्याण । त्रिणिउ उवझाय गछि मेरु समाण ॥२६॥ श्रीविजयहंस पंडित धुरि लीह । इम अनेक पंडित धुरि सीह । सुविहित साधु साधवी जेह । दिनि दिनि उदयवंत हु तेह ॥२७॥ तपगछ गुरुनी गुर्वावली । भगति भणत पुहती मनरुली । अनु अनुक्रमि लेई नाम । विनयसुंदर करइ तास प्रणाम ।।२८।। इति श्री तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्यायः । कृत: पंडित विनयसुंदर
गणिना। शुभंभवतु । कल्याणमस्तु ।। पंडित विजयहंस गणि शिष्य जयविजयेन लिपिकृतः स्वाध्यायः ॥
कल्याणमस्तु ॥
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(२)
[गुरुस्तुति श्री नाभिनंदन जिनेषु कुरुष्व शांते । शांति सतामभयदा करता गमार्हद्यक्षः प्रभो विजयदान गुरोः प्रसन्न ॥१॥ श्रीतीर्थराजः पदपभ सेवा-हेवाकि देवासुर-किंनरेश ।।
गंभीरगीस्तारतरा वरेण्य । प्रभावदाता ददतां शिवं वः ॥१॥ कल्याणसारसविता नहरिक्ष मोह । कंतरवा रणसमान जवाद्य देव ।
धर्मार्थकामद महोदय वीरधार । सोमप्रभाव परमागम सिद्धिसूरे ॥१॥
[विजयहीरसूरि गीत हीरजी, तंबोले सोहइ नवरस रंगा । तेरे गुन बहु हीरविजयसूरि । पुरुषरयण तुंहि चंगा ॥१॥ तंबोले पान सुधारस वाणि तुम्हारी गाजति नई जउं गंगा रे । करण पवित करती दुख हरती । होवति निरमल अंगा ॥२॥ हीरजी तंबोले० सो प्यारी सारी तुम सेवा, अहनिसि करइ रही संगा रे । सो नर सुख संपति जय पामइ । कीरति आय अभंगा रे ॥३॥ हीरजी तंबोले० साईं नाथीनंदन कइसउ, उर काचउ सहु जाणउ रे । हंसराज कहइ मुगतिनउ अरथी । तंबोल या मुखि आणउ रे ॥४॥ हीरजी तंबोले०
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अनुसन्धान ३९
श्रीवाचक सकलचन्द्रगणि-विरचित सत्तरभेदी पूजा - सस्तबक : अवलोकन
_ विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीसकलचन्द्रजी उपाध्याय तथा तेमनी सत्तरभेदी पूजा जन संघ माटे अत्यन्त जाणीती बाबतो छे. १६मा शतकनो पश्चार्ध अने सत्तरमा शतकनो पूर्वार्ध ए तेमनी विद्यमानतानो समय छे. तेमना विषे घणुं लखायुं छे. तेमनी प्राकृत, संस्कृत तथा गुर्जर रचनाओ अनेक छे, जेमां तेमणे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, हितशिक्षा, भक्ति, विधि, वगेरे तत्त्वो निरूप्यां छे.
सत्तरभेदी पूजा ए तेमनी प्रभुभक्तिप्रधान, संगीतबद्ध एवी गम्भीर शास्त्रीय रचना छे. आ रचनाए तेमने व्यापक तथा ज्वलन्त कीर्ति आपी छे. सेंकडो वर्षोथी जैन देवालयोमां आ पूजा राग-रागिणी साथे, ठाठथी भणाववामां आवे छे.
जिन भगवाननी ५, ८, १७, २१, १०८ एम विविध प्रकारे पूजा रचाती होय छे, तेमां आ १७ प्रकारनी पूजा छे. जुदां जुदां १७ वानां क्रमशः भगवान सन्मुख धरवानां, अने प्रत्येक पदार्थ धरवानी साथे अलग अलग पूजा गाई जवानी होय; तेने पूजा भणावी-एम कहेवाय; दरेक पूजा गवाया पछी ते पदार्थ भगवान समक्ष मूकवामां आवे. ते १७ पदार्थ कया, ते विषे प्रारम्भनी त्रणेक प्राकृत गाथाओमां विगते वात थई छे.
श्रीसकलचन्द्र गणि खूब ज्ञानी, ध्यानी, वैरागी, भक्तकवि हता. तेमने जातजातना अभिग्रहो लेवानो खूब शोख हतो. अभिग्रह एटले प्रतिज्ञा. तेओ एवा प्रखर तपस्वी हता के वारंवार जुदा जुदा अभिग्रह लेतां, अने ते पूर्ण न थाय त्यां सुधी आहार-पाणीनो त्याग करता. एकवार तेमणे एवी प्रतिज्ञा लीधी के गधेडां मूंके नहि त्यां सुधी कायोत्सर्गध्यानमां ऊभा रहेQ ! आ प्रतिज्ञा ७२ कलाके पूर्ण थई. तेटलो समय अखण्ड ऊभा रह्या, ते समयमां तेमणे १०८ गाथाप्रमाण आ सत्तरभेदी पूजानी रचना करी. आ घटनानो निर्देश पूजाना छेडे आवेल कलशनी ढाळनी छेल्ली कडीना टबार्थमां पण जोवा मळे
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आ पूजा-उपर रचायेला बे स्तबक-टबार्थ जोवामां आव्या छे, अने ते बन्नेनी एक एक हाथपोथी प्राप्त थई छे. 'अ.' संज्ञक प्रतिगत टबार्थना कर्ता पं. सुखसागर गणि छे; तेमणे वि.सं. १८००मां स्तम्भतीर्थ (खम्भात) मां टबो लख्यो छे. तेनां पत्र १० छे. ते प्रति कच्छ-नवावास गामना उपाश्रयमा ग्रन्थसंग्रहनी प्रति परथी थयेल जेरोक्स प्रतिरूप छे.
बीजी 'ब-' संज्ञक प्रतिगत टबार्थना कर्ता पं. जीवविजय गणि छे. तेमणे सं. १८५४ मां आणंदपुरमा आ टबार्थ लखेल छे. पत्र १२ छे. आ प्रति कच्छ-कोडायना जैन महाजन भण्डारनी क्र. ८१/९१४ नी नकलरूप प्रति छे.
आ बन्ने टबार्थोनुं संकलन करीने प्रस्तुत वाचना तैयार थई छे. ज्या ब. प्रति जुदी पडी होय त्यां पादनोंध रूपे तेना पाठांश नोंधी मूकेल छे, अने उपर अ. प्रतिना पाठ लीधेल छे.
आ टबार्थना आधारे तथा आ बेउ प्रतिओमां आलेखायेल पूजाना मूळ पाठोमां ज्यां ज्यां जे कांई विशेषता के तफावत जणाय छे, तेनी नोंध आ प्रमाणे छे :
१. प्रचलित वाचनामां, अन्य पूजाओना आरम्भमां जेम 'दूहा' होय छे तेम, अहीं 'वस्तु' छन्द जोवा मळे छे. १७ पूजा, तो १७ वस्तु छन्द. अमां जे ते पूजाना वर्ण्य विषय- अपभ्रंश भाषामां, पण सघन, छटादार अने अर्थगम्भीर वर्णन थयुं छे. आ वस्तु छन्दो, अहीं आपवामां आवेल सम्पादनमां छे नहि. अर्थात् टबार्थनी बन्ने प्रतिओमां आ छन्दो पण नथी, तेना विवरण रूप टबो पण नथी, के छन्दो विषे कोई नोंध-निर्देश पण नथी.
ए ज रीते, पूजाओना अन्ते काव्य-मन्त्रनो पाठ थाय छे. अहीं १७ पूजानां १७ काव्यो, प्रचलित वाचनामां प्राप्त छे. काव्यो संस्कृतमां छे, अने मुख्यत्वे उपजाति वृत्तमां छे. रचना पण शुद्ध, मधुर, प्रासादिक छे. ते काव्यो के ते परनो टबो, बन्ने प्रतोमा अदृश्य छे.
आम केम हशे ? पूजानी वर्तमाने प्रचलित-मुद्रित वाचना पण मूळे तो कोई हाथपोथीना आधारे ज प्रचार पामी होय छे. तो ते (मुद्रित)
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वाचनामां जे बे महत्त्वपूर्ण घटको छे, ते आ बे सस्तबक प्रतोमां गेरहाजर शाथी ? आवो प्रश्न सहेजे थाय.
आना समाधानमां बे कल्पना करी शकाय तेम छे. (१) आ बन्ने घटको अन्यकर्तृक होय अने प्रक्षिप्त होय. एटले के पूजा भणाववाना समये उद्भवेली कशीक आवश्यकतानी पूर्ति माटे कोई विद्वज्जनो आ बे चीजो पाछळथी जोडी होय.
(२) अथवा, आ बन्ने चीजो, १७ छन्द पण अने १७ काव्यो पण, श्रीसकलचन्द्रगणिए ज रची होय, पण ते तेमनी स्वतन्त्र-अलग ज रचनाओ होय; जेने पाछळना समयमां पूजा भणावती वखते, पूजानी साथे संयोजी देवामां आवी होय.
मने बीजी कल्पना वास्तवनी वधु नजीकनी लागे छे. केमके आवी अर्थसभर काव्यमय रचनाओ बीजा कोईनी होय एवं मानवानुं मन ना पडे छे; साथे ज, आटली सरस रचनाओ, जो मूळ पूजाना ज अंगभूत होय तो, ते पर टबो रचवानुं टाळवानुं जीवविजयगणि के सुखसागरगणिने कोई ज कारण न हतुं. बल्के ते पर टबो लखवानी क्षमता ते बेउमा हती ज, होय ज. एटले एम कल्पी शकाय के टबाकारोना समय सुधी एटले के १८५४ सुधी तो, आ छन्दो तथा काव्यो पूजानां अंग तरीके प्रचलित नहि थयां होय; पण सकलचन्द्रगणिनी स्वतन्त्र रचनाओ लेखे ज ते जाणीतां हशे; तेथी ज बन्ने टबाकारोनी कलम ते विषे प्रवर्ती नहि होय.
२. आ पूजाओ, जे स्वरूप मुद्रित छे, ते करतां केटलेक स्थळे आ वाचनामां जुदा पाठ जोवा मळे छे; जेमां केटलाक पाठ वधु सारा, साचा अने महत्त्वपूर्ण जणाय छे. ते पाठोनी नोंध आ प्रमाणे छ :
(१) प्रारम्भिक गाथा क्र. २ह. न्हवण विलेवण अंगंमी(मि) ।
न्हवण विलेवण अंगमें । प्राकृत गाथा होवानुं जोईए तो ह. पाठ वधु ठीक जणाय. (२) गा. ३
आहरणारोहणं चेव ।
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मु. धयारोहणं आभरणारोहणं चेव ।
अहीं पण प्रा. गाथाबन्धनी रीते ह. पाठ वधु बेसे छे. १७ नो क्रम तो आ रीते पण बेसे ज छे. (३) गा. ४
ढोयणया ।
मु. ढोयणयं । (४) पूजा १, कडी १
विशदगंधोदकिं । मु. विशुद्ध गंधोदकें । (५) कडी २
यथेंद्रादिका तीर्थगंधोदकिं । मु. यथेंद्रादिकस्तीर्थगंधोदकैः । (६) गीत १, कडी ३
विरताविरती । मु. विरताविरतीकी । (७) पूजा २, कडी १
भाजनां सुरभिरस पूरियां । मु. भाजनं सुरभिरसपूरियं । कडी २कर अंस सिर भालि गलि । मु. करे अंस सिर भालस्थळे ।
कंठि हृदि उदरे जिननें । मु. कंठ हृदय उदर जिन । ह. दुरित कही। मु. दुरित करी । (९) गीत २, कडी ३
ह. तो ही भाव । मु. तो भी भाव । (१०) पूजा ३, क. १ह. होय ए देव आपो । मु. दोय अम देव आपो ।
(११) गीत ३, क. १ह. होय माणिक लेके । . मु. दोय चक्षुवर माणिक लेके । ह. मेरे जिनमुख ।
मु. मेरे प्रभुभुख । ह. कृपा करी प्रसाद कीजैं । मु. कृपा करी प्रभु दीजे ।
(१२) क. २ह. देखि देखि जिनमुख । मु. देखि देखि प्रभुमुख ।
(१३) पूजा ३, क. २
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चोथीय पूजमां । मु. चोथीय पूजामां ।
जे जिन सुर० । मु. जिम जिन सुर० । (१४) गीत ४, क. २
पूजति तिम भवि० । मु. पूजति भवि० । (१५) क. ३चूरणवासं
मु. चूरणवासे मोचति ।
मु. मुंचती । (१६) पूजा ५, क. १
शुचि मेली । मु. शुचि भेली । (१७) गीत ५, क. १ पंकजोपरि ।
मु. पंकज पर । ओरनकुं ।
मु. ओर देवनकुं । तुम सम ।
मु. तुज समो । (१८) पूजा ६, क. १. वासंति ए।
मु. वासंतिका । (१९) क. २
पाडलांकोल । मु. पाडलंकोल (२०) गीत-६, क. १प्रभु मेरे ।
मु. प्रभु हमेरे । जाइ जन तनु ताप । मु. जाये जाय तनु ताप । गलइ ठवी ।
मु. कंठ ठवे । (२१) क. २
चडई दसदिस वासती । मु. चढे दिसि वासंती । (२२) पूजा ७, क. १
जासूलस्युं चीतरिओए । मु. जासुद| चित्त धरेए । (२२) क. २-३,
"पंचवरण अंगी प्रभु० चक्कि नामा रे" एम पाठ छे । ज्यारे मु. मां अहीं "सूर्याभादि करत० सुर गाति रे" एम पाठ छे । ए ज प्रमाणे
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क. ३मां, ह. मां "चंपकस्यु दमणो० सुर गातइं रे" पाठ छे, ज्यारे मु. मां 'चंपकस्युं दमणो० चक्कि नामा रे" एम पाठ छे । आमां मु. नो क्रम वधु बंधबेसतो लागे छ । (२३) कडी-२,
अंगी प्रभु अंगई । विरचयति जिम । मु. आंगी जिन अंगे। विरचति जिम । (२४) पूजा ८, क. १
अंगसु पूजता । मु. अंग सुपूजतां ।
जिनपद करइ भवि बंध । मु. जिनपद भवि करे बंध । (२५) क. २- पूजा जिन० । मु० पूजो जिन० । (२६) गीत ८, क. १
आणंद पूरो रे माई । मु. आनंद पूरे, पूरो रे० । (२७) क. २
करत मन जाणती । मु. करत तिम भविजन । (२८) पूजा ९, क. १ अति तुंग ।
म. अति उत्तुंग ।.. रणरणति ।
मु. रणझणंती । (२९) पूजा १०, क. १
मां पंक्ति ३-४ छे, ते मु. प्रमाणे ४-३ एम छे । पाछि पीरोजडा । मु. पांच पीरोजडा । तिहां जड्या । मु. जिहां जड्या ।
काने रविमंडल सम जिनकुंडल दीजीइ ए । मु. काने दो कुंडल शशीरविमंडल सम जिनवरने दीजीए ए ।
_(३०) गीत १०, क. १ह. जिनवर सीसि । मु. जिनवर सीस चड्यो । ह. बहु भूषण ।
मु. वर भूषण । ह. दूषण हो ।
मु. दूषणहर ।
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(३१) क. २___पाचि मोतिनैं । मु. पांच मोतिनैं । रयणे जडे ।
मु. रयणे जड्यो । लिओ देउ रे आखंडल । मु, दियो पद लिओ आखंडल । (३२) पूजा ११, क. १रच्यो ।
मु. खच्यु । सम भावस्युं ।
मु. सम भागस्युं । (३३) क. २
कुसुमनी जातिस्युं । मु. कुसुमनी भाति शुं ।
वृंदने घोलतूं ए। मु. वृंदने थोभतुं ए । (३४) गीत ११, क. १
मेरा मन रमो । मु. मेरो मन रम्यो । (३५) क. २
कुसुम चंद्रोदय झूमक तोरण । मु. कुसुम झुमक चंद्रोदय तोरण। (३६) पूजा १२, क. १
विबुध जिम । मु. विविध जिम । (३७) क. २
कनकपूरीसइं । मु. कनकपूरसे । (३८) गीत १२, क. १
द्वादशमी पूजा । मु. द्वादशमी प्रभुपूजा करतां । तिम जनमन ।
मु. जनमन । (३९) क. २
कहावति जडतं । मु. कहावती उडते । ताण अधो० । मु. ताकु अधो० । जो हमु परि । मु. जो हम परे ।
कुसुमपूजा कहइ । मु. कुसुमपूजा करी । (४०) पूजा २३, क. १
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ह. सारवर तंदुला । मु. शालि वर तंदुला । (४१) गीत १३, क. १
युं रे देखत । मु. ज्युं रे देखत । (४२) क. २
अष्टमंगल वली । मु. अष्टमंगलावली ।
तुह्म घरि होइं । मु. तुम घर फिरी होइ । (४३) पूजा १४, क. १
अंबर तुंबरस्युं मेलीओ रे । मु. अंबर तगरस्युं भोलिडे ए । (४४) गीत १४, क. १ह. अती ए धूपी । मु. आणीए धूपी । ह. करंता ।
मु. करती । ___मु. मां चोथी एक पंक्ति अधिक: “भवि कुगति शुचति बाली" । (४५) पूजा १५, क. २तालमुवगई ।
मु. ताल उवंगे । जयतमान पडताल मु. जयति मान एकतालुं ।
पडतालिकतालूं। गालो ।
मु. गालुं । (४६) गीत १५, क. १सूयणो ।
मु. सयणो । (४७) क. २ह. तंति वीणो ।
मु. तंति वयणो । वाजति तूर जलद जिम मु. वाजति तान मान गुहिरं ।
करि गीतं। (४८) पूजा १६, क. २ह. अभिनय ।
मु. अभिनव । देवराजा यथा । मु. देवराजी यथा । (४९) गीत १६, क. २ह. वेंणी कुसुमबंधी । मु. वेंणी कुसुम गुंथी ।
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(५०) क. ३
नट्टकुट्टिकं ठहु ठहु विच । मु. नटकटिकट ठह ठह विच । ... हस्तकों
मु. हस्तकी । (५१)
क. ४ह. भंति वाजइ ।
मु. तंति वाजे । (५२) पूजा १७, क. १रणकालो ।
मु. रणकार । (५३) क. २सरती नवि ।
मु. सुरती नवि । वेणी वंश ।
मु. वीणावंश । (५४) गीत १७, क. १जीवे घणुं ।
मु. जीवो घणुं । सरणाई बोलै । मु. सरणाई वाजिंत्र बोले । (५५) क. २सकल भविकुं प्रभो ! भव न फेरी । मु. सकल भविकुं
भवोभव न फेरी । (५६) क. ३पूजा करो ।
मु. पूजा करी । तूं प्रभु ।
मु. तुंहि जिन । पूजा करो ।
मु. पूजा करूं । (५७) कलशगीत, क. १
थुणिओ रे प्रभु । मु. थुणिओ थुणिओ रे प्रभु । तीन भुवन जन मोहन मु. तीन भुवन ___ तूं जिन ।
मनमोहन लोचन । (५८) क. २कवित नितु ।
मु. कवित करी । क. २ना तथा ३ नां उत्तरार्धोनो ह. मां व्यत्यय छ । एटले मु. प्रमाणे रमा छे ते ह. मां ३मां छे, अने मु. ३मां छे ते ह.मां २ मां छे. तेमां पाठभेद
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कर पसरी ।
दुरित तिमिर ।
(५९) क. ४
मु. मिथ्यामति ।
मु. कर फरसी ।
मु. कुमति तिमिर ।
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चितवि तस फल ।
मु. चिंतवित्त तस फल ।
३. आमांनां केटलाक पाठान्तरो महत्त्वनां छे. दा.त. १. सातमी पूजानी ढाळी प्रथम कडीमां प्रचलित पाठ 'चित्त धरे ए' भले बंधबेसतो जणाय, पण त्यां टबा प्रमाणे तथा ह. प्रतो प्रमाणे 'चीतर्यो ए' एवो पाठ वधु सार्थक बने छे. २. दशमी पूजामां प्रसिद्ध पाठ “पाँच पीरोजडा" एवो छे. तेनो अर्थ पण स्पष्ट छे के लाल हीरा अने तेमां फरता पांच पीरोजा विधिवत् जड्या छे.' ते सामे ह.प्र.नो पाठ आवो छे " पाछि पीरोजडा" अर्थात्, पाछि एटले पाछळ- पृष्ठभूमां पीरोजा रत्न (भूरो रंग), ते उपर लाल हीरा ( प्रवाल वगेरे) विधिवत् जडेला छे. अहीं लाल वादळी रंगोनो जे एक रंगमेळ (Contrast ) रचाय छे, तेने कवि शब्दचित्र द्वारा देखाडी रह्या छे. ३. १२मी पूजामां आवतुं पदगुच्छ "जिम मिले कनकपूरसे " आ प्रसिद्ध पाठनो अर्थ 'कनक - सुवर्णना पूर साथे मळवुं' एवो ज सौ विचारे. अहीं ह.प्र. मां टबाकारे तेने स्फुट करी आप्यो छे : "जिम मिलई कनक - पूरीसइं" अर्थात् 'जेम कनक-सुवर्णनो पुरुष (सुवर्ण - पुरुष ) मळे ने हर्ष थाय तेवो हर्ष आ पूजामां छे ! आ अर्थ जोतां आ पाठ केटलो अर्थपूर्ण लागे ! ४. आज ढाळमां कडी २मां “भमर पई कहावती उडतें " आवो मुद्रित पाठ छे. 'भ्रमर' साथे 'उडते' बेसी पण जाय. ह. प्र. नो पाठ आवो छे : "भ्रमर पई कहावति जड तिं”, अर्थात् 'ते जड एवी कुसुम-माला (गुंजारव करतां) भमराना मोंए जाणे कहावे छे के.' आ अर्थ केटलो काव्यमय अने सुसंगत बने छे ! ५. १३मी पूजामा “शालि वरतंदुला" पाठ जाणीतो छे. 'शालि' पण ने 'तंदुला'
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पण ? जरा विचित्र लागे. ह.प्र. समाधान आम आपे छे : "सार वर तंदुला". केटलो सुन्दर पाठ !. ६. १४मी पूजाना गीत- मुख-वाक्य "आणीए धूपी धूमाली" एवं गवाया करे छे. धूपधाणामां देवता जगे छे, तेमां धूप नाखतां ज धूमावली प्रसरी गई छे, हवे तेने 'आणवानी' क्यांथी ? केवी रीते ? जामतुं नथी. ह.प्र.नो पाठ {झवण दूर करी आपे छे : "अती ए धूपी धूमाली" - 'आ धूप भरी धूमावली केवी अतिशायी छे !' अहीं 'अती'मां लेखन के वाचनना दोषे 'अनी' थयु हशे; अर्थ संगति माटे लेखनदोष कल्पीने तेने 'आनी' तरीके स्वीकार्यु हशे; अने पछी दूर रहेला 'ए'ने 'आनी' साथे जोडी दई 'आनी(णी)ए' एवो मेळ पाड्यो हशे ! अद्भुत ! ७. १६मी पूजा नृत्य-नाट्यपूजा ज छे अने तेमां "अभिनय"नी हाजरी अनिवार्यपणे होय-होवी ज घटे, पण आपणे तेने "अभिनव" बनावीने चाल्या छीए. ८. सत्तरमी पूजामां पण बधां ज वाजिंत्रो ज्यारे प्रभुपूजामा लागी जतां होय त्यारे 'रणवाद्य' शा माटे अलिप्त रहे ? कविए तेनो निर्देश "सरणाई रणकालो" एम आप्यो ज छे. पण आपणे 'रणकाल एटले रणतूररणवाद्य' ए पल्ले ना पड्यु, एटले आपणे कर्यु "रणकारो" ! सरणाईनो पण रणकार होय के ? तो आम ह.प्र. द्वारा केटलीक सरस पाठशुद्धि
थई शके छे. ४. आ समग्र पूजा शुद्ध शास्त्रीय संगीतना रागोमां गुंथाई छे. मुद्रित
वाचनामां निर्देशाएल तथा ह.प्र.मां नोंघेल रागो महदंशे समान छे. परन्तु केटलेक स्थाने तफावत पण जोवा मळे छे. जेमके- ढाल १, राग-देशाख. गीत १, अडाणो, मलार-केदारो मिश्रित. गीत २, तोडी के वैराडी. अहीं गीतने 'दुआलं' ए नामे ओळखावेल छे, जेनो मर्म पकडातो नथी. गीत ३, राग-अधरस. गीत ४, टोडी के रामगिरी. ढाल ५, आसाउरी सादो. आ ‘सादो' एटले शुं ? जाणकारो कहे छे के चालु गवातो ते सादो, अने कोमल रिषभ आशावरी ते विशेष. आ पृथक्करण अन्य रीते पण होई शके. गीत ६नो राग सबाब के शबाब ते ह. प्रमाणे 'सबाफ' छे. आ राग हाल चलणमां के जाणीतो नथी एवं सांभळेलुं छे. ढाल ७, गोडी सादो. आमां पण एकाधिक प्रकारने
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लीधे 'सादो' शब्द मूकेल हशे. मुद्रित - प्रमाणे आ 'गोडी सिंधुओ' छे. ढाल ९, राग तो गोडी ज छे, पण आ ढाल 'वस्तु' छन्दमां छे, अने तेनो ताल 'जाफरताल' छे, एम ह. नोंधे छे. ढाल १०, 'धवलनी देशी'मां (पण) गवाय. धवल एटले 'धोळ', 'धवल-मंगल' ज समजीए. गीत १०, मु. मां गोडी, ह.मां तोडी, ते पण त्रिताली-त्रितालमां. ढाल ११, केदारो तथा गौडी. गीत १३, मु. प्रमाणे 'महावसंत', ह.मां 'वसंत' ज. ढाल १४, आना गोडी रागने ह.मां 'गोडो' के गौड' नामे नोंघेल छे. ढाल १५, 'त्रिवेणी गोडी'. मु. मां श्रीराग छे. ढाल १६, सोरठी ने मधुमादन. आ बीजो राग हाले प्रचारमा हशे? सांभळ्यु नथी. उपरोक्त 'त्रिवेणी' ने 'अधरस'नुं पण एम ज होय तेम लागे छे. ढाल १७मां राग तो 'सामेरी' छे ज, पण तेनी देशीनुं पण नाम अहीं मळे छे : 'त्रिपदी थोयनी देशी'. गीत १७, मु. प्रमाणे राग-गूर्जरी तो ह.मां 'कडखौ' (कडखानी देशी). कलशगीतने 'धन्यासी-मिश्र' गणावेल छे. टबामां केटलाक मुद्दा परत्वे नोंध वा छणावट मळे छे ते ध्यानार्ह लागवाथी अत्रे ते विषे नोंध आपवामां आवे छे :(१) प्रारम्भिक दूहात्मक गाथा ४ ना टबारूपे तथा १३ मी पूजानी पछी एम बे बखत आरती-मंगलदीवो क्यारे करवा, ते मुद्दे चर्चा छे. टबाकार एम सूचवे छे के धूप, अक्षत, नैवेद्य वगेरे रूप पूजा करवा पूर्वे ज आरती-मंगलदीवो करवां जोईए. ते पछी उक्त पूजाओ, ने छेल्ले ८ मंगल-आलेखन होय. कोई मत एवो पण छे के पूजानी पहेलां स्नात्र करे त्यारे स्नात्र बाद तुर्त आरती-मंगलदीवो करी लेवाय, एटले अहीं १३मी पुजारूपे ८ मंगल रचवानो बाध नथी रहेतो. अहीं तर्क एवो आपेल छ के नित्य पूजाने छेडे पण जो आरती व. थतां होय तो स्नात्र पछी तो खास करवां ज रहे; भले पछी मोटी पूजा थवानी होय. आ बधुं जणाव्या पछी पण लेखक कशो आग्रह राखवानी ना पाडे छे, ने बहुश्रुतनी आज्ञा प्रमाणे तथा वीतरागनी भक्ति योग्य रीते थाय तेम वर्तवानुं सूचवीने पोतानी वात पूरी करे छे.
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स्नात्र पछी कलश, पछी आरती-दीवो, पछी ८ मंगलने स्थाने स्वस्तिक, अने नैवेद्यपूजाने स्थाने 'अक्षत-त्रिण पूजा' अर्थात् अक्षतनी ३ ढगलीओ (जेने वर्तमानमा ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी ढगलीओ गणवामां आवे छे ते) करवानो निर्देश पण अहीं सांपडे छे; . तेने ज नैवेद्यपूजा गणवायूँ कहे
आ पछी मूल विधिनो निर्देश देतां कहे छे के ‘पण नैवेद्यपूजा तो ४ प्रकारना आहार (अशन-पान-खादिक-स्वादिम) थकी ज करवी जोईए ! आटलुं कहीने पण छेवटे 'कोई हठ नथी', 'यथाशक्ति करवू'
एमतो कही ज दे छे. ट्रॅकमां, आ बेऊ नोंधो मननीय छे.. (२) प्रथम ढाल (पूजा)ना टबामां 'न्हवण' (जल) पूजाना विधानमां
श्रावकने आभूषणोथी अलङ्कत थवानो निर्देश थयो छे; तेमांये हाथमां वेढ-वेंटी (वींटी) पहेरवानुं खास सूचन करेल छे. कलश कुल पांच सूचव्या छे, तेमां १ कलश दूधनो अने ४ शुद्ध (अबोट) जलना लेवानुं जणाव्युं छे. वर्तमान पूजापद्धतिमां आथी विपरीत रीते ४ दूधना ने १ जलनो लेवामां आवे छे. आ प्रथाना औचित्य सामे प्रस्तुत निर्देश
मार्गदर्शक बने तेम छे. (३) नव अंगे तिलक प्रभुने शा माटे ? तेनां तात्त्विक कारणोनी चर्चा
द्वितीय पूजाना टबामां मळे छे : नव वाडनी विशुद्धि अर्थे, नव नियाणां टाळवा माटे नव अंगे पूजा छे.
आ पूजा पण सृष्टिक्रमे करवानी छे, संहारक्रमे नहि, तेनो संकेत पण
ते ज ढालमां जड़े छे. (४) बीजी पूजाना गीतमां केशर, चन्दन, घनसार (बरास)-ए त्रण वानांनुं
मिश्रण करी पूजा करवानी वात करतां कडं के आ ३ नो घोल करवानुं रहस्य ए छे के आ ३मां वर्ण, गंध, शीतलता-ए ३ गुणो होवाथी ते ३नो घोल लेवानो छे. केसरनो वर्ण (रंग), चन्दननो गन्ध (सुवास) अने घनसारमां ठंडक - ए त्रणेनी अहीं युति थाय छे. सरस
वात थई छे आ. (५) तो एक विशिष्ट वात आ ज गीतमां ए पण थई छे के, पूज्य एवा
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जिनबिम्बने तो ९ अंगे तिलक करवानां ज, परन्तु ते करतां अगाऊ, पूजके पोताना अंग पर पण ४ तिलक करवानां छे, ते आ प्रमाणे - "अहो भालथल, कंठ, रिदय, उदरि च्यार, सयं पूजाकार" अर्थात् पूजा करनारे, पोताना ललाटे - भगवाननी आज्ञा माथे चडाववानी भावना साथे १, कंठे - प्रभुना गुण गावानी भावनापूर्वक २, हृदये - प्रभुना गुणोना चिन्तननी भावनाथी ३, उदरे - प्रभुगुणगाननी अतृप्ति : हजी ये पेट भरायुं नथी - एवा भाव साथे ४, आम ४ तिलक करवानां छे; ते माटेनो द्रव कपूर, अगरु, कस्तूरी, चन्दन ए ४ थकी
नीपजाववानो छे. (६) कुमारपाले पांच कोडीना फूले पूजा कर्यानी वार्ता जाणीती छे. अहीं
१२मी पूजा (गीत)मां सात कोडीनां १८ फूल वडे पूजा करवाथी १८ देशनो राजा थवानी वात जोवा मळे छे. तो तेरमी पूजामा 'नंदावर्तक' नो परिचय 'नवखूणालो साथीओ' एवो आपेल छे. आवी बीजी पण अनेक वातो, विषयो, जिज्ञासुने आमांथी जडी शके. अहीं तो मात्र दिशानिर्देश कर्यो छे.
बे हस्तप्रतोने आधारे साध्वी श्री दीप्तिप्रज्ञाश्रीजीए आ वाचना यथामति तैयार करी छे; बन्नेना पाठो, संकलन तेमणे ज कर्यु छे. पाठान्तरो पण घणी चीवटपूर्वक तेमणे ज लीधां-नोंध्या छे. आम छतां तेमां कोई क्षति जणाय तो सुधारी लेवानो अनुरोध छे. तेमने आ श्रमसाध्य काम कुशलतापूर्वक करवा माटे धन्यवाद घटे छे.
आ बन्ने प्रतोनी झेरोक्स आपवा माटे ते ते ज्ञानभण्डारोना कार्यवाहकोनो आभार मानवो ज जोईए. .
थोडाक शब्दो चूलातला (?) (पूजाप्रारम्भनी त्रीजी गाथामां)
ढौकन (अर्पण, धरवा) योग्य पदार्थ-(फल-नैवेद्यादि) उपायलो
'ऊचाट'ना अर्थमां, पर्याय तरीके प्रयुक्त
ढोणु
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मसमसाट
मघमघाट
जास्यूं
महमहाट
मघमघाट चांपा
चंपा टोडर
फूल
जासुद घमंड
आनन्द ग्रहणा-गरहणा घरेणां वालणी आ बन्ने शब्दो पूजानी ते पंक्तिना वलण
आवर्तन (गाती वेळा)नो संकेत करे छे. राजेवा राजा जेवां शोभाव
स्वभाव मावरदी धूपजातिनो कोई प्रकार गीयतई गीयते (गवाय) (?) आस्ता
आस्था गोहिरें गंभीर महमूर (?) (८मी पूजाना गीतमां) गोप
गोफ-गुम्फ (फूलना) बीजी पूजानी क. १ना टबामां "कृष्णवाडी, खाटी कुंकूशब्द कष्णो छई ।" एवं वाक्य छ, जे समजातुं नथी.
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उ. श्रीसकलचन्द्रगणिकृत सत्तरभेदी पूजा । सस्तबक ।
सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री श्री वीतरागाय नमः ॥
दूहा । अरिहंत मुखकजवासिनी भगवती भारती देवि । समरी पूजाविधि भणुं तुं मुझ मुखकज सेवि ॥१॥
हवें स्नात्र कर्या पछी विशेषे भक्तिने हेतें सत्तरभेद, २१ भेद, १०८ भेद इत्यादिक बहुविध पूजा कही छै । पणि तेहमां सतरभेद पूजानो पाठ कहीइं छे ।
दूहा-दोधक छंद । श्री जिनेश्वरनां मुखकज कहतां मुखकमलनई विषई वासिनी क. वसनारी-रहणहारी-रहे एहवी, कुंण छइं ? भगवती क. ज्ञानवती एहवी भारती-वाणी रूप जे देवी एतलें श्रुतदेवतां - ब्रह्मांणी शक्ति रूप सरस्वती नाम कहीइं छई ॥ तेह शक्तिनुं स्मरण करीनें पूजानो विधि कहुं छु । एतला ज माटें सरस्वती ! तुझे माहारा मुखरूप कमले सेवो-तिहां वसो । किहांएक 'मुखपदसेवी' पाठ छे । तिहां मुखरूप पद-स्थांनक कहीइं छइं ॥१॥
न्हवण १ विलेवण २ अंगंमी चक्खुजुअलं च ३ वासपूआए ४ । पुष्पारोहणं ५ मालारोहणं ६ तह वण्णयारुहणं ७ ॥२॥
न्हवण ते स्नान जलनुं १ । चंदनादिकनुं विलेपन करवू भगवंतनइं २ । अंगनें विषई विलेपन छे । ३. चक्षुयुगलनी त्रीजी पूजा तें आंखनुं ग्रहणुं ते चक्षु करावी चक्षूयुगल । ४. वासनी पूजा चोथी, वास तें चंदन केसरनुं
चूरण ते वास । छूटा फूलनी-विविध जातीनां कुसुम, आरोहण ते चढाएँ, पंचवर्णे आगे थवी चढाववां पांच फूल ५ । विविध प्रकारनां गुंथ्या फूलनी माला चढाववी ते छठ्ठी पूजा ६ । तिम वली वर्णक - पंचवरण फूलनी रचना - श्रीवितरागने आंगी प्रमुखनु रचवउं, मूगट कुंडल फूलनां [७] । १. गुरुभ्यो नमः-ब. । २. चक्खूजूअलं - ब. । ३. पुफारोहणं - ब. । ४. सुखड - ब. ।
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चुन्नारोहणं ८ जिणपुंगवाणं आहरणारोहणं चेव ९ । पुप्फगिह १० पुष्पपगरो ११ ऑरत्तिय १२ मंगलपईवो १३ ॥३॥
चूया-घनसारादिक सुगंध चूर्ण- आरोपवउं-चूलातला भगवंतने सुगंध चढावीइं तेनी पूजा कहीइं छइं । जिन कहेतां सामान्य केवली, तेहनां पुंगव कहतां वडेरा, तेहोनइं पूजनीक छई भगवंत [८] । वली इंहां धजानु पणि आरोहण जिनेन्द्रोंने जिननें धजा चढावीइं, वस्त्रनी पूजा । ए नवमी पूजा आभरण- आरोपण थापq आभरण पेरावीने ९ । जिनेस्वरने फूलनु घर रचवू, फुलघर कीजई १० । पंचवरणी घरकाजें घर । फूलनो पगर भरवो । पंचवरण कुसुमनो मेघ वरसाववो ११ । जिन आगले अष्टमंगलीक आलेखन आलेखीइं । तथा आरती ऊतारवी । त्यार पछी-आरती ऊतारीनइं जिननें आगले मंगल दीपक इत्यादिक करिई ए १३ मी पूजा ॥३॥
दीवो धूवुक्खेवो नेवज्जं सुहफलाण ढोयणया १४ । गीयं १५ नÉ १६ वज्जं १७ पूया-भेया इमे सतर ॥४॥
मंगल दीपक करिइ । धूपघटी धूप उखेववी । नैवेद्य असनांदिकर्नु, अबोट लापसी, खीर, वडां इत्यादिकनु, भला-शुभ फल श्रीफलादिकनुं ढो ढोवं, श्री जिनेश्वरनई मुख आगलई ढोवा ए पूजा १४ मी । गीत गावांनी १५ मी पूजा । नाटिक करवांनी सोलमी पूजा १६ । सकल-सघलां वाजिबना शब्द पूरवानी-वजाडवानी पूजा १७ मी । ए सतरभेद पूजांनां जांणवा । अनइं केतलाएक सतरमी पूजामां धूप, आरती, मंगल दीवों कहे छई, पिण नैवेद्य १४ मी पूजामां का तिवारे ते पहेलां आरती-मंगलदीवो पूर्वोक्त । ते माटे बहुश्रुत वचन प्रमाण । ए पूजा सर्व श्रावकनी करणी छे ।
राग - देशाख । ढाल - रत्नमालानी । प्रथम पूरवदिशि कृत शुचि स्नांनको, दंतमुखशुद्धिको धौतराजी । कनकमणि मंडितो विशदगंधोदकिं, भरीय मणि कनकनी कलस राजी ॥१॥
पहिला ब्रह्ममुहुर्तइं जागी. सर्व करणी श्रावकदिनकृत्य तथा श्राद्धविधि ५. आभरणारोहणं चेव ९ ब. । ६. पुप्फगेहं १० पुष्फपगरो ११ ब. । ७. आरतिअ १२ मंगलो पईवो १३ ब. । ८. भार - ब. । ९. दीवो - ब. । १०. नेवेज्जं० - ब. ।
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प्रमुख ग्रंथानुसारइ यथोक्त सर्वविध साचवी । प्रथम पूरव दीशै संमुखें करी सरीरनो सर्व मेंल टालवा. द्रव्यस्नान करवू, अनैं भावमल टालवाने वितराग पूजा - विविध लक्षण शुभाशय छै एहवो । मुख "शुद्ध करीनइं, श्रीवितरागनी पूजा सारु दंत-मुखादि पवीत्र करीनें मुखे आठपडो मूखकोश बांधीनें निर्मल धोतीक परिधान करवी, धोतीइंआ पेंहरी । एहवो थईनइं एहवी विधे पूजा करवी । कनक मणीने-सुवर्णरत्नतणे मंडित-विशेष भूषणे, तें पहेरीने वेढवेंटी पेहरवी । ग्रहणे भूषीत हुँतो निर्मल सुगंध पाणीइं करी शरीर नवरावीइं। भर्या छई मणि-कनकादिकना कलशानी श्रेणिइं रहीनई कलश ४ अबोट पाणीइं भर्या, कलश १ दूधनो एवं नंग ५ कलशा जेणइं एहवो हुँतो ॥१॥
जिनपभवनं गतो भगवदालोकने, नमति तं प्रथमतो माजतीशं । दिवि यथेंद्राद्रिका तीर्थ-गंधोदकिं स्नपयति श्रावको तिम जिनेशं ॥२॥
जिनप क. जिनेश्वरना श्रीवितरागना, भवनं क. प्रसादने प्रतें - विर्षे, गतो क. पोहतो थको, भगवदालोकनें क. भगवंत प्रति देखीनइं जिनने देखीनें “निसी" एवो पाठ कहीनइं, प्रथम-पहिलो नमइं-नमस्कार करइंप्रणाम करई । ते भगवंत प्रतई प्रणमीनें पछई पूंजणीइं पूंजइं -वितरागर्नु सरिर पूंजें । जिम इंद्र ईश कहतां स्वामीना बिम्ब प्रतइं दिवि क. देवलोकनैं विषइ पूजे छई, तिम भाव राखवा । यथा क. इंद्रादिकें देवताइं स्वामी ऊपरई तीर्थ, पदमद्रह-गंगादीकनां सगंध पाणीइं करी न्हवरावइ, तिम स्नपयति कहतां सुगंध पाणीइं न्हवरावई श्रावक-भव्य प्राणी, जिनेश क. जिनेश्वर प्रतइं पूजा करतां ॥२॥
राग-अडाणो । मलार-केदारो मिश्रित । हवें एहवइं एहज भाव- गीत कहे छइं । अडाणे रागई तथा मल्हार रागें केदारामिश्रित रागें कहे छई ।
भवि तुम्हे देखो अब तुझे देखो, सतर भेद जिन भगती । अंग उपांग कही जिन गणधरि, कुगति हेरेइ दिइं मुगती ॥१॥ तुझे।
____ अरे भवि क. भव्य जीवो-मुक्तिगमन योग्य जांणी प्राणीओ ! हवणां तुम्हे निरखो-जूओ । सतर भेदइ जिनेश्वरनी भक्ति-पूजानी विधि विविध ११. सुगंध ब. । १२. हरि ब. ।
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१७ प्रकारनी रचना छइं अंग आचारांगादिक, उपांग रायपसेणीप्रमुखमांहैं, जिन भगवानई तथा गणधरइं कही । ए श्रीजिनपूजा केहवी छै ? नरकादिक कुगतिनई हरइ, अनें मुगतिनई आपइ । एहवी पूजा तुझे निरखो || १ || शुचि तनु धोति धरी गंधोदकि, भैणी ( भरीय ) मणिनी कलसाली । जिन दीठइ नमी पूजी पखाली, दिइ निज पातिक गाली ॥२॥ तुह्ये० । तुम्हे पूजाना फल जूओ । शरीर शुचि पवित्र निर्मल करीनें, निर्मल धोतीयां पहिरी, गंधोदकिं क० सुगंध पाणीइं भरी, मणि- कनकादिकनी कलशनी श्रेणिई करीनें । जेणई श्री जिन-जिनेश्वरनें देखीनइं नमी - प्रणमीनई, मोरनें (?) पूंजणीइं पूंजीने, पाणीइं न्हवण करीनई - पखालीनई, एहवो थको पूजक - पूजनारो पोताना पातिक गालई दिई - मोक्षनां सुख आपई एहवी पूजा
उज्ज्वल
॥२॥
समकित शुद्धि करी दुखहरणी, विस्ताविरती करणी | योगीसैरई पणि ध्यानें समरी, भवसमुद्रकी तरणी ||३|| तुम्हे० ॥
वली पूजा केहवी छ ? समकितनई शुद्धिनी करणहारी । समकिति नरगई न जाय तें माटें शुद्धनी करनारी । दुर्गतिनी - दुखनी चुरणहारी । विरताविरती कहतां जे श्रावक तेहनी एह करणी छई । योगीश्वरई पणि ए पूजा पिंडस्थ - पदस्थादि ध्यांनमांहि संभरी छइ । पूजा संसार समुद्रनी तारणहारी - भवसमुद्रमांहि तरवानइं नावा सरीखी छै ते पूजा । वली ए पूजा केहवी छे ?
॥३॥
देखावती नही कबही वेतरणी, कुमतिकुं रवि भरणी ।
सकल मुनीसरकुं शुभ लहरी, शिवमंदिर नीसरणी ॥ भवि तुम्हे ० ||४||
ए सतरभेदी पूजा कहेवी छें ? ए पूजा किवारै वैतरणी नदी नरकमांहे छइं ते देखावइं नही । तेनुं दूख देखावें नही । वली कुमतिनई दीइं थिकै रवि-- भरणीना योगनी परि थाइं । एतलें पूजा थकी कुमतिनो योग - जोर जाई, "भरणी भास्करे देयात्" इति वचनात् । सकल- समस्त मुनीश्वरनई, तथा ग्रंथकर्तानुं नाम उ. श्री सकलचंद जणाव्युं । जें ए सकल
१३. भरीय मणी कनककी कलस आली । ब । १४. योगीसर पिण० -ब. ।
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शुभ योगनी लीलालहरि छइ । वली ए पूजा कहेवी ? शिवमंदिरनी - मोक्षमंदिरे जावा नीसरणी छई ॥४॥
अहो भव्य प्रांणी, तूमे जिननें पूजा । एतलै प्रथम पूजा न्हवणनी थई । इहां भगवंतनें नमण करावई ॥१॥
॥ इति प्रथम न्हवण पूजा ॥१॥
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राग - रामगिरी । ढाल - जयमालानी ।
हवई बीजी पूजा कहे छें रामगिरि रागें पूजा छे तें कहीश । ढाल जयमालानी देशीयइं कहे छ ।
बावना चंदन सरस गोसीसमां, घसीय घनसारस्युं कुंकुमा ए । कनकमणि भाजनां सुरभिरस पूरियां, तिलक नव प्रभु करो अंगमा ए ॥१ ॥
मलयाचलनुं बावनाचंदन वली रसइं सहित गोशीर्षचंदनमांहिं घसीइं । वली घसीनई घनसार क. बरास- कपूर एकठो करीनें कुंकुम कहतां केसर साथ कृष्णवाडीनुं खाटी कुंकुंशब्द कष्णो छ । वली स्यूं सोनानां कचोला, रूपानां प्याला, तें (ने) कनकमणिनां भाजनमां चंदने भयूँ छई । ते पणि सुगंध द्रव्यनई रसई एहवां भाजनमांहिथी चंदन लेईनें भली व्यु (यु) गतिं तिलक नव प्रभुना अंगनें विषई करी, नव वाडी विशुद्धि नव ठामें विसुद्ध सुशीलना, तथा नव अशुभ निदान टालवानी भावनाइ । ते नव तिलक कुण कुण ठाम ते कहई छ ।
चरण १ जानु २ कर ३ अंस ४ सिर ५ भालि ६ गलि ७, कंठि हृदि ८ उदरे ९ जिननें दीजीइं ए । देवना देवनुं गात्र विलेपतां, हरि प्रभो दुरित कही लीजीइ ए ॥२॥
बे अंगूठा चरणना पगनो डाबो जमणो १। ढींचण बे पगना डाबुं जणुं २ | हाथ, डाबूं जमणुं ३ | अंसे बे खभा - डाबो जिमणो ४ । सिर तेह समें द्वार तिलक ५ । भाल ते निलाडें तिलक करें ६ । गलि, कंठि
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ते गलुं तिलक करे ७ । हृदि ते हीउं, हिई तिलक करे ८ । उदर ते पेटइं तिलक करई ९ । इम सृष्टइं तथा समकालें एहवां नव तिलक कीजै, जिननें नव अंग । तें ए देवनो देव ते जे वितराग तेहनो गात्र ते शरीरं विलेपतांपूजतां पछइं समग्र लेपीइं तिलक करे ए भावना भावीइं प्रभो ! स्वामी ! तुझे सदा शीतल-सांत सुद्ध सहजभावइ छो, पणि है अनादि कालनो विषय क्रोध कषायें थाइं तप्त छु । दुरित कर्म-रजइ गुडित-जूत छ । माटें तुमें दूरीत-पाप, प्रभो ! स्वामी ! टालों । ते प्रभुनी पूजा थकी उपसांत थाउं। ॥२॥
हवें बीजी पूजानुं गीत ।
दुआलुं । राग तोडी अथवा वैराडी । राग तोडी तथा वैराडीइं रागमां स्तवनां कहइ छ । तिलक करो प्रभु नव अंगई, कुंकुमचंदन घसी शुचि घनसार । प्रभु पगि जानु कर, अंस सिर भाल गलि, कंठि हदि उदरिं सार, अहो भाल थल कंठ रिदय उदरि च्यार, सय पूजाकार ॥१॥ तिलक०
तिलक करो प्रभु श्रीवीतरागनई नव अंगनई विषइ । पूर्वे कही ते जाणवा स्यै करीनइं ? कुंकुम कहतां केशर-चंदन, ते आज सुकडि साथई शुचि घसी अंबर क० बरास कपूरमांहे भेलवीइं बावना चंदनस्यूं । एतलें ए घोलमां वर्ण, गंध नैं शीतलता ए त्रिण्य त्रण्य भावें करीने हुंता, तेहनो ए भाव केसर सुकडि बरास मेल्यि थाई । प्रभुनई चरणे १, जा-इं २, हाथइं ३, अंश क. खभइ ४, शिर क. मस्तकें ५, भाल ते निलाड ६, गलकंठि ते गलि ७, हृदि क० हीयें ८, उदरि ते पेट ९, एहवा नव अंगई सार-प्रधान तिलक कीजइं । अने इहां पूजानो कार-करनार स्वयें वीतराग पूज्या पेला च्यार तिलक करई ते किहां ? प्रथम भालस्थलैं, कपोले, आज्ञा धारवानी भावनाई ते १ । कंठे प्रभु गुणस्तवनां घोषवानी भावनाइं २ । हृदये प्रभुगुणचिंतन धारवारूपइं तें भावें ३ । उदरइं प्रभु गुणनी अतृप्तिपणे ४ । एवं च्यार तिलक करइ । कपूर, अगुरु, कस्तूरि, चंदन द्रव्ये मिश्रित विलेपने । ते यक्षकद्दम कहीइं ॥१॥ १५. अमे- ब. । १६. तप्ती छीइं-ब. ।
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करीय यक्षकर्दम अगर चूओ मर्दन, लेपो मेरे जगगुरु गात । हरि जिम मेरु परिं ऋषभकी पूजा कर,
देखावति कौतिक उर उर भाति ॥२॥ तिलक० ॥ ते यक्षकर्दम करीनइं अथवा ते यक्षकर्दम ते गोसीसचंदन, रक्तचंदन, रतांजणी प्रमुखनइ कहे छै । तथा अगर चूओ भेलो मर्दीनइं मर्दन करीनई, तेणें घोली करी । ते घोलन कचोलुं भरीने माहरो स्वामी-मारो जगगुरुजगतगुरु भगवाननुं गात्र ते शरीर लेपों पूजो, जिननई एतलें विलेपन करो। ते केहनी परि ? जिम हरि क० इंद्र चोसट्ठि मेरु उपरे-मेरु पर्वतने शिखरें ऋषभदेवनी पूजा करई, तें भाव आणीनइं । देखाडइ नवा कौतिक, भक्तिरचनानी विचित्रता नवनवी भांति विविध प्रकारनी रचना उर उर भांति-रचनाई करीनई ॥२॥ हम तुह्म तनुं लींप्यो तो ही भाव नही छीप्यो,
देखो प्रभु विलेपन की वात । हीरो हम ताप । एँ दूजी पूजा विलेपनकी,
और हरि दुरितकुं, शुचि कीनो गात ॥३॥ तिलक० हे प्रभो ! अह्मे तुम्हारुं तनुं क. शरीर चंदनादिकनें घोलें लीप्यो, ते स्यूं नवें अंगई तिलक कर्यु । अने वली तो ही प्रभु भाव नथी छीप्यो कहतां पूर्ण नथी थयो । उल्लास वधतो छइं तेह शो भाव थयो ? हे स्वामी ! अमें तुमें उल्लाश थइनें पूजो तें विलेपननी वात दृष्टान्त देखो प्रभु, ते जोओ स्वामिन् ! हरी क० टालो भवनां जे पातिक ते कर्म आठ तेनां जे पातिक, हम क० अम्हारो भवभवना कर्मनौ ताप हरो । तें बीजी पूजा विलेपननी । बीजुं वली भगवंतनुं हृदयस्थल लींपतां भवभवनां पातिक दुरितनइं हरि क० टालो, एम बीजी पूजाइं विलेपननें कहीनें आत्मास्युं शरीर मिलें शुचि-पवित्र कीधां। एवी रीतें वीतराग पूजें ते सुलभबोधी थाइं । ए गीत कह्यं ॥३॥ तिलक०॥
इति बीजी पूजा विलेपननी ॥२॥
१७. ए दुजी पूजा विलेपनकी अघहरि ताकुं शुचि कीनो गात ॥३|| ब.
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एतलई ए बीजी पूजा बावनाचंदनई विलेपननी थइ | बावनाचंदन भावनाई थइनई पूजो तें विलेपननी वात दृष्टान्त ॥२॥
★
:
हवई त्रीजी पूजा चक्षु युगलनी कहे छें : राग - रामगिरी ॥
"
तिमिर संकोचनां रयणना लोचनां इम कही जिन मुखि भविक थापो । केवलज्ञान में केवलदर्शन, लोचन दोय ए देव आपो ॥ १ ॥
तिमिर क० अज्ञाननई संकोचकारी क० टालणहार एहवां रत्नजडित लोचन प्रभूनां छई, इंम कहीनई प्रभुमुखई अरें भविक प्राणीओ ! भव्य जीवो! चक्षुयुगल जडावनां थापो । ते देखीनई तिहां सी भावना करइ ? प्रभु जिम तुह्मार अक्षय केवलज्ञांन १, अक्षय केवलदर्शन २, रूप ए बे लोचने करी सहित एहवो तूं छई, तिम ते लोचन अमनइ पणि हे देव ! आपों ।
ए भावना ॥ १ ॥
अथवा वली पाठांतरि त्रीजी पूजामां अंगलूणां २, तेहनी पूजा कहीं
छई :
अहव पाठंतरि त्रीजीय पूजामां, भुवन विरोचन जिनप आगई । देव चीवर समु वस्त्र युग पूजतां, सकल सुख स्वामिनी लील मागई ॥२॥ त्रिभुवननई विषइ - विरोचन कहतां सूर्य समान एहवा जिनप आगें कहतां जिनेश्वर आगई - आगलें देवचीवर कहतां देवताना वस्त्रयुगलने बे वस्त्रनी पूजा करतां ए भावना भावइ: सकल सुख जे मोक्षनां तेनी प्रभुतानी जे लीला, जन्म- जरा वीगर तेनी लीला, स्वांमी पासई मांगई छ जाणीइं ।
गीतं । राग- अधरस ||
रयण नयण करी दोय माणिक लेकें मेरे जिनमुखई दीजई । केवलज्ञान में केवलदरसन हमु परि कृपा करी प्रसाद कीजैं ॥१॥
ए त्रीजी पूजानुं अधरस रागें कहई छई गीत प्रतई । रयण क रत्नजडित नयण करी एतलई चक्षुयुगल, एहवां बें मांणिक ते लेइनई मेरे
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कहतां माहरा जिननें स्वामीनई मुखई दीजइं । ते ना(ने)त्र किहां ? केवलज्ञान ए पेहलुं नेत्र अनइं बीजं केवलदर्शन । ए बेऊ नेत्र, तेणइं हमुपरि क० अह्म ऊपरि कृपा करीने स्वामी ! तुमे ते बें नेत्र प्रसाद करीइं एतलें आपीइं मुझने ज्ञांन-दीवो ॥१॥ देवदूष्य वस्त्र सम वस्त्र जोडि लेकें, हवई त्रीजी पूजा कीजई । उपसम रस भरि नंयन कटोरडिं, देखि देखि जिन मुख रस पीजई ॥२॥
रय० । देवदूष्य वस्त्र सम क० देवदूष्य वस्त्र सरीखा बे वस्त्रनी जोडली करीनइं स्वामीनी त्रिजी पूजा कीजें । तां थकां उपसमतारसभर्या स्वामी सामु जोतां जोतां जिनरूपसुं जिनने अंग लुहो ए वस्त्रयुगल ते ए सुभ भावे करीनें पूजा कर । उपशम क. समतारसैं भरी नयनरूप कटोरी-कचोली तिणे करीने निरखें । अमृतलो ए पीजें । जोइ जोइ जिनमुखरूप सुधारस पीजीइं ॥२॥
एतलई ए भाव आपणें त्रीजी पूजा चक्षुयुगलनी तथा देवदूष्य वस्त्र बेनी तें अंगलूहणां २, तेनी पूजा ॥३॥
इति त्रीजी पूजा चक्षूयुगलनी ॥ हवें चोथी पूजा वासनी । राग-रामगिरीई कहे छई ।
राग-रामगिरी नंदनवनतणां बावनाचंदनां वासविधि चूरणां विरंचियां ए । जाइ मंदारस्युं शुद्ध घनसारस्युं सुरभि सम कुसुमस्युं चिरचिया ए ॥१॥
___ नंदनवन, ते मांहि ऊपनां एहवा बावनाचंदन, तेहनां काष्ट आंणीने तेहनां चूरण कीधा ते वास । तें चूर्णादिकई करी, विधियुक्त नीपजाव्या एहवा उत्तम चूर्णनो जे वास तेणें, पूज्या । जाति-जायनां फूल, मंदार ते कल्पवृक्षनुं फूल, शुद्ध-निर्मल घनसा[राते बरास साथें भेलो कीधो, एहवां जे फूल, तेणें सुरभि-सुगंध कुसुमने संघातई विरचित-कीधो जे वास-परिमल वासना करतो, तेणें जिननें पूज्या ॥१॥
१८. वस्त्र जोडीनें- ब. । १९. भवन - ब. । २०. चिरचिआ ए, ब. ।
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चोथीय पूजमां गंध-वासइं करी जे जिन सुरपति अरचीआ ए । प्रभुतणइं अंगि मनरंगि भरि पूजता आज ऊचाट सवि खरचीया ए ॥२॥
चोथी पूजामां एहवा सुगंध वासई करी वासपूजा करतां थिकां सुगंध-परिमल देवी, नीमां (?) वस्तुइं । जे जिननइं सुरपति क० जे जिननें इंद्रई चोसटुिं अरच्या-पूज्या , श्रीसुमेरु पर्वत पंडुशिलाई, तिणि परि प्रभुनई अंगि मननें बहु प्रमोदपणे करी - घणो प्रमोद आंणीनइं, मनरंगे भरी पूजतां थकां ए भाव आणइं:आज सघलाई कर्मना ऊचाट - उपायलो (?), वासपूजा करतां ते सर्व खरच्यां ने नांख्या-खपाव्यां । जे माटइं वासपूजाथी धर्मनी वासना निर्मल थइ तिणें करी आतध्यानादिक विकल्प टलें ॥२॥ हवें ए पूजा- गीत कहै छै
गीतं- राग टौडी-रामगिरी ॥ सुणो जिनराज तव मेहनं, इंद्रादिक परि किम हम होवत तो भी तुह्म सब सहनं ॥१॥ सुणो० ॥
हे जिनराज ! ताहरु महन कहतां ताहरी पूजा ते भक्तिभाव, ताहरो महिमा, मनुष्य थकां ते इंद्रादिकनी परि हम कहतां अह्मथी किम होवत क० किम थाइं- किम होइं ? जे भणी इंद्रादिकनें तो दिव्य शक्तिं ,, अचिंत्यनीय छइं । तो हि पणि तुह्मो सर्व सहो छौ । रंक-राजाइं समानदृष्टितुल्य छौ । ते माटें सर्व सहज्यौ ॥१॥
सतरभेदई द्रुपद रायकी कुमरी पूजति अंगि । जिम सूर्याभसुरादिक प्रभुनइं पूजति तिम भवि मनरंगई ॥२॥ सुणो०॥
सुणो जिनराज ! मारी मेंनत । सतरभेदई पूज्या द्रुपदी-द्रुपदरायनी कुयरी जिम पूजई ते कही छे । तेणें सतरभेदी पूजाइं पूज्या ज्ञाताधर्मकथांग, तेहनें विषइं । वली जिम सूर्याभाँदिक देवता प्रभुनइं पूजई छई, जिम रायपसेणी सूत्रमाहे कडं छई, तिम भव्य प्राणिइं मनरंगि कहतां मननें उछरंगेमन उच्छाहई करीनइं पूँजई छइ ॥२॥ २१. तोडी-ब । २२. महन्नं-ब । २३. पिण तुम्हो-ब. । २४. पूजा-ब. । २५. बेटी-ब. । २६. सूरिआभदेवता-ब. । २७. भवि प्राणि-ब. । २८. पूजवा-ब. ।
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विविध सुगंधित चूरणवासं मोचति अंग ऊवंगिं । चउथी पूजा करति मनि जानति मेलावतिआं सुखसंगइ ॥३॥ सुणो०॥
विविध क० अनेक प्रैकारना सुगंध छै जेहनें विषई एहवा चूरणना वास प्रतई वासना करई । मोचति क० मूके छइ प्रभुने अंगै ते मस्तकादिके, उपांग ते करादिकने विषं, अंग-उपांगमांहि पिण कयूं छई। चोथीइं पूजा वास पूजां करतां भविक-भव्यजन मनमां इंम जाणीइं जे श्रीवितरागर्ने मेलावतिआं कहतां मेलावो स्वर्गनो होइं, मेलाववानुं हेतु ए चूर्ण छइं । एहवी वासपूजानो भाव भावई । स्या प्रति ? सुखना संग प्रतइं पामइं ॥३॥
इति श्री चौथीय सुंगंध-वास पूजा ॥४॥ हवें पांचमी फूलनी पूजा सादइ आसाउरी रागें कहइ छइ ।
राग - आसाउरी सादो ॥ मोगर लाल गुलाल मालती चंपक केतकी वेली । कुंद प्रियंगु नागवर जाती बोलसिरी शुचि मेली ॥१॥
"मोगरानां फूल धोला, रक्त अशोकादिकनां फूल रातें रंगे, गुलाबना फूल, वली मालतीनां फूल, वली पीला फूल, चंपकैना फूल, केतकीनां फूल, वेलिपुष्प-जातिनां वेलना फूल, धोलां कुंद क० मचकुंद धोलें रंगई जातिना फूल, प्रियंगु-नीलो, अंग तें वृक्षविशेषनां वर-प्रधान जातिनां फूलनां, वृक्षनां फूल, जांबुनां फूल, तथा बोलसिरीनां फूल, ते सुचि-पवित्र, इत्यादिक फूलनी जाति मेलीने-भेला करीनइं ॥१॥ भूमंडल जल मोकलई फूलई ते पणि शुद्ध अखंडई । जिन पद पंकज जिउं हरि पूजई तिण परि तिउं भवि मंडई ॥२॥ मो०।
भूमंडल क० पृथवीनां ऊपनां फूल तथा जलनां ऊपनां फूल, पद्मद्रहादिक । ते सर्व एकठां घणां फूल, मोकला क० ते सर्व जातिनां घणां, ते वली शुद्ध वर्ण-गंध-रस-फरस सुठाममां ऊपनां, तेणें सहित सुध-खंडित नही, कीडें करड्या नही, भूइ पड्या नहि, मलिन दुगंछनीय नही, एहवे फूलैं २९. भांतिना सुगंधी , ब. । ३०. कहीइं छई - ब । ३१. मोगर ब. । ३२. चंपाना ब. । ३३. मोकले ब. ।
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अनुसन्धान ३९ श्रीवितरागनी भक्ति करीने जिम जिनचरणकमल हरि क० चोसट्ठि इंद्रई पूज्या-अरच्या छे, ते भाव आंणी तेणी परइं हे भविक ! तूं पणि इम करों। भव्यलोक श्रीजिनपदपंकजनें पूजे छई तेहवो भाव निर्मल आंणीनई ॥ मोगर० ॥२।। गीत पूर्ण छइं ॥
___ एतले जिनचरणे कुसुम थापी हवें फूलनी पांचमी पूजा- गीत कहस्यूं ।
गीतं० नृत्यकी - आसाउरी - नट्टसिरी ।। पारग तेरे पद पंकजोपरि विविध कुसुम सोहइं, हारे विवि० । औरॅनकुं आक धतूरे तुह्म सम नवि कोहे.... ॥१॥ पारग० ॥
हे पारग ! क. पारना पोहचनारि एतले भविजननें अपार संसार तेनो पार पमाडवें समर्थ ते माटें पारग ! तारा चरणे, हे वीतराग ! ताहरा चरण कमल ऊपरि विविध जातिनी उत्तम वृक्षनां कुसुम फूल तें ता[ग] चरणे शोभे छई । वली पाछली रागनी वलण केहवी । ओर-बीजा जे देव रागी स्त्रीयादिकना मोह्यां, दोसी देवनें आकनां धतुरनां कणयरादिकनां, बीलीनां पत्र, वेली प्रमुख फल शोभई । जे माटि श्रीअरिहंत तुंम सरिखां कांइ नही निरागी, तुह्म सम कोइ अपर देव छइं नही ते भणी-ते माटई पारग ॥१॥ तेरे०॥
ऐहवी विविध कुसुम जातिसुं जव पांचमी पूजा पूजई । तव भविजन रोग सोग सवि उपद्रव धूजइं ॥२॥ पारग० ॥
एहवी प्रकारई विविध भांतिनां जे फूल तेणें करीने, नाना प्रकारना कुसुमजाति करीनइं तुमनें जिवारइं° पांचमी पूजा पूजई कहतां करई, फूल चढावई, तिवारई तेहनइं सकल भविजनने - भव्य प्रांणीने रोग सोगपणुं सर्व वेगलूं जाइं, चिंता-फिकर सर्व उपद्रव उपशमई, विघन सर्व प्राणीनां धूजईअंगथी नाशइं ॥२॥
इति पांचमी छूटा फूलनी पूजा ॥५॥ ३४. नृतकी - ब. | ३५. नटसिरी - नटरागई ब. । ३६. पदपंकज परि । ३७. उर देवकुं आक धतुरे ब. । ३८. प्रकारनां - ब., । ३९. एह विविध ब. । ४०. ज्यारई ब. ।
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एतलई ए छूटा फूलनी पांचमी पूजा थई ॥ हवै छट्ठी पूजा फूलनी मालानी देशाख रागें कहे छई :
राग - देशाख ॥ चंपगासोग पुन्नाग वर मोगरा केतकी मालती महमहंती । नाग प्रियंगु शुचि कमलस्युं बोलसिरी वेलि वासंती ए दमन जाती ॥१॥
___ चंपक वृक्षना चांपाना फूल पंचवर्ण, अशोकवृक्षनां फूल, नांगपुन्नाग वृक्षना फूल, वर-प्रधान मोगराना फूल, केतकीनां फूल, तथा मालतीनां फूल, सुगंध महकती, महमहाट करती दश दिशई, नाग वृक्षना फूल, प्रियंगुवृक्ष "पुप्फेसरसी प्रीयंग(प्रीयंगु)वन्नइंति" राजादनि पवित्र एहवां कमल साथइ-कमलनां फुल, शतपांखडी, सहस्रपांखडी, बोलसिरीनां फूल, कालुवरि वृक्षना वेलि, वासंती चमेलिनां फुल, दश दिशें मसमसाट करतां दमानाकनी जातिना-दमणो-मरुओ ए फुलनी जातिना फूल । कुंद मचकुंद नव मालिका वालको पाडलांकोल शुचि कुसुम गूंथी । सुरभि कुसुममाल जिन कंठि बेठी वदई भमर मिसि हो तुझे सुखी यमूथी
॥२॥ __ कुंद अनैं मचकुंद, रवि-धवल सुगंध-पुष्पनी जाति, तेना फूलनी माला, तेज नवमालिका नवी मालती फूलनी माला, ते जूहीनइं कहीइं । तथा कुसुमना गुछनें कहीइ, ते वली सुगंध पांनडा वेल प्रमुख, पाडलां-पाडला फूलनी माला गुंथी, जासुल, अंकोल वृक्ष-जातिना फुल, कोरंटकादि, ए सर्व गुच्छना जाति-शुचि कुसुम क० पवित्र कुसुम साथे गुंथीनइं, हार-लक्ष फूलनां टोडर गूंथी करीनइं, एहवां सुरभि क० सुगंध मनोहर जे फूल अनेक जातिना कुसुम, तेहनी माला जिननि - श्री जिनेश्वरनें कंठि थापई - आरोपी थकी शोभायमांन दीसे छइं । जिन कंठे बेठी कहे छई ती जाणीयइं । भमर गूंजारव करे छ, भमरना शब्दने गुंजारवनइं मिसि कहे छई । भविकनै ते कहे छे : अरे भव्यलोको ! तुमे जिननां चरण आराही-स्येवा करो । जे ए जिन ४१. आसोपालव ब. । ४२. मसमसाट करतां ब. । ४३. चेलनां ब. । ४४. कोल वृक्ष - ब. । ४५. फूल - ब. ।
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अनुसन्धान ३९
सेव्याथी मुझथी पणि सुखी थाओ । सुर-देवताइं गुंथी माला लोकनें कहे छई । अथवा भमरा गूंजतां मालानें कहे छै अह्मे थकी पणि तुमें सुखी थाओ। जे माटें जिनने कंठइ बेठी छे ॥२।। छट्ठी पूजा फूलमालानी तेहनु गीत सबाफ रागें कहे छइ :
गीतं - राग - सबाफ ॥ कंठ पीठई दाम दीठई प्रभु मेरे पाप नीठइं जिउं शशि देखत जाइ जन तन ताप । पंचवरण सब कुसुमकी गलइ ठवी गगनि सोहती जेसई सुरपति चाप ॥१॥ कंठ० ॥
कंठ पीठई क० जिननां कंठपीठनें विर्षे, दाम क० फूलनी माला, देखता थिकां हे प्रभो ! मेरे क० माहरा सर्व पाप नीठई क० मिटइं-जाइंक्षय थाइ । जिउं क० जिम चंद्रमानें दीठे - निरखतां प्राणीओना-सर्व वस्तुनां जन्मना परिताप जाई । जे शरीर तेहना ताप जाइं । पंचवरणी सब कुसुमकी क० सर्वकुसमी- फूलनी माला जिनगलैं ठवी-थापी केहवी शोभइ छई ते कहे छइं । गगनि क० आकाशमार्गे-आकाशनें विषं, सोहती क. शोभई, जेसई क० जिम, सुरपति क० इंद्र, तेहy चाप क० धनुष-केतुं सोभे? तिम-तेहनी परें शोभा, तिम जनि(जिन)ना कंठे फूलमाला शोभई।
लाल चंपक गुलाल वेली जाती मोगर दमन भेली । गूंथी विविध कुसुमकी जाति । छट्ठी रे माला चडई दसदिस वासती तव सुरवधू परि नरवधू गात ॥२॥ कंठ० ॥
लाल पाडलनां फूल, चांपानां फूल, गुलाबनां फूल, वेलनां फूलनी माला, जाइना फूल, मोगराना फूल, दमणानां मरुयादिकई सहित भेलीनइंकरीनइं टोडर गूंथ्युं, गूंथीनें विज्ञानइं करी रची विविध प्रकारना कुसुमनी जातिइं एतलई पंचवरणी जातिनां टोडर । छट्ठी पूजा फूलमाला चढाववानी ४६. जनमतनु ब. । ४७. अरिहंतनइं गलें - ब. । ४८. लाल गुलाब चंपकवेलि, जाइ मोगरो दमणो भेली ब. । ४९. फुलनी ब. ।
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श्रीजिननें कंठे पूर्व-पछिम-उत्तर-दक्षिण-उर्ध्व-अधो ए दश दिशई सुगंध वासती । तिवारें ते वेलाई सुरवधु क० अपच्छरानी परें नरवधू क० मनुष्यनी वधु-नारीओना वृंद पणि गीतगान गाती-करती छे ॥२॥
इति छट्ठी फूलमालानी पूजा ॥६॥ इतिश्री छट्ठी फूलनी माला चढाववानी विधि कही । हवें सातमी पूजा पंचवरण कुसुमजातिनी आंगीरंचना पूजा कहे छे गोडी रागई ।
राग - गोडी सादो ॥ सातमी पूजमां वरणक फूलस्युं भवि करई ए । चंपक दमणलो मरुओ जासूलस्युं चीतरिओ ए ॥१॥ पूजा पंचवरणी फुलनी आंगीनी । गोडी राग ।
सातमी पूजामां फूल साथई चरणकमलें भवि प्राणी रचना करइ । ते आंगी केहवी भव्यजीव रचई ? चंपा-चांपना पीला फूल, दमणो नीलवर्णे, मरुओ गुलाबरंगी, रातां फूल जासुलनां रक्तवर्णइ, धोलो जास्यूं, ते साथें चीतर्यो-रच्यो हुँतो पूजा करतां चीत वस्यूं प्रांणीनुं ॥१॥
अंगीय केतकी विचिं विचिं शोभती देखीइं ए । आंगीय मिसि शिवनारिनइं कागल लेखीइं ए ॥२॥
अंग कक्षाने विषई आंगी विचई केतकी मूंकी, आंगी माहि विचइ विचइ पंचवरणनी कुसुमनी शोभाई शोभावंत, देखीई छइ ते जाणीइ । आंगी रचनानई - आंगीने मसें - मिसइ "शिवरूप नारीनई कॉगल लिखइं छई। ए द्रव्य पूजा थकी एहवो भाव लीधो ए में पिण मोक्षनां सुख पांमस्यइं एहवो लेख फूलें मोक्षने लिख्यो छे ॥२॥
हवई पूजा सातमीनुं गीत मालवी गौड रागै कहै छई ।
५०. स्त्री - ब. । ५१. जालस्युं चीतयूँ ए ब. । ५२. आंगीय आंगीय विच विच केतकी सोभती देखीइं ए ब. । ५३. पंचवर्णी विच फुल शोभई ब. । ५४. देखीनइं ब. । ५५. मोक्षरूपणी स्त्रीनें - ब. । ५६. लेख लखें - ब. ।
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गीतं ॥ राग मालवी गोडी ॥
कुसुम जाति आंगी मनि खंतिं, पंचवरणनी जातिं रे । माहिं विविध कथीपा भांति रे ॥१॥ कुसुम०
अनुसन्धान ३९
सातमी पूजानुं गीत कहे छ । तिमज ए फूल विविध प्रकारनां लेइ कुसुमनी जातिनी आंगी रचीइं । वली केवी ? मननें हर्षे करी - कधी । पंचवर्णी फूलनी जातिथी आंगी रचीइं छें । वली केहवी ? मांहिं जाणीइं छे विचि विचि विविध प्रकारना कथीपानी भांत केवी दीसे तेहवी आंगीनी शोभा दीस छई जेहनी ॥१॥
पंचवरण अंगी प्रभु अंगई, रचयति ज्युं सुर रामा रे । ऋषभकूट चक्क- - नामा रे ॥२॥ कुसु० ॥
पंचवर्ण फूलनी आंगी प्रभु ते जिनेश्वरनें अंगई आंगी रचयति कहतां रच केवी शोभे छइं ? जिम सुररामा क० देवांगना इंद्राणीओ, तेणें आंगी रची तिम रचें- नीपजावें । कुंण दृष्टांते सोभे छ ? जिम ऋषभकूट पर्वतनई विषई चक्री दिग्विजय करी पोतें नाम लिखें, तिम भविक-भवि प्राणी पणि मिथ्यात्वादिकनो जय करी चक्रीनी पर आंगीरचना मिसै ऋषभकूटें नामो लिखतो छै, तिम जिनेंश्वरें दिग्विजयनी आंगी रचीइं छै ॥२॥
चंपकस्युं दमणो मन रमणो संझ-रागस्युं सामा रे | सूर्याभादि करइ जिनपूजा सकल सुरासुर गातई रे || ३ ||
चांपाना फूल सार्थे - दमणो मनने गमतो; दमणानां पत्र केवा ? मननई खुस्याल करई एहवां । जिम संध्या रागें मिलती श्यामा रात्रि शोभइ छई तिम वली आंगी शोभई छें । वली सूरयाभादिक सुर- देवतां जिम जिननी पूजा करइ तिम । वली कुंण पूज्यई ? सकल क. समस्त सुरासुर गौतई हुंतई तिम ए कुसुम पूजा शोभई छई ॥३॥
ए सातमी पूजा विविध जाति पुष्पादिकइं करी आंगी करवानी ॥७॥ ए पंचवरण कुसुम जातिनी आंगी रचना पूजा सातमी कही ते माटे हिवणां संप्रदाई विविध जातिनी आंगी करता दीसइ छइ ॥७॥
५७. गातें थकें
ब. ।
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राग गाथा सातमी पूजा विविध प्रकारनां फूलनी आंगीनो अधिकार कह्यो संपूर्णम् ॥७॥
हवें आठमी पूजा चूर्णनी राग केदारै तथा कमोद कल्याण कहे
छइं -
राग-केदारो तथा कमोद कल्याण ॥ घनसारादिक चूरणं मनोहर पावन गंध । जिनपति अंगसु पूजतां जिनपद करइ भवि बंध ॥१॥
घनसार कहतां बैरास-चंदन्नादिक सुगंध वस्तुनुं सूक्ष्म चूरण कीधुं छई, ते चूर्णनो सुगंध, अतिसुंदर पवित्र गंध छइ जेहनो एहवो । जिनपतिजिनेन्द्र तेहने अंगई सुपूजतां कहतां भली प्रकारे पूजता थका स्यूं करई ? भवि प्राणी जिनपद नामकर्मनो बंध करई ॥१॥
अगर चूओ अति मरदीओ हेमवालुका समेत ।। दस दिसई गंधई वासतो पूजा जिनपद हेति ॥२॥
अगर उत्तम जातिनो, तथा चूओ प्रधान वस्तुनउं अति पवीत्र, तेणें शरीर मर्दन कीजई । ते मांहि हेमवालुका क० बरास-कपूर मरदी-चोलीनेकपूरमांहि भेलीनै ते संघाते चूर्ण भेलवू ज । ते चूर्णसहित करी दस दिसई सुगंध वासइ तिम, सुगंधता परिमल वासतो थकी पूजा करई, जिनपद बांधवानो ए हेतु छै ॥२॥
(यद्यपि वासपूजा पहिलां कही छै ते वास चंदननो जाणवो) ए पूजानो गीत कानडे रागे कहै छै ॥
गीतं - राग कनडों ॥ पूरो रे माई चूरो रे माई जिनवर अंगई सार कपूर । सब सुख पूरण चूरण चरचित तनु भरि आणंद पूरो रे माई ॥ जिन० १॥
अरे माई ! ते उत्तम संबोधने । हे भाई ! प्राणीउ ! मनोरथ पूरउ । ५८. चूर्णादिकनी - ब. । ५९. कहीस - ब. । ६०. घनसारादि चूरणां ब. । ६१. जिनपति अंगस्युं ब. । ६२. बरासादिक ब. । ६३. अगरनो ब. ।
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अनुसन्धान ३९
जे जिनवरनुं अंग सार बरास कपूरें पूरो, अनें आपणा दुरित चूरो । अथवा घनसारादिक महमूर चूरो। हे माता ! मननी आस्या पूरो, कर्मशत्रुं चूरो । माताजी ! श्री जिनेन्द्रना सरीरनें विषे सोभायमान एहवो सारो कपूर भिमसेंनी सकल सुख पूर्णे करै । सकल सुखनुं पूरण एहवुं जे चूरण तिणें करी चरिचित क० अरचा पूजा करो । कर्म शत्रुने टाले ते जिनन चर्चे । जिन तनुं सुरभर भर्युं ते जाणीई । आणंद - घमंडे करी मे सरीर भर्यू, आणंदने पूरई भविकें पोतानो आत्मा भर्यो छै | ॥१॥
1
पावन गंधित चूरण भरस्युं मुंचति अंग उवंग |
अष्टमी पूजा करत मन जाणती मेलावतीआ सुख - संगई पूरो० ॥ २ ॥
पावन क० पवित्र, गंधित क० गंध- सुगंध चूरण, तेहनई भरस्युं क० जे भरण भरीइं, तेणें करीने शोभे छई । केवूं ? मूंके । स्यूं ? प्रभुने अंग उपांगई मुंचति क० मूके- थापे । अथवा अंगउपांगई ए चूर्ण पूजोक्त छै ते भणी अंग उपांगना जे कर्म बांध्या तेनें मूकावई एहवीं आठमी पूजा करतो भविक मनमां जाणतां थकां, एहवां जे भव्य प्राणी मनमांहि इम जाणीइं छई, ए चूर्ण पूजा सुख-संगने मेलावती क० संयोग करती छ । तेहनें मेलावें मोक्षना सुखने एहवी वास पूजा छई एतले अष्टमी पूजा सुगंध चूरणनी कही चूर्ण वासनी संपूर्ण पूजा थई ।
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इत्यष्टमी पूजा ॥
हवें नवमी पूजा ध्वजनी, गौडी रागें वस्तुयइ कहे छै जाफरतालनी जाति ।
वस्तु जाफरताल ॥
राग - गोडी, देवनिर्मित देवनिर्मित गगनि अतितुंग धर्मधजा जन मन हरण | कनकदंडगत सहस जोयण, रणरणति किंकणी निकर ।
लघु पताक त नयन भूषण जिम जिन आगलि सुर वह ए । तिम निज धन अनुसारि, नवमी पूजा धज करी
कहें प्रभु तु हम तारि ॥ १ ॥
ब. ।
६४. आठमी
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गोडी रागेण गीयते । वस्तु, जाफरताले गावुं । तालीनी जाति । देवनिर्मित क० देवताइं निर्मित - नीपजाव्यो । स्यूं ? आकाशनें विषें अत्यंत उत्तंग-मोटो-उंचो-सहस्र योजन उंचो धर्मध्वज । एहवें नाम ध्वज, भविजननां "चित्तनई हरइं छइं । धर्मध्वज देखीनें सुवर्णनइ दंडई आरोप्यो - थाप्यो । केहवो ? सहस्र योजननें मानें दंड उंचो देवताइं कीधो । रणझणाट शब्द करई छै घुघरीना समुदाय जिहां तेनां निकर, तेणे सहीत, नान्ही वली ध्वजा सहस्र, तेणें करी - तेहना परिवारें युक्त सहीत शोभे छ । नेत्रनई" भूषणजेवा योग्य एहवो ध्वज छ । जे रीतिं प्रभु आगलिं सकल सुर समुदाय इंद्रध्वज वहइ छइ ते रीतिं भविक पणि पोताना धननई अनुसार सुख पामई ए रीतें, निज- पोताना धननें अनुसारें, संसार असार जांणीनई ए नवमी ध्वजानी पूजा करी भव्य प्राणी प्रभु प्रतें इम के छै: स्वांमी ! प्रभु ! अह्मने तारो, भवरूप संसार समुद्रमाहि तारो ! ॥१॥
ए नवमी पूजा ध्वजानुं गीत कहे छई :
गीतं - राग
गोडी ॥
नट - रामगिरि रागेण गीयते ।
माई सहस जोयण दंड ऊंचो जिनको धज राजई । लघुपताक किंकणी निकर पवन प्रेरीत वाजई || १ | माई० ।
गीतं गौडी गई तथा नट्टरागई तथा रामगिरि बे रागई ग्यांन कर छै । माई, हे माता ! ए शब्द संबोधनई । हजार योर्येणनो दंड छई, सुवर्णनो डंड उंचो छै । एहवो जिन आगलिं एतलें जिनराज - वीतरागनों ध्वज भूषीत सहित- युक्त छै । नांनी घुघरीउं, तेणें निकर समूह, घूघरीना समुदाय धुत वायरई करीनें प्रेरी हुंती मधुर शब्दई वाजती ॥१॥
1
57
सुरनर मनमोहन शोभित जिउं सुरइं धज कीनो ।
तिम भवि धज पूज करतां नरभव फल लीनो || २ || माई० । सुर-देवताना, व्यंतर, दानव, वली नर ते मानवना - मनुष्यसमूहनें
६५. नामें ब. । ६६. मन हरी लीइं ब. । ६७. सुवर्णनो दंड ब. । ६८. हजार योजननो ब । ६९. आंखिनई ब । ७० करतां ब. । ७१. जोजननो ब. ।
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अनुसन्धान ३९
मननई मोहनहार धजा शोभावत छइं । जिम देवताइं ध्वज कीधो महेंद्र, चोस? इंद्रे समोसरणनी रचना करी, तिम भव्य जीव-भविजन-प्रांणी ध्वजानी पूजा करतां थकां जीवें स्यूं पून्य उपायुं ? मनुष्यना भवनुं फल लीइं, लाहो लीजीइं । तीर्थंकर पदवीनो लाभ पांमई ॥२॥
इति नवमी पूजा ध्वजानी ॥९॥
हवें गौडी रागई धवलनी देशी, दशमी पूजा ग्रहणानी कहे छै ।
राग-गोडी : धवलनी देशी । लाल वर हीरडा पाछि पीरोजडा विधि जड्या ए मोतीय नीलया लसणिया भूषणा तिहां जड्या ए॥ अंगद रयणनो मुगट कंठाउलि कीजीई ए काने रविमंडल सम जिनकुंडल दीजीइ ए ॥१॥
लाल-राता वर-प्रधान जे हीरा-रत्नजाति, तथा पाछि नीलरत्न पास प्रवाली, पीरोजा ते हीरा रत्नजातिविशेष जांणवा । ते साथे विधिस्युं जड्या कारीगरें मोतीयल-स्वेत वर्ण मुक्ताफल नीलकर इति नीले रंगई नीलूयानीलमणि लसणिया प्रसीध अभंग हीरा, इत्यादिकई ते रत्ननां भूषण ग्रहणइंवीतरागर्ने ग्रहणे जड्या छइं । एहवां अंगद-अंगना-बाहुनां भूषण एहवां तथा वली रत्ननो मुकुट, तथा वली कंठावली-गलानां भूषण, वली बीजां ग्रहणां । बें काननें विर्षे केवा कुंडल छै ? रविना मंडल सरीखां दीपतां कुंडल प्रभुने - जिनेश्वरनई वेहरावीइं - दीजई क. थापीइं ॥१॥
चंद्रमा-सूर्यसमान बे कुंडल जिननें कानें । इम इणि प्रकार आपीई "चंद्र रवि मंडल, सम दोय कुंडल, जिनतणइं कानि इंम दीजीइं ए".... ए पाठांतर ॥
हवें ग्रहणानी पूजा दशमी, तेहनो गीत तोडी रागई कहे छई ।
७२. सोभायमान ब. । ७३. लालवर हीरडां पास पीरोजका ब. । ७४. लसणीआ भूषणें ब. ।
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गीतं । राग तोडी त्रिताली ॥ मुगँट दीओ मुगट दीओ कनकें घड्यो विविध रयणे जड्यो जिनवर सीसि । उर वर हार रचित बहु भूषण दूषण हरो जगदीस ॥१॥ मुगुट० ॥
मस्तकें मुगट ते थापो । सुवर्णे घड्यो-रच्यो, रतनई करी जडाव कीधौ । वली विविध प्रकारे विचित्र जातिनई रत्नई करी जड्य छइं । तेणे सहीत श्रीजिनवरना मस्तकनई विषई घेरो-मूंको । हृदयस्थलनइं विषई वरप्रधान हार । एहवां रचित घणां भूषण करी सहीत ते ग्रहणां रचीनइं भुषण पेहर्यां हे जगदीश ! दूषण-अमारा कर्मनां हरो ।
लालडे खरे हीरे पाचि मोतिनैं रयणे जमे( डे) दोए कुंडल अंगद जडित सिंहासण चामर लिओ देउ रे आखंडल.... ॥२॥ मुगट० ॥
लाल ते खरी, वली साचा हीरा, वली पाछि प्रवाली मोती रत्न तेणइं करी जड्या दोइ कुंडल कहतां बेहु कानना कुंडल सोभायमान दीशे छै । अंगद क० बाहिनां बे बाजुबंध-बाहुनां भूषण सोभे छई ते प्रतें दीउं । अथवा जडित सिंहासन चामर विजें समोसरणे स्वामी प्रभुनइं । वली दिउ इछीत आपो अनइं जिनपद लिउँ । अथवा वली आखंडल कँ.इंद्रनी पदवी लिउंपांम्यो तुमें आलो ॥२॥
इति दशमी पूजा गरहणानी ॥१०॥ ___ए तीर्थंकरनइं भूषणपूंजा करतां इम भावीइं, एतलैं दशमी पूजा
७५. मुगट दीओ कनके घड्यो ब. । ७६. थाप्यो ब. । ७७. "आगासगएणं च ... छत्तेणं सेयवर चामर धम्मब्भएणं सपायपीठसिंहासणेणं एस आकासै चालता होइं ए आगम पाठ छै । समवसरण बिसइ तिवारई च्यार दिसई च्यार ध्वज प्रमुख सर्व चोगणा होइ" आटलो पाठ अ. प्रतिमां ( ) मां उमेरेल जोवा मळे छे. । ७८. बहु भूषणे करी ब. । ७९. पाछई ब. । ८०. इंद्रादिक - ब. ।
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अनुसन्धान ३९
ग्रहणानी थई | हवें इग्यारमी पूजा कुसुमघरनी राग केदारा - गौडीइं कहें
छईं ॥
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राग केदारो गौडी ॥
विविध कुसुमे रच्यो विश्वकर्मा रच्युं कुसुमगेहं । रुचिर सम भावस्युं सुर विमानं जिस्युं रयणरेहं ॥ १ ॥
राग गोडी केदारौ । तिम वली विविध जातिन कुसुमई करी रच्यं क० रच्युं । वली विश्वकर्मा जे विधाता तेणई जाणी रच्युं-नीपजाव्युं, एहवुं कुसुमनुं घर रुचिर कहतां मनोहर - प्रधान, भावई करी देवना विमाननी परिं रतननी रेखानी परि शोभायमान छै ।
तोरण -जालस्युं कुसुमनी 'जातिस्युं शोभतू ए । गूंथि चंद्रोदय झुंबक वृंदने घोलतूं ए ॥२॥
तोरण, जाली कहतां गोख, तोरणें सहित शोभे छ । एहवूं फुलनो घर तें फूलनी जातिस्युं करीने घर घणुं शोभतुं छ । वली फूलनो चंद्रओ गूंथ्यो छइं, वली फूलना झुंबकना वृंदस्यु शोभतुं छे एतलै कुसुमना गोप तेहें कुसुमनें तोरणें सहित ऊपरि कुसुमनो 'चंदुओ गूंथ्यो छई । फुलघरई फूलनुं झुंमणुं पंचवर्णी चंद्रआ शोभे छई ते फूलघर ॥
हवें इग्यारमी पूजानुं गीत राग केदारें तथा विहागडें कहई छई ॥ गीतं राग केदारो विहागडो ॥
मेरा मन रमो जिनवर कुसुमघर हारे कुसुमघरे, मेरा० । विविध युगतिवर कुसुमकी जाति भाति जेसें अमर घरें....मेरा० ॥१॥
अरे भविको ! एहवा कुसमना जिनवरना घरनई विषई माहरु मन रमो-रति पामो - केलाश करो । भय ( भव्य ) लोको कुसुमघरें मन रमो ए वाणी हवी । ते भक्तिना घरनें विषदं विचित्र प्रकारनी प्रधान युगति कुसुमनी जाति" तेणें सहीत एहवी शोभई छई । केहवुं शोभे छे ? जे अमरघर - देवविमान ज" नही साक्षात तेहवी शोभा छें कुसुमना घरनी ॥१॥ ८१. ज्योतिस्युं ब. । ८२. झूमणुं चंद्र सोभतुं ए ब. । ८३. चंद्र्यचंद्रूए अ. । ८४. भविजनो ब । ८५. भांति - ब । ८६. ज नथी-ब. ।
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कुसुम चंद्रोदय झूमक तोरण जालिक मंडप भागि । एकादशमी पूजा करतां अविचल पद भवि मागि ॥२॥
ते कुसुमना घरनी, चंद्रूआ-गोख-कुसुमना झूबकनां तोरण तथा कुसुमना जालियां क. कुसुमना मंडपना भाग मध्ये मध्ये गोखनी रचना देखीनई घणुं ज जीवने खुस्याली उपजई । जाली-मांडवो, तेनो भाग तें चोका देखीनइं खस्याल । एहवं फूलघरनी भावना श्रीजिनेश्वरनी । एम-एणे प्रकारइं इग्यारमी पूजा करतो भविक प्राणी अविचल जे मोक्षपद तेहनई जाणीइं स्वामी पाशें मागई छई, भविजन श्राविक-श्राविका ॥२॥
इति इग्यारमी पूजा कुसुमघरनी ॥११॥ एतलई इग्यारमी पूजा कुसुमना घरनी गीत सहित थई ।
हवें बारमी पूजा फुलहरई, कुसुमना मेघ वरसाववानी पूजा, ते मल्हार रागें कही छइं ।
पंच वर वर्णनो विबुध जिम कुसुमनो मेघ वरसई । भमर भमरीतणा युगल रसिया परिं त्रिजग हरसइं ॥१॥
राग मल्हारेण गीयते । वर-प्रधान पंचवर्णी जे विविध प्रकारनो मेघ वरसें फुलघरे । श्रीजिनेश्वर फूलघरे विरच्यां तिहां फुलनो मेघ वरसई । विबुध कहतां पंडितजन ते पणि भगवंत आगलि इमज कुसुमनो मेघ वरसावई । “जिम भमर--भमरीना युगल हर्ष पांमई गंध लेवाने तिम ते जिनपूजारसिक भव्य प्राणी श्री जिनेश्वरनी पूजाई खुसी थाइं । तीम ते त्रिण्य जगना लोक हर्ष पामई ॥
पगर जिम फूलनो पंचवरणे करी सुकृत तरसई । बारमी पूजमां हरखि" तिम जिम मिलई कनकपूरीसई ॥२॥
जिम पगर क. समुदाय फूलनो पंचवर्णनो करतां, पंचवर्णी फूल पगर भरई देवता, वली मनुष्य पूजई, इम सुकृतनइं जे भली करणी करतां तरसई छई उच्छाहसहित पांमे । इंम पणई मननें कहै छई : अरे मन ! ८७. फूलनों - ब. । ८८. तिम - ब. | ८९. खुशी ब. । ९०. हरखित तिम जिम मई कनकपूरीसरे ब. ।
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अनुसन्धान ३९
श्रीजीननी बारमी कुसुमवृष्टिनी पूजा हर्षे करतो थको शुद्धभावे करें तो, सुवर्ण - पुरिसो मिलाई हर्ष पामें - तेहथी पणि अधिक हरखिवंत था[इ] || २ || हवरं बारमी पूजानुं गीत मेघमल्हार रागई कहई छइ ।
गीतं राग मेघ हा ॥
मेहला जिउं मिली वरसई करी करी फूलपगर हरैसई ... मेह० पंचवरण जानु-माने समोसरणि जिन( म ) सुर मिली तिम करे श्रावक लोक ।
द्वादशमी " पूजा तिम जनमन मुर्दे फरसइं... मेह० ॥ १ ॥
अथ मेघमलारमां गीत ।
1
श्रीजिनेश्वरी पूजा मेघनी परें घणे हर्खे पोहचें । मेघ जिम मिली वरसई तिम तिम फूलपगर करी करी हर्षइ वरसो । जिम जिम फूलपगर इंद्रे भर्यो ते भावें वितरागने फुलपगर भरो । वलण करवी । पंचवर्णी कुसुम जानुं कहतां ढींचण प्रमाणइं भरें । वली " समवसरण मांहि जिम देवता मिलीने, च्यार नीकायना देवता भेला मिलै कुसुम वृष्टि कर, तिम-तिणें प्रकारें श्रावकलोक पणि भेला थइनें जिननी भक्ति करई, इम भव्य प्रांणी जे बारमी पूजा प्रभुनई करेंस्यें तेहनें जनम-जनमनुं पातिक जाई, अनंता सुखनी स्पर्श] ना करई । लोक - भविक लोक, तेहना मनमां मुद- हर्षनई फरसो ॥ १ ॥
भैमर पई कहावति जड तिं, जाणुं अधोवृंत पडतई ताण अधोगतिनांहि ।
जे हमुपरि प्रभु आगलि पडिं रे हमपरि नही तस पीड । कुसुमपूजा कहइ सुख लहई, दिन दिन जस चढतई ॥२॥ मेह० ॥
हवइ कुसुममां जे भमर गुंजारव करे छई ते जांणीइं जड - कुसुमनी ९१. करी तो - ब. ९२. मलार- ब. । ९३. दरिसई ब. । ९४. प्रभुपूजा ब. । ९५. सुह फरस्यें ब. । ९६. समोसरणने विषें ब.
९७.
भमर पई कहिवती जडती जे हमुपरें प्रभु आगलिं पडे रें । हम परिं नही तस पीड कुसुम पूजा कहे सुख लहै
दिन दिन जस चडतें ॥२॥ मे०
ब. ।
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माला ते भमरा-मुखइ इम कहावई छइः ऊधइं बीटइं जानें-प्रमाणइं जोयण मानइं वृष्टि पडतां, स्यु कहै छै ? तेहनें अधोगति न होयइ । जिम फूलने इंम कहे छइं । फल भविजननइं । जेह अह्मारी परि श्रीप्रभूनां मख आगलि रात्र-दिवस जे प्राणी पडई तेहनइं भवनां बंधन जास्यइं, जिम फूल बंधन विगर थाइं । अने वली हमपरि कहतां अमारी परइं तेहनें पीडा-बाधा पणि न होइ । बंधन-रहीत थाई । इम कुसुम पूजा कहई छई ते अह्मारी परई सुख लहस्यई-पांमस्यई, दिन दिन जसवाद चढतई हुतई । कुसुमपूजा करें श्री कुमारपालनी परें कोडि ७नां फूल १८ तेणें करी पूज्या, तेना महीमाथी १८ देशें राज्य पांम्यूं पूजाथी ।
एतलई इति श्री बारमी पूजा छूटा फूलना वरसात वरसाववानी पूजा थई ॥१२॥
इति बारमी पूजा छूटा फूलनो मेह वरसाववानी पूजा ॥ हवइं तेरमी पूजा वसंत रागई अष्टमंगलिकनी कही छइं :
राग वसंत ॥ रयण हीरा जिस्या सारवर तंदुला वरफल्या ए स्वस्तिक १ दर्पणि २ कुंभ ३ भद्रासन ४ स्युं मिल्या ए । नंदि-आवर्तक ५ चारु श्री वत्सक ६ वर्द्धमानं ७ मत्स्ययुगलं लिखी ८ अष्टमंगल हस्यइं शोभमानं ॥२॥
रतनना हीरा सरीखा सार उज्ज्वल, रत्नमांही राजेवां सारा सोभायमान, चोथा(खा) अखंडवर-प्रधान तंदुल, वर फलई फल्या, तेहना(मां) साथीओ प्रथम १, अरीसउ बीजें २, कलश त्रीजें ३, भद्रासन ते सिंहासन, सिंहासने ब्येठानुं चोथइं ४, ए च्यार मंगलीक साथई मिल्या । नंदावर्तक पांचमे मंगलीक ५, मनोहर श्रीवत्स हीइं जिनेश्वरनें हीयें, चक्रीनइं होय ६, वर्द्धमान ते सरावसंपुट सातमें मंगलीक ७, आठमें मत्सयुगल-बे माछलां ८, एहवां अष्ट मांगलिक आलेखीइं । साव रत्नमय चोखा अखंड पूरीई, घणुं शोभायमान, तेनी ॥२॥
९८. पडस्यै - ब. ।
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अनुसन्धान ३९
हवई तेरमी पूजा- गीत वसंत रागइं कहीइं छइ ॥
गीतं-वसंतरागेण । "जिनप आगें विरचो भविलोका जस दरिसणइं शुभ होइं युं रे देखत सब कोई ।१। जिन० ॥
जिनप कहतां वीतराग-जिनेश्वरनां पद आगलि विरचो कहतां रचोनीपजावो, अरे भविक लोको ! भव्य प्राणीओ ! तुमई श्री जीनेश्वरनें भजोध्याओ । जेहनां दरिशणथी मंगलीक होइं, अपमंगलीक वेगलां जाई । तिम अष्टमंगलीकथी अपमंगलीक जाई । जेह श्रीवीतरागना दर्शन थकी तथा अष्टमंगलीक दीठाथी सुख थाई ते माटें । इम तुह्मो सहु प्रांणी देखो जाणो
॥१॥
अतुल तंदुलई करी अष्टमंगल वली तिम रचो जिम' तुह्म घरि होइं ॥जीन० ॥
अतुल क० जेहनी तुलनाइ कोई नावइ एहवा घणां तंदुलें - अखंड चोखें करीनैं श्रीजिननां मूख आगलई, अष्ट-आठ मंगल श्रेणि तिम रचो- तिम करो जिम फिरी तुम्हारई घरइं अष्टकर्म चोर विलय जाइं, आठ मंगलिक थाइ, तथा अष्टमद घात जाई, तथा अष्टकर्मना शोभाव मंगलीक थाइ तिम प्रांणी तुम घरे होयं, उपद्रव जाई, भय रहीत थाई ॥२॥
स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ कुंभ ३ भद्रासन ४ नंद्यावर्तक ५ वर्द्धमांन ६ । मत्सयुग ७ दर्पण ८ तिम वरफल गुण, तेरमी पूजा सवि कुशल निधानं ॥२॥ जिन० ॥ इम अष्टमंगलीक करवा :
साथीओ १, श्रीवत्स २, कामकुंभ-कलशं ३, भद्रासन ४, नंदावर्तकनव खूणालो साथीओ ५, वर्द्धमान ते सरावसंपूट ६, मत्स युगल-बे माछलां पद्मदहनां ७, आरीसो, तिम वर-प्रधान 'फैलसहीत 'गुणसहीत छै जिहां, ९९. जिनपद आगलि विरच्यो ब. । १००. भविजनो ब. । १०१. जिम घर होई ब. । १०२. मंगलिकनी -- ब. । १०३. फलें - ब. । १०४. गुणे - ब. ।
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एहवी तेरमी पूजा सर्वमंगलचं निधान छै । अथवा ए फलपूजा, पणि ए पूजामां घणे(णी?) पूजा करवानो विधि जाणिवों इंम पणि छई । अष्टमंगल करइं नालिकेरादिक, पछे फुल ढोयइं“ । एतलें तेरमी पूजा अष्टमंगलीकनी
थई ॥
इति तेरमी अष्टमंगलभरणपूजा ।
यद्यपि पूजा ए पूर्वे गाथाना बंधमानथी कही जे माटें प्रथमथी पूजा मांडीयइ तिवारे ते आरती-मंगलदीवो इहां करीनई पछै धूप 'उखेवणनैवेद्यढोकननी पूजा १४मी करई । पणि इहां केतलाएक पूर्व स्नात्र करीने आरती-मंगलदीवो करीने पढ़ें पूजा भणावइं, तिवारें आरती-मंगलदीवो पूर्वे कर्यां माटि इहां अष्टमंगल थापइं । १°सिद्धांतादिकें पणिं अष्टमंगलीक लिखवां ते सर्व पछी छइं, ते माटें जिम श्रीवितरागनी भक्ति बधई अनै वली बहुश्रुतनी आज्ञा प्रमाण छे। परं नित्य पूजाइं पणि आरती-मंगलदीवो कैरवो जोईई, तो स्नात्रइं तो कलशाभिषेक पूजानंतरै आरती-मंगलदीवो प्रगट करवो अनैं अष्टमंर्गले. ठामइं स्वस्तिक पूरई 1 नैवद्य ठामई अक्षत-त्रिण पूजा करे तों नैवैद्यपूजा गणें । परं सर्व प्रत्येकें प्रत्येकें नैवेद्य च्यार आहारना करवा जोइई। पर्छ यथाशक्ति । अवधि आशातना टॉलई जिम थाइ तिम प्रमाण छई । इहां कोई हठ नथी । शक्तियोगें भक्ति न लोपें । शक्तिं न सो(गो)पवे अमें भक्ति न लोपई तिम करइं । ए सर्वत्र विधिपाठ छई ।। हवई चौदमी पूजा धूप-दीपनी मालवी गौड रागें१६ कहै छै ॥
राग मालवी गोडो ॥१९७ कृष्णागरतणुं चूरण करी घणुं शुद्ध घनसारस्युं भेलीओ ए । कुंदरुक्को तुरुक्को सुकस्तूरिका अंबर तुंबरस्युं मेलीओ ए ॥१॥
१०५. मंगलीकनुं निधान्न ब. । १०६. मंगलीक - ब. । १०७. नालेर फुल - ब. । १०८. ढोईई - ब. । १०९. उखेववानी निवेद्य - ब. । ११०. सिद्धांते पिण - ब. । १११. थाई - ब. । ११२. कह्यो - ब. । ११३. अष्टमंगलीकनें - ब. । ११४. टालतें - ब. । ११५. करवू - ब. । ११६. रागेण गीयतई - ब. । ११७. गोडी - ब. । ११८. तुंबस्यूं मलीओ ए ब. ।
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कृष्णागर-शुद्ध मावरदी, तथा विविध जातिना उत्तम अगर तेनुं पवीत्र चूरण करीनइं, ते चूरणमांहिं एतली वस्तुं भेलीइं । त्यार पछी शुद्ध-निर्मल घनसार ते खरं बरास, मांहि भीमसेनी कपूर, भेलीनइं, एतलें धूप भेलीजई, कुंदरुको सपेत कुंद, धूप-तुरुको, एहवें नामें धुप, वली तुरुक्क कहतां सेलारस, धूपविशेष, वली भमरी कस्तूरी सुगंध द्रव्य, अंबर धुप, तुंबर धूप, "चिडादिक विशेष तेणई मेलवीनइं ॥१॥ रयण कंचनतणुं धूपधाणुं घणुं प्रगट प्रदीपस्युं शोभतू ए । दस दिशई महमहई धूप उखेवतां चउदमी पूज रज खोभतूं ए ॥२॥
रतननु, तथा कंचन ते सुवर्णतुं, तथा रूपा, तथा पीतलनु, धूपधाणुं घणुं भर्यु धुपें करीनइं, देखतुं - प्रगट दीपके साथै जे धूपधाणुं शोभे छई, पिण केहवू ? ते धूपनो वायरो दश दशें जातां, दस दिसई सुगंधस्युं महमहइ, मसमसाट थयो रह्यो धूप उखेवीतुं हुंतो उखेवता थकां, भव्य प्रांणीने चउदमी पूजा ते करतां, रज कहतां पापरूपी जे रज तेहनें टालें-नीवारइ, पापनें खोभतुं कहतां टालतुं छइ ॥२॥ हवइं चौदमी पूजानुं गीत कल्याण रागै कहै छइ :
गीतं - राग कल्याण ॥ अती ए धूपी धूमीली जिनमुख दाहिणावर्त करंता देवगति सूचति चाली ॥धूपी० ॥१॥
गीतं - राग-कल्याण रागेण गीयते वाच्य । __ अरे जोओ-प्रांणी ! ए धूपना धूमनी श्रेणि श्रीजीनेश्वरने जिनवरना मुखनें आगलि जिमणे पासई-दक्षिणभागइ आवर्त करती, एतलें सवली प्रदक्षिणा देती-शोभइ छइं, ते जाणिइं जे[आ]काशें धूपमा(धूमा)वलि चाली, ते जाणीइं देवगति सूचइ-कहई छै भविकनें, धूप करतां भव्य प्राणीनइं धूप स्यूं कहे छई ? अरे ! अमारा परें उर्ध्वगति जास्यो ! ए भाव कृष्णागर शुचवे छइं ॥१॥
११९. चीडादि -- ब. । १२०. दिवा ब. । १२१. धमाली ब. ।
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कृष्णागर अंबर मृगमदस्युं भेली तिम घनसारो । धूप प्रदीप दशांग करतां चौदमी पूजा भव तारो... धूपी० ॥२॥
धुप कृष्णागर, अंबर अनई साथे वली कस्तुरी स्युं भेली, तिम वली कपूर, एहवो धूप, तथा प्रदीप । दशांग धूप करवो, वली तिम कपूरनो दीवो करीनइं, एहवी भविजनइं धूपपूजा, वली दीवानी पूजा करतां, सासग धुप करतां थिकां, चौदमी पूजा करतां भव-संसार पार ऊतारो । कुण ? एहवी चउदमी पूजाना फलथी ॥१४॥
इति आरती मंगलदीवानी चौदमी पूजा ॥
एतलाई इति श्रीआरती मंगलदीवानी चौदमी पूजा पूरी कही, लिखिता च । श्री गुरवे नमः ॥१४॥
हवई पनरमी पूजा त्रिवेणी रागई गाथा-बंधई गीतनी पूजा कहीयै छ ।
राग - त्रिवेणी गोडी, गाथाबंधई ॥ गगननुं नही जिम मानं, तिम अनंत फल जिन गुंणगानं तान मान लयस्युं करि गीतं, सुख दिइं जिम अमृत पीतं ॥१॥
त्रिवेणी रागें कहीस, गोडी त्रिवेणी गीयतई गाथाबंधैं । जिम गगन कहतां आकाशनुं मान-प्रमाण नही-अनंत आकाश माहइ, तिणे दृष्टांते जिनेश्वरना गुंण गातां अनंत फल छई । श्रीजिनवरना गुण, तेहना गीतनुं तान-मान-लय ए त्रिण्येनुं एकत्र करीनइं जे गीत गाँवq तेहनें घणुं सुख आपइ अरिहंतनी भक्तिनुं गीत । जिम अमृत पीधुं सुख दीइं तिम जिनभक्तिनुं गीत अमृत शरीवू सुख दीइं ॥१॥ वेणु वंश तल तालमुवगई, सुरत राखि वरतंति मृदंगई । जयतमान पडताल एकतालुं, आयति धरी प्रभु पातिक मा( गा)लो ॥२॥
वीणा-वंश, हस्तताल-कंठ(कर)ताल, वीणा-सरणाइ, हाथनी ताली, कंसाल, बीजाई तंतिना वाजां ते उपांगइ, बीजा तांतनां वाजीत्र मन धारणा १२२. धुप कृष्णागर० ब. । १२३. कस्तुरीनो धुप भेलवीनइं - ब. । १२४. गाई ब. ।
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राखीनें वजाडों । सुरति धारणी राखवी । प्रधान तंतिना वाजा मादल साथई, मादल जर्यैतैमान, पडताल, एकताल, इत्यादिक तालभेद । वाजीत्र पडताल जाति छै, एक तालना भेद ४८ जातिनां, एहवी आस्ता राखीनई हे स्वामी ! अमारा भवनां पातिकने आयति कहतां उत्तर कालना पातिक भविकजननां हे प्रभु - स्वामी ! गालो कहतां टालो ॥२॥
हवें पनरमी पूजानुं गीत श्रीरागई कहै छइ : गीत : श्रीराग ॥
१२६
तु शुभ पार नही सूयणो, मानातीत यथा गयणो
तान मान लयस्युं जिनगीतं, दुरित हरई जिम रज पवणो ॥ १ ॥ तुह्म० । गीत श्री रागेण गीयतें ।
अरे सुयणो ! - स्वजनो ! अरइं स्वामीइंओ ! तुम्हारा शुभ क० तमारां शुभ पुन्यनों पार नहीं, जें जिनेश्वरनी भक्ति करी छै एतलैं घणुं जिम गगनआकाश मानातीत छई तिम तुम्हारा पुन्यनो पार नही ते माटिं । तान माननी जें लय-लव्य संघातें एतीनई एक करी श्रीजिनना गीत गाऊं छउं । वीतरागनी भक्ति करतां पूण्यनो पार नही । दूरित - पापनें हरें, जिम पवन कहतां वायरें रज उडी जाई, वायरो रजनें हरई, तिम तुम्हारां दुरित ते पाप हरे ||१||
वंश उपांग ताल सिरिमंडल, चंग मृदंग तंति वीणो । वाजति तूर जलद जिम गुहिरं, पीतांमृत परि करि लीणो ॥२॥ तुह्म० ।
अरे स्वामीओ ! वंस, उपांग, ताल, श्रीमंडल, इत्यादिक वाजीत्रभेद छइं । चंग-डफ, मृदंग-मादल, तंति वीणायंत्र, तेणें । वली वाजती कहतां वाजई, तूर कहतां वाजित्र जाणीइं, वाजां वाजें । कोनी परें ? जलद - मेघ जिम गुहिर गाजई, जिम वरसात गोहिरें गाज करें, तिम वाजीत्र वाजें छं । पीतां - अमृतनी परिं जाणियइ छे जे लयलीन थया, पूर्ण तृप्तिवंत थया, तुष्टिवंत थया ||२||
१२५. जयमांन
अ. प्रतौ पाठां नोंध ॥ १२७. तांति ब. ।
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ब. । १२६. टिप्प. किहां एक जिन शुभ पालही सुयणो इति
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गायति सुर गायन जिम मधुरं, तिम जिनगुंण गण मणि रयणो । सकल सुरासुर मोहन तूं जिम, गीत कहिओ हम तुह्म नयणो ॥३॥
तुम० ॥ गायति क० गायइं-गाय छै रागें करी, सुरगायन क० सुर-देवताना गायन, वली देव-गंधर्वनी परि श्री वीतरागना गुंण गाय छै । जिम मधुरं क० मधुर होइं तिम श्रीजिन-वीतराग मधुरे सादें वाजित्र समूह वाजतें, जिन गुणना गण क० समुदाय, तद्रूप मणी-रत्न जेहनई विषई, सकल जे समस्त सुरासुरने मोहइं, एहवा श्री १"जिनवरतुं स्तवन-स्तोत्र-गीत भणइं-कहिउं। अझो तुम्हारी दृष्टिं तुमारा नयन-तुह्मारी कृपायई, तेणें करीनइं अमें भक्ति कीधि छइं ॥३॥
एतलै १५ मी पूजा गीतनी थई । इति स्तवन गीत पूजा पन्नरमी १५ ॥
इति श्री गीतं स्तवनें १५ मी पूजा कही । हवई सोलमी पूजा नाटिकनी कही :
राग सोरठी तथा मधुमादन ॥ सरस वयवेष मुखरूपकुच शोभिनी विविध भूषांगनी सुरकुमारी । एक शत आठ सुर कुमर कुमरी करई विविध वीणादि वाजित्रधारी
॥१॥ सरस० ॥ राग सोरठी तथा मधुमादन रागें कहै छै । गीतें शुद्ध कडखो छई। जिम सुरीआभ देवें तथा आंमलेकैलपानगरे नाटिक कीर्छ । सरिखी वयें मुख-रूप-कुचें शोभती एहवी, कुंण ? विविध प्रकारनां भुषणनी धरनारी एहवी देवकुमारी । सुरभे (शोभे ?) श्रीवर्द्धमान स्वामीने वांदीनें आगलि जिमणी भुजा पसारीने १०८ देवकुमर कीधा, डाबी भुजा पसारी १०८ देवकुमरी 'कैरी तेने हाथें ४८ वाजां विविध प्रकारे जे माहोमांहि ४८ वाजता तान साथै बत्रीस प्रकारे नाटिक कीg घणा वाजिब बाजतें । तिम बीजायै १२८. तुं जिन ब. । १२९. जिनेश्वरनुं ब. । १३०. दृष्टि-ब. । १३१. आमलकप्पानगरें ब. । १३२. डावि भूजाथी - ब । १३३. किधी - ब.। १३४. बत्रीसबद्ध नाटिक करें - ब. ।
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प्राणी नाटिक करै, बीजो प्रांणी तें भाव राखई, ते भावनी पूजा कहइ छइ । सरिखी छई वय अनई वेषइं एहवी जेहनां मुख-रूप-कुच तेणई शोभायमान, विविध भूषणवंत, तथा भूषित अंग थकी, एहवी देवकुमारी एकसो आठ, देवकुमर अनैं दैवकुमरीनां सरिखां रूप करई विविध प्रकारनां वीणादिक वाजितना धरणहार ॥१॥
अभिनय हस्तक हावभावई करी, विविध जुगति बहु नाचकारी । देवना देवनइ देवराजा यथा, करति नृत्यं तथा भूमिचारी ॥२॥ सरस०।।
अभिनय हस्ततालि भेद ५४, आरभडभसोलादि नृत्त ४, हस्तकी ते हस्तसंज्ञा, हाव ते मुखना विकार, भाव ते चित्तथी उपना एवं ४ भेदई, तेना हावभाव करी देखाडे, पगले चालें करी भाव देखाडें । इम विचित्रविविध प्रकारनी जुगति करीनें, वली घणा नाटिकनी नाचकारी करती थकई देवाधिदेव ते प्रभु आगलि देवराजा-देवतानी श्रेणि जिम नाटिक करइ तिम भूमिचारीइं मानवी राजाई-मानवनी श्रेणि पणि इम-तेहवां नृत्य करई, मनुष्य पण तें भाव राखीनइं करई नाटिक ॥२॥ हवइं ए सोलमी पूजानुं गीतं शुद्ध नट्ट रागइ कहीयइ छई ।
गीतं - राग - शुद्ध नट्ट । एके शत आठ नाचई देवकुमर-कुमरी । १७दों दो दाँ दुंदुभि वाजति, नाचती दिइं भमरी ॥१॥ एक० ॥
गीतं शुद्ध नटरागेण गीयतें ।
यथा एक शत आठ एतलें १०८ नाटिक करइ, एकसो में आठ देवता ना कुमर अनें देवतानी कुमरी सर्व भेला थइनें श्रीवर्द्धमानना मूख आगे दों दो दो 'एहवई शब्दई वाजतें थिके, दुंदुभिना शब्द वाजतें थिकें, वली अंग वालीनई नाचती नाचती भमरी दिइं४१ ॥१॥
१३५. अभिनव ब. । १३६. अभिनव - ब. । १३७. दो दौ दो ब. । १३८. देवतांनां कुंमर कुंमरी - ब. । १३९. दो दौ सब्द - ब. । १४०. नाचति थकी - ब. । १४१. देती विचरई - ब. ।
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घन कुच युग हार राजी कसी कंचुकी बधी सोलस सिंगार सोभित वेंणी कुसुम बंधी ॥२॥ एक० ॥
घन जे निविड माहोमांहि मिल्या जे कुचयुग तिहां हारनी श्रेणि शोभती छइं, कसी-ताणीनई कंचूकीना बंध पणि बाध्या छइ. वली देवकुमरीना सोल सिंणगार शोभित छई, एहवी देवकुमरी शोभे छै । वली माथानी नीचे वेणि ते कुसुमनी सुगंधताई वासित छई ॥२॥
नट्ट कुट्टिकं ठहु ठहु विच पट ताल वाजइं देखावति जिन हस्तकों नृत्यकि नवि लाजइ ॥३॥ एक० ॥
नट(ट्ट)नाच करतां कंठि-किट्ठि 'तहु तहु' एहवा शब्द थातई 'ठिम ठिम' "चिचिपट चिचिपट' एहवा शब्द थातई, घाति ताल वाजति थकैं, देखाडती जिन-वितरागनइं आगलि हस्तकी देखावति कहतां-देखाडतां थिकां हाथनें चालें करीनई कहइं नृत्य करती-नाटिकणी नाटिक करती लाजती नथी एहवी थकी वली ||३||
तिनों तिना भंति वाजइ रणझणंति विणा
तौ ( तां)डवं जिम सुर करंति तिम करो भवि लीणा ॥४॥ एक०॥ ___ 'तत तत तनन तनन तनन तनतां तनतां तनतां' एहवई शब्दई तिना तिना वीणा वाजइं । तांतिना वाजांना शब्द वाजतई हुंतई वीणांना रणझणाट शब्दता थइ हुंतइ, तंती-वीणा वाजतई थकें 'हे स्वामी ! अमने तारो'ए नाटिकमां संगीत करती थकी ताडवं कहतां नाटिक जिम देवता करई तिमतिणे प्रकारइं भवि क० अरें भव्य प्राणीओ ! लयलीन थइनइं करो, जिम देवताई पूज्या तिम तुमें पण पूजों ! ॥४॥
इति नाटिके पूजा ५६ ॥१६॥ .
इति नाटिक पूजा १६मी संपूर्ण थई ॥१६॥ हवें सतरमी पूजी सर्व १४२. बांधि ब. । १४३. शृंगारे सोभती - ब. । १४४. चिचपट० ब. । १४५. तिना तिना तिना तंति वाजें रणझणति ब. । १४६. तानवं ब. । १४७. रणझण विणानां शब्द हतें थिकें - ब. । १४८. नाटिक सोलमी पूजा - ब.। १४९. ए नाटिके सोलमी पूजा संपूर्णम् - ब. । १५०. पूजा कहस्यैई - ब. ।
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अनुसन्धान ३९
प्रकारना वाजिबनी सामेरी रागई कहइ छइ :
राग सामेरी ॥ समवसरण जिम वाजा वाजई, देव दुंदुभि अंबर गाजइं । ढोल नीसाण विसालो । भुंगल झल्लरि पणव नफेरी । कंसाला दडवडी वर भेरी । सिरणाइ रणकालो ॥१॥
सामेरी रागेण गीयतें । त्रिपदी थोयनी देशी । चोवीस तीर्थंकरने समवसरणने विषई जिम देवता गढनें कांगरें ऊभा थिकां वाजा 'वजावें । देवतानी दुंदुभि आकाशनें विषइं गाजई । आकाशे अंबर गाजी रहें । च्यार दरवाजई ढोल, नींसाण, नगारां मोटां तिम वाजइ । वाजते थकई भविजन सांभली भंगल, नाल, झलरि, पणंव कहतां ढोल, वली नफेरी, कंसाल, दुडवडी-मोटी भेरी, सकल शब्द वाजतें थकें, पाणव नें नफेरी ढोल वाजतै, मोटी कंसालना शब्द वलि भेर वाजतें थकें, इत्यादिक सरणाईना शब्द रणतूरना शब्द "काहलना सब्द वाजतें थातइं ॥१॥
मरुज वंश सरती नवि मुंकइं, सतरमी पूजा भवि नवि चूकई । वेणी वंश कहइं जिन जीवो, आरती साथि मंगल पईवो ॥२॥
मादल, वंशनी मूरली, सर तिनइं-तीन स्वरें बोलती थकी शब्द न मूंकइं । एहवी सतरमी पूजा भविक देव-मनुष्य चूकई नही । जे भावखंडना न थाइं । वेणी वंशवीणा शब्द, मुरली, श्री वीतरागने इंम कहै छै जे 'श्रीजिन चिरंजीवो' ! 'स्वामी ! तुं चीरंजीव' । पूज्ये पूज्य ज्यै जीव जें आरती साथइ मंगलदीवो प्रगट करई, स्वामीनें आरती मंगल ॥२॥ हवइ सतरमी पूजानुं गीत कहै छै : ।
गीतं ॥ घणुं जीवि तूं जीव जिनराज जीवे घj शंख सरणाई बोलै ।
१५१. वाजइ - अ. । १५२. झालर ना शब्द ब. । १५३. काहली ब. ।
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महुयरि फिरि फिरि देवकी दुंदुही हे नहीं प्रभु तणई कोइ तोलई ॥१॥ गणुं० ॥ गीत कडखौ ।
घj जीव तूं, अक्षयपणे जिन ! तुझो जीवो । अक्षय खजानो तारों, माटें स्वामी ! जीवनजी ! तूं घणुं जीवज्थे । तारो महीमा सर्वत्र व्यापी छई। संख-सरणाइ जीननें बोलती इम कहइ छइ । 'महुयरनुं वाजु वली मीठे वचनें फिरि फिरि वारंवार वाजा वाजतें देवकुमरी थकी कहे छै : जे प्रभुतणइं, स्वामी ! तारे तोलई-औपमाने को नथी, त्रिण भुवननो नाथ छई ॥१॥
ढोल नीसाण कंसाल सम तालस्युं झल्लरी पणव भेरी नफेरी । वाजता देव वाजिन जाणें कहें सकल भविकुं प्रभो ! भव न फेरी ॥२॥ घणुं०
ढोल, वाजूं, नींसाण, नगारां, कंसाल, समताल-सातइं एक स्वर थाई मार्टि बत्रीशबद्ध वाजा वाजतै थकें, झलरि, पडह ते ढोल, भेरि, नफेरीइत्यादिक वाजा वाजता थकां, देवताना वाजिब वाजता 'जाणीइ इम कहे छई : सकल-समस्त भविक प्राणीनै भवनी फेरी न होइं जिनवरनी पूजा करतां ए वाजां इम कहे छइं । सकलचंद्र मान सकल-समस्त प्राणीने सुखनो देनार थाओ ए वांजां शब्द कहे छइं ॥२॥
देव परि भविक वाजिन पूजा करो १७कहैं मुखि तूं प्रभु त्रिजग दीवो । इंद्र परिं किम हमे जिनप पूजा करो
आरती साथि मंगलपईवो ॥३॥ घ० १५४. टिप्पण हांसियामां छे : तत १ धन २ शुषिर ३ आनर्ध ४ ए च्यार प्रकारे वाजिब । मंद्र १ मध्य २, तार ३ ए ३ मान । उदात्त १ अनुदात्त २ स्वरित ३ ए ३ तान । सात स्वर । प्रशम ३ । मूर्छना २१ । लय । ताल ४९ । षट भाषा ६ । भारती १ । सात्विकी २ कोशिकी ३ आरभटी ३ वृत्ति । ए अभिनय आत्मिक १ वाचिक २ सात्विक ३ कायिक ४ । - अ. ॥ १५५. जांणीने इंम - ब. | १५६. भव्य प्रांणीनें - ब. । १५७. कहो ब. ।
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अनुसन्धान ३९
देवतानी परिं भविक प्राणी श्राविको ! तुमें स्यूग्रह भाव आंणीनइं वाजिबनादपूजा करो । तुमई एहवं कहो मुखें : प्रभो ! तूं त्रिजगदीपक छौ । इंद्रनी परिं हे जिनपति ! अह्मे किम पूजा करीसीइं हाथै, तो हि पणि आरति साथि मंगलदीवो जिम सुर करई छई ते रीतइं हुं करूं छु.
इति वाजिन पूजा सतरमी ॥१७॥ एतलई सतरमी पूजा वाजितनी गीत सहित पूर्ण थई । हवै धन्यासी रागैं छेहली ढाल कलश कहे छइ, कवित्ता भावें करी :
राग धन्यासी मिश्र ॥ थुणिओ रे प्रभु तूं सुरपति जिम थुणिओ। तीन भुवन जन मोहन तूं जिन, परम हरख तव जणीओ रे ॥१॥ प्रभु०
____ में इणि परि स्तव्यो जिम सुरपति क. इंद्र स्तवई तिम स्तव्यो । सत्तरभेदी पूजाइं करीने मे कविताई कल्पवृक्ष सरिखो मनकामनानो पूरनारो, त्रिण्य जे भुवनना जैन ते प्राणीउना मनना मोहन एहवा तुह्मो जिन-वीतराग । इम पूजा करतां थकां 'परम हर्ष ऊपनो । १७ भेदी करई ।१। एक शत आठ कवित नितु अनोपम, गुणमणि गूंथी गुणिओ । जिनगुण संघभगति कर पसरी, दुरित तिमिर सब हणीओ रे ॥२॥ प्र०।
एक शत आठ १०८ कवित्त नवां ते अनोपम महार्थवान श्लोक कीधां छइं । तदरूप मणीआ गुंथीने माला गुंणज्यौ भविजनो ! एहवइं करी गुण्यउ भक्ति श्रीजिनगुण अनें संघभक्तिरूप किरण पसर्या विस्तर्या । पसरी थकी स्यूं करें ? । भवि प्रांणीनई तिणें करी दुरितरूप में पाप तद्प जें तिमिर, पूजा करतां-सांभलतां तें तिमर सर्व हणाणा-नास पाम्या जाइ ॥२॥ तपगछ अंबर दिनकर सरिखो, विजय दानसूरि मुणिओ । भविक जीव तुह्म थयथुइ करतां, दुरित मिथ्यामत हणीउ रे ॥३॥प्र०॥ ___ श्रीतपगच्छरूप आकाशनें विषई दिनकर ते सूर्य समान एहवा महाप्रतापी
१५८. सकुं - अ. । १५९. अमई - ब. । १६०. लोकनें - ब. । १६१. घणुंज - ब. । १६२. करि ब. । १६३. सो - ब. । १६४. सूर्यनई सरिखों - ब. ।
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पून्य-पवीत्र श्रीविजयदानसूरि गुणवंत केहवां ? मुनिना गुरु छई, भट्टारक छई। तेहनें राज्यइं अरे भव्यजीवो ! तुह्मो वीतरागनी थयथुई-स्तवनां करतां दुरित-मिथ्यामति सर्व हणो । विपरीत वासनाथी ऊपना जे पाप ते टालो । माहरां मीथ्यात्वमति गुरुथी जाई । गुरु मोटा प्रभू छई ॥३॥ इंणि परि सतरभेद पूजाविधि, श्रांवककुं जिनइं भणिओ । सकल मुनिसर काउसग्ग ध्यानइं, "चिंतवि तस फल चुणिउ रे ॥४॥
इंणिपरें सतरभेद-पूजानां भेदं १७ कह्या , ते प्रांणी सांभलीने पूजाविधि करें । एणी प्रकारै सतरभेदी पूजानो विधि श्रावक जननई कहेवा भण्यो । जिनेश्वरई द्रव्य-पूजानों अधिकार कह्यो । जे माटि द्रव्य-पूजाना अधिकारी श्रावक छइ । अमें सकल मुनीश्वर पणि काउसग्ग ध्यांने ।
'वंदणवत्तिया' इत्यादिक पाठई काउसग्ग, तत्प्रत्ययनो करी भावपूजाचिंतन-फल-चुर्ण, ते कहे छइं । अथवा सकल ते सकलचंद्र उपाध्यायई ए पूजा करवानो प्रारंभ काउसग्गमांहि कह्यो इम पणि कहै छै, जे जणाववाने ए पद आ एक छै । कोइक ग्रांमें सकलचंद्र चोमासुं हता तिहां उपाश्रयना मा कुंभार रेहतो तेना गार्द्धम भूक्यानो काउसग कर्यो, त्यार पछी काउसग्ग पार्यो तार पछी पूजा सहु भणे छई । ___ इति श्री सत्तरभेद पूजाविधिसंपूर्ण ॥ श्रीरस्तु ।। छ ।
इति सत्तरभेदी पूजानो टबार्थ लिख्यो पं. सुखसागारागणिइं भविक प्राणीनइं पूजा अर्थ सुगम थावा माटें । संवत १८०० कात्तिक शुदि १३ गुरुवासरे लखित्तं श्रीस्तंभतीर्थे श्री ॥१५०
१६५. चित्त वित तस ब. । १६६. भेदी - ब. । १६७. संवत १८५४ ना वर्षे
चैत्र वदि ५ गरौ लि. पं. जीवविजे० ॥ संवत १८५४ ना वर्षे चैत्रमासै कृष्णपक्ष पंचमी तिथौ गुरुवासरै आणंदपूर नगरेइं पं. श्री दोलतविजय गणी तत् शिष्य पं. जीवविजय लिपीकृतान् श्रीमंगलं । -ब. ॥
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अनुसन्धान ३९
कविवर-श्रीहेमरत्नप्रणीतो
भावप्रदीपः [ प्रश्नोत्तरकाव्यम् ]
म. विनयसागर प्रश्नोत्तर काव्यों, प्रहेलिकाओं और समस्यापूर्ति के माध्यम से विद्वज्जन शताब्दियों से साहित्यिक मनोरंजन करते आए हैं। प्रश्नोत्तर काव्य आदि चित्रकाव्य के अन्तर्गत माने जाते हैं । अलङ्कार-शास्त्रियों ने शब्दालङ्कार के अन्तर्गत ही चित्रकाव्यों की गणना की है। चित्रगत प्रश्नोत्तरादि काव्यों का विस्तृत वर्णन हमें केवल धर्मदास रचित विदग्धमुखमण्डन में प्राप्त होता है, जिसमें ६९ प्रश्नकाव्यों का भेद-प्रभेदों के साथ वर्णन प्राप्त है । उसको काव्यरूप प्रदान करने वाले कवियों में जिनवल्लभसूरि (१२वीं) का मूर्धन्य स्थान माना जाता है । उनके ग्रन्थ का नाम 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य' है । सम्भवतः इसी चित्रकाव्य-परम्परा में अथवा जिनवल्लभ की परम्परा में हेमरत्नप्रणीत भावप्रदीप ग्रन्थ प्राप्त होता है ।।
कवि हेमरत्न पूर्णिमागच्छीय थे । हालांकि भावप्रदीप में गच्छ का उल्लेख नहीं किया गया है किन्तु अन्य साधनों से ज्ञात होता है । हेमरत्न द्वारा स्वलिखित प्रति में आचार्य का नाम देवतिलकसूरि लिखा है । (पद्य ११८) । किन्तु अन्य प्रति में आचार्य का नाम ज्ञानतिलकसूरि भी मिलता है । इसके द्वितीय चरण में कुछ अन्तर है किन्तु तृतीय और चतुर्थ चरण के पद्य ११८ के समान ही है। यह ग्रन्थ 'नर्मदाचार्य' की कृपा से लिखा गया, किन्तु यह नर्मदाचार्य कौन है ? शोध का विषय है । हेमरत्न के गुरु पद्मराज थे । गोरा बादिल चरित्र में इनको ‘वाचक' शब्द से सम्बोधित किया गया है । सम्भव है बाद में ये उपाध्याय बने हो । हेमरत्न के सम्बन्ध में और कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता है ।
इस काव्य की रचना विक्रम संवत १६३८ आश्विन शुक्ला दशमी, के दिन बीकानेर में की गई । (प्रशस्ति पद्य १)
इस भावप्रदीप की रचना बच्छावत गोत्रीय श्रीवत्सराज की परम्परा
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में संग्रामसिंह के पुत्र मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के अनुरोध पर की गई है, जो कि बीकानेरनरेश रायसिंहजी के मित्र थे । बीकानेर के वरिष्ठ मन्त्री थे । नीतिनिपुण थे और लब्धप्रतिष्ठ थे (पद्य ५, ६, ७) । मन्त्री कर्मचन्द बच्छावत न केवल बीकानेरनरेश के ही मित्र थे अपितु सम्राट अकबर के भी प्रीतिपात्र थे और पोकरण के सूबेदार भी थे।
___स्वयं पूर्णिमागच्छ के होते हुए भी खरतरगच्छ के मन्त्री कर्मचन्द बच्छावत के अनुरोध पर इस काव्य की रचना यह प्रकट करती है कि उस समय में गच्छों का और आचार्यों का अपने गच्छ के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं था । मुक्त हृदय से दूसरे गच्छों के श्रावकों के अनुरोध पर भी साहित्यिक रचना किया करते थे। यह हेमरत्न का उदार दृष्टिकोण था।
इस प्रश्नोत्तर काव्य में १२१ अथवा १२४ पद्य है । कवि ने इस लघु कृति में अनुष्टुप्, उपजाति, वंशस्थ, भुजङ्गप्रयात, शार्दूलविक्रीडित, और स्रग्धरा आदि छन्दों का स्वतन्त्रता से प्रयोग किया है । यह प्रश्नोत्तर काव्य है । जिसमें श्लोक के अन्तर्गत ही प्रश्न और उत्तर प्रदान किए गए है । इसमें प्रश्नोत्तरैकषटिशतक के समान श्लोक के पश्चात् अनेकविध जातियों में संक्षिप्त उत्तर नहीं लिखे हैं । काव्यगत अलङ्कारविधान प्रस्तुत करना इस छोटे से लेख में सम्भव नहीं है ।
इसकी प्राचीनतम दो प्रतियाँ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में प्राप्त है, जिनका नम्बर इस प्रकार है - २००८७ । एक प्रति कवि द्वारा स्वलिखित है, दूसरी प्रति उसकी प्रतिलिपि ही है । जिसमें दो श्लोक प्रशस्ति के रूप में विशेष रूप से प्राप्त होते हैं । दूसरी प्रति में प्रशस्ति पद्य २ में कवि हेमरत्न को भी आचार्य माना गया है। प्रति का पूर्ण परिचय इस प्रकार है -
__ प्रति की क्रमाङ्क संख्या २००८७, इस प्रति की साईज २५४१०.९ से.मी. है । पत्र संख्या ४ है । प्रति पृष्ठ पंक्ति १७ और प्रति पंक्ति अक्षर ५२ है । विक्रम संवत् १६३८ की स्वयं लिखित प्रति है ।
दूसरी प्रति का क्रमाङ्क प्राप्त नहीं कर सका हूँ ।
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कवि की अन्य रचनाएँ
हेमरत्न प्रणीत संस्कृत भाषा में अन्य कृतियाँ प्राप्त नहीं हैं, किन्तु राजस्थानी भाषा में इनकी कई कृतियाँ प्राप्त हैं । इसमें से 'गोरा बादिल चरित्र' ऐतिहासिक चौपई ग्रन्थ है । इस चौपई की रचना १६४५ सादड़ी में की गई है और ताराचन्द कावड़िया के अनुरोध से इस रचना का निर्माण हुआ है | ताराचन्द कावड़िया महाराणा प्रताप के अनन्यतम साथी, मेवाड़ के सजग प्रहरी, दानवीर और इतिहास प्रसिद्ध भामाशाह के छोटे भाई थे, तथा उस समय सादड़ी में विशिष्ट अधिकारी थे । कवि स्वयं लिखता है. पूनिमगछि गिरुआ गणधार, देवतिलक सूरीसर सार ।
न्यानतिलक सूरीसर तास, प्रतपई पाटइ बुद्धिनिवास ॥६१०||
अनुसन्धान ३९
पदमराज वाचक परधांन, पुहवी परगट बुद्धि निधान । तास सीस सेवक इम भणइ, हेमरतन मन हरषइ घणइ ॥ ६११॥
संवत सोलइ - सई पणयाल, श्रावण सुदि पंचमि सुविसाल । पुहवी पीठि घणुं परगडी, सबल पुरी सोहइ सादडी ॥६१२ ॥ पृथ्वी परगट 'रांण प्रताप', प्रतपइ दिन - दिन अधिक प्रताप | तस मंत्रीसर बुद्धिनिधान, कावेड्यां कुलि तिलक समान ||६१३ || सांमिधरमि धुरि 'भांमुसाह', वयरी-वंस विधुंसण राह । तस लघु भाई ताराचंद, अवनि जाणि अवतरीउ इंद्र || ६१४||
ताराचन्द कावड़िया के सम्बन्ध में पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी 'गोरा बादिल चरित्र' के 'एक पर्यालोचन' पृष्ठ ५ पर लिखते हैं :
" इस रचना के मुख्य प्रेरक थे मेवाड़ के महाराणा प्रताप के अत्यन्त विश्वस्त राजभक्त, और देशभक्त, राजस्थानीय महाजनों के मुकुटसमान भामाशाह के भाई ताराचन्द ! सादड़ी नगर उस समय मेवाड़ राज्य की दक्षिण पश्चिमी सीमा का केन्द्रस्थान था । ताराचन्द वहाँ पर महाराणा प्रताप के शासन का एक विशिष्ट स्थानक अधिकारी था । कवि हेमरत्न भामाशाह और ताराचन्द के धर्मगुरुओं के शिष्य-समूह में से एक प्रमुख व्यक्ति थे ।"
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यह रचना उदयपुर राज्य और राजवंश से विशिष्ट सम्बन्ध रखने वाले ओसवाल जाति के कावड़िया गोत्रीय ताराचन्द के आदेश और अनुरोध से बनाई गई है । ताराचन्द जैसा कि ऊपर कहा गया है, भामाशाह का छोटा भाई था । महाराणा प्रताप का वह विश्वस्त राज्याधिकारी था । भामासाह के साथ वह भी प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध का एक अग्रणी योद्धा और सैन्य संचालक था । उसने चित्तोड़ के राजवंश की रक्षा के निमित्त अनेक प्रकार से सेवा की थी, अतः उसके मन में चित्तौड़ के गौरव की गाथा का गान करवाने का उल्हास होना स्वाभाविक ही था । (पृष्ठ ७)
यह पुस्तक 'गोरा बादल चरित्र' के नाम से मुनिजी द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से सन् १९६८ प्रकाशित हो चुकी है ।
इस कृति के आधार से निश्चित तो नहीं किन्तु यह सम्भावना की जा सकती है कि वीर भामाशाह कावड़िया भी पूर्णिमागच्छीय थे ।
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कवि की अभयकुमार चौपई, महीपाल चौपई (र. सं. १६३६), शीलवती कथा (र. सं. १६१३, पाली) लीलावती कथा (र. सं. १६१३), रामरासौ और सीता चरित्र आदि नाम की भी अन्य रचनाएँ उपलब्ध है । इन कृतियों का उल्लेख मुनिजी ने गोरा बादल चरित्र, एक पर्यालोचन - पृष्ठ ७ में किया है ।
कविवर - श्रीहेमरत्नप्रणीतो
भावप्रदीपः
[प्रश्नोत्तरकाव्यम्]
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
श्रीमते 'विश्वविश्वकभास्वते शाश्वतद्युते । केवलज्ञानगम्याय नमोऽनन्ताय तेजसे ॥१॥
१. ब. समस्त ।
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अनुसन्धान ३९
`प्रभूतभूतिप्रविभूषिताङ्गकः, प्रध्वस्तकामः समकामदः सदा । प्रभुर्विभूनामपि मङ्गलार्गलः, स मङ्गलं रातु वृषध्वजो विभुः ||२|| पञ्चाननाङ्कितजगत्प्रभुपादसेवी, श्रीमद्विलोलविकसत्करपुष्कराग्रः । विघ्नौघपाटनपटुः कटुकष्टकृट् च, निर्मातु मङ्गलगणं गुणवान गणेशः ||३|| नमः समाजस्थितसज्जनेभ्यः, प्रसन्नचित्ताननपङ्कजेभ्यः । परप्रणीतान्यपि ये वचांसि स्वभावभेदैः परिभूषयन्ति ॥ ४ ॥ श्रीविक्रमाख्ये नगरे गरिष्ठः, प्रज्ञाप्रपञ्चेऽस्तितमां पटिष्ठः । मन्त्रप्रयोगे प्रथितप्रतिष्ठः, श्रीकर्मचन्द्रः सचिवो वरिष्ठः ||५|| तत्प्रार्थनाजातपरप्रमोदः, स्वान्तस्य तस्यैव विनोदहेतोः । कुर्वे नवीनं कमनीयकाव्यै-र्भावप्रदीपाभिधशास्त्रमेतत् ||६|| श्रीवत्सराजान्वयमौलिरत्नं संङ्ग्रामसिंहस्य तनूजराजः । श्रीराजसिंहाभिधभूपमित्रं', श्रीकर्मचन्द्रः सचिवः स जीयात् ॥७॥ न हि निखिलशास्त्रबोधो मतिरपि विमला न तादृगभ्यासः । किन्तु कवित्वे शक्तिर्गुरुरेकः कारणं मेऽत्र ॥८॥ सस्नेहमुत्सङ्गनिवेशितोऽम्बर्या, वक्षोजविध्वस्तं - महेभकुम्भया । शीर्षं गणेशः खलु शङ्कया कया, पस्पर्श विद्वन् ! वद पृच्छ्यते मया ॥९॥ कुम्भावुभावपि ममाङ्कगतस्य मातुलग्नाववश्यमिति वक्षसि शैशवे [स]* । [] ङ्कासमाकुलितचित्तमिभाननः स्वौ, कुम्भौ करेण झटिति स्पृशति स्म तेन ॥ १० ॥ काचिच्चञ्चललोचना नववधूः प्रातर्मुखं दर्पणं,
प[श्यन्ती शिथिलालकं पतिरतिप्राग्भरं - संसूचकम् ।
२. ब. प्रचुर । ३. ब. समग्रं सकलं सममिति । ४. ब. मंगुलशब्दो देश्यः, मंगुलस्य अशोभनस्य अर्गलेति, कल्याणः । ५. ब. कट्वकार्ये त्रिषु मत्सरतीक्ष्णयोरित्यमरः । ६. ब. प्रती 'मन्त्री' इति पाठान्तरम् । ७. ब. केवलः । ८. अ. ब. पार्वत्या । ९. अ.ब. तिरस्कृतौ । १०. अ.ब. आधिक्यं । ११. अ.ब. कथकं । *-[ ]अ. पुस्तके भग्नपत्रत्वादत्र कोष्ठकान्तर्गतांशो ब. पुस्तकादुद्धृतः । एवमग्रेऽपि सर्वत्र कोष्ठकान्तर्गतांशाः ब. पुस्तकादेवोपन्यस्ता ज्ञेया ।
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एकान्तस्थितिमाश्रिताऽपि च पराङ्वक्त्राऽपि भूरित्रपा
___ वीचिव्यूहनिमग्नचित्तचटुला कास्मादकस्मा]दभूत् ॥११॥ पृष्ठस्थितस्य निजजीवितवल्लभस्य, वक्त्रारविन्दममलं मुकुरे समीक्ष्य । श्रीकर्मचन्द्रसचिवेश्वर ! तेन चैषा, [लज्जावती नव]वधूः सहसा बभूव ॥१२॥ काचित्कुलीनवनिता रमणेन दूर-देशात् सुकङ्कणयुगं प्रहितं निरीक्ष्य । निःश्वासदग्धदशनच्छदै(माप्तदुःखा], [गूढं रु]रोद वद कोविद किं निदानम् ।।१३।। नाथः स मां विरहवह्निकृशां न वेत्ति, नाऽसावपीह विरहा[तुरचित्तवृत्तिः । [नो चेत् कथं पृथुलकङ्कणयुग्ममत्र] मां मुञ्चतीति विगणय्य॑ वधू रुरोद ॥१४॥ काचिन्निजं कान्तमवेक्ष्य कोप-कल्लोलामग्नावनताननाऽभूत्] । [तत्कारणं पृच्छति सत्यमुष्मिन], [किं दर्पणं तस्य] करे [ददौ सा]॥१५॥ अन्याङ्गानानय]नपङ्कजचुम्बनेन, कृष्णाधरस्ति[लकचित्रितभालदेशः] । [अप्येष पृच्छति रुडुद्भवहेतुमस्मात्, सा दर्पणं वितराति स्म करे तदीये ।।१६।। [काचिनिजे भर्तरि दूरदेशं, सम्प्र[स्थिते तत्कुशलेषिणी सा] [गच्छाऽऽशु माऽभूत्तव] दर्शनं मे, शीघ्रं वधूरेवमुवाच कस्मात् ॥१७॥ तद्यान -माकर्ण्य मृतामवश्यं, मुक्त्वा (समायाति तदेत्य वल्गु]। [मा दर्शनं मेऽस्तु] ततो मृताया, नाथस्य शीघ्रं बहुजीवितस्य ॥१८॥ पूर्णणाङ्कमुखी महं हृदि मम त्रस्तैणशावेक्षणे,
[त्वामद्यैव विभावयामि च नि]जप्राणप्रिये२ स्वप्रियाम् । इत्थं जल्पति हास्यपेशल-मथो सा स्वं करेण द्रुतं,
___ गल्लं फुल्लमधूकपुष्पपुलिनं पस्पर्श वस्त्रेण (किम्] ॥१९॥ पूर्णे चन्द्रमसि ध्रुवं बत भवत्येव स्फुटं लाञ्छनं,
नाऽस्मद्वक्त्रसरोरुहेऽतिविमले कालुष्यलेशोऽपि च तज्ज्ञाने खलु सोपमानावचसाऽनेना]ऽधुना कज्जलं,
गल्लेऽस्तीति ममार्ज" लोलनयना हस्तेन गल्लस्थलम् ॥२०॥ १. अ.ब. बह्वी । २. अ.ब. समूहं । ३. ब. दन्तपत्रम् । ४. ब. गुप्तम् । ५. अ. पीडितव्यापारः । ६. ब. विचार्य । ७. ब. भर्तरि । ८. अ. गमनम् । ९. ब. चारु । १०. ब. अङ्ककलङ्कोऽभिज्ञानम् । ११. ब. जानामि । १२. ब. भर्तरि । १३. ब. मनोहरं । १४. ब. कृत्वा । १५. ब. सह । १६. ब. निश्चितम् । १७. ब. मृजूष् शुद्धौ ।
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अनुसन्धान ३९
निशि वियोगवती युवती गृहे, विधुमवेक्ष्य नभोऽङ्गणमध्यागम्।। [स]खि समानय दर्पणमाशु मे, क्षुरिकया सह चेति कथं जगौ ॥२१॥ दहति मामयमेणभृदातुरां, चरति चाऽलि ! दवीयसि पुष्करे । तदमुकं मुकुरान्तरुपागतं, क्षुरिकया प्रविभेत्तुमिदं जगौ ॥२२॥ मातुर्निजायाः पदपद्मयुग्मं, नत्वोपविष्टः पुर एकदन्तः । पस्पर्श मूर्द्धानमसौ करेण, कस्मादकस्माद् वद कोविदेन्द्र ! ॥२३॥ गौरीपदाम्भोजयुगप्रजाता-रुणत्वरक्तीकृतमीक्ष्य भूतलम् । स्वकुम्भसिन्दूरजोभिशङ्कया, मूर्धानमेष स्पृशति स्म तेन ॥२४॥ सुदति पृच्छति भर्तरि गद्यता-मितरदेशगतोऽभिमतं तव । अहमिह प्रहिणोमि किमादरात्, तदनु साम्भसि किं तिलमक्षिपत् ॥२५॥ तिलकयोर्व्यतिषङ्गवशादसौ, तिलकमेव निवेदयति स्म तम् । इतरथा कथमेव जले तिलं, क्षिपति मन्त्रिप ! कं परनामनि ॥२६॥ कश्चिद् युवा युवतिवक्त्रमवेक्ष्यमाणो,
नाऽहं विलोचनयुगो धृतिभाग् भवामि । एवं विचिन्तयति चेतसि तावदासीत्,
सद्यः स कोविद वदाशु कथं षडक्षः ॥२७॥ स स्वकीयनयनद्वयमध्ये, बिम्बितप्रियतमानयनोऽभूत् । एवमेवं सचिवेश्वर ! सद्य, सोऽभवन्नयनषट्कसमेतः ॥२८॥ तदभिलषितकान्तोपान्ततोऽभ्यागताशु, स्ववगततदभिप्राया" समागत्य दूती । तरुणमरुणरश्मिस्पृष्टपङ्केरुहास्यं, जनवृतमभि दृष्ट्वा सर्षपं तत्करेऽदात् ॥२९॥ शीघ्रमेव समागत्य दूत्याऽथ कृतकृत्यया । सर्षपस्यैव दानेन सिद्धार्थोऽसीति सूचितम् ॥३०॥ अभ्यर्णमभ्येत्य' हरेः स्वभर्तुः, प्रसन्नचित्ता परिरम्भणाय । जगाम कस्माच्चटुवादिनोऽपि, पराङ्मुखी सत्वरमेव पद्मा ॥३१॥ १. ब. खे । २. ब. चन्द्रं । ३. ब. विदारयितुं । ४. ब. सति । ५. ब. इति इति त्वया । ६. ब. ईप्सितं । ७. ब. खयामि (प्रेषयामि?) । ८. ब. अलुकामासः । ९. ब. षड् अक्षीणि यस्य, नयनानां षट्कं तेन । १०. ब. अनेन प्रकारेण । ११. ब. शोभनोऽवगतस्तस्या अभिप्रायो यया सा । १२. ब. समीपमागत्य । १३. ब. चटुचाटुप्रियप्रायं ।
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तद्वक्ष:स्थलकौस्तुभे निजवपुर्दृष्ट्वेति जातभ्रमा,
नूनं नाऽहमरेर्मुरस्य हृदि यत् पश्यामि तत्राऽपराम् । पद्मा तेन समौनकोपकलितां - ऽभ्यर्णं समेताऽपि च,
प्रास्तप्रीतिभरौं स्म गच्छति शृणु श्रीकर्मचन्द्रप्रभो ! ||३२|| प्राणप्रिये दध्रदिनैः समेते, देशान्तरादर्दर्ति सम्प्रयोगम् । काचित्कुरङ्गीनयना निशायां, मूर्द्धन्यमुञ्चत्कथमाशु पुष्पम् ||३३|| अहं पुष्पवती कान्ता कथमायामि साम्प्रतम् । सम्भोगो नाऽधुना योग्यश्चेति ज्ञापितमेतया ||३४|| काचित्कोविद ! कामिनीकरतलेनाऽऽदाय किञ्चित्फलं,
दृष्ट्वा दष्टमिदं खगेन सहसा केनाऽपि किञ्चिततः । शङ्कासकुचिता सती निजकरे सा वै दधौ दर्पणं,
निःशङ्काऽथ निराचकार च करात्मौनान्विता तत्फलम् ॥३५॥ विलोक्य बिम्बाफलं शुकेन, दष्टं मृगाक्षी पतिखण्डितौष्ठी । सादृश्यशङ्का धृतदर्पणासीद्, विचिन्त्य तत्कुत्सितमित्यमुञ्चत् ॥३६॥ पत्युः प्रवाससमये मृगशावकाक्ष्या, पृष्ठे (ष्टे?) पुर्रा भवति कर्हि समागमस्ते । स स्वाग्रजं सति पितर्यपि वल्लभायाः, कस्माददर्शयदसौ वद कोविदाऽऽशु ॥३७॥ ज्येष्ठदर्शनतोऽनेन ज्येष्ठमासो निवेदितः । तद्देशमागते वाऽस्मिन् भविष्यति ममागमः ||३८|| काचित्कोपनिरुद्धवागवनतीं -ऽ श्रव्याप्तनेत्राम्बुजा,
पत्याऽगो”ऽनलदह्यमानहृदयाऽपास्तै प्रियप्रीतवाक् । कुर्वाणे निजभर्त्तरि क्षुतमथो सा किं ललाटे निजे,
चित्रं रत्नकरैर्विचित्रमकरोदाचक्ष्व तत्कारणम् ॥३९॥ कुर्वाणे मम भर्त्तरि क्षुतमहं जीवेति वाक्यं न चे -
ज्जल्पान्याशु तदा व्रजत्यवसरश्चेद् वच्मि तैद्यत ।
१. ब. व्याप्ता । २. ब. ध्वस्त । ३. ब. समूह । ४. तूर्यदभ्रं पुरस्फिरमिति कोश: । ५. ब. याचयति सति । ६. ब. संवेशनं । ७. ब प्रयाण । ८. ब. पुरा योगे भविष्यतार्थता । ९. ब. कदा । १०. ब. प्रतौ वनिता इति पाठः । ११. अ. अपराधः । १२. ब. निराकृता । १३. ब. छिक्का । १४. ब. प्रतिमहं । १५. ब.
तर्हि ।
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अनुसन्धान ३९
मौनं मानभवं विचार्य तरुणीति स्वे ललाटेऽकरो
च्चित्रं तेनं निवेदितं स्फुटतरं जीवेति वाक्यं यतः ॥४०॥ कश्चित्तृषार्तो मतिमानिदाघे, हस्तस्थनीरोऽपि. निजालयस्थः । किं शून्यमालोक्य पपौ न वारि, ब्रूतात् कवे ! तद्यदि बुध्यसे त्वम् ॥४१॥ दृष्ट्वाऽऽकाशं शून्यमुक्षेन्दुसूर्यैः, सायं नाऽयं नीरपानं चकार । विश्वव्यापिप्रोज्ज्वलश्लोकराशे !,' वर्यं वार्यत्राऽखिलैर्यन्मुनीशैः ॥४२॥ कश्चिद्विनीतो नयविद्गृहस्थो, 'निर्दम्भमालोक्य गुरुं पुरस्तात् । नाभ्युत्थितो नाऽपि गतः समीपं, ननाम नासीन्न तथापि निन्द्यः ॥४३|| वियति जीवमुदीक्ष्य समुद्गतं, न - नमितः स निजं न तु सद्गुरुम् । सचिवशेखर ! तेन स ना जनै-नयरतैरपि नैव विगर्हितः ॥४४॥ काचित्कुरङ्गीनयना निशाया-मात्माननस्पर्द्धिनमिन्दुमुच्चैः । आलोक्य भूस्थाऽपि कुतूहलाय, जग्राह हस्तेन कथं वदाऽऽशु ॥४५|| दर्पणान्तःप्रविष्टं सा रोहिणीरमणं निशि । तरसा करसाच्चक्रे कौतुकेनैव कामिनी ॥४६॥ गगनसरसि हंसीभूत एणाङ्कबिम्बे
ऽभिमतरमणधिष्ण्यों-म्भोजभृङ्गीभवित्री । अपि पथि जनयुक्ते स्वैरिणी किं प्रयान्ती,
नयनविषयमेषा न प्रयाता जनानाम् ॥४७॥ धृतसिताम्बरभूषणलेपना, कुमुदराजिविराजितविग्रहीं । धवलिते शशिनाऽखिलभूतले, न कुलटेति गता पथि लक्ष्यताम् ॥४८॥ कश्चित् कथञ्चिनिजचित्तचारी, लब्धः सुमाल्याम्बरभूषणोऽपि । भुक्तः स नो वासकसज्जयाऽपि, नाऽसावपीमां बुभुजे किमेतत् ॥४९॥ कान्तारूपमतीवसुन्दरमलङ्कारैरलं भूषितं,
दृष्ट्वा मन्मथमूच्छितः स तरुणश्चके स्वशुक्रच्युतिम् ।। १. चित्रकरणेन । २. यशस्विन् । ३. ब. निष्कपटं । ४. ब. जीवं । ५. ब. आकाशे। ६. ब. निन्दितः । ७. ब. वेगेन । ८. ब. कराधीनं करसात् । ९. ब. गृहं । १०. ब. अमृगी भृङ्गी भविष्यति । ११. ब. श्वेते तु तत्र कुमुदम् । १२. ब. इन्द्रियायतनमङ्गविग्रहाविति । १३. ब. भवेद्वासकसज्जासौ सज्जिताङ्गरतालया । निश्चित्यागमनं भर्तुर्दा रेक्षणपरा यथा । १४. ब. शुक्र रेतो बलं वीर्यं ।
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सद्यः प्रेक्ष्य मनोभवोपममिदं साऽपि द्रवत्वं गता
सम्भोगः प्रथमस्तयोरिति गतः सिद्धिं न तत्र क्षणे ॥५०॥ परस्परं रूपविमोहितौ तौ गतौ द्रवत्वं समकालमेव ।
ततस्त्रपाभारभरावभूत-मन्योन्यमेतेन न सङ्गसिद्धिः ॥ ५१ ॥ पाठान्तरम्
४
भर्तुर्वियोगेन विषण्णचित्ता, काचित् कुरङ्गीनयना निशीथे । उद्वेजकं सर्वमपीति मत्वा, कस्मात्करानेणभृतः सिषेवे ॥५२॥ तत्राप्येते शशधरकरौ मत्पतेरङ्गसङ्ग,
कुर्वन्त्येव ध्रुवमिति वधूश्चेतसि स्वे विचिन्त्य । तानत्रापि स्वपतिवपुषाऽऽ लिङ्गितानिन्दुपादान्,
प्रेष्ठान्कष्टादपि विरहिणी चक्रवाकीव भेजे ॥५३॥
६नैशसन्तमससञ्चयराहु – ग्रस्तदृक्प्रसरपङ्क्तिहयोऽपि । कोऽप्यचित्रितमपीह, सचित्रं, हस्तमैक्षत समस्तमिदं किम् ॥५४॥ किमत्र चित्रं गगने निशायां, हस्तं स चित्रायुतमप्यपश्यत् । विचार्यते किं मुहुरेष चार्थो, दृष्टोऽपि नित्यं बहुभिः स्वनेत्रैः ॥५५॥ जित्वा रिपुबलमखिलं समिति झटित्येव कर्मचन्द्र ! त्वम् । धृतजयलक्ष्मीकोऽपि हि नाऽतुष्यस्तत्र को हेतुः ? ॥५६॥ अधिकसूरतया समरोत्सवं, रचयतस्तव वीतमिमं क्षणात् । सचिवशेखर ! तेन जिताप्यभू- न रतिदा रतिदापि पताकिनी ॥ ५७ ॥ युवा कोऽपि प्रातर्विषमविशिखो' - द्वेजितमना
अमुञ्चद् बन्धूकप्रसवमुडुपास्यामभिमताम् । ततः साऽपि प्राप्य प्रियहृदयभावं स्मितमुखी,
हरिद्रामेवानुं कथय किममुञ्चत् कविवर ! ॥५८॥ बन्धूकपुष्पेन स मध्यमह्नः, संकेतहेतोः कथयाम्बभूव । सा दर्शयामास हरिद्रयाऽथो, दोषामदोषामिति मन्त्रिराज ! ॥ ५९ ॥
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१. ब. बभूवतुः । २. ब. पाठान्तरेण । ३. ब. सती । ४. ब. उद्वेगकारकं । ५. ब. चन्द्रमाः कुमुदबान्धवो दशश्वेतवाज्यमृतसूस्तिथिप्रणीः । ६. ब. अन्धकारं । ७. पंक्तिशब्दो दशवाची, पंक्तिहयाः यस्य । ८. ब. संग्रामे । ९. ब. बाणा:, विषमविशिखा यस्यासौ कामदेवः |
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काचित्पत्रममत्रमत्र मदनव्यापारवारः स्फुरत्
प्रीतिस्फातिकरं करेण सहसोन्मुद्र प्रियप्रेषितम् । अत्यौत्सुक्यभरं दधत्यपि पतिप्रीत्याथ तद्वाचने,
सैकाकिन्यपि तत्तथैव सुचिरं संवृत्य तस्थौ कथम् ||६०|| पत्रं विलोक्य प्रियमुक्तमेषा, यावत्प्रवृत्ता खलु वाचनाय । तावज्जलं नेत्रयुगात्प्रभूतं, प्रवृत्तमेतेन न वाचितं तत् ॥ ६१ ॥ कश्चित् स्वकान्ताकरकुड्मलस्थं, मुक्ताफलानां निकरं निरीक्ष्य । प्रीतस्तम[त्तुं स समुत्सुकोऽभूत् किं कारणं तद्वद कोविदाऽऽशु ॥६२॥
सुरक्तकान्ताकरकोरकस्थं', सद्दाडिमीबीजचयं विचिन्त्य ।
मुक्ताफलानामपि राशिमासी- ज्जग्धुं समासक्तमनाः स नाऽऽशु ॥६३॥ काचिदम्भोजमादाय प्रातः सौरभ्यसुन्दरम् ।
सादरं सदरा साऽथो कथ तदजहात् करात् ॥६४॥
निशि यदा ननु सङ्कुचितं कजं, सपदि तत्र गतोऽन्तरलिस्तदा । उषसि तन्निगृहीतमिदं तया श्रुतखं च ततो मुमुचेत् ॥६५॥ पत्रं मषी लेखनिका प्रदीपः साऽप्यप्रमत्ता रमणे रताऽपि ।
अनुसन्धान ३९
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एवं समग्रे मिलितेऽपि हेतौ, लिलेख लेखं न हि सा किमेतत् ॥ ६६॥ यावत्प्रवृत्ता लिखनाय लेखं सम्मील्य वस्तून्यखिलानि चैषा । तावत्प्रवृत्तं नयनाम्बु भूरि, तेनाऽलिखल्लेखमसौ न नारी ॥६७॥ कुमुद्वती भर्त्तरि हर्तुमुद्यते, हृद्यंशुपादैः प्रियविप्रयुक्ता । काचित्कलैः कोकिलकेलिवाक्यैः, किं दुस्सहैरप्यतिशर्म लेभे ॥ ६८ ॥ परभृता (तो) वचनानि कुहू कुहू रिति निशापतिनाशकराणि तैः । श्रुतिगतैः शशिरश्म्यतिपीडिता, विरहिणीति सुखं लभते स्म सा ॥६९॥ हृदो मुदः कारिणि पञ्चवक्त्रे, दातुं समालिङ्गनमागतेऽपि ।
गौरी गृहस्तम्भ - मनन्तभीतिः प्रत्यग्रहीत् कोपपराङ्मुखी किम् ॥७०॥
"
१. ब. प्रतौ 'व्यापारवारं ' इति पाठः । ब विस्तार । २. ब. वृद्धिकरं । ३. उद्घाट्य । ५. ब. कलिका कोरकः पुमानित्यमरः । ६. ब. हन्तुं । ७. ब. एकत्रीकृत्य । ८. ब. कैरवाणां कुमुद्वती, चन्द्रे । ९. ब. सा. नष्टेन्दुकला कुहूः । १०. ब. स्थूणा
स्तम्भ इत्यमरः ।
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पञ्चास्ये निजनायके गृहलतादूर्ध्वं समागच्छति,
क्षोणीभृत्तनयान्तिके तनुपरीरम्भार्य सत्युत्सुकम् । वक्षोजप्रतिबिम्बिते दशमुखं मत्वा पुनस्तत्कृतं,
स्मृत्वा पर्वततोलनं पतनभी: स्तम्भं ततः साऽग्रहीत् ॥७१॥ सौमित्रिरात्मीयसहोदरस्य, पपात रामस्य पदोस्तदाशु । रामः सकोपं धनुषि स्वकीये, बाणं कृपाणं च करे चकार ॥७२॥ नखेषु रामस्य स निर्मलेषु, प्रविष्टवक्त्रः क्रमयोः समासीत् । रामस्तु तं रावणमेव मत्वा, बाणं कृपाणं च करे चकार ॥७३॥ धृतनवैककलामयमूर्तये, शशभृते सखि सूक्ष्मपटाञ्चलः ।। वितरणीय इति प्रियसन्निधौ , किमुदिता करमाशु तिरोदधौ ॥७४।। वल्लभे स रतिसन्निधिमस्या, नव्यमिन्दुमवलोकयतीदम् । सख्युवाच नखरक्षितिगुप्त्यै, साऽपि जारनखमाशु जुगोप ॥७५॥ काचित्प्रसन्ना प्रियवल्लभाऽपि, रहोविलीना प्रियवल्लभाऽपि । आलिङ्गनप्रह्व-मुदीक्ष्य नाथ, सा संवृताङ्गी किमुवाच मा मा ॥७६।। नाऽऽलिङ्गनस्यावसरोऽस्ति तस्या, जाताऽधुनैवाऽस्ति रजःस्वला सा । इति प्रिया संवृतगात्रवस्त्रा, मा मेत्यमन्दं निजगाद नाथम् ॥७७|| रुद्धव्योमघनोद्भवावतमसव्याप्तान्तरायां निशि,
वस्तारण्यमृगीक्षणा सहचरी धाम्नः स्वभर्तुः स्वयम् । यावनिर्भर-नूपुरारवमसावभ्यर्णमभ्यागता,
तावत्तत्पतिनाऽऽशु मन्दिरमणिविध्यापितः किं वद ॥७८॥ अन्याङ्गनासुरतचिह्नविचित्रिताङ्गः, प्राप्तोऽस्ति केलिशयनं स यदा तदैव । कान्तां निजामथ विलोक्य समापतन्ती, तद्भीतिभिन्नहृदयो हरति स्म दीपम् ॥७९॥ कुंड्येषु कार्तस्वरमन्दिराणा-मेणाङ्कमुख्यः प्रतिबिम्बितानाम् । वक्त्राण्यपश्यन् वपुषां निजानां, नाङ्गानि नाट्यावसरे किमेतत् ॥८॥ १. ब. अङ्कपाली परीरम्भः । २. ब. लक्ष्मणः । ३. ब. दातव्यः । ४. ब. पार्वे । ५. ब. आच्छादयामास । ६. ब. पुर्नभवः कररुहो नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियामित्यमरः । ७. ब. उत्कण्ठितं । ८. उच्चैः । ९. ब. बलिष्ठ । १०. ब. अस्तं प्रापितः । ११. अ. भित्ति। १२. स्वर्णमन्दिर ।
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ताः शारदेन्दूपमपाण्डुवक्त्राः कायेन चामीकरतुल्यभासः । तस्मादिमाः काञ्चनभित्तिभागे, वक्त्राण्यपश्यन्न हि शेषमङ्गम् ॥८१॥ काचिन्निशि व्योमगतेव देवी, वातायनस्योपरि संस्थिताऽपि । अलक्षिताऽलक्षितसौधमुच्चै - रेतत् किमासीद् वद कोविदाशु ॥८२॥ शीतांशुरश्मिप्रकरावमग्ने, सा स्फाटिके सौधतले' निषण्णा । अलक्षिताधः स्थितसौधमेवं, देवीव लोकैर्ददृशेऽम्बरस्था ||८३ || कश्चित्करेणु-र्मदसिक्तरेणुः, प्रत्यापतन्तं कृतकोपमाशु । आत्मानमेवाऽभिदधाव दूरा-दाचक्ष्व किं कारणमत्र दक्ष ! ||८४|| ऊ महत्यम्बुनिधेरिभेशः, प्रत्यापतन्तं प्रतिबिम्बितं सः । आत्मानमेवं प्रविलोक्य कोपा दन्येभशङ्कोऽभिदधाव दूरात् ॥ ८५॥ यद्वेश्म वर्षास्वपि वारिदाना - माऽभेदि वार्भिर्न कदापि मध्ये | तत् किं विभोः कस्यचिदम्बुयोगं, विनाप्यभूद् वारिमयं निशासु ॥८६॥ "शिशिररश्मिकरप्रकरप्लुतं, "प्रवरचन्द्रमणिस्फुटकुट्टिमम् ।
सदनमम्बु विनाऽपि निशास्वभूत्, सचिवशेखर ! वारिमयं ततः ॥८७॥ वारिकेलिसमये वनिताभि-र्लब्धिमग्निसमिधां हि विनाऽपि । अन्वभावि शिशिरं पुनरुष्णं, किं तदेव सलिलं सरसोऽन्तः ॥८८॥ उपरि तरणितापादुष्णमन्तस्तदम्भः,
शिशिरमिति विदान्तच्चकुरुष्णं च शीतम् ।
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विषमविशिखतापादुष्णमङ्गेषु लग्नं,
तदितरमिति शीतं वाविदाञ्चकुरेताः ॥८९॥ सुरभिसङ्गसमुद्धतकोकिल- भ्रमरराजिविराजितकाननम् । १५
निजगृहं पथिकश्चिरमागतः कथमुदीक्ष्य तथैव पुनर्ययौ ॥९०॥
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अनुसन्धान ३९
१. अ.ब. गवाक्षस्य । २. ब. लग्ने । ३. ब. सौधं तु नृपमन्दिरम् । ४. ब. अनेन प्रकारेण । ५. अ. हस्ति । ६. अ.ब. सम्मुखमागच्छन्तं । ७. ब. प्रतिफलितं । ८. ब. प्रतौ 'आत्मानमेव' इति पाठः । ९. ब. शीते तुषार शिशिर इति । १०. ब. लापिनं । ११. ब. श्रेष्ठ । १२. ब. कुट्टिमत्वेस्यबद्धभू । १३. ब. विद् ज्ञाने । १४. ब. वसन्त इक्षुः सुरभिः पुष्पकालो बलाङ्गकः । १५ वाटिकां ।
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वसन्तेऽप्यायाते गलदवधिरेष प्रियतमः,
समायातो नेति स्फुटितहृदया सा यदि मृतां । तदा किं हर्येण ध्रुवमथ यदा सा न च मृता, ।
तदाप्यस्नेहायां कृतमिह गृहेणेति वलितः ॥९१।। पौरा रदानेव पुर:सराणा -मालोकयामासुरिभेश्वराणाम् । नाङ्गानि कस्माद् ददृशुः कदाचित्, किं चात्र चित्रं वद कोविदाशु ॥९२।। विसृत्वरों राजपथे निशायां, बंहीयर्सी संतमसेन नागाः । लक्षत्वमेते न गताः सदृक्त्वाद्दन्तास्तु दीप्ति दधुरुज्ज्वलत्वात् ॥९३।। जग्धं समायातमपि स्वधान्यं, न त्रासयामेणगणं बभूवुः । केदारगोप्यः कथमेष चापि, नाऽऽदात् क्षुधात्र्तोऽपि हि शालिसस्यम् ॥९४|| केदारगोपी कलगानमग्ना, जक्षुः कुरङ्गा न हि शालिसस्यम् । ता अप्यतोप्यऽक्षिदिदृक्षयापि, न त्रासयामेणगणं बभूवुः ॥९५॥ कश्चिद्गतः काञ्चनमेव लातुं, कृत्वाऽपि वित्तं निजहस्तमध्ये । बध्वा रजःपोट्टलिकां स गेहे, समागतः किं वद चित्रमेतत् ॥१६॥ वित्तं कराव्यग्रतयाऽस्य मार्गे, पपात धूलीपिहिते ततः सः । तत्रत्यधूलीपटलं प्रमील्य, तच्छोधनायाशु गृहं निनाय ॥९७|| तनुसुतनुरिरंसुः कामधामोज्ज्वलश्री
रुषसि गृहवनान्तर्गन्तुकामाप्यवश्यम् । अनुवलति ततः स्म व्यग्रकेशाकुलाक्षी,
सचकितमिति कस्माच्चिन्त्यमेतद् वदाशु ॥९८॥ गृहवनमुपयाति यावदेषा, भ्रमरगणोऽभिमुखं दधावं तस्याः । वदनसुरभितानुबद्धलोभः, प्रतिवलति स्म ततो झटित्यमुष्मात् ॥१९॥ १. अ. मुई तस सनेही गई रही तउ तुट्टउ नेह । जिणि परि तिणि परि धण गई वरसि सुहावा मेह । २. ब. प्रतौ तथाप्यस्नेहायामिति पाठः । ३. ब. अलं । ४. ब. अग्रे गच्छतां । ५. अ. ब. प्रसरणशीलो । ६. ब. प्रचुरेण । ७. ब. सवर्णत्वात् । ८. ब. भक्षयामासुः । ९. ब. संवृत्तं पिहितं छन्नं । १०. ब. क्रीडितुकामाः । ११. ब व्यस्त इति इति वा । १२. सन्मुखं जगाम । १३. अ. वनात्; ब. अस्मात् ।
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अनुसन्धान ३९
दवीयसोप्यागतमात्मकान्तं, संवीक्ष्य काचित् कृतमौनमेव । एत्यालयान्तः पुरुहूतपूष-स्वर्गापगाः पूज्य किमर्दति स्म ॥१००॥ इन्द्राद्रवेश्चापि सुरापगाया, अक्ष्णां कराणां च तथा मुखानाम् । प्रत्येकमेवेति सहस्रमेषा, यतो ययाचे तदुपास्तिकामा ||१०१।। क्रीडाशुकं पञ्जरतः प्रभाते, काचिन्निजे पाणितलेऽभिनीय । अध्यापनायोद्यतमानसाऽपि, साऽध्यापयामास कथं न पश्चात् ॥१०२॥ रदा दाडिमीबीजतुल्या मदीयाः, शुकः प्रातरस्ति क्षुधातः स नूनम् । अतश्चञ्चुघातं समाशंक्य तन्वी, न तं पाठयामास सा केलिकीरम् ॥१०३।। प्रियस्य काचिद् रेभसाऽभिसारिणी, समेत्य सद्माङ्गणमुज्ज्वलं निशि । तमङ्गलीयेनँ निहत्य सत्वरं, विवेशं पश्चादिति किं तदिङ्गितम् ॥१०४॥ अनणुमणिनिबद्धं प्राङ्गणं तस्य धाम्नः,
प्रतिफलितघनान्तस्तारतारं समीक्ष्य । सलिलमिति विचिन्त्य व्यग्रचित्ता तदन्त
र्गमनमभिलषन्ती मुद्रया तज्जघान ॥१०५।। काचित्कान्ता भर्तुरालोक्य वक्त्रं, चञ्चच्चन्द्राखण्डबिम्बानुकारि । चिक्षेपाऽक्ष्णोः किं पुन: कज्जलं सा, विद्वन्नेतद्भावमावेदयाऽऽशु ॥१०६।। पत्युः साऽधरपल्लवे' नयनयोरात्मीययोरञ्जनं,
दृष्ट्वा चुम्बनतः समं स्मितमुखी निष्कज्जले लोचने । . मत्वैवं पुनरेव नेत्रयुगले चिक्षेप सा कज्जलं,
श्रीमन्त्रीश्वर ! कर्मचन्द्र ! शृणुताद् भावार्थमेनं शुभम् ॥१०७।। तद्वस्तुभूयोऽपि निवेदितं मया,
नाऽनीयतेऽद्यापि कथं विभो ! त्वया । तत्कि मृगाक्षि ! प्रणिगद्यतां पुनः,
सा किं ततो वंशमा-दुरोजयोः ॥१०८॥ १. अ. अतिदूरात् । २. अ. ब. इंद्र-सूर्य-गङ्गा । ३. अ.ब. प्रतौ पाणितले च नीत्वा इति पाठान्तरम् । ४. ब. दन्ताः । ५. ब. वेगेन । ६. अ. कुलटा; ब. स्वैरिणी कुलटा जातिर्या प्रियं साभिसारिका । ७. ब. ऊम्मिका त्वङ्गलीयकमिति । ८. ब. वेषमकार्षीत् । ९. ब. प्रतौ 'अभिलिखन्ती' इति पाठः । १०. ब. चञ्चद् देदीप्यमानः । ११. ब. नवे तस्मिन् किसलयं किसलं पल्लवोऽत्र तु । १२. ब. सकलं । १३. ब. धारयामास ।
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नितम्बिनीतुम्बकयोरिवोच्चै-र्वक्षोजयोमूर्धनि वेणुदानात् । निवेदयामाशु बभूव वीणां, पति मनोभावविदां वरिष्ठम् ॥१०९।। प्रसाधिकाङ्कस्थितपादपद्मं, काचिनिजे सद्मनि सन्निविष्टा । अनूप्रवक्त्रापि रसालशीर्षात्, कथं स्वहस्तेन फलं लुलाव ॥११०।। सौधस्याङ्के यत्र सा सन्निविष्टा, तत्राऽधस्ताद्धस्तसादस्ति चूतः । हस्तेनैषाऽनू वक्त्राप्यखेदं, जग्राहैवं तत्फलं तस्य मूर्ध्नः ॥१११।। काचिन्निरागस्यपि नायके स्वे, कस्मात्प्रकुप्यावनताऽऽननाऽभूत् । ततोऽनुतापं महदादधत्या, क्रोडे धृतोऽसावनया तदैव ॥११२।। दृष्ट्वा स्पष्टं दशनवसने कज्जलं सा स्वभर्तु
मत्वा कान्तं परललनया भुक्तमुक्तं चुकोप । पश्चान्नम्रा मणिमयगृहं प्राङ्गणे धौतनेत्रं,
वक्त्रं दृष्ट्वा स्ववगतरहस्यानुतापं चकार ॥११३।। कर्पूरं कुमुदाकरं कुमुदिनीकान्तं च कुन्दोत्कर',
कैलाशं ऋतुभुग्नदीमपि दलत्काशं पयो भःपतिम् । डिण्डीरं जलधेश्च मन्त्रिमुकुट ! श्रीकर्मचन्द्रप्रभो !
ह्यन्तर्वाणिगणस्य लोचनपथं गच्छन्ति नैते कथम् ॥११४।। त्वत्कीर्तिप्रसराता धवलिते विश्वेऽखिलेऽपि प्रभो,
सावादिह संप्रमग्नवपुषः कर्पूरकुन्दादयः । लक्ष्यन्ते कविभिर्न चेति मिलिता दीपेऽन्यदीपप्रभा
ऽभिन्नत्वेन न लक्ष्यते खलु यथा कोऽन्यो वृथा विस्तरः ॥११५।। नेदं व्योमसरोवरं सुरपतेनैतानि भानि ध्रुवं,
चञ्चत्प्रोज्ज्वलमौक्तिकानि विलसन्नायं विधुदृश्यते । श्रीमन्त्रीश्वरकर्मचन्द्रसुयशोहंसोऽयमित्युज्ज्वल
स्तारामौक्तिकमालिकां कवलयन्नेवं बुधैर्लक्ष्यते ॥११६।। १. ब. मण्डनका । २. ब. प्रतौ-कर्पूरं कुमुदाकरः कुमुदिनीकान्तश्च कुन्दोत्करः, कैलाशः क्रतुभुग्नदी प्रविदलत्काशः पयो भः पतिः, डिण्डीर:- इति पाठः । ३. ब. पुञ्जोत्करौ संहतिः । ४. ब. गङ्गा ।
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अनुसन्धान ३९
इति सुललितभावं शास्त्रमेतत्स्वकण्ठे,
प्रणयति' निपुणो यः सन्ततं सत्सभासु । अनुभवति स शोभामुल्लसन्तीमनन्तां,
न भवति परभावव्यग्रचेताः कदापि ॥११७।। श्रीदेवतिलकसूरिर्जयति यशःपूरपूरितदिगन्तः । नरनरपतिमुनिमधुकरचुम्बितचरणारविन्दयुगः ॥११८।। श्रीनर्मदाचार्यगुरोः प्रसादात्, श्रीपद्मराजस्य पदौ प्रणम्य । श्रीकर्मचन्द्राह्वययाञ्चयेदं, श्रीहेमरत्नेन कृतं च शास्त्रम् ॥११९।। सद्वाक् शुभार्थः सुगुणः सुवृत्तो-ऽलङ्कारकान्तः शुभभावशाली । परोपकारप्रवणः स चाऽयं, ग्रन्थश्चिरं जयति सज्जनवज्जगत्याम् ॥१२०॥ मुष्णाति चेतांसि स भूपतीनां, पुष्णाति चातुर्यमपि स्वकीयम् । मथ्नाति मानं ननु दुर्जनानां, यः कण्ठपीठस्थमिदं करोति ॥१२॥
इति श्रीभावप्रदीपाभिधं शास्त्र समाप्तं । श्रीरस्तु । शुभम्भवतु । श्रीः ।
विक्रमतो वसुवह्निक्षितिपतिवर्षे (१६३८) तथाऽऽश्विने मासि । विजयदशम्यामयमिति विनिर्मितो हेमरत्नेन ॥१॥
[श्रीज्ञानतिलकसूरिर्जयति यशोराशिभासितदिगन्तः । नरनरपतिमुनिमुनिवरपूजितपादारविन्दयुगः ॥१॥
तत्पट्टे हेमरत्नाह्वसूरिर्जयतु शास्त्रकृत् । विनिर्वसितपापौघः प्रसन्नानपङ्कजः ॥२॥
१. ब. निर्माति । २. ब. प्रेती- 'ग्रन्थश्चिरं तिष्ठत् सज्जनोपि' इति पाठः । ३४-५. ब. नास्ति । ६. ब. प्रतौ 'विजयदशम्यामेतद् विनिर्मितं हेमरत्नेन' इति पाठः । ७. [ ] कोष्ठकान्तर्गती द्वावपि श्लोकौ हेमरत्नस्वलिखितादर्श अ.संज्ञकपुस्तके न स्तः ।
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ट्रॅक नोंध
आ अंकना आवरण-चित्र विषे मारी सामे 'क्षेत्रसमास प्रकरण'नी एक सचित्र पण जर्जरित अने खण्डि प्रतिनां थोडांक पानां छे. सद्भाग्ये तेनुं अन्तिम पत्र एमां छे. ते पानां पर ६ पंक्तिनी पुष्पिका छे, ते पैकी ३ पंक्तिओ हरताल वडे भूसी नाखवामां आवेली छे, अने शेष ३ वंचाय छे, तेनुं लखाण आ प्रमाणे छ :
"संवत् १६२९ वर्षे फागुण पासे सुकुलपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ शुक्रवासरे मेवातमण्डले बेरोजनगर मध्ये मुनि जगराजेन लिखिता, चित्रता मुनि-पासचन्द्रेण श्रीमस्तु कल्याणं वाच्यमानं भूयात् ॥" ।
आ पानांमां जे थोडांक चित्रो छे ते पैकी बे चित्रो आ अंकना आवरण पर मूक्यां छे. उपरनी पुष्पिकाथी निश्चितपणे समजाय छे के आ प्रति जैन साधुए लखी तो छे ज; पण तेनां चित्रो पण एक जैन साधुए ज आलेखेला छे. जैन मुनिओ ललित कलामां केटला पारंगत हता ते आ उपरथी फलित थाय छे.
___ अने आ कांई एकलदोकल दाखलो नथी. ताजेतरमां ज ब्रिटिश लायब्रेरी द्वारा प्रकाशित 'जैन हस्तप्रतोना सूचिपत्रो'मां त्यांनी सचित्र के विशिष्ट प्रतिओनी छबीओ छापेल छे, तेमां पण एक प्रतिना अन्तभागनो फोटो छे, तेमां आ प्रमाणे वंचाय छ :
"०००पण्डित देवकुशलेन लिखिता प्रतिरियम् । पं० कनककीर्तिमुनिना चित्रिता ॥" ए प्रति शालिभद्रचौपाईनी छे.
- शी०
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३०
विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र
अनु० ३८नी प्रथम कृति 'गुरुस्थापनाकुलक' स्थापनानिक्षेप अथवा गुरुपदे स्थापित करवानी विधि अंगेनी कृति नथी परन्तु " आ काळे पण साधुओ छे अने तेमनी निश्राए ज आराधना करी शकाय, श्रावक गुरुनुं स्थान लई शके नहि " एवा मुद्दा पर रचायेली छे. आना कर्ता श्रीधर गृहस्थ श्रावक होवानी सम्भावना वधु छे एवं अनु०ना सम्पादक श्रीनुं कथन स्वीकार्य जणाय छे अने तेथी एक श्रावक द्वारा रचाएली विद्वत्तापूर्ण प्राकृतभाषा बद्ध प्रौढ कृति तरीके आ कृति विशेष नोंधपात्र बने छे. कृतिसम्पादक आनो रचनाकाल १३-१४मी सदी होवानुं धारे छे परन्तु कृतिनो विषय सूचवे छे के रचनाकाल एटलो जूनो नथी. सोळमां शतकमां कडवामती, वीजामती जेवा सम्प्रदायो ऊभा थया हता जेमनी मान्यता हती के "आ काळमां मुनिपणुं न होय" आ मान्यतानो प्रतीकार प्रस्तुत कृतिमां थयो छे. 'संपई केई सड्ढा' (गा. ५३) वगेरेमां आवी मान्यता धरावता वर्गनो सीधो उल्लेख थयो छे. १३-१४मी शताब्दीमां आवा मतना उल्लेख नथी, १६ मा शतकमां छे, तेथी आ कृतिनी रचना १६मा शतकना उत्तरार्ध के १७माना पूर्वार्धमां थई होय ते मानवुं वधु योग्य गणाशे. कर्तानो अभ्यास उच्च कोटिनो देखाई आवे छे, तेथी सोळमा सैकामां पण आवी प्रौढ रचना थवी अशक्य के असंगत नथी.
कृतिना पाठमां वाचनभूलो छे.
गा.
२
६
२६
२७
अशुद्ध
अनाण
संघो
निज्जइ
सुंदर०
० हिस्स
शुद्ध
अन्नाण
संघे
नज्जइ
5 सुंदर
० निहसस्स
अनुसन्धान ३९
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अप्रिल २००७
३९
४२
४७
सामन्न
हेण
रएसु
स(से)वमाणं
सम्मत्त
तेण (?)
वएसु
सव्वमाणं
७५
९५
सा
सो
९६
ताइ वीस
ता [ग]वीस
अमृत पटेल द्वारा सम्पादित पादपूर्तिमय स्तोत्रपञ्चक संस्कृतप्रेमीओ माटे रसल्हाण समुं छे. जैन श्रमणोए गीर्वाणगिराने अर्पित करेलां आवां अगणित कृतिकुसुमो अद्यापि ग्रन्थागारोमा - पोथीओमां प्रकाशनना प्रकाशनी राह जोता कलिकानी जेम अज्ञात पडी रह्यां छे. सम्पादके रघुवंशना पाद शोधवानो श्रम लीधो छे. कृतिओना कर्ता, काल वगेरेना सम्बन्धे सन्दर्भग्रन्थोना आधारे ऊहापोह कर्यो छे. अनुसन्धान करनार दरेक विद्वाने संशोधके सन्दर्भसाहित्यनो पर्याप्त उपयोग करवो जोइए. अनेक संशोधक विद्वानोए जीवनभरना परिश्रमथी साहित्य - पुरातत्त्व - इतिहास सम्बन्धी तथ्योना विशाल सन्दर्भग्रन्थो आपणने तैयार करी आप्या छे. आपणे तेनो उपयोग करवानुं पण आळस दाखवीए छीए ! कृतिसम्पादकोए कृतिसम्बद्ध माहिती सं. ग्रन्थोमांथी एकत्र करीने कृति साथे आपवी जोइए अने कृतिमांथी सांपडेल नूतन माहितीनी चर्चा करवी जोइए.
स्तोत्रपञ्चकमांनां शुद्धिस्थानो
युगादि जिनस्तवन
श्लो. २. अन्तिम चरणे आ प्रकारे होई शके
प्राप्नोत्यसावद्भुतभाग्यसिन्धुः
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श्लो. ६मां 'यदीशोऽहं' ने स्थाने 'यदीदृशोऽहं' सार्थक बनी रहे छे.
श्लो. ९. 'ध्यानानि' नहि 'ध्यातानि ' जोइए.
श्लो. १८. गुणाम्बुनिधि० पाठथी छन्दोभङ्ग थाय छे. अहीं 'गुणाम्बुधि० पाठ सहजताथी कल्पी शकाय एम छे.
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अनुसन्धान ३९
वीतरागस्तवनमां श्लो. ५मां मोदा- छे त्यां मोहा-- होवू घटे. ऋषभदेवस्तोत्र श्लो. ४०मां 'धृती' छे त्यां 'धृता' साचो पाठ बने. महावीरस्तोत्रमा भवे' एवो पाठ सम्पादके कल्प्यो छे पण अहीं '०भवग्रीष्मकाले' एवो समास ज वांचवो. जोइए. टिप्पणोमां १ २ ३ वगेरे अंको पूर्णविरामना चिह्न वगर मूक्या छे. क्रमसूचक अंको १. २. ३. एम पूर्णविराम चिह्नयुक्त लखवा जोइए. ते वगर अंको जोडेना शब्दनी संख्याना वाचक विशेषण बनी जाय. आ आधुनिक परिपाटी छे.
श्रेयांसनाथस्तवननी देशीओ ध्यान खेंचे छे. कविए मोटा भागे दीर्घ देशीओ लीधी छे, अने तेमां प्रास-लय-आंकणी बराबर साचव्या छे. ढबना आधारे जोतां आ देशीओ ते समयना लग्नगीतो के प्रसंगगीतोनी होवानी कल्पना आवे.
सीमन्धरजिनस्तवन द्वारा अतिशयवर्णनना स्तवनोमां वधु एक स्तवननो उमेरो थाय छे. क. ६मां वाचननी भूल छे. अहीं कविनो आशय एवो छे के प्रभु जेवो समोवडियो बीजो कोई नथी के जेनी उपमा आपी शकाय. अर्थ-आशयना आधारे पाठनी अशुद्धि जणाय अने शुद्ध पाठनी कल्पना पण करी शकाय. "जि अनुपम दिवाइ' एम वांच्यु छे त्यां "जिअ उपमा दिवाइ' एवं होवानी पूरेपूरी सम्भावना छे. 'नुपम' वांच्युं छे त्यां उपम होइ शके. ए ज रीते 'होइय स्यु' छे त्यां 'होइ यस्युं होइ शके. यस्युं =जस्युं =जिस्युं क. १४मां मांद छे ते मान्द्य (रोग)मांथी निष्पन्न छे. मरगी-मांद एवो प्रयोग ते समये प्रचलित हशे. आथी मांद(गी) एम (गी) कल्पवानी जरूर नथी. क. १४-१५-१६मां नु हइ, नु हवइ वगेरे प्रयोगो छे. ते आजना न्होय, नो' यना पूर्वगामी छे. 'हुइ'नो उकार 'न'मां आवी जतां नु हइ थयु. स्वरव्यत्यास नामे ध्वनिपरिवर्तननो नियम आमां काम करे छे. कडी ३१मां इंद्री, कडी ३२मां जीवी शब्दमा अन्तिम वर्णनो-इन्द्रिय अने जीवित =जीवियना 'य'नो - लोप थयो छे अने अन्तिम स्वर दीर्घ थवा द्वारा लुप्त 'य'नी हाजरी परखाय छे. क. ३७मां 'समु' पछी द्रा सम्पादके लखवो जोइतो हतो. क. ३८मां बीजा-त्रीजा चरणोमां थोडा शब्दो छूटी गया छे. अन्तमां कळश छे खरो पण ते मात्र छेल्ली कडीमां छे, ज्यारे अहीं तेनाथी आगली कडीने कलश
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तरीके ओळखावी छे, जे वस्तुतः ढालनी अन्तिम कडी छे.
म. विनयसागरजीए अनु०मां प्रगट थयेली कृतिओना कर्ता विशे विस्तृत पूरक माहिती पत्र-चर्चामां आपी छे. ऐतिहासिक विगतोनो विशाल भण्डार तेमणे पोतानी दीर्घ साहित्ययात्रामा एकत्र कर्यो छे ते नूतन अभ्यासीओ माटे प्रेरणारूप बनवो जोईए.
C/o. जैन देरासर नानी खाखर (कच्छ)
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अनुसन्धान ३९
नवां प्रकाशनो
१. उ. यशोविजयजीकृत ३५० गाथाना स्तवननो पं. पद्मवजियजीकृत बालावबोध : सं. आ. प्रद्युम्नसूरि; प्र.. श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अमदावाद, वि.सं. २०६३.
वाचक श्रीयशोविजयजी गणिनी गुर्जरगिरानी गेय एवी सैद्धान्तिक रचनाओमां ३५० गाथा- सीमन्धरजिन-विनतिस्वरूप स्तवन, पोताना विषयवस्तुने कारणे आगवी मुद्रा धरावती रचना छे. तेना अर्थ-बोध माटे पण्डित श्रीपद्मविजयजी गणिए विशद बालावबोध रच्यो छे. आ स्तवननो विषय गहन छे, तेने उघाडवामां आ बालावबोध घणो उपकारक छे. तेनुं प्रकाशन तो अगाउ थयेल छे, परन्तु प्रस्तुत सम्पादनमां, पूर्व-प्रकाशित वाचनामां रहेली अगणित क्षतिओ सुधारी लेवामां आवी छे, जेने लीधे एक समीक्षित वाचना आमां प्राप्त थाय छे. ३५० गाथाना स्तवनना अध्ययननी परिपाटी जैन संघमां व्यापक होई तेमां आ वाचना घणी उपकारक थशे तेम मानी शकाय. परिशिष्टो तथा सम्पादकीय नोंधो थकी प्रकाशन वधु मूल्यवान बन्युं छे. बालावबोधनी साथे साथे दरेक गाथानो संक्षिप्त-सरल गुर्जरानुवाद पण आपवामां आवेल छे, जे वाचको माटे घणो उपयोगी छे.
२. ज्ञानसार - सस्तबक : कर्ता : उपाध्याय यशोविजय गणि; सं. आ. प्रद्युम्नसूरि, डॉ. मालती शाह; प्र. श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अमदावाद; सं. २०६३.
ज्ञानसार ए उपा. यशोविजयजीनी प्रसिद्ध तात्त्विक संस्कृत पद्यबद्ध रचना छे. तेनुं अध्ययन जैन संघमां व्यापकपणे हमेशां थाय छे. तेना पर कर्ताए गुर्जर भाषामां बालावबोधनी रचना करेल छे, तेनी सम्पादित वाचना आ पुस्तकरूपे उपलब्ध थाय छे, जे अध्येताओ माटे उपकारक छे. सम्पादकनी प्रस्तावना, परिशिष्टो तथा प्रत्येक पद्यनो सरल गुर्जरानुवाद-आ त्रण वानां होत तो ग्रन्थ, महत्त्व अनेकगणुं वधी जात.
३. जैनविधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास : ले. साध्वी सौम्यगुणाश्री, सं. डॉ. सागरमल जैन; प्र. प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर;
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एक विशद शोधप्रबन्ध-समान ग्रन्थ. आमां १३ अध्याय छे, जेमां जैन विधिविधानोना उद्भव तथा विकासनी विगतोथी प्रारंभीने क्रमशः १. श्रावकाचारसम्बन्धी; २. साध्वाचार सम्बन्धी; ३. षडावश्यक; ४. तपस्या; ५. संस्कार तथा व्रत; ६. समाधिमरण; ७. प्रायश्चित्त; ८. योग-मुद्रा-ध्यान; ९. पूजा-प्रतिष्ठा; १० मन्त्रादि; ११. ज्योतिष-निमित्त; १२. शेष प्रकीर्ण विषय; आटला विषयो-सम्बद्ध विधि-विधान परक साहित्यनी परिचयात्मक विस्तृत नोंध लेखिकाए आपी छे. एकज स्थाने लगभग बधा ज विषयना विधिविधानने स्पर्शती साहित्य-सामग्रीनी जाणकारी उपलब्ध थती होई, आ ग्रन्थ, आ विषयनो महत्त्वपूर्ण सन्दर्भग्रन्थ बनी रहेशे. अहीं लिखित तथा मुद्रित अने प्राचीन तथा अर्वाचीन एम प्राप्य बधी सामग्री विषे नोंध मळे छे. स्वाभाविक रीते ज आमां केटलीक सामग्री छूटी जाय, अने तो तेमा लेखिकानो दोष न गणाय. एटलुं के जो आवी, छूटी गएली सामग्री जाणवामां आवे, तो तेनी नोंध करी लेवाय, अने भविष्यमां आ ग्रन्थनी पुनरावृत्ति के पूर्तिमां तेनो समावेश करी लेवाय, तो ते उपयुक्त थशे. लेखिकाने साधुवाद.
४. सागरविहङ्गमः (सचित्र); सं. कीर्तित्रयी; प्र. भद्रङ्करोदय शिक्षण ट्रस्ट, गोधरा, सं. २०६२, ई. २००६.
Richard Bach नामना अंग्रेज लेखके लखेल, जगप्रसिद्ध आध्यात्मिक नवलकथा 'Jonathan Livingston Seagull''नुं संस्कृत रूपान्तर. सुज्ञ जनोना कथन प्रमाणे, आ प्रकारचें अनुवादकार्य आ प्रथमवार ज थयुं छे. 'नन्दनवनकल्पतरु' नामना संस्कृत अयनपत्र (सं. कीर्तित्रयी) साथे जोडायेल प्रकाशनमाळानुं आ द्वितीय पुस्तक छे.
५. पञ्चसूत्रकम् (सचित्र); कर्ता : श्रीहरिभद्रसूरिः; संस्कृतपद्यरूपान्तरकार:-उपा. भुवनचन्द्रजी; सं. कीर्तित्रयी; प्र. भद्रङ्करोदय शिक्षण ट्रस्ट, गोधरा; सं. २०६३, ई. २००७.
_ 'पञ्चसूत्र' ए भगवान् हरिभद्राचार्यनो सुविख्यात ग्रन्थ छे. तेनो संस्कृत पद्यबद्ध अनुवाद उ. भुवनचन्द्रे प्राञ्जल शैलीमां करीने साहित्य जगत्ने एक
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विलक्षण उपहार अर्पण कर्यो छे. तो 'पञ्चसूत्र'ना उत्तम भावोने चित्रोमां ढाळवानुं काम कीर्तित्रयी - मुनिराजोए कर्तुं छे, जेने आकार आप्यो छे चित्रकार नैनेश सरैयाए. सर्व प्रकारे सरस रूपकडुं कही शकाय तेवुं आ प्रकाशन 'नन्दनवन कल्पतरु'नी प्रकाशनमाळानुं तृतीय प्रकाशन छे.
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________________ जैन मुनि द्वारा चित्रित पोथीचित्र (जुओ आ अंकमां ढूंक नोंध)