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________________ अनुसन्धान ३९ श्रीवाचक सकलचन्द्रगणि-विरचित सत्तरभेदी पूजा - सस्तबक : अवलोकन _ विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीसकलचन्द्रजी उपाध्याय तथा तेमनी सत्तरभेदी पूजा जन संघ माटे अत्यन्त जाणीती बाबतो छे. १६मा शतकनो पश्चार्ध अने सत्तरमा शतकनो पूर्वार्ध ए तेमनी विद्यमानतानो समय छे. तेमना विषे घणुं लखायुं छे. तेमनी प्राकृत, संस्कृत तथा गुर्जर रचनाओ अनेक छे, जेमां तेमणे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, हितशिक्षा, भक्ति, विधि, वगेरे तत्त्वो निरूप्यां छे. सत्तरभेदी पूजा ए तेमनी प्रभुभक्तिप्रधान, संगीतबद्ध एवी गम्भीर शास्त्रीय रचना छे. आ रचनाए तेमने व्यापक तथा ज्वलन्त कीर्ति आपी छे. सेंकडो वर्षोथी जैन देवालयोमां आ पूजा राग-रागिणी साथे, ठाठथी भणाववामां आवे छे. जिन भगवाननी ५, ८, १७, २१, १०८ एम विविध प्रकारे पूजा रचाती होय छे, तेमां आ १७ प्रकारनी पूजा छे. जुदां जुदां १७ वानां क्रमशः भगवान सन्मुख धरवानां, अने प्रत्येक पदार्थ धरवानी साथे अलग अलग पूजा गाई जवानी होय; तेने पूजा भणावी-एम कहेवाय; दरेक पूजा गवाया पछी ते पदार्थ भगवान समक्ष मूकवामां आवे. ते १७ पदार्थ कया, ते विषे प्रारम्भनी त्रणेक प्राकृत गाथाओमां विगते वात थई छे. श्रीसकलचन्द्र गणि खूब ज्ञानी, ध्यानी, वैरागी, भक्तकवि हता. तेमने जातजातना अभिग्रहो लेवानो खूब शोख हतो. अभिग्रह एटले प्रतिज्ञा. तेओ एवा प्रखर तपस्वी हता के वारंवार जुदा जुदा अभिग्रह लेतां, अने ते पूर्ण न थाय त्यां सुधी आहार-पाणीनो त्याग करता. एकवार तेमणे एवी प्रतिज्ञा लीधी के गधेडां मूंके नहि त्यां सुधी कायोत्सर्गध्यानमां ऊभा रहेQ ! आ प्रतिज्ञा ७२ कलाके पूर्ण थई. तेटलो समय अखण्ड ऊभा रह्या, ते समयमां तेमणे १०८ गाथाप्रमाण आ सत्तरभेदी पूजानी रचना करी. आ घटनानो निर्देश पूजाना छेडे आवेल कलशनी ढाळनी छेल्ली कडीना टबार्थमां पण जोवा मळे के. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520539
Book TitleAnusandhan 2007 04 SrNo 39
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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