Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसंधान श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि ३५ एक कलामण्डित धातु प्रतिमा - परिकर कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद Education International 2006 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन,माहितीवगेरेनी पत्रिका ३५ सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि 10-0-0 - श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २००६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया A- 9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद - ३८०००७ प्रकाशक: अनुसन्धान ३५ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान: (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद- ३८०००७ मुद्रक: मूल्य: Rs. 80-00 (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद - ३८०००१ क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ (फोन: ०७९-२७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन नेशनल मिशन फोर मेन्युस्क्रिप्ट (N.M.M.) द्वारा चालेला अभियानना वृत्तान्तो वर्तमानपत्रोमां हमणां वारंवार वांचवा मळ्या करे छे. ते वृत्तान्तोमां थयेला दावा मुजब, आ अभियानने कारणे, गुजरातनां अमुक क्षेत्रोमांथी ज, आठेक लाख हस्तलिखित ग्रन्थो के पोथीओ प्रकाशमां आवेल छे. सामान्य रीते, आटली मोटी संख्यामां दुर्लभ पोथीओनी प्रथमवार भाळ मळे तो ते संशोधनक्षेत्रनी एक जबरदस्त उपलब्धि गणाय; अने तेने लीधे शोध-क्षेत्रना रसिक वर्गमां खुशालीनुं जबरुं मोनुं फरी वळवू जोईए. परन्तु, आपणे त्यां आq कांई थयार्नु हजी सुधी जाणवामां आव्युं नथी. एटले सवाल जागे के शुं शोध-क्षेत्रना रसियाओ परवारी गया छे ? के आटलीबधी सामग्री उपलब्ध थवा छतां क्यांय कोई 'युरेका'नो हर्षावेश नजरे नथी पडतो? जरा ऊंडा ऊतरतां आ सवालनो जे जवाब जड्यो, ते जाण्या पछी रह्योसह्यो हर्षावेश पण ओसरी जाय तेवी स्थिति पेदा थई छे. वात एम छे के, अमदावाद, पाटण, खम्भात सहित विविध गामो/नगरोमां सुग्रथित तथा सुसंकलित ग्रन्थभण्डारो परम्पराथी सुरक्षित छे. ते भण्डारो पासे पोतानां व्यवस्थित सूचिपत्रो पण छे. ते पैकी अमुक छपायां छे, तो घणां नथी छपायां. आ मुद्रित-अमुद्रित ग्रन्थसंग्रहोगत ग्रन्थोनी संख्या एटली विपुल छे के ते संख्याने "७/८ लाख" जेवो अडसट्टो बांध्या भारे आपवामां खास कांई हानि नथी थती, अने N.M.M.ना नियुक्त अधिकृतोने लाखो पोथीओनी जाणकारी सम्प्राप्त करावनार तरीकेनुं मान (Credit) N.M.M.ना मुख्यालयमां सहेजे मळी रहे छे. अमदावादमां तो बे ज संग्रहो L. D. तथा कोबाना - एवा छे के जेमां सचवायेली पोथीओनी संख्या ज अढी-त्रण लाख जेटली संभवे छे. ए पोथीओ राज्यना तथा राष्ट्रना विविध भागोमांथी प्राप्त थयेली छे. हवे अत्यारे ते गुजरातमा छे तेथी ते गुजरात-विभागमां नोंधाशे; पण ते संग्रहो मुळे ज्यां हता त्यां तो ते 'नष्ट थया'नी नोंध साथे ज माहितीमां लेवाशे ने ? Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमां नूतन उपलब्धि क्यां अने केटली ? एवो सवाल हवे थाय तो ते अस्थाने गणाशे खरो ? वस्तुत: N. M. M.नुं कार्य केतुं /कयुं होवुं जोईए ए विचारवानुं अहीं प्रासंगिक जणाय छे. अंग्रेजोए पोताना भारत - निवासना सुदीर्घ समयगाळामां, आ देशनी अढळक पुरातात्त्विक तथा सांस्कृतिक संपत्ति हडप करी लीधी छे. आपणी पराधीन स्थितिनो लाभ लईने तेओ जरझवेरात जेवीं भौतिक कीमती जणसो जेम लई गया, तेम प्राचीन मूल्यवान शिल्पो, प्रतिमाओ, चित्रो तथा हस्तप्रतो वगेरे सामग्री पण मोटा प्रमाणमां उठावी गया छे. विक्टोरिया एन्ड अल्बर्ट म्युजियम, इन्डिया ओफिस लायब्रेरी, ब्रिटिश लायब्रेरी वगेरेमां प्रदर्शित तेमज स्टोरेजमां पडेली सामग्रीनुं वैपुल्य जाणीए त्यारे ज ते लोको आपणुं केटलुं बधुं लई गया छे तेनो ख्याल आवे. आ तमाम सामग्री ए भारतनी सांस्कृतिक, धार्मिक तेमज राष्ट्रीय संपत्ति हती अने छे. आ सामग्रीनी साची मालिकी आपणा देशनी छे. आ सामग्री ब्रिटिशरो पासेथी आपणने पाछी मळे ए दिशामां आपणी सरकारे आज लगी प्रयास तो शुं, विचार सुद्धां कर्यो होय तेवुं जणातुं नथी. N.M.M. जेवा मिशननुं खरुं कार्य तो आ होवुं जोईए. आ मिशने मूळे आ देशनी गमे ते प्रान्त, भाषा के धर्म भले ते जोडायेली होय ते तमाम - हस्तलिखित सामग्री, जे आजे ब्रिटनमां पडी होय ते, आ देशमां पाछी आवे ते माटे पोताना प्रयत्नो आदरवा जोईए तथा पोतानी तमाम वग वापरवी जोईए. तो ज तेनुं 'राष्ट्रीय हस्तलेख शोध अभियान' एवं नाम सार्थक ठरे. 1 दुर्भाग्ये, आपणी सरकार, ब्रिटिश लायब्रेरीमांना जैन ग्रन्थोनुं सूचीकरण करवा माटे, बे करोड रूपियानुं अनुदान फाळवीने बेठी छे ! (हवे पछी, त्यांना अजैन ग्रन्थोना सूचीकरण माटेनी जाहेरात आवी पडे तो नवाई नहि ! पोथीओमां पण धर्मभेद !) पोथीओ आ देशना जैनोनी, सरकार भारतनी, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त भगवान महावीरना २६००मा वर्षमुं; अने पोथीओनी वर्तमान मालिक ब्रिटिश लायब्रेरी! तेनी पासे के ते देशनी सरकार पासे आ पोथीओना सूचीकरण माटे पैसा नथी, तो आपणो उदारताथी छलकातो देश ते माटे अनुदान फाळवे छे ! देशना संग्रहो घंटी चाटे, ने विदेशीओने आटो ! ते आनुं नाम ? अलबत्त, प्रतोनुं सूचिपत्र बने तो ते उमदा कार्य ज छे; खोटुं तो जरा पण नथी. पण, वास्तविक वात ए छे के N.M.M.ए के सरकारना सांस्कृतिक मन्त्रालये, आवां अनुदानोनो विनियोग, ए मूळ सामग्री पाछी आ देशमां आवे ते माटे करवो जोईए. अने जो ए शक्य ज न होय तो, ते तमाम विदेशस्थिति सामग्री, फोटो रूपे, फिल्म रूपे के C.D. वगेरे रूपे, आ देशना विद्वानोने, ज्यारे जोईए त्यारे, उपलब्ध थाय/होय, तेवो प्रबन्ध करवो जोईए । -शी० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 अनुक्रमणिका अज्ञातकर्तृक : वीतराग-विनति सं. रसीला कडीआ नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्ति-पत्री म. विनयसागर श्री लाभानन्द (आनन्दघन)जी-कृत बार भावना ॥ विजयशीलचन्द्रसूरि विविध भास-रचनाओ ॥ विजयशीलचन्द्रसूरि चतुर्दश पूर्व पूजा ॥ विजयशीलचन्द्रसूरि चोत्रीस अतिशय स्तवन सं. पं० महाबोधि विजय कवि जशराजकृत : दोधकबावनी सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री मानदत्त आदि मुनिकृत विविध स्तवन-सज्झायो सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री महोपाध्याय मेघविजय रचित सप्तसन्धान काव्य : संक्षिप्त परिचय म० विनयसागर समयनो तकाजो : साम्प्रदायिक उदारता शी. ढूंक नोंध : १. निष्कुळानन्दकृत शियळनी नव वाडनां पदो विषे २. नेशनल मिशन फोर मेन्युस्क्रिप्ट विषे ३. मुखपृष्ठ-चित्र विषे माहिती विहंगावलोकन उपा. भुवनचन्द्र 59 70 75 79 0 79 79 81 TO Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकर्तृक वीतराग - विनति सं. रसीला कडीआ प्रस्तुत कृति ला. द. विद्यामन्दिर, अमदावादना ग्रन्थालयनां त्रूटक पुस्तकोमाथी उपलब्ध थई छे. आ कृति एक ज पत्रमां लखायेली छे. स्थिति श्रेष्ठ छे. भाषा प्राकृत छे. कुल गाथा १९ छे. आ पत्रनी पाछळ आदिनाथविनति नामक अन्य पण एक कृति छे. आ कृतिना अक्षरो पाछला पृष्ठनी कृति करतां सहेज मोटा छे. पत्रमां कुल १५ पंक्तिओ छे. दरेक पंक्तिमां आशरे ५० शब्दो छे. बन्ने हांसियामां लाल चन्द्रक छे. वच्चे छिद्र वपरायुं नथी. तेनी आजु-बाजु अक्षर पूर्या विनानी चोरस आकृति छे अंक पर गेरु भूस्यो छे. कृतिमां रचनासंवत् के कर्तानुं नाम आपेल नथी. प्रतिनो लेखन समय अनुमाने १५ मा सैकानो होय तेम जणाय छे. आ विनंतिमां एक भक्तकवि अनन्तकाळना भवभ्रमणथी पीडायेला हृदयनी व्यथाने प्रभु समक्ष भक्तिपूर्ण शब्दोमां रजू करे छे. थोडां उदाहरणो जोईए : " हे त्रण लोकना पितामह ! बालक जेम पोताना माता-पिता समक्ष काली-घेली भाषामा गमे ते बोले, तेओने आनंद ज थाय छे, उद्वेग नथी थतो ! तेम हुं पण आपने विनंति करु छं तो आप मारा पर कृपा राखशो. वळी कहे छे, भवसमुद्रमां डूबेला मने अनन्तकाले तमे मळ्या छो छतां मारो उद्धार केम नथी थतो ? शुं में तमने प्रभु तरीके स्वीकार्या नथी ? आ भयंकर एवा भवरूपी अरण्यमां, हरणना जूथमांथी छूटा पडी गयेला हरणियानी जेम मने, करुणारसथी पूर्ण एवा पण आपे शा माटे एकलो मूकी दीधो ? ए सत्य छे के आप वीतराग-निरीह सकल व्यापारोथी मुक्त छो, छतां अति दुःखित एवा एकला मने ज आप निर्वृत (मुक्त) करी दो ! शुं ए कर्मोनो दोष छे ? के काळनो अनुभाव छे ? अथवा दुष्ट एवा मारी ज अयोग्यता छे ? जे आप समर्थ - दयालु अने त्रिभुवनना Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ 'उपकारमां निरत होवा छतां दीनपणे प्रार्थना करता-याचता एवा मने निर्वृति नथी आपता? छेल्ले कवि कहे छे, नेत्ररूपी दलथी अने पक्ष्म (पांपण)रूपी केसरथी सुशोभित एवा आपना मुखकमलमां मारां लोचनरूपी बे भमरा सदा लावण्यरसने पीधा करो. अने हे नाथ ! आप ज मारा मात-तात-बन्धु-मित्र-स्वजन छो, शरण अने गति पण आप ज छो अने भवे भवे आप ज हो !" आ रीते दरेक गाथा भगवंत प्रत्येनी भक्ति तथा प्रार्थनानी भरेली छे. कविए अत्यन्त सुन्दर रीते व्यथा-याचना-दीनता-अधिकार-भक्ति वगेरे भावोने प्रगट कर्या छे. मूळे प्राकृत भाषा मधुर छे. तेमां कविनी शैली प्रासादिक छे. पदलालित्य पण मनोहर छे. महाकवि धनपालनी ऋषभपंचाशिकाने याद अपावे तेवी चमत्कृति पण जोवा मळे छे. आवी एक उत्तम कृति विद्वज्जनो समक्ष मूकतां हुं आनन्द अनुभवू वीतरागविनति ॥५०॥ जय भवतिमिरदिवायर ! गुणसायर ! सिद्धसासण ! जिणिंद ! । सिवपुरपत्थियसंदण ! दुहखंडण ! मुणिवइ ! नमो ते ॥१॥ अइभत्तिसमावेसेण नाह ! पुरओ ठियं व पिच्छंतो । पणइक्कवच्छल तुमं भवद्दुओ मं(ह)भव(?) किं पि पत्थेमि ॥२॥ जइ वि हु सोवालंभं साहिक्खेवं च किं पि जंपतो । बालो व्व तिलोव(य)पियामहस्स तुह विनवेमि अहं ॥३॥ तह वि पसीइज्ज जओ उव्वेयणिज्जा न हुति पियराणं । बालाण समुल्लावा विसेसओ विसमवडियाणं ॥४॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी- 2006 पडिएण भवसमुद्दे अनंतकालाउ तं पहू पत्तो । तह वि य वेहं (विरहं ?) मह जं कारेसि तं नाह! किं कज्जं ? ॥५॥ हुं विन्नायं अज्ज वि पहु त्ति सम्मं तुमं न पडिवन्नो । न हि माणस (भ ? )रसंगे (?) तम्हा रोरं पिदूमेइ ||६|| पहु ! करुणारसिएण वि एगागी हरिणजूहपब्भट्ठो हरिणलुओ व्व मुक्को किहु ण ( कह णु ?) तए भीमभवन्ने ? ||७|| सच्चं तुमं निरीहो गयनेहो सयलमुक्कवावारो । अइदुहियं इक्कं चिय तह वि ममं निव्व(व्वु)यं कुणसु ||८|| किं दोसो कम्माणं ? किं वा दोसो इमस्स कालस्स ? | किं वा मज्झवि एसा अजुग्गया नाह ! दुट्ठस्स ? ||९|| जिण ! समु (म) त्यो वि दयालुओ वि भुवणोवयारनिरओ वि । दीणं पत्थंतस्स विन नाह ! मह निव्वुयं (इं) देसि ! ॥१०॥ पिच्छंतो बहु सच्चं लोयालोयं मुणिंद ! नियभिच्चं । कह न ममं चिय इक्कं भावारिविडंबियं नियसि ? ॥ ११ ॥ रागाईहि परद्धो भीओ तुह नाह ! सरणमल्लीणो । पक्खिवसु ता ममोवरि करुणारसमंथरं दिट्ठि ॥ १२ ॥ विसयपरिभोगतण्हा ओसरउ खणं पि ताण कह नाह ! । जेहि न पीयं कन्नंजलीहि वयणामयं तुम्ह ||१३|| तुह समयामयसिंधु (धू) जाण जाओ न निद्धुओ अप्पा ( ? ) । कह समय(इ) ताण सामी कसायदवदहणसंतावो ? ॥१४॥ रागाइतकरेहिं सयमवि मुसियाइ तित्थियपुराई । ते तुह सासणपुरे तेसिमविसए वसंति बुहा ||१५|| नियसंवेयणसिद्धं थिरं मणो तुज्झ सासणे मज्झ । मज्झुवरि पुणु न याणे पहु करुणा केरिसी तुम्ह ? ||१६|| विसयासुइरसगत्ते अणाइभवभावणाए घिप्पंतो । मज्झ मणो अणवरयं कह वि तुमं धरसु जह नाह ! || १७ | 3 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ नयणदलपम्हकेसरसोहिल्ले तुह मुणिंद ! मुहकमले । मह लोयणभमरजुयं लायन्नरसं सया पि[य]उ ॥१८॥ तं माया तं जणओ तं सामी बंधवो सुही सयणो । सरणं गई तुम चिय भवे भवे तुज्झ (हुज्ज) मह नाह ! ॥१९॥ ॥ वीतराग वीनती समाप्ता ॥छ।। C/o. टी.वी.टावर सामे, थलतेज, ड्राइव-इन रोड, अमदावाद-३८००१४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर प्रणीता नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्ति-पत्री म. विनयसागर सरस्वतीपुत्र प्रौढ़ विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दरजी का नाम साहित्याकाश में भास्कर के समान प्रकाशमान रहा है । इनका नाम ही स्वतः परिचय है अतः परिचय लिखना पिष्टपेषण करना मात्र होगा। महोपाध्यायजी खरतरगच्छाधिपति श्रीजिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्रगणि के शिष्य है । इनका साहित्य-सर्जना-काल विक्रम संवत् १६४० से लेकर १७०३ तक का है । प्रस्तुत विज्ञप्ति-पत्री अपने आप में मौलिक ही नहीं अपितु अपूर्व रचना है। विज्ञप्तिपत्रों कि कोटि में यह रचना आती है। यह चित्रमय नहीं है किन्तु प्राप्त विज्ञप्तिपत्रों से इसकी मौलिकता सबसे पृथक् है । विज्ञप्तिपत्र प्रायः चम्पूकाव्य के रूप में अथवा खण्ड/लघुकाव्य के रूप में प्राप्त होते हैं । जिसमें प्रेषक जिनेश्वरों का, नगरसौन्दर्य का, पूज्य गुरुराज का सालङ्कारिक . वर्णन करने के पश्चात् प्रेषक अपनी मण्डली के साथ अपने और समाज द्वारा विहित कार्य-कलापों का सुललित शब्दों में वर्णन करता है । दण्डक छन्द में रचित छोटी-मोटी अनेक रचनाएं प्राप्त होती हैं किन्तु दण्डक छन्द के अन्तिम भेद ३३३ नगणादि गणों का समावेश करते हुए यह रचना ९९९ अक्षर योजना की है इसीलिए इसे महादण्डक शब्द से अभिहित किया गया है । इस प्रकार की कृति मेरे देखने में अभी तक नहीं आई है । हो सकता है कि किसी कवि ने इस प्रकार की रचना की हो और वह किसी भण्डार में सुरक्षित हो ! २४ अक्षर के पश्चात् ९ गणों के सम्मिलित अर्थात् २७ वर्ण होते ही वह दण्डक छन्द कहलाता है और क्रमशः एक-एक मगणादि की वृद्धि करते हुए ३३३ गणों तक यह दण्डक ही कहलाता है । दण्डक छन्द के १. इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु महोपाध्याय समयसुन्दर (ग्रन्थ) देखें । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ नियमानुसार प्रारम्भ में दो नगण होते हैं अर्थात् ६ लघु होते हैं तत्पश्चात् सामान्यतया ७ रगण होते हैं अर्थात् गुरु लघु गुरु की पुनरावृत्ति होती रहती है । २७ वर्णात्मक के पश्चात् एक-एक गण की वृद्धि होने पर दण्डक के पृथक्-पृथक् नाम भी प्राप्त होते है । दो नगणों के पश्चात् शेष ७ गणों का यथेच्छ निवेश भी किया जाता है । यहाँ दो नगण के पश्चात् ३३१ रगण का ही प्रत्येक चरण में प्रयोग किया गया है । वर्ण्य विषय इस विज्ञप्ति - पत्री में महादण्डक छन्द के केवल चार चरण हैं और प्रत्येक चरण ९९९ वर्णों का हैं । प्रत्येक चरण का वर्ण्य विषय पृथक्-पृथक् है । चरणानुसार वर्ण्य विषय का संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है : ww १. प्रथम चरण में माँ शारदा / सरस्वती देवी के गुणों का वर्णन करते हुए स्तवना की गई है। शारदा देवी को ऐं बीजाक्षरधारिणी बतलाते हुए कहा गया है कि वह मिथ्यात्व का संहार करने वाली है, सम्यक्त्व से संस्कारित है, दुर्बुद्धि का निवारण करने वाली है, सद्बुद्धि का संचार करने वाली है, तीर्थस्वरूपा है, त्रिमूर्ति द्वारा सेवित है, समस्त देवों के द्वारा पूजित है, सप्त ग्रहों और शाकिनी इत्यादि देवियों के द्वारा प्रदत्त विघ्नों का संहार करने वाली है, भक्तों का निस्तार करने वाली है, धर्मबुद्धि धारण करने वाली है, सेवकों के वांछित पूर्ण करने वाली है, मायाविदारिणी और दैत्यसंहारिका है । २. दूसरे चरण में चौवीस तीर्थंकरों के नाम, ११ गणधरों के नाम, ६ श्रुतधरों के नाम, युगप्रधान आचार्यों के नाम स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ती, शान्तिसूरि, हरिभद्रसूरि, श्यामार्य, शाण्डिल्यसूरि, रेवतीमित्र, आर्यधर्म, आर्यगुप्त, समुद्रसूरि, आर्य मंख, आर्य भद्रगुप्त, आर्य भद्र, आर्य रक्षित, पुष्पमित्र, आर्य नन्दी, आर्य नागहस्ति, आर्य रेवती, आर्य ब्रह्म, नागार्जुन, गोविन्दसूरि, सम्भूतिसूरि, लौहित्यसूरि, श्रीवल्लभी में जैनागमों को ताड़पत्र पर सुरक्षित रखवाने वाले देवर्धिगणि क्षमाश्रमण, उमास्वाति, और भाष्यकार जिनभद्रसूरि आदि के पश्चात् अपनी सुविहित परम्परा के आचार्यगणों देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, उद्योतनसूरि, वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि, - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 जिनेश्वरसूरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनपद्मसूरि, जिनलब्धिसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनोदयसूरि, जिनराजसूरि, जिनभद्रसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसमुद्रसूरि, जिनहंससूरि, और जिनमाणिक्यसूरि के नामोल्लेख सहित सद्गुरुओं को प्रणाम कर यह अद्भुत पत्र लखा गया है । ३. तीसरे चरण में गणनायक जिनचन्द्रसूरि के सद्गुणों और विशिष्ट कार्यकलापों का वर्णन करते हुए कवि कहता है - स्तम्भनपुर में बिराजमान ओकेशवंशीय, रीहड़कुलभूषण, श्रीवन्त शाह की धर्मपत्नी श्रिया देवी के यहाँ जन्म लेने वाले, श्रीजिनमाणिक्यसूरि के उपदेशों से प्रतिबोधित होकर बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करने वाले, जेसलमेर दुर्ग में आचार्य । गणनायक पद प्राप्त करने वाले (वि.सं. १६१२), विक्रमपुर (बीकानेर) में क्रियोद्धार करने वाले (वि.सं. १६१४), फलवद्धिपुर (मेड़तारोड) में महामन्त्रों की शक्ति से प्रभुमन्दिर के तालों का उद्घाटन करने वाले, दिल्ली में शत्रुओं का उच्चाटन करने वाले, योगिनियों की साधना करने वाले, सूरिमन्त्र की आराधना करने वाले, गुर्जर देश में तपागच्छीय विद्वान् द्वारा निर्मित पुस्तिका के विवाद पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने वाले, लाभपुर में सम्राट अकबर को प्रतिबोध देकर शाही मुद्रा से अङ्ग, कलिङ्ग, प्रयाग, चित्रकूट, मेदपाट, सिन्धु सौवीर, काश्मीर, जालन्धर, गुजरात, मालव, काबुल, पंजाब आदि प्रदेशों में अमारी घोषणा का पालन करने वाले, युगप्रधान पद धारण करने वाले, खम्भात की खाड़ी के समस्त जलचरों को अभय दान दिलवाने वाले, पंजाब की पंच नदियों के संगम पर पांचों पीरों को अपने अधीन करने वाले महावैराग्यवान भट्टारक श्रीजिनचन्द्रसूरिजी हैं । चतुर्थ चरण में स्तम्भतीर्थ नगर और मन्दिर का सालङ्कारिक सुललित पदों द्वारा वर्णन कर वहाँ विराजमान युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के साथ निम्न विद्वान् साधु वर्ग था - उपाध्याय जयप्रमोद, श्रीसुन्दर, रत्नसुन्दर, धर्मसिन्धुर, हर्षवल्लभ, साधुवल्लभ, पुण्यप्रधान, स्वर्णलाभ, नेतृऋषि, जीवर्षि, भीम आदि साधु-साध्वियों के समूह से सुशोभित हो रहे थे ।। मेदिनीतट (मेडता) से यह पत्र समयसुन्दरजी ने लिखा था। उनके साथ में उस समय में १२ साधु थे - हर्षनन्दन, रत्नलाभ, मुनिवर्धन; मेघ, रेखा, राजसी, खीमसी, गंगदास, गणपति, मुनिसुन्दर, मेघजी आदि थे। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ अपने साधु समुदाय के साथ समयसुन्दरगणि आचार्यश्री को सविधि नमस्कार कर यह विज्ञप्ति- पत्र लिख रहे हैं । समयसुन्दरजी लिखते हैं - पाटण से आपश्री का आदेश प्राप्त कर,विहार कर हम वरकाणा आए । वहाँ पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार कर वैशाख की नवमी के दिने आडम्बर के साथ यहाँ पहुंचे । यहाँ प्रातःकाल संघ के समक्ष विपाकसूत्र का व्याख्यान दे रहे हैं । हर्षनन्दन और मुनिमेघ ने ५, ११, १५ आदि दिनों कि तपस्या की है । संघ के विशेष अनुरोध को ध्यान में रखकर सप्तम अङ्ग उपासकदशासूत्र का वाचन भी किया जा रहा है। पर्युषण पर्व के आने पर मन्त्री संग्राममल्ल ने धर्मशाला में आकर संघ के समक्ष कल्पसूत्र को ग्रहण किया । रात्रि जागरण करते हुए प्रातःकाल वाजिवनिर्घोष के साथ राजमार्ग पर होता हुआ जुलूस उपाश्रय में आया और उन्होंने कल्पसूत्र मुझे बोहराया । मैंने तेरह वाचनाओं से इसका पठन किया । पारणा के दिन पौषधग्राहियों को मिष्टान्न के साथ पारणक कराया गया । संघ में अट्ठाई आदि तपस्याएं हुई । इस प्रकार धर्म रीति के अनुसार महापर्व की आराधना कर हमने अपने जीवन को सफल किया है । तातपाद अर्थात् आप भी अपने यहाँ के पर्वाराधन के स्वरूप का वर्णन करें । __ अत्रस्थ महामन्त्री भागचन्द्र, सदारङ्गजी, भाणजी, राघव, वेणीदास, वाघा, वीरमदे, सामल, राजसी, ईश्वर, मन्त्री हमीर, भोजु, अमीपाल, तेजा, समूह, उग्र, मेहाजल, सिद्धराज, रेखा, सुरत्राण, वीरपाल, नृपाल, राजमल्ल, पीथा आदि समस्त संघ आपके चरण कमलों की वन्दना करता है । रचनाकार :- इस पत्र के लेखक ने अपना नाम स्पष्ट रूप से न देकर चतुर्थ चरण में शिष्याणुसिद्धान्तचारुरुचिः पर्यायवाची शब्दों से दिया है । सिद्धान्त शब्द से समय का ग्रहण किया गया है और चारु शब्द से सुन्दर का ग्रहण किया गया है । इस प्रकार प्रेषक का नाम समयसुन्दर सिद्ध होता है । दूसरा कारण यह भी है कि चतुर्थ चरण के अन्त में तत्पुनस्तातपादैरपि शब्द यह द्योतित करता है कि जिनचन्द्रसूरिजी समयसुन्दर जी के तातपाद अर्थात् दादागुरु होते हैं । तीसरा कारण यह भी है कि स्वयं को शिष्याणु लिखते हैं जो उनकी अधिकांश कृतियों में प्राप्त होता है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी- 2006 रचना संवत् :-- लेखक ने पत्र - - प्रेषण का समय नहीं दिया है, किन्तु तृतीय चरण में जिनचन्द्रसूरिजी के वर्णन में जो प्रमुख कार्यों की गणना की है उस के अनुपात से पञ्च नदियों के पांच पीरों का साधन उन्होंने विक्रम संवत् १६५२ में किया था । १६५२ के पश्चात् की किसी प्रमुख घटना का उल्लेख इसमें नहीं है । पाटण सं. १६५७ में विराजमान आचार्य के आदेश से ही समयसुन्दरजी मेड़ता आए थे और आचार्यश्री का चातुर्मास खम्भात में था । चातुर्मास सूची के अनुसार सं. १६५८ का चातुर्मास खम्भात में था । अतः अनुमान किया जा सकता है कि संवत् १६५८ खम्भात में विराजमान आचार्यश्री को यह पत्र प्रेषित किया गया था । प्रेषण स्थान :- चतुर्थ चरण में प्रेषक ने मालकोटात्तटान् मेदिनीतश्च का प्रयोग किया है । मेदिनीतट मेड़ता का प्रसिद्ध धाम है । और उस समय में जोधपुर के अन्तर्गत मुख्य स्थान था । मालकोट शब्द यहाँ किस ग्रामस्थान का बोधक है ? यह चिन्तनीय है । 9 प्रति : राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर संग्रह में प्रेस कॉपी नम्बर ७४८ पर प्रतिलिपि सुरक्षित है जिसके छः पत्र है । यह पत्र ऐतिह्य एवं महादण्डक छन्द में असाधारण रचना होने के कारण विद्वज्जनों के आह्लाद हेतु पठनीय है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्तम्भतीर्थस्थित-अकब्बरसाहिप्रतिबोधक-युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि प्रति मेदिनीतटात् वाचकोत्तंसश्रीसमयसुन्दरगणिप्रेषिता नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्ति-पत्री सकलविमलशाश्वतस्वस्तिमज्ज्योतिरुद्योतितं सर्वसूर्यादिमन्त्रेषु तन्त्रेषु सर्वत्रभूर्जादिपत्रेषु यन्त्रेषु विद्यापवित्रेषु मिथ्यात्ववल्लीलवित्रेषु दत्तात्मभक्तातपत्रेषु संसिद्धिसत्रेषु मित्रेषु लिप्या विचित्रेषु वाद्यं पुनर्यं च बालाः पतद्वक्त्रलाला लसत्कण्ठपीठेषु मुक्तादिमाला अनाश्लिष्टसंसारमायादिजम्बालजाला: सुभाला: सुबुद्ध्या विशालाः समात्मीयनालप्रणालाः करालास्त्रिकालाः सदा सन्मुदा पठन्तीह पूर्वं तथाऽव्रक्षणे धातुरूपस्वरूपं नतानेकभूपं सदाम्नायपानीयकूपं सदाप्यव्ययं न व्ययं सन्मनोहारि सर्वत्रविस्तारि मिथ्यात्वसंहारि सम्यक्त्वसंस्कारि दुर्बुद्धिनिर्वारि सद्बुद्धिसञ्चारि निर्वाणनिर्धारि तीर्थेशधामेव शीर्षप्रचण्डेन दण्डेन सम्प्रोल्लसत्कीर्तिपिण्डेन दीप्तेः करण्डेन नित्यमखण्डेन युक्तं तदूर्ध्वं महेन्द्रध्वजेनाऽपि कुम्भेन सर्वद्धिलम्भेन संशोभितं वर्णमेकं पुनः पद्मनाथो विरञ्चिर्वृषाङ्कश्च देवत्रयं यत्र नित्यं मिलित्वा स्थितं वक्रधारं कृपाणं तथा लोहगोलं यको दानवो मानवो व्यन्तरः किन्नरो राक्षसो यक्ष-वैताल-वैमानिक-प्रेत-गन्धर्व-विद्याधर-क्षेत्रपालादिदिक्पालभूतव्रजो भास्करो भासुरश्चञ्चुरश्चन्द्रमा मञ्जुलो मङ्गलः सोमपुत्रः पवित्रस्तथा सन्ततिर्गीष्पतिर्भार्गवो नीलवासास्तथा सैहिकेयश्शिखी यो ग्रहो दुर्ग्रहो या च नक्षत्रमाला विशाला तथा शाकिनी डाकिनी नाकिनी किन्नरी सुन्दरी मन्त्रिणी तन्त्रिणी यन्त्रिणी दुष्टनारी तथा केशरी चित्रकः कुञ्जरो वेसरः सौरभेयस्तुरङ्गो विरङ्गः कुरङ्गो महाङ्गो भुजङ्गस्तथाऽन्योऽपि जीवो महादुष्टबुद्धिः सदाऽस्माकमेकाग्रचित्ताद् भृशं भक्तिभाजां सुराजां विरूपं स्वरूपं विधास्यत्यहो तं वयं मारयिष्यामः एतद्द्वयस्य प्रहारैरितीवाऽत्र हेतोर्दधानं तथा सर्ववर्णेषु मुख्यं सुरक्षं सुकक्षं सुलक्षं सुयक्षं सुदक्षं सुपक्षं विरञ्च्यात्ममार्तण्डसौख्यादिवर्याभिधाधायकं नायकं त्रायकं दायकं संविभाव्येति सम्यग्वर्णं सुवर्णं लवर्णो वराकः श्रियोर्वीयकं संश्रितः सोऽपि सत्त्वाधिकोदात्तश्रियं देवदूष्यावृतात्मीयशीर्षोपरिन्यस्तप्रशस्तस्फुरत्कामकुम्भान्वितं तं तथा विश्वरेतः सुता सर्वदेवैर्नता Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 हंसयानस्थिता पुस्तकेनाङ्किता देववाणीरता कूर्मपादोन्नता केलिजङ्घान्विता सिंहमध्याद्भुता वर्यवक्षःस्थला मञ्जुसन्मेखला हस्तनीलोत्पला ध्वस्तकुप्यत्खला सद्गुणैनिर्मला भक्तहन्निश्चला छिनदुष्टच्छला नैव सा निष्फला सर्वतः सद्बला केशतः श्यामला विश्वतः सत्कला केलितः कोमला सद्वचः कोकिला पेशला मांसला वत्सला संरणन्नूपुरा प्रौढपुण्याङ्करा चक्रमाच्चञ्चुरा क्वापि नैवातुरा सर्वदा मेदुरा दीप्तिसन्मुर्मुरा सद्यशःपुरपूरा मग्नभीभूर्भुरा सम्पदा कारिणी पङ्कजागारिणी विश्वसञ्चारिणी बुद्धिविस्तारिणी भक्तनिस्तारिणी दुर्गतेर्दारिणी धर्मधीधारिणी सेवकाधारिणी संसृतेः पारिणी मायिनां मारिणी वैरिणां वारिणी दैत्यसंहारिणी % नमो हारिणी शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा तां तथा ।९९९। . प्रथममृषभदेवनामाऽभिरामाद्भुतश्रीसमेतोऽजितो नो जित: संयतः शम्भवः शं भवः संवराधीशजन्मा सुजन्मा जिनो मेघराजाङ्गजोऽनङ्गजो देवपद्मप्रभुः सप्रभः साधुपार्श्वः सुपार्श्वश्च चन्द्रप्रभो दीप्तिचन्द्रप्रभो मातृरामाभिजातोऽभिजातो वचःशीतलः शीतलो विष्णुपुत्रः सुनेत्रस्तथा वासुपूज्य: सुपूज्यो विपूर्वोमलो निर्मलोऽनन्ततीर्थेश्वरो भासुरो धर्मनाथः सनाथः श्रिया शान्तितीर्थङ्करः कुन्थुनाथः प्रमाथस्ततोऽरः करः सम्पदा मल्लिरापल्लताभल्लिरत्यन्तसत्सुव्रतः सुव्रतः श्रीनमिनिभ्रमिर्नेमिदेवाधिदेवः सुसेवस्तथा पार्श्वतीर्थाधिपः सत्कृपः सद्गुणैर्वर्धमानो जिनो वर्धमानस्तथा गुब्बरग्रामवासी प्रकाशीन्द्रभूतिर्गणेशोऽग्निभूतिस्तथा वायुभूति: पुनर्व्यक्तनामा सुधर्मा गुणैर्मण्डितो मण्डितो मौर्यपुत्रः सुसूत्रस्तथाऽकम्पितः कम्पितो नाऽचलभ्रातृकस्तान्त्रिकस्त्यक्तमार्यः सदार्यश्च मेतार्यसाधुः सदाचारसाधुः प्रभासो निवासो गुणानां च्युतः पञ्चमस्वर्गतो धारिणीकुक्षिपाथोजसंलब्धजन्माऽष्टकन्यापरित्यागकर्ता हिरण्यादिकोटीप्रहर्ता लसत्केवलश्रीसुभर्ता गणाधीशजम्बूयतीन्द्रः प्रपूर्वो भवो भीमसंसारकान्तापारङ्गमी संयमी सूरिमुख्यः सुदक्षश्च शय्यम्भवः श्रीयशोभद्रसूरीन्द्रनामाऽऽर्यसम्भूतसूरिश्च भूरिर्गुणानां कलापैस्तथा भद्रबाहुः सुबाहुः पुन: स्थूलभद्रो मुनीन्द्रश्च कोशासुवेश्यामनोबोधकारी महाब्रह्मचारी लसल्लब्धिधारी नराणां वराणां भवाम्भोधितारी तथाऽऽर्यो महागिर्यभिख्यः सुशिष्यः सुहस्ती प्रशस्ती तथा शान्तिसूरिर्गुणश्रेणिभूरिः पुनः श्रीहरेरग्रगोभद्रसूरिर्गभीरार्थप्रज्ञापनासूत्र सन्दर्भविज्ञान-विद्यावरेण्यः सुपुण्यश्च नीलार्यभट्टारकस्तारकः संसृतेः Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 . अनुसन्धान ३५ कारकः सम्पदामेष शाण्डिल्यसूरिर्मुनी रेवतीमित्रनामाऽऽर्यधर्मार्यगुप्तायनामान एवं समुद्रादिसूर्यार्यमङ्खार्यसौधर्मसूरीन्द्रमुख्या: सुदक्षाः पुनर्भद्रगुप्तः सुगुप्तो यतो निर्गता वार्धिसंख्येयशाखाः सुनागेन्द्र-चन्द्रस्फुरनिर्वृतिस्फारविद्याधरोदारनामाभिरामा द्विपञ्चाप्तपूर्वः सुपूर्वोऽनु वज्रादिमस्वामिसूरीश्वरोऽधीश्वरो रक्षितार्यसूरिः पुनः पुष्यमित्रः पवित्रस्तथाऽऽर्यादिनन्दिः प्रभु गहस्तः प्रशस्तस्ततो रेवतीसूरिराचार्यधुर्यः सुगाम्भीर्यधैर्यादिवर्यः परब्रह्मवान् ब्रह्मनामादिमद्वीप-शाण्डिल्यसूरिहिमाद्वन्तसूरिगणिर्वाचकाचार्यनागार्जुनः प्रार्जुनः सद्गुणैः सूरिगोविन्दसम्भूतिसद्वाचको सूरिलौहित्यनामा पुरि श्रीवल्लभ्यां यक: सर्वसिद्धान्तवृन्दानि तालादिपत्रे विचित्रे वरैर्लेखकैर्लेखयामास देवद्धिभट्टारकः श्रीउमास्वातिसूरि शं भाष्यकर्ता जिनाद्भद्रसूरिस्ततो देवसूरिः पुनर्नेमिचन्द्रस्तथोद्योतनो वर्धमानो जिनादीश्वरो जैनचन्द्रोऽभयाद्देवसूरि-जिनाद्वल्लभो दत्तचन्द्रौ पतिः श्रीजिनेशः प्रबोधश्च चन्द्रः शिवाख्यो जिनात्पद्मलब्धी च चन्द्रोदयौ राजभद्रौ च चन्द्रः समुद्रो जिनाद्धंसमाणिक्यसूरी च पूर्वोक्तमन्त्रांस्तथा तीर्थराजान् पुनः श्रीगुरून् सम्प्रणिपत्य लेलिख्यते पार्वणो लेख एषोऽद्भुतः ।२।९९९। क्वचिदिह मणिरत्नमाणिक्यमालं क्वचिन्मुक्तमुक्ताफलालप्रवालं क्वचित्स्वर्णरूप्यादिपुजैविशालं क्वचित्स्वर्णपट्टोल्लसच्छ्रेष्ठमालं क्वचिद्धट्टपीठे लुठन्नालिकेरं क्वचित् काञ्चनीराजिकाशृङ्गबेरं क्वचित्प्रस्तरीन्यस्तनानार्थमूलं वचित्प्रस्फुटच्छाटिकापट्टकूलं क्वचिच्छाल्यधान्यादिगजैगरिष्ठं क्वचित्प्राज्यमाज्यादिकूपैर्वरिष्ठं क्वचिद्विप्रशालापठच्छात्रवृन्दं क्वचित्पीयमानाप्त-वाणीमरन्दं क्वचिद्दीयमानार्थिवाञ्छार्थदानं क्वचित्कामिनीगीतसङ्गीतगानं क्वचिन्मत्तमातङ्गघण्टानिनादं क्वचिद्वाजिहेषारवैर्लग्नवादं क्वचिद्रम्यहम्यर्जितस्वर्विमानं क्वचिच्चारुचैत्यावलीभ्राजमानं क्वचित्साधुसाध्वीकृ पा(ता?)ध्यायघोषं क्वचित्कामुकाविष्कृतप्रेमपोषं क्वचित्क्लृप्तविस्फारशृङ्गारवेषं क्वचिद्दिव्यनव्याङ्गनारूपरेखं क्वचित्तीरसांयात्रिकोत्तीर्णपण्यं क्वचिद्वारिमध्यभ्रमन्नौवरेण्यं क्वचित्स्वर्णपीठोपविष्टक्षमेशं क्वचित्साधुभिर्दीयमानोपदेशं वचित्सूरिमन्त्रस्मृतौ लीनबुद्धं क्वचिद्राजसंसद्भवन्मल्लयुद्धं क्वचित्स्तम्भनाधीशचैत्यप्रधानं क्वचित्सदगुरुस्तूपरूपप्रतानं ततः किं बहूक्त्या ? समृद्ध्या सुवृद्ध्या सुनाशीरपुर्याः सदृक्षं सुवृक्षं पुरं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 स्तम्भतीर्थं सुतीर्थं च तस्मिंस्तथोकेशवंशाम्बुजोद्बोधने भास्करा रैहडीये कुले गाढराढाधराः श्रीमदुद्बोधरनानि सल्लक्षणाज्ञानविज्ञानचातुर्यविद्याचणाः शीलभास्वच्छ्यिादेवीमातुः प्रलब्धालक्षा विनीताः सुगीताः सुमित्राः पवित्राः सुलावण्यवाणीसुधारञ्जितानेकलोकाः सरोकाः सुदाक्षिण्यनैपुण्यजाग्रत्प्रतापा विपापा गुरोर्जेनमाणिक्यसूरेः सकाशाच्छ्रुताः सारकान्तारकारा विचाराः समुत्पन्नवैराग्यरङ्गत्तरङ्गाः सरङ्गा गृहीतव्रताः सुव्रता गुप्तिगुप्ताः समित्याभियुक्ताः प्रमुक्ताः सुभुक्ताः श्रुतोकास्तपस्तेजसा दीप्यमानाः समानाः सुगानाः सुतानाः सुदानाः सुयानास्ततो जेसलमेरुदुर्गः सुवर्गः सुसर्गो गुरुप्रनपट्टाधिकारास्ततो विक्रमे सत्क्रियाः श्रीफलवर्यां महामन्त्रशक्त्या प्रभोर्मन्दिरे तालकोद्घाटकाः शात्रवोच्चाटका ढिल्लीपुर्यां पुनर्योगिनीसाधकाः सूरिमन्त्रस्फुटाऽऽम्नायसंसाधका गूर्जरेऽजर्जर या तपोटैस्तपोटैः कृता गालिनिन्दामयी पुस्तिका तद्विवादेषु सर्वत्र सम्प्राप्तजाग्रज्जयश्रीप्रवादाः पुनर्यद्गुणाकर्णनाकृष्टसंहृष्टहृत्साहिना मानसम्मानपूर्वं समाकारिता लाभपुर्यां यकैः साहिछप्पाप्रयोगेणाऽङ्गे कलिङ्गे सुबङ्गे प्रयागे सुयागे सुहट्टे पुनश्चित्रकूटे त्रिकूटे किराटे वराटे च लाटे च नाटे पुनर्मेदपाटे तथा नाहले डाहले जङ्गले सिन्धुसौवीरकाश्मीर-जालन्धरे गूर्जरे मालवे दक्षिणे काबिले पूर्वपञ्जाबदेशेष्वमारिभृशं पालयाञ्चक्रिरे प्रापि यौगप्रधानं पदं स्तम्भतीर्थोदधौ दापितं सर्वमीनाभयं यैः पुनः पञ्चकूलङ्कषासङ्गमे साधिताः सूरिमन्त्रेण पञ्चापि पीरा महाभाग्यवैराग्यवन्तः सदा जैनचन्द्रा मुनीन्द्राः सुभट्टारकाः ।३।९९९। प्रवरविदुररत्ननिध्याह्वयाः श्रीउपाध्यायविद्वद्गजेन्द्रा जयादिप्रमोदाः श्रिया सुन्दराः सुन्दरा रत्नतः सुन्दरा धर्मतः सिन्धुरा हर्षतो वल्लभाः साधुतो वल्लभाः प्राज्ञपुण्यप्रधानाः पुन स्वर्णलाभास्तथा नेतृ-जीवर्षि भीमाभिधानास्तथेत्यादिसत्साधुसाध्वीद्विरे फव्रजासेवितांहिद्वयाम्भोजराजी मनोहारिणस्तांस्तथा मालकोटात्तटान् मेदिनीतश्च शिष्याणुसिद्धान्तचारुरुचिर्गणिहर्षतो नन्दनो रत्नलाभो मुनेर्वर्धनो मेघरेखाभिधानौ तथा राजसी खीमसीश्वरो गङ्गदासो गणादिः पतिज्येष्ठनामा मुनिः सुन्दरो मेघजीत्यादि यत्याश्रितः कार्तिकेयाक्षिमित्यद्भुतावर्तवत्या प्रणत्या च विज्ञप्तिमेवं चरीकीर्ति वर्वति निःश्रेयसश्रेणिरत्नाऽऽप्तसत्पूज्यराजक्रमाम्भोजमन्दारसारप्रसादात् तथा पत्तनाच्छीगुरूणामिहाऽऽदेशरत्नं गृहीत्वा विहत्याऽनुसत्सार्थयोगेन सार्द्ध Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. अनुसन्धान ३५ वरात्काणके पार्श्वनाथं च जूत्कृत्य वैशाखमासे द्वितीये नवम्यह्नि साडम्बरं सन्मुहूर्तेऽहमत्राऽऽजगामाऽऽशु सङ्घोपि सर्वो भवन्नामतः प्रापितो धर्मलाभं जहर्ष प्रकर्ष ततः प्रातरुत्थाय सङ्घाग्रतः श्रीविपाक श्रुते वाच्यमाने पुनर्हर्षनन्देर्मुनेर्मेघनाम्नः क्रमाद् बाणरुद्रादिकृष्णांहिपक्षाभिधाने तपस्यद्भुते वाह्यमाने प्रतिक्रान्ति-सामायिकाहत्पदार्चादिसद्धर्मकार्ये विशेषेण सद्भव्यवर्णो भृशं प्रेर्यमाणे विने यस्य सत्सप्तमाले पुनः पाठ्यमाने सति श्रीमहापर्वराजाधिराजः समागात्तदोत्पन्नरङ्गद्विवेकातिरेकेण सन्मन्त्रिसङ्ग्राममल्लेन भास्वत्कनीयः समर्थो न सद्धर्मशाला समागत्य सङ्घस्य सम्यक् समक्षं क्षमाश्रान्तिपूर्वं स्फुटं कल्पपुस्तं प्रशस्तं. समादाय सायं निजायां मुदा मन्दिरायां स्फुरच्चन्दिरायां समानीय कृत्वा निशाजागरां सुन्दरां देवगुर्वादिगीतादिगानैः सुदानैः प्रगे सर्वसङ्घ समाकार्य वर्यातिविस्फारकश्मीरजन्मच्छटाच्छोटपूगीफल-प्रौढसन्नालिकेरादिदानैः सत्कृत्य शृङ्गारितेभकुम्भस्थलारूढरङ्गत्कुमारस्फुरत्पञ्चशाखाम्बुजे स्थापयित्वा महापञ्चशब्दादिवाजिवनिर्घोषपोषं त्रिके चत्वरे राजमार्गे चतुष्के भृशं भ्रामयित्वा मदीये शयाम्भोजयुग्मे प्रदत्तं ततः सङ्घवाचा मया वाचितं ब्रह्मगुप्तिप्रमाणाभिरामाभिर्वरं वाचनाभिः प्रभावाभिरम्याभिरानन्दतः पुस्तकग्राहिणैवाऽऽक्षिवेदश्रुतीनामिहाऽन्तर्बहिस्ताच्च सम्यग्दृशां पौषधग्राहिपुंसां लसत्कुण्डलाकारपक्वान्नसन्मोदकैः पारणा भीमसंसारकान्तारभीवारणादायि दानं धनं दत्तमाशीलि शीलं तपस्तप्तमष्टाह्निकापक्षमुख्यं पुनर्भावना भावितेत्यादि सद्धर्मरीत्या समाराधितं श्रीमहापर्व सर्वं कृतार्थं कृतं मानवं जन्म मे, तत्पुनस्तातपादैरपि स्वीयपर्वस्वरूपं निरूप्यं, महामन्त्रिराड् भागचन्द्रः सदारङ्गजी भाणजी राघवो वेणिदासोऽपि वाघा च वीरम्मदे सामलो राजसी ईश्वरो मन्त्रिहम्मीरखङ्गारसत्कादि भोजू अमीपाल तेजा समू उग्रमुख्यः पुरान्तश्च मेहाजलः सिद्धराजश्च रेखा सुरत्राण सद्वीरपाला नृपालस्तथा राजमल्लोपि पीथादिकः सर्वसङ्घः सदा वन्दते पूज्यपादान् महादण्डकः ।४।९९९। श्रीः श्रीः श्री: (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, प्रेसकॉपी नं. ७४८, पत्राङ्क १-६, विज्ञप्तिपत्री) ___C/o. प्राकृत भारती १३ A, मेन मालवीय नगर, जयपुर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लाभानन्द (आनन्दघन )जी-कृत बार भावना ॥ - विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीआनन्दघनजी महाराज, मूळ साधुपदनुं नाम मुनि लाभानन्द हतुं, .. ते वात सर्वविदित छे. अवधूतस्वरूपी योगी तरीके तेमणे पोतानु, गच्छमतथी पर एवं 'आनन्दघन' एवं नाम अपनाव्युं होय, तेम बनवाजोग छे. एमना नाम तथा गच्छ आदि विशे खूब लखायुं छे, चर्चा थई छे, तेथी ते वातो अहीं अप्रस्तुत छे. १७मा शतकना, एक योगीनी अथवा साधक संतनी कक्षाना तेओ जैन मुनि हता ए वात निर्विवाद सर्वसम्मत छे... एमणे रचेल स्तवन चोविशी (२२ स्तवनो) तथा पदबहोंतेरी - एम बे रचनाओ उपलब्ध तथा प्रसिद्ध छे. ते उपरांत तेमनी कोई रचना अद्यपर्यन्त जाणवामां आवी नथी. विद्वान् अने अन्वेषण-दृष्टि-सम्पन्न मित्र मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी महाराजे, ताजेतरमां, फुटकळ पानांमांथी, आ योगी पुरुषनी एक नवीनअप्रगट/अज्ञात रचना शोधी काढी छे, ते अत्रे यथामति सम्पादित करी आपवामां आवे छे. आ रचनानुं नाम छे बार भावना. आ रचनामां कर्ताए क्यांय पोतानुं नाम निर्देश्युं नथी. परन्तु पत्रना अने रचनाना छेडे आपेलपुष्पिकामां "इति बार भावना आत्मस्वरूपा लाभानन्दजीकृता समाप्ता" एवी पंक्ति छे, तेना आधारे आ रचना तेमनी होवानुं नक्की थई शके छे. वळी, आ आखी रचनानी भाषा तथा शब्दगुंथणी जोतां, आवं क्लिष्ट अने मार्मिक प्रतिपादन करवानुं आनन्दधनजी सिवाय कोई- गजु नहि, तेथी पण आना कर्ता तेओ ज होय - बीजा कोई लाभानन्द नहीं - एम नक्की करी शकाय तेम छे. प्रतिनो, अथवा कृतिनो प्रारम्भ जरा विलक्षण रीते थयो छे : "अथ अवधुकीर्तिलिख्यते". आ अवधुकीर्ति एटले शुं होय ? 'अवधु द्वारा कीर्तन' अथवा 'अवधु माटे कीर्तन' एवो अर्थ थई शके खरो. पण अवधु शब्दनी आ रीतनी हाजरी, कर्ता लाभानन्दजीनी विलक्षण आन्तरिक/आत्मिक भूमिकानो संकेत जरूर आपी जाय छे. ३९ कडीओमां व्यापेली आ रचनानो विषय जैन-प्रसिद्ध अनित्यादि Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 अनुसन्धान ३५ बार भावनाओनुं तार्त्तिक स्वरूपवर्णन छे. कर्ताए प्रथम कडीथी सीधुं भावनानिरूपण ज आदरी दीधुं छे; आरम्भनी तथा अन्तनी प्रचलित औपचारिकताओमां तेओ पडता नथी. आ पण तेमनी निःस्पृह उच्च भूमिकानुं सूचक छे. भाषा मारु - गुर्जर अथवा मारवाडीप्रधान हिन्दी छे. बे ज छन्दोनो उपयोग कर्यो छे : दुहो तथा छन्द. आ छन्द ते सम्भवतः कुण्डलिया होय तेवुं मने लागे छे. चोक्कस तो जाणकारो कही शके. आनन्दघन - साहित्यना प्रेमीओ तथा अभ्यासीओने बराबर जाण छे के तेमनी भाषा केटली गहन- गम्भीर, मार्मिक अने अल्पाक्षरी होय छे. आपणे एम धारीए के बार भावना तो प्रसिद्ध विषय छे, तेने तो सुगमताथी समजी - उकेली शकाय, तो अवश्य थाप खाई जवाय तेवुं छे. द्रव्यानुयोगना विषयने आ लघु कृतिमां तेमणे ठांसी ठांसीने एवो तो भरी दीधो छे के अभ्यासीओ निरन्तर ऊंडुं मन्थन कर्या ज करे, अने तोय तत्त्वनो ताग मळे के ना मळे ! प्रसंगोपात्त, एक वात जणाववी अत्रे प्रस्तुत थई पडशे के 'गुजराती साहित्य कोश (मध्यकाल ) ' जेवा सन्दर्भ ग्रन्थमां 'लाभानन्द' नामक कविनुं अधिकरण ज नोंधायुं नथी. हा, 'आनन्दघन'ना अधिकरणमां, तेमनुं नाम 'लाभानन्द' होवानो उल्लेख जरूर छे, पण ते नामनुं जुदुं अधिकरण नथी. कर्तानी सर्व रचनाओ 'आनन्दघन' ए नामथी ज मळे छे, तेथी ज आम हशे एम मानी शकाय; साथे एम पण नक्की थाय के 'लाभानन्द' नामना अन्य एक पण कवि मध्यकालमां थवानुं नथी नोंधायुं, तेथी पण आ रचना आनन्दघनजीनी ज छे एम सिद्ध थाय छे. आ रचनानी भाषा स्तवनो / पदोनी भाषा करतां वधु कठिन छे. बनारसीदास वगेरे अध्यात्मविदोए प्रयोजेली भाषा प्रायः आ प्रकारनी छे. थी ते प्रकारनी कृतिओ - भाषाना तज्ज्ञो ज आना शब्दार्थ पकडी शके. अने ते पकड़ाय तो ज यथार्थ पदच्छेद आदि थाय. अत्यारे तो यथामति नकल करी मूकी छे. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेबुआरी - 2006 बार भावना ॥ ॥५०॥ अथ अवधुकीर्तिलिख्यते ॥ दोहा ॥ ध्रुव वस्तु निश्चल सदा अथ भाव प्रज्याव । स्कंधरूप जो देखीइं पुदगलतणो विभाव ॥१॥ जीव सुलक्षणा हो मो प्रतिभासिओ आज परिग्रह परतणा हो तासुं को नहि काज । कोई काज नांहि परहुं सेती सदा ऐंसो जांनीइं चेतनरूप अनुप निज धन ताहिसें सुख मानीइं ॥ पिय पुत्त बंधव सयल परियण पथिक संगी पेखणा सम नांण दंसणस्यउं चरित्तहें रहें जीव सुलक्षणा ॥२॥ असरण वस्तु ज परिणवन सरण सहाइ न कोय । अपनी अपनी सकतिके सबे विलासी जोय ॥३॥ छन्द ॥ मरणा जाणे आयुहे कायर सोइ होय मोह व्यापए तासहो सरण विसोइ जोय । नवि सरण जोवहि अप्प सोहही सत्य छे न जु भासही पहिचांन कृत क्रम-भेद न्यारे शुद्ध भाव प्रकासहि ॥ जिम धाय बालक अन्नभेदी बाहिर मारग सम धरे जीवतव्य तासौ देह पोषी मरण सेती को डरें ॥४॥ दोहा ॥ संसाररूप को वस्तु नांहि ए भेदभाव अग्यांन । ग्यांनदृष्टि धरि देखि जियरे सबे सिद्धि समान ॥५॥ छन्द ॥ ए संसार ही भाव हो परसुं कीजें प्रीति जहां सुखदुख मानीइं हो देखि पुदगलकी रीति । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुसन्धान ३५ पुदगल-द्रवकी रीति देखी सुख दुख सब मानिया चहुं गति चौरासी लख जोनि आपणा पद जानिया ॥ यह अपनो पद शुद्ध चेतनमांहि दिट्ट जूं दीजीइं अनादि नाटक नटत पुग्गल तासुं प्रीत न कीजीइं ॥६॥ दोहा ॥ एक दशा निज देखिकें अप्पा लेहु पिछानि । नानारूप विकल्पना सो तं परकी जांनि ॥७॥ बोलत मोलत सोवता थिर मोनें जागंत । आप सभावि एक पुनि जिति तिति अन नभंत ॥८॥ हंस विचक्षणा हो विचार एकता आस जम्म ण किनि धर्यो हो मरणा को नहि पास । मरण किसकि न जम्मु धरिओ सुरग नरकें को गयो अनंत बल वीर्य सुक्ख जाके दुख कहि कि न सो गयो । निज सहजनंद सुजाव अपनें थिर सदा चिदगुण घणा धरि धांन जोया नहि रूप दोया जानि हंस विचक्षणा ॥९॥ दोहा ॥ अण अण सत्ता धरें अन्न अण परदेस । अन्न अन्न थिति मंडिया अन न अंन प्रवेस ॥१०॥ हंस सयानडा हो अप्पा अन्न हि जोय सव्व सहावई हो मलियो किसहिं न कोय नवि कोय मलियो किसही सेती एक खेत अवगाहिया परदेस परचें करें नांहिं नियत लक्षण बांहिया सोभा बिराजित सबें भूषित एक समें पयांनडा कोइ नांहि साहिब अउर सेवक हंस सयानडा ॥११॥ .. दोहा ॥ निम्मल गति जिय अप्पनी जेहो जांनि अयास अयास छि जड जांनि तुंहु वेयए अप्प पयास ॥१२।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 19 हंसा निम्मला हो जांणहु अप्पसरीर रोग न व्यापें हो दुःख न दारिद पीर पीरा न व्यापें दुःख दारिद रोग निकट न आवहि ग्यांन दंसणस्यौं चरित्तह शुद्ध अप्पा भांवहि मल मूलधारी अति बिथारी जाति पुग्गल ति भला निज देह तेरी सुखह केरी जानि हंसा निम्मला ॥१३॥ दुहा ॥ आश्रव बंध अप्पा नहि अप्पा केवल नांण जो इन भावें अनुसरें तो निम्मल होइ विहांण ॥१४॥ केवल मल परि वंजियो जं हिसो चाहिअ णाय तिसो सबरस संचरें परें न कोइ जाय ॥१५॥ आश्रव एहं जिया हो पुग्गल कौंण उपजाव सहि जहि होइ जिया हो ताकी सकति सुहाव सुभाव सक्ति सब तासु केरी देखि मूढो मान ए यह सकल रतना में जूं कीनी नांहि कोइ आन ए तिस भर्म बुद्ध सौ आपु अरुझें एक खेतहि वासओनादि काल विभाव ऐंसौं सोइ जांणि जियडे आश्रओ ॥१६॥ दोहा ॥ यहुं जिउ संवर अप्पणो अप्पा अप्प मुणेय । जो संवर पुग्गलतणो कुमतिरोध हवेय ॥१७॥ सुभाउ रूप जो दिढे हे जाणे गुण परिनाय । सो जिय संवर जोणि तुं अपणें पदें स नाय ॥१८॥ छन्द ॥. संवर एह जिया हो अपने पद हि विचारि जो परदव्व जिया हो ताकी नांहि संचार संचार नांहि परदरवकेरो पद हि आप विचारीइं पंडित गुण सौं भयौ परचौं मूढ दोष निवारइ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अनुसन्धान ३५ सहज परणत भई परगट किम होहि करम कदंबरो अनाहि वस्तु सहाइ परणवें जांणि जियडे संबरो ॥१९॥ दोहा ॥ पयोगी अपने पयोगसौं त्यारे जांणत भोग ।। यापें देखन सकति हे ताकी धारण योग ॥२०॥ यह योग की रीति हे मलि मलि करे संयोग । तासौं निरजरा कहत हें बिछुरे होय वियोग ॥२१॥ छन्द ॥ निज्जरा तासकी हो कम्मह तणा संयोग थिति पूरी भइ हो लागें होत वियोग होत वियोग तस कौन राखें गवन दहदिशि धावहि पिछलें निवास होय ॲसो आगें अउर न आवहि यह सकल पुदगल-दरबकेरी मिलन बिछरन आसकी ज्ञानदृष्टि धरे देखि चेतन होय निज्जरा तासकी ।।२२।। दोहा ॥ सकल दरब त्रिलोकमें मुनि कि पटंतर दीन जोग जुगति कर थप्पिया निश्चय भाव धरीन ॥२३।। छन्द ॥ तिनुं लोक एहो ही परमकुटि सुखवास मुनि जोग दीयें हो सिद्ध निरंजन भास सिद्ध निरंजन भास तिनकों सहज लीला किजीइं तिस कुंटिमाहि जु भावधारा बाहिर पर जें न दीजीइं किस गुरु नांहि कोइ चेला रहें सदा उदासओ आलोक मध्य जु कुरी रचना तीन लोक सुखवासओ ॥२४।। दोहा ॥ धर्म करो बे धर्म करो किरिया धर्म न होय धर्म तु जांणण वस्तु हे ग्यांनदृष्टि धरि जोय ॥२५॥ करण करावण ग्यान नांहि पढण अरथ नहि ओर ग्यांन दिढे नहि उपजें मोहातनि झकोर ॥२६।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 . फेब्रुआरी - 2006 सोरठि - धर्म न पढियां होय धर्म न काया तप तपे धर्म न दीइं दांन धर्म न पूजा जप जपे ॥२७॥ दोहा ॥ दांन करो पूजा करो तप जप करो दिन राति इक जांण न वस्तु बिसरी यन करणी मदमाति ॥२८॥ धर्म वत्थुसहाव हो जो पहिचांणो कोय ताहि अवर क्यों पूजीइं हो सहज उपजें सोय ॥२९॥ धर्म जु निर्मल हो जाणहु वत्थु-सहाव आप हि धम्मिया हो धर्म हि आप सहाव आपणो सभाव हि धर्म जांणो जांणि धर्मी आपहु संकलप विकलप दूर टरकै यह निज कर थापहु विवेक व्रत निज निज हीयें धरकें तिहि सहित सोभित सब कला अनादि वस्तु-सहाव ॲसो जांनि धर्म जु निर्मला ॥३०॥ दोहा ॥ दुलभ परको भाव ताकी प्रापति व्हैं नहि जो अपणो हि सभाव सो क्यों दुर्लभ जांणीइं ॥३१॥ हंस न दुलभा हो मुकति सरोवरतीर इंदिरहित जिया हो पीवहु निरमल नीर निरमल नीर पाइ तिरस भांजे बिरह व्याकुल सो नहि सुगम पंथ हि पथिक चालें सप्त भइमहि को नहि आतम सरोवर ज्ञान सुख जल मुकति पदवि सुलभो सुक्षेत पंथसु ससय गवनों जन हि जांनि सुदुलहो ॥३२॥ दोहा ॥ सो सुंणि बारह भावना अंतरगति उल्लास सो सम्मदिट्ठि जीवडा समें समें पर भास ॥३३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 बाहिर योगा परिणमन अंतरगति परमत्थ सो तिस पंडित जांण तुं ओर सवे अकयत्थ ||३४|| सुद्रव्य खेत्र सुकालसुं सो सभाव सम लीण सहज शक्ति परगट भइ आनन भासें दीन ||३५|| गुण सत्ता के जांण ते सात भइ चहुअ ओर विनु जानें असी हुंति जित तित लागत सोर ॥३६॥ सोर गयो चिहुं चोरको बिती निसा अपाण गुण सत्ताके जांणतें निरमल दृष्टि विहान ॥३७॥ कर्म सुभाव उदय गत समें समरस लीन माखी भूत थित्या थकिं देखें ग्यांन प्रविण ॥३८॥ अकथ कहां [नी] ग्यांनकी कहण सुणण की नांहि आपही पे पाइइं जब देखें घटमांहिं ॥ ३९॥ इति बारभावना आत्मस्वरूपा लाभानंदजी कृतः ॥ समाप्तः ॥ कडी क्र. १ २ ४ ७ ८ ११ १९ २० २९ ३२ शब्द प्रज्याव सम धाय अप्पा मोलत पयांनडा संबरो योगी/पयोग वत्थुसहाव भइ अर्थ पर्याय सम्यक् धावमाता अनुसन्धान ३५ आत्मा महेलात/ हवेली संवर प्रयोगी/प्रयोग वस्तुस्वभावो धर्मः भय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनीचन्द्रनाथ-विरचित विविध भास-रचनाओ ॥ विजयशीलचन्द्रसूरि 'अनुसन्धान'ना एक अंकमां ‘पन्नर तिथि' नामक, मुनिचन्द्रनाथनी रचेली कृति प्रकाशित थई हती. ते ‘पन्नर तिथि' जे प्रतिना आधारे सम्पादित थई हती, ते ज प्रतिमां ११ थी १३ पत्रोमां, ते ज कर्तानी रचेली आठ लघु रचनाओ छे, जेने कर्ताए ‘भास' तरीके वर्णवेल छे. ते आठ रचनाओ अत्रे आपवामां आवे छे. काव्यना विविध प्रकारोमां एक 'गहुँली' नामनो प्रकार पण छे. आ लघु रचनाओमां केटलीक 'गहुंली' प्रकारनी रचना पण जोवा मळे छे. पहेली रचना, जेने 'भास' तरीके कर्ताए निर्देशी छे ते, गहुंली-रचना छे (कडी ८). जैन साधु धर्म-प्रवचन आपे ते पछी गहुंली गावानो रिवाज हतो. ते गहुँली चीलाचालु गुणगानरूप पण होय, अने तत्त्वज्ञानथी छलकाती पण होय. आ गहुंली तात्त्विक भावोथी भरेली छे. बीजी रचना पण ते ज प्रकारनी तात्त्विक गहुँली होवानुं कही शकाय. प्रथम रचनामां 'उघो ने मोमती' (ओघो-रजोहरण अने मुहपत्ति) नो उल्लेख (कडी ७) कर्ताने मूर्तिपूजक संघना होवानुं स्थापी आपे तेवो उल्लेख लागे छे. बीजी रचनामां 'प्रवचनसार' (क. ६) नो उल्लेख छे, ते दिगम्बराम्नायना ग्रन्थनो होवानुं संभवे छे. कर्ता अध्यात्मरंगी निश्चयनयाभिमुख व्यक्तित्व धरावता हशे, तेम समग्र रचनाओना वांचनथी फलित थाय छे. कर्ताए अनेकवार आ रचनाओमां 'बुधदेव'ने स्मर्या छे. ते तेमना गुरुनुं नाम होय तेवो संभव खरो. त्रीजी रचना पण ज्ञान, आगम, चैतनशक्ति वगेरेने ज वर्णवे छे. आमां त्रीजी कडीमां 'तीरथ कीर्तन वंदणा अरचन पुजा कीजे रे' ए पंक्ति मूर्तिपूजापरस्त मानसनो संकेत आपी जाय छे. चोथी रचना पण ज्ञान अने अध्यात्मना रंगो ज आलेखे छे. तेमां पण कडी-४मां 'जिन दरसन नित कीजिए' ए पंक्ति मूर्तिमार्गनो संकेत करे छे. पांचमी रचना पण ए ज तराहनी छे; तेमां क. ६मां 'निगम'नो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अनुसन्धान ३५ उल्लेख ध्यानार्ह छे. छठ्ठी रचना जरा जुदी जातनी वात करे छे. एमां नवधा भक्तिवाळो खेल छे. भगवंत जेनी रक्षा करे तेने कोई जातनो भय नथी तेवी वात लईने आ रचना आवे छे, अने तेनां विविध उदाहरणो पण दर्शावे छे, जे कर्तानी शुद्ध वीतरागता अने अध्यात्मतत्त्वनी ज सतत वात करती लेखनी तथा मनःस्थितिना परिप्रेक्ष्यमां विस्मय जन्मावे तेवी बाबत लागे छे. सातमी रचना वळी एक उपनिषद् जेवी तात्त्विक अने गूढार्थमढी रचना बनी छे. रहस्यवादी अने शुद्ध निरंजन तत्त्वना उपासक एवा कोई ज्ञानमार्गी कवि-भक्तनी रचनानी समकक्ष आ रचना लागे. तो आठमी रचना ए जैन परम्पराना विविध कविओए रचेलां जिनस्तवनोनी श्रेणीनी मधुर स्तवन- रचना छे, जेमां तीर्थंकर पार्श्वनाथनी स्तवना थई छे. अलबत्त, आमां पण कविए पोतानी सर्वत्र प्रयुक्त अने प्रिय शब्दावली तो गोठवी ज दीधी छे, जेथी स्तवननो वळांक अध्यात्मनी दिशानो जणाई आवे छे. छतां कविना हृदयमां छुपायेलो 'भक्त' आमां ढांक्यो नथी रह्यो; ते अनायासे, कदाच ढांकवानो प्रयास कविए कर्यो होय तो बलात्, पण प्रगट था विना रह्यो नथी. तो मुनीचन्द्रनाथ अथवा धर्मदत्तदेवनी केटलीक वधु रचनाओ आ ते अत्रे प्रस्तुत करतां आनन्द थाय छे. श्री गणेशाय नमः ॥ ( १ ) भासः श्रीजिनराजनें चरणे नमीजे रे, सासणपुजाने समरीजे रे । आगमवांणी जिणविध भाखे रे, प्रवचन सहगुरु तेविध दाखे रे || १ | श्रुतदेवी सासण आद्य सोहावें रे, ज्ञाननी माता गणहर गावें रे । प्रवचनमाता आठ प्रकार रे, आगमविद्यानें अधिकार रे ॥२॥ प्रथम तो श्रूतनी पूजा कीजें रे, बारे अंग ते वेद कहीजे रे । दशमंग आगमविद्या भणीजे रे, सोल सती श्रुत तां समरीजे रे || ३ || चिहुंविध तीरथ तिहां थापीजे रे, चैतन देव अखंड जपीजे रे । च्यारे आचारज प्रवचन वांचे रे, मंगलीक सुत्र नंदी तिहां भासे रे ||४|| Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 25 श्रीउवज्झायजी सूत्र वखांणे रे, मुनीवरथी वर आचार वखांणे रे । श्रीअणगारजी धर्म आराधे रे, चिहुंविध तीरथपूजा साधे रे ||५|| श्रावक आगमधर्म संभाले रे, श्रीजिनधर्मनी आगन्या पाले रे । श्रमण उपासक छे गुणवंती रे, सुमति सुधारसमें बुधवंती रे ॥६॥ धवल ने मंगलगीतनें गावें रे, प्रवचन आगम वांणीने भावे रे । सद्गुरुनी तिहां पुजा कीजें रे, उघो ने मोमती तिहां अरचीजे रे ।।७।। सोवनफूलडे गुरुजी वधावो रे, सोवन मोतीडे रे थाल भरावो रे । मांणक मोतीडे थाल भरावो रे, सोभती गहुली तीहां पुरावो रे ||८|| आगममंडल धर्म जगावें रे, सदरुनी तिहां सेवा भावो रे । मुनीचंद्रनाथजी आगम भाषे रे, शिवपद शाशणनो हित दाखे रे ।।९।। इति श्री धर्मदत्तदेवप्रकाशिते तीर्थस्थापना भास वाणी ॥ (२) ढाल: वेलनी ॥ श्रीजिनशाशन ध्यावो रे, जिहां मंगलीक सूत्र भणावो । सद्गुरु प्रवचन बोले रे, जिहां आगमविद्या खोले ॥१॥ चवदे पुरव धुर सारो रे, मूल मंत्र कह्यो नवकारो । आगमविद्या आराहो रे, सहगुरुजी कहें तीम ध्यायो ।।२।। श्रीजिनपूजा कीजें रे, जिम आगमसूत्र भणीजे रे । गणधरना गुण गावो रे, तिहां धर्म आचारज ध्यावो रे ॥३॥ उवझाय ते थवीर तवीजे रे, अणगारनी सेवा कीजे । अरीहंत में सिधनें ध्यावो रे, निज आतम चैतन भावो ॥४॥ तीरथ च्यारे ही देवा रे, निज कीजें आतमसेवा । ज्योत्य झलामल दीसे रे, निज चैत्यनराज कहीजें ॥५॥ आतम चैतनराया रे, सदगुरुजीए तेह वताया । प्रवचनसारमा भाषे रे, बुधदेवप्रभु जीन आपे ॥६॥ तीरथ चैतन साचो रे, जिन आगमवयणने वाचो । सहगुरु धर्म सीखावे रे, निज आतम ब्रह्म वतावें ॥७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 अनुसन्धान ३५ सोही आराध करीजे रे, निज शिवपद मोख लहीजें ।। धन धन ते नरनारी रे, निजधर्मतणा हितकारी ॥८॥ उज्जल धर्म आराधे रे, शिवमारग शुधो रे साधे । . मुंनीचंद्रनाथजी गाया रे, बुधदेव गुरु कहवाया ॥९॥ इति. श्री धर्मदत्तदेवप्रकाशिते आराधना ध्यान भास वांणी ॥ ढालः सीयल सुरंगी चुनडी: ॥ श्रीजिनशासन सुंदरुं, श्रुतदेवी छे सुखकारी रे । प्रवचन आठे वांणीनी, जयवंती जयकारी रे ॥ धनि धनि सीयल सिरोमणि ॥१॥ पांचेही ज्ञांननी माहाशती, प्रग्नपति जयकारो रे ।। परमातम प्रभु वीरजी, परिब्रह्म जग आधारो रे, ध० ॥२।। आगम आतम उजलो, भविजि(ज)न भाव धरीजे रे । तीरथ कीर्तन वंदणा, अरचन पुजा कीजे रे, ध० ॥३॥ आतमज्ञांननी शक्त सुं, चैतनशक्त आराधो रे । ज्ञान में दरसन भावना, संजम सुध समाधो रे, ध० ॥४|| चवद भुवननें पार छे, श्रीजिन सिध भगवंत रे । परमातम प्रभु पारमां, श्रीबुधदेव माहंतो रे, ध० ॥५॥ जेवंती सा मासती, ज्ञानवती सिधवंती रे ।। सिधभगवंती सासती, केवलगुण बुधवंती रे, ध० ॥६॥ आगमधर्म आराहीए, आतमधर्म अपारो रे । चैतनरूची सा माशती जेजेंवंती जयजयकारो रे, ध० ॥७॥ बुधवंती बुधदेवनि, ज्ञान मगनरस भावे रे । केवलकमला गुणवंती, श्रीजगनाथ सुहावे रे, ध० ॥८॥ श्रीबुधदेव जिणेसरा, निज बुधदेव जिणंदो रे । मुनीचंद्रनाथजी सामीया, पुरण परमाणंदो रे, ध० ॥९॥ इति श्री धर्मदत्तदेवप्रकासिते माहाज्ञांन आराध भास वाणी ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 फेब्रुआरी - 2006 (४) श्रीजिनशासन पूजीए पुजो देव जिणंदा आतमशक्त आराधीए गुरु वाणी भणंदा । भाव अंतरगत भावना निज भाव विचारो आतम चैतन आपणो सुध ज्ञान संभारो ॥१॥ परपंच पुदगल पार छे पांच द्रव्यनें पारे चैतन द्रव्य , सास्वतो जीवद्रव्य अपार । आतम खंध प्रदेशमां आयु अध्यवसाया भौम प्रणामी भावीए निज भौमनें गाया ॥२॥ माहाविदेही भौममें सुध भौम विहार विजय विदेही भावना निज पर ज अपार ।। आपा पर चैतनसता निज धर्म संभारे विहरमांन जिन वंदीए माहाविदेह मझार ॥३॥ जिन दरसन नित कीजीए भावो आतम भावें आगम पूजा तिहां करो बधदेव भणावे । तिरथ च्यारे भावना जिनधर्म आराधो भवि जिनधर्म रुचावीइं जिनशासन लाधो ॥४॥ जय जयवंती भावना प्रभु अंतर भावो जय नंदा जय वांणमां जेजेवंती गावो । जेवंती जेजे करी जय सासणराया आतम भगवती जेवंती गुरु केवल गाया ॥५॥ श्रीभगवंतने ध्याईए पुरसोतम राया परिब्रह्म पार जिणेसरा सिध बुध कहाया । अगम अगाध आराधीए सिध देव जिणंदा श्रीसिधवंती साश्वति जयवंति जिणंदा ॥६॥ आगम धर्म आराहणा ध्रुव अवचल ध्यावो जोति झलामल भावना निज आतम गावो । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ धर्मदत्ता बुध सामीया निजधर्म जगंदा मुनीचंद्रनाथजी सामीया जय पर्म आणंदा ॥७॥ इति श्रीधर्मदत्तदेवप्रकासिते निजआराधभावना भासवांणी ॥ देव निरंजननें आराहो रे, श्रीभगवंत ध्यान में ध्यायो रे । परीब्रह्म पुराण पूरुष कहीजे रे, अलख निरंजन ध्यान धरीजे रे ॥१॥ जलहल ज्योतिमें ज्योति विराजे रे, सत्य चिदानंद पुरण छाजे रे । अगम अगाध में नीगम कहीजे रे, ध्येयधणी जगदीश लहीजें रे ॥२॥ अलख अगोचर आप कहीजे रे, परीब्रह्म नीगमनो वेद भणीजे रे । शिवपद सासण सिध कलांण रे, नाम नारायण ज्योति वखांण रे ॥३॥ श्रीबधदेव छे केवलसामी रे, पंच परीब्रह्म छे बहनांमी रे । सिध भगवंत , सास्वतराया रे, निज जिनदेव प्रभुजी कहाया रे ॥४॥ पर्म अगोचर पारने पार रे, सिध भगवंत अनादि अपारे रे । श्रीबुध सासण साश्वत सिधो रे, सतर कलायुग आदि प्रसीधो रे ॥५॥ अक्षरातीत ने पार छे पार रे, निगम माहा तिहां वेद विचार रे । निजपदभेद अगम बुधराया रे, श्रीमाहाराज्य महासिधराया रे ॥६॥ धर्म अखंडीत छे जिहां साचो रे, केवल प्रेम माहारश राचो रे । जोति झलामल जलहर(ल) दीपे रे, त्रिगढ संघासण नाथजी ओपे रे ॥७|| पीर परम निज पारनो गायो रे, श्रीसीध मंडल ज्योति में गायो रे । परम अगोचर श्रीबुधराया रे, धर्मधुरंधर नाथ कहाया रे ॥८॥ नव रससामीनी सेवा कीजे रे, अगम आराहण ध्यान धरीजे रे । मुनीचंद्रनाथजी जगगुरु राया रे, धर्मदत्ता गुरु अविचल गाया रे ॥९॥ इति श्री धर्मदत्तदेवप्रकासिके माहापर्मपदसिध आराधना भासवांणी संपूर्णः ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी- 2006 (६) राग केदारो ॥ जाकी रख्या (क्षा) करे एक भगवंतजी, ताकुं संसारमें को न भीता चरण भगवंतनो सरण ग्रहे साधवा, भर्म भीता तणी टाल चंता, जा० ॥१॥ राय रुठे थकें देख सुदरसण, सुलीका अग्न उपाडि दीधो भक्त भगवंतसानीध कीधा सही, सुली संघासण तथ कीधो, जा० ॥२॥ संखराजातणें भ्रांत मन उपनी, कंकणा देखनें हाथ च्छेदा सतीय कमलातणी सानिधें श्रीप्रभु, फेरी नवपलव हाथ कीधा, जा० ॥३॥ साधनी भक्तमें लंछन उपनो, नगर चंपातणां द्वार रुध्यां गेबवांणी सुणी चारणी तांतणें, नीर काढी करी छांट दीधा, जा० ॥४॥ सांइ साखी करी प्रोल तीहां उघडी, सतीय सुभद्रातणी मांम राखी नाथ मुनीचंद्र प्रभु ध्यांनघर साधवा, एक भगवंत हे सरण, साखी जा० ॥५॥ इतिश्रीः ॥ (७) राग देसा ॥ देवल एसा देख लें जामें पंचही देवा । ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा भगवंत अभेवा, दे० ॥१॥ तीन सगुन में देव हैं, देवीयुग तस माई । एक निरंजन देव हें, गुण पार बताई दे० ||२|| पूजा करो नीत जाहकी प्रह उगत सूरा । तिन दकार त्रवेणीयां नाहो निरमल नीरा, दे० ॥३॥ नीर विवेक पखालीए सुरति फूल चढावो । ग्यानको दी| पसंयोजके भावतवनाकुं गायो, दे० ॥४॥ तामेही एक नीरंजना भगवंत केलावें । सेवा जाकी कीजीए चरणे चीत लाई, दे० ॥५॥ सोई सदा तुम पूजजो गुण नीरगुण आसें । मुनीचंद्रनाथ देखावहें पूजा मांनसी पासें, दे० ॥६॥ इति पदं ॥ 29 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसन्धान ३५ नीदलडी वेरण हुइ रही : ए देशी ॥ श्रीजिन पास जिणेशरा जगनायक हो जगदेव जिणंद के वामानंदन वालहो, कुलदीपक हो अश्वसेन निरंद के श्रीजिन पाश सुहामणा ॥१॥ नीलवरण तन शोभतो, नित सोभे हो नव कर निज देह के त्रेवीसमो जिन पासजी, नित वंदो हो हीय. धरी नेह के, श्री० ॥२॥ जोति झलामल स्वामीया, झलहलता हो त्रिगढो झलकंत के आगम शासन युग धणी, प्रभु बेठा हो पुरण भगवंत कें, श्री० ॥३॥ केवलकमला-श्रीपति, प्रभु केवल हो कुरुणानिध नाथ के मोहन मेरो सामीया, मुझ मनडो हो बांधो तेह साथ कें, श्री० ॥४॥ आगम अगम अनंतमें, प्रभु पुरण हो परीब्रह्म स्वरूप के सच्चिदानंद साहेबो, प्रभु प्रगट्यो हो परमातम भुप के, श्री० ॥५॥ अलख निरंजन युगधणी, प्रभु जाग्रत हो जोगेश्वर देव (के) अकलव(अ)रुपी नाथजी, भावे भगतें हो सुरी(र)नर करे सेवकें, श्री० ॥६॥ श्रीजिनपाशजिणंदजी, जगनायक हो जगमां जगदीश के मुनीचंद्रनाथजी सांमीया, गुण गाता हो पुरसें जगीस के, श्री० ॥७॥ इति श्रीपार्श्वजिनब्रह्मस्तवनः ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय चारित्रनन्दी विरचित चतुर्दश पूर्व पूजा ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि खरतरगच्छीय वाचक चारित्रनन्दीनी रचेली एक पूजा अहीं प्रस्तुत छे. जिनेश्वरनी मूर्ति अने जैन आगमशास्त्र-आ बे जैन संघमां सर्वोच्च पूजनीय तत्त्वो मनायां छे. ते बन्नेनी विविध प्रकारे पूजा करवानुं जैन शास्त्रोमां विधान छे. ते विधानने मध्यकालना अनेक जैन कविओए संगीतमय गेय रचना, जेने 'पूजा' तरीके ओळखवामां आवे छे ते, रूपे ढाळ्युं छे, गायु छे,वर्णव्युं छे. ए परम्पराने अनुसरीने रचायेली आ १४ पूर्व-पूजा छे. नवा ज विषयने लईने रचायेली आ पूजा, विद्वद्भोग्य होवा छतां अपूर्व छे अने रुचितर्पक छे. जैन संघनां शास्त्रो 'आगम'ना नामे ओळखाय छे. तीर्थंकरना गणधरोए रचेल ते आगमोने 'द्वादशाङ्गी प्रवचन'ना नामे ओळखवामां आवे छे. द्वादशाङ्गी एटले १२ अंग. तेमां बारमा 'दृष्टिवाद' नामक अंगना मुख्य ५ प्रकार छ : १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्व, ४. चूलिका, ५. अनुयोग. परिकर्मना सात भेद छे. सूत्रना २२ भेद छे, जे विभिन्न दृष्टि-मतने अनुसरीने ८८ भेदोमां पथराय छे. पूर्व १४ छे, तेमां वस्तु, पाहुड, पाहुडिया, इत्यादि पेटाविभागो होय छे. चूलिका पण एक विशिष्ट उपविभाग छे, जे १४ पैकी प्रथम ४ पूर्वमां ज होय छे. अनुयोगना बे प्रकार छ : प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग. आ तमाम विषय पारिभाषिक शब्दावलीमां ज निरूपवानो होई रचना जरा क्लिष्ट वा गहन बने तो तेमां कशुं अजुगतुं के अरुचिकर नथी समजवान. ए परिभाषा तेना जाणकार पासेथी समजवानी कोशीश करवी ए ज तेनो उकेल होय. कविए कठिन परिभाषाने, पोताना चित्तमां व्यापेली तत्त्वप्रीति तथा ज्ञानोपासनाना आलम्बने, काव्यदेहे ढाळी छे, तथा जूना गेय ढाळोमां गाई छे, तेमां तेमनुं कविकर्म सार्थक बनी रहे छे. ___कुल २१ ढाळोमां पथरायेल आ पूजामा प्रथम पांच ढाळो कुसुमांजलिरूप विधाननी छे. तेमां कर्ताए दृष्टिवादना मूळ पांच प्रकारोनुं वर्णन आपेल छे. ते पछी १४ ढाळोमा १४ पूर्व- वर्णन छे. शास्त्रोमां जेवू Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 अनुसन्धान ३५ वर्णन होय तेनो ज अनुवाद करवो - ए आ प्रकारनी रचनानी आवश्यक शरत होय छे, जेने कवि बराबर अनुसर्या छे. २०मी ढाळमां (तथा ते पहेलांनां काव्योमा) कविनी प्रशस्ति छे, अने ते पछी 'कलश' नी ढाळ छे. छेक छेल्ले, पूजा पत्या पछी, दृष्टिवादशास्त्रनी तत्त्वगर्भित आरती छे, जे अध्यात्मरसिक जिज्ञासुओने खूब रुचिकर बने तेम छे. ____ * रचनाना प्रारम्भे 'चारित्रपार्श्वजिनेभ्यो नमः' तेमज ‘प्रणमुं संयमपास जिण' अवां वाक्य लखीने कविए पोतानु नाम पण सूचव्युं छे, साथे पार्श्वनाथ भगवान- एक नवं नाम पण निरम्युं छे. * कवि संस्कृतना विशेषज्ञ छे तेवू तेमणे प्रत्येक पूजाना अन्तमां आपेल संस्कृत काव्यो वांचतां प्रतीत थाय छे. * संख्या जणाववा माटे कवि ठेरठेर खास संज्ञाओ ज प्रयोजे छे. दा.त. ७ माटे नग, ८ माटे इभ वगेरे; ते खास ध्यानार्ह छे. खरतरगच्छना जिनराजसूरि, तेमना पाठक रामविजय, तेमनी परम्परा क्रमशः सुखहर्ष (?) → पदमहर्ष → कनकहर्ष → महिमहर्ष → चित्रकुमार → निधिउदय (के उदयनिधि ?) → चारित्रनन्दी आम पंक्तिओ परथी उकले छे. आमां क्षति होय तो सुधारी शकाय. संवत १८९५ मां आ पूजा कविए रची छे ते तेमणे ज नोंध्यु छे. निजी संग्रहनी १२ पत्रोनी एक प्रतिना आधारे आ सम्पादन करेल छे. अन्तमां कोई लेखकनो तथा लेखनवर्षनो उल्लेख नथी, तेमज लखाण शुद्धप्राय छे, ते जोतां कर्तानी स्वहस्तलिखित आ प्रति होय तो बनवाजोग छे. केवल परिभाषिक शब्दावलीनो विनियोग आमां थयो होवाथी शब्दकोश आपवानुं जरूरी नथी मान्यु. श्रीचारित्रनन्दिविरचित चतुर्दशपूर्वपूजा श्री चारित्र पार्श्वजिनेभ्यो नमः ॥ अथ चतुर्दश पूर्वपूजा ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेबुआरी - 2006 दोहा ॥ प्रणमुं संयम पास जिण सुभ सामी गणधार । चउद पूरव पूजन रचुं अभिमत फल दातार ॥१॥ ढाल ॥ जिन रयणीजी ॥ ए चाल ॥ भवि भाजी चउद पूरव पूजन करो । दृष्टिवादें जी एह भाव चित आदरो । इग सुइखंधजी संख्येय वसतू पाहुडो । पाहुडपाहुडजी पाहुडिया संख्य आवडो ॥ त्र्टक॥ पाहुडि पाहुडिया संख्य जाणो संख्य लख पद मान जो । सरव भाव परूवना इहां मुनिवर हिय. आनजो । परिकर्म १, सूत्राणि २, पूरवगत ३, तिम अनुयोग ४, चूलिका ५, नान ए॥ परिकर्म नगविध सर्वभेदे कुसुमांजलि मेलो मान ए ॥१॥ काव्यं ॥ श्रीसिद्धपंक्त्यादिकशैलमूलोत्तरानिलेभोन्मितभेदभिन्नम् ।। श्रीदृष्टिवादे परिकर्मसूत्रं नमामि भक्त्या सु(शु) भदर्शनाय ॥१॥ मुहीं श्रीदृष्टिवादे श्रीमत्परिकर्मसूत्रेभ्यः कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहाः ॥१॥ ढाल ॥ सूत्राणी जी बीजी परूवना धार ए। रिजुकादी जी बावीस सूत्र विचार ए । मुनि भावो जी भाग विभाग मतिसार ए । सहु भेदें जी खगकृत्य नग अधिकार ए । त्रूटक ॥ अधिकार नख युग छिनछेयण सूत्र ससमय जान ए । तिम अछित्रछेयन सूत्रपाटी आजीविकमत मान ए । गुपति-नय राशि तीजै चउनय ससमय नान ए । इम अठ्यासी सूत्र भावें कुसुमांजलि अहिठान ए । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 . अनुसन्धान ३५ काव्यं ॥ स्वपक्षकाजीविकरत्नराशिजिनेन्द्रसिद्धान्तगजेभसूत्रैः । समन्वितं कर्मनिवारणायाहं श्रीदृष्टिवादे प्रणमामि सूत्रं ॥१॥ ही श्रीमदृष्टिवादे सूत्रेभ्यः कु० ॥२॥ . ढाल ॥ दृष्टिवादेंजी तीजो श्रुतिसुखधाम ए । पूरवगतजी चउद भेद अभिराम ए। उतपादोजी १, अग्रनीय २, वीरज ३, नाम ए । अस्ति नास्तीजी ४, नान ५, सत्य ६, गुणठाम ए । जूटक ॥ गुणठाम आतम ७, करम ८, पचखान ९, विविध विद्यावाद ए १०, इग्यारमो अवंध्य पूरव ११ प्राणावाय प्रवाद ए १२ । विविध संयम भाव सूचक किरियाविशाल वखान ए १३, बिंदुसार ए पूरवगत १४, श्रुति कुसुमांजलि परधान ए ॥१॥ काव्यं ॥ बह्वर्थसद्भावविचारयुक्तमुत्पादकाद्यब्धिदशप्रभिन्नं । श्रीदृष्टिवादे श्रुतिरत्नपुझं नमाम्यहं पूर्वगतं शिवाय ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीदृष्टिवादे पूर्वगतश्रुतिभ्यः कु० ३।। ढाल ॥ अंग बारमें जी अनुयोग जुगविध भाव ए । सूत्र सार्थेजी अनुरूप योग ज नाव ए । तिहां मूलेंजी प्रथमानुयोग वखानियै । तिम बीजोजी गंडिकानुयोग पहिचानियै ॥ त्रूटक ॥ पहिचान प्रथमानुयोग सूत्रे प्रथम दरसन योगथी । भव कलप जिनवर सर कल्याणक सूचना अनुयोगथी । गंडिकानुयोगें कुलगरादिक प्रवर नृपकलप भाव ए । तिन कारने अनुयोग सूत्रं कुसुमांजलि मेलो धाव ए । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेबुआरी - 2006 35 काव्यं ॥ जिनेन्द्रकल्पोत्तममर्त्यकल्प-रत्नाकरं धर्मकथानुयोगैः ।। स्वसाध्यसंसाधनसाधनाय युगानुयोगागमकं यजामि ॥१॥ ह्रीं श्रीदृष्टिवादे ॥ अनुयोगसूत्रेभ्यः कु० ॥४॥ ढाल ॥ हिव चूलिकाजी पांचमो श्रुति सूत्र धार ए । चउ द्वादशजी गज काष्टा सुखकार ए । सहु एकत्रजी अतिशय परिमित भाव ए । आदिम चउजी पूरव चूलिका ध्याव ए । त्रूटक ॥ ध्यावज्यो मुनिवर अनुक्रमें कर विविध अरथ निधान ए । चूलिका संयुत जलधिपूरव रहित शेष सुजान ए । किम अंगचूलिका वंगचूलिका व्यवहारचूलिकादि भाव ए । भवि शुद्ध भावें चूलिका श्रुति कुसुमांजलि चाढो ध्याव ए ॥५॥ हीं श्रीदृष्टिवादे चूलिकासूत्रेभ्यः ॥ कु० ॥५॥ इति पंच कुसुमांजलि ॥ दोहा ॥ बारम अंगगत तीसरो, पूरवगत अधिकार । तिन कारन परथम भणी, कुसुमांजलि सुविचार ॥१॥ हिव परतेकें वरणउं, पूरव चउद विधान । मुनिवर भावे सेवना, सरावग दरव-परधान ॥२॥ ढाल ॥ पंच कल्याणकं ॥ ए चाल || राग देशाख । पुरव उत्तर मुखें पीठत्रिक रचि सखें । विविध मणिरतन वर भासकं ॥ अ० ॥ भा० ॥१॥ चवद पुसतक धरी थापना आदरी । करीय वास-पूज उल्हासकं ॥ अ० ॥ ल्हा० ॥२॥ नान उपगरण सुचि चवद चाढो रुचि । चवद वसुदरव पूज आदरो ||अ० ॥आ०॥३॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 अनुसन्धान ३५ परथम जिनमुख लही त्रिपदि गणधर गही । पूरव रचना करी सादरो ॥ अ० ॥ सा० ॥४॥ तीरथकरबिंबसम दरवश्रुति अनुगम । भाववृधि-हेत भावि भावज्यो ॥ अ० ॥ भा० ॥५॥ एह पूरवतनें परम आलंबनें । निरजरा करमनी लावज्यो ।अ० ॥ ला० ॥ ६॥ भव्य हितकारणे भवजलधि तारनें । पूरव अधिकार सुभ वरतवू ||अ० ॥ व० ॥७॥ नान पद भगतिभर सूत्र समवाय धर । निद्धि-चारित लही संतवू ॥ अ० ॥ संस०(त) ॥८॥ इति प्रथम ढाल । अब द्रव्याष्टक मुद्रा रुमाल लेइ पढना ॥ दोहा ॥ पूजो भविजन भावसुं, प्रथम पूरव उत्पाद । तनमय एकत ध्यावतां, थायें परम आल्हाद ॥१॥ ढाल ॥ श्रीसंखेसर पास जिनेसर भेटियें ॥ ए चाल ॥ स्यादवाद मत युक्त जिनेसर भाषियो । प्रथम पूर्व उत्पाद गुणाकर राखियो । साधुवृंद सुविचार पढो ए पूर्वने । जिम पामो भवपार दलो करम पूर्वनें ॥१॥ वस्तु दसक सदरूप यथारथ एहमें । जलधि चूलिका भाव धरो मन गेहमें । एहनो अरथ गंभीर करो निज अनुभवें । निरमल निजसतभाव गहो सुख वरधवै ॥२॥ ग्यार कोड पदमान जयो तनमयपणें । द्रव्याष्टक करि पूज वरो जिम नानणें । १. नाणने Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 फेब्रुआरी - 2006 निद्धि-उदयगणि शिष्य चारित्रनंदी भणें । परमानंद सुख हेतु जाण्यो हिव थिरमणें ॥ काव्यं ॥ लोके धर्मादिकानां निजपरविभवै/विकल्पानुयोगैः सर्वज्ञास्याद्गणेशास्त्रिपदिवचनमालम्ब्य यत्र स्वरूपं ।। आद्यन्ताब्धिप्रभित्रैर्बहुविधमगदम्पूर्वमुत्पादकं तं द्रव्याष्टाभिर्यजामि त्रिकरणमनसा ज्ञानरत्नाय भक्त्या ॥१॥ है ही० ॥ श्रीमदृष्टिवादान्तर्गत प्रथमोत्पादपूर्वं० ॥ इति प्रथमोत्पादपूर्वं ॥२॥१२॥१॥ दोहा ॥ श्रीपूरव पूजो सदा आग्रायणी अभिहांन । निर-तिरि गतिनें रोकवा, जांणो ए अनुमान ॥१॥ ढाल ॥ सुण चंदाजी परमातम । ए चाल ॥ भवि प्राणीजी जिनभाषित पूरव बीजो धारज्यो । अनुभवें करिजी लक्ष नवति षट संख्या पद संभारज्यो ।।टेका। दृष्टिवाद अंगनी वाणी छै, अभिधानें अग्रायणी छै । विविध भाव निरमाणी छ, एतो बहुविध गुणमणि षानी छ । भ० ॥१॥ वस्तु चतुर्दश सूचक छे, चूलिका बार प्ररूपक छै । निज सुध सत्ता द्योतक छै, अनादि अनंत गुणभासक छै । भु० ॥२॥ इण अनुभव सुखकंदी छै, निज परमारथ छंदी छै । त्रिभुवन जन ते वंदी छै, निद्धयुदय चारित्रनंदी छै ॥ भ० ॥३॥ काव्यं ॥ साधूनां ज्ञानसङ्गाद्रिपुदलदलने शक्रवज्रोपमं च वस्तुव्यूहाब्धिकाष्ट(ष्टा)प्रमितविवरणं विस्तृताख्यातमत्र । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ मातङ्गार्कघ्नलक्षप्रमितपदमणिज्योतिनानार्थयुक्तं तत्पूर्वाग्रायनीयं स्तुतियुतयजनं द्रव्यनागैर्दधामि ॥१॥ हींआग्रायणीय पूर्व० ॥ इत्याग्रायणीय पूर्वं ॥२॥१२।।२।। दोहा ॥ पूजो सुभ भावे करी, श्रीवीरय अनुवाद । भक्ति करता एहथी, थाये परम आल्हाद ॥१॥ ढाल ॥ निरख निरख तुझ बिंबनें ॥ए चाल ॥ सुण सुण जिन श्रुति भारती, हरषित थायें मुझ चित्त, पूरव रलियामणो ॥ टेक ॥१॥ तीजो पूरव सांभली, सपतति लक्ष पद वित्त ॥पू० ॥२॥ ईभवस्तु-चूलिका सूचक, नामें वीर्यप्रवाद ॥पू० ॥३॥ ज्ञान महोदय प्राप्तये, मधु अमृत आस्वाद पू० ॥४॥ द्रव्याष्टक करि पूजिय, द्रव्य भाव शुचि धार पू० ॥५॥ तेहथी निद्धि उदय थयो चारित्रनंदि सुखकार पू० ॥६॥ काव्यं । लोके दुःकर्मभेद्येऽखिलभवविपिनं वर्तयिष्णुं तपस्सु कश्चिदन्योप्यशक्यो विविधमदवशैवंसितुं दुर्नयैस्तं । वीर्यं संगोप्य कुर्मैव निजपदधनैर्ज्ञानसद्ध्यानरक्तमेतद्वीर्यप्रवादं मुनिगणगुणदं द्रव्यनागैर्यजामि ॥१॥ नहीं. वीर्यानुवाद पूर्व० ॥ इति वीर्यानुवादपूर्वार्चनम् ॥ २॥१२।।३।। दोहा ॥ भविजन त्रिकरण थिर करी, पूजो धरि आनंद । अस्ति नास्ति पूरव भणी, जिम पामो सुखकंद ॥१॥ ढाल ॥ रामत रमवा हुँ गइ थी । ए चाल ॥ सुणो भविजन सुभ भावसुं, जिन भारति सुखकार हे माय । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 39 पद षष्टिलक्ष जिन भाषियो, पूरव चोथो गुणधार हे माय ॥ सु० ॥१॥ सप्त भंगिइं सोहतो, अस्तिनास्ति परवाद हे माई । दसईभ वस्तु दस चूलिका सूचक कीनो अगाध हे माय ॥ सु० ॥२॥ त्रिक शुद्धी एहनें सदा, विनयें पूज रचाइ हे माय ।। तेहथी निधि उदयें करी चारित्रनंदि सुख थाइ हे माय ॥ सु० ॥३॥ काव्यं ॥ स्याद्वादत्वं पदार्थे मनसि मुनिवराः भावयन्त्यत्र पूर्वे, अस्तित्वं नास्तिकं स्यादहितमुभयकं द्वाववक्तव्ययोगौ । गुप्त्यैकं भूधराणि त्रिभुवनपदगं विस्तृतैः सूचितं च तत्तं पूर्वं यजेयं परमसुखनिवासाय सद्र्व्यपुजैः ॥१॥ ही० अस्तिनास्तिवाद पूर्व० ॥ इत्यस्तिनास्तिप्रवादपूर्वार्चनम् ॥२॥१२॥४ दोहा ॥ पंचम पूरव पूजियै पंचम गति दातार । ज्ञान प्रवादें नाणनें भाख्यो अरथ विचार ॥१॥ ढाल ॥ श्रीसंखेशर पास ॥ ए चाल ॥ पूरव नानप्रवाद धरो निज उरकनें । युगट वस्तु विचार तेहिज रिधिसंपजै ॥ बहिरातम तज योग लहै अंतरातमा । सिद्धी सत्ता वास हुवै परमातमा ॥१॥ काल अनादि अनंत दलै करम वरगना । साधे सादि अनंत केवल बोध दरशना ॥ नाण तणो अधिकार पूरव मांहें कह्यो । एकउनकोटपदमांन अरथ बहु संगह्यो ॥२॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 शुचि निरमल इभद्रव्य धरो पात्र कंचनें । द्रव्य भाव शुचि होय करो पूरव अरचनें । हथी भवि शुभ भाव धरै मति तत्तमें । निध्युदय चारित्रनंदि लहै या जगतमें ||३|| काव्यं ॥ ज्ञानैर्ज्ञेयादिरूपं प्रवरमतिबलैर्ज्ञायते सत्पदार्थं हेयोपादेयभावं श्रुतिगुरुविनयैर्बोध्यते स्वात्मरूपं । यत्र ज्ञानाधिकारे तमदलदलनं द्वादशाङ्गं प्रधानं तस्माज्ज्ञानप्रवादं नृनिपुणरचितैर्द्रव्यनागैर्यजामि ॥१॥ नहीं० ॥ श्रीनानप्पवायपुर्वं० ॥ इति ज्ञानप्रवादपूर्वार्चनम् ॥ २॥१२॥५॥१७॥ दोहा ॥ पूरव सत्य प्रवादनें पूजू हुं तिरिकाल । भाव यथारथ जाणवा एह सूर रुचिमाल ॥ १ ॥ ढाल ॥ आदै अरिहंत विराजै ॥ ए चाल ॥ छट्टो पूरव समरीजै उपयोगें वचन चरीजै । श्रीसत्यवाद भज लीजै वस्तु सोलस भाव वरीजै ॥ भविक जन सेवज्यो प्रवचननें ॥ टेक ॥१॥ रस अधिपद कोटि अनूपी ते मे सत्यवाद प्ररूपी । दरव भाव यथारथ चूंपी निज रमतां थायें शिव भूपी ॥ अनुसन्धान ३५ वसुं द्रव्यें पूज रचावो त्रिन योगनी थिरता मावो । अमृतरस भावना भावो निधिउदय चारित्र मन लावो ॥ भ० ॥३॥ काव्यं ॥ द्रव्यक्षेत्रादिभावैर्नियमितवचनैः सत्यवर्त्तिष्णुभावं । कश्चिद्योगानुयोगैरखिलमुनिवरान्मौनमेव प्रधानं ॥ सत्यासत्यादिभेदैर्ललितनगनयैविस्तृतं यत्र सद्वाक् तस्मात्सत्यप्रवादं गुणगणजलधिं द्रव्यवर्गैर्यजामि ॥१॥ भ० ॥२॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 फेब्रुआरी - 2006 ही सत्यप्रवाद पूर्वं० । इति सत्यप्रवादपूर्वं ॥२॥१२॥६॥१८|| दोहा ॥ पूरव आतमवादने आतमबोध विकाश । अष्ट द्रव्य कर पूजतां थायें परम उल्हास ॥१॥ ढाल ॥ विजयानंदन वीनतीजी ॥ए चाल ॥ सपतम पूरव जांणीयैजी नामें आतमवाद ।। पद नखे रस कोटी भजोजी जिम नित थायें आल्हाद ॥१॥ मन मोह्यो मुनिजी नव निधि रिधि श्रुतिधार ॥टेका। करसाखामित धारियेंजी वस्तु विचारसरूप ।। पर आसा पासा तजीजी शिव रिधि थायें जेथी भूप ॥२॥ म० ॥ भव भव सेउं एहनेंजी द्रव्याष्टक भर थाल । तेहथी निद्धि उदय घणोजी थायें चारित्र गुणमाल ॥३॥ म० ॥ काव्यं ॥ आत्मासंख्यप्रदेशानुभवहृदयगं सर्वदा ज्ञानरूपं । नित्यं स्वात्मस्वरूपैविमलशुभतरं स्थैर्यभावेन युक्तं । तस्मादात्मैकभेदे नयवचनविधौ नैकधोक्तं जिनेन्द्र स्तद्वादोक्तात्मवादं सुचितरसरसैर्द्रव्यनागैर्यजामि ॥१॥ नहीं० ॥ आत्मप्रवादपूर्वं० ॥ इत्यात्मप्रवादार्चनम् ॥२॥१२॥७॥१९॥ दोहा ॥ पूरव करमप्रवादने भाष्यो श्रीजिनराज । जिणवाणी जिनवर समो सेवो भवि सुखसाज ॥१॥ ढाल ॥ धरम जिनेसर गांउ रंगसुं ॥ए राग ॥ करम प्रवाद पूरव भजो भावसुं । जांणो मूलोत्तर करम ॥ सुरिजन ॥टेका। जिनवर भाखै मुनि जन आगलै । तेण लहै शिवशर्म ।।सु० ॥१॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुसन्धान ३५ नखँदस वस्तु विचार समन्वित । भाव यथारथ भास ||सु० || पद इग कोटी अधिको जानियै । सहस अशीतिसु भास ||सु० ॥२॥ ए पूरव इभ' द्रव्यें पूजतां । लह्यो शिव सुरतरु कंद ||सु० ॥ रिद्धि अनरगल निद्धि उदय थकी पामें चारित्रनंद ॥० ॥ काव्यं ॥ विष्णुश्चक्रीबलेन्द्रप्रमुखजनगणान्नर्त्तकः संसृताब्धौ । दुर्जेयोऽयं विपाके प्रवरबलयुतैः कृष्णरामादिभिश्च ॥ एतत्कर्मप्रबन्धादिकविविधविचारान्विताम्भोधिरूप स्तस्मात्कर्मप्रवादो हरतु मम रिपूनर्हतो द्रव्यवगैः ॥१॥ ह्रीं० करमप्रवाद पूर्वं० ॥ इति करमवाद पूर्वार्चनम् ||२|| ५२||८||३०| दोहा ॥ पूरव प्रत्याख्याननें, भविजन सुनो मन लाय ॥ सेवो पूजो भावसुं भव भव दुरित पलाय ॥१॥ ढाल ॥ ॥ राग घाटो ॥ चुलिया से योवनावहार भयलों ॥ ए चाल ॥ चुलियासें मनुवावहार होयलों । जिनजी किहां लो मनावुं ॥टेक॥ | मनुवो मोरो खिन खिन अनघर जइले । तोरी वतियां कैसै सुनाइ ||जि० ॥२॥ हिव मोरे अंतराय षयउपशम कर । तोरी वतियां मनुवो भाइ ||जि० ॥२॥ प्रत्याख्यान पूरव अवगाही । खमित वस्तु संयुत्त ॥० ॥३॥ ग्रहकृत्यत्रिक अधिलक्ष पद भाख्यो । ते होयलों मंगल वित्त 11 foto 11811 द्रव्याष्टक करि एहनें पूजित । थायें परम पवित्त ॥ जि० ||५|| हथी निद्धि उदय कर पायो । चारित्रनंदि सुखवित्त ||जि० ॥६॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी- 2006 काव्यं ॥ भूतागाम्यादिभेदैः प्रवचनजलधौ दिग्विधः सूचितोंऽस्ति तत्राहोरात्रकालैर्भवति दसविधः पौरुषादिप्रमाणैः । येनेच्छारोधपूर्व निखिलतपगणं भिक्षवो भावयन्ति । तत्प्रत्याख्यानवादं तमदलनरविं द्रव्यवर्णैर्यजामि ॥१॥ ह्रीं प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्वं० ॥ इति प्रत्याख्यानप्रवादार्च्चनम् ॥ २ ॥ १२ ॥ ९ ॥ दोहा ॥ भवि पूजो प्रवचन भणी पूरव विद्यावाद । विविध चित्र त्रिभुवनजनें जिहां विद्यापरवाद || १ || ढाल ॥ प्रभू मूरति संजम तपमय रे ॥ए चाल || श्रुति भजीय निरमल नाण लह्यो रे ॥ नि० गुण लह्यो रे । श्रु० ||टेका जिनवर श्रुति सुण्यो विद्यानुवाद थुण्यो । शिवकोटि पंचदस सहस गुण्यो रे । श्रु० ॥१॥ मुनि अनुभव कियो सुभ ध्यानलय लियो । तिथि वस्तु भाव प्रमित रम्यो रे । श्रु० ||२|| र्वसु द्रव्य कर धर्यो पूरव यजन कर्यो । निधि चारित्रनंदि सुख थयो रे । श्रु० ||३|| काव्यं ॥ एकव्योमप्रदेशार्यमशशिरुचिका भ्राम्बुजंघादिलब्धि प्रज्ञप्तीशृङ्खलादिप्रवरमणिपुरं भिक्षुविश्रामवासं । नानाविद्यादिरत्नैर्भृतवरजलधि पूर्वविद्याप्रवादं द्रव्याष्टाभिर्यजेयं दुरितरिपुदलं शक्रवज्रोपमं च ॥१॥ ह्रीं० विद्यानुवाद पूर्वं० ॥ इति विद्यानुवादार्च्चनम् ॥१२॥१०॥ 43 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 अनुसन्धान ३५ दोहा ॥ जिनश्रुति' पूरव नित यजो ग्यारम सुरसुखदाय । अनुक्रम परमातम लहै निज शुद्धाकृति भाय ॥१॥ ढाल ॥ मजा उडाय ले बुढिया ॥ ए चाल ॥ श्रुति पूरव भज ले मनुवा जिनधी निजचित धाररे ॥टेका। पूरव भज ले ग्यारमो मुनिवर नाम ध्येय कल्याण रे ॥१॥श्रु०॥ साधुवरग कल्याणकारक ए गुणगणगरिमनिधान रे ॥२०॥ द्वादस वस्तु सूचक रत्नाकर ते निज सत्ता गहाइ रे ।श्रु० ॥३॥ पद जिनयुगमित कोटी रमणे सुध चिदध्यांन रहाइ रे ।श्रु०॥४॥ सकल सुरभि सुचि द्रव्ये यजतां लाभै रिधिविसतार रे ।श्रु० ॥५॥ निद्धिउदयकर चारित्रनंदी पायो सुखभंडार रे ।श्रु०॥ काव्यं ॥ खल्वर्हद्भिक्षुवर्गान्विण(न)य गुणयुतान् ज्ञानसम्यक्त्वहेतुं । मुक्तिस्त्रीसौख्यरूपं निजगुणरमणं साद्यनन्तद्रुबीजं । पूर्वावन्ध्यं शिवं वा प्रमितगुणनिधिं स्वेप्सितार्थं सुरहूँ । द्रव्याष्टाभिर्यजेयं भवजलधितरि शाश्वतानन्दकाय ॥१॥ ही० कल्याणनामध्येयं० ॥ इति कल्याणनामध्येयाच॑नम् ॥२॥१२॥११॥२३॥ दोहा ॥ पूरव प्राणावायने धारो हृदय मझार । बारमो सुरसुख एहथी पामै मुनि ततकाल ॥ ढाल ॥ मन मोहन मेरी अंगिया रंग डारी ॥ ए चाल ॥ मोकुं तो रंग डारी मनमोहन जिनधी |मो० ॥टेका। पंच बिरति रति वागा पहरी संजम भूषन धारी ॥म० ॥१॥ नवबिध ब्रम्ह अनोपम कंकुम नान गुलालभृत सारी ॥म०॥२॥ मुनि उत्तर गुणरंग पिचकारी पूर्वार्थ अबीर उडारी |म० ॥३॥ प्राणावाय पूरव भाजन विच त्रिदश वस्तु पाक लगारी ॥म० ॥४॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 षट पंचाशत लख इग कोटी पद यजो इभ८ द्रव्य धारी ॥ म० ||५|| निद्धि उधयकर चारित्रनंदी परमानंद थयो भारी || म०॥६॥ काव्यं ॥ प्राणायामस्त्रिकं वा सनखचरमितं ध्यानवेदप्रमाणं । प्रत्याहाराम्बुराशि ग्रहयमनियमौ धारणेषु प्रमाणं । यँ एँ वँ मेँ तथा लोँ पवनमदनगं तत्त्वभावस्वरूपं । प्राणावायाख्यपूर्वं ललितपदचयं द्रव्यनांगैर्य जामि ॥१॥ ह्रीं० प्रणावाय पूर्वं० ॥ इति प्राणावायपूर्वार्चनम् ॥२॥१२॥१२॥२४॥ दोहा ॥ प्रणमो पूरव तेरमो अनुपम किरिया विशाल । अष्ट द्रव्य कर पूजतां पामें गुणमणि माल ॥१॥ ढाल ॥ राग मालवी गवडी ॥ सर्व करमदलन जिनेंद्र प्रवचन भावो हृदय मझार रे ॥ साधो ॥ 45 भा० ॥टेका द्वादशांगी श्रुति अभ्यंतर क्रियाविशाल पूरव धार रे || सा०||१|| स०॥ भाखियो जिन समवसरणें किरिया तणो अधिकार रे ॥ सा० ॥ नख दश वस्तू भाव अद्भुत पद ग्रह कोटि सुसार रे ॥ सा०||२|| स०॥ अष्ट द्रव्यें भाव धरकै पूज रचो तिहुं काल रे |स०|| निध्युदय चारित्रनंदे लाधो सुख सुविशाल रे ॥ सा०||३||स० ॥ काव्यं ॥ साध्वाचारक्रियायाश्चरणकरणयोः सततेः सूचितं च । संसारादिक्रियापि प्रवचनजननीभावनादिप्रवृत्ति । शास्त्रास्त्रस्वर्णरत्नप्रमुखनिधिगृहं सक्रियाम्भोनिधि च ज्ञेयं ज्ञात्वा सुयोगैर्निजपदविधिलाभाय संस्तौमि भक्त्या ॥१॥ ह्रीं० ॥ क्रियाविशालपूर्वं ॥ इति क्रियाविशालपूर्वार्चनम् ॥२॥१२॥२५॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 दोहा ॥ चउदम पूरव नित नमो दुविधपूतता धार । सेवो प्राणी भावसुं जूं पामो भवपार || ढाल ॥ तुझ दरशन के कामी रे ॥ चाल ॥ जिन प्रवचन बलिहारी रे परमानंद पाया ||जि० ॥ टेका। लोकालोक स्वरूप प्रकाशक भविकज - बोध कराया । अनुसन्धान ३५ नभ तल तरणि किरण रुचि भू-कज ए दृष्टांत धराया रे || ० ||१|| बिंदुसार वा लोकप्रवादें नख पण वसतू माया । रुचकाष्टक निरमलता कारण दुरधर दुरित गमाया रे ||१०||२|| कोटि द्वादश पद लक्ष पंचाशत पद अरथागम धाया । सेवित निध्युदय चारित्रनंदी लहै रिधि वृधि सुखदाया रे ||१०||३|| ह्रीं० बिंदुसार पूर्वे० ॥ इति लोकप्रवाद वा बिंदुसार पूर्वाचनम् ||२||१२||१४||२६|| दोहा ॥ पूरवगत पूजा करी पण अधिकार समेत । दृष्टिवाद अंग पूजिये निज अनुभव गुण लेत ॥१॥ काव्यं ॥ सद्ध्यानाधारभूतं दुरितरजसमीरं समृद्धिप्रदोयमेतत्पूर्वानुभावैः सुरमणिसदृशो भव्यसत्त्वाः प्रयान्ति । नृनाकानुत्तरादेरचलसुखनिधि प्रेत्य गच्छन्ति सिद्धि । सन्तत्यैश्वर्यपद्मप्रवचननिधिभिः संयमः सौख्यमेनि ॥ १ ॥ विमल कोटक चन्द्रकुलाम्बरे खरतराधिपराजमुनीश्वरः । गुरुपदाम्बुजभृङ्गसुवाचकः समभवद्विजयोत्तररामकः ॥२॥ प्रवरवाचकवंशपरम्पराः पदमहर्ष सुखार्भककंचन । महिमचित्रकनिद्धिसुवाचकाः समभवन् जिनशासनपारगाः ॥३॥ गुरुपदाम्बुजहंससुसंयमः परमसिद्धिसुखाय विनिर्ममे । शेरखगाष्टमं हीनमिजन्मनि विपुलपूर्वगताधिकृतस्तुतिं ॥ ४ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 ढाल ॥ भविजन सुभभाव ॥ ए चाल ॥ भवि धारिय उल्हास पूरवगत श्रुति भजियै रै ।भ० ॥टेक०॥ बारम अंगें पण अधिकार परिकर्म १, सूत्र २, पूरवगत ३, सार भ०॥ अनुयोग ४, चूलिका ५, पंचम जान । इहां पूरवगत श्रुति परिमाण भ० ॥१॥ गणधर परथम रचना जान तेहथी पूरव पूज वखांन ।भ०॥ द्वादश अंग पिण पाछै जोय अलपमति मुनिजननें होय ।भ० ॥२॥ ए संपूरन बारमो अंग नियमा समकिति पभणै रंग ।भ० ॥ लेसें पूरव मान विचार जिन आगमथी कीनो उधार ।भ० ॥३॥ कोटक शशिकुल खरतर ईस सिंह पटोधर राजमुनीश ।भ०॥ तसु पद सरवर हंससमान पाठक रामविजय गुनखान ।भ०॥४॥ वाचक वंश परंपर जांन पदमहरष सुखनंदनमान ।भ०॥ कनक महिम चित्रकुमर विनेय निधि पदकज भंग संयमगेय ।भ०॥५॥ शर खग धृति ॥१८९५।।नमि जनम दिन जांन, रचना कीनी श्रुति गुन षांन ।भ०॥ ए श्रुति पूजन जे कर रंग ते नित विलसें नवनिधि रंग ।भ०॥६॥ काव्यं ॥ जिनवरागम पूर्वगतस्तुति भविकसत्त्वभवोदधितारका । विपुलसन्ततिसंपददायका सुनिधिसंयमवित्तमुपेतु मे ॥१॥ में ही श्रीमदृष्टिवादांगाय द्रव्याष्टौ यजा० ॥१५॥ दोहा ॥ श्रावक जन भावें करी देवो अरथ विशाल । जिम निज कमला आदरी पामो शिवशुखमाल ॥१॥ ढाल ॥ तूठो तूठो रे मुझ साहिब ||ए चाल।। भावो भावो रे भवि चउद पूरव श्रुति भावो ॥टेका। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुसन्धान ३५ बारमा अंगनी तीजी परूवना चूलिका पंचम गावो । तिन कारण चित अधिक उल्हासें दृष्टिवाद पिण ध्यावो रे ।भ० ॥१॥ भवसिद्धी सुभ दरशन आश्रय दस चउद पूरव गावो । भाव षयोपशम श्रुति अभ्यासें संपद सहज निपावो रे ।भ०॥२॥ अनुकरमें जिन भगति नानें गणधर निज पद पावै । नवनिधिसंयम कुशलें धारी अविचल कमला रमावै रै ।भ०॥३।। काव्यं ॥ प्रवरपूर्वगतश्रुतिसंपदं विमलभावहृदाम्बुज धारयन् ॥ निजकलत्रमुपेत्य सुखेन ते शिवगतं प्रणमामि शिवाय तं ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री दृष्टिवादश्रुतिभ्योर्थं यजामहे स्वाहाः ॥इत्यर्थम् ॥ इति महोपाध्याय चरित्रनंद कृता ॥ इति पूर्वगत पूजा समाप्ता ॥ अथ आरती ॥ जय जय जिनराया ।। ए चाल ॥ जय जय अविकारा आरति करुं सुखकारा । पूरव श्रुतिसारा ॥ज० ॥१॥ उतपाद १, अग्रनीय, २, वीरयवादें ३ अस्ति नास्ति ॥४॥ स्यादवादा ।। ए चउ पूरव अतिशय चूलिका ॥ संयुत परिवादा जि०॥२॥ नान ५, सत्य ६, आतम ७, करमवादें ८, पचखान ९, गुनधारा ।। विद्या १०, अवंझ ११, प्राणावाय १२, बारमो। किरिया १३, बिंदुसारा १४, ज० ॥३॥ ए चउद पूरव नित प्रति ध्यावत, परमानंद भाया । तनमय तत्त्व रमणता आदर, परसुख विरमाया ॥ज० ॥४॥ जे भवि पूरवगत श्रुति आरति करस्यै चित लाया । । ते निधि चारित्र कमला वरस्यै वंछित फल पाया ॥ज० ॥५॥ इति पूरवगत आरती ॥ श्री श्री श्री साहा फूलचंद मूलचंद पठनार्थं ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्ह मुनि विरचित चोत्रीस अतिशय स्तवन सं. : पं० महाबोधि विजय श्री कान्हमुनि रचित चोत्रीस अतिशयस्तवननी प्रस्तुत कृति आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबाना सौजन्यथी प्राप्त थई छे. कृतिनो क्रमांक छे... ९५७२ वि.सं. १६५२, श्रावण सुद १५ना गुरुवारे जेसलमेर मध्ये आ कृतिनी रचना थई छे. रचयिता श्रीकान्हमुनि कया गच्छना के कया सम्प्रदायना छे ते कृतिना आधारे अनेक पट्टावलीओनुं बारीकाईथी अवलोकन करता एवं अनुमान करी शकाय छे : कर्ता लोंकागच्छ परम्पराना छे.१ प्रशस्तिमां सूचवेला जीवर्षि तेओ श्रीरूपजीना शिष्य छे. (जन्म: १५५०, दीक्षा १५७८, स्वर्गवासः १६१३) श्री जीवर्षिना अनेक शिष्यो हता. एमांना एक छे श्रीमल्लगणिवर. (दीक्षा १६०६, स्वर्गवास : १६६६) अमना शिष्य एटले प्रस्तुत कृतिना रचयिता श्रीकान्हमुनि. कान्हमुनि माटे विशेष माहिती प्रयत्न करवा छतां मळी शकी नथी. प्रस्तुत कृतिमां श्री जिनेश्वर परमात्माना ३४ अतिशयोनुं ढूंकमां पण सुन्दर वर्णन छे. आ कृतिनुं अध्ययन करता जे केटलांक तारणो नीकळे छे, ते नीचे मुजब छे : (१) प्रस्तुत कृतिनी रचना श्रीसमवायांग सूत्रना आधारे थई छे. (२) समवायांग सूत्रमा बतावेला अतिशयोना क्रम करता अहीं थोडो फरक छे. (३) आ कृतिमा ३४ अतिशयोनी त्रण विभागमां वहेंचणी (जन्मथी ४, कर्मक्षयथी १५, देवकृत १५) समवायांग सूत्रनी श्री अभयदेवसूरि रचित १. जीवर्षिगणि अने मल्लगणिवर- आ बे नामगत 'गणि' शब्द, कर्ता मूर्ति पूजक परम्पराना साधु होय तेवो संकेत आषी जाय छे. १७मा शतकमां तपगच्छ सहित विविध परम्पराओमां 'जीवर्षि' एवां नामो साधुओनां हतां. पट्टावलीओमां वधु तपास करवी घटे. लोंकागच्छमां पण एक फांटो मूर्तिमार्गने स्वीकारतो हतो, ते पण ख्यालमां राखवानुं छे. शी. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसन्धान ३५ टीकाना आधारे करवामां आवी छे. ___(४) प्रसिद्ध ऋषिभाषित, प्रवचन सारोद्धार, वीतरागस्तोत्र, अभिधान चिन्तामणि नाममाला, योगशास्त्र वगेरे श्वेताम्बरमूर्तिपूजक परम्पराना ग्रन्थोमां अतिशयोनी वहेंचणी आ मुजब छे : (जन्मथी ४, कर्मक्षयथी ११, देवकृत १९) (५) एटलुं ज नहि, उपरोक्त ग्रन्थोमां समवायांग सूत्रमा बतावेला अतिशयो करता केटलाक अतिशयोमां फरक पण जोवा मळे छे. श्री कान्हमुनिविरचित चोत्रीश अतिशयस्तवन पाय वंदिओ रे श्री महावीर जगतगुरु, जेणे भाख्यो रे आगम अनोपम सुखकरु; तिहां चोथे रे समवाय अंगे जाणीओ, बुधि अतिशय रे विवरी तिहां वखाणीओ. वखाणीओ चोत्रीश अतिशय, जन्मथी धुर चार ; रोगरहित शरीर निर्मल, तेहमांहे एक सार अ. गोखीर सम सित मांस-शोणित, बीजो अतिशय ए कह्यो; वर कमल गंध समान, सास-उसास त्रीजे ए लह्यो..... ॥१॥ मंसचक्षु रे आहारनिहार न देखीई, एह अतिशय रे चोथे आगम पेखीई; घनघाति रे कर्मक्षय ते उपजे, ते पनर रे अतिशय जिनवरने भजे. जे भजे जिनसिरपीठ भागे, भामंडल अति दीपतो; ए पनरमांहि एक अतिशय, प्रभा दिनकर जीपतो. एक जोयण अमृतवाणी पसरई, बीजो ए अतिशय धरइ; अर्धमागधी वाणी त्रीजे, सकल संशय अपहरइ..... ॥२॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी- 2006 जिनवाणी रे आरिज अनारज मृगपशु, खग - दुपद रे - चउपद प्रीछइ हरखशुं; ए चोथे रे पंचमि सुरनर ने तिरी, प्रभुदेसण रे निसुणी मित्रभावे धरी. जे धरीय भाव नमंति वादी, छठ्ठो अतिशय ए सही; सात वाद करे जे के ते, जाय मान रहित थइ. ईतिनो भय आठमे नहि, जोयण तिहां पचवीश अ; मारिनो भय नवमे टलि; संचरइ तिहां जगदीश ए..... ॥३॥ वली दसमे रे भय सचक्रनो नहि कदा, परचकर रे एकदशमे नवि सदा; अतिवुठी रे होय नहि तिहां बारमे, वली जाणो रे अणावुट्ठी नहि तेरमे. तेरमो अतिशय एह बोल्यो, नहि दुर्भिक्ष चौदमे; शोणितवृष्टि प्रमुखने रोगा, वेग उपशम पन्नरमे. ए आठमाथी पनरमा लगी, सवि जोयण पणवीस अ; देवकृत हवे पनर सुणिज्यो, कह्या जिम जगदीश ओ..... ||४|| ढाल बीजी-उलालारी केश- मांस-नख-रोम सवि नवि वाधइ एक, धर्मचक्र आकाश रहइ बीजो सविवेक; त्रण छत्र गयणंगणे ए त्रीजो सोहे, चामर सेत सोहामणो से चोथो मन मोहे..... ॥१॥ स्फटिक सिंहासन पादपीठ सम पंचम सार, छठे इन्द्रध्वज भलो ए ते अतिही उदार; सहस पताका परिवर्यो ए सुंदर सजगीस, दिव्यप्रभाव सदैव जिहां विचरे जगदीश... ॥२॥ तरु अशोकवर सातमे ओ, ओ उत्तम नाम, छत्र पताका धजा सहित घंटा अभिराम; 51 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 अनुसन्धान ३५ पत्र पुष्प पल्लव करीय अतिशोभे जेह, श्रीजिनवर बइसी रहे तिहां दीसे तेह..... ||३|| आठमे वर समभूमिभाग रमणिक सुहावइ, नवमे कंटक तणा अणी उपराठा थावइ; रितु विपरीति सवे हुवे ओ सुखकारी दसमे, शितल वायु सुगंध फरस तिहां एकारशमे..... ॥४॥ गंधोदकघन बारसमे रजरेणु समावे, तेरसमे वरकुसुमवरण पांचे म[न] भावे; बिंट अठाइ सुरभिगंध सवि जाणु प्रमाण, तेह तणो उपचार करे तिहां किण(कने) सुरठाण..... ॥५।। सद्द फरस-रस-रूप-गंध अनिष्ट अकांत, चौदमे अतिशय उपसमे वरते अविभांत, सद्द फरस-रस-रूप-गंध अतिकंत उदार; प्रगट थाय जिणवर कहे ओ पनरमे सार..... ॥६॥ जन्म थकी धुरि चार होवे पन्नर कर्म टाली, देवतणा कृत पन्नर शुद्ध तप-संजम-पाली; ओ अतिशय चोत्रीश सवे जिननायक केरा; भणता-गुणता सयल रिधि सुख लहे भलेरा..... ||७|| कळश श्रीजीवरिषिगणि हस्तदीक्षित सकल बुद्धिनिधान मे, श्रीमल्लगणिवर गुणे अधिका सुमति गुपति परधान ...... ॥१॥ तस चरणसेवक कान्हमुनि सुदि श्रावण पुनिम सार ओ, संवत सोलहबावने शोभतो दिन गुरुवार अ..... ॥२॥ जिनराजना अतिशय थुण्या गढ जेसलमेर मजार ओ भणो भवियण हरखशुं सवि संघ जयजयकार अ..... ॥३॥ ॥ चोत्रीश अतिशय स्तवनम् ॥ . C/0. किरीट ग्राफिक्स रतन पोळ, अमदावाद-३८०००१ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जशराजकृत दोधकबावनी सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री हिन्दी भाषामां गुंथायेली आ दोधकबावनी जशराज नामना कविए बनावेली छे. तेमणे अनेक दोहाओमां पोतानु नाम 'जशा' के 'जशराज' ए रीते गुंथ्युं छे. कबीरना के तुलसीदासना दोहा जेवा बोधप्रद होय छे तेवा ज आ दोहा पण लागे छे. कवि जशराजे पोताने ज बोध आपवा खातर आ दोहा बनाव्या हशे एवं लागे छे. सं. १७३० मां अषाढ शुदि नोमने दिने मूल नक्षत्रमा आ दोधक बावनी तेमणे बनावी छे तेवू तेमणे छेल्ला-५३मां दोहामां लख्युं छे. पण पोते क्यांना छे तथा साधु हता के गृहस्थ, तेवी कोई वात तेमणे लखी नथी, एटले तेमना विषे वधु वीगतो मळवायूँ मुश्केल छे. केटलाक दोहा बहु मार्मिक अने हृदयस्पर्शी शीख आपी जाय तेवा छे. जेमके दोहा क्र. ६ अमां कवि कहे छे के अन्याय वडे पेदा करेल धनदान घणुं आपवा छतां तेनुं फळ अल्प होय; अने न्यायनीतिथी उपार्जेतुं धन थोडंक ज दानमां वापरीए तो पण तेनुं फल बहु मळे. न्यायसम्पन्नवैभवनी के न्यायनीतिना पंथे चालवा माटेनी केवी सरस शीख ! १९मा दोहामां खल(दुर्जन)नी संगत न करवानुं कर्तुं छे, तो २०मा दोहामां शरदऋतुनो मेघ अने कंजूस-गाजे घणा पण वरसे नहि, तेनी वात कही छे. लक्ष्मीनो पण कविए महिमा तो कर्यो छे ! जेमके- दोहा २७मां - नगदुहिता-पार्वती, पति-शंकर, आभरण-सर्प, तेनो अरि-गरुड, तेनो पतिविष्णु, तेनी नारी-लक्ष्मी; ते विना पुरुषनी शोभा तथा लाज (आबरु) न वधे. तो धन भेगुं कर्या पछी जो वापरे के दानमां आपे नहि, तो ए बापडो वागोळ थई ऊंधे माथे लटकीने हमेशां धन शोध्या करे छे - एवी वात पण ३६मा दोहामां कही दीधी छे. ४५मां दोहामां - लेवा देवा विना ज 'मुखे मीठा ने मनमां जूठा' लोकोनी भारी खबर लई नाखी छे ! दोधकबावनी आ रीते घणी प्रेरक तेमज रसप्रद रचना छे. आ बावनीनी ३ पानांनी प्रत कोडाय (कच्छ)ना मण्डलाचार्य श्रीकुशलचन्द्रगणिसंगृहीत कोडाय जैन महाजनना भण्डारनी पो. ५८ क्रम. २५८ नी प्रति छे. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 अनुसन्धान ३५ तेनी जेरोक्स नकल उपाध्याय श्री भुवनचन्द्र महाराज द्वारा प्राप्त थई छे, अने तेना परथी पूज्य आचार्यश्रीना निर्देश अनुसार आ सम्पादन करेल छे. दोधक बावनी श्री पार्श्वनाथजी शत्य छे । अथ दोधक बावनी लिख्यतें । ॐ यह अक्षर शार हे एसा अवर न कोई । शिवसरूप भगवान शिव शिरसां वंदु शोय ॥१॥ नमीइं देंव जगतगुरुं नमीइं सदगुरुं पाय दया युक्त नमीइं धरम शिवगती लेह उपाय ॥२॥ मनथे ममता दुर कर समता धर चितमांहिं रमताराम पिछानकें सिवसुंख लें क्युं नाहि ॥३॥ सिवमंदिरकी चाह धर अथिर मंदिर तजि दुर लंपट रह्यो क्या किचमे असुंच जिहा भरपुर ॥४॥ द्वंधा ही मे पच रह्यो आरंभ किए अपार उठि चलेगो एकलो शिर पर रहेंगो भार ॥५॥ अन्यायाजि(र्जि)त दत्त धन बहुतर हि फल सोइ दांन स्वल्प फुनि फल बहुल, न्यायोपार्जित होइ ॥६॥ आतम पर हित आपकुं क्या परकुं उपदेश निज आतम समझ्यो नहि किनो बहुंत किलेश ॥७॥ इतना ही मे शमझ तुं बहुत पढे क्या ग्रंथ उपशम विवेक शंवर लहो याथे शिवपुर पंथ ॥८॥ इतीभीती याथे गइ प्रगट भई सुंभ रीत नीतमार्ग पेदा कियो गाउं ताके गीत ॥९॥ उदय भए रविके जशा जाए सयल अंधार त्यौ सदगुरु के वचन थें मिटे मिथ्यात अपार ॥१०॥ उगत बीज सुं खेतमें जशा सुं जल शंजोग त्यौ सदगुरु के वचन थे उपजत बोधपयोग ॥११॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 फेबुआरी - 2006 एक टेक धरके जसा निर्गुण निर्मम देव दोष रोष यांमे नहिं करवों ताकि सेव ॥१२॥ ए विषमगति कर्मकी लखी न काहूं जात रंकने राजा करे राजा रंक देखात ॥१३।। ओसबिंद कुंशअग्र थे परत न लागे वार आउं अथिर तेसे जसां कर कछु धर्मविचार ॥१४॥ औषध नमिजे मीचकुं(?)याथे मरे न कोइ कर औषध एक धर्मको जशा अमर तुं होई ॥१५॥ अंध-पंग ज्जो एक हे जरे न पावकमांहिं त्युं ज्ञान साहीत क्रिया करे जशा अमरपुर जाय ॥१६॥ अमर जगतमें को नही मरे अशुर शुरराय गढमढमंदिर ढह परें अमर सुजश जसराज ॥१७॥ कंचन ते पीत्तर भए मुरख मुढ गमार तजें धर्म मिथ्यामति भजे अधर्म अशार ॥१८॥ खल संगत तजीओ जसा विद्या सोभित तोई पनंगमणि संयुक्त तो क्युं न भयंकर होइ ॥१९॥ गाज सरदकी कारमी करत बोहीत अवाज तनक न वरसें दांन ज्यो कृपण न दे जसराज ॥२०॥ घरटीके दो पुड विचे कण चुरण ज्युं होय त्युं दो नारी विच परयो नर उगरे न कोइ ॥२१॥ नही ग्यांन जांमे जशा नहि विवेक विचार ताको संग न किजिई परहरीधे निरधार ॥२२॥ चपला कमला जांनिके कछु खरचो कछु खाओ इक दिन भूइ सुवो जशा लाबां करके पाऊ ॥२३॥ छलकर बलकर बुधकर करके जशा उपाइ आतम वस आपणो दुर्जय दुरिजन ताइ ॥२४॥ जवती सव जग वश कीयो किसी न राखी मांम जे इशथे न्यारा रहे ताकुं यशा प्रणांम ॥२५॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 झाझी वात न किजीइं थोरा ही मे आंन जसा बराबर लेखवो आप प्रांण परप्रांण ॥२६॥ नग - दुहितापति आभरण ताको अरि जशराज तश पति नारी विण पुरुष न वधे शोभा लाज ॥२७॥ टाणा टुणा छोर दे याथे न शरे काज चोखें चित जिनधर्म कर काज शरे जशराज ॥२८॥ ठग सो जो पर मन वसे पर उपजावे रोझ जशा करे वश जगतकुं साचा ठग सोइ ज ॥२९॥ डरे कहा जशराज कहें जो अपने मन साच खिण मे परगट होइगा ज्यौं प्रगटाये काच ||३०|| ढा कोट अग्यांनका गोला ग्यान लगाइ मोहरायकुं मार लें जसा लगे सब पाय ||३१|| नही ( दी? ) नखी नारि तथा नाग नकुल जशराज नाइ नरपति निगुण नर आठे करे अकाज ॥३२॥ तारें ज्यौं नर कुं जशा भवसायरमे पोत त्यों गुरु तारे भवंजलनिधि करे ग्यांन उद्योत ॥३३॥ थोभ लोभ नही जीउंकुं लाख कोरी धन होत समता जो आवे जशा सुख सदा मन पोत ||३४|| दक्षण उत्तर च्यार दिशि जशा भमे धनकाज प्रापत्ति विना न पामी कोर करो अकाज ॥ ३५ ॥ धन पाया खाया नहि दिया भी कुछ नाहि सो वांगुल होई जशा ढुढत्त हे धन माहिं ॥ ३६ ॥ नीगुण पुत्त नारि नीलज कूंपही खारो नीर निषर ( निपट ? ) मित्त जशराज कहें पांचे दहं शरीर ||३७|| पर उपगारी जगतमे अलप पुरुष जशराज सीतल वचन दया मया जाकें मुख परी लाज ||३८|| फोज दिशोदिस मिल गई जशा धुरें नीशांण झुझे शनमूख जाइने सुंर गणे नही प्रांण ||३९|| अनुसन्धान ३५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 फेब्रुआरी - 2006 बूंब परे सब दो रहे ले ले आयुध हाथ वदन मिलीन करे जसा जावे कोइ अनाथ ॥४०॥ भगत भली भगवंतकी संगत भली सुं साध ओरनकी संगत्ति जशा आठे पोहोर उपाध ॥४१॥ मुरख मरन न देखीयत करत बहुंत आरंभ सात विसन सेवे जशा करे धर्म बिच दंभ ॥४२॥ याग करे प्रानी हणे भाखे धर्म उलंठ देखो ग्यांन विचारके क्युं पावे वैकुंठ ॥४३॥ रीश त्याग वैराग धर हो योगी अवधुत शीवनगरी पाये जशा करे ऐंशी करतूत ॥४४॥ लेंहणा देहणा कछु नही मुहकी मिठी वांत हृदये कपट धरे जशा ताके शिर पर लात ॥४५॥ वरशें वारधी अहोनीशे पाख रतीनुं पान भाग्य विना पावे नही याचक दाता दान ॥४६।। शंख शरिखा उजला नर फुटरा फरक जशा न सोभे दांन विण ज्यु बुटी कान धरक ॥४७॥ खरो पवहे सुरको रण विच मुंड विहंड पाछा पाउ धरे नही जो होवे सत-खंड ॥४८॥ सायर मोती नीपजे हीरा हीरा खांण जिहां ग्यांन ध्यान त्या नीपजे जिहा सुगुरु की वांण ॥४९॥ हस्त ही मंडण दांनं हे घरमंडण वरनार कुलमंडण अंगज जसा मानवमंडण सार ॥५०॥ लंछन निसपति शांतरुची सुरज लंछन ताप दाता लंछन धण विना सवहुं दया सराप ॥५१॥ क्षांत दांस(दांत) न ता(समता)रता हंणे नही षटकाय जसा पांन किरियामगन सो साधु कहिवाय ॥५२॥ सतरसें तीसे समें नवमी सुकल अषाढ दोधक बावनी जसा मूर नक्षत करी गाढ ॥५३|| Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 अनुसन्धान ३५ इति श्री दोधक बावनी समाप्ता नाम संपुर्णंम् ॥ سه ه م مر سه कठिन शब्दोना अर्थ पंक्ति शब्द अर्थ किच कीचड-गंदकी असुंच अशुचि द्वंधा धंधो पीत्तर पित्तल तनक लेश जवती जुवती? कोट गढ (अज्ञाननो) गोला तोपगोला (ज्ञानना) प्रापत्ति प्रारब्ध (?) वांगुल वडवागोल निपट(?) नफट सुर مر مر به سد - - 348 Mmm 34s سه س ه शूरो م बूंब سه مر مر به विसन व्यसन याग हिंसक यज्ञ वारधी मेघ रती, चणोठीy (?) C/o. देवीकमल जैन स्वा. मन्दिर ओपेरा, विकासगृह पासे, अमदावाद-३८०००७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानदत्त आदि मुनिकृत विविध स्तवन-सज्झायो सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री __ विजयगच्छना अटले के वीजामतना मानदत्त मुनि तथा मेघा मुनिए रचेली दश गीतो धरावती एक त्रूटक, ४ पानांनी प्रत पूज्य आचार्यश्रीविजयशीलचन्द्रसूरि महाराजे मने केटलाक वखत अगाऊ आपी हती, ते परथी आ नकल तथा सम्पादन करेल छे. प्रत १९मा सैकामां लखायेली होवानुं लागे छे. बधी रचनाओ भक्तिरसथी कां तो वैराग्यप्रेरक बोधथी भरेली छे. त्रीजी-चोथी रचनाओ 'मेघा' कृत छे बाकीनी आठ 'मानदत्त'नी छे. बालचेष्टा जेवा मारा आ प्राथमिक प्रयासमां त्रुटिओ रही हशे ते सुधारीने वांचवा सर्वेने विनंति करुं छु. क० ॥१॥ ॥ वे वे मुनिवर वेरण पागर्या रे । ए देशी ॥ कर्म समानो बलियो को नही रे, दीखाडे अतही संताप रे; विण भोग्यां छुटै नही रे, पूरव कृत जे पाप रे० ..... कर्मे आदीसर रह्या अणशरीरे, वरस एक तग सीम रे; वीर जिणेशर केरा कानमें रे, खोस्यो खीलो अतीभीम रे..... क० ॥२॥ नीर भराणो घर मातंगने रे, सत्यवादी हरिराय रे; नल दवदंती नगर्यां रवड्यां रे, शीतां कलंक कहाय रे..... क० ॥३॥ मल्लजिनेस्वर स्त्रिलिंग थया रे, द्रुपदी पंच भरतार रे; कर्म तणें वसि पडि रडवड्यां रे, श्रीकृष्ण सरीखा अवतार रे...क० ॥४॥ पांच पाडव कर्मे नड्या रे, रामजी रह्या बनवास रे; रावण राणें दस सीर रड्या रे, मूंज नरपति भिख्याभ्यास रे..... क० ॥५॥ . अरणक मुनिवर रह्या वेश्या घरां रे, वलि आषाढ्या अणगार रे; सेठ येलापुत्र नट थयो रे, चंदन कुरकट अवतार रे..... क० ॥६॥ बेचाणी बब्बर तटें रे, सुरसुंदरी वले नार रे; कर्मे सहुं कसीया खरा रे, नही राजा रांक विचार रे...... क० ॥७॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 अनुसन्धान ३५ येम वयण श्रवणें सूणी रे, प्रभुजीसुं पभणे अभयकुमार रे; कर्म सुभट किम जीपीये रे, वीरजी कहै उपचार रे..... क० ॥८॥ समकित केशरीया वागो पहरनें रे, पंच महाव्रत बगतर टोप रे; धरम ढाल करमें लीजीये रे, खिमा खडग ले देई उपरे..... क० ॥९॥ सतर सावतवा रें सूरवां रे दश मुकटबध ल्येवो राय रे सहस अढारें सुभट सजी करी रे, बठो तुम शीलरथमाहि रे..... क० ॥१०॥ दया हस्ती तुम शिणगारने रे, सुमत पचरंगथर राय रे; ग्यान नगारो देई करी रे, भावन भेरी चढो वजडाय रे.....क० ॥११॥ एम वयण सुंणी हरखनें रे, उठीयो थई तैयार रे; करम सुभट जीपण भणी रे, लीधा सस्तर अभयकुमार रे..... क० ॥१२॥ जोर जुगत करी जीपीया रे, देवां मिल बोल्या जयजयकार रे; मानदत्त शिवनारी वरी रे, प्रणमुं हुं नितें वारंवार रे..... क० ॥१३॥ इति अभयकुमार स्वाध्याय संपूर्णं ॥ (२) ॥ चरण कमल रे प्रणमी गुरु तणा, कहस्युं सील वखाण; भव भय टाली रे मनवंछित लह्या, सील तणे परमाण..... १ सील समाणो रे भवि व्रत को नहीं... आं० । सील प्रभावे रे परतिख देखीयो, अगन थई जलराशि, सीता सती रे जग जस वांधीयो, गुण गावें मुनि ताशि.... २ शी० चलणी काढ्यो रे पाणी निरमलो, बांधी काचो रे तार; देई छांटा रे सतीय सुभदरा, खोल्या चंपा द्वार.... ३ शी० पांच पांडव विनरे(वे) वलिवलि नर जिके जाण्या द्रोपदी वीर; जास प्रभावे रे भविजन प्राणीयो, वाध्यो अति घणो चीर..... ४. शी० श्रेणक नृपनी रे मनभावती, सती चेलणा जाण; समोसरणमें रे वीर जिणंदजी, कीधो जास वखाण..... ५. अभया राणी रे दुःख दीधो घणो, चित न चलायो रे तेह; सूली फीट रे थयो सिहासणो, सेठ सुदरसण जेह..... अहि अरि नाग रे आदि देई करी, भय जावें सब नाठ; रण वनमें रे इण परभावथी, होवें जिहां तिहां रे थाठ..... ७. शी० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 फेब्रुआरी - 2006 इम जाणी रे भवि नरनारीयां, पालो दृढ मन लाय; सरूप सुगुरनो रे शिख इम आखवें, मान पूजा शिव पाय..... ८. शी० इति शील स्वाध्याय ॥ (३) ॥ देशी गरभाकी ॥ इक दिन अरणक जाम, गोचरी उठीया रे, खरी दुपहरीमांहि, मुकतिनो रसीयो रे.... १ . अद्भुत काम सरूप, जोबन वेसे रे; उभो गोखने हेठ, दीठो वेसें रे..... २ दासी येक बुलाय, इण पर बोलें रे; तेडी लावो ए साधु, नही इण तोलें आई दासी रे ताम इण पर भाखें रे, आम पधारो राज, पुरो अविलायें रे..... ४ दासी वचन रसाल सुणकर हाल्या रे; तसलीम करी कहै नारि आवो मन वाल्हा रे..... ५ या चत्रसालीमांहि भोगो भोगा रे; जोबन लाहो लेह, लीजो जोगा रे..... ६ कोमल तन सुकमाल देखी चूक्यो रे; मण वसे मुनिराय संजम मूक्यो रे...७ इक दिवसनें योग गोखां बयठे रे; चोपड रमतां मात देखें हे रे..... ८ गलीयां गलीयां माहि फिरें जोती रे; दीठो कोई माहरो नंद अरणकमोती रे..... ९ उतरि चिंतव जाम ध्रगध्रग मुझनें रे; क्षिमा करो मुझ माय विनवू तुझनें रे..... १० अणसण नोका बैठ भवदधि तरिया रे; मेंघा सिवपुर जाय रमणी वरिया रे..... ११ इति अरणक सिज्झाय ॥ (४) ॥ आरती ॥ जय जय जिनदेवा ज०; सुरनर करें तुम सेवा, पावें नही मेवा अष्टमहाप्रतिहारज, अतिसय गुणधारी; दोषरहित प्रभु राजै लबधि गुणें भारी.... जै० २ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 अनुसन्धान ३५ जोतीरूप अरूपी अरित, त्रिभुवन जन भूपो; अजरामर अविनासी कोई न लहै रूपो..... ज० ३ अंतरजामी हो तुम नह चै जानत सब घटकी; कलपद्रुम तुम सरिखा पूरत सब मनकी..... जै० ४ सयंभूरमण बिंदु जलकेरों संख्या लहैं कोई; तुम गुण केरो नाथ पावत नही कोई..... ज० ५ उत्तम वस्त्र पहर आभूषण इंद्रादिक आई; थेई थेई नाचत हरखित बहुत भगती लाई..... ज० ६ धपमप धपमप मादल बाजै भौकारें; गुड गुड झांकट झांकट नोबत सुरभारें..... जै० ७ रतन जडत लेई आरति करपूर संयुगती आरती कर कहै एम आपो मुझ ___ मुगती..... जै० ८ करें केवल महिमा सुरपति पोहपन(?) वरषाई; आविध स्तुति करें बहु भगते मेघा सिर नाई ..... जै० ९ ॥ इति आरती संपूर्णं ॥ ॥ सुमरो जिनराज सुमतिदाता सुमतिदाता रे कुमतित्राता सु०; नरसुर सिवपद लछि लहो रे, ओर लहो रे तुम सुखसाता. सु० ..... भवसायरमें डुंबत राखें, रास लेवें रे कुगति जाता. सु० .....२ आंगण उभी तुरीयां रे हीसें; हसती ही दरे थारें मदमाता. सु० तीनलोकनो साहिब त्यागी क्यों रे फिरो प्रानी ध्याता. आमनी होंस कबु नही भांजें आमलीयांना रे फल खाता. सु० मानदत्त आपन भल चाहो अहोनिस रहो जिनगुण गाता. सु० ..... ॥ इति सुमतनाथ गीतं ॥ wm3 ॥ मेघकुमारना गीतमें देशी ॥ वीर जिणंद वखाणियोजी, पूजानो अधिकार; गोयम आदि देई करीजी, बारह परषदा सार रे... प्राणी; पूजो श्री जिनराज ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 फेब्रुआरी - 2006 जीवाभगवी अंगमांजी, रायपसेणी मझार; अंग उवाई जोईयेजी, अनुयोगद्वार उदार रे... प्रा० ... २ अंबड श्रावक वंदियाजी, मन धर प्रभ ऊलास; जे कुमती मानें नहीजी, जाको नरक निवास रे... प्रा० ... ३ विद्या जंघाचारणेजी, नंदीसर वंद्या रंग;. . ते मूरख माने नहीजी, जोवो पंचम अंग रे... प्रा० ... ४ छठे अंगमाहे कह्योजी, वंदन अरचन दोय; . द्रोपदीयें वंछित लह्याजी, श्री वरधमान विसेष; आर्द्रकुमर प्रतिबूझियाजी, जिनवर प्रतिमा देख रे... प्रा० ...६ सूत्र मानें प्रतमानंदेंजी, (नहीं जी ?), धीठा खरा ही अबोध; चौरासी भ्रमना करीजी, पडसें नरक निगोद रे... प्रा० ... ७ सूत्र सिधांत अधेननाजी, कानो मात्रा हीनः कूडो अक्षर जे कहैजी, ते भवभ्रमना लीन रे... प्रा० ... ८ । जिनप्रतिमा जिनसारखीजी, कही जिनागममांहि; जो प्रतिमा वंदे नहीजी, वंदनीक ते नाहि रे.... प्रा० ... ९ असिआऊसा मन धरीजी, दरशन ज्ञान चरित्त; जिनमुख देखी एह जपोजी, कर नरभव पवित्त रे... प्रा०... १० सीस सुगुर सरूपनोजी, कहै दत्तमान अनूप; एह वचन मन ना धरेंजी, ते पडो ओंड कूप रे... प्रा० ... ११ ॥इति।। [इति जिनप्रतिमापूजा स्वाध्याय] (७) ॥ बैद न कोई असो देख्यो, वेदन मुझ नसाय; नाम तुम्हारों सुणकें प्रभुजी, अब आयों तुम पायजी... १ श्री चिंतामण पास, [तु]म चरणा सीस नमावूजी, में आप तणा गुण गावूजी, में समकित गुण वुजवालुजी... श्री० आं० ... सुंदर सूरति मूरति थारी दीठा मन हुलसाय; कोड भवारी बेदन म्हारी एक पलकम जायली. श्री० ... २ - अनप. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 धन माता वामादे राणी जायो तुमसे नंद; सुरनर किंनर आदि देई, नमाये मुनंदजी... श्री० आप तिरे बहुते रे त्यारे, करुणाकर जिनराज; अब हुं श्रुतनोका बसाणा, अपडावें सिवपाजजी... श्री० कर जोडी सेवक जिन विनवें, अरज सुणो महाराज; मानदत्त चेराकी तुमनें, बाह गहेंकी लाजजी... श्री० ॥ इति [ चिन्तामणि पार्श्वगीत ] संपूर्णं ॥ (८) | देशी । नरुकाका गीतनी ॥ रे जिनेस्वर साहिबा माहरी अरज सुणीजोजी० आं० लख चौराशी योनमेंजी, भ्रमत फिर्यो बहुकाल; दुःख अनंता में सह्याजी, साहिब दिनदयाल. तारणनो बिरुद सांभलीजी, श्रीगुरकेरी वांण; जब में तुमपें आवियोजी, साहिब चतुर सुजाण ... जि० इण अवतारें साहिबाजी, भेट्या देव अनंत; पिण को काज सर्यो नहीजी, सांभल श्री अरिहंत... जि० मुझमें अवगुण छ घणाजी, कहत न आवें पार; पिण तुम झाज तणी परेंजी, छो प्रभु तारणहार... निरगुणीयांना कर ग्रहीजी, उत्तम छोडें केम; विष विषधर अरु चंद्रमाजी, ईश्वर राखें जेम... ओर कहां तुमें कहुंजी, जीवन प्राण आधार; सेवक जाण मया करोजी, पतित ऊधारणहार... दत्तसरूप सुगुर तणोजी, मान कहै सुविचार; भवसायर तें डुबतोजी, अबकें लेहो ऊवार... ॥ इति स्तवन ॥ अनुसन्धान ३५ जि० जि० जि० जि० जि० ४ २ ३ 50 ४ ५ เช่ ७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 65 ॥ कपूर हुवें अति ऊजलो रे । ए देशी ॥ देवी देव मनावतां रे, नीठ थयो सुत एक; कामातुर तिरिया वसे रे, मातसुं मांड्यो द्वेक... भविकजन; विषय महाबलवंत. होजी कोई जीत्या छे संत महंत... भ० .. १ सिटत पटित कलेवरु रे, काकजंघा सम स्वान; तसु के. लाग्यो फिरें रे,विषय करी हयरान... भ० रिद्ध वृद्ध कुलविध तजी रे, पायक भीम समान; मयणवसें दुःखीयो थयो रे, मूंज महाराजान... लंकापति अतुली बली रे, सुरपति पदवी सार; धरणी तसु मस्तक रुल्या रे, हह विषय विकार... भ० केसफरस नियाणो कीयो रे, व्रत पाल्यो बहु काल; संभूत चक्रवरति बारमो रे, जायें सत्तम पायाल.... भ० विषय-फल विष सारिका रे, जे सेवें नरनार; ते दुरगति दुःख पामसे रे, न लहें सास लगार.... भ० ... कामनी मिरगफासमें रे, पडें तब पिछताय; जीवत चूंट कालजो रे, मुंवां नरक ले जाय.... भ० इम जाणीने तुम तजो रे, विषय चतुर सुजान; सीस सुगुर सरूपनो रे, पभणे इम रुषिमान... भ० ... ८ इति विषयत्याग गीतम् ॥ (१०) गोतम प्रश्न कीयो भलोजी, चरणा सीस नमाय; काल पंचम आयो थकोजी, जाणीजे किण प्राय. हो प्राणी; जोवो अरथ विचार... १ वीर जिनेश्वर इम कह(हे)जी, सुण गोतम सुवनीत; ग्यानीयें असो कडोजी, जाणीजे इण रीत... हो प्रा० ..... २ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 अनुसन्धान ३५ नगर ग्राम सरिखा होसेंजी, ग्राम ते चिता रे समान; कुटमी दास सरिसा होसेंजी, लांचग्राही पुरुष प्रधान...हो प्रा० ..... ३ राजतेज जम सारिखोजी, सजन निलजपणि जोय; केतिक कुलनी कामनीजी, वेस्या सदृस होय.... हो प्रा० ..... पुत्र स्वछंदें चालसेंजी, गुरु नंदक सिष्य मुगध; दुरजन सुखी ऋद्धना धणीजी, सुजन दुःखी अल्प रिध... हो प्रा०.... ५ मात पिता बठा रहेंजी, पुतर पामें जी काल, वाय प्रचंड वह वली, वेगला पडसें काल..... हो प्रा० ... ६ सरपादिक बहु जीवडाजी, थासें प्रथवी रे मांहि; अतीत ब्राह्मण धन लोभियाजी, थासें समता न आंहि...हो प्रा० .... ७ कुलाचार त्यागी होसेजी, साधु श्रावक दोय; कलह कषाइ जीवडाजी, विसनें बहु रित होय .... हो प्रा० .... ८ मिथ्याती नर देवताजी, ए पिण बहुलाजी होय; मंत्र यंत्र वलि ओषधीजी, लघु परभावीक जोय..... हो प्रा० ... ९ दया धरम पिण थोडलोजी, वलि धन आयू रे जाण; देव दरसण मनुष्यनेंजी, कठिन श्रवण वखाण.... हो प्रा० ... १० आचारज वलि साधनजी, सावक भणासी रे सूत्र; मावित्रसुं त्थी कारणेजी, कलहें करसी रे पुत्र .... हो प्रा० ... ११ सतियां मेला कापडाजी, कुलटा रंग विरंग; मलेछ राज बहुलो हुसेंजी, सांभलज्यो सहू संग... हो प्रा०... १२ श्रीभगवती माहें कह्योजी, तीसें बोलें विचार; श्रीवरधमान पसावलेजी, गुंथ्यो उण अनुसार... हो प्रा० .... १३ विजय गछमा दीपताजी, श्रीरूपदत्तमुनीस; तास पटोधर राजिताजी, सरूपदत्त सुजगीस .... हो प्रा०.... १४ तास सीस इण पर भणेजी, मानदत्त सुविचार; एह बोल सुणतां थकीजी, मनमां कीयोजी हकार.... हो प्रा० ... १५ ॥ इति कलयुग स्वाध्याय ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 67 पधार्या शूरा शब्दकोष कडी लीटी शब्द अर्थ अभयकुमार स्वाध्याय प्रथम पंक्तिमां वे वे बेबे वेरण वहोरवा पागुर्या अणशरी अणसणी-उपवासी सावतवा सामंतो सूरवां सस्तर . शस्त्र : शील स्वाध्याय : वांधीयो वध्यो चलणी चाळणी फीट फीटी-मटी गई थाठ : अरणक सिज्झाय : गरभाकी गरबाकी वेसें वेश्याए अविलाचे अभिलाषाओ तसलीम स्वागत (?) चत्रसाली चित्रशाला चोपाट ध्रगध्रग धिग् धिग् भवदधि भवोदधि-भवसागर : आरती : भेवा अष्टमहाप्रतिहारज ८ महाप्रातिहार्य, जैन तीर्थंकरनी समृद्धिओ. ठाठ चोपड ro o wuar as भेद Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ ॐm भेरी 4. 2 . . . . . . . ... ا م ه प्रम م अरिंत अरिहंत नहचै निश्चे सयंभूरमण स्वयम्भूरमण नामे महासमुद्र भेरन करपूर कपूर : सुमतनाथ गीत : तुरीयां तुरीया दशा हींदरेथारे आम केरी : जिनप्रतिमापूजा स्वाध्याय : जीवाभगवी जीवाभिगम (ग्रन्थनाम) प्रेम श्रुगडांग सूत्रकृताङ्ग (ग्रन्थनाम) प्रतिबूझिया प्रतिबोध पाम्या अधेनना अध्ययनना ओंड ऊंडा .: चिन्तामणि पार्श्वगीत : वुजवालु अजवाळु त्यारे तार्या श्रुतनोका ज्ञाननी नावडी बसाणा बेठो छु; बेसीने अपडावे पहोंचाडे (?) सिवपाज मोक्षरूपी घाट चेरा चेला : स्तवन : झाज जहाज ऊवार ऊगारी سه مر » م - مر ل - س - - ه - ه س ل - » - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी- 2006 NV r M 5 ३ 5 5ws 99 ७ ७ ३ 20 5 wvo ४ ६ ८ ९ ४ १ २ ४ m m MM 20 20 ४ : विषयत्याग गीत : नीठ द्वेक सिटतपटित पायक सफरस नियाणो सत्तम पायाल सारिका मिरगफास चुंटका : कलियुग स्वाध्याय : कुटमी निलजपणि नंदक काल विसनें लघु नेट नक्की उद्रेक (?) सडेलुं - लबडेलुं सुभट (स्त्रीना) वाळना स्पर्शथी निदान (आवी स्त्री मने मळो तेवी इच्छा) सातमी नरके सरीखा मृगलां पकडवानो फांसलो चुंटे, फोले 69 कुटुम्बी निर्लज्जपणे लोभी मृत्यु व्यसनमां शीघ्र C/o. नीतू अमृतलाल जैन ४०४, से- २२, तुर्भेगाम न्यू मुम्बई ४००७०५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय मेघविजय रचित सप्तसन्धान काव्य : संक्षिप्त परिचय म० विनयसागर वैक्रमीय १८वीं शताब्दी के दुर्धर्ष उद्भट विद्वानों में महोपाध्याय मेघविजय का नाम अग्रपंक्ति में रखा जा सकता है । जिस प्रकार महोपाध्याय यशोविजयजी के लिए - उनके पश्चात् आज तक नव्यन्याय का प्रौढ़ विद्वान् दृष्टिगत नहीं होता है उसी प्रकार मेघविजयजी के लिए कहा जा सकता है कि उनके पश्चात् दो शताब्दियों में कोई सार्वदेशीय विद्वान नहीं हुआ है । उनकी सुललित सरसलेखिनी से निःसृत साहित्य का कोई कोना अछूता नहीं रहा है । महाकाव्य, पादपूर्ति काव्य, चरित्रग्रन्थ, विज्ञप्तिपत्र-काव्य, व्याकरण, न्याय, सामुद्रिक, रमल, वर्षाज्ञान, टीकाग्रन्थ, स्तोत्र साहित्य और ज्योतिष आदि विविध विधाओं पर पाण्डित्यपूर्ण सर्जन किया है । महोपाध्याय मेघविजय तपागच्छीय श्री कृपाविजयजी के शिष्य थे । तत्कालीन गच्छाधिपति श्रीविजयदेवसूरि और श्रीविजयप्रभसूरि को ये अत्यन्त श्रद्धा भक्ति की दृष्टि से देखते थे । इनका साहित्य सृजनकाल विक्रम संवत् १७०९ से १७६० तक का है । (इनके विस्तृत परिचय के लिए द्रष्टव्य है राजस्थान के संस्कृत महाकवि एवं विचक्षण प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थकार महोपाध्याय मेघविजय; श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन - ग्रन्थ) एक श्लोक के अनेक अर्थ करना, सौ अर्थ करना कितना कठिन कार्य हैं । द्विसन्धानादि काव्यों में कवियों ने प्रत्येक श्लोक के दो-दो अर्थ किये हैं । किन्तु मेघविजयजीने सप्तसन्धान काव्य में प्रत्येक पद्य में आगत विशेषणों के द्वारा ७-७ अर्थ करके अपनी अप्रतिम प्रतिभा का उपयोग किया है । कविकर्म के द्वारा दुरूहता पर भी विजय प्राप्त करना कविकौशल का परिचय कराता है । सप्त सन्धान महाकाव्य इन्हीं महाकवि की रचना है । इस काव्य का यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है : महो० मेघविजयजी ने सप्तसन्धान नामक महाकाव्य की रचना सं. १७६० में की है । इस काव्य की रचना का उद्देश्य बताते हुए लेखक ने Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 71 प्रान्तपुष्पिका में कहा है - आचार्य हेमचन्द्रसूरि रचित सप्तसन्धान काव्य अनुपलब्ध होने से सज्जनों की तुष्टि के लिये मैंने यह प्रयत्न किया है । इस काव्य में ८ सर्ग हैं । काव्यस्थ समग्र पद्यों की संख्या ४४२ हैं । प्रस्तुत काव्य में ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, रामचन्द्र, एवं यदुवंशी श्री कृष्ण नामक सात महापुरुषों के जीवनचरित का प्रत्येक पद्य में अनुसन्धान होने से सप्त-सन्धान नाम सार्थक है । महाकाव्य के लक्षणानुसार सज्जन-दुर्जन, देश, नगर, षड्ऋतु आदि का सुललित वर्णन भी कवि ने किया है। काव्य में सात महापुरुषों की जीवन की घटनायें अनुस्यूत हैं, जिसमें से ५ तीर्थंकर हैं और एक बलदेव तथा एक वासुदेव हैं । सामान्यतया ७ के माता-पिता का नाम, नगरी नाम, गर्भाधान, स्वप्न दर्शन, दोहद, जन्म, जन्मोत्सव, लाञ्छन, बालक्रीडा, स्वयंवर, पत्नीनाम, युद्ध, राज्याभिषेक आदि सामान्य घटनायें, तथा ५ तीर्थंकरों की लोकान्तिक देवों की अभ्यर्थना, वार्षिक दान, दीक्षा, तपस्या, पारणक, केवलज्ञान प्राप्ति, देवों द्वारा समवसरण की रचना, उपदेश, निर्वाण, गणधर, पांचों कल्याणकों की तिथियों का उल्लेख, तथा रामचन्द्र एवं कृष्ण का युद्ध विजय, राज्य का सार्वभौमत्व एवं मोक्ष-स्वर्ग का उल्लेख आदि कथाओं की कडियें तो हैं ही. साथ ही प्रसंग में कई विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख भी है। आदिनाथ चरित में - भरत को राज्य प्रदान, नमि-विनमि कृत सेवा, छद्मस्थावस्था में बाहुबली की तक्षशिला नगरी जाना, समवसरण में भरत का आना, भरत चक्रवर्ती का षट्खण्ड साधन, मगधदेश, सिन्धु नदी,शिल्पतीर्थ, तमिस्रा गुहा, हिमालय, गंगा, तटस्थ देश, विद्याधर विजय, भगिनी सुन्दरी की दीक्षा आदि का उल्लेख हैं । शान्तिनाथ के प्रसंग में -- अशिवहरण, तथा षट्खण्ड विजय द्वारा चक्रवर्तित्व । नेमिनाथ - राजीमती का त्याग महावीर - गर्भहरण की घटना राम - भरत का अभिषेक, वनवास, शम्बूक का नाश, बालिवध, हनुमान की भक्ति, सीताहरण, जटायु विनाश, सीता की खोज, विभीषण का Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 अनुसन्धान ३५ पक्षत्याग, युद्ध, रावणवध, सीतात्याग, सीता की अग्नि परीक्षा और रामचन्द्र की दीक्षा आदि रामायण की प्रमुख घटनायें । कृष्ण कंस वध, प्रद्युम्न वियोग, मथुरा निवास, प्रद्युम्न द्वारा उषाहरण, द्वारिका वर्णन, शिशुपाल एवं जरासन्ध का वध, द्वारिका - दहन, शरीर-त्याग, बलभद्र का भ्रमण और दीक्षा आदि कृष्ण सम्बन्धी प्रमुख घटनायें । इसके साथ ही कृष्ण एवं नेमिनाथ का पाण्डवों के साथ सम्बन्ध होने से पाण्डवों का चरित्र, वंशवर्णन, द्यूत, चीरहरण, वनवास, कीचकवध, अभिमन्यु का पराक्रम, महाभारत युद्ध एवं भीम द्वारा दुर्योधन का नाश आदि महाभारत की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख भी इसमें प्राप्त हैं । प्रत्येक पद्य में व्यक्तियों के अनुसार एक विशेष्य और अन्य सब विशेषण ग्रहण करने से कथा प्रवाह अविकल रूप से चलता है, भंग नहीं होता है । अनेकार्थी कोषों की तथा टीका की सहायता के प्रवाह का अभंग रखना अत्यन्त दुरूह है । उदाहरणार्थ सातों पुरुषों के पिताओं के नाम एक ही पद्य में द्रष्टव्य हैं : अवनिपतिरिहासीद् विश्वसेनोऽश्वसेनो ऽप्यथ दशरथनाम्ना यः सनाभिः सुरेशः । बलिविजयिसमुद्रः प्रौढसिद्धार्थसंज्ञः प्रसूतमरुणतेजस्तस्य भूकश्यपस्य ॥१-५४ ॥ आदिनाथ के पक्ष में यहाँ नाभिराजा था । वह विश्वसेन संपूर्ण सेना का, अश्वसेन अश्वों की सेना का अधिपति, दशरथ दशों दिशाओं में कीर्तिरूपी रथ पर चढा हुआ, सुरेश देवों का पूज्य, बलिविजयिसमुद्र पराक्रमियों पर विजय प्राप्त करने वाला, राजकीय मुद्रायुक्त, प्रौढसिद्धार्थसंज्ञ प्रवृद्ध, सम्पादित उद्देश्य एवं बुद्धियुक्त था । उसका भूकश्यप पृथ्वी में प्रजापति के समान तथा अरुणतेज सूर्य के सदृश प्रताप व्याप्त था । इसमें शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, रामचन्द्र एवं कृष्ण के पक्ष में क्रमशः, विश्वसेन, समुद्रविजय, अश्वसेन, सिद्धार्थ, दशरथ, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 भूकश्यप वंश में होने के कारण सूर्य के समान प्रतापी वासुदेव को विशेष्य मानकर अन्य विशेषण ग्रहण करने से पद्यार्थ निष्पन्न होता है । गर्भापहार जैसी घटना भी अन्य चरित्रों के साथ सहज भाव से वर्णित है : देवावतारं हरिणेक्षितं प्राग, द्राग् नैगमेषी नृपधाम नीत्वा । तं स्वादिवृद्ध्या शुभवर्द्धमानं, सुरोप्यनंसीदपहृत्य मानम् ॥१-४९॥ इन्द्र ने पहिले दिव्यांश से पूर्ण अवतीर्ण महापुरुषों को देखा और नैगमेषी नामक देव ने शीघ्र नृपधाम नीत्वा राजाओं के घरों में आकर धनादि की वृद्धि की । प्रारम्भ से ही ज्ञानादि गुणों से पूर्ण महापुरुषों को देखकर, मान को त्याग कर सुरों ने भी नमस्कार किया । महावीर के पक्ष में - नृपधाम नीत्वा ऋषभदत्त के घर से सिद्धार्थ के घर में रखकर, धन-धान्यादि की वृद्धि कर नैगमेषी ने मान त्याग कर, वर्द्धमान संज्ञक ज्ञानादिगुण पूर्ण तीर्थंकर को नमस्कार किया । सातों ही नायकों की जन्मतिथि का वर्णन भी कविने एक ही पद्य में बड़ी सफलता के साथ किया हैं : ज्येष्ठेऽसिते विश्वहिते सुचैत्रे, वसुप्रमे शुद्धनभोर्थमेये । साङ्के दशाहे दिवसे सपौषे, जनिर्जितस्याऽजनि वातदोषे ॥२-१६॥ दोष रहित शांतिनाथ का ज्येष्ठ कृष्ण विश्वहित त्रयोदशी को, ऋषभनाथ का वसुप्रमे चैत्रकृष्ण ८ को, नेमिनाथ का शुद्धनभोऽर्थमेये श्रावण पंचमी को, पार्श्वनाथ का पोषे दशाहे, पौष दशमी को, महावीर का चैत्रेऽसिते विश्वहिते चैत्रशुक्ला त्रयोदशी को, रामचन्द्र का चैत्रेसिते सांके चैत्र शुक्ला नवमी को और कृष्ण का असिते वसुप्रमे भाद्रकृष्णा अष्टमी को, रागादि विजेताओं का जन्म हुआ । अनेकार्थ और श्लेषार्थ प्रभावित अत्यन्त कठिन रचना को भी कविने अपने प्रगाढ पाण्डित्य से सुललित और पठनीय बना दिया है । इस मूल ग्रन्थ का प्रथम संस्करण (स्वर्गीय न्यायतीर्थ व्याकरणतीर्थ पण्डित हरगोविन्ददासजी ने सम्पादन कर) जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, वाराणसी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३५ से सन् १९१७ में प्रकाशित हुआ था । इस कठिनतम काव्य पर टीका का प्रणयन भी सहज नहीं था किन्तु आचार्य श्री विजयअमृतसूरिजी ने सरणी टीका लिखकर इसको सरस ओर पठन योग्य बना दिया है । यह टीका ग्रन्थ जैन साहित्य वर्धक सभा सूरत से वि.सं. २००० में प्रकाशित हुआ था । पाठक इस टीका के माध्यम से कवि के हार्द तक पहुँचने में सफल होंगे । C/o. प्राकृत भारती १३-A. मेन मालवीयनगर, जयपुर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयनो तकाजो : साम्प्रदायिक उदारता भारतवर्ष ए हिन्दू संस्कृतिने वरेलो देश छे. आ देशमां अनेक धर्मो अने सम्प्रदायो पांगर्या छे. आ देशमा जैन, बौद्ध, वैदिक जेवा प्राचीनतम धर्मो पण प्रवर्ते छे; इस्लाम अने ईसाई सरीखा आगन्तुक धर्मो पण प्रवर्ते छे, अने स्वामीनारायण सम्प्रदाय जेवा अर्वाचीन धर्मसम्प्रदाय पण प्रवर्ते छे. इतिहासकाळमां तेमज मध्यकाळमां विविध धर्मो तथा सम्प्रदायो वच्चे तेमज पोतपोताना पेटा-सम्प्रदायो वच्चे वाग्युद्ध, शास्त्रार्थ, तेमज एक बीजाने नबळा पाडवा-देखाडवा माटेना चमत्कारिक तरीका - आ बधुं बहु चाल्या करतुं. परन्तु समयना बदलाता प्रवाह साथे ए बधा विवादो खोरंभे पडता गया के वीसराता गया छे. स्वातन्त्र्योत्तर समाजमां तो आवी वातो शरमजनक के संकुचित / विसंवादी मानसनी द्योतक ज गणावा मांडी छे. २००-२५० वर्षोथी प्रवर्तेला स्वामीनारायण सम्प्रदाये आजे तो देशभरमां, बल्के वैश्विक क्षेत्रे मोटुं गजुं काढ्युं छे. पोतानां श्रेष्ठ स्थापत्यना नमूना समां मन्दिरो द्वारा, शैक्षणिक गुरुकुलो द्वारा, तथा मानवसुधारणालक्षी सत्संगो द्वारा ते सम्प्रदाय खासो लोकप्रिय बन्यो छे, जे भारतीय संस्कृतिना सन्दर्भमां एक नोंधपात्र घटना गणी शकाय तेम छे. ___आवा आ सम्प्रदायनो पण ज्यारे आरंभ थयो, त्यारे परचा अथवा स्थूल चमत्कारो द्वारा लोकसंग्रहनी प्रवृत्तिनुं प्राधान्य हतुं, एम तेनो इतिहास तपासतां स्हेजे समजाय तेम छे. स्वाभाविक रीते ज, तेनी सामे, प्रणालिकागत धर्म-सम्प्रदायोना लोकोए, प्रतिक्रिया दर्शावी हशे, दा.त. वि.सं. १९५० थी १९६० आसपासना समयगाळामां पंजाबी जैन मुनि दानविजयजी तथा मुनि नेमविजयजी (पाछळथी प्रसिद्ध आचार्य विजयनेमिसूरि) जेवा विद्वान तथा वैरागी जैन साधुओने स्वामीनारायण सम्प्रदायना पण्डितो तथा संतो साथे शिक्षापत्री वगेरे परत्वे शास्त्रार्थ करवाना एकाधिक प्रसंगो नोंधायेला मळे छे, जेमां विपक्षना विद्वानोनो पराभव ज थयेलो. साव स्वाभाविक छे के आवी परिस्थितिथी छेडायेला ते पराभव पामेला तत्त्वो, केटलीक कपोलकल्पित कथा उपजावी काढे, अने पोते Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 अनुसन्धान ३५ जीत्या छे ने सामेवाळा पोताना शरणे आव्या छे ते जातनी वार्ता चलावे. मध्यकाळमां आवुं घणुं बनतुं. ते ज प्रकारनुं आ सन्दर्भे पण बन्युं छे. उपरोक्त जे जैन मुनिओए स्वा.ना. पन्थीओने परास्त करेला, ते जैन मुनिने स्वा. ना. संतोए केवा परचा बतावीने चाट पाड्या तेनी पण एक सरस कविता / कथा ते पन्थमां बनी गई हती. मान्युं. आवी रीते पण बदलो लीधानो आत्मसन्तोष तो मळे ! परन्तु वीसमी सदीनी ए वातो, जे वीसमी सदीना जूनवाणी अने संकुचित मानसवाळा युगमां ज शोभे तेवी छे ते, आजे जाहेरमां विवरण साथे छपाय, तो मां कोई सम्प्रदायनी मोटाई नथी थती के वधती; बल्के हीनता ज भासे छे. आ दृष्टिकोणने लक्ष्यमा राखीने ज, ज्यारे श्रीविजयनेमिसूरिजीनुं विस्तृत जीवनचरित्र आलेखवानो वखत आव्यो त्यारे, आ लखनारे ज स्वा.ना. सम्प्रदाय साथेना शास्त्रार्थ तथा तेमना पराजयवाळा, धार्मिक क्लेश के संघर्ष वधारे तेवा प्रसंगोनुं विवरण लखवा- छपाववानुं टाळेलुं; छेक संवत २०२९-३०मां. समन्वय अने सहिष्णुताना आ युगमां भूतकाळनी आवी घटनाओनुं झाझुं महत्त्व न होय, एवं दृष्टिबिन्दु ज आनी पाछळ काम करी गयेलुं. अने आ क्षणे मारी समक्ष एक पत्रिका पडी छे : ज्ञानोदय. श्रीस्वामिनारायण गुरुकुल गान्धीनगर द्वारा प्रकाशित थती त्रिमासिक पत्रिकानो आ जुलाई २००४नो अंक छे. तेमां स्वा. ना. संत गोपालानन्दस्वामीनुं वर्णन लखतां तेना लेखक पुराणी स्वामी हरिप्रियदासे जे कथा लखी छे ते अक्षरशः आ प्रमाणे छे : "बोटादना नगरशेठ भगादोशी हता. तेओ जैन हता. तेओ सत्संगी थया हता. तेमने जैनना नेमिविजयजीए कह्युं के 'आ पांचमा आरामां भगवान होय ज नहीं, तमे स्वामिनारायणमां विशेष शुं जोयुं ? तेमने अहीं बोलावो. हुं तेने जोई लइश ! तमारो सत्संग मुकावुं तो ज हुं जैनमुनि साचो !' भगादोशीए गोपाळानन्द स्वामीने माणस मोकलीने बोलाव्या. तेथी स्वामी साळंगपुरथी गाडी जोडावी तुरत बोटाद आव्या. ते समये नेमिविजयजी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 77 उपाश्रयना द्वारमां बे हाथे बे तरफनी साख झालीने ऊभा हता. स्वामी गाडीमांथी हेठा ऊतर्या. एटलामां माणसनी मेदनी भराई गई. स्वामीए जैन मुनिने शान्तिथी पूछ्युं के "तमे अमारा सत्संगीओने केम संतापो छो ?" त्यारे तेणे करडाईथी का के "तमे कोण छो ?" स्वामी कहे "अमे जगतना जीवना भगवान छीए" ! त्यारे कां के "स्वामिनारायण कोण छे?" स्वामी कहे "ते तो अमारा पण भगवान छे." तेथी जैन मुनिए हांसी करी कर्वा के "तमारुं भगवानपणु बतावो एटले हुं जोउं तो खरो." स्वामीए ओटला उपर बेसी तेनी सामे दृष्टि सांधी, जैन मुनिनी आंखो स्थिर थई गई. बन्ने हाथ बारणांनी साखो पर चोटी रह्या. केटलाक जैन कहेवा लाग्या के "स्वामी जादुगर छे, तेमणे चोट नाखी छे." एम केटलोक वखत वीत्यो त्यारे लोकोए कह्यु के "जैन मुनिनी आ स्थिति छोडावो." तेथी स्वामीए तेमनी उपर दृष्टि करी एटले शुद्धिमां आव्या, तरत दोडीने स्वामीना पगमां पड्य ने कह्यं के तमे समर्थ छो, मारो अपराध क्षमा करो, हुं आजथी तमारा सम्प्रदायनी निन्दा नहीं करूं." "जैनोए मुनिने पूछ्युं त्यारे कडं के "में समाधिमां तीर्थंकरोना दर्शन कर्यां. तेमणे आ महापुरुषोनी महत्ता मने कही छे. शुद्धिमां आवतां पहेलां मने यमपुरीनुं दर्शन थयु. यमदूतोथी घणी वेदना सहन करवी पडी छे." ए पछी त्यां सत्संग वध्यो अने भगादोशीनी प्रतिष्ठा पण वधी." (ज्ञानोदय-त्रिमासिक, जुलाई '०४, पृष्ठ १३-१४ प्रका. स्वा.ना. गुरुकुल,सेक्टर-२३, गान्धीनगर) सम्प्रदायनो महिमा वधारवा माटे, जे ते समयना उत्तम अने प्रख्यात महानुभावोने सांकळी लईने, परचा-चमत्कारोना मरी-मसालाथी सभर, केवी मजानी कथाओ नीपजावी काढवामां आवे छे, ते उपरोक्त कथा वांचतां कल्पी शकाशे. वास्तविकता ए छे के श्री विजयनेमिसूरिना जीवनमां आवो कोई प्रसंग बन्यो ज नथी. तेमना चरित्रना अभ्यासी तथा लेखक तरीकेना अधिकारथी पण हुं कही शकुं के बोटादना तेमना विहार तथा रोकाण दरम्यान आवो कोई ज विवाद के प्रसंग बन्यो नथी. तेमना अन्तेवासी श्रीविजयनन्दनसूरिजी, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुसन्धान ३५ जे पोते बोटादना ज हता अने आचार्यश्रीना बोटाद-निवास वखते उपस्थित हता, तेमनी जाणमां पण आवी कोई घटना बनी होवानुं जाण्युं नथी. एक महत्त्वनी वात ए छे के नेमिविजयजी स्वयं आ प्रकारना यौगिक चमत्कारो करी शके तेवी विभूति हता. महम्मद छेल नामना जादुगरे साधु-संतोने हेरान करवा मांड्या त्यारे तेमणे ते जादुगरने, बोटादमां ज, यौगिक शक्तिनो परचो बताडी, हवे पछी कोई पण धर्म-सम्प्रदायना साधुसंतोने न रंजाडवा तेनी पासे वचन लीधेलुं. परन्तु, ते पोते वीतरागना मार्गना उपासक वीतरागी-वैरागी जैन साधु हता. पोताना भक्तवर्गनी तथा मतनी वृद्धि काजे पोतानी यौगिक शक्तिनो विनियोग करे तेवी निम्न कक्षाना तेओ नहोता. हा, कोई जैन, मात्र परचाओथी खेंचाई जईने जैन धर्म तजी अन्य पन्थमां जतो होय तो, तेने बोलावीने तेमणे समजाववानी महेनत जरूर करी होय; अने ते तो कोई पण धर्माचार्य करे; परन्तु तेमणे नगरशेठने संताप्या, अने पछी अन्य स्वामीना आवा खोफना पोते भोग बन्या - ए वगेरे वातो तो मात्र कल्पना शक्तिनी नीपज छे - नरी अवास्तविक ! सार ए ज के साम्प्रदायिक व्यवहार-व्यवसायनी दृष्टिए आवी काल्पनिक वार्ताओ बनाववी पडी होय, तो पण, वर्तमानना उदार, समन्वयवादी तथा सहिष्णु काळमां तेवी वातोनो आ रीते प्रचार कर्या करवो, ते सम्प्रदायनी बाह्य उन्नतिनी तुलनामां भीतरी दृष्टिनो विकास के उघाड बहु ओछो थयो होवानी दहेशत ज रे तेम छे. शी० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूंक नोंध : (१) निष्कुळानन्दकृत शियळनी नव वाडनां पदो विषे निष्कुळानन्द ए स्वामिनारायण सम्प्रदायना संत अने कवि हता. १९मा सैकामां ते थई गया. तेमणे सम्प्रदायनी दृष्टिए प्रभुभजननी हजारो रचनाओ रची छे, अने उत्तम कवि तरीके तेमनी ख्याति छे. जैन न होवा छतां तेमणे जैन धर्मनां शास्त्रोमां वर्णवेल ब्रह्मचर्यनी ९ वाडो विषे ढाळियां (पदो) बनाव्यां छे. तेमां दरेक ढाळमां भगवान महावीरनुं नाम तथा तेमणे वर्णन करेलुं छे ते ज प्रमाणे ते ते वाडना विषयनुं गेय-काव्यमय निरूपण बहु रुडी रीते कर्तुं छे. आ रचना ई. १९१६ना जैन श्वे. को. हेरल्ड नामे सामयिकमां (पु. १२, अंक ८- ९ - १०) मोहनलाल दलीचंद देशाईए प्रगट करी छे : 'जैन धर्मनो अन्य धर्मोमां उल्लेख' एवा पेटाशीर्षक हेठळ. जोके स्वा. ना. सम्प्रदाय द्वारा प्रकाशित निष्कुलानन्दनी रचनाओना सर्वसंग्रह जेवां पुस्तकोमां आ रचनानो समावेश थयेलो जोवा मळ्यो नथी. पण ते तो साम्प्रदायिक व्यवस्था होय ने ! ओमां कवि अने तेनुं साहित्य कांई प्रधान न होई शके ! अस्तु. (२) नेशनल मिशन फोर मेन्युस्क्रिप्ट विषे भारत सरकारना सांस्कृतिक मन्त्रालय द्वारा प्रायोजित आ मिशनना उपक्रमे, जे कोई संस्था आ व्यक्ति पासे, हस्तलिखित प्रति जेवी सामग्री होय तेनी सूचि, मान्य संस्थाने आपवानी सूचना जारी करवामां आवी छे. आ सामग्रीनुं केन्द्रित सूचीकरण थाय तो तेनो उपयोग थई शके अने ते देशबहार जती रोकाय, तेवो आशय होवानुं पण जाणवा मळे छे. , गुजरातनो सम्बन्ध छे त्यां सुधी आवी सामग्रीना नाना-मोटा केटलाक संग्रहो जैनो पासे पण छे. तेनी सारसंभाळ जैन संघो के मुनिओ द्वारा थती होय छे. वर्तमानपत्रो द्वारा आ कार्यक्रमनी जाण थया पछी, केटलाक मुनिराजोए आ कार्यक्रमना भीतरी हेतुओ विशे जाणकारी प्राप्त करवाना उचित प्रयास कर्या, पण सन्तोषजनक समाधान न मळ्युं. सवाल ए हतो के ई. १९७२ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अनुसन्धान ३५ ना इण्डियन एण्टिक्विटी एक्ट हेठळ, पुरातन तमाम प्रकारनी सामग्रीनी नोंधणी सरकारी कार्यालयोमा करावी देवामां आवी ज छे; मूल्यवान हस्तप्रतोनो पण तेमां समावेश थयो ज छे; तो आ नवो कार्यक्रम शा माटे ? बीजो सवाल ए पण हतो के - भारतना विविध प्रान्तोमांथी हजारो-लाखो प्रतो देश-विदेशमां वेचाई गई - विगत थोडां वर्षोमां, अने हजीये जेमनो आवी चीजोनो धंधो छे तेओ तो आवी सामग्री सम्पादन करीने वेचतां ज होय छे, बल्के हमेशां वेचतां ज - चोरतां ज रहेशे; तेमने रोकवा माटे भाग्ये ज कोई यन्त्रणा के प्रयत्न छे; तकलीफ तो जेओ सेंकडो वर्षोथी आ सामग्री परम्परागत साचवे छे तेमने ज पडशे. ढूंकमां, सरकारी यन्त्रणा तथा कार्यक्रममा भाग्ये ज कोई विश्वास मूकी शके तेम छे. आजे विनंति करे, छतां जिल्ला कलेक्टरना तुमाररूपे ते विनंति होय; तो काले 'तमे बराबर संभाळी शको तेम नथी' एम कहीने सरकारी कचेरीओ आ सामग्री पडावी लेशे नहि तेनी शी खातरी ? - आवी दहेशत व्यापक छे, जेनो कोई जवाब मळे तेम नथी. बीजुं, एकवार सूचिनोंध आपी देवाई, पछी तेमां कोई ऊधई आदि कारणे २-४ प्रतोमां फेरफार थाय, तो पेलुं जड तन्त्र-जेना तान्त्रिको वारंवार बदलाया करवाना ते- केटली हेरानगति करे? - आवी अनुभवजन्य दहेशतोनो कोई जवाब मळे पण नहि. आथी, शकेश्वरमां ता. १९-२-०६ना रोज एकत्र मळेला केटलाक जवाबदार तथा विद्वान जैन आचार्यादि मुनिराजोए, एक प्रस्ताव द्वारा, आ कार्यक्रममां भाग लेवानी, जैन संघो वगेरेने मनाई फरमावी छे. आ मुद्दो धार्मिक लागणीनो नहि, पण परम्परागत सांस्कृतिक धननी रक्षानो छे, अने आना हजी पण घणाबधां पासां छे, ते लक्ष्यमां राखीने ज आ बाबत विचारवा भलामण छे. सरकार ज रक्षा करे, अथवा सरकार करे ते ज रक्षा होय, तोज रक्षा थाय, एवी भ्रमणामां फसावा जेवू नथी ज. हजारो के सेंकडो वर्षोथी बधुं सचवायुं छे ते बाबत पण नजरंदाज करवी न जोईए. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 81 ३. मुखपृष्ठ-चित्र विषे . सत्तरमा शतकनी एक कलात्मक धातुप्रतिमानुं आ चित्र छे. जैन तीर्थंकरनी पंचतीर्थी-प्रकारनी प्रतिमानुं आ परिकर छे, तेमां अलगथी मूकवानी जिनप्रतिमा अत्यारे अलभ्य छे तेम जाण्युं छे. कला-धातुकलानी दृष्टिए बहु सरस नमूनो जणातां ते अत्रे आपेल छे. तेना पर वंचातो लेख आ प्रमाणे छे : अलाइ ४५ संवत १६५६ वर्षे वैशाख शुदि ७ बुधे वृद्धशाखायां मोढज्ञातीय स्तम्भतीर्थवास्तव्य ठ. कीका भार्या वंनाइनाम्न्या सुत ठ. काला, लालजी, हीरजी प्रमुखकुटुम्बयुतया स्वश्रेयसे स्वयं प्रतिष्ठा कारापणपूर्वकं श्रीकुन्थुनाथबिम्बं कारितं प्रतिष्ठितं च तपागच्छे श्रीविजयदानसूरि पट्टधारिपातसाहि श्रीअकब्बर प्रदत्त जगद्गुरुबिरुदधारक-पातसाहि अकबरप्रतिबोधनसम्पादित सकलजीवाभयदान प्रवर्तन श्रीहीरसूरि पट्टालङ्कार-गो-महिष-महिषी वधनिवर्तन - बन्दिग्रहणमोचन स्फुरन्मानकारक-श्रीशत्रुञ्जयतीर्थकरनिवारकपातसाहि श्री अकब्बर सभासमक्षलब्धजयवाद-भट्टारक श्रीविजयसेनसूरिभिः । ऐतिहासिक अनेक विगतो धरावतो आ लेख छे. आमां सं. १६५६मां इलाही सन ४५ होवाचं जाणवा मळे छे. मोढ ज्ञाति मूळे जैन होवानुं तो सिद्ध छे ज, पण १७मा शतकमां पण ते जैनधर्मी होवानुं जाणी शकाय छे. एक श्राविकाए पोते प्रतिष्ठानो उत्सव खम्भातमा कराव्यानी विगत आमां सांपडे छे. अकबरने धर्मबोध आपीने तेना द्वारा गोवध तथा महिष-महिषी (भेंस-पाडा) वधनो निषेध, आमां निर्दिष्ट जैन आचार्योए कराव्याना ऐतिहासिक बनाव, आमां बयान छे. शत्रुञ्जय तीर्थनी यात्राए जनारे भरवो पडतो करवेरो (जजीया वेरो ?) बंध कराव्यानो पण उल्लेख आमां छे. फरमान माटे 'स्फुरन्मान' एवो जैन संस्कृतनो शब्द-प्रयोग पण आमां जोई शकाय छे. आ प्रतिमा कोई व्यक्तिना निजी संग्रहमां छे. मूळे तो ते एक तीर्थस्थानमा हती. वर्षो पहेला आवी अनेक मूर्तिओ, शंखलपुर वगेरे संघोने माटे साचववी शक्य न होवाथी, सम्पादन करवामां आवेली तथा उचित प्रबन्धपूर्वक साचवेली. ताजेतरमां, गमे ते कारणसर, तेमांनी केटलीक सामग्री Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 अनुसन्धान ३५ काढी नाखवामां आवतां, आ व्यक्तिए पण एमांनी अमुक मूर्तिओ वेचाण लीधी हती. आ प्रतिमा ते पैकीनी ज छे. आवी उत्तम वस्तुनो आ रीतनो निकाल करवानी प्रेरणा कोने-क्यांथी- शी रीते मळी हशे ? आपणी आवी अज्ञानप्रेरित तथा अणघड प्रवृत्ति ए सरकारी तन्त्रने N.M.M. जेवा कार्यक्रमो माटेनुं प्रेरकबल बनी न रहे ? अस्तु. शी० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिती (१) १. निशीथचूर्णि : आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजीए तैयार करेल प्रेसकोपीना आधारे आ चूर्णिग्रन्थ- प्रकाशनलक्षी सम्पादन मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी तथा दिव्यरत्नविजयजी करी रह्या छे. २. व्यवहारसूत्र : नियुक्ति भाष्य, तथा मलयगिरीया वृत्तिसमेत आ आगमग्रन्थ- श्रीपुण्यविजयजीनी सामग्रीना आलम्बने प्रकाशनलक्षी सम्पादन, आ. श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी द्वारा थई रह्यं छे. ३. कुवलयमाला कथा : दाक्षिण्याङ्क श्रीउद्योतनसूरिकृत आ प्राकृतकथाग्रन्थ- संस्कृत छाया बनाववापूर्वक सम्पादन पं. श्री अजितशेखरविजयजी तथा मुनि विमलबोधिविजयजी करी रह्या छे. ४. इन्स्टिट्यूट ऑव जैनोलोजी (U.K.)तथा ब्रिटीश लायब्रेरीना संयुक्त आश्रये, ब्रिटनमांनी जैन हस्तप्रतोना वर्णनात्मक सूचिपत्रना त्रण ग्रन्थो, डॉ. नलिनी बलवीर अने अन्योए मळीने तैयार कर्या छे. तेनुं विमोचन ता. २७ मे, २००६ना रोज दिल्ली मां वडाप्रधान डॉ. मनमोहनसिंघना हस्ते योजायेल छे. _(२) नवां प्रकाशन : विधिमार्गप्रपा : कर्ता : जिनप्रभसूरि, सम्पादन अने हिन्दी अनुवाद : साध्वी सौम्यगुणाश्री, प्रका. श्रीमहावीरस्वामी जैन देरासर ट्रस्ट, मुम्बई. ई. २००५ १४मा शतकना प्रभावक जैनाचार्य श्रीजिनप्रभसूरिए रचेलो आ विशिष्ट विधिग्रन्थ, ई. १९४१ मां पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादितप्रकाशित थयेलो, जे अत्यारे अलभ्यप्राय हतो; तेनुं आ सुघड अने सरस पुनः प्रकाशन छे. आमां सम्पादक साध्वीश्रीए आखा ग्रन्थनो हिन्दी अनुवाद तैयार करी मूक्यो छे, तेथी पाठको माटे घणी सुविधा थई गई छे. आ ग्रन्थमां साधुओनी सामाचारी, योगोद्वहनविधि, प्रायश्चित्त विधि वगेरे तेमज उपधान अने प्रतिष्ठा आदिना विधिओ, तपावली आदि आदि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 अनुसन्धान ३५ अनेक विधिविधानोनुं विशद प्रतिपादन थयुं छे, जेथी आ ग्रन्थ श्वेताम्बर संघमां बहुमान्य ग्रन्थ बन्यो छे. श्रीजिनप्रभसूरिजी खरतरगच्छना गच्छपति हता, अने सम्पादक साध्वीश्री पण ते ज गच्छनां छे, एटले स्वाभाविक रीते ज ग्रन्थकारना जीवन-कवननो विस्तृत आलेख, आरम्भनां पृष्ठोमां अपायेल छे. परन्तु जिनप्रभाचार्यनो तपगच्छपति श्रीसोमप्रभाचार्य प्रत्ये बहुज प्रेम अने आदरभर्यो गुणानुराग-सम्बन्ध हतो, तथा तेमणे सोमप्रभाचार्यना अनुपम गुणोथी आकर्षाईने पोतानो स्तोत्रसंग्रह तेमने अर्पण करेलो, ते ऐतिहासिक तेमज पारस्परिक सद्भावने वधारनारी घटनानो उल्लेख सुद्धा करवानुं सम्पादिकाए केम टाळ्यु हशे, ते न समजाय तेवू छे. परम्पराप्राप्त गच्छवादी मानस अने अन्य गच्छ प्रत्येनी अरुचि आमां कारण होय ए तो बराबर छे, परन्तु ते कारणे जिनप्रभाचार्य जेवा उदार अने गुणानुरागी पुरुषने अन्याय थई जाय छे, ते मुद्दो केम नजरअंदाज थाय ? बीजी वातः प्रायश्चित्तविधिना प्रकरणनो हिन्दी अनुवाद जे आमां छाप्यो छे ते, केटलाक प्रवर्तमान संयोगो प्रति दृष्टिपात करतां, ओछु उचित लागे छे. एटलो भाग अनुवाद वगरनो ज मूलमात्र छपायो होत तो वधु उचित थात. अभ्यास अने अनुवाद भले थाय, पण जेटलुं लखाय ते बधुं ज छपाववानो आग्रह, ओछामां ओछु साधुपदधारी माटे तो, वाजबी नथी लागतो. ___बाकी एकंदरे सुन्दर अनुवादः सरस प्रकाशन : साध्वीशक्तिनो सरस विनियोग करवामां आवे तो आवां उत्तम ग्रन्थरत्नो समाजने मळे. (३) आचाराङ्गसूत्र-बालावबोध (प्रथम श्रुतस्कन्ध), कर्ता : श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि; सं. उपाध्याय भुवनचन्द्र तथा अमृत पटेल; प्र. श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि साहित्य प्रकाशन समिति, नानी खाखर (कच्छ); ई. २००५. श्रीपार्श्वचन्द्रगच्छ प्रवर्तक आचार्य श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि (सत्तासमय - सं. १५३७-१६१२) ए विविध जैनागमो उपर बालावबोधनी रचना करी छे. आगमोनुं अध्यय करवाना जिज्ञासुओ, जेमने माटे संस्कृत दुर्बोध होय अने Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 फेब्रुआरी - 2006 छतां जेमने जिनागमनुं तत्त्वपान करवानी तीव्र जिज्ञासा होय ते लोको माटे आ बालावबोध खूब उपकारक बने-बनी रहे तेमां कोई शंका नथी. बालावबोध एटले संस्कृत-प्राकृतना अनभिज्ञ एवा लोकोने पण समजाय तेवी लोकभाषामां रचायेलो, मूळ ग्रन्थनो अनुवाद. १६मा शतकना अनुवादकनी गुजराती के पछी मारुगूर्जर कहीए ते भाषा केवी हती, तेनो स्पष्ट, विस्तृत आलेख/परिचय आ बालावबोध ग्रन्थना वाचनथी सांपडी रहे छे. आजे आपणे गुजराती भाषानो जे विकास साध्यो छे ते जोतां आपणा माटे तो आ 'बालावबोध' पण अनुवाद के विवरण मांगी लेती दुरूह रचना ज गणाय तेम छे. परन्तु मध्यकालीन भाषा तथा साहित्यना जाणकारो माटे तो आवा ग्रन्थ ए दुर्लभ अभ्यासग्रन्थ बनी रहे तेम छे. वर्षोथी आ प्रकाशननी प्रतीक्षा थती हती. सम्पादकोए ऊंडी सूझबूझ पूर्वक आ सम्पादन कर्यु छे. सुघड अने प्रमाणमां शुद्ध कही शकाय तेवू प्रकाशन थयुं छे. श्री पार्श्वचन्द्रसूरिरचित बालावबोधना अन्य ग्रन्थो तेमज आचाराङ्गना द्वितीय श्रुतस्कन्धनो बालावबोध-ग्रन्थ पण सम्पादको हवे वेलासर आपणने तैयार करी आपे तेवी अपेक्षा तथा अनुरोध होय ते सहज ज छे. ग्रन्थारम्भे आपेल विस्तृत प्रस्तावना लेख द्वारा ग्रन्थनी परिचय तेमज ग्रन्थकारनी भाषानो पण परिचय आपवानो सम्पादकोनो प्रयास छे. तो प्रान्तभागे परिशिष्टरूपे आपेल शब्दसूचि ए आ सम्पादनना एक महत्त्वपूर्ण अने उपयोगी आभूषण समान बनी गई छे. (४) पुस्तक विमोचन समारोह तथा संगोष्ठिः आचार्य श्रीबुद्धिसागरसूरि द्वारा विरचित पञ्चग्रन्थि-व्याकरण, जे एकमात्र प्राप्त छन्दोबद्ध व्याकरण छे; नुं विमोचन ४ मार्च, २००६ना रोज जाणीतां विदुषी डॉ. श्रीमती कपिला वात्स्यायनना शुभ हस्ते इन्डिया इन्टरनेशनल सेन्टर, नवी दिल्ली मुकामे थयु. आचार्य बुद्धिसागरसूरि ई.स. ९८१-१०२५मां थई गया हता. आ व्याकरण- सम्पादन विद्वान् डॉ. नारायण म. कंसाराए कर्यु छे अने तेनुं प्रकाशन बी. एल्. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 दिल्ली द्वारा थयुं छे. विमोचन दरम्यान BLII ना स्थापक प्रमुख श्री प्रताप भोगीलाल पण उपस्थित हता. बीजा सत्रमां पञ्चग्रन्थि - व्याकरण विषे ज एक संगोष्ठिनुं आयोजन करवामां आव्युं हतुं. आ संगोष्ठियां ला. द. विद्यामन्दिर, अमदावादना नियामक डॉ. जितेन्द्र बी. शाह, प्रा. वासुदेव घुषे, डॉ. नारायण म. कंसारा, प्रा. जयदेव जानी, डॉ. ललितकुमार त्रिपाठी, डॉ. चन्द्रभूषण झा अने डॉ. अशोककुमार सिंघे भाग लीधो हतो. डॉ. मिथिलेश चतुर्वेदीए संगोष्ठिनुं समापन कर्तुं हतुं. बंने सत्रोनुं संचालन श्री एस. के. जैन तथा डॉ. बालाजी गणोरकरे कर्यं हतुं. अनुसन्धान ३५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 87 (५) शुद्धिवृद्धि म. विनयसागर द्वारा सम्पादित वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः (अनु. ३४) नी टिप्पणीमां छापवो रही गयेलो अंशः (पृ. २१, टि.क्र. १९ अने ते पछी उमेरो) १९. एकोनविंशत्यक्षर छन्दका नाम है - मेघविस्फूर्जिता । लक्षण है - |ऽऽ, ऽऽऽ, III, IIS, SIS, SIS, 5, यगण, मगण, नगण, सगण, रगण, रगण, गुरु । २०. विंशत्यक्षर छन्द का नाम है - शोभा । लक्षण है – ।ऽऽ, ऽऽऽ, Ill, III, 551, 551, 5,5-यगण, मगण, नगण, नगण, तगण, तगण, गुरु, गुरु । (अनु. ३४, पृ. ३५, पं. ६) अशुद्ध संवत् १७५ संवत् ९७५ पृ. ३८, पं. १५ किया की है किया ही है Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहंगावलोकन उपा. भुवनचन्द्र अनु० ३४मा म. विनयसागरजी द्वारा सम्पादित संस्कृत स्तुतिओ १५ पृष्ठमां पथराई छे. चार पृष्ठ जेटली भूमिकामां सम्पादके जाणवा जोग विगतो एकत्र करीने मूकी छे - सम्पादकश्रीना आ परिश्रमनुं अनुकरण प्राचीन कृतिओना सम्पादन - संशोधनक्षेत्रे सर्वेए करवा जेवुं छे. विषयनी समानता छतां छन्द - अलंकार - कल्पनाना वैविध्यथी रसमयता अबाधित रहे छे. वर्णानुप्रास - अन्त्यानुप्रासनुं निर्वहण अन्त सुधी अति सहजताथी कविवर करी शक्या छे- ए तेमना प्रौढ पाण्डित्यनुं सूचक छे. स्तुति १, श्लोक २ मां 'यै:' मां विसर्ग न जोइए. 'यै' (लक्ष्मी माटे) चतुर्थ्यन्त पद छे. स्तु. १३, श्लो. ४मां 'करन्ती' जेवो प्रयोग 'निरंकुशा: कवयः' ए उक्तिने सार्थक करे छे. स्तु. २५, श्लो. २ मां 'सुरतं' छे त्यां गण अनुसार प्रथम दीर्घ वर्ण होवो जरूरी छे. माटे पाठवाचनमां भूल होवानी शक्यता छे. त्रीजा श्लोकमां ० भृतमध्य० ने स्थाने ० भृतमध्यं होय तो छन्दनी दृष्टिए पाठ शुद्ध बने. स्तु. २४, श्लो. ४मां सकर्णावलीनुतलक्षणः एवो समास वांचवाथी अर्थ बेसे छे. कवि मोटा भागे ओछा प्रचलित छन्दो वापर्या छे. प्रशस्तिमां कवि कहे छे : "प्रत्येक जिनेश्वरनी संख्या अनुसार वधता अक्षरोवाळी अने अनुप्रासालंकारमय एवी, चोवीश तीर्थंकरोनी, पूर्वना कोई आचार्ये न रची होय तेवी स्तुतिओ मात्र विनोद अर्थे मारा वडे रचाई...” मेधावी जनोनो विनोद पण हेतुलक्षी होय छे, अने ऊर्जा सर्जनात्मक होय छे. अकिंचन तपस्वी मुनिजनो नीरस - रिक्तहृदय नथी होता, तेमना रसस्रोत भिन्न प्रकारना होय छे. एवा रसस्रोतोमांथी ज आवी कृतिओ प्रवाहित थती होय छे आवुं घणुं घणुं आ प्रकारनी कृतिओमांथी तारवी शकाय. सम्पादके परिशिष्टमां वृत्तोनां गण, नाम वगेरे आप्यां, ते साथे दरेक छन्दोनी यतिओनी विगत पण नोंधी होत तो छन्दोनी गानपद्धति समजवामां सहायक बनत. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 89 'जातिविवृति' नामक रचना न्यायदर्शनना एक ग्रन्थ पर जैन मुनि द्वारा रचायेलु टिप्पण छे. साहित्यक्षेत्रे जैन श्रमणोनी उदार चेतनानी परिचायक आ एक वधु कृति बहार आवी. जेनी पासे तर्ककर्कश मेधा होय अने तेने पण वधु तीक्ष्ण बनाववी होय तेमना कामनी आ रचना छे. प्रशस्तिना बीजा श्लोकमां कहेवायुं छे : “सांप्रतकाळे पृथ्वीतट पर गुरुगुणो थकी जे श्री गौतमस्वामी जेवा बनी रह्या छे अने जेमनी तुलना सेनशिष्यविजय नामना सूरि साथे ज करी शकाय एवा. श्री हीरसूरि..." विजयसेनसूरिनो ज उल्लेख छे ए स्वयंस्पष्ट छे. कर्ता 'सेनशिष्यविजय' एवो विचित्र प्रयोग करे नहि ए पण देखीतुं छे. 'शिष्यसेनविजयाह्नः' होवू जोइए अने तेम करवामां छन्दोभंग पण नथी. सेनशिष्यविजया० एवो पाठ लिपिकारनी सरतचूकथी आव्यो होय ए ज एक शक्यता छे. सम्पादके आ पाठ अंगे कशें जणाव्युं नथी.. 'भुवनसुन्दरी कथा' ग्रन्थमा छपायेल तेना सम्पादकश्रीनो अभ्यासलेख आ अंकमां प्रगट करवामां आव्यो छे ते आवकार्य छे. मारी ज वात करूं तो प्रस्तुत ग्रन्थ मारा हाथमां आवी चूक्यो छे छतां समयाभावे तेनुं अवलोकन हुं करी शक्यो नथी. अनु०मां आ अभ्यासलेख वांचवाथी ग्रन्थनी विशिष्टताओनो ख्याल आव्यो. . लेखमां संकलित बिन्दुओर्नु समग्रतया परिशीलन करतां मनःकामनापूर्ति माटे नमस्कार मन्त्रनो उपयोग, देवी-देवताओनी उपासना वगेरे वस्तुओ धार्मिक शिथिलताना युग तरफ इंगित करे छे. ग्रन्थमां वपरायेला दद्दर (दादरो), .भरवसो (भरोसो), पिंडारा (पिंढारा) जेवा शब्दो अने 'करमेधरमे', 'साप मरे नहि अने लाकडी भांगे नहि' जेवा रूढिप्रयोगो तो प्राचीन गुजराती अथवा अपभ्रंशना प्रभावनुं सूचन करे छे. कापालिक सम्प्रदायनो अने तेमना क्रियाकाण्डनो वारंवार थतो उल्लेख ग्रन्थकर्ताना तद्विषयक व्यक्तिगत रस अने कदाच अनुभवने सूचित करे छे. आ वात कर्ताना यतिजीवननी सम्भावना दर्शावे छे. यद्यपि आ बधुं अभ्यासलेखमां चर्चित विगतोना परिप्रेक्ष्यमां लख्युं छे. कृतिनुं सर्वांगीण अध्ययन थq बाकी ज छे. आ प्रकारना ग्रन्थोना अध्ययनथी संघ-समाजना इतिहासनी अस्पष्ट रहेती रेखाओ स्पष्ट थवामां Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 अनुसन्धान ३५ सहायता मळे छे. तेथी ज आवा ग्रन्थोनुं प्रकाशन इच्छनीय अने आवश्यक बनी रहे छे. प्रख्यात अने लुप्त कृति 'तरङ्गवती' तथा तेना रचयिता पादलिप्तसूरि जैन परम्पराना न हता एवी स्थापना गुजरातना एक गण्यमान्य इतिहासविद द्वारा थई छे, तेनो सांगोपांग अने स्वस्थ प्रतिवाद आ. शीलचन्द्रसूरि द्वारा अनु०ना प्रस्तुत अंकमां प्रसिद्ध करायो छे. क्यारेक अधूरी माहितीना कारणे, क्यारेक विषयनी अपरिचितताथी तो क्यारेक साम्प्रदायिक ममत्वथी विद्वान संशोधको पण खेंचाई जता होय छे. श्री नरोत्तम पलाण जेवा साक्षर पण ज्यारे लखी नाखे के 'तरङ्गवती जैनेतर कविनी रचना छे अने जैन आचार्ये तेने जैन रूप आप्युं छे' त्यारे आश्चर्याघात जागे. अहीं सवाल ए थाय के कोई एक आचार्ये कथाने जैन रूप आपी दीधुं तेथी अजैन रचना कोई वटहुकमथी सर्वत्र प्रतिबन्धित तो न ज थई होय. ए कथा तेना असली रूपमां बीजे ठेकाणे तो बची ज गई होय. जो ए कथा अजैन स्वरूपमां क्यांय मळती ज न होय, अरे तेवो उल्लेख सुद्धां न मळतो होय त्यारे काल्पनिक आधारो शोधी इदं तृतीयं जेवं विधान करवू ए कां तो नवरा माणसोनुं काम होय, कां तो रंगद्वेष जेवी मानसिकतानुं परिणाम होय. ___अनु०मां त्रणेक हप्तामा विशेषावश्यक भाष्यनी शुद्धिवृद्धिनी सूचि छपाय छे. वि.भाष्य जेवा आकरग्रन्थना बे पुनर्मुद्रण ताजेतरमा थयां छे, ए आनन्दनो विषय छे, परंतु संशोधननी शास्त्रीय पद्धतिनो अने आजना युगमां उपलब्ध साधनोनो लाभ लेवानी चिन्ता आपणा श्रमणसंघमां जोइए तेवी स्थिर नथी थई ए खेदनो विषय छे. वि. भाष्यनी मुद्रित नकल पोतानी पासे होय तेमां आ शुद्धि-वृद्धि पोताना हाथे करी लेवा जेटली काळजी पण आपणे बतावी शकीशुं खरा ? ___C/o. जैन देरासर नानी खाखर (कच्छ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PariENERATOR प्रतापपुल TREADERITbe / लामालजा हारजीमुखाईबयुतियावासबसस प्रतिकारापा पूर्वक त्रीऊपतापनिबंकारितामा नचतपागादत्रीविजयदानन रिपझारपातसाद अकबरपनन्ननगदसविसदार कपालसा अकबरप्रतिवाधनसंपादितसकलजावाजवदान पद प्रहारमारिवधाकामा Seमरतन कार का मदानप या सहारा धातु प्रतिमा - परिकरनो लेखयुक्त पृष्ठभाग education International For Private & Personal use only wwwalib o rg