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________________ 24 अनुसन्धान ३५ उल्लेख ध्यानार्ह छे. छठ्ठी रचना जरा जुदी जातनी वात करे छे. एमां नवधा भक्तिवाळो खेल छे. भगवंत जेनी रक्षा करे तेने कोई जातनो भय नथी तेवी वात लईने आ रचना आवे छे, अने तेनां विविध उदाहरणो पण दर्शावे छे, जे कर्तानी शुद्ध वीतरागता अने अध्यात्मतत्त्वनी ज सतत वात करती लेखनी तथा मनःस्थितिना परिप्रेक्ष्यमां विस्मय जन्मावे तेवी बाबत लागे छे. सातमी रचना वळी एक उपनिषद् जेवी तात्त्विक अने गूढार्थमढी रचना बनी छे. रहस्यवादी अने शुद्ध निरंजन तत्त्वना उपासक एवा कोई ज्ञानमार्गी कवि-भक्तनी रचनानी समकक्ष आ रचना लागे. तो आठमी रचना ए जैन परम्पराना विविध कविओए रचेलां जिनस्तवनोनी श्रेणीनी मधुर स्तवन- रचना छे, जेमां तीर्थंकर पार्श्वनाथनी स्तवना थई छे. अलबत्त, आमां पण कविए पोतानी सर्वत्र प्रयुक्त अने प्रिय शब्दावली तो गोठवी ज दीधी छे, जेथी स्तवननो वळांक अध्यात्मनी दिशानो जणाई आवे छे. छतां कविना हृदयमां छुपायेलो 'भक्त' आमां ढांक्यो नथी रह्यो; ते अनायासे, कदाच ढांकवानो प्रयास कविए कर्यो होय तो बलात्, पण प्रगट था विना रह्यो नथी. तो मुनीचन्द्रनाथ अथवा धर्मदत्तदेवनी केटलीक वधु रचनाओ आ ते अत्रे प्रस्तुत करतां आनन्द थाय छे. श्री गणेशाय नमः ॥ ( १ ) भासः श्रीजिनराजनें चरणे नमीजे रे, सासणपुजाने समरीजे रे । आगमवांणी जिणविध भाखे रे, प्रवचन सहगुरु तेविध दाखे रे || १ | श्रुतदेवी सासण आद्य सोहावें रे, ज्ञाननी माता गणहर गावें रे । प्रवचनमाता आठ प्रकार रे, आगमविद्यानें अधिकार रे ॥२॥ प्रथम तो श्रूतनी पूजा कीजें रे, बारे अंग ते वेद कहीजे रे । दशमंग आगमविद्या भणीजे रे, सोल सती श्रुत तां समरीजे रे || ३ || चिहुंविध तीरथ तिहां थापीजे रे, चैतन देव अखंड जपीजे रे । च्यारे आचारज प्रवचन वांचे रे, मंगलीक सुत्र नंदी तिहां भासे रे ||४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520535
Book TitleAnusandhan 2006 02 SrNo 35
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages98
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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