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अनुसन्धान ३५ अपने साधु समुदाय के साथ समयसुन्दरगणि आचार्यश्री को सविधि नमस्कार कर यह विज्ञप्ति- पत्र लिख रहे हैं । समयसुन्दरजी लिखते हैं - पाटण से आपश्री का आदेश प्राप्त कर,विहार कर हम वरकाणा आए । वहाँ पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार कर वैशाख की नवमी के दिने आडम्बर के साथ यहाँ पहुंचे । यहाँ प्रातःकाल संघ के समक्ष विपाकसूत्र का व्याख्यान दे रहे हैं । हर्षनन्दन और मुनिमेघ ने ५, ११, १५ आदि दिनों कि तपस्या की है । संघ के विशेष अनुरोध को ध्यान में रखकर सप्तम अङ्ग उपासकदशासूत्र का वाचन भी किया जा रहा है। पर्युषण पर्व के आने पर मन्त्री संग्राममल्ल ने धर्मशाला में आकर संघ के समक्ष कल्पसूत्र को ग्रहण किया । रात्रि जागरण करते हुए प्रातःकाल वाजिवनिर्घोष के साथ राजमार्ग पर होता हुआ जुलूस उपाश्रय में आया और उन्होंने कल्पसूत्र मुझे बोहराया । मैंने तेरह वाचनाओं से इसका पठन किया । पारणा के दिन पौषधग्राहियों को मिष्टान्न के साथ पारणक कराया गया । संघ में अट्ठाई आदि तपस्याएं हुई । इस प्रकार धर्म रीति के अनुसार महापर्व की आराधना कर हमने अपने जीवन को सफल किया है ।
तातपाद अर्थात् आप भी अपने यहाँ के पर्वाराधन के स्वरूप का वर्णन करें ।
__ अत्रस्थ महामन्त्री भागचन्द्र, सदारङ्गजी, भाणजी, राघव, वेणीदास, वाघा, वीरमदे, सामल, राजसी, ईश्वर, मन्त्री हमीर, भोजु, अमीपाल, तेजा, समूह, उग्र, मेहाजल, सिद्धराज, रेखा, सुरत्राण, वीरपाल, नृपाल, राजमल्ल, पीथा आदि समस्त संघ आपके चरण कमलों की वन्दना करता है ।
रचनाकार :- इस पत्र के लेखक ने अपना नाम स्पष्ट रूप से न देकर चतुर्थ चरण में शिष्याणुसिद्धान्तचारुरुचिः पर्यायवाची शब्दों से दिया है । सिद्धान्त शब्द से समय का ग्रहण किया गया है और चारु शब्द से सुन्दर का ग्रहण किया गया है । इस प्रकार प्रेषक का नाम समयसुन्दर सिद्ध होता है । दूसरा कारण यह भी है कि चतुर्थ चरण के अन्त में तत्पुनस्तातपादैरपि शब्द यह द्योतित करता है कि जिनचन्द्रसूरिजी समयसुन्दर जी के तातपाद अर्थात् दादागुरु होते हैं । तीसरा कारण यह भी है कि स्वयं को शिष्याणु लिखते हैं जो उनकी अधिकांश कृतियों में प्राप्त होता है ।
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