Book Title: Anusandhan 2002 09 SrNo 21
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका २१ संपादक विजयशीलचन्द्रसूरि 00-00 0-0-0-000 0000 ००० m श्री हेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका २१ संपादक विजयशीलचन्द्रसूरि श्री हेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २००२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि संपर्क : अनुसंधान २१ Co. अतुल एच. कापडिया A- 9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद- ३८०००७ प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामंदिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद - ३८०००७ मुद्रक : मूल्य : Rs. 50-00 (२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद- ३८०००१ क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ ( फोन : ०७९-७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन मध्यकालीन कृतिओनुं संपादन करनार माटे एक समस्या अनिवार्यपणे ऊभी थाय छे के तेणे संपादन माटे हाथ पर लीधेली कृतिनुं संपादन तथा प्रकाशन क्यांय थयुं हशे के केम ? गुजराती साहित्य कोश तथा जैन गुर्जर कविओ जेवा मातबर संदर्भग्रंथो, अलबत्त, उपलब्ध छे, अने तेनो उपयोग करवाथी घणे अंशे आ समस्या उकली पण शके छे ज. आम छतां, एटली बधी कृतिओ छे, अने एटली बधी विविध रीते ने जगाएथी प्रकाशन थयुं-थतुं होय छे के घणी कृतिओ विशे जाणकारी नथी पण मळती. आथी, आ रीते संपादित-प्रकाशित थयेली तथा थती कृतिओनी एक, विविध माहितीथी भरपूर, सूचि करवामां आवे, तो ते एक महत्त्वपूर्ण संदर्भग्रंथ बनी रहे खरो. आवी ज सूचि शोधलेखो तथा शोधप्रबन्धोनी पण थवी जोईए. ___'अनुसंधान' माटे काम करवानुं आवतां तेमां समस्या ऊभी थवा मांडी होई, आ विचार सहज ऊगतां, अत्रे उपस्थित कर्यो छे. -शी. આર્થિક સહયોગ શ્રી મહાવીર સ્વામી શ્વે.મૂ. જૈન મંદિર ટ્રસ્ટ, ચિક પેટ અને શ્રી શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથ જૈન શ્વે.મૂ. મંદિર, રાજાજીનગર બેંગલોર Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. अज्ञातकर्तृक सप्तनयविवरण –सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १ २. ऋषभतर्पण : जैन क्रियाकांड विषयक एक सरस कृति --सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १० ३. सरस्वती स्तोत्र कर्ता : श्रीदयासूरि सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री २० ४. विज्ञप्तिका संग्रह सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय २३ . ५. क्रियावादी-आदि ३६३ पाखण्डीस्वरूप स्तोत्र सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ३३ ६. कम्मबत्तीसी सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ३५ ७. आज्ञा-स्तोत्र सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ३९ ८. त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ९. आर्यवेद : जैन वेद -विजयशीलचन्द्रसूरि १०. विहंगावलोकन १-२ मुनि भुवनचन्द्र ११. ट्रॅक नोंध विजयशीलचन्द्रसूरि १२. प्रकाशन माहिती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकर्तृक सप्तनयविवरण सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 'नय' ए जैन दर्शननो पारिभाषिक शब्द छे. अनेक आयामो के अंशो के धर्मो धरावता पदार्थना कोई एक आयाम, अंश के धर्मनो बोध करावनार वचन ते नय. वधु व्यवहारु के सहेली रीते कहेवुं होय तो एम कही शकाय पदार्थने कोई एक ज दृष्टिकोणथी जोवा - समजवानी प्रक्रिया ते नयवाद. बीजा दृष्टिकोणनो इन्कार न करे, परंतु तेनो स्वीकार पण न करे, अने पोताना दृष्टिकोणने यथार्थ माने तेनुं नाम नय. जैन दर्शने आवा मुख्य सात नय वर्णव्या छे, जेनां नामो क्रमशः १. नैगमनय, २. संग्रहनय, ३. व्यवहारनय, ४. ऋजुसूत्रनय, ५. शब्दनय, ६. एवंभूतनय, ७. समभिरूढनय छे. नय एटले दृष्टि, अने ते दृष्टिना भेदे जुदां जुदां दर्शनो रचायां छे, तेम जैन दर्शन माने छे. 'नयभेदे दर्शनभेद' ए आनो अर्थ छे, एम कही शकाय. ए रीते तमाम नयोनो एटले के दर्शनोनो समन्वित समूह ते जैन दर्शन एम पण मानी शकाय केमके जैन दर्शननो मुख्य सिद्धांत स्याद्वाद सिद्धान्त छे. स्याद्वाद एटले अनेकान्तवाद कोई पण एक ज नयनेदृष्टिकोणने ज सत्य मानवो अने बीजा बधा नयोनो- दृष्टिबिन्दुओनो इन्कार के निषेध करवो-ए छे एकान्तवाद अर्थात् एकान्तवाद एटले संकुचित के सीमित दर्शन. जैन दृष्टिए स्वीकारेलो अनेकान्तवाद आवी सीमामां बंधातो नथी. ते तो समग्र नयोने पोतामां समावे छे. आ नयोनुं स्वरूप अनेक ग्रंथोमां वर्णवायुं छे. छतां अध्ययन करता मुनिराजो के विद्यार्थीओ, क्यारेक पोताना तो कदीक अन्यना बोध खातर पोतानी शैलीमां आ पदार्थनुं वर्णन लखता रह्या छे. अत्रे प्रस्तुत थती लघु रचना ए आवो ज एक प्रयास लागे छे प्रतिपादन अने पूर्वापर संबंधनी दृष्टिए घणी शिथिलता जणाती होवाथी आ विवरण कोई विद्यार्थी मुनिए पोताना अभ्यास काळमां कर्तुं होय तो ते शक्य छे. तो अक्षरना मरोड तेमज नयस्वरूपनी चर्चानुं स्वरूप जोतां, आ लखाण उपाध्याय श्रीयशोविजयजीना हाथनुं के पछी तेमना प्रिय विद्यार्थी मुनि हेत (के हित ) विजयजीनुं होवानी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ संभावना पण जणाय छे. जो के कृतिना आरंभे के छेडे कर्तानो के लखनारनो कोई अछडतो पण इशारो तो नथी मळतो, तेथी आ संभावना प्रमाणभूत तो न गणाय, छतां अटकळ करी छे, ते अक्षरोना मरोडना बारीक निरीक्षण पछी ज. लेखनवर्ष न होवा छतां अनुमानतः १८मा सैकानी प्रति लागे छे. चार पत्रनी प्रति छे. छेल्ला पत्रमांना खाली भागमां साहित्यिक श्लोको (थोडाक) लखेला छे. प्रति निजी संग्रहगत छे. ___ नय-स्वरूप-वर्णनमा क्यां वैविध्य छे ते तो सुज्ञ जाणकारने वांचन करती वेळा ज समजाइ जाय तेम छे. छेल्ली पुष्पिकामा 'इति सप्तनयविवरणं चूर्णं विहितं' ए वाक्यथी, एकदम सुगम अने बालभोग्य रीते नयवर्णन करवानु-कर्यु होवानु लेखकना मनमां हशे, ते स्पष्ट थई जाय छे. सप्तनयविवरणं चूर्णम् ॥ स्यात्कारमुद्रिता भावा नित्यानित्यस्वभावकाः । प्रोक्ता येन प्रबोधाय वन्दे तं वृषभं जिनम् ॥१॥ - अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशव्यवसायात्मकं ज्ञानं नयः । श्रीसर्वज्ञमते सकलवस्तु अनन्तवर्णात्मकं वर्णितमस्ति, मयूराण्डवत् । यथा मयूराण्डमध्ये नानावर्णत्वमस्ति तदा मयूरे जाते तत्पक्षादौ नानावर्णत्वं भवति । असत् किमपि नोत्पद्यते, आकाशकुसुमवत् । यत् सत् तदेव प्रादुर्भवति । यदा मृत्पिण्डे घट-घटी-शराव-उदञ्चनादीनां सत्ताऽस्ति तदा मृत्पिण्डे ते ते घटादिपर्यायाः समुत्पद्यन्ते । ननु अनन्तधर्मत्वं वस्तुन्यस्ति तर्हि वस्तु एकधर्मत्वेन कथमुच्यते ? । सत्यम् । अनन्तधर्मत्वं वस्तुनि सत्ताऽस्ति, परमेकस्मिन् काले वस्तुनः परिणामाः संख्येया असंख्येयाश्च भवन्ति । यथा यस्मिन् काले यः परिणामोऽस्ति तस्मिन् काले स एव भवति, नापरः । “यद् द्रव्यं यदा येन रूपेण परिणतं तदा तेनैव रूपेण परिणमति, न तु रूपान्तरेण" इति वचनात् । यथार्थ( र्थः) प्रमाणमित्युच्यते । अयथार्थ(र्थो) अ(5) प्रमाणमिति । नय: Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २००२ प्रमाणस्यैकांशः । यत: नाऽप्रमाणं प्रमाणं वा प्रमाणांशस्तथैव हि । नाऽसमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि ।। समस्तांशस्थानं प्रमाणं, तदेकांशो नयः । प्रमाणनयैः सकलभावाभिगमो भवति । नयाः सप्त । नै(ने)गम १ संग्रह २ ववहार ३ उज्जुसुए ४ चेव होइ बोधव्वे । सद्दे य ५ समभिरूढे ६ एवंभूते ७ य मूलनया ॥ ____ अथ नैगमार्थमाह- समस्तवस्तु सामान्येन विशेषेण च मन्यते, न केवलं सामान्येन न केवलं विशेषेण, उभाभ्यां प्रकाशनाभ्यां मन्यते नैगमः । सकलभुवनत्रयमध्यवर्तिवस्तुकदम्बकस्य ग्राहकः स सामान्यधर्म : एक एव । शैवन्यायशास्त्रेऽप्युक्तमस्ति "नित्यमेकमनेकवृत्ति सामान्यम् । तथाहिघटत्वपटत्वमनुष्यत्वाः ।" तथा जैनन्यायशास्त्रेऽपि सामान्यलक्षणं - "अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं हि सामान्यं द्रव्यं शाश्वतिकम् ।" यथा मृत्तिकापर्याया घटशरा[वा]दयः उत्पादविनाशधर्माः, तैः कृत्वा सामान्यद्रव्यमस्थिरमस्ति, अनेकरूपतां भजति । अथ विशेषलक्षणं-शैवनये सामान्यव्यावर्तिधर्माणो हि विशेषाः । जैननये विशेषलक्षणं पूर्वपूर्वाकारपरित्यागोत्तरोत्तरपरिस्फूर्तिमन्तो हि विशेषाः । पर्यायापरनामानः ते घटपटलकुटमुकुटादयः तथा नरनारक सुरादयः । सामान्यविशेषवस्तुस्वरूपप्ररूपको नैगमनयः । जैन अपि वस्तुनि धर्मद्वयं मन्यन्ते सामान्यं विशेषश्च । सामान्य विना विशेषो न स्यात्, विशेषं विना सामान्यं न स्यात् । “निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् शशविषाणवत्" इति वचनात् ॥ सामान्यविशेषसप्तभङ्गी वस्तु स्यात् सामान्यं १, स्यादवक्तव्यं ४, स्याद् विशेषं २, स्यादवक्तव्यं क्रमतः सामान्यकल्पनया ५, स्यात् सामान्यविशेषं ३, स्यादवक्तव्यं क्रमतो विशेषकल्पनया ६, स्यादवक्तव्यं युगपत् सामान्य विशेष कल्पनया ७ इति । वस्तुनि कथञ्चित् प्रकारेण सामान्यद्रव्यधर्मत्वमस्तीति प्रथम भङ्गार्थः ।। तथा तस्मिन्नेव वस्तुनि कथञ्चित् प्रकारेण विशेषधर्मपर्यायोऽपि स्यादिति द्वितीयः Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ ।२। तथा तस्मिन्नेव वस्तुनि समकाले सामान्यविशेषावपि स्यातामिति तृतीयः ।३। तथा वस्तुनि अवक्तव्यधर्मत्वं परमाणुरूपमस्तीति चतुर्थ : ।४। तथाऽनुक्रमेणैव एकया विशेष(सामान्य)कल्पनया वस्तुस्वरूपं कथयितुमशक्यमतोऽवक्तव्यमिति पञ्चमः ।५। तथाऽनुक्रमेणैकया विशेषकल्पनया वस्तुस्वरूपं कथयितुमशक्यत्वादवक्तव्यमिति षष्टः ६। तथा वस्तु युगपत् समकाले सामान्यविशेषत्वेन कथयितुमशक्यत्वादवक्तव्यमिति सप्तमः ।७। इति नैगमनयः ॥ अथ संग्रहनयमाह - सकलभुवनत्रयवर्तिकालत्रयभाविवस्तुकदम्बकस्य कथक: संग्रहः । तत्र दृष्टान्तो यथा- घटोऽनेकैर्नीलपीतादिभिर्वर्णैर्युतो व्यक्तिमानस्ति, तथापि सामान्यद्रव्येण स एव घट उच्यते । तथा श्वेतपीतरक्तकृष्णादिवर्णवती व्यक्तियुक्ता गौः सास्नादिगोधर्मत्वेन सा गौरेवोच्यते । तथा जातिगोत्र-वर्ण-रूप-संहनन-संस्थानाऽ-वगाहनादिभेदभिन्ना अपि मनुष्या मनुष्यत्वधर्मेण सर्वे मनुष्याः । तथा घटघटीशरावाद्यनेकपर्यायाः सन्ति परं मृद्द्रव्यमेक(कं) एव । एवं सर्वत्र विचार्यम् । वस्तुतो यदविनाशिधर्मः (?) द्रव्यं तत्सामान्यद्रव्यं, न तु पर्यायः । पर्यायः समये समये विनश्यति ।। ___अत्र विशेषवादिभिर्बोद्धचार्वाकादिभि: सामान्यं नाङ्गीक्रियते । तैः शाश्वतं किमपि न मन्यते सर्वक्षणविनश्वरम् । सामान्याद् विशेषो भिन्नो वाऽभिन्नो वा ? । चेत् सामान्याद् भिन्नो विशेषः, तदा विशेषोऽवस्तुस्वभावो भविष्यति खरविषाणवत् वन्ध्यापुत्रवत् । सामान्यं वस्तु । स्थिरस्वभावः सामान्याश्रितो विशेष: सर्ववस्तुपर्यायग्राहक: संग्रहः ॥ इति संग्रहनयः ॥ अथ व्यवहारनयः । येन सकललोकस्य प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा जायते स व्यवहारः वस्तुपर्यायविशेषरूपो न तु सामान्यधर्म : । यथा जलार्थी पुमान् घटादिगवेषणं करोति, न तु मृद्रव्यस्य । ततो व्यवहारे विशेष एव उपकारी, न तु सामान्यम् । वस्तुधर्म एव व्यवहारसाधकः । यतो विशेषं विना सामान्य (न) भवति । "निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् शशविषाणवत्" । विशेषं विना सामान्यं शशविषाणतुल्यमसदुक्तं तत् कथं कार्यसाधकं स्यात् ? मरुमरीचिकावत् असद्रूपत्वात् । व्यवहारनये विशेषपदाथैः घटपटलकुटादिभिः प्रयोजनम् । इति व्यवहारनयः ॥ अथ ऋजुसूत्रनयः । ऋजुत्वेन-सरलत्वेन सामान्येन वस्तुपदार्थप्ररूपक: . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २००२ ऋजुनयः । ऋजु-वर्तमानकालीना: पर्यायाः वर्तमानसमयानुकूला: पर्यायाः स्वकीया न परकीयास्तान् कथयति इति ऋजुसूत्रार्थ : । तथा ऋजुसूत्रनयो लिङ्गवचनाद्यभेदेन समस्तवस्तु कथयति । अत ऋजुसूत्रनयो लिङ्गवचनभेदं न मन्यते । तथा निक्षेपचतुष्टयं मन्यते नाम १ स्थापना २ द्रव्य ३ भाव ४ रूपम् । ऋजुसूत्रनयो वर्तमानसमयग्राही न तु योग्यायोग्यशब्दग्राही । इति ऋजुसूत्रनयः ॥ अथ शब्दनयः । भाषावर्गणापुद्गलरूपः शब्दनयः तेन शब्देन कृत्वा पदार्थस्य वाच्यवाचकताभावसंयुक्तः क्रियते । तथा पूर्वं शब्दः पश्चादर्थोऽतो(त:)शब्दो(ब्द)प्राधान्यं ततः शब्दनयः, नार्थनयः । अयमपि नयो वर्तमानपर्यायग्राही । ऋजुसूत्रनयापेक्षयाऽयं शुद्धः, तत् कथम् ? । स तु लिङ्गवचनशून्यं सामान्य वस्तु कथयति, अयं तु शब्दनयो लिङ्गवचनयुक्तं कथयति । यथा पुरुषः स्त्री ज्ञानम् । पुरुषः पुरुषौ पुरुषाः ३, स्त्री स्त्रियौ स्त्रियः ३, ज्ञानं ज्ञानं ज्ञानानि ३ । सर्ववस्तुपदार्थलिङ्गवचनादिविशेषवाचक: शब्दनयः । इति शब्दनयः ।। __ अथ समभिरूढनयार्थः । तल्लक्षणं - यावन्तो नामपर्यायशब्दाः सन्ति तावन्तः सर्वेऽपि व्युत्पत्त्या भिन्नभिन्नार्थप्रकाशकाः । यथा इन्द्रनामानि बहूनि सन्ति इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः शचीपतिरित्यादिसर्वाण्यपीन्द्राश्रितानि, परं व्युत्पत्त्या भिन्नार्थानि । यथा- इन्दति परमैश्वर्यत्वं(4) प्राप्नोति इन्द्रः । शक्नोतीति शक्रः । शक्तिमान् शक्रः । पुरं पुरनामानमसुरं दैत्यं दारयति पुरन्दरः । शच्याः पतिः शचीपतिः । एवं यावन्तो जगति नामपर्याया जीवाजीवाश्रिताः सन्ति ते सर्वेऽपि व्युत्पत्त्या भिन्नाभिधेयाः । तेषु एकार्थता मन्यते तदा अतिप्रसङ्गदोषः । यतः विजातीयेषु शब्देषु एकार्थप्रसञ्जनमतिप्रसङ्गदोषः । परस्परभिन्नार्थानामेकत्रावसानं संकरदोषः । इति समभिरूढनयः ॥ अथ एवंभूतनयः । व्युत्पत्तितुल्यार्थनाम वक्तीति एवंभूतनयः । यथा मंग्यते दुरितोपशान्त्यै जनैरिति मङ्गलम् । तीर्थं करोतीति तीर्थंकरः । वेवेष्टि विश्वमिति विष्णुः । शक्नोतीति शक्रः । वज्रमस्यास्तीति वज्री, नान्यः । सहस्रमक्षीणि यस्य स एवं सहस्राक्षः, नान्य इत्यादि । इति एवंभूतनयः ॥ इति सप्त नयाः ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ एतेषां सप्तनयानां मध्ये आद्याश्चत्वारो नया अर्थप्रधानत्वादर्थनयाः । अग्रेतनास्त्रयो नयाः शब्दप्रधानत्वात् शब्दनयाः । आद्यास्त्रयो द्रव्यास्तिकनयाः न तु पर्यायान् मन्यन्ते, शेषाश्चत्वारः पर्यायास्तिकनयाः पर्यायान् मन्यन्ते, न तु द्रव्यम् । एतेषां सप्तानां नयानां मध्ये एकं नयं यो मन्यते स दुर्णयवादी । सर्वान् नयान् मन्यते स सुनयवादी । सप्तनय-पञ्चसमवायान् मन्यते स स्याद्वादवादी । य एकान्तवादी न स जैनमती । बौद्ध १ नैयायिक २ सांख्य ३ मीमांसक ४ चार्वाकाः ५ । पञ्चैते एकान्तवादिनः ॥ बौद्धाः क्षणिकवादिनः १। नैयायिकाः कर्तृवादिनः २ । सांख्याः प्रकृतिवादिनः ३ । मीमांसकाः कर्मवादिनः ४। चार्वाका नास्तिकवादिनः५ । एषां भेदा भूयांसः सन्ति । इत्येवंभूतनयः ॥ अथ सप्तनयाः (यान्) प्रस्थक १ वसति २ प्रदेशादिदृष्टान्तत्रयेण कथयति । तत्र प्रस्थकदृष्टान्तेन सप्त नयान्] विवृणोति । प्रस्थको मानविशेष: मगधदेशे प्रसिद्धः । कश्चित् सूत्रधारः प्रस्थककाष्ठच्छे(ष्ठं छे)त्तुं याति । केनापि 'क्व यासि ?', तदाऽशुद्धनैगमनयीभूत्वा तेनोक्तं 'प्रस्थकं छेत्तुं यामि' । अत्र बहवो गमा भासन्ते । तावत् काष्टमपि न च्छेदितमस्ति तर्हि व प्रस्थकः? | प्रस्थकस्यान्तराले भूयांसो व्यवसाया भविष्यन्ति तदनु प्रस्थको भविष्यति । तथापि कारणे कार्योपचारः । स्यादेव काष्टं कारणं, प्रस्थकः कार्य, 'भाविनि भूतोपचार' इति नैगमवचनम् । सूत्रधारे काष्टे छेत्तुं प्रवृत्ते सति केनापि पृष्टं 'किं करोषि ?' । स प्राह-'प्रस्थकं छिनद्मि' । पूर्व गमवचनापेक्षया किञ्चिदिदं शुद्धम् । शस्त्रेण घटित्वा काष्टं प्रस्थाकारं कृतं तदा केनापि पृष्टं 'त्वं किं करोषि ?' । तेनोक्तं 'प्रस्थं करोमि' । पूर्वोक्तवचनादिदं शुद्धवचनम् । पूर्ववचनादुत्तरोत्तरवचनं शुद्धं, यावत् प्रस्थको न भवति तावत् सर्वाण्यपि वचनानि नैगमनयस्य ज्ञातव्यानि । व्यवहारनय-नैगमनययोः साम्यं वचनैरिति । अथ संग्रहनयवचनं यथा- स प्रस्थकः परिपूर्णो निष्पन्नः कण्ठपर्यन्तं धान्यभूतो धान्यविभजनं करोति तदा प्रतिप्रस्थकं कथयति संग्रहनयः । नान्यथा । नैगम-व्यवहारनयौ कारणे कार्यं मन्येते, संग्रहनयस्तु कारणे कार्य न मन्यते. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ केवलं निष्पन्नकार्यमेव मन्यते । नैगम-व्यवहारौ अविशुद्धौ, तदपेक्षया संग्रहनयः शुद्धः । इति संग्रहनयः ।३ अथ ऋजुनयवचनं यथा - केवलं धान्यमापहेतुभूतं मानविशेष: स एव प्रस्थको नान्यः । ऋजुनयो वर्तमानसमयग्राही, अतः संग्रहनयात् शुद्धः । संग्रहस्तु प्रस्थकमेयधान्यपुञ्ज-धान्यभृतप्रस्थक इत्यादिसमुदायस्य प्रस्थक:(कं) कथयति । एते शब्दादित्रयो नयाः शब्दस्य प्राधान्यं मन्यन्ते ते(?)न त्वर्थस्य, अत एते [शब्द] नयाः । यत्र शब्दव्यवस्था तत्रैवार्थो वाच्यः । तर्हि प्रस्थकस्यावस्था प्रस्थकस्य ज्ञानोपयोगवति पुरुषे स्थिताऽस्थिता तर्हि स पुरुष एव प्रस्थको नान्यः । यो • यादृशे यादृशे उपयोगे प्राणी वर्तते स तदुपयोगवान् कथ्यते । यथा रागोपयोगे वर्तते इति रो(रा)गी, द्वेषोपयोगे वर्तते इति द्वेषी । तथा प्रस्थकस्योपयोगो यस्मिन् स नरः प्रस्थक उच्यते, 'प्रस्थकोपयोगयुक्तः प्रस्थक' इति श्रीहेमचन्द्राचार्याः । शब्दादिभिस्त्रिभिर्नयैः प्रस्थकोपयोगी नर एव प्रस्थको मन्यते, न त्वनुपयोगी । काष्टभाजनस्य प्रस्थकस्य यद् ज्ञानं तत् पुरुषे एवास्ति, न तु काष्टे, अचेतनत्वात् । इति प्रस्थकदृष्टान्ते सप्तनयभावना ।। अथ वसतिदृष्टान्ते सप्त नयान् दर्शयति । त(य) था- केनापि वैदेशिकपुरुषेण पाटलिपुत्रवास्तव्यनरः पृष्टः 'त्वं क्व वससि ?' । तेनोक्तं 'लोकमध्ये' । अय-(इद) मविशुद्धनैगमवचनम् । 'लोकस्तु चतुर्दशरज्जुप्रमाणो न ज्ञायते, त्वं क्व वससि ?' । तदा तेनोक्तं 'तिर्यग्लोके वसामि' । प्रथमवचनात् किञ्चिद् विशुद्धमिदं लोकद्वयपरित्यागात् । पुनः पृष्टं 'तिर्यग्लोके व वससि ?' । तेनोक्तं 'जम्बूद्वीपे' । पूर्ववचनापेक्षयेदं शुद्धम् । पुनः पृष्टं 'क्व वससि ?' । 'भरतेक्षेत्रे' । पूर्वोक्तादिदं शुद्धम् । पुनः पृष्टं 'क्क वससि ?' । 'मगधदेशे' । चतुर्थात् पञ्चमः शुद्धः, चतुर्थमध्ये द्वात्रिंशत्सहस्रदेशावभासनास्ति, पञ्चमे एक एव देशो मगध इति भासति(ते) नान्यः । पुनः पृष्टं 'क्व वससि ?' । तेनोक्तं 'पाटलिपुत्रनाम्नि नगरे' । पञ्चमादयं षष्ठः शुद्धः । मगधदेशस्थसकलग्रामपरित्यागात् । पुनरुक्तं- 'पाटलिपुत्रे वससि, परं क्व वससि ?' । तेनोक्तं 'देवदत्तस्य पाटके' । षष्ठात् सप्तम: शुद्धः, सकलपाटकभ्रान्तेरभावात् । पुनरुक्तं 'देवदत्तस्य पाटके वससि, परं कीदृशे गृहे ?' । तेनोक्तं 'पूर्वाभिमुख Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१. प्रशस्तकमलादिचित्रोपलक्षितः रुचिरेणोपशोभितः प्रशस्तस्तु नूतनकपाटयुक्ते रम्योन्नतगवाक्षलक्ष्ये ईदृशे गृहेऽहं वसामि' । एषो(ष) षष्ठो(?) नैगमनयः सप्तम(?)नैगमाच्छुद्धः । इति नैगमः ॥१॥ नैगम-व्यवहारयोर्वचनं(न)साम्यं न. भिन्नत्वम् ।२। अथ संग्रहनय उच्यते । यदा स पुरुष आसनादौ उपविष्टो भवेत् तदैव तत्र वसतीति मन्यते संग्रहनयो, नान्यथा । चलनादिक्रियायुक्तो नरो न तत्र वसतीति मन्यते संग्रहः । इत्थं सर्वत्र विचार्य, इति संग्रहः ३।। ___ अथ ऋजुनयः । आसेन (आसने) आकाशप्रदेशा बहु(बहवः) सन्ति, न तत्र वसति सर्वत्र । किन्तु यावत आकाशप्रदेशान् अवरुध्योपवे(वि)ष्टो नरः स तत्रैव वसति नान्यत्र, वर्तमानसमये वसति नान्यस्मिन् समये । एवं सर्वत्र ज्ञेयम् ४॥ अथ शब्दादिनयत्रयं कथयति-'सर्वं वस्तु स्वात्मन्येव वर्तते, न त्वात्मव्यतिरिक्तेऽधिकरणे' इति वचनात् सर्वोऽपि पुरुषार्थपदार्थे स्वस्वरूपे स्वस्वभावे वसति, न तु परस्वभावे आकाशप्रदेशे । इति वसतिदृष्टान्तः । अथ प्रदेशदृष्टान्ते सप्तनयान् अवतारयति । क्वचिद् विद्वज्जनमण्डल्यां प्रदेशप्रवृत्तौ जायमानायां सत्यां केनापि पृष्टं 'कस्य प्रदेशः ?' । तदैक: कश्चित् पण्डितो नैगमनयमवलम्ब्य वक्तीदं- धर्मास्तिकाय १ अधर्मास्तिकायर आकाशास्तिकाय३ जीवास्तिकाय४ पुद्गलास्तिकाय ५ देशः ६ । सकलद्रव्यस्य कल्पनया विवक्षित: कियान् अंशो भागो देश: उच्यते । एतेषां पूर्वोक्तानां षण्णां प्रदेशः इत्य(ति व?)वक्तव्यं नैगमवचने । अथ संग्रहो वक्ति- अरे नैगम ! मैवं वद । षण्णां प्रदेशो न किन्तु पञ्चानाम् । धर्मास्तिकायादीनां प्रदेशोऽस्ति, न तु देशस्य प्रदेशः । द्रव्यस्य एकांशो देशः, न तु द्रव्याद् भिन्नो देश इति ।२ ___ अथ व्यवहारनयो ब्रूते - अरे संग्रह ! मेत्थं ब्रूहि पञ्चानां धर्मास्तिकाया दीनां प्रदेशः । पञ्चानां तदोच्यते यदा पञ्चानां साधारणो भवति पञ्चभ्रातृनिधानवत् । इत्थं वद-पञ्चविध: प्रदेशः, धर्मास्तिकायादीनां पञ्चविधत्वात् इति ।३ अथ ऋजुसूत्रनयो वक्ति- अरे व्यवहार ! मैवं भण यत् पञ्चविधः Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ प्रदेश: । प्रदेशस्तु पञ्चास्तिकायविषयेऽस्ति । प्रदेशे प्रदेशे यदि पञ्चविधत्वमुच्यते तदा पञ्चविंशतिप्रदेशाः स्युः । अतो भाज्यप्रदेशान् वद एकस्मिन् प्रदेशे पञ्च विकल्पाः सन्ति अयं धर्मास्तिकायप्रदेश: १ किंवा अधर्मास्तिकायप्रदेश: २ किंवा आकाशास्तिकायप्रदेश: ३ उत जीवास्तिकायप्रदेश: ४ किंवा पुद्गलास्तिकायप्रदेश: ५, एवं पञ्च विकल्पान् ऋजुसूयनयो वक्ति । ४ अथ शब्दनयो वक्ति हे ऋजुन ! त्वं भाज्यप्रदेशं मा वद । एवं उच्यमाने एकस्मिन् प्रदेशे पञ्चानामपि धर्मास्तिकायादीनां भजना भविष्यति, पञ्चपुरुषसेवकवत् । कदाचिदधर्मास्तिकायस्य प्रदेशो भवति, एवं पञ्चानामपि भजना स्यात् प्रदेशस्य । अत एवं वद धर्मप्रदेशः १, अधर्मप्रदेशः २, आकाशप्रदेशः ३, जीवप्रदेश: ४, पुद्गलप्रदेश: ५, एतेषां पञ्चानां मध्ये एकतमस्य प्रदेश इति ॥५ अथ समभिरूढनयो वक्ति - धर्मप्रदेश इत्येवमुच्यमाने समासद्वयातिव्याप्तिर्भवति तत्पुरुषः कर्मधारयश्च । तत्पुरुषे क्रियमाणे धर्मे प्रदेशः, अत्र धर्म-प्रदेशयोर्नैक्यं, धर्मात् प्रदेशो भिन्नः प्रदेशाद्धर्मो भिन्नः, 'भेदे तत्पुरुष ' इति वचनात् । अतोऽत्र कर्मधारयः कर्तव्यः । धर्मश्चासौ प्रदेशश्च धर्मप्रदेश: । अस्मिन् समासे धर्मद्रव्य-प्रदेशयोरैक्यं, न भिन्नत्वं, 'अभेदे कर्मधारय ' इति वचनात् ।६ - } अथैवम्भूतनयो वक्ति- हे समभिरूढनय ! त्वं धर्मास्तिकायादिषु देश-प्रदेशौ कल्पनया मन्यसे तदुक्तं (तदयुक्तं ?) यत: देशप्रदेशौ धर्मास्तिकाया दिस्कन्धादभिन्नौ, देश-प्रदेश- स्कन्धानामैक्यमेव कल्पनया, भिन्नत्वमस्ति तर्हि कल्पनया किं प्रयोजनं ? । समस्तस्कन्धरूपो धर्मास्तिकायः स एव धर्मास्तिकाय उच्यते, न तु देश-प्रदेशौ । एवं सर्वत्राऽधर्मास्तिकायादिषु ज्ञेयम् । इत्येवम्भूतनयवचनम् ॥७ इति प्रदेशदृष्टान्तः ॥ सप्तनयज्ञो जिनोक्तसिद्धान्ताधिकारी, नान्यः ॥ नयानां किल सप्तानामर्था दृष्टान्तपूर्वका: । लिखिता: संस्कृतरूपेण स्वात्मनः परहेतवे ॥ एते सप्त नया मिथ्यादृष्टिभिर्न मन्यते (न्ते) ॥ इति सप्तनयविवरणं चूर्णं विहितम् ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभतर्पण : जैन क्रियाकांड विषयक एक सरस कृति सं. विजयशीलचन्द्रसूरि दरेक धर्मसंप्रदायने पोताना आगवा क्रियाकांडो अने आचार-अनुष्ठानो होय छे. नर्या ज्ञानमार्गनी वातो धर्म-संप्रदायने दीर्घायु नथी आपी शकती. धर्मनो आंतर-प्राण भले ज्ञानमार्गमां होय, पण तेने उल्लसित-पल्लवित करनार अने दीर्घकाळ पर्यंत लोकहृदयमां जीवंत राखनार तत्त्व ते तो ते धर्मसंप्रदायनां क्रियाकांड अने आचार-अनुष्ठानो ज, एम कहेवामां अजुगतुं नथी. भारतीय संस्कृतिने संबंध छे त्यां सुधी, धर्मसाधनानो आदर्श आत्मसाक्षात्कार अने मोक्षप्राप्ति छे. दरेक भारतीय धर्मसंप्रदाये, एक या बीजा रूपमां, आ आदर्शने स्वीकार्यों छे. आम छतां, आ आदर्शने सिद्ध करवा माटेनां साधनो, उपायो के मार्गो विविध होय छे. ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग अने एवां विविध साधनो द्वारा आ आदर्श सुधी पहोंची शकाय छे, ऐम आपणा धर्मपुरुषोए कहुं छे. आमां पण, ज्ञानयोग अने ध्यानयोग ए तो बहु विकसित आत्मदशावाळा साधकोना वशनां साधन छे. जनसाधारण जेनुं आलंबन लईने धर्मसाधना कर्यानो परितोष पामी शके, तेवां साधनो तो कर्मयोग अने भक्तियोग ज. आ बन्ने योगो एवा छे के जे बहोळा लोकसमूहना चित्तने आकर्षी शके छे, अने "दुःखतप्त तथा अपायबहुल जीवनमां पण, आ योगो द्वारा, धर्म सुपेरे अने विना कष्टे साधी शकाय छे" एवी धर्माभिमुखता लोकचित्तमां प्रेरे छे. अथी ज, जेम अन्य धर्मोना, तेम जैन धर्मना आचार्योए पण धर्मसाधनाना प्रथम अने अत्यावश्यक पगथियालेखे क्रियामार्ग अने भक्तियोग उपर, भले पोत-पोतानी आगवी परिभाषामां, पण, घणो भार मूक्यो छे. अटलुं ज नहि, पण ए क्रियामार्ग अने भक्तिमार्गनी साधना माटे तेमणे विविध धार्मिक क्रियाकांडो अने अनुष्ठानो पण रच्यां छे. गृहस्थोचित क्रियाकांडोमां एकबाजु जैन परिपाटी प्रमाणे गर्भाधानसंस्कारादि सोळ संस्कारोना विधि मळे छे, तो बीजी बाजु देवपूजाथी मांडीने शान्तिक-पौष्टिक विधानो तथा मंत्र-यंत्रगर्भित अनुष्ठानो पण प्राप्त छे. एनी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ ११ विगतो आपणने जैन धर्मना मुद्रित अमुद्रित आचारग्रंथो द्वारा तथा प्रचलित क्रियानुष्ठानो द्वारा मळी शके तेम छे. जो के जैन ग्रंथोमां बीजां घणां विधि-विधानो छे; मृत आत्मानी पुण्यस्मृत्यर्थे तथा तेनां सत्कर्मोनी अनुमोदनार्थे तेम ज मांगलिक प्रसंगोए विघ्न-रोग-शोक- उपद्रवादिना उपशमार्थे शान्तिस्नात्रादि अनुष्ठानो पण थतां होय छे; पण मृत्यु पामेली व्यक्तिनी पाछळ श्राद्ध के तर्पण जेवुं अनुष्ठान जेम ब्राह्मण-संप्रदायमा मळे छे थाय छे, तेवुं कोई अनुष्ठान जैन धर्ममां जोवा मळतुं नथी, के तेवां अनुष्ठाननो विधि पण आजपर्यंत कोई जैन ग्रंथमां जोवामां के सांभळवामां आव्यो नथी. जैनो मरणोत्तर श्राद्ध - पिंडदान के तर्पणमां मानता नथी; बल्के एनो निषेध / विरोध करे छे, एवो एक स्वीकृत ख्याल परापूर्वथी आपणे त्यां प्रवर्ते छे. अने आथी ज जैनोमां आवो कोई विधि आजे थतो पण नथी. परंतु एक संस्कृत कृति पूज्यपाद आचार्य श्री विजयसूर्योदयसूरिजी म. ना संग्रहगत एक प्राचीन हस्तलिखित गुटकामांथी तेओश्रीने मळी आवी छे; अवुं नाम छे " ऋषभतर्पणम्" जे गुटकामांथी आ कृति मळी आवी छे ते गुटकानां विविध पृष्ठोमां संवत १६४२, १६४३, १६४६ ए त्रण संवतो लखायेल जोवा मळे छे अने ते संवतो, ते ते पृष्ठ पर पूरी थती कोई कृतिनी पूर्णाहूति ते वर्षे थई होवानुं निर्देशे छे, ओ उपरथी, आ गुटको १७मा शतकना पूर्वार्धमा लखायेलो होवानुं मानवामां कोई अडचण नडे तेम नथी; अने एटले ज, आ ऋषभतर्पण पण ते गुटकाना समय करतां वधु जूनी कृति छे ए पण सहज ज सिद्ध थाय तेम छे. आ कृतिना कर्ता परत्वे कृतिमां के गुटकामां क्यांय निर्देश नथी. आम छतां, आ कृति अने गुटको ऊना ( काठियावाड) ना रहेवासी श्रावक शिवसीना पठनार्थे लखवामां आव्यां होई, ए प्रदेशना श्रावकोमां आकृति तथा तेनो उपयोग, ते समयमां प्रचलित हशे, एवं अनुमान थाय छे. सौराष्ट्रना प्रभासपाटण, प्राची, गिरनार वगेरे तीर्थक्षेत्रो, हिंदु परंपरामां आजे पण श्राद्ध अने पितृतर्पण वगेरे अनुष्ठान माटे मान्य धर्मक्षेत्रो गणाय छे. आ क्षेत्रोमां परंपराथी आ बधां अनुष्ठानो थाय छे. एम लागे छे के जैन गृहस्थवर्ग पण, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुसंधान-२१ कोईक काळे, आ अजैन कर्मकांड तरफ वळवा मांड्यो हशे, अने ते तरफ वळतो तेने अटकाववा माटे के पछी जैन परंपरा प्रति पाछो वाळवा माटे, कोईक विचारवंत पुरुषे आ तर्पण-अनुष्ठाननं निर्माण कर्य हशे. जळस्नानमंत्रमा आवतां 'स्वर्णरेखा' नदी अने 'गजपद' कुंडना उल्लेख परथी आ रचना अने तेना रचनारनो संबंध सौराष्ट्रनो संबंध सौराष्ट्र प्रदेश साथे होवानुं समजी शकाय छे. एकंदरे शुद्ध छतां कृतिना पाछला भागनां केटलांक पद्यो अशुद्ध छे. कृति बे भागमां वहेंचायेली छे : पहेला भागमां ऋषभतर्पणनो दंडक-पाठ छे, अने बीजा भागमां तर्पणनो पूजा विधि छे. भाषा घणी मधुर अने रोचक छे. दंडक-पाठमां ऋषभदेव (प्रथम जैन.तीर्थंकर), पुंडरीक स्वामी (ऋषभदेवना पट्टशिष्य), मरुदेवा (ऋषभदेवनां माता), नाभिराजा (ऋषभदेवना पिता), भरत चक्रवर्ती अने बाहुबली (ऋषभदेवना बे पुत्रो), सुमंगला अने सुनंदा (ऋषभदेवनां बे पत्नी), ब्राह्मी अने सुंदरी (ऋषभदेवनी बे पुत्रीओ), मरीचि अने श्रेयांस (ऋषभदेवना पौत्रो) तथा गौतमगणधर समेत वर्धमान स्वामीआटलां इष्ट तत्त्वोनुं स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, वषट्, नमः वगेरे जुदां जुदां मंत्रबीजाक्षरो-पुरस्सर स्मरण-स्तवन करवामां आव्युं छे. ते पछी तर्पणविधि करावनार यजमानने माटे प्रार्थनाओ छे. एमां चक्रेश्वरी देवी, गोमुखयक्ष, १६ विद्यादेवीओ तथा महालक्ष्मी, त्रिपुरा इत्यादि अन्यान्य अनेक देवताओने पण स्मरवामां आव्यां छे, ते नोंधपात्र छे. ते पछी आ तर्पणविधि ज्यारे करातो होय ते वर्ष-अयन-ऋतु-मास-पक्ष-तिथि-वारना निर्देश सहित, आ तर्पणविधि जेना श्रेय-गति अर्थे थतो होय ते मृत पितृओनो उल्लेख करवानुं सूचन छे. ते पछी आ तर्पण कराववाथी थता लाभो आ प्रमाणे नोंध्या छ : आ तर्पण थकी सघळां पूर्वजो तृप्ति पामे छे; जे पूर्वजो/स्वजनो अग्नि, विष, सर्प आदि कारणे के शत्रुकृत कामण टूमण के शस्त्रप्रयोगथी माँ होय; कूवा आदिमां डूबीने के पर्वत परथी जंपापात करीने के भूख-तरस-रोगादिवशे माँ होय; धननाशने के प्रियना. वियोगने लीधे जे माँ होय; वळी कोई बाळक, युवान, वृद्ध, स्त्री, हठाग्रही कुमारो, पुत्रविहोणां गोत्रीया जनो, ऋणने लीधे पूर्वजन्मनां वैरी होय तेवा लोको वगेरे जे कोई मयां होय, ते सोने Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ प्रीति-प्रसन्नता प्राप्त थाय तेमज मृतात्माओ मात्सर्य त्यजी, निर्वैर बनी, प्रीतिभाव सर्जी, सुख-गति प्राप्त करे अने अप्रसन्नता छोडीने सुप्रसन्न थाय तेवी प्रार्थना अहीं करवामां आवी छे. वळी, आ तर्पणविधि करवाथी मूळ अने अश्लेषा नक्षत्रमा जन्मेला जनकना ते दोषो शमे छे: कुस्वप्न, अपशुकन, अपमुहूर्त-आदिरूप अशुभ भावो शुभमां परिणमे छे; चोर नासे छे; शत्रु त्रासे छे; सर्पादि मूंझाय छे; वैरीओ शोकग्रस्त थाय छे; उपद्रवो नष्ट थाय छे; वृक्षो फळे छे; धान्य नीपजे छे; पृथ्वी पर नित्य उत्सव प्रवर्ते छे - इत्यादि अनेक वातो प्रार्थनाना सूरमां आमां सूचवाई छे. दंडकने प्रांते सौनां कल्याणनी शुभ प्रार्थना मूकी छे. दंडकविभाग पछी आवे छे अनुष्ठानविभाग. आ तर्पणविधिने 'ऋषभतर्पण' नाम आपवामां आव्युं छे अने आ कृतिना छेवाडे निर्देश्युं छे तेम आ विधि जैन श्वेतांबर संघने प्राणपणे पूज्य श्रीशत्रुजयतीर्थ(पर्वत) पर आवेला रायणपगलां (ऋषभदेवनी रायणवृक्ष तळे विराजती पादुका) समक्ष ज करवानो छे तेथी, आ बीजा विभागमा प्रथम, यजमाने (तथा विधिकारके) भूमिशुद्धि तथा स्नानाचमन मंत्रपूर्वक कर्या पछी, ऋषभदेवनी प्रतिमाने पूर्वाभिमुख के उत्तरभिमुख पधरावीने ते पर सुगंध-जल-कलशाभिषेक, दूधनो, घीनो, इक्षुरसनो तथा सर्वोषधीनो अभिषेक-करवाना छे. ते पछी पुष्प, अक्षत, फल, धूप, नैवेद्य पूजा करीने आरती-मंगलदीवो करवापूर्वक ऋषभतर्पणनो दंडक-पाठ बोलता बोलतां अखंड जळधारा वडे शांतिकळश भरवानो छे. आथी समजाय छे के पहेलां विभागमांना दंडक-पाठनो उपयोग अहीं करवानो छे. आ रीते, विधि पूरो थया बाद मंत्रपाठपूर्वक मुनिराजोने सुपात्रदान करवानुं सूचन छे ने त्यारबाद विसर्जनविधि छे.. प्रान्ते आ ऋषभतर्पण समृद्ध गृहस्थ वर्षमां बे वार करावे तो तेने विपुल लक्ष्मी मळे छ; अने शत्रुजयतीर्थे रायणवृक्षतळे करे तो तेना पूर्वजोनी सद्गति थाय छे तथा तेना दोषो शमे छे, ओम महिमा वर्णव्यो छे, अने सूचव्युं छे के आ विधि, उपरिकथित हेतुओ सिवाय पण, बिंबप्रतिष्ठा, देवभोज्य अने विवाह आदि मंगल कार्योना अवसरे करवामां आवे तो, ते करनारने कार्यसिद्धि थाय छे; पुत्रीने बदले पुत्र प्राप्त थाय छे; लाभ न थतो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनुसंधान-२१ होय तो लाभ थाय छे; ने दुष्टजनोना उपद्रवो दूर थाय छे. अने नित्य आ ऋषभतर्पणनो पाठ करे तेने (शत्रुजयनी) यात्रा- फळ (घेर बेठां) मळे छे. आ कृति अद्यावधि अप्रगट छे, अने आनी बीजी कोई प्रति क्यांय उपलब्ध थयानुं जाणमां नथी. एटले बीजी प्रति न मळे त्यां सुधी प्रस्तुत गुटकागत आनी प्रति ते एकमात्र प्रति छे एम मानवं जोईए. श्रीऋषभतर्पणम् ॥ ॥५०॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ।। नमः श्रीपरमात्मने आदिपुरुषाय प्रथमभूपतये श्रीनाभिजन्मने वृषभध्वजाय श्रीमरुदेवोत्सङ्गसङ्गिने सुवर्णवर्णाय पञ्चशतचापोच्चाय ललिताङ्गाय सुमङ्गला-सुनन्दाऽऽनन्ददायिने पुत्रशतसनाथीकृतदिक्चक्राय काञ्चनदां(दा)न चमत्कृतसुपर्बतरवे प्रथममुमुक्षवे दक्षाय ज्ञानगर्भाय प्रकटितसकलव्यापाराय कल्पद्रुमफलिते(ता?)भ्यवहाराय क्षीरनीरनिधिनीरपायिने अष्टापदगिरिशिरःक्षिप्ताऽष्टकर्मणे विमलाचलचूलाधिरूढप्रौढश्रियः (ये) प्र(प्रि)यालूतरोर्मूले 'मसवसताय' (? समवसृताय) त्रैलोकि(क्य)स्वामिने पुण्याध्वदर्श(शि)ने सर्वदर्श(शि)ने सर्वज्ञाय जगत्पितामहाय महीयसे [देव] दानवपूजिताय वासवार्चितांहूये शरण्याय तीर्णभवारण्याय ।। नशा श्रीं क्लीं ब्लू वषट् । स्वस्ति ते भगवतेऽर्हते पुण्डरीकाय । स्वस्ति मरुदेवायै । स्वस्ति नाभये । स्वस्ति भरताय भरतचक्रिणे । स्वस्ति बाहुबलये महाबलाय । स्वस्ति सुमङ्गलायै । स्वस्ति सुनन्दायै । स्वस्ति ब्राहृयै। स्वस्ति सुन्दर्यै । स्वस्ति मरीचये । स्वस्ति श्रीयांसाय । स्वस्ति वर्धमानाय सगौतमाय ॥ भगवन् ! नमस्ते सत्त्वरजस्तमोऽतीताय ऋषभाय । नमः पुण्डरीकाय । नमो मरुदेवायै । नमो नाभये । नमो भरताय भरतचक्रिणे । नमो बाहुबल[ये] । महाबलाय नमः । सुमङ्गलायै नमः । सुनन्दायै नमः । नमो ब्राहल्यै । नमः सुन्दथें । नमो मरीचये । नमः श्रीयांसाय । नमो वर्द्धमानाय सगौतमाय ।। प्रभो ! प्रथमतीर्थङ्कराय भगवते वषट् । भरताय भरतचक्रिणे वपट् । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ १५ वषट् बाहुबलये । महाबलाय वषट् । सुमङ्गलायै वषट् । सुनन्दायै वषट् । ब्राह्म्यै वषट् । सुन्दर्यै वषट् । मरीचये वषट् । श्रीयांसाय वषट् । वर्द्धमानाय सगौतमाय [ वषट् ] ॥ स्वामिन (न्) । प्रथमयोगिने भगवते स्वाहा । पुण्डरीकाय स्वाहा । मरुदेवायै स्वाहा । नाभये स्वाहा । ब्राह्म्यै स्वाहा । सुन्दर्यै स्वाहा । मरीचये स्वाहा । श्रीयांसाय स्वाहा । वर्द्धमानाय सगौतमाय स्वाहा ॥ स्वस्ति मे सु ( स ) परिकराय । स्वस्ति यजमानाय सपौत्राय । स्वस्ति राज्ञे । स्वस्ति प्रजाभ्यः । स्वस्ति साधुसङ्घाय । स्वस्ति यजमानाय (मान) पूर्व्वजेभ्यः । वषट् यजमानपूर्व्वजेभ्यः । स्वाहा यजमानपूर्व्वजेभ्यः । स्वाद्वय(स्वधा) यजमानपूर्व्वजेभ्यः ॥ स्वामिन् ! श्रेयांससद्मनि रसालरसेन कृतपारणस्य यजमानस्य सपुत्रपौत्रस्य ट(?) भूयात् । तथा श्रीह्रीधृतिकीर्तिकान्तिबुद्धिमेधाः सिद्धयन्तु भवत्प्रसादेन । मतिं देही (हि) । गतिं देही (हि) । श्रियां (यं) देही (हि) । कल्याणं देही (हि) || ॥ श्रीँ एँ जये विजये जयन्ते अपराजिते सर्व्वार्थसिधे(द्धे) भगवति कूष्माण्ड चक्रेश्वरि शासनदेवते गोमुखयक्षराजप्रिये ! देहि मे वरम् । सम्पादय यजमानस्य वाञ्छितम् ॥ रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वज्रशृङ्खला- वज्राङ्कुशी - चक्रेश्वरी - नरदत्ता - कालीमां (मा) नवी महाकाली - गौरी - गान्धारी - सर्वास्त्रमा (म) हाज्वाला मानसी महामानसीति षोडशविद्यादेव्यः । महामाया तारा त्रिपुराऽम्बिका वैरोट्य(ट्या) कुलदेवी पद्मावती गण (णि) पिटक क्षेत्रदेवता - शान्तिदेवता - गणपति ब्रह्मशान्ति - सर्वानुभूति गोमुखप्रमुखा यक्षा ( : ) । हरिहरब्रह्मादयो देवा (:) । शक्राद्या लोकपाला ( : ) । सूर्यसोमाङ्गारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनि (नै)श्चरराहुकेतवो ग्रहाः । प्रभो ! तवानुभावने (वेन) प्रसीदन्तु । सद्यो वरदा भवतु (न्तु) स्वाहा ॥ अमुष्मिन् संवत्सरे, अमुष्मिन् अयने, अमुष्मिन् ऋतु (तौ), अमुष्मिन् मासे, अमुष्मिन् पक्ष, अमुकतिथौ अमुकवारे, अमुकज्ञाते (तौ), अमुकगोत्रे, - - अच्छुप्ता सरस्वती - महालक्ष्मी - - - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनुसंधान-२१ अमुकसुतस्य, अमुकयजमानस्य पितॄणां तृप्तये, प्रीतये, श्रेयोऽर्थं, गत्यर्थं प्रारब्धमिदं तं(?) ऋषभतर्पणम् ।। अनेन तर्पणेन तृप्यन्ति सर्वेऽपि पूर्वजाः पितृ-पितामह-प्रपितामहाद्या माता-मातामहपुरस्सराश्च; पितृव्य-भ्रातृ- भ्रातृव्य-पुत्र-कलत्रप्रमु[खा] वह्नविषसर्पव्याघ्रालर्कगजगोमहिषीहता(:). वैरिकार्मणशस्त्रप्रयोगमृताः, कूपसरः सरिन्निमग्नाः, गिरितरुपातभग्नाः, क्षुत्पिपासाद्दिताः, रोगदोषकण्टकपाशादिकष्ट(ष्टै)श्च्युयुतजीविताः, धनहानि-वल्लभावियोगविनष्टाश्च ये बाला युवानो वृधा(द्धा):, स्त्रियाः(यः) कुमारजटिलाः, अपुत्राः, गोत्रिणः, सहमृता रु(ऋ?)ण सम्बन्धिनः पूर्वजन्मवैरिणः, पापा अगतिका मुद्गला भूताः, क्लेशकारिणः । सर्वेऽपि ते प्रीयन्तां प्रीयन्ताम् । ह(ह)ष्यन्तु, तुष्यन्तु, मुच(ञ्च)न्तु, मत्सरं त्यजन्तु, अवैरं भजन्तु, प्रीति सृजन्तु, शर्माणि लभतां(न्तां), गतिं लभतां(न्तां), अप्रसन्ना: सुप्रसन्ना भवन्तु ।। या श्री अहूँ श्रीऋषभस्वामिने स्वाहा ॥ अन्यच्च-मूलाऽश्लेषाग्रहणगण्डान्तजातस्य विषकन्या[या]श्च दोषजातं यातु यातु । कुस्वप्न -कुशकुनकुमुहूर्ताद्या अशुभा भावा(:) शुभं(भा) भवतु(न्तु) । नश्यन्तु तस्कराः । [त्र] स्यन्तु शत्रवः । मुह्यन्तु पन्नगाः । शोच्य(च)न्तु वैरिणः । प्रयान्तु ईतयः । वर्षन्तु जलधराः । फलन्तु शाखिनः । निष्पद्यतां (न्तां) कर्षणानि । नित्योत्सवैर्गर्ज़न्तु(तु) पृथ्वी । प्रसीदन्तु पृथिवीभुजः । न्यायधर्माध्वनि वहन्तु लोकाः । स्फुरन्तु सतां मन्त्रा: । जायन्तां पुत्रवं(व)त्य: सत्य(:) स्त्रियः । स्फूर्ज(ज)तु धर्मः । श्रवंति(तु) क्षीराणि गावः । गायन्तु गेहे गेहे मङ्गलानि मृगाक्ष्यः । नृत्यन्तु जिनालये भावसाराः । सिद्धयन्तु पुण्यवतां मनोरथाः । वर्धन्तु(न्तां) श्रियः ॥ ४ ऐं क्ली हुँ फुट् स्वाहा ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणा: । [दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवतु लोक: ॥१॥] श्री ऋषभतर्पणमिदम् ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ऑक्टोबर २००२ अथ ऋषभतर्पणविधिः ॥ प्रसन्नेऽह्नि सूरिः कृतस्नान(:)शुचि(:) शुचिवस्त्रालङ्करणः प्रातरधी(र्थी) श्राद्धः सुधीर्मेध्य(:) गृहमेधिनः(मेधी) सौधमध्यास्य विधिज्ञः सविधीकृतः वीर उच्चि ऊर्खसी(शी)प्रिये सर्वसहे रत्नबीजवह्निबीजकुल जनर्चिविस्वोपकारिणि प्रकृतिपुण्यवसुन्धरे पवित्रीभव मां पावय पावय नमोऽर्हते स्वाहा ॥ ___ अनेन दिक्षु वासक्षेपात् भूमिशुधिः(द्धिः) || मृदम्भसा च कुर्यात् शुधिः(द्धिः) । स्वर्णरेखा-गजपद-गङ्गा-सिन्धु-सरस्वती । .. परमेष्ठिपदान्येभिः स्नानमाचमनं चरेत् । स्नानाऽऽचमनमन्त्रः ॥ तत(:) सचन्दनः(न)स्वस्तिके स्थाले प्रागुत्तराभिमुखं श्रीऋषभं निवेश्य गन्धाम्बुभृतं कलशं करे कृत्वा पठति शकैः सुमेरुशिखरे-ऽभिषिक्तं तीर्थवारिणा (यत्त्वाम्) (?) । पश्यन्ति स्म ये स्वामिन् !(?) ते धन्या धरणीतले ॥१॥ सिच्यमानोऽन्वहं वृक्षः, काले फलति वा नवा । जिनकल्पद्रुमोऽवश्यं, वाञ्छाऽतीतफलप्रदः ॥२॥ स्नानमन्त्राः ।। यदा बाल्ये त्वया पीतं क्षीरं क्षीराम्बुधेः प्रभो ! । तद्वद् मन्यस्व गोस्वामिन् ! गोक्षीरं मदुपाह(ह)तम् ॥३॥ दूध(दुग्ध) स्नानमन्त्रः ।। सत्त्वं सत्त्वनिधेस्तस्य तापितं परमामृतम् । घृतं तवाङ्गस्पर्शेन, शीतीभवितुमिच्छति ॥४॥ घृतस्नात्रम् ॥ यथा श्रेया(यां)सराजस्य, रसस्ते श्रेयसेऽभवत् । स्नात्रे पवित्र(त्रि)तस्तद्वत्, प्रीयते भवतु प्रभोः ॥५।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ इक्षुरसस्नात्रम् ॥ पादयोरौषधीनेता, लुठति स्म तवाऽन्वहम् । इति(ती)व सर्वोषधयः, स्वामिभक्त्या "दुहौ दोष मपहंति स्म चंदन ॥६॥ (चन्दनकिरे:) ॥ (?) १ सौषधीस्नात्रम् ॥ लगित्वाऽङ्गे जिनेन्द्रस्य, नित्यामोदसुनिर्मलः । "निजं(जां)निफ(ष्फ)लता(तां) पुरा जग्मु(:) सुमनसः __कोटिशः स्वयमर्हतम् । नामसाम्यागुणोद्गुणोदबधा नीयन्ते तु जनाजनैः ॥७॥ (?)"२ पुष्पारोपणम् ॥ न क्षतं क्ष(क्षि)तिपीठेऽपि स(?)चलितं(ते) तस्य जायते ।३ पुरा(र)स्तादार्हतो भक्त्या, यो मुञ्चत्यक्षतोच्चयम् ॥८॥ अक्षतढौकनम् ॥ चैतन्यं सुकुले जन्म वैदुष्यं जीवितं धनम् । सफलीक्रियते सर्बे(ब), जिनाग्रे फलढौकनात् ॥९॥ फलम् ॥ रराज जिनराजस्य धूपध्यां(ध्या)नलिनं (?)वपुः । सुपर्वपर्वतस्येव, जलदालिगतं शिरः ॥१०॥ धूपं(पः) ॥ नैवे()द्यं जायते किञ्चित्, प्राणिनस्तस्य कर्हिचित् । नैवेद्यं वीतरागस्य य: कल्पयति कल्पचि(वि)त् ॥१॥ नैवेद्यम् ॥ विधिरुत्तारणी कार्षते (ण्यकार्युः ?) पञ्चापि सुरशाष(खि)नः । पञ्चदीपालिदम्भेन, तव दानविमा(मो)हिताः ॥१३|| आरात्रिकम् ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २००२ दीपस्त्वमेव गोस्वामिन् ! विश्वमोहतमोहरः । दीपो मङ्गलदम्भात् ते, सुरैरुत्तारणे कृतः ॥१४॥ मङ्गलदीपः ॥ ततोऽर्हतः पुरस्तात् पुष्पाक्षतफलनालिकेरपूगमुद्रापूर्णं पूर्णकलशं [संस्थाप्य श्रीऋषभतर्पणमन्त्रं स्मरन्नक्षतकलशाम्बुधारया कलशं पूरयेत् । ततो मुनिनाहूय (नीन् आहूय) पादान् प्रक्षाल्य मिष्टान्नपानवस्त्राद्यैः प्रतिलाभ्य भक्तिप्रह्वः श्राद्धः पठति यथा वासोऽर्हते दत्त(तं), दीक्षाकाले बिडौजसा । तथा मुनिभ्योऽहमपि, ददामि स्वामिवत्सलः ॥१॥ * पितरः साधुरूपेन(ण) भवतु(न्तु) परमेश्वराः । . स्वस्मै स्थानाय गच्छन्तु, प्रसन्ना मम भक्तित: ॥२॥ पूजाविसर्जने ॥ इदं ऋषभतर्पणं यः समृधो(द्धो) ग्र(ग)ही वर्षमध्ये वारद्वयं कारयेत्, तस्य विपुला वर्द्धते(न्ते) श्रियः । श्रीशत्रुञ्जये प्र(प्रि)याल(लू)मूले कुर्वतः पूर्वजा गतिं लभन्ते, दोषोपशम: स्यात् । बिम्बस्थापने, देवभोज्ये, विवाहादौ च कुर्व्वतः सर्वकार्यसिधि:(द्धिः) । पुत्रिकोत्पत्तौ पुत्रप्राप्तिः । अलाभे लाभः । खलार्थे खलोपशमः स्यात् । नित्यं य: पठ्यमानं शृणोति तस्य यात्राफलं भवेत् ॥ इति श्रीऋषभतर्पणविधि(:) सम्पूर्णः ॥छः ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती स्तोत्र . कर्ता : श्रीदयासूरि (?) सं साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री डभोईना ज्ञानभंडारनी ज क. ५३३-४४०७नी एक पानानी प्रतनी नकलना आधारे संपादन करीने आ सरस्वतीदेवी, स्तोत्र अहीं आप्युं छे. स्तोत्रनो प्रारंभिक श्लोक जोतां कृति कोई अजैन कविनी लागे. अष्टकनी दरेक कडीनी चोथी पंक्तिमां 'जय जय भवानी' एम छे, ते पण एवं ज सूचवी जाय छे. परंतु छेल्ली कडीमां 'दयासूरिदेवी' एवो उल्लेख छे ते 'दयासूरि' नामंना कोई जैन मुनिराजनी आ रचना होवानुं मानवा प्रेरे छे. 'दयासूरि' नाम जैन मुनिराजनुं होवा विषे तो बे मत नथी ज. वळी तपगच्छना श्रीपूज्योनी परंपरामां से नामना एक श्रीपूज्य-आचार्यजी थया पण छे ज. मने जाणवा मळ्युं ते प्रमाणे श्रीपूज्य आचार्यने चारण-कविओ साथे विशेष संपर्को रहेता हशे, अने तेथी चंद बारोटना प्रसिद्ध 'भवानी छंद' जेवी रचनाओथी प्रेराईने तेमणे आ प्रकारनी एटले के चारणी कविताना प्रकारनी आ रचना करी हशे, एम बनवा जोग छे. आ स्तोत्र पण 'त्रिभंगी' अथवा 'गजगति' छंदमां छे तेवू पण जाणवा मळ्युं छे. समग्रपणे स्तोत्रनुं अवलोकन करतां, सरस्वती माताना 'शक्ति' स्वरूपनी स्तुति थई छे, तेवं सहेजे जणाई जाय छे. (मध्यकालीन) गुजराती साहित्य कोश'मां १९मा सैकामां 'दयासूर' थयानो तथा तेमणे सरस्वती-छंदनी रचना करी छे तेवो उल्लेख (पृ. १६८) छे, ते आ ज हशे. श्री शारदाय नमः ॥ विजया शांतिकरा देवी निर्मलमतप्रकासनि वीर्यबिंदू करे शंभू जया प्रिया नमोस्तु ते ॥१॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ बुध विमलकरणी बिबुधवरणी रूपरमणी नीरखीइं वर दीयण बाला पदप्रवाला मंत्रमाला हरखीइं थीरथान थंभा अतिअचंभा रूपरंभा भलकती जयजय भवानी जगत जांणी राजराणी सरसती ॥१॥ सुरराजसेवीत पेखि देवत पदमपेखीत आसणं सुखदाय सुरति मायमूरति दूखदूरीत निवारणं त्रिहुं लोकतारक विघनवारक धराधारक धरपती जय जय भवानि० ..... ॥२॥ कंटकां कोपती लाख लोपती अवनी ओपती ईश्वरी संता(तो)सुधारणी विघनवारणी मदनमारणी मिश्वरी खलदलां खंडणी छीद्र छंडनी दृष्टडंडणी नरपती जय जय भवानि० ..... ॥३॥ शिवसगत साची रंगराची अज अजाची योगिनी मदझरती मत्ता तरुणतत्ता धत्तधत्ता जोगिनी जीह्वा जपंती मन रमंती धवलदंती वरसती जय जय भवानि० ..... ||४|| झणणाट झलरी धूधूमि धूधरी रीरीरी रीववर बज्जए धधधौंकीधीगुदां धधकीधिरदां थथकिथीगुदां गज्जए द्रां द्रांकी द्रां द्रां रुरुमिद्रांद्रां ततकी त्रां त्रां दमकती जय जय भवानि० ..... ॥५॥ रिमिरिमिकी रिमिरिमि झूझूमी झीमि झीमि ठीमिकी ठीमि पग नच्चए घमघमकि घमघम गुणकी गुणगम अति अगम नृत्य नच्चए ततथैय तत्ता मानमत्ता अचल आनन दरसती जय जय भवानि० ..... ॥६॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ . जलथल जणाणी पवनपाणी वन वखांणी वीजली गीरवरां गाहणी वाघवाहणी सरपसाहणी सीतली हरहाक ताहरी हथां हजारी धनुषधारी भगवती जय जय भवानि० ..... ॥७॥ चक्र चालणी गर्व गालणी झटकझालणी गंजणी बीरुदां वधारणी महिषमारणी दलिद्रदारुणी भंजणी चरचीइं चंडी खलोखंडी मुदीतमंडी मुलकती जय जय भवानि० ..... ॥८॥ कवि करे अष्टक टाल कष्टक पीसुन प्रीष्टक कीजिई मणमौलिमंडित पढेहि पंडित आई अखंडीत देखीइं दयासूरिदेवी सुरां सेवी नीतमेवी जगपती जय जय भवानि० ..... ॥९॥ इति श्री सरस्वती स्तोत्रं ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. विज्ञप्तिका संग्रह प्राकृत- अपभ्रंश भाषामय. आ विज्ञप्तिकासंग्रहमां छ विज्ञप्तिओ छे. जेमां प्रथम त्रण विज्ञप्तिओ तपगच्छना त्रण आचार्योनी, चोथी महत्तरा साध्वी श्रीचारित्रचूलानी, पांचमी चतुर्मुख श्रीमहावीरस्वामिनी अने छठ्ठी श्रीसीमंधरस्वामिनी छे. अत्यंत सुंदर विशेषणोथी गर्भित स्तुतिओ अने विनंतिओ आ विज्ञप्तिओनी लाक्षणिकता छे. वळी, उत्तम शब्दो अने अलंकारोना प्रयोगो साथे व्यवस्थितपणे छंदोमां गूंथायेली होवाथी रचयिताना काव्यकौशलने रजू करे छे. १. सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय प्रथम विज्ञप्ति तपगच्छाचार्य श्रीज्ञानसागरसूरि भगवंतनी छे । तेओ प्रसिद्ध आचार्य सोमसुंदरसूरिना शिष्य छे अने देवसुंदरसूरिना गुरु छे । आ विज्ञप्तिमां विज्ञप्तिकार आचार्य भगवंतना विविध गुणोनुं उत्तम रीते वर्णन करे छे । जेमां तेमना ज्ञान दर्शन - चरित्र - जनप्रतिबोध - मोहजय - तप वगेरे गुणो तथा शरीरनां विविध लक्षणोनुं वर्णन छे । छेल्ला (१०मा) पद्यमां गुणकीर्तननुं फल जणावतां कह्युं छे के आ रीते जे आपना गुणोने स्तवे छे तेओ शीघ्र मोक्षना सुखने पामे छे । १० कडीनी आ विज्ञप्तिमां १ थी ९ कडीओ २० मात्राना समचतुष्पदी स्रग्विणी छंदमां छे अने छेल्ली कडी अपभ्रंश साहित्यमां प्रसिद्ध ३२ मात्राना द्विपदी घत्ता छंदमां छे जेमां यति १०-८-१४ मात्रा पर थाय छे । - द्वितीय विज्ञप्ति विशाल तपगच्छरूपी गगनमां दिनकर समान तेजस्वी आचार्य श्रीकुलमण्डनसूरि भगवंतनी छे । अहीं पण विज्ञप्तिकार पूर्ववत् तेमना शरीरनां लक्षणोनुं तथा कुमतभेद - उत्तमधर्मदेशना - जिनागमपारगामिता- समिति - गुप्तिपालन क्षमा वगेरे विविध गुणोनुं वर्णन सुंदर शब्दोमां करे छे अने अंते गुणकीर्तननुं फल मोक्षसुख छे तेवुं जणावे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ३. ४. W छे । ८ पद्योमां पथरायेली आ विज्ञप्ति २४ मात्राना समचतुष्पदी रोला छंदमां ' रचायेली छे । अनुसंधान - २१ तृतीय विज्ञप्ति गंगाजल जेवा स्वच्छ तपगच्छना मंडन एवा श्रीगुणरत्नसूरि भगवंतनी छे । अहीं रचयिता तेमना तर्कशास्त्रादिनैपुण्य-शुद्धसंयमजितेन्द्रियत्व - कर्मविदारण-संशय छेदन - उग्रतप-जिनाज्ञापालन वगेरे गुणोनुं तथा शरीरलक्ष्मीनुं वर्णन मनोहर शब्दोमां करे छे अने अंते तेमना गुणस्तवननुं फल स्वर्गसुखपूर्वकनुं मोक्षसुख छे एवं जणावे छे। क्रियारत्नसमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चयनी टीका इत्यादिना प्रणेता आ ज गुणरत्नसूर छे. आ विज्ञप्तिना दसेय पद्यो २० मात्राना समचतुष्पदी स्रग्विणी छंदमां रचायेला छे । चोथी विज्ञप्ति श्रीचारित्रचूला नामे महत्तरा साध्वीनी छे । जैनसाहित्यमां भाग्ये ज जोवा मळती, कोई साध्वीजी विशे कोई साधु द्वारा रचायेली, आ गुणस्तवना छे । तेमना विशे जो के, बीजी कोई माहिती मळती नथी । आ विज्ञप्तिमां महत्तरा श्रीचारित्रचूला भगवतीना सम्यक्त्व - चारित्र - यश:- गुर्वाज्ञापालन - जयणा-समता- सिद्धांतज्ञान- अभयदानदुष्करतप- कषायजय - वैराग्य वगेरे गुणोनुं लालित्यसभर पदोमां वर्णन कर्तुं छे । अंते गुणस्तवनानुं उत्तमलक्ष्मी वगेरे फल बताव्युं छे । आठ पद्यमय आ विज्ञप्ति २४ मात्राना समचतुष्पदी रोला छंदमां रचायेली छे । पांचमी विज्ञप्ति चतुर्मुख श्रीमहावीरस्वामिनी छे । आ चतुर्मुख श्रीमहावीरस्वामिनं चैत्य कया स्थळे छे ते विशे कोई संदर्भ प्राप्त थतो नथी । अहीं विज्ञप्तिकार भगवंत श्रीमहावीरप्रभुनां शरीरलक्षणोनुं तथा भयनाश-संसारतारकता- मोहजय- सुरनरपूज्यता वगेरे गुणोनुं वर्णन अलंकारिक भाषामां भाववाही रीते करे छे। अने अंतिम पद्यमां गुणस्तुतिनुं फल उत्तमदेवपणुं जगावे छे । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २००२ आ विज्ञप्तिनां प्रथम १० पद्यो पद्धडिया । पज्झटिका छंदमां रचायेलां छे, जे १६ मात्रानो समचतुष्पदी छंद छे अने जेना दरेक पदना छेडे जगण छे । छेल्लं पद्य १०-८-१४ मात्रानी यतिवाळा ३२ मात्राना द्विपदी घत्ता छंदमां रचायेलुं छे । छठ्ठी विज्ञप्ति विहरमान तीर्थंकर श्रीसीमंधरस्वामिभगवाननी छे । अहीं पण विज्ञप्तिकार पूर्वनी जेमज भगवानना मनोवांछितदायकता-जगदुरुता वगेरे अनेक गुणोनुं वर्णन तथा शरीर-लक्षणोनुं वर्णन मनोज्ञ पदो द्वारा करे छे अने अंते गुणस्तव- फल शिवसुख छे तेवू जणावे छे । । आ विज्ञप्ति २४ मात्राना समचतुष्पदी रोला छंदमां रचायेली छे अने तेनुं छेल्लु पद्य १०-८-१४नी यतिवाळा ३२ मात्रायुत द्विपदी घत्ता छंदमां रचायेलुं छे । कर्ता : पांचमी तथा छठ्ठी विज्ञप्तिना रचयिता तरीके पुष्पिकामां पं.. श्रीधर्मशेखर गणि, नाम छे । शेष चार विज्ञप्तिमां कोई नाम नथी । छतां विज्ञप्तिनी भाषा तथा रचनापद्धति जोतां छए विज्ञप्तिओना रचयिता पं. श्रीधर्मशेखरगणि ज होय तेवं निश्चितपणे जणाय छे । विहारना कोइ क्षेत्रना ज्ञानभंडारमाथी प्राप्त थयेल आ प्रतिनी झेरोक्ष कॉपी परथी आ संग्रहनुं संपादन कर्यु छ । प्रतिनी स्थिति तथा अक्षरोना मरोडो वगेरे जोतां आ प्रतिनुं लेखन १५ मा सैकामां थयुं होय तेवू अनुमान करी शकाय छे । अक्षरो अत्यंत सुंदर तथा स्वच्छ छे । दरेक पत्र पर १७ पंक्तिओ छे, छेल्ला पत्रमा ९ पंक्तिओ छे । . विज्ञप्तिकासङ्ग्रहः श्रीज्ञानसागरसूरिविज्ञप्तिः विमलचारित्तपरिकलियवरदेहओ, भत्तिजुयभवियजणनमिपयपंकओ । अमयसमनिय(य)वाणीइ महिबोहगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ॥१॥ इंदुसमकित्तिभरभरियभूमंडलो, सूरिछत्तीसगुणजुत्त-बहुमंगलो ।। पवरसिद्धंतजलहिस्स जो पारगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ॥२॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ संख-धणुपमुहवरलक्खणालंकिओ, जस्स तवतेयजियहेलि गयणे ठिओ । पणयलोयस्स बहुरिद्धिसुहदायगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ॥३॥ सिद्धिसीमंतिनीगाढकयनियमणो, मोहरायस्स. अइपबलबलभंजणो । जियविस्सस्स कामस्स विद्धंसगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ॥४|| रागदोसाइसत्तूहिं अग्गंजिओ, मोहतरु पूढलेहाइ जिणि भंजिओ । भावभयदुक्खरासिस्स कयअंतगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणिनायगो ॥५॥ कोहदववारिसम वाइजणदारणो, माणअइमत्तकरिभेयपंचाणणो । धम्मविहिलीणभवियाण जो त(ता)रगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ।।६।। मेरुगिरिधीरगंभीर-भूविस्सुओ, सयलमुणिजायबहुहरिसकर सस्सुओ । जो सयाऽणेगगुणविउसगणरंजगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ||७|| रयणिकरगच्छगयणस्स भासणकरो, जो ड(उ) कम्मक्खए तीवकयआयरो । भुवणगिहमज्झि उज्जोयकर दीवगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ॥८॥ मोयजुयलोयसंथवियगुणसंचओ, असमसमयारसे अणुदिणं जो रओ । जीवअज्जीवमुहतत्तनवधारगो, जयओ(उ) सिरिनाणसायरमुणीनायगो ॥९॥ इय मुणिवइ ! तुह गुण, भवदुहखंडण, भत्तिजुत्त जे जण थुवई । सरणागयवच्छल ! गयबहुकसमल ! मुक्खसुक्ख लहु ते लहई ॥१०॥ ॥ इति पूज्याराध्य-भट्टारक-प्रभु-श्रीज्ञानसागरसूरि-विज्ञप्तिका समाप्ता ।। श्रीकुलमण्डनसूरिविज्ञप्तिः विमलविउलतवगच्छगयणभासणवरदिणयर, सयलगुणावलिकलियकाय-तवतेयसुभासुर । नि(न)मिरमहीतललोयजायमणवंछियपूरण, सिरिकुलमंडनसूरिराय जय भवियणबोहण ॥१॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ऑक्टोबर २००२ ससहरकरहरनिय(य)कित्तिपूरियभूमंडल, बहुविहलद्धिसमिद्धिसिद्ध-सरणागयवच्छल । रत्तुप्पलसमपाणिपायजुयलक्खणसोहण, नंद मुणीसर मुणियविस्स विसमायुधचूरण ॥२॥ कुमयपरुवगविविहवाइकरिभेयणपणमुह, विणयजुत्तनयसीसराय दूरीकयभवदुह । कसमलनासणपवधम्मदेसणकरसायर, पणमह सिरिगुरु भवियलोय भत्तिहिं अइमणहर ॥३॥ वाणिविणिज्जियअमयखंड-पावियबहुमंडल मोहमहाबलफलयवायु म(मु)णिजणआखंडल । कयछव्विहजी(जि)यताण माणभंजण भवतारग जय जय मुणिवर जि(जी)यमाय जिणआगमपारग ॥४॥ दुद्धरभावमहारिवारअग्गंजिय-रंजियवरमाणयभूपालमाल सिंधुरगयगामिय । सिद्धिरमणिकयनिय(य)चित्त चारित्तविभूसिय गत्तसुसत्त-जईसपाय पणमउ(ह) बहुभत्तिय ॥५॥ पंचसमइसंजुय नियमइनिज्जियसुरगुरु चत्तभया ऽऽमयरहियअंग तियगुत्तिहिं सुंदर । पंचिंदियवसकार तारसमलछि(च्छि)अलंकिय को न हु पणमइ तुह मुणीस ! विगहाइविमुक्किय ॥६।। अंतिमजलनिहितुल्लमुल्लगंभीरिमसंजय मुणिजणपालियआण भाणुसम महीयलि विस्सुय । दस-अडदोसविमुक्क रोसदावानलजलहर मेरुमहीधरधीर वीरसामियनयगणहर ॥७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ जे अणुदिण जण थवई भत्तिजुय मुणिवह ! गुण तुह सासयधम्माराममेहसंनिभ गयबहुदुह । पावई ते तियलोयमज्झि नर मणकयरंगं झत्ति सयामयरहियकाय-कमलावरसंगं ।।८।। ॥ इति भट्टारकप्रभुश्रीकुलमण्डनसूरिविज्ञप्तिका समाप्ता ॥ श्रीगुणरत्नसूरिविज्ञप्तिः गंगजलसच्छ-तवगच्छसिरिमंडणं, मुक्खपहलग्गभवियाण वरसंदणं । हार-डिंडीरसमणेगगुणसायरं, नमह सिरिजुय(त्त )गुणरयणसूरीसरं ॥१॥ निय(य)बुद्धीइ विनायतकागम, सुद्धतरभावभरगहियमुणिसंजमं । पावतमहरण-जिणधम्मदेसणवरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ।।२।। पवरनीरागमणहणियकामब्भडं, जि(जी)यजग(गं) पंचइंदियअइसंवुडं । सयलभवणंतगयजीवरक्खणपरं, नमह सिरिजुयगुणरयणसूरीसरं ।।३।। देसविद्देसबहुलोयपडिबोहगं, रम्भसंठाणतणुकंतिमहिमोहगं । कमलदलरत्तकरपायजुयसुंदरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ॥४॥ दुट्ठकम्मट्ठगयराइकंठीरवो, जो सया तज्जए भवियरागुब्भवो । नरयदुहवारिसंगहियवरसंवरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ॥५॥ भूरिभूलोयसंगीयगुणसंचयं, णेगजीवाण जो छिन्नए संसयं । अत्तकित्तीइ संभरियमहियंतरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ॥६॥ पुनवणदहणकोहग्गिनीरागमं, सिद्धिरामाइ जो इच्छए संगमं । शीलगुणकलियमुणिजायबहुसंकरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ।।७।। माणगिरिकूडसंहारवज्जोपमं, उग्गतवतेयसंहरियसूरुग्गमं । लोहतरुमूलउम्मूलणे कुंजरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ।।८।। तत्तवाएण परवायविक्खेवगं, णंतसुहकारिजिणआणसंसेवगं । मत्तरागाइभावारिकयसंगरं, नमह सिरिजुय(त्त)गुणरयणसूरीसरं ॥९।। इय जे थुवई मुणिराय ! सुद्धासया, तुज्झ गुणनियरमिह धम्मकरणुज्जुया । विउलभोगाई भुंजित्तु सुरआलये, जंति तेऽणुक्कमेणं पि मुक्खालये ॥१०॥ ॥ इति श्रीश्रीगुणरत्नसूरिविज्ञप्तिका समाप्ता ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ महत्तराश्रीचारित्रचूलाविज्ञप्तिः संखतुषारसमाणभूरिगुणकलियसुदेहा बहुविहआगमअत्थसत्थंसंवासियमेहा । भवभावणकयनिय[य]चित्तकरुणारससा(स)हिया महतरसिरिचारित्तचूलपय पणमउ भविया ॥१॥ सतरभेयचारित्तजुत्त सम्मत्तपवित्ता मुत्ताहलकप्पूरतुल्लजसधवलिय गुत्ता । दुग्गइकारणअट्टरुद्ददुगझाणनिवारणि महिमंडलि जा चंदसूर नंदउ सा साहुणि ॥२॥ पावतिमिरसंहारकारिवरभासुरवयणा गुरुजणपालियपवरआण संसाहियजयणा । रंकमहेसरलोयजायसमचित्तसहावा जय समणीगणविहियसेव गयदुहसंतावा ॥३॥ सावियजणपुरकहियचारुसिद्धंतवियारा निज्जियतिहुयणखोहकारपरउल्लणमारा । गामनगरबहुदेसभावजुयविहियविहारा पणमह सा साहुणि तिकाल भविया अवियारा ।।४।। तिहुयणवत्तिअणेगजीववियरियऽभयदाणा भवसायरनिवडतजंतुमंडलकयताणा । अइदुक्करतवकम्मकरणनासियदुक्कम्मा जयसि सयाऽऽसवरहियकायनिम्मियजिणधम्मा ।।५।। कोहविणासणि तीवकुडिलमायानिन्नासणि माणगइंदसु सिंहकप्प जिणसासणि भासणि । भवछेयगवेरग्गवारसंपूरियगत्ता नय(जय) सुहकारिणि ! जय सया वि साहुणि भयमुत्तां ॥६।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसंधान-२१ अह-निसिझाईयपंचजुत्तपरमिट्ठिसुमंता नारयखेवगरागदोसबलभेइणि दंता । नमह नमह भो भवियलोय ! सिरिमहतरपाया मुक्किय दुट्ठपमायसंग नियचित्तणुराया ॥७।। महतर सिरिचारित्तचूलविन्नत्तिऽभिरामा पढइ गणइ जे निय[य] भावसंजुत्त अकामा । विलसह ते सुह मही(हि)(य)लंमि गुरुलच्छिविसाला जायग-जण-मणवंछियत्थपूरणसुरसाला ॥८॥ ॥ महत्तराश्रीचारित्रचूलाविज्ञप्तिः समाप्ता ।। चतुर्मुखश्रीमहावीरस्तवनम् ॥ सिरिमंदिरसुंदरकायजाय, मयसंनय संनयरायजाय । भयभंजण भवदवनीरवाह, जय चउमुहगुरुमहावीरनाह ॥१॥ तुह सेवगु मुहजियसोम सोम, हुइ कोमल कोमलरोमतोम । दुहनासण सासणतायसाय, सिरिभायणु गय गयमायताय ॥२॥ जय सज्जणरंजण कोहलोह-दुहवज्जिय निज्जियमोहजोह । . सिवकामिणिकंठसुहारसार, कलकंचणरुइतणु तार तार ||३|| चिरमावयमहियलसीर धीर, जणलंभिय भवनववी(ती)र वीर । विभासुर-भासुर-चंद-वंद, नर-किन्नर-निज्जर-वंद नंद ॥४॥ मुणिपं(पुं)गव कयगुरुतोस पोस-मणवंछियमुज्झियरोसदोस । मह पूरय चूरय लक्ख लक्ख, छहजीवह निम्मियसुख(क्ख)-- दुख(सुक्ख ?) ।।५।। जय जिणवर जियरइकंत कंत, गुणसंमणिरोहण संत दंत । जमसंजमतमदुमनाग नाग, सुहसंपयपय हयरागनाग ॥६।। कर(रु) मह लहु मद्दियकम्ममम्म, सिववासय सासयरम्मसम्म । भवतारग पारग रोगसोग-हर छिडियनेहललोगभोग ।।७।। सम्मंडिय खंडियसाम काम-परिहरिय मणोहरधामराम । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ ३१ जय संजय नय गयतावराव, जियघणवण(वणघण?)सम समपावदाव ॥८॥ जगभूसण दूसणरित्ततत्त, मयसंमयमय नयसत्तपत्त । दिससंमय संमयसित्त मित्त-सम माणसवरतरगुत्त गुत्त ॥९।। गुरुतमतम महमहिपालजाल, जइवंदिय हयदुहवालमाल । हर भीसणभवभयभंगरंग, कलकेवलकमलासंग चंग ॥१०॥ इय चउम(मु)हवीरं सुरगिरिधीरं थुणइ जु पइदिण भत्तिनरु । सो जणमणरंजण दुहतरुभंजण भासुरसुंदर होइ सुर ॥११।। ॥ चतुर्मुखश्रीमहावीरस्तवनं पण्डितराज-पं. धर्मशेखरगणिकृतम् ॥ श्रीसीमन्धरस्वामिविज्ञप्तिः ॥ श्रीसीमंधरदेव देवनरदाणवनायग, वंदिउ निम्मलकंतकंति मणवंछियदायग । सिववणपल्लवणंबुवाह दुहदोहगखंडण सोहगसुंदर मेरुधीर जय तिहुअणमंडण ॥१॥ दाणवमाणवरायजायसुरनायगखोहण वम्महघायणजक्खलक्खथुय लोगविबोहण । जय जय संजय मुख(क्ख)दुख(सुक्ख) अइनिम्मलसोहण केवलकमलाकेलिगेह गुणगणमणिरोहण ॥२॥ निज्जियदज्जयरायरायमहिमंडलपावग तिहुअणगंजणलोहजोहबलपायवपावग । सग्गयनिग्गयरोगसोग जिणखंडियपावग करुणावल्लिसुकंद नंद सिवयरपुरपावग ॥३॥ मुणिवर ! जय जय वीयराय ! गयभव विसमागम सारय तारय रायराय मुहु सागसमागम । जलहर जलहर दुक्खलक्खहर हारिसमागमसोहग खोहगरोसदोसगयसीहसमागम ॥४।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनुसंधान-२१ नरवइ-सुरवइहारिनारिवरचक्ख(क्खु)सहंजण लक्खणलक्खियपाणिपाय जिणसज्जणरंजण । सुह सुह हर हर मोहकोहबलिकुंजरगंजण जय जय जय जयकारि मारिगुरुभूरहभंजण ॥५।। दमसमसंजमतार पारगयवम्महदुद्धर विसहर विसहर सोम सोम गइनिज्जियसिंधुर । भव भवभयभरभंगरंग जणमोहग सोहग- . दायग नायग पावदाव जय दोहगखोहग ॥६।। जणमणपंकयभाणु माणुकरिमारणवारणरिउसम समसमसारुदार भवसायरतारण । निग्गयदुग्गयतिक्खदुक्ख जय दारिददारणजलहर जलहरराव भावरिउवारणकारण ||७|| जय गयरय रयमाय रायनयसंनयसज्जलसरवर सिरिवर संत दंत बहुबाहुमहाबल । पणिमिरसुरवरमौलिमौलिमणिसुंदरभासुर रइभररंजियपायपीढ जय विस्सदिणेसर ॥८॥ ससहरहरहिमहारिहार हस सेससहोदर सियजसपूरियविस्स विस्सगुरु पत्तमहोदर । संजय संजयहारिहारितर वाणिविनिज्जि(ज्जि)यसारसियामय नंद देव दहदोसविवजि(ज्जि)य ॥९॥ इय जिणवरथुत्तं गुणगणजुत्तं, जंपइ गुणइ जो भवि(य)जणु । सो दुहतरुखंडण जय जणमंडण लहइ सिवलह(सुह) सुद्धमण(णु) ॥१०॥ ॥ श्रीसीमंधरस्वामिविज्ञप्तिः पं.धर्मशेखरगणिकृता ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियावादी-आदि ३६३ पाखण्डी-स्वरूप स्तोत्र सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय नव गाथाना प्राकृतभाषामय आ नानकडा स्तोत्रमा भगवंतने विज्ञप्ति करवाना मिषे, महावीर प्रभुना समवसरणमां आवता ३६३ पाखंडिओर्नु स्वरूप तथा गणना दर्शावी छ । ३६३ पाखंडिओमां क्रियावादी-१८० अक्रियावादी-८४ अज्ञानवादी६७ अने विनयवादी-३२ छे । क्रियावादीना १८० भेदोनी गणना आ प्रमाणे दर्शावी छे जीव स्वतः परतः एम बे प्रकारथी छे (२), ते पण नित्य तथा अनित्य छे (२x२=४), ते पण काल-नियति-स्वभाव-ईश्वर तथा आत्मा एम पांच कारणथी छे (४४५=२०) । आ रीते नव तत्त्वने गणवाथी (९४२०=१८०) १८० भेद क्रियावादीना थाय छे । अक्रियावादीना ८४ भेद आ प्रमाणे छे - जीव स्वत: परतः एम बे प्रकारथी नथी (२), ते पण कालयदृच्छा-नियति-स्वभाव-ईश्वर-आत्मारूप छ कारणथी नथी (२x६=१२) । आ रीते पुण्य-पाप सिवायना सात तत्त्वने गणवाथी (७x१२=८४) ८४ भेद अक्रियावादीना थाय छे ।। अज्ञानवादीना ६७ भेद आ प्रमाणे छे - सत्-असत्-सदसत्-अवक्तव्य-सदवक्तव्य-असदवक्तव्य-सदसदवक्तव्यरूप सात भांगामां नव तत्त्वने गणवाथी (९४७=६३) भेद थाय । तेमां सदुत्पत्ति-असदुत्पत्ति-सदसदुत्पत्ति-अवक्तव्यउत्पत्ति ए ४ भेद उमेरवाथी (६३+४=६७) ६७ भेद अज्ञानवादीना थाय छे । विनयवादीना ३२ भेद आ प्रमाणे छे - देव-नृप-यति-ज्ञाति-स्थविर-बालक-पिता-माता आ आठनो मनवचन-काया तथा दान रूप चार भेदे विनय करवाथी (८४४=३२) ३२ भेद विनयवादीना थाय छे । आ रीते गणना दर्शावी कर्ता स्तोत्रना अंते विनंति करे छे के-"हे स्वामिन् ! आप एवं करो के जेथी हवे पछी मने आ पाखंडिओ बाधा न Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसंधान-२१ पहोंचाडे ।" .. स्तोत्रनी शरुआतमां सिरिवज्जसेणपणयं ए पद छे । ते उपरथी एवं अनुमान थई शके छे के आ स्तोत्रनी रचना कोई वज्रसेनमुनिना शिष्य मुनिए करी हशे । अलबत्त, जैन परंपरामां वज्रस्वामिना शिष्य वज्रसेनमुनि प्रसिद्ध छे ते नोंधवा लायक छ । आ स्तोत्रनो रचना संवत् जणायो नथी । क्रियावादि-आदि ३६३ पाखण्डस्वरूप स्तोत्र सिरिवज्जसेणपणयं तणयं सिद्धत्थ-तिसलदेवीणं । पाखंडतिमिरनासण-सूरं वीरं नमसामि ॥१॥ सामी ! तुह मयरहिओ भोलविओ हं कुमग्गरूवेहिं । पाखंडविसेसेहिं तिसयतिसट्टेहि ते य इमे ॥२॥ असीयसयं किरियाणं अकिरियवाई होइ चुलसीइ । अन्नाणीण सत्त(त)ट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥३॥ अस्थि जिओ सो परंओ निच-अणिच्चो य कालओ निअओ । संसहावेसर-आया नव-पयगुण असीयसओ किरिया ॥४|| नत्थि जी(जि)ओ सों परओ काल-जइच्छा-नीअं सहाँवओ । ईसरे-आया सगतत्तसंगुणा किरिय चुलसीई ॥५॥ सर्य-असंयो-भय-वर्त्तव्य-सयवंत्तव्यो य असर्यवत्तव्यो । तदुभयँवत्तव्वजी(जि)ओ नवपयगुणिया य तेवट्ठी ॥६॥ सर्यभाव-अर्सयभावा तर्दुभय-अवत्तव्वभाव-उप्पत्ती । इय चउजुअ सत्तठी भेया अन्नाणवाईणं ॥७॥ मण-वयण-कायदाणे सुर-निव-जंइ-नाइ-थैर-अंवमेसु । पिय-माइसु अट्ठ चउगुण बत्तीस विणयवाईणं ।।८।। इय तिसय-तेवट्ठा पाखंडा च(य) जं कुग्गहगहीया । तं कुण जह मं सामी पुणो वि बाहंति नो एए ॥९॥ ॥ इति श्रीस्तवनसम्पूर्णम् ।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय बत्रीस गाथाबद्ध प्राकृतभाषामय आ प्रकरणमां ज्ञानावरणीय आदि कर्मोनी आठ मूळ प्रकृतिओ तथा १५८ उत्तरप्रकृतिओ, अने ते ते प्रकृतिनी उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिनुं स्वरूप दर्शाव्युं छे । आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचित नव्य पंचम कर्मग्रंथमां आपेल प्रकृति- स्थितिबंधना स्वरूप साथै आ प्रकरणमां आपेल स्वरूप प्राय: समान छे । परन्तु कोई स्थाने तफावत छे । जेम प्रकृति पंचमकर्मग्रन्थ प्रमाणे स्थितिबंध कम्मबत्तीसी प्रमाणे स्थितिबंध १५ कोडाकोडी सागरोपम १७३ कोडाकोडी सागरोपम १७३ कोडाकोडी सागरोपम १० कोडाकोडी सागरोपम ३० कोडाकोडी सागरोपम १७ कोडाकोडी सागरोपम १७ कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम १. सातावेदनीय २. नीलवर्ण नाम ३. कटुकरस नाम ४. उच्चगोत्र कम्मबत्तीसी आ प्रकरणना रचयिता उपाध्याय श्रीपूर्णलब्धिना शिष्य श्रीभानुलब्धिमुनि छे । आ प्रकरणनो रचना संवत् जणायो नथी । कम्मबत्तीसी ( अष्टकर्मणां प्रकृति-स्थितिस्वरूपम् ) सिद्धाण नमुक्कारं अट्ठकम्माण पयडि-ठिय (ई) वुच्छं । जीवाण बोहणत्थं सव्वे (व्व) दुक्खाण उद्धरणं ॥१॥ नाणावरणी तीस कोडाकोडी य अयरमाणाणं । मइ- सुय - ओहीण तहा मण- केवल तीस ए संखा ||२|| 1 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बीयं दंसणा (ण) वरणं नव पयडीउ व कमेण नायव्वा । पत्तेयं अयराणं कोडाकोडी य तीसा य ॥३॥ अनुसंधान - २१ वेयणीयं तह तीयं सायमसायं च हु दुन्नि पडणं । तीसं कोडाकोडी पयडि-ठिइ तीयंकम्मस्स ||४|| मोहणीयं पि चउत्थं अट्ठावीसं च होइ पयडीउ । मिच्छत्त- मीस - सम्मं कोडाकोडी य सत्तिरियं ॥५॥ सोलसविहा कसाया चत्तालीसं कोडाकोडीओ । हास-रय (ई) दस नेयं सेसा चत्तारि वीसा य ॥ ६ ॥ पुं- इत्थि - नपुंसवेया दस-पन्नरस-वीसं कोडाकोडी उ । पयडीय अट्ठवीसं पुण एवं भणियं समासेण ||७|| पंचम आउ चउव्वि (वि) हं नारय - सुर सागराण तित्तीसा । तिरिय- मणुआ तिपल्लिय-ठिइकालं चउविहा भणिया ||८|| छद्रं च नामकम्मं सयअहियं तिन्नि य पडियं (तिन्नि पयडियं) कहियं । नरय - तिरिगइ वीसं दस देवा पनरस मणुयगइ ॥ ९ ॥ एगिंदियजाई वीसं बि-ति- चउ अट्ठारसं च परिमाणं । पंचिदिजाइ वीसं उरलविउव्विय वीसं च ॥ १०॥ आहार तणू इक्कं तेजस-कम्मे य वीसगं होइ । अंगोवंग उरालिय विउव्वी (व्वि)य वीसं संधुणियं ॥ ११ ॥ आहार अंग इक्कि अह पनरस बंधणाणि वच्छामि । ओरालि (य) - ओरालिय ओरालिय-तेयबंधं तु ॥ १२ ॥ उल-कम्मणबंधण उरालिय-तेयस-कम्मण [बंधं] च । उच्छं वेउव्वि- वेडव्विय वेडव्विय-तेयसबंधं च ॥१३॥ विउव्वियकम्मबंधण विउव्वितेयसकम्मणं भणियं । अटु एस (सिं) ठिइकालं (लो) कोडाकोडी य वीसा य ||१४|| Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ऑक्टोबर २००२ आहारकचउबंधण कोडाकोडी य इक्कमिक्कस्स । अंतोमुहुत्तजहन्नं सेसतिबंधं तु वीसं तु ॥१५॥ अह संघायण वुच्छं ओरालियचउसु (चउ) संघाणं । वीसं कोडाकोडी आहारगइ (आहारए) इक्कं भणियं च ॥१६॥ वज्जरिसहनारायं पढमं दस बीय बार तिय चउद । सोल चउत्थं पंचम वीसा पुण छट्ठम दसाणं ॥१७॥ संठाणछच्च(छक्क) कमसो सम दस निगोह बार साईयं । चउदस वामन द्वार खुज्जा हुंडा य वीसा य ॥१८॥ वन्ना किन्हा वीसा नीला सत्तरा य लोही य । हालि[६] सुक्किज(ज्ज) दस कोडाकोडिठिइ(ई) वन्ना ॥१९॥ सुरहि-दुरही य गंधा दह वीसा अयर कोडिकोडीणं । वीसा य तित्ति भणिया सतरस कडुआ मुणेयव्वा ।।२०।। कसाय पनरस अंबिल बारस महुरं च दस य रसघुणियं । गुरुआ लहुआ वीसा कक(क)स वीसा य मिउ दसगा ॥२१॥ सिय णिद्ध रुख(क्ख) सीया वीसा उसिणो य दसग फासट्टा । नरय-तिरि अणुपुव्वी वीसा मणुआण पन(न)रसा ।।२२।। दस देवाणुपुत्वी सुह-असुह विहगगई दस नेया । तस-बायर-पज्जत्तं पत्तेयाणं च वीसं च ॥२३।। थिरसुभसुभगं सुस्सर-आदेय-जसा य दस दसा भणिया । वीसं थावरनामं सुहुम-अपज्ज-साहरणा ॥२४॥ एएसि पि तियाणं अट्ठारस-अयरकोडिकोडीओ । सेसाणं छच्च(ग्रह) चिय वीसा वीसा य अणुकमसो ॥२५।। पत्तेयं अटुण्हं कोडाकोडीय(इ) वीसगं भणियं । एयं नाम(मं) कम्मं पयडीभणियं समासेणं ॥२६॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सत्तमगोयकम्मं उच्चानीयं च वीसवीसं च । अट्ठमकम्मं विग्धं पंच य पयडीय (इ) सतीसा य ॥ २७॥ एसा अट्ठावन्ना सयअहिया पयडिया संथुणिया । उवझा(ज्झा)यपुण्णलद्धे (द्धि) सीसे सिरिभाणलद्धिमुणी ॥२८॥ एया सव्वा पयडी - उक्कोसठिय (ठिईए) वट्टमाणो (णा) अ । सामाइयं चउण्हं जीवो (वा) न कया वि पार्वति ॥ २९ ॥ अनुसंधान - २१ बारसमुहुत्तजहन्नं वेयणीयाणं च दुन्नि पयडीणं । नाम - गोयं जहन्नं अट्ठ मुहुता ( मुहुत्ता) य ते भणियं ||३०|| एगं एगं च मुहुत्तं सेसा कम्माण जहन्नकालं च । गुरु-लहुकालं कहिया जहा सुआ सुअसमुद्दाओ ||३१|| ते जीव सव्वे धन्ना जेह (हि) कम्माण सव्वपयडीणं । खविऊण सिद्ध (द्धि) पत्ता नमो नमो ताण सिद्धाणं ||३२|| -X Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा-स्तोत्र __. सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय आचार्य श्रीजिनप्रभसूरि-विरचित प्राकृतभाषामय आ आज्ञास्तोत्रमा जिनेश्वरभगवंतनी आज्ञानुं स्तवन करवामां आव्युं छे, तेमज आज्ञानी आराधना करनारने केवा लाभो थाय छे अने आज्ञानी विराधना करनारने केवा नुकसान थाय छे–ते, पण संक्षिप्त वर्णन करवामां आव्युं छे ।। स्तोत्रना अंते लखायेल पुष्पिकाथी जणाय छे के आ प्रतिनुं लेखन वि.सं. १७१७नी ज्येष्ठ सुदि १३ ने दिने शुक्रवारे थयेल छ । आज्ञा-स्तोत्र नयगमभंगपहाणा विराहिआऽऽराहिआ वि सपमाणा । भवसिवदाणसमाणा जिणवरआणा चिरं जयउ ॥१॥ इक्क च्चिअ तुह आणा दुहं सुहं देइ सामिअ ! अणंतं । इक्का वि मेहवुट्ठी विसं व अमियं व पत्तगुणा ॥२॥ भमिओ भवो अणंतो तुह आणाविराहिएहिं जीवेहिं । पुण भमिअव्वो तेहिं जेहिं न अंगीकया आणा ॥३॥ जो न कुणइ तुह आणं सो आणं कुणइ तिहुअणस्साऽवि । जो पुण कुणइ जिणाणं तस्साऽऽणा तिहुयणे देवा(या) ॥४॥ तं पुन्नं पडिपुत्रं तं मइनिउणं अणोवमं सामि ! । जेणं जिणनाह ! तुमं जाणिज्ज जहट्ठिआ आणा ||५|| नरयगई वि हु सग्गो तुहआणाभाविआण भविआणं । सग्गो वि नरयअहिओ जिणवर ! आणाविमुक्काणं ॥६।। तुहआणाभट्ठाणं तिलोअलच्छीइ नाह न हु सुक्खं । आणाजुत्ताणं पुण न देइ दुक्खं दरिदं पि ॥७॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० तुह जिणवरिंद ! आणा विराहिआ जं पमायदोसेणं । भवभमंतेणं मए तं मिच्छादुक्कडं होउ ॥८॥ अनुसंधान-२१ निउणमईगम आणा ववहारेणं न नज्जई कह वि । निच्छयओ पुण नियमा तुह जिण ! भणिअं पमाणं मे ||९|| मिच्छत्ततावतत्तो पत्तो तुहआणनिरुवमच्छायं । ता तत्थ कुण पसायं सामिअ ! विस्सामदाणा (णे ) णं ॥ १० ॥ इय वित्तो जिणपहु जिणपहसूरीहिं जगगुरू पढमो । विन्नत्तीइ पसायं निव्विग्धं कुण[उ] अम्हाणं ॥११॥ ॥ इति श्रीस्तवनसम्पूर्ण: || संवत् १७१७ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १३ वार सकरे लखितं ॥छा। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय अपभ्रंशभाषामय आ स्तवमां त्रणेय लोकमां रहेल शाश्वत चैत्यो तथा तिर्छा लोकमां रहेला आशाश्वत चैत्योंनी स्तवना करेल छ । तेमां प्रथम आठ कडीओमां ऊर्ध्वलोकस्थित जिनचैत्योंनी गणनापूर्वक स्तुति करी छ । नवमा पद्यमां भवनपति-व्यंतरज्योतिषीओना निवासोमां रहेला जिनचैत्यांनी स्तवना करी छे । दशमा पद्यमां तिर्यग्लोकस्थित शाश्वत चैत्योने वंदना करी छ । ११-१२ पद्यमां भरतक्षेत्रमा रहेल आशाश्वत चैत्योनी स्तवना करी छ । पुष्पिकामां 'इति सास्वता' एवं लख्युं छे ते उपरथी 'सास्वताअसास्वता चैत्यवंदना' एवं आ स्तवनुं नाम संभवी शके छे, छतां प्रथम पद्यनी त्रीजी पंक्तिमां दर्शाव्या प्रमाणे आ स्तव, नाम त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव एवं राख्युं छे । आ स्तवनी प्रथम आठ कडीओ २० मात्राना चतुष्पदी स्रग्विणी छंदमां रचायेली छे । पद्य ९ थी १२-ते १६ मात्राना जगणांत चतुष्पदी पद्धडिया / पज्झटिका छंदमां रचायेली छे । अने छेल्लु पद्य ३२ मात्राना द्विपदी घत्ता छंदमां रचायेल छे जेमा यति १०-८-१४ मात्रा पर थाय छे । प्रस्तुत स्तवना कर्ता मुनि रविसिंह होय तेवू अंतिम पद्यना प्रथम चरणमां करायेला निर्देशथी जणाय छे । प्रतिनुं लेखन वि.सं. १६६७ ना चैत्र सुदि १३ना दिने थयुं छे । लेखनकर्ता आगमगच्छना आचार्य कुशलवर्धनसूरिनी परंपरामां थयेल आचार्य कुलवर्धनसूरिना शिष्य ऋषि विद्यावर्धन छे तेवू प्रतिना अंते लखायेल पुष्पिकाथी जणाय छे । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनुसंधान-२१ त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव ॥ श्रीकुशलवर्द्धनसूरिगुरुभ्यो नमः ।। असुरसुरखयरनरनमियपयपंकयं __ नमिवि रिसहेसरं भवियकयसुक्कयं । भणीसु तिलोयठियजिणहराणं थयं . जेम मे जाइ बहुपुव्वभवदुक्कयं ॥१॥ बत्तीसलक्खा य सोहंमि(म)कप्पे वरे इसाणि अडवीसई लक्ख जिणमंदिरे । सणंतकुमारि[ए] बारसयसहसया लक्ख माहिंदे. अद्वैव वंदे सया ॥२॥ बंभलोगंमि चत्तारि लक्खा वरा जत्थ पूर्यति भत्तीइ विबुहेसरा । . सहसपन्नास वंदामि लंतग(गा)भिहे सुक्कि चालीससहसा य जिणहर महे ॥३॥ अठमे कप्पि सहसारि जिण संथुणे ____ छच्च सहसु(स्सु) वंदामि जिणभूयणे । आणए नवमि कप्पंमि तह पाणए दसमिए (दसमि) दुन्नि दुन्नि पणमामि चेइ(ई)सए ॥४॥ आरणे दिवड्डसय कप्पि एगारसे अच्चूए कप्पि सउ दिवड्ड तह बारसे । पढमि गेविज्जि तिगि इगारअहियं सयं बीयतिगि एगसयसत्तहिय चंगयं ॥५।। एगसयसोहियं अस्थि तईयं तिगं नवमि गेविज्जि अट्ठारहिय-सयतिगं । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २००२ ४३ विजयवेजयंतजयंतअवराजियं सव्वट्ठसिद्धि पवरजिवेहि(वहि) वियराईयं (विराइयं) ॥६॥ पंचणुत्तेरविमाणेसु जिणमंदिरं _ एगमेगं नमसामि अइसुंदरं । लक्खचुलसी य सहसा य सत्ताणुई सव्वविमाण जिणभवण तेवीसई ॥७॥ इत्तियं सव्वसंखाय परिभासियं उड्डलोयंमि जिणवरिहिं सुपयासियं । भवणवइमज्झि चेईहरे सुंदरे नमिसु रोमंचभरि भरीय जोडी करे ॥८॥ सत्तेव कोडि बावत्तरीय लक्खा भवसायर-सत्तरीय । वंतरवरजोइसी(सि)एसु दक्ख पभणउं जिणमंदिर नत्थि संख ॥९॥ कुंडलि रुयगेसु वि माणुसंमि नंदीसरि वेयड्डि सुरगिरिंमि । हिमवंत-सिहरि-निसढाईएसु रिसहाइपडिमासोहीएसु ॥१०॥ सत्तुंजि गिरी(रि) सिरिउज्जयंति साचुरि वीर नर्मु कणयकंति । संखेसरि करहेडइ पुरंमि थंभणइ पासु जालउरि रंमि ॥११॥ अट्ठावय-गिरिवरि आबुयंमि समेहसिहरि भरुयच्छि रंमि । इय सासय-असासयचेईएसु तित्थेसर पणमिसु मणहरेसु ॥१२॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसंधान-२१ इय संथुय सामी सिवपुरगामी . रविसिंहइं पणमीय(मिय) चलण । लद्धइ मणुअत्तणि समरित नी(नि)यमणि जिम जीय छुट्टइ भवभमण ॥१३।। ॥ इति सास्वता ॥ संवत् १६६७ वर्षे चैत्र सुदि १३ दिन आगमगच्छे भट्टारक श्री श्री २१ श्रीकुलवर्धनसूरि-तत् शिष्य-ऋषिश्रीविद्यावर्धनेन लखितं वाच्यमाना चिरं नन्दतु ॥ ॥ श्रीशुभं तीर्थात् श्री ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय आर्यवेद : जैन वेद - विजयशीलचन्द्रसूरि जैन परंपरामां थयेला प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवनो उल्लेख ऋग्वेद आदि वेदोमां तथा पुराणोमां अनेक वार थयो छे, जे ऋषभदेवना अस्तित्व तथा प्राचीनतानुं प्रमाण छे. ऋषभदेवना प्रथम पुत्र हता भरत, जेमना नामने 'भारतवर्ष' साथे जोडवामां आवे छे. आ राजा भरते, पिता तीर्थंकर ऋषभदेवना मुखे शास्त्रोनां रहस्यो तथा उपदेशोनुं सम्यक् श्रवण करीने, संसारना व्यवहार धर्मना उचित परिपालनना हेतुथी, तीर्थंकरनी संमति मेळवीने 'माहन' एटले के अहिंसाव्रतधारी जैन श्रावकरूप ब्राह्मणोनी तेम ज चार वेदोनी योजना - रचना करी हती, तेवी जैन मान्यता अमुक ग्रंथोमां उपलब्ध थाय छे. १. संस्कारदर्शन, २. संस्थानपरामर्शन, ३. तत्त्वावबोध, ४. विद्याप्रबोध एम चार नामो धरावतां ए चार वेदो द्वारा ते जैन ब्राह्मणो पेढीओ सुधी जैन गृहस्थोने गृहस्थधर्मोचित संस्कार, आचार, बोध वगेरे शीखवता हता. आ जैन ब्राह्मणो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रयीना करण, करावण, अनुमोदनरूप त्रण त्रण प्रकारो, एटले के ए रूपे नव तांतणांवाळी जनोई-जिनोपवीत पण धारण करता हता. विक्रमना बारमा सैकामां आचार्य श्रीवर्धमानसूरिए रचेला जैन कर्मकाण्डना सर्वमान्य ग्रंथ "आचारदिनकर"मां मनुष्यना सोळ संस्कारोनुं विधान छे, तेमां जिनोपवीत-संस्कार, पण विधान उपलब्ध छे. आ १६ संस्कारो माटेना अनुष्ठानमां आर्य वेदना मंत्रो पण प्रयोजवामां आवता हता, तेमांना जे मंत्रो आ ग्रंथमां जोवा मळे छे ते मंत्रो अत्रे रजू करेल छे. जैन वेदमंत्रो विशे ग्रंथकारे आपेली विगतो आ प्रमाणे छे : "इह यदुक्तं जैनवेदमन्त्रा इति तत् प्रतिपाद्यते । यदाऽऽदिदेवतनूज आदिमश्चक्री भरतो धृतावधिज्ञानः श्रीमयुगादिजिनरहस्योपदेशप्राप्तसम्यक्श्रुतज्ञान: सांसारिकव्यवहारसंस्कारस्थितये अर्हन्निदेशमाप्य माहनान् धृतज्ञानदर्शन-चारित्र रत्नात्रयकरणकारणानुमतित्रिगुणत्रिसूत्रमुद्राङ्कितवक्षःस्थलान् पूज्यान् अकल्पयत् । तदा च निजवैक्रियलब्ध्या चतुर्मुखीभूय वेदचतुष्कमुच्चचार । तद् यथा -- Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ __ अनुसंधान-२१ संस्कारदर्शनं, संस्थानपरामर्शनं, तत्त्वावबोधः, विद्याप्रबोध इति चतुरो वेदान् सर्वनयवस्तुप्रकीर्तकान् माहनानपाठयत् । ततश्च ते माहनाः सप्ततीर्थंकरतीर्थं यावद् धृतसम्यक्त्वाः आर्हतानां व्यवहारोपदेशेन धर्मोपदेशादि वितेनुः । ततश्च तीर्थे व्यवच्छिन्ने तत्रान्तरे ते माहनाः प्राप्तप्रतिग्रहलोभाः तान् वेदान् हिंसाप्ररूपण साधुनिन्दनगर्भतया ऋग्यजुःसामाथर्वनामकल्पनया मिथ्यादृष्टितां निन्युः । ततश्च साधुभिर्व्यवहारपाठपराङ्मुखैस्तान् वेदान् विहाय जिनप्रणीत आगम एव प्रमाणतां नीतः । तेष्वपि ये माहनाः सम्यक्त्वं न तत्यजुः तेषां मुखेष्वद्यापि भरतप्रणीतवेदलेशः कर्मान्तरव्यवहारगतः श्रूयते । स चात्रोच्यते । यत उक्तमागमे- ' सिरिभरहचक्कवट्टी आरियवेआण विस्सुओ कत्ता ।। माहणपढणत्थंमि णं(त्थमिणं) कहिअं सुअझाण (सुअनाण?) ववहारं ।। जिणतित्थे वुच्छिन्ने मिच्छत्ते माहणेहिं ते ठविआ । अस्संजआण पूआ अप्पाणं कारिआ तेहिं ॥" (आ.दि. पत्र ७/८) उपरोक्त समग्र वर्णनथी एम प्रतिपादित थाय छे के आर्य वेदो विच्छेद पाम्या होवा छतां तेना कोई कोई अंशो, श्रीवर्धमानसूरिना समयमां एटले के बारमा शतकमां पण, केटलाक जैन ब्राह्मणो के गृहस्थो पासे मोजूद हता ज. केटलाक भोजक ज्ञातिना तथा अन्य जैन गृहस्थो, रत्नत्रयीना प्रतीक स्वरूप जिनोपवीत (जनोई) तो हजी दस-वीस वर्ष पहेला सुधी पहेरता हता, ते तो आ लखनारे पण प्रत्यक्ष जोयुं छे. बल्के तेवा गृहस्थोना अवशेष आजे पण विद्यमान छ ज. आचारदिनकर जेवा ग्रंथमां आर्यवेदना थोडा अंशो मंत्ररूपे सचवाया छे, ते पण महत्त्व, तो छे ज. अलबत्त, आ समग्र मुद्दो ऐतिहासिक उलटतपास तो मागी ज ले छे. जैन गच्छोमां मध्यकालमां एक निगमगच्छ के निगम संप्रदाय हतो; तेना आश्रये रचायेला 'उपनिषत्' संज्ञावाळां निगमशास्त्रो आजे पण उपलब्ध छे. तेनुं अध्ययन थयु के थतुं नथी. निषिद्ध तथा उपेक्षित मनाय छे. क्लिष्ट-अशुद्ध पण गणाय छे. तेनुं अध्ययन थाय तो आर्य वेदना मुद्दे कंईक प्रकाश सांपडे तो ते शक्य लागे छे. (सन्दर्भ : आचारदिनकर (पोथी) प्रकाशक : पं. केसरिसिंह ओसवाल, मुंबई, ई. १९२२) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ऑक्टोबर २००२ आर्यवेदमन्त्रो यथा - (गर्भाधानमन्त्रः) ___ॐ अहँ जीवोऽसि जीवतत्त्वमसि प्राण्यसि प्राणोऽसि, जन्म्यसि, जन्मवानसि, संसार्यसि, संसरन्नसि, कर्मवानसि, कर्मबद्धोऽसि, भवभ्रान्तोऽसि, भवसंबिभ्रमिषुरसि, पूर्णाङ्गोऽसि, पूर्णपिण्डोसि, जातोपाङ्गोऽसि, जायमानोपाङ्गोऽसि, स्थिरो भव, नन्दिमान् भव, वृद्धिमान् भव, पुष्टिमान् भव, ध्यातजिनो भव, ध्यातसम्यक्त्वो भव, तत्कुर्या न येन पुनर्जन्मजरामरणसंकुलं संसारवासं गर्भवासं प्राप्नोषि अर्ह ॐ || (७-१) (पुंसवनसंस्कारमन्त्रः) ॐ अहँ नमस्तीर्थङ्करनामकर्मप्रतिबन्धसंप्राप्तसुरासुरेन्द्रपूजायार्हते आत्मने त्वमात्मायुःकर्मबन्धप्राप्यं तं मनुष्यजन्मगर्भावासमवाप्तोऽसि, तद्भवजन्मजरामरणगर्भवासविच्छित्तये प्राप्तार्हद्धर्मोऽर्हद्भक्तः सम्यक्त्वनिश्चलः कुलभूषणः सुखेन तव जन्मास्तु । भवतु तव त्वन्मातापित्रोः कुलस्याभ्युदयः, ततः शान्तिः तुष्टिर्वृद्धिः ऋद्धिः कान्तिः सनातनी अहँ ॐ ॥ (९-१) सूर्यवेदमन्त्रो यथा- (सूर्यदर्शनमन्त्रः) ॐ अर्ह सूर्योऽसि, दिनकरोऽसि, सहस्रकिरणोऽसि, विभावसुरसि, तमोऽपहोऽसि, प्रियङ्करोऽसि, शिवङ्करोऽसि, जगच्चक्षुरसि, सुरवेष्टितोऽसि, मुनिवेष्टितोऽसि, विततविमानोऽसि, तेजोमयोऽसि, अरुणसारथिरसि, मार्तण्डोऽसि, द्वादशात्माऽसि, चक्रबान्धवोऽसि, नमस्ते भगवन् प्रसीदास्य कुलस्य तुष्टिं पुष्टि प्रमोदं कुरू कुरू, सन्निहितो भव अहँ ॐ ॥ (११-१) चन्द्रस्य वेदमन्त्रो कथा- (चन्द्रदर्शनमन्त्रः) । ॐ अर्ह चन्द्रोऽसि, निशाकरोऽसि, सुधाकरोऽसि, चन्द्रमा असि, ग्रहपतिरसि, नक्षत्रपतिरसि, कौमुदीपतिरसि, निशापतिरसि, मदनमित्रमसि, जगज्जीवनमसि, जैवातृकोऽसि, क्षीरसागरोद्भवोऽसि, श्वेतवाहनोऽसि, राजाऽसि, राजराजोऽसि, औषधीगर्भोऽसि, वन्द्योऽसि, पूज्योऽसि, नमस्ते भगवन् ! अस्य कुलस्य ऋद्धि कुरु, वृद्धि कुरु, तुष्टि कुरु, पुष्टिं कुरु, जयं कुरु, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - २१ विजयं कुरु भद्रं कुरु, प्रमोदं कुरु, श्री शशाङ्काय नमः अर्ह ॐ ॥ 2 (११-२) ४८ यथा वेदमन्त्रः ( क्षीराशनमन्त्रः ) ॐ अहं जीवोऽसि, आत्माऽसि पुरुषोऽसि, शब्दज्ञोऽसि, रूपज्ञोऽसि, रसज्ञोऽसि, गन्धज्ञोऽसि, स्पर्शज्ञोऽसि, सदाहारोऽसि कृताहारोऽसि, अभ्यस्ताहारोऽसि, कावलिकाहारोऽसि, लोमाहारोऽसि, औदारिकशरीरोऽसि, अनेनाहारेण तवाङ्गं वर्धतां, बलं वर्द्धतां, तेजो वर्द्धतां, पाटवं वर्द्धतां, सौष्ठवं वर्द्धतां पूर्णायुर्भव, अर्हं ॐ ॥ (१२-१) 9 ) (षष्ठीसंस्कारमन्त्रः ) ॐ अर्हं जीवोऽसि, अनादिरसि, अनादिकर्मभागसि, यत्त्वया पूर्वं प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशैराश्रववृत्त्या कर्म बद्धं तद्बन्धोदयोदीरणासत्ताभिः प्रतिभुङ्क्ष्व, मा शुभकर्मोदयफलभुक्तेरुच्छेकं दध्याः, न चाशुभकर्मफलभुक्त्या विषादमाचरे:, तवास्तु संवरवृत्त्या कर्मनिर्जरा अर्हं ॐ ॥ (१३-२) " ( अन्नप्राशनसंस्कारमन्त्रः ) ॐ अर्ह भगवान्नर्हन् त्रिलोकनाथस्त्रिलोकपूजितः सुधाधाराधारितशरीरोऽपि कावलिकाहारमाहारितवान् पश्यन्नपि पारणाविधाविक्षुरसपरमान्नभोजनात्परमानन्ददायकं बलम् । तद्देहिनौदारिकशरीरमाप्तस्त्वमप्याहारय आहारं तत्ते दीर्घमायुरारोग्यमस्तु अर्हं ॐ।। (१६-२) (कर्णवेधसंस्कारमन्त्रः ) ॐ अर्हं श्रुतेनाङ्गैरुपायैः कालिकैरुत्कालिकैः पूर्वगतैश्चलिकाभिः परिकर्मभिः सूत्रैः पूर्वानुयोगैः छन्दोभिर्लक्षणैर्निरुक्तैर्धर्मशास्त्रैविद्धकर्णौ भूयात् अर्हं ॐ ॥ शूद्रादेस्तु ॐ अर्हं तव श्रुतिद्वयं हृदयं धर्माविद्धमस्तु ॥ ( १७-२) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ (चूडाकरणमन्त्र: ) ॐ अर्हं ध्रुवमायुर्ध्रुवमारोग्यं ध्रुवाः श्रियो ध्रुवं कुलं ध्रुवं यशो ध्रुवं तेजो ध्रुवं कर्म ध्रुवा च कुलसन्ततिरस्तु अर्हं ॐ ॥ (१८-१) ( १ ) उपनयनारंभवेदमन्त्रो यथा ॐ अर्हं अर्हद्भ्यो नमः, दर्शनाय नमः, चारित्राय नमः, संयमाय नमः, सत्याय नमः, शौचाय नमः, ब्रह्मचर्याय नमः, आकिञ्चन्याय नमः, तपसे नमः, शमाय नमः, मार्दवाय नमः, आर्जवाय नमः, मुक्तये नमः, धर्माय नमः, सङ्घाय नमः, सैद्धांतिकेभ्यो नमः, धर्मोपदेशकेभ्यो नमः, वादिलब्धिभ्यो नम:, अष्टाङ्गनिमित्तज्ञेभ्यो नमः, तपस्विभ्यो नमः, विद्याधरेभ्यो नमः, इहलोकसिद्धेभ्यो नमः, कविभ्यो नमः, लब्धिमद्भ्यो नमः, ब्रह्मचारिभ्यो नमः, निष्परिग्रहेभ्यो नमः, दयालुभ्यो नमः, सत्यवादिभ्यो नमः, निःस्पृहेभ्यो नमः, एतेभ्यो नमस्कृत्यायं प्राणी प्राप्तमनुष्यजन्मा प्रविशति वर्णक्रमं अर्ह ॐ ॥ (२१-१) ४९ ( २ ) ॐ नमो भगवते, चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाङ्कहारगोक्षीरधवलाय, अनन्तगुणाय निर्मलगुणाय भव्यजनप्रबोधाय, अष्टकर्ममूलप्रकृतिसंशोधनाय, केवलालोकविलोकितसकललोकाय, जन्मजरामरणविनाशकाय, सुमङ्गलाय, कृतमङ्गलाय, प्रसीद भगवन् इह चन्दननामामृताश्रवणं कुरु कुरु स्वाहा || (२१-२) , ( ३ ) ॐ अर्हं आत्मन् देहिन् ज्ञानावरणेन बद्धोऽसि, दर्शनावरणेन बद्धोऽसि, वेदनीयेन बद्धोऽसि, मोहनीयेन बद्धोऽसि, आयुषा बद्धोऽसि नाम्ना बद्धोऽसि, गोत्रेण बद्धोऽसि, अन्तरायेण बद्धोऽसि कर्माष्टकप्रकृतिस्थितिरसप्रदेशैर्बद्धोऽसि, तन्मोचयति त्वां भगवतोऽर्हतः प्रवचनचेतना, तद् बुध्यस्व मा मुहः, मुच्यतां तव कर्मबन्धमनेन मेखलावन्धेन अहं ॐ ॥ (२१-२) , Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ (४) ॐ अहँ आत्मन् देहिन् मतिज्ञानावरणेन, श्रुतज्ञानावरणेन, अवधिज्ञानावरणेन, मनःपर्यायज्ञानावरणेन, केवलज्ञानावरणेन, इन्द्रियावरणेन, चित्तावरणेन आवृतोऽसि तन्मुच्यतां तवावरणमनेनाचरणेन अहँ ॐ ॥ (२२-१) (५) ॐ अहँ नवब्रह्मगुप्ती: स्वकरणकारणानुमतीर्धारयेस्तदन्तरमक्षय्यमस्तु ते व्रतं स्वपरतरणतारणसमर्थो भव अहँ ॐ ।। (२२-२) ॐ अहं ब्रह्मचार्यसि, ब्रह्मचारिवेषोऽसि, अवधिब्रह्मचर्योऽसि, धृतब्रह्मचर्योऽसि, धृताजिनदण्डोऽसि, बुद्धोऽसि, प्रबुद्धोऽसि, धृतसम्यक्त्वोऽसि, दृढसम्यक्त्वोऽसि, पुमानसि, सर्वपूज्योऽसि, तदवधि ब्रह्मव्रतं आगुरुनिर्देशं धारयेः अहँ ॐ ॥ (२३-२) (७) ॐ अहँ गौरियं, धेनुरियं, प्रशस्यपशुरियं, सर्वोत्तमक्षीरदधिघृतेयं, पवित्रगोमयमूत्रेयं, सुधास्राविणीयं, रसोद्भाविनीयं, पूज्येयं, हृद्येयं, अभिवाद्येयं, तद्दत्तेयं त्वया धेनुः, कृतपुण्यो भव, प्राप्तपुण्यो भव, अक्षय्यं दानमस्तु अर्ह ॐ ॥ (२७-२) (८) ॐ अहँ एकमस्ति, दशकमस्ति, शतमस्ति, सहस्रमस्ति, अयुतमस्ति, लक्षमस्ति, प्रयुतमस्ति, कोट्यस्ति, कोटिदशकमस्ति, कोटिशतमस्ति, कोटिसहस्रमस्ति, कोट्ययुतमस्ति, कोटिलक्षमस्ति, कोटिप्रयुतमस्ति, कोटाकोटिरस्ति, सङ्घयेयमस्ति, असङ्ख्येयमस्ति, अनन्तमस्ति, अनन्तानन्तमस्ति, दानफलमस्ति तदक्षय्यं दानमस्तु ते अहँ ॐ ।। (२७-२) (९) ॐ वं वरुणोऽसि, वारुणमसि, गाङ्गमसि, यामुनमसि, गौदावरमसि, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ नार्मदमसि, पौष्करमसि, सारस्वतमसि, शातद्रवमसि वैपाशमसि, सैन्धवमसि, चान्द्रभागमसि, वैतस्तमसि, ऐरावतमसि, कावेरमसि, कारतोयमसि, गौतममसि, शैतमसि, शैतोदमसि, रौहितमसि, रौहितांशमसि, सारयवमसि, हारिकान्तमसि, हारिसलिलमसि, नारीकान्तमसि, नारकान्तमसि, रौप्यकूलमसि, सौवर्णकूलमसि, सलिलमसि, राक्तवतमसि, नैम्नगसलिलपाद्ममसि, औन्निम्नग्नमसि, पाद्ममसि, माहापद्ममसि, तैंगिच्छमसि, कैशरमसि, पौण्डरीकमसि, ह्रादमसि, नादेयमसि, कौपमसि, सारसमसि, कौण्डमसि, नैर्झरमसि, वापेयमसि, तैर्थमसि, अमृतमसि, जीवनमसि, पवित्रमसि, पावनमसि, तदमुं पवित्रय कुलाचाररहितमपि देहिनं ॥ (२९-१) (80) ॐ पवित्रोऽसि प्राचीनोऽसि, नवीनोऽसि, सुगमोऽसि, अजोऽसि, शुद्धजन्माऽसि तदमुं देहिनं धृतव्रतमव्रतं वा पावय, पुनीहि अब्राह्मणमपि ब्राह्मणं कुरु ॥ (२९-२) ( ११ ) ॐ सधर्मोऽसि, अधर्मोऽसि, कुलीनोऽसि, अकुलीनोऽसि, सब्रह्मचर्योऽसि, अब्रह्मचर्योऽसि, सुमना असि दुर्मना असि, श्रद्धालुरसि, अश्रद्धालुरसि आस्तिकोऽसि नास्तिकोऽसि, आर्हतोऽसि सौगतोऽसि, नैयायिकोऽसि, वैशेषिकोऽसि, साङ्ख्योऽसि, चार्वाकोऽसि सलिङ्गोऽसि, अलिङ्गोऽसि, तत्त्वज्ञोऽसि, अतत्वज्ञोऽसि, तद्भवब्राह्मणोऽमुनोपवीतेन भवन्तु ते सर्वार्थसिद्धयः ॥ (२९-२) " 7 ( १२ ) ध्रुवोऽसि, स्थिरोऽसि, तदेकमुपवीतं धारय ॥ (३० / १) ५१ > (विवाहमन्त्राः ) ( १ ) ॐ अर्हं सर्वगुणाय सर्वविद्याय, सर्वसुखाय, सर्वपूजिताय, सर्वशोभनाय सुवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कृतां कन्यां ददामि प्रतिगृह्णीष्व भद्रं भवते अहं ॐ ॥ (३२-१) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) ॐ अहं परमसौभाग्याय, परमसुखाय, परमभोगाय परमधर्माय, परमयशसे, परमसन्तानाय भोगोपभोगान्तरायव्यवच्छेदय, इमाममुकनाम्नीं कन्याममुकगोत्राममुकनाम्ने वराय अमुकगोत्राय ददाति प्रतिगृहाण अर्ह ॐ ॥ (३३-१) , ( ३ ) ( ग्रहशान्तिमन्त्रः ) " ॐ अर्हं आदिमोऽर्हन्, आदिमो नृप:, आदिमो नियन्ता, आदिमो गुरुः, आदिमः स्रष्टा, आदिमः कर्ता, आदिमो भर्त्ता, आदिमो जयी, आदिमो नयी, आदिमः शिल्पी, आदिमो विद्वान्, आदिमो जल्पकः, आदिमः शास्ता, आदिमो रौद्र:, आदिमः सौम्यः, आदिमः काम्यः, आदिमः शरण्यः, आदिमो दाता, आदिमो वन्द्यः, आदिमः स्तुत्यः, आदिमो ज्ञेयः, आदिमो दाता, आदिमो वन्द्यः, आदिमः स्तुत्यः, आदिमो ज्ञेयः, आदिमो ध्येयः, आदिमो भोक्ता, आदिम: सोढा, आदिम एक:, आदिमोऽनेकः, आदिमः स्थूलः, आदिमः कर्मवान्, आदिमोऽकर्मा, आदिमो धर्मवित्, आदिमोऽनुष्ठेयः, आदिमोऽनुष्ठाता, आदिम: सहजः, आदिमो दशावान्, आदिमः सकलत्रः, आदिमो विकलत्रः, आदिमो विवोढा, आदिमः ख्यापकः, आदिमो ज्ञापकः, आदिमो विदुरः, आदिमः कुशलः, आदिमो वैज्ञानिकः, आदिमः सेव्यः, आदिमो गम्यः, 'आदिमो विमृश्यः आदिमो विमृष्टा, सुरासुरनरोरगप्रणतः, प्राप्तविमलकेवलो, यो गीयते यत्यवतंसः सकलप्राणिगणहितो, दयालुरपरापेक्षः, परमात्मा, परं ज्योतिः परं ब्रह्म, परमैश्वर्यभाक्, परंपरः परात्परोऽपरंपरः, जगदुत्तमः सर्वगः सर्ववित्, सर्वजित्, सर्वीयः, सर्वप्रशस्यः, सर्ववन्द्यः, सर्वपूज्यः, सर्वात्मा असंसारः, अव्ययः, अवार्यवीर्यः, श्रीसंश्रयः श्रेयःसंश्रयः, विवश्यायहृत्, संशयहृत्, विश्वसारो, निरञ्जनो, निर्ममो निष्कलङ्की, निष्पाप्मा, निष्पुण्यः, निर्मनाः निर्वचाः, निर्देहो, निःसंशयो, निराधारो, निरवधिः प्रमाणं, प्रमेयं, प्रमाता, जीवाजीवा श्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षप्रकाशक:, स एव भगवान् शान्ति करोतु तुष्टिं करोतु पुष्टिं करोतु ऋद्धिं करोतु, वृद्धिं करोतु सुखं करोतु श्रियं करोतु, लक्ष्मीं करोतु अहं ॐ ॥ (३४-२) 3 अनुसंधान-२१ 1 2 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ ५३ (४) __ॐ अर्ह आत्मासि, जीवोऽसि, समकालोऽसि, समचित्तोऽसि, समकर्मासि, समाश्रयोऽसि, समदेहोऽसि, समक्रियोऽसि, समस्नेहोऽसि, समचेष्टितोऽसि, समाभिलाषोऽसि, समेच्छोऽसि, समप्रमोदोऽसि, समविषादोऽसि, समावस्थोऽसि, समनिमित्तोऽसि, समवचा असि, समक्षुत्तृष्णोऽसि, समगमोऽसि, समागमोऽसि, समविहारोऽसि, समविषयोऽसि, समशब्दोऽसि, समरूपोऽसि, समरसोऽसि, समगन्धोऽसि, समस्पर्शोऽसि, समेन्द्रियोऽसि, समाश्रवोऽसि, समबन्धोऽसि, समसंवरोऽसि, समनिर्जरोऽसि, सममोक्षोऽसि, तदेह्येकत्वमिदानीं अहँ ॐ ॥ (३६-१) (५) ॐ रं रं री रौं र: नमोऽग्नये, नमो बृहद्भानवे, नमोऽनन्ततेजसे, नमोऽनन्तवीर्याय, नमोऽनन्तगुणाय, नमो हिरण्यरेतसे, नमः छागवाहनाय, नमो हव्याशनाय, अत्र कुण्डे आगच्छ २, अवतर २, उत्तिष्ठ २, स्वाहा ॥ (३६-- (६) ___ ॐ अहँ ॐ अग्ने प्रसन्नः सावधानो भव, तवायमवसरः, तदाकारयेन्द्रं यमं नैर्ऋतिं वरुणं वायुं कुबेरमीशानं नागान् ब्रह्माणं लोकपालान्, ग्रहांश्च सूर्यशशिकुजसौम्यबृहस्पतिकविशनिराहुकेतूनसुरांश्चासुरनागसुवर्णविद्युदग्निद्वीपोदधिदिक्कुमारान् भवनपतीन् पिशाचभूतयक्षराक्षसकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वान् व्यन्तरान् चन्द्रार्कग्रहनक्षत्रतारकान् ज्योतिष्कान सौधर्मेशान श्रीवत्साखंडलपद्मोत्तरब्रह्मोत्तरसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलान्तकशुक्रसहस्रारानतप्राणतारणाच्युतग्रैवेयकानुत्तरभवान् वैमानिकान् इन्द्रसामानिकान् पार्षद्यत्रायस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकलोकान्ति-काभियोगिकभेदभिन्नांश्चतुर्णिकायानपि सभार्यान् साधुधवलवाहनान् स्वस्वोपलक्षितचिह्नान्, अप्सरसश्च परिगृहीतापरिगृहीताभेदभिन्ना ससखीकाः सदासीकाः साभरणा रुचकवासिनीदिक्कु मारिकाश्च सर्वाः, समुद्रनदीगिर्याकरवन-देवतास्तदेतान् सर्वांश्च, इदं अर्घ्यं पाद्यमाचमनीयं बलि चरुं हुतं न्यस्तं ग्राहय २, स्वयं गृहाण २ स्वाहा अहँ ॐ ॥ (३६-२) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ (७) . ॐ अहँ अनादिविश्वमनादिरात्मा, अनादिः कालोऽनादि कर्म, अनादिः संबन्धो देहिनां देहानुगताननुगतानां, क्रोधाहङ्कारच्छद्मलोभैः संज्वलनप्रत्याख्याना वरणानन्तानुबन्धिभिः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शेरिच्छानिच्छापरिसङ्कलितैः संबन्धोऽनुबन्धः प्रतिबन्धः संयोगः सुगमः सुकृतः सुनिवृत्तः सुतुष्टः सुपुष्टः सुप्राप्तः सुलब्धो द्रव्यभावविशेषेण अहँ ॐ ॥ (३७-२) (८) ___ॐ अहँ कर्मास्ति, मोहनीयमस्ति, दीर्घस्थितिरस्ति, निबिडमस्ति, दुश्छेद्यमस्ति, अष्टाविंशतिप्रकृतिरस्ति, क्रोधोऽस्ति, मानोऽस्ति, मायास्ति, लोभोऽस्ति, संज्वलनोऽस्ति, प्रत्याख्यानावरणोऽस्ति, अप्रत्याख्यानावरणोऽस्ति, अनन्तानुबन्ध्यस्ति, चतुश्चतुर्विधोऽस्ति, हास्यमस्ति, रतिरस्ति, अरतिरस्ति, भयमस्ति, जुगुप्सास्ति, शोकोऽस्ति, पुंवेदोऽस्ति, स्त्रीवेदोऽस्ति, नपुंसकवेदोऽस्ति, मिथ्यात्वमस्ति, मिश्रमस्ति, सम्यक्त्वमस्ति, सप्ततिकोटाकोटिसागरस्थितिरस्ति, अहँ ॐ ॥ (३८-१) (९) ॐ अहँ कर्मास्ति, वेदनीयमस्ति, सातमस्ति, असातमस्ति, सुवेद्यं सातं दुर्वेद्यमसातं, सुवर्गणाश्रवणं सातं दुर्वर्गणाश्रवणमसातं, शुभपुद्भलदर्शनं सातं दुष्पुद्गलदर्शनमसातं, शुभषड्रसास्वादनं सातं अशुभषड्रसास्वादनमसातं, शुभ-गन्धाघ्राणं सातं अशुभगन्धाघ्राणमसातं, शुभपुद्गलस्पर्शः सातं अशुभपुद्गलस्पर्शोऽसातं, सर्वं सुखकृत्सातं सर्वं दुःखकृदसातं, अहँ ॐ ॥ (३८-२) (१०) ॐ अर्ह सहजोऽस्ति, स्वभावोऽस्ति, संबन्धोऽस्ति, प्रतिबद्धोऽस्ति, मोहनीयमस्ति, वेदनीयमस्ति, नामास्ति, गोत्रमस्ति, आयुरस्ति, हेतुरस्ति, आश्रवबद्धमस्ति, क्रियाबद्धमस्ति, कायबद्धमस्ति, तदस्ति सांसारिक: संबन्धः अहँ ॐ ।। (३८-२) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ ( ११ ) ॐ अर्हं जीव त्वं कर्मणा बद्धः, ज्ञानावरणेन बद्धः, दर्शनावरणेन बद्ध:, वेदनीयेन बद्धः, मोहनीयेन बद्धः, आयुषा बद्धो, नाम्ना बद्धो, गोत्रेण बद्धः, अन्तरायेण बद्धः प्रकृत्या बद्धः स्थित्या बद्धः, रसेन बद्धः प्रदेशेन बद्धः, तदस्तु ते मोक्षो गुणस्थानारोहक्रमेण अर्ह ॐ ।। (३९-२) ( १२ ) ॐ अर्हं कामोऽसि, अभिलाषोऽसि, चित्तजन्मासि, सङ्कल्पजन्मासि, काम्योऽसि, सेव्योऽसि, प्रियोऽसि, मान्योऽसि शब्दोऽसि, रूपोऽसि, रसोऽसि, गन्धोऽसि, स्पर्शोऽसि सर्वगोऽसि सर्वव्यापकोऽसि सर्वार्थोऽसि, आनन्ददोऽसि, , ५५ , ऊह्योऽसि, मदनोऽसि, मथनोऽसि, उन्मादनोऽसि, मोहनोऽसि, तापनोऽसि, शोषणोऽसि, मारणोऽसि, विकृतिरसि, अजेयोऽसि, दुर्जयोऽसि, प्रभुरसि नमस्ते अर्ह ॐ ॥ (४१-१) • Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहंगावलोकन - मुनि भुवनचन्द्र अनुसंधान-१९मां बे दीर्घ कृतिओ प्रकाशित थई छे. खंभातना श्रावक कवि ऋषभदासनी एक अद्यापि अप्रकाशित कृति 'व्रतविचार रास' आ अंकमां छपाई छे. ऋषभदास एक कलमवीर साहित्यसर्जक तरीके प्रसिद्ध छे, पण प्रस्तुत कृतिमां कविनी धार्मिक श्रद्धा, विचारधारा, सांप्रदायिक वलण अने शास्त्रीय विषयोनी तेमनी जाणकारी विशेष रूपे उपसी आवे छे. प्रति क्षतियुक्त छे अने जोडणीभेद पुष्कळ छे, तेथी लिप्यंतर करवू अघरं पडे एवं छे.विषयथी सुपरिचित विद्वान ज आ कृतिनुं संपादन करी शके. आ. शीलचन्द्रसूरि द्वारा आनुं संपादन थयु ए एक सुखद संयोग छे. कविना समयनी खंभात विस्तारनी भाषामा 'य' श्रुति विपुल प्रमाणमां हती ए तथ्य कविनी अन्य कतिओ तथा खंभातना तत्कालीन अ-जैन कविओनी कृतिओ परथी जणाई आवे छे. कवि ऋषभदासनी एक महत्त्वनी कृति 'त्रंबावती तीर्थमाल' (जे 'अनुसंधान' (अंक ८)मां ज प्रथम वार प्रगट थई चूकी छे)मां पण आवी ज स्थिति छे. शब्दोमां ह, य, र, अ, आ, इ वगेरेनो प्रक्षेप, 'इ'नो 'य' (मुखि मुख्य), 'उ'नो 'यु' (शुभ स्युभ) 'ज'नो 'य', स्वरव्यत्यय (अशुभ-ऊशभ), स्वरलोप (चरणे चर्णे) वगेरे तत्कालीन 'खंभाती' बोलीमां पुष्कळ प्रमाणमां देखाय छे. जोडणीनी आवी विचित्रिताने कारणे प्रतिना वाचनमां मुश्केली पडी छे एम जणाई आवे छे. लेखकनी पोतानी सरत्तचूके पण भाग भजव्यो छे. संपादक पाठ अंगे विचारवा वधु थोभी शक्या नथी एम पण लागे. आवां कारणोने लईने मूळ पाठमां परिमार्जन करवाने लायक स्थळो ठीक ठीक रह्यां छे (गाथा १५) कंचुकचर्णा : कंचनवर्णी (?) (१९) नाशा शमइ : नीशा शमइ (९०) नरि कीजइ : नवि कीजइ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ (९७) सूदर(?) : 'सुंदर', 'सूदर' थयुं छे. (१११) जिन नवी भमुं : जिम नवी भमुं (२२२) मथो घलइ : माथो घालइ एकलो चलइ : एकलो चालइ । छंदनी दृष्टिए घलइ, चलइ पाठ खोटो छे. हस्तप्रतमां एम होय तो कविनो लेखनदोष थयो होय, एम मानवू रह्यु. (२८२) दीधो भाग : दीधो माग (२९४) नरको वली : नर को वली (३४१) अद्यु(छयु)त: अहीं 'अद्युत' ज बरोबर छे. स्वरव्यत्यय थई 'उद्योत'नुं 'अद्युत' थयुं छे. (३५२) -गि-य : 'जगि सोय' होवानी संभावना छे. (३९४) विष : 'विर्ष' (वृक्ष) होवानी संभावना छे. (३५९) कुपरखबोलि : कुपुरख-बोलि (कुपुरुषना बोले) सुपर खलोपइ : सुपरख लोपइ (सुपुरुष लोपे) (४४५) यम नाडि : 'यम[ना] नाडि' । (४४७) पाप-कर्म बइ एगठा : पाप-क(ध)र्म बइ एगठा (५२४) माखी अई अलि : माखी अईअलि (माखी-ईयळ) (५२५) अग्यः (आगळ) 'अगि' मांना 'इ'नो 'य' थयो छे. (५९०) सहइ सभग : 'सहइस भग (सहस्र भग) (४४५) मलवढता : मल वढता (मल्ल लडता) (८२८) चीडः चीड(र?) जोडणीभेदने लीधे अजाण्या लागता शब्दोने कारणे शब्दकोश विस्तृत थयो छे. आमां जैन पारिभाषिक शब्दोने संपादके योग्य रीते ज नथी लीधा. आम छतां शब्दकोशमां लेवा जेवा थोडा वीजा शब्दो कृतिमां नजरे चडे छे (१८) वसेको : विशेष (६२२) शमशा : समस्या (२५) फूली : माथा- घरेणुं (७३६) सरीवाहालुलि: ? (४१०) रोटो : गरीब (७४८) पोईशां : ? (४७७) पोढुं : मोटुं (७३६) खलइडां : ? (खलेलां ?) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ (५९०) पोतइ : पिंडमां, पोतामां (७४९) विरध्य : वृद्धि (५२४) अईअलि : ईयळ (४८०) चडी : चकली __ शब्दकोशमांना केटलाक शब्दो विशे(९०) लोढी : अहीं 'लोढी नीत' एम शब्दगुच्छ लेवो जोइतो हतो. . (३९४) चंदन जमलां : चंदन साथे (४३५) कुपर खबोलि : कुपरख-बोलि-कुपुरुषना बोले सुपर खलोपइ : सुपरख लोपइ- सुपुरुष लोपे (४४१) मेहर : महेतर अथवा मेर (४४५) पलवाडि : पालानी-घासनी वाड (५१२) अकाई : निरर्थक, कारण वगर. (कच्छी भाषामां आ शब्द आ ज अर्थमां प्रचलित छे. (५७७) छबदि : छद्मथी (वर्णव्यत्ययथी 'छद्म' =छबद' बन्यो होय. कृतिमां 'छल-छबदि' एवो शब्दगुच्छ छे, तेथी 'छद्म' अर्थ लेवामां हरकत नथी.) (६२०) वरला : विरला (६५१) विहीवा : विवाह (कृतिमां ‘पर विहीवा मेलि' छे. 'परविवाहकरण' ए जाणीतो 'अतिचार' छे.) (६७३) शाम्यनी : स्वामिनी, शेठाणी . (६७९) बर्द : बिरूद (७२०) आपोपुं : पोताने, जातने कवि ऋषभदास एक प्रसिद्ध जैन कवि होतां तेमनो वृत्तांत कृति साथे आपवानी आवश्यकता रहेती नथी, तो पण प्रास्ताविकमां कविनो जीवनकाल संवतोमा आप्यो होत तो संदर्भरूपे नवा वाचकोने मददरूप थात. आ अंकनी बीजी दीर्घ कृति- 'हीरसागरकृत स्तवनचोवीसी' एक भक्तिरसपूर्ण रचना छे. आनी भाषा सत्तरमां-अढारमा सैकानी के ते पछीनी लागे छे. कर्ताना गुरु जिनचन्द्रसूरि छे ते क्या - ए निश्चित करवू पडे छे. 'जैन गूर्जर कविओ' जेवा संदर्भग्रंन्थोनो उपयोग मध्यकालीन जैन कविओना Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ ५९ प्रश्ने दरेक संशोधक-संपादकोए करवो ज जोइए - जेमा प्रायः दरेक कविनो संदर्भ मळी जाय तेम छे. कृतिना पाठमां जे थोडंक सूझ्युं ते नोंg - (क्रमांक स्तवन/गाथाना समजवा) (१/२) हुं सहती : हंस हती (२/२) मन मधु : मन मधु[कर] (८/२) मधुकर समने जाय : मधुकर समरे जाय - भमरो जाईना फूलने संभारे. (१८/३) मुझ मंदिर : अहीं पाठांतरमां आपेलो 'मुझ मनमंदिर' पाठ वधु योग्य छे. स्त. ७, गा. ८मां 'सरवाले' शब्द छे, ते 'सर-पाल' एम लखावो जोइए. आ एक न्याय छे. सरोवरने पाळ जोइए, पाळने सरोवर जोईए, बंने अन्योन्याश्रित छे; ए रीते प्रीति पण परस्पराश्रयी छे. स्त. १९, गा. ४मां 'विरचे न पडिया वंक' ए पंक्तिमां 'विरचे'नो अर्थ 'कंटाळी जाय, मन ऊंचं करी ले' एवो छे. आ 'विरच' क्रियापद कच्छी भाषामां आ ज अर्थमां आजे पण प्रयोजाय छे, गुजरातीमां लुप्त छे. म. महावीरना आहारविषयक उल्लेखोना भ्रामक अर्थघटनो विशे शीलचन्द्रसूरिनी ढूंकी नोंध मुद्दासरनी छे. संबंधित शब्दोना वनस्पतिपरक अर्थो आप्या छे त्यां ते कोश/निघंटुनो निर्देश पण आपवो जोइतो हतो. आ विषयमां भूतकाळमां पुष्कळ चर्चाओ थई छे, आजना परदेशीय विद्वानो तेनाथी अजाण होय एम बने. अन्य देशोना पंडितो सुधी समाधान-निराकरण पहोंचे ते माटे Indology संलग्न परदेशनी पत्रिकाओमां एक सर्वग्राही लेख (आयुर्वेद, निघंटु, टीका-चूर्णिओना संदर्भो साथे) लखावो जोइए. [ स्पष्टता : नीशा, नवि, जिन, नरको, आपोपुं- आटला पृफवाचनना दोष छे. 'कंचुकचर्णा', 'मथो', 'चलइ', 'घलइ' - प्रतिमां आ रीते होई एम Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ ज राखेल छे. चर्णा (वर्णा) एम करी शकाय. 'सूदर' शब्द पाणीथी चहेरायेल होइ (?)' चिह्न साथे आप्यो छे. 'विष' नहि ', 'विष' छे, 'अग्य' नहि, 'अंग्य' छे; वाचनदोष छे. 'यम नाडि' प्रतमां ज छे. 'मांखीअ ईअलि' आम छे; वाचनदोष. 'भाग' पण वाचननी भूल ज. 'बर्द' बिरुद टेक, ख्याति - त्रण अर्थोमां मळे छे. आ उपरांत केटलीक भूल नजरे चडी छे ते आ प्रमाणे : पृ. ३१, कडी क्र. १०० नी जग्याए २००, पृ. ७७ पर ७३ मी कडी प्रथम चरणमां 'स्युत्र'ने बदले 'स्पुत्र' - (सुपुत्र), पृ. ११० पर पं. १ अने २ मां ६५ ने बदले ६५७ ने ६५९, पं. ३ मां '६५ ९३' ने बदले '६५९ ३', पं. ६ पर 'स्युत्र सूत्र (?)' ने बदले 'स्पुत्र सुपुत्र', एम वांचq. सं.] (२) अनुसंधान-२०नी बधी सामग्री श्रीशीलचन्द्रसूरिजी पासेथी आवे छे. आ अंकमां प्रसिद्ध थयेली कृतिओ विशिष्ट, रोचक अने महत्त्वपूर्ण छे. भंडारोमां दटाई रहेली आवी विपुल सामग्रीने प्रकाशमां लाववानी छे, संशोधन अने संपादन क्षेत्रमा पडेला विद्वान मुनिवरो तथा पंडितोए आ कार्य पण साथे साथे करवा जेवू छे. आथी प्राचीन साहित्यनी सेवा थशे, केटलाक मुंझवता प्रश्नोनो उकेल पण आवी शकशे. आ अंकमां प्रगट थयेल 'वसुधारा' विषयक लेख आनुं सुंदर उदाहरण छे. संस्कृतभाषामां स्तुतिकाव्यो तथा स्तोत्रो विशाल संख्यामां मळे छे, चित्रकाव्योनी परंपरा पण सारी पेठे विकसी हती. प्राय: दरेक समर्थ कविए आ काव्यप्रकार पर कलम चलावी हशे. चित्रकाव्यनी रचना आह्वानरूप होय छे, तेम तेनुं अर्थघटन पण एटलुं ज कठिन होय छे. आ अंकमां प्रसिद्ध थयेल 'चतुर्हारावली स्तव' बौद्धिक व्यायाम अने नावीन्यनो नमूनो छे. श्लोकोनां चरणोना आद्य- अंतिम अक्षरोने तीर्थंकरोना नामाक्षरो साथे बुद्धिपूर्वक जोडवामां आव्या छे, कल्पनावैविध्य अने शब्दरमत द्वारा उत्सुकतानुं निर्वहण Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ऑक्टोबर २००२ छेवट लगी थाय छे. पांडित्यने पूरेपूरुं कामे लगाड्या सिवाय वर्ण-अर्थछंदनी आवी गूंथणी थई शके नहि. ___'आत्मसंवाद' नामक दीर्घ संस्कृत गद्यकृति अनेक रीते ध्यानपात्र छे. संपादकश्रीना मंतव्य प्रमाणे आ ग्रंथ उपा. श्रीमद् यशोविजयजीनी रचना छे. नव्यन्यायनी पद्धतिए प्रकृष्ट कक्षानी चर्चा तथा हस्ताक्षरोनुं साम्य-आ बे मुद्दा संपादकना मंतव्यने समर्थन आपता जणाय छे, तो 'ऐं' मंत्राक्षरनी गेरहाजरी तथा केटलीक लेखननी भूलो-आ बे मुद्दा तेनी विरुद्ध जाय छे. ग्रंथ अपूर्ण छे, काचा खरड़ा रूपे छे, तेथी तेमां शुद्धि-वृद्धि स्वाभाविक ज गणाय, परंतु 'दोषानां' जेवा व्याकरणदुष्ट प्रयोगो आमां छे, जे संस्कृतना सारा अभ्यासीना हाथे पण न थाय; अहीं तो ग्रन्थकार नव्यन्याय-जैनदर्शनषट्दर्शनना प्रखर विद्वान छे (ते उपाध्यायजी होय के भले बीजा कोई होय); आनुं समाधान तो संपादक श्रीए आप्यु छे ते ज होइ शके : ग्रंथकारना फलद्रूप दिमागमा युक्ति-तर्कोनो धसमसतो प्रवाह वहेतो हशे.... तेने कागल पर अवतारवानी त्वरामां आवें झीझीणुं जोवानो अवकाश ज एमने नहि रह्यो होय. आत्मसिद्धि माटेनी अटपटी तर्कजाळ, नैयायिक शैली, विषय परर्नु अद्भुत प्रभुत्व-आ बधुं स्वतः उपाध्यायजी यशोविजयजी, स्मरण करावे छे. ग्रन्थना पहेला-छेल्ला पृष्ठनी छबी आपी छे ते हस्ताक्षरनी तुलनामां मदद करशे. अधिकारी विद्वज्जनो आना पर प्रकाश पाडे एवी अपेक्षा. आ अद्भुत कृतिने प्रकाशमां लाववा बदल आ. शीलचन्द्रसूरिजी भूरि भूरि धन्यवादना अधिकारी बन्या छे. कृतिनु वाचन अने पुनर्लेखन कुशळतापूर्वक थयुं छे. मुनि श्री कल्याणकीतिविजयजीए ग्रन्थना विषयने आत्मसात् करीने अवतरण कर्यु छे. कर्ताए पोते पाठो सुधार्या छे ते स्थळो वधु विचार मागी ले छे. पृ. ३६ पर 'न चान्यदनुमानं प्रमाणं' एम छपायुं छे. प्रथम पृष्ठनी छबीमां जोतां आ पाठ 'न चानुमानं प्रमाणं' एम सुधारेलो जणाय छे, अने ते प्रसंगानुरूप छे. पृ. ५२ स्वोपादनं स्वोपादानं होवू जोईए. पृ. ५८ तव जयपताक(?)=ततजयपताक होवानो संभव छे. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनुसंधान-२१ पृ. ६६ पर्वतो नाव्यत्ता (?) = पर्वतो नाव्यक्तां पृ. ६७ 'चार्वाकोऽपि....' अहींथी शरू थती बे त्रण पंक्तिओमां व्याकरण सम्बन्धी क्षतिओ छे. पृ.६७ मोहनिवृत्त्यर्थत्वेम... पाठ अशुद्ध जणाय छे. पृ.७४ तथाभवविकलं = तथाभावविकलं' होई शके. पृ. ७६ मन्दधियाऽपि = मन्दधियोऽपि' होई शके. ___'केटलीक प्रकीर्ण लघुरचनाओ'मांनी प्रथम रचना पार्श्वचन्द्रगच्छीय कविनी कृति छे. आ गच्छना प्रतिक्रमण विधिना पुस्तकोमा आ कृति मुद्रित छे अने ते चैत्यवंदन तरीके बोलाय पण छे. मुद्रित पुस्तक प्रमाणे पाठमां आ प्रमाणे फेरफार छ : श्लोक -१ ०धीरमतिम् श्लोक -२ वन्दे च श्लोक -३ ०मनन्तमभिज्ञनतम् नमो धर्म० श्लोक -४ वीरमभीरुतमम् श्लोक -५ निर्जितमहारिपुमोहमत्सरमानमद० राजहंससमप्रभाः ___ 'अमृतधुन' चारण शैलीनी रचना जणाय छे. 'मेवाड़को कवित' सारी रमूज पूरी पाडे छे. 'बसुधारा'नी हस्तप्रतो जैन ह. लि. ग्रन्थभंडारोमां सारा प्रमाणमां मळे छे. यति-गोरजीओना कालमां आ स्तोत्र अने तेनी आराधना जैनोमां प्रवेश्या हशे ए समजवं मुश्केल नथी. प्रस्तुत लेखमां कवि दीपविजयजीना लेखना आधारे 'वसो' गामना वसुंधरा मंदिर विशे अधिकृत प्रकाश पड्यो छे. धर्मक्षेत्रे नवी नवी वस्तुओ केवी रीते प्रवेशे छे तेनुं आ 'वसुधारा' सुंदर उदाहरण पूरुं पाडे छे. आवी बाबतोना खुलासा ऐतिहासिक संशोधन विना न मळी शके. आथी ज इतिहास, ज्ञान/संशोधन आवश्यक बने छे. जैन देरासर नानीखाखर-३७०४३५ कच्छ साडे ठे । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रॅक नोंध श्रीहरिभद्रसूरिकृत ‘षड्दर्शनसमुच्चय'ना, पं. महेन्द्रकुमार जैन द्वारा थयेल सटीक-सानुवाद-सम्पादन- (प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पंचम संस्करण ई. २०००)ना ग्रंथमां पृ. २१ पर २७मा पेरामां अक्रियावादीओनी वात आवे छे. त्यां "ते च कोकुलकाण्ठेविद्विरोमकसुगतप्रमुखाः" एम पंक्ति छे. तेनो अनुवाद करतां श्रीमहेन्द्रकुमार जैने आ प्रमाणे लख्युं छे : "कोकुल काण्ठेवि द्विरोमक सुगत आदि प्रमुख अक्रियावादी हैं ।" आ स्थले थोडोक सुधारो एम करवो जोईए के "कोकुल काण्ठेविद्धि रोमक सुगत०' 'काण्ठेवि' अने 'द्विरोमक' एवां नाम नहि, पण 'काण्ठेविद्धि' अने 'रोमक' एवां नाम होवां वधु ठीक लागे छे. श्रीहेमचन्द्राचार्यना 'सिद्धहेमशब्दानुशासन'मां एक सूत्र "दैवयज्ञिशौचिवृक्षिसात्यमुग्रिकाण्ठेविद्धेर्वा" (सि. २-४-८२) आq छे. तेमां 'काण्ठेविद्धि' शब्द आवे छे, ते आ अक्रियावादी 'काण्ठेविद्धि', ज सूचन करे छे, एम जणाय छे. वळी, 'द्विरोमक' नाम नबुं छे. 'रोमक' नाम वधु परिचित तथा वास्तविक पण लागे छे. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन - माहिती ताजेतरमां थोडांक प्रकाशनो जोवामां आव्यां छे, तेमनो टूको परिचय अहीं आपेल छे : (१) Jaina Theory of Multiple Facets of Reality and Truth (Anekantavada) संपादक : नगीन जे. शाह, प्रकाशन : मोतीलाल बनारसीदास, तथा बी.एल. इन्स्टिट्यूट, दिल्ली, ई. २००० 'अनेकान्तवाद' विषे विविध विद्वानोए लखेला (अंग्रेजी) अभ्यासपूर्ण लेखोनुं सरस संकलन-संपादन. (२) The Jaina Path of Purification .ले. पद्मनाभ एस. जैनी, प्रकाशन : मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रण : ई. २००१ केलिफोर्निया, अमेरिका स्थित, (दिगम्बर) जैन विद्वाने जैन आचार अने सिद्धांतो तथा विविध संप्रदायोने स्पर्शता लेको लखेला, तेनो आ सचित्र संग्रह सर्वप्रथम ई. १९७९मां प्रकाशित थयो हतो. विदेशमां तथा देशमां मळीने आनी पांच आवृत्ति थई छे, जे आ पुस्तकनी लोकग्राह्यता सूचवे छे. (3) Scripture and Community (Collected Essays on the Jains) Kendall w. Falkert नामना विदेशी विद्वाने लखेला, जैन धर्मनां विभिन्न अंगोने तथा पासांने स्पर्शता अंग्रेजी निबंधोनो संग्रह(सचित्र) संपादक : John E. Cort. __ प्रकाशक : हार्वर्ड युनिवर्सिटी, सेन्टर फोर ध स्टडी ऑफ वर्ल्ड रिलीजीयन्स, अमेरिका, ई. १९९३ लेखके मुनि श्रीजंबूविजयजीनी पासे समी अने वेड ए गामोमां जोयेला पर्युषणपर्व- सचित्र वर्णन आलेख्युं छे. 'षड्दर्शन'नुं प्रतिपादन Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २००२ करती चार जैन रचनाओ विषे पण चार निबंध छे. अन्य पण लेखो, मात्र विषयक्रम उपरथी पण, पठनीय अने अभ्यासपूर्ण हशे, तेम जणाई आवे छे. (४) जैन भाषादर्शन (हिन्दी) __ ले. प्रो. सागरमल जैन, प्रकाशक : बी.एल.इन्स्टिट्यूट, दिल्ली, ई. १९८६ जैन धर्मना 'भाषा' सिद्धांत उपर आधुनिक शैलीए लखायेलो आ सरस ग्रंथ छे. अनेक शास्त्रो तथा सिद्धान्तोना अभ्यासना परिपाकरूपे तैयार थयेलो आ ग्रंथ तज्ज्ञो माटे विशेष अभ्यसनीय छे. (५) सङ्गीतोपनिषत्सारोद्धारः कर्ता : वाचनाचार्य श्रीसुधाकलशगणि संपादक तथा अंग्रेजी अनुवादक : ALLYN MINER प्रकाशक : इन्दिरा गांधी नेशनल सेन्टर फोर ध आर्ट्स, न्यू दिल्ली तथा मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, ई. १९९८ ____ मलधारगच्छीय आचार्य श्रीराजशेखरसूरिना शिष्य वा. सुधाकलश गणिए वि.सं. १३८०मां 'संगीतोपनिषत्' ग्रन्थ रचेलो. ते पछी सं. १४०६मां 'संगीतोपनिषत्सारोद्धार' पण तेमणे ज बनाव्यो. बन्ने संगीतशास्त्र-प्रतिपादक रचनाओ हती, संस्कृत भाषानी. बे पैकी प्रथम रचना अनुपलब्ध छे. बीजी रचना जोके ई. १९६१मां वडोदरानी 'गायकवाड्स ओरिएन्टल सिरीज'मां डो. यु.पी.शाहना संपादनपूर्वक प्रकाशित हती ज; परंतु अहीं ते ग्रंथनुं पुनः संपादन, अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित करवामां आव्युं छे. विविध परिशिष्टो पण आपवामां आव्यां छे. (६) पातंजलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ले. अरुणा आनन्द, प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास एवं बी.एल इन्स्टिट्यूट, दिल्ली, ई. २००२ बी.एल.इन्स्टिट्यूटमां उपनिदेशक पदे आरूढ लेखिकाए हिन्दी भाषामां लखेलो आ अभ्यासपूर्ण शोध-प्रबन्ध छे, पठनीय पण. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ (७) Jain Temples ले. एल. एम. सिंघवी, छबीकार : तरुण चोपरा प्रकाशन : Luxor Foundation, दिल्लीना सहयोगथी 'हिमालयन बुक्स, दिल्ली, ई. २००२ अनुसंधान- २१ भगवान महावीरना २६००मा जन्मकल्याणकवर्षना उपलक्ष्यमां तथा तेनी मधुर स्मृतिरूपे, इंग्लंडमां भारतना राजदूत तरीके रही चूकेला डॉ. सिंघवी आ ग्रंथ निर्माण करेल छे. तेमां देशना तेमज विदेशना अनेक जैन तीर्थो, मंदिरो, प्रतिमाओनी उत्तम तसवीरो पण विपुल मात्रामां छे. दर्शनीय ग्रंथ. (८) नियति द्वात्रिंशिका ( गुजराती अनुवाद : विवरण सहित ) कर्ता : श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि, अनुवादक : मुनि भुवनचंद्र नियतिवादना सिद्धांतनुं निरूपण करती, दिवाकर भगवंतनी बत्रीशीना रहस्यने पकडवानुं विकट काम अनुवादके अहीं सुपेरे पार पाड्युं छे. पाठशोधन तथा पाठनिर्णय माटे पण सारो प्रयास कर्यो छे. प्रकाशक : जैन साहित्य अकादमी, गांधीधाम- कच्छ, ई. २००२ (९) ' शतक 'नामा पंचम कर्मग्रंथ ( गुजराती सचित्र विवरण ) ग्रंथकार : श्रीदेवेन्द्रसूरिजी अनुवाद : रम्यरेणु प्राप्तिस्थान : पार्श्वभक्तिनगर, भीलडियाजी, उ.गु. ई. २००२ अगाउ प्रथमना चार कर्मग्रंथोनां विवरण प्रकाशित थयां छे. ते श्रेणिमां आ पांचमुं पुस्तक छे. कर्मसाहित्यना अध्येताओ माटे सुंदर प्रयास. (१०) नन्दनवनकल्पतरु : ( संस्कृत भाषामय अयनपत्र ) अंक आठमो ई. २००२ सं. कीर्तित्रयी. प्रकाशक : जैन ग्रंथ प्रकाशन समिति, खंभात ११. मूलशुद्धिप्रकरणम् विभाग १-२ • प्रणेता : श्री प्रद्युम्नसूरि, संपादक : आ. धर्मधुरंधरसूरि एवं पं. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ अमृतलाल मोहनलाल भोजक प्रकाशक : श्रुतिनिधि, अमदावाद, ई. २००२ प्राकृत भाषानिबद्ध आ ग्रंथनो प्रथम भाग पूर्वे प्राकृत ग्रन्थ परिषद् द्वारा (ई. १९८१) प्रकाशित हतो; तेनुं पुनर्मुद्रण छे. द्वितीय भाग प्रथमवार प्रगट थाय छे. एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, संपूर्ण प्रकाशन थq ए महत्त्वनी घटना छे. अलबत्त, आवा महत्त्वपूर्ण अने वर्षोना विलम्ब बाद थयेल प्रकाशनमां विस्तृत अने अभ्यासपूर्ण प्रस्तावना तेमज विविध परिशिष्टो अपायां होत तो ग्रंथनी उपादेयता खूब थात. दुर्भाग्ये तेम नथी थयु, अने प्राचीन प्रणालिकानुसारे ज ग्रन्थ प्रकाशित थयो छे. ११. प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (मोहनलाल दलीचंद देशाई - संपादित लघुकृतिसंग्रह) सं. जयंत कोठारी प्रका. ला.द.भा.सं. विद्यामन्दिर अमदावाद (ई. २००१) मो.द. देशाईए 'कोन्फरन्स हेरल्ड' तथा 'जैन युग' वगेरे सामयिक पत्रोमां, पोतानी सुदीर्घ संशोधन-यात्रानी आडपेदाशरूपे, अनेक मध्यकालीन रचनाओ संपादित तथा प्रकाशित करेली. ते कृतिओनुं संकलन तथा केटलाक अंशे पुनःसंपादन, जयंत कोठारीए, आ ग्रन्थमां आपेल छे. कृतिओनी संख्या ११० जेटली छे. परिशिष्टमां शब्दकोश, भले अधूरो पण, मूकवामां आव्यो छे. जयंत कोठारी वधु रह्या होत तो तेमनी विस्तृत भूमिकानो, पूर्ण शब्दकोशनो, तथा अन्य परिशिष्टादिनो लाभ अवश्य मळी शक्यो होत. खूब मूल्यवान प्रकाशन. *** . नोंध १ : अनुसन्धान-१९मां प्रकाशित 'गौतमस्वामी- स्तवन' पूर्वे अन्यत्र प्रकाशित होवानुं जाणवा मळे छे. तेमां केटलाक पाठभेद छे, अने त्यां विजयसेनसूरिना शिष्य ‘धीर' (धीरविजय)नी आ रचना होवानो निर्देश छे. अर्थात् आ रचना जैन परंपरामा लोकप्रिय छे. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अनुसंधान-२१ नोंघ २ : अनुसंधान-१९मां प्रकाशित हीरसागरकृत स्तवन-चोविशी विषे 'गुजराती साहित्य कोश (मध्य.)'नी नोंध आ प्रमाणे छे : "हीरसागर [ ] : जैन 'चोवीसी'ना कर्ता." आथी तेमना विषे विशेष विगतो प्राप्य थई नथी. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________