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ऑक्टोबर २००२ छेवट लगी थाय छे. पांडित्यने पूरेपूरुं कामे लगाड्या सिवाय वर्ण-अर्थछंदनी आवी गूंथणी थई शके नहि.
___'आत्मसंवाद' नामक दीर्घ संस्कृत गद्यकृति अनेक रीते ध्यानपात्र छे. संपादकश्रीना मंतव्य प्रमाणे आ ग्रंथ उपा. श्रीमद् यशोविजयजीनी रचना छे. नव्यन्यायनी पद्धतिए प्रकृष्ट कक्षानी चर्चा तथा हस्ताक्षरोनुं साम्य-आ बे मुद्दा संपादकना मंतव्यने समर्थन आपता जणाय छे, तो 'ऐं' मंत्राक्षरनी गेरहाजरी तथा केटलीक लेखननी भूलो-आ बे मुद्दा तेनी विरुद्ध जाय छे. ग्रंथ अपूर्ण छे, काचा खरड़ा रूपे छे, तेथी तेमां शुद्धि-वृद्धि स्वाभाविक ज गणाय, परंतु 'दोषानां' जेवा व्याकरणदुष्ट प्रयोगो आमां छे, जे संस्कृतना सारा अभ्यासीना हाथे पण न थाय; अहीं तो ग्रन्थकार नव्यन्याय-जैनदर्शनषट्दर्शनना प्रखर विद्वान छे (ते उपाध्यायजी होय के भले बीजा कोई होय); आनुं समाधान तो संपादक श्रीए आप्यु छे ते ज होइ शके : ग्रंथकारना फलद्रूप दिमागमा युक्ति-तर्कोनो धसमसतो प्रवाह वहेतो हशे.... तेने कागल पर अवतारवानी त्वरामां आवें झीझीणुं जोवानो अवकाश ज एमने नहि रह्यो होय.
आत्मसिद्धि माटेनी अटपटी तर्कजाळ, नैयायिक शैली, विषय परर्नु अद्भुत प्रभुत्व-आ बधुं स्वतः उपाध्यायजी यशोविजयजी, स्मरण करावे छे. ग्रन्थना पहेला-छेल्ला पृष्ठनी छबी आपी छे ते हस्ताक्षरनी तुलनामां मदद करशे. अधिकारी विद्वज्जनो आना पर प्रकाश पाडे एवी अपेक्षा. आ अद्भुत कृतिने प्रकाशमां लाववा बदल आ. शीलचन्द्रसूरिजी भूरि भूरि धन्यवादना अधिकारी बन्या छे.
कृतिनु वाचन अने पुनर्लेखन कुशळतापूर्वक थयुं छे. मुनि श्री कल्याणकीतिविजयजीए ग्रन्थना विषयने आत्मसात् करीने अवतरण कर्यु छे. कर्ताए पोते पाठो सुधार्या छे ते स्थळो वधु विचार मागी ले छे. पृ. ३६ पर 'न चान्यदनुमानं प्रमाणं' एम छपायुं छे. प्रथम पृष्ठनी छबीमां जोतां आ पाठ 'न चानुमानं प्रमाणं' एम सुधारेलो जणाय छे, अने ते प्रसंगानुरूप छे.
पृ. ५२ स्वोपादनं स्वोपादानं होवू जोईए. पृ. ५८ तव जयपताक(?)=ततजयपताक होवानो संभव छे.
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