________________
अनुसंधान-२१ (५९०) पोतइ : पिंडमां, पोतामां (७४९) विरध्य : वृद्धि (५२४) अईअलि : ईयळ (४८०) चडी : चकली
__ शब्दकोशमांना केटलाक शब्दो विशे(९०) लोढी : अहीं 'लोढी नीत' एम शब्दगुच्छ लेवो जोइतो हतो. . (३९४) चंदन जमलां : चंदन साथे (४३५) कुपर खबोलि : कुपरख-बोलि-कुपुरुषना बोले
सुपर खलोपइ : सुपरख लोपइ- सुपुरुष लोपे (४४१) मेहर : महेतर अथवा मेर (४४५) पलवाडि : पालानी-घासनी वाड (५१२) अकाई : निरर्थक, कारण वगर. (कच्छी भाषामां आ शब्द आ ज
अर्थमां प्रचलित छे. (५७७) छबदि : छद्मथी (वर्णव्यत्ययथी 'छद्म' =छबद' बन्यो होय. कृतिमां
'छल-छबदि' एवो शब्दगुच्छ छे, तेथी 'छद्म' अर्थ लेवामां हरकत
नथी.) (६२०) वरला : विरला (६५१) विहीवा : विवाह (कृतिमां ‘पर विहीवा मेलि' छे. 'परविवाहकरण'
ए जाणीतो 'अतिचार' छे.) (६७३) शाम्यनी : स्वामिनी, शेठाणी . (६७९) बर्द : बिरूद (७२०) आपोपुं : पोताने, जातने
कवि ऋषभदास एक प्रसिद्ध जैन कवि होतां तेमनो वृत्तांत कृति साथे आपवानी आवश्यकता रहेती नथी, तो पण प्रास्ताविकमां कविनो जीवनकाल संवतोमा आप्यो होत तो संदर्भरूपे नवा वाचकोने मददरूप थात.
आ अंकनी बीजी दीर्घ कृति- 'हीरसागरकृत स्तवनचोवीसी' एक भक्तिरसपूर्ण रचना छे. आनी भाषा सत्तरमां-अढारमा सैकानी के ते पछीनी लागे छे. कर्ताना गुरु जिनचन्द्रसूरि छे ते क्या - ए निश्चित करवू पडे छे. 'जैन गूर्जर कविओ' जेवा संदर्भग्रंन्थोनो उपयोग मध्यकालीन जैन कविओना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org