Book Title: Anekant 1948 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1170 कान्त प्रधान सम्पादक-पं० जुगलकिशोर मुख्तार EK सम्पादक-मण्डल पण्डित दरबारीलाल न्यायाचार्य कोठिया पण्डित अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय' इम मण्डलमें एक दो विद्वानों के नाम अभी और शामिल होंनेको हैं। स्वीकृति मिलनेपर उनको प्रकट किया जायगा। papappuRIBE APITAMITATIMITATI TERaarARIHARApp THANImammiliaWINNEL ITITION mumm u nimoomurammarATHALARITRADUNIKTURALLUMARITAMARUJILABILIMBADRAINITARIALLinmum m mmmunnamrururuta போயானாப்பாமேயானாலயாயாயாயாயாயமானாயாமானாப்பானாமimalar १२ विषय-सी ११-समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक) २-रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय- सम्पादक] ३-आप्तमीमांसा और रत्नकरण्डका भिन्नकर्तृत्व-[डा० हीरालाल जैन एम० ए०] ४-जैन कालोनी और मेरा विचार पत्र-[जुगलकिशोर मुख्तार] ५-न्यायकी उपयोगिता-[पं० दरबारीलाल कोठिया] ६-स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई-[भंवरलाल नाहटा] ७-अ चायकल्प पं० टोडरमल्ल जी-(पं० परमानन्द जैन शास्त्री] 2-समन्तभद्रभाष्य-पं० दरबारीलाल कोठिया] E-समयसारकं' महानता-[पूज्य कानजी स्वामी] ०-शंका समाधान-[पं० दरबारीलाल कोठिया] ११-विविध १२-साहित्य परिचय और समालोचन - ... ३४ ...३६ जनवरी आ.श्री. कलासंसागर मार ज्ञान, मदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबाया सा.क्र. १६४८ Jain Eudal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तकी नई व्यवस्था और नया ग्रायोजन पाठकों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी, कि अब उन्हें अनेकान्तके समयपर प्रकाशित न होनेजैसी किसी शिकायतका अवसर नहीं मिलेगा | साथ ही पत्र भी अधिक उन्नत अवस्थाको प्राप्त होगा क्योंकि दानवीर साहू शान्तिप्रसादजीने अब उसे अपनी सरपरस्ती में ले लिया है और अपनी संस्था भारतीयज्ञानपीठ काशीके साथ उसका सम्बन्ध जोड़ दिया है । इस वर्ष शुरू से ही पत्रके सम्पादन - विभागकी जिम्मेदारी वीर - सेवा - मन्दिर के ऊपर रहेगी, जिसके लिये एक सम्पादक - मण्डलकी भी योजना हो गई है, और शेष पत्रके प्रकाशन, संचालन एवं आर्थिक आयोजन श्रादिकीसारी जिम्मेदारी ज्ञानपीठके ऊपर होगी। साहू जी अनेकान्तको जीवन में स्फूर्तिदायक महत्त्व के लेखों से परिपूर्ण ही नहीं, किन्तु सुरुचिपूर्ण छपाई आदि से भी आकर्षक बने हुए एक ऐसे आदर्श पत्रके रूप में देखना चाहते हैं जो नियमित रूपसे समय पर प्रकाशित होता रहे । इसके लिये विशेष आयोजन हो रहा है । का प्रधान श्रेय गोयलीयजोको हो प्राप्त है । गोय यजीने मंत्रीकी हैसियतसे ज्ञानपीठकी सारी जिम्मे रियों और पत्रसम्बन्धी व्यवस्थाओं को अपने ले लिया है। वे एक उत्साही नवयुवक हैं, अपनी के पक्के हैं, अच्छे लेखक हैं और समाज के शुभ न्तक ही नहीं किन्तु उसके ददको भी अपने लिये हुए हैं । उनके इस सक्रिय सहयोग और शान्तिप्रसादजीकी सार्थक सरपरस्ती से मुझे अनेका का भविष्य अब उज्जवल हो मालूम होता है, जरूर समय पर निकला करेगा औरं शीघ्र ही । उच्चकोटिके आदर्शपत्र का रूप धारण करके लो गौरवान्वित होगा ऐसी मेरी दृढ़ाशा है और उ साथ भावना भी है । इस आयोजन से पत्रके प्रका और आर्थिक आयोजनादि सम्बन्धी कितनी ही । न्ताओंसे मैं मुक्त हो जाऊँगा और उसके द्वारा जिस शक्तिका संरक्षरण होगा वह दूसरे संक सत्कार्यो में लग सकेगी इसके लिये मैं गोयलीयजी साहू साहब दोनों का ही हृदय से आभारी हूं । 4 भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय, जो अनेकान्त के जन्मकाल से ही उसके (तीन वर्षॆतक) प्रकाशक तथा व्यवस्थापक रहे हैं और जिनके समय में अनेकान्तने काफी उन्नति की है और वह समय पर बराबर निकलता रहा है, आजकल ज्ञानपीठके मंत्री हैं, अनेकान्त से हार्दिक प्रेम रखते हुए भी कुछ परिस्थितियों के वश पिछले कई वर्षों से वे उसमें कोई सक्रिय सहयोग नहीं दे रहे थे; परन्तु उसी प्रेमके कारण उन्हें अनेकान्तका समय पर न निकलना और विशेष प्रगति न करना बराबर अखर रहा था । और इस लिये उस सम्बन्ध में मुझसे मिलकर बातें करनेके लिये वे जनवरीके शुरू मेंही (ता०२ को) वीर सेवामन्दिर में पधारे थे, उन से अनेकान्तके सम्बन्ध में काफी चर्चा हुई और उसे अधिक लोकप्रिय एवं व्यापक बनाने की योजनापर विचार किया गया । अन्तको मेरी स्वीकृति लेनेके बाद वे बनारस में साहूशान्तिप्रसादजी से भी साक्षात मिले हैं । और उनकी पूर्ण स्वीकृति लेकर अनेकान्तकी उस नई व्यवस्था एवं योजनाके करने में सफल हुए हैं जिसका उपर उल्लेख किया गया है । अत: इस सारे आयोजन ऐसी स्थिति में अब पत्र बराबर समयपर । महीने के अन्त में) प्रकाशित हुआ करेगा यह प्र सुनिश्चित है । और अब उसमें अधिकांश लेख के उपयोग के हो नहीं रहेगें बल्कि सर्वसाधारणोपर लेखों की ओर भी यथेष्ट ध्यान दिया जायेगा, जि यह पत्र सभी के लिये उपयोगी - सिद्ध हो स अतः विद्वानोंसे सानुरोध निवेदन हैं कि वे अब लेखोंको शीघ्र ही भेजनेकी कृपा किया करें जि समय पर उनका प्रकाशन हो सके । नये वर्ष की यह प्रथम किरण पाठकोंके पास पी० से नहीं भेजी जा रही है जिसके भेजे जाने पिछली किरण में सूचना की गईथी आशा है इस कि को पानेके बाद ग्राहकजन शीघ्र ही अपने अ चन्देके ५) रु० मनीआर्डर से भेजने की कृपा करेंगे इस तरह वीरसेवामन्दिरको अगली किरणवी० से भेजने की भटसे बचाकर आभार के पात्र कं और समय पर किरणको प्राप्त कर सकेंगे । - जुगल किशोर मुख्तार For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् FG तत्त्व-प्रकाशक 0 0000०.. एक किरणका मूल्य ॥) mac नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ वीरसेवामन्दिर (समन्तभदाश्रम), सरसावा जि० सहारनपुर पौष, वीरनिर्वाण-संवत् २४७३, विक्रम संवत् २००५, जनवरी ११४८. करण समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावादवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् ।। स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि स्वरूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥२६॥ ('अशेष तत्त्व सर्वथा अवाच्य है ऐसी एकान्त मान्यता होने पर) तत्त्व अवाच्य ही है ऐसा कहना प्रयथाप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञाके विरुद्ध- होजाता है; क्योंकि 'अवाच्य' इस पदमें ही वाच्यका भाव है - वह किसी बातको बतलाता है, तब तत्त्व सर्वथा अवाच्य न रहा। यदि यह कहा जाय कि तत्त्व स्वरूपसे प्रवाच्य ही है तो 'सर्व वचन स्वरूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध पड़ता है। और यदि यह के पररूपसे तत्त्व अवाच्य ही है तो 'सर्ववचन पररूपवाची है' यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध ठहरता है।' [इस तरह तत्त्व न तो भावमात्र है, न अभावमात्र है, न उभयमात्र है, और न सर्वथा अवाच्य है, इन चारों मिथ्याप्रवादोंका यहां तक निरसन किया गया है। इसी निरसनके सामर्थ्य से सदवाच्यादि शेष मेथ्याप्रवादोंका भी निरसन हो जाता है। अर्थात् न्यायकी समानतासे यह फलित होता है कि न तो सर्वथा सदवाच्य तत्त्व है, न असदवाच्य, न उभयाऽवाच्य और न अनुभयाऽवाच्य ।] For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन । युक्तं प्रतिद्वन्यनुबन्धि-मिथ न वस्तु ताहक त्वदृते जिनेदृक् ॥३०॥ . 'कोई वचन सत्याऽनृत ही है, जो प्रतिद्वन्द्वीसे मिश्र है- जैसे शाखा पर चन्द्रमाको देखो, जिसमें 'चन्द्रमाको देखो' तो सत्य है और 'शाखा पर' यह वचन विसंवादी होनेसे असत्य है-; दूसरा कोई वचन अनताऽनत ही है, जो अनुबन्धिसे मिश्र है - जैसे पर्वत पर चन्द्रयुगलको देखो, जिसमें 'चन्द्रयुगल' पचन जिस तरह असत्य है उसी तरह ‘पर्वत पर' यह वचन भी विसंवादि-ज्ञानपूर्वक होनेसे असत्य है । इस प्रकार हे वीर जिन ! आप स्याद्वादीके विना वस्तुके अतिशायनसे - सर्वथा प्रकारसे अभिधेयके निर्देश द्वारा- प्रवर्तमान जो वचन है वह क्या युक्त है ? - युक्त नहीं है । (क्योंकि स्याद्वादसे शून्य उस प्रकारका अनेकान्त वास्तविक नहीं है वह सर्वथा एकान्त है और सर्वथा एकान्त अवस्तु होता है।' सह-क्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरि-भेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् । आत्मान्तरं स्याद्भिदुरं समं च स्याचाऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ॥३१॥ 'विषय (अभिधेय) का अल्प-भूरि भेद-अल्पाऽनल्प विकल्प होनेपर अनृत (असत्य) भेदवान होता है-, जैसे जिस वचनमें अभिधेय अल्प असत्य और अधिक सत्य हो उसे 'सत्याऽनृत' कहते हैं, इसमें सत्य-विशेषणसे अनृतको भेदवान् प्रतिपादित किया जाता है। और जिस बचनका अभिधेय अल्प सत्य और अधिक असत्य हो उसे 'अनृताऽनृत' कहते हैं, इसमें अनृत विशेषणसे अनृतको भेदरूप प्रतिपादित किया जाता है। आत्मभेदसे अनृत भेदवान् नहीं होता-क्योंकि सामान्य-अनृतात्माके द्वारा भेद घटित नही होता। अनृतका जो आत्मान्तर-आत्मविशेष लक्षण है वह भेद-स्वभावको लिये हुए है-विशेषणके भेदसे, और सम (अभेद) स्वभावको लिये हुए है-विशेषणभेदके अभावसे । साथ ही ('च' शब्दसे) उभयस्वभावको लिये हुए है-हेतुद्वयके अर्पणाक्रमको अपेक्षा। (इसके सिवाय) अनृतात्मा अनभिलाप्यता (श्रवक्तव्यता) को प्राप्त है-एक साथ दोनों धर्मोका कहा जाना शक्य न होने के कारण; और (द्वितीय 'च' शब्दके प्रयोगसे) भेदि अनभिलाप्य, अभेदि-अनभिलाप्य और उभय (भेदाऽभेदि) अनभिलाप्यरूप भी वह हैअपने अपने हेतुको अपेक्षा। इसतरह अनृतात्मा अनेकान्तदृष्टिसे भेदाऽभेदकी सप्तभङ्गीको लिये हुए है।' न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्व-निषेध-गम्यम् । दृष्टं विमिथ तदुपाधि-भेदात्स्वमेऽपि नैतत्त्वषेः परेषाम् ॥३२॥ 'तत्त्व न तो सन्मात्र-सत्ताद्वैतरूप है और न असन्मात्र सर्वथा अभावरूप-है; क्योंकि परस्पर निरपेक्ष सत्तत्त्व और असत्तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता-किसी भी प्रमाणसे उपलब्धि न होनेके कारण उसका होना असम्भव है। इसी तरह (सत्. असत्, एक, अनेकादि) सर्वधर्मों के निषेधका विषयभूत कोई एक आत्मान्तरपरमब्रह्म-तत्त्वभी नहीं देखा जाता-उसका भी होना असम्भव है । हां, सत्वाऽसत्वसे विमिश्र परस्पराऽपेक्षरूप तत्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधिके-स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप तथा परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावरूप विशेषणोंके भेदसे है अर्थात् सम्पूर्णतत्त्व स्यात् सत्रूप ही है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा; स्यात् असद्रूप ही है, पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा स्यात् उभयरूप हो है, स्व-पररूपादिचतुष्टय-द्वंय के क्रमापणाकी For Personal Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने अपेक्षाः स्यात् अवाच्यरूप ही है, स्व- पररूपादि चतुष्टयद्वयके सहार्पण की अपेक्षाः स्यात्सदवाच्यरूप है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा तथा युगपत्स्व-पर- स्वरूपादिचतुष्टय के कथनको शक्तिकी अपेक्षा; स्यात् असदवाच्य रूप ही है, पररूपादि-चतुष्टयको अपेक्षा तथा स्व पररूपादि चतुष्टयोंके युगपत् कहनेकी अशक्तिकी अपेक्षा; और स्यात् सदसदवाच्यरूप है, क्रमार्पित स्वपररूपादि चतुष्टय-द्वयकी अपेक्षा तथा सहार्पित उक्त चतुष्टयद्वयकी अपेक्षा। इस तरह सत् असत् आदिरूपविमिश्रित तत्व देखा जाता है और इसलिये हे वीर जिन ! वस्तुके अतिशायनसे (सर्वथा निर्देश द्वारा ) किञ्चित् सत्यानृतरूप और किञ्चित् असत्याऽनृतरूप वचन आपके ही युक्त है। आप ऋषिराजसे भिन्न जो दूसरे सर्वथा सत् आदि एकान्तवादी हैं उनके यह वचन अथवा इस रूप तत्त्व वनमें भी सम्भव नहीं है ।" (यदि यह कहा जाय कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष निरंश वस्तुका प्रतिभासी ही है, धर्मि-धर्मात्मकरूप जो सां वस्तु है उसका प्रतिभासी नहीं - उसका प्रतिभासी वह सविकल्पक ज्ञान है जो निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अनन्तर उत्पन्न होता है; क्योंकि उसीसे यह धर्मी है यह धर्म है ऐसे धर्मि- धर्म - व्यवहारकी प्रवृत्ति पाई जाती है । श्रतः सकल कल्पनाओं से रहित प्रत्यक्षके द्वारा निरंश स्वलक्षणका जो प्रदर्शन बतलाया जाता है वह प्रसिद्ध है, तब ऐसे प्रसिद्ध प्रदर्शन साधनसे उस निरंश वस्तुका प्रभाव कैसे सिद्ध किया जासकता है ? बौद्धके इस प्रश्नको लेकर आचार्य महोदय अगली कारिकाको अवतरित करते हुए कहते हैं -) प्रत्यक्ष-निर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितुं ह्यशक्यम् । विना च सिद्ध ेर्न च लक्षणार्थो न तावक- द्वेषिणि वीर ! सत्यम् ||३३|| ३ 'जो प्रत्यक्ष के द्वारा निर्देशको प्राप्त (निर्दिष्ट होनेवाला) हो - प्रत्यक्ष ज्ञानसे देखकर 'यह नीलादिक है इस प्रकार के वचन - विना ही अंगुलीसे जिसका प्रदर्शन कियाजाता हो - ऐसा तभी प्रसिद्ध है; क्योंकि जो प्रत्यक्ष कल्पक है—- सभी कल्पनाओं से रहित निर्विकल्पक है - वह दूसरोंको (संशयित विनेयों श्रथवा संदिग्ध व्यक्तियों को ) तत्त्व के बतलाने - दिखलाने में किसी तरह भी समर्थ नहीं होता है । ( इसके सिवाय ) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी असिद्ध है; क्योंकि (किसी भी प्रमाणके द्वारा ) उसका ज्ञापन अशक्य है - प्रत्यक्षप्रमाणसेतो वह इस लिये ज्ञापित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह पर प्रत्यक्षके द्वारा असंवेद्य है । और अनुमान प्रमाणके द्वारा भी उसका ज्ञापन नहीं बनता; क्योंकि उस प्रत्यक्ष के साथ अविनाभावी लिङ्ग (साधन) का ज्ञान असंभव है - दूसरे लोग जिन्हें लिङ्ग-लिङ्गी के सम्बन्धका ग्रहण नहीं हुआ उन्हें अनुमानके द्वारा उसे कैसे बतलाया जा सकता है ? नहीं बतलाया जा सकता । और जो स्वयं प्रतिपन्न है - निर्विकल्पक प्रत्यक्ष तथा उसके अविनाभावी लिङ्गको जानता है-उसको निर्विकल्पक प्रत्यक्षका ज्ञापन करानेके लिये अनुमान निरर्थक है । समारोपादिकी— भ्रमोत्पत्ति और अनुमानके द्वारा उसके व्यवच्छेदकी-बात कहकर उसे सार्थक सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि साध्य - साधनके सम्बन्धसे जो स्वयं अभिज्ञ है उसके तो समारोपका होना ही असंभव है और जो श्रभिज्ञ नहीं है उसके साध्य साधन सम्बन्धका ग्रहण ही सम्भव नहीं है, और इसलिये गृहीतकी विस्मृति जैसी कोई बात नहीं बन सकती । इस तरह अकल्पक प्रत्यक्षका कोई ज्ञापक न होनेसे उसकी व्यवस्था नहीं बनती; तब उसकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? और जब उसकी ही सिद्धि नहीं तब उसके द्वारा निर्दिष्ट होने वाले निरंश वस्तुतत्त्वको सिद्धि तो कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती । अतः दोनों ही सिद्ध ठहरते हैं । For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे ४ ॥ प्रत्यक्षकी सिद्धिके विना उसका लक्षणार्थ भी नहीं बन सकता-'जो ज्ञान कल्पनासे रहित है वह प्रत्यक्ष है। ('प्रत्य कल्पनापोढम्' 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्') ऐसा बौद्धोंके द्वारा किये गये प्रत्यक्ष-लक्षणका जो अर्थ प्रत्यक्षका बोध कराना है वह भी घटित नहीं हो सकता। अत: हे वीर भगवन् ! आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनका जो द्वेषी है-सर्वथा सत् आदिरूप एकान्तवाद है-उसमें सत्य घटित नहीं होताएकान्ततः सत्यको सिद्ध नहीं किया जा सकता।' कालान्तरस्थे क्षणिके ध्र वे वाऽपृथक्पृथक्त्वाऽवचनीयतायाम् । विकारहाने ने च कत-कार्ये वृथा श्रमोऽयं जिन! विद्विषां ते ॥३४॥ ‘पदाथके कालान्तरस्थायी होने पर-जन्मकालसे अन्यकाल में ज्योंका त्यों अपरिणामीरूपसे अवस्थित रहने पर-, चाहे वह अभिन्न हो भिन्न हो या अनिर्वचनीय हो, कर्ता और कार्य दोनों भी उसी प्रकार नहीं बन सकते जिस प्रकार कि पदार्थके सर्वथा क्षणिक अथवा ध्रव (नित्य) होने पर नहीं बनते१; क्योंकि तब विकारकी निवृत्ति होती है- विकार परिणामको कहते हैं, जो स्वयं अवस्थित द्रव्य के पूर्वाकारके परित्याग, स्वरूपके अत्याग और उत्तरोत्तराकारके उत्पादरूप होता है। विकारकी निवृत्ति क्रम और अक्रमको निवृत्त करती है। क्योंकि क्रम अक्रमकी विकारके साथ व्याप्ति (अविनाभाव सम्बन्धकी प्राप्ति) है। क्रम-अक्रमकी निवृत्ति क्रियाको निवृत करती है। क्योंकि क्रियाके साथ उनकी व्याप्ति है। क्रियाका अभाव होने पर कोई कर्त्ता नहीं बनता; क्योंकि क्रियाधिष्ठ स्वतंत्र द्रव्यके ही कर्तृत्वकी सिद्धि होती है। और कर्ताके अभावमें कार्य नहीं बन सकता-स्वयं समीहित स्वर्गाऽपवेगादिरूप किसी भी कार्यको सिद्धि नहीं हो सकती। (अत:) हे वीर जिन! आपके द्वेषियोंका- आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनसे द्वेष रखनेवाले (बौद्ध, वैशेषिक, नैय्यायिक, सांख्य आदि) सर्वथा एकान्तवादियोंका- यह श्रमस्वर्गाऽपवर्गादिकी प्राप्तिके लिये किया गया यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि रूप संपूर्ण दृश्यमान तपोलक्षण प्रयास-व्यर्थ है- उससे सिद्धान्तत: कुछ भी साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती।' [यहां तकके इस सब कथन-द्वारा प्राचार्य महोदय स्वामी समन्तभद्रने अन्य सब प्रधान प्रधान मतोंको सदोष सिद्ध करके 'समन्तदोष मतमन्यदीयम्' इस पाठवीं कारिकागत अपने वाक्यको समर्थित किया है। साथ ही, 'त्वदीयं मतमद्वितीयम्' (आपका मत-शासन अद्वितीय है) इस छठी कारिकागत अपने मन्तव्यको प्रकाशित किया है। और इन दोनोंके द्वारा 'त्वमेव महान इतीयत्प्रतिवक्तुमीशाः वयमा ('आप ही महान हैं। इतना बतलानेके लिये हम समर्थ हैं) इस चतुथै कारिकागत अपनी प्रतिज्ञाको सिद्ध किया है। १ देखो, इसी प्रन्थकी कारिका ८, १२, अादि तथा देवागमकी कारिका ३७, ४१ आदि । For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय [ सम्पादकीय ] रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्तृत्व विषयको वर्तमान चर्चाको उठे हुए चारवर्ष हो चुके— प्रोफेसर हीरालाल जीएम० ए० ने 'जेन इतिहासका एक विलुम अध्याय' नामक निबन्धमें इसे उठाया था. जो जनवरी सन् १६४४ में होनेवाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलनके १२वें अधिवेशनपर बनारस में पढ़ा गया था। उस निबन्धमें प्रो० सा० ने, अनेक प्रस्तुत प्रमाणोंसे पुष्ट होती हुई प्रचलित मान्यता के विरुद्ध अपने नये मतकी घोषणा करते हुए, यह बतलाया था कि 'रत्नकरण्ड उन्हीं ग्रन्थकार (स्वामी समन्तभद्र ) की रचना कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने आप्तमीमांसा लिखी थी; क्योंकि उसके 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्यमें दोषका जो स्वरूप समझाया गया है वह आप्तमीमांसाकार के श्रभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता ।' साथ ही यह भी या था कि इस ग्रन्थका कतों रत्नमालाके कर्ता शिवकोटिका गुरु भी हो सकता है। इसी घोषणा के प्रतिवादरूपमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया जुलाई सन १६४४ में 'क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है' नामका एक लेख लिखकर अनेकान्त में इस चर्चाका प्रारम्भ किया था और तबसे यह चर्चा दोनों विद्वानोंके उत्तर प्रत्युत्तररूपमें बराबर चली आ रही है। कोठियाजीने अपनी लेखमालाका उपसंहार अनेकान्तकी गत किरण १०-११ में किया है और प्रोफेसर साहब अपनी लेखमालाका उपसंहार इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित 'रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व' लेखमें कर रहे हैं । दोनों ही पक्षके लेखोंमें यद्यपि कहीं कहीं कुछ पिटपेषण तथा खींचतानसे भी काम लिया गया है और एक दूसरे के प्रति आक्षेपपरक भाषाका भी प्रयोग हुआ है, जिससे कुछ कटुताको अवसर मिला। यह सब यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा रहता । फिर भी 1 इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानोंने प्रकृत विषयको सुलझाने में काफी दिलचस्पी से काम लिया है और उनके श्रन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक प्रयत्नके फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकों के सामने आई हैं । अच्छा होता यदि प्रोफेसर साहब न्यायाचार्यजोके पिछले लेखकी नवोद्भावित युक्तियों का उत्तर देते हुए अपनी लेखमालाका उपसंहार करते, जिससे पाठकों को यह जानने का अवसर मिलता कि प्रोफेसर साहब उन विशेष युक्तियोंके सम्बन्ध में भी क्या कुछ कहना चाहते हैं। हो सकता है कि प्रो० सा० के सामने उन युक्तियोंके सम्बन्ध में अपनी पिछली बातों के पिष्टपेषणके सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं समुचित कहने के लिये अवशिष्ट न हो और इसीलिये उन्होंने उनके उत्तर में न पड़कर अपनी उन चार आपत्तियों को ही स्थिर घोषित करना उचित समझा हो, जिन्हें उन्होंने अपने पिछले लेख ( अनेकान्त वर्षे ८ किरण ३) के अन्तमें अपनी युक्तियोंके उपसंहाररूपमें प्रकट किया था । और सम्भवतः इसी बात को दृष्टिमें रखते हुए उन्होंने अपने वर्तमान लेखमें निम्न वाक्यों का प्रयोग किया हो : "इस विषयपर मेरे 'जैन इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' शीर्षक निबन्धसे लगाकर अभी तक मेरे और पं० दरबारीलालजी कोठिया के छह लेख प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणोंका विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई बात सन्मुख नेकी अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक होना प्रारम्भ हो गया है और मौलिकता केवल कटु शब्दों के प्रयोगमें शेष रह गई है । " ( आपत्तियों के पुनरुल्लेखानन्तर ) " इस प्रकार रत्नकरण्ड श्रावकाचार और आप्तमीमांसा के एक कर्तृत्व के विरुद्व पूर्वोक्त चारों आपत्तियां ज्योंकी त्यों आज भी For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अनेकान्त खड़ी हैं, और जो कुछ ऊहापोह अब तक हुई है उससे और भी प्रबल व अकाट्य सिद्ध होती हैं ।" कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहें, परन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रो० साहब अपनी उक्त चार आपत्तियों में से किसीका भी अब तक समाधान अथवा समुचित प्रतिवाद हुआ नहीं मानते; बल्कि वर्तमान ऊहापोहके फलस्वरूप उन्हें वे और भी प्रबल एवं काट्य सममने लगे हैं । अस्तु । अपने वर्तमान लेखमें प्रो० साहबने मेरे दो पत्रों और मुझे भेजे हुए अपने एक पत्रको उद्धृत किया है इन पत्रों को प्रकाशित देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुईउनमेंसे किसीके भी प्रकाशनसे मेरे क्रुद्ध होने जैसी तो कोई बात ही नहीं हो सकती थी, जिसकी प्रोफेसर साहबने अपने लेखमें कल्पना की है; क्योंकि उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मैं तो स्वयं ही उन्हें 'समीचीन धर्मशास्त्र' की अपनी प्रस्तावना में प्रकाशित करना चाहता था-चुनांचे लेखके साथ भेजे हुए पत्रके उत्तर में भी मैंने प्रो० साहबको इस बातकी सूचना कर दी थी। मेरे प्रथम पत्रको, जो कि रत्नकरण्डके ‘क्षुत्पिपासा' नामक छठे पद्यके संबन्ध में उसके प्रन्थका मौलिक अङ्ग होने न होने-विषयक गम्भीर प्रश्नको लिये हुए है, उद्धृत करते हुए प्रोफेसर साहबने उसे अपनी "प्रथम आपत्तिके परिहारका एक विशेष प्रयत्न" बतलाया है, उसमें जो प्रश्न उठाया है उसे 'बहुत ही महत्वपूर्ण' तथा 'रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषय से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया है और 'तीनों ही पत्रोंको अपने लेख में प्रस्तुत करना वर्तमान विषय के निर्णयार्थ अत्यन्त श्रावश्यक सूचित किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने अपने प्रथम पत्रके उत्तर में प्राप्त विद्वानोंके पत्रों आदि के आधारपर उक्त पद्यके विषय में मूलका अङ्ग होने न होने की बाबत और समूचे ग्रन्थ ( रत्नकरण्ड) विषय में क्या कुछ निर्णय किया है । इसी जिज्ञासाको, जिसका प्रो० सा० के शब्दों में प्रकृत विषय से रूचि रखनेवाले दूसरे हृदयों में भी उत्पन्न [ वर्ष ६ होना स्वाभाविक है, प्रधानता लेकर ही मैं इस लेख के लिखने में प्रवृत्त हो रहा हूं । सबसे पहले मैं अपने पाठकोंको यह बतला देना चाहता हूं कि प्रस्तुत चर्चाके वादी प्रतिवादी रूपमें स्थित दोनों विद्वानोंके लेखोंका निमित्त पाकर मेरी प्रवृत्ति रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यपर सविशेषरूप से विचार करने एवं उसकी स्थितिको जांचने की ओर हुई और उसके फलस्वरूप ही मुझे वह दृष्टि प्राप्त हुई जिसे मैंने अपने उस पत्रमें व्यक्त किया है जो कुछ विद्वानों को उनका विचार मालूम करनेके लिये भेजा गया था और जिसे प्रोफेसर साहबने विशेष महत्वपूर्ण निर्णयार्थ आवश्यक समझकर अपने वर्तमान लेखमें उद्धृत किया है । विद्वानोंको उक्त पत्रका भेजा जाना प्रोफेसर साहबकी प्रथम आपत्ति के परिहारका कोई खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहबने समझा है; बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बातका निर्णय करना था कि 'समीचीन धर्मशास्त्र' में जो कि प्रकाशनके लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकारका व्यवहार किया जाय — उसे मूलका अङ्ग मान लिया जाय या प्रक्षिप्त । क्योंकि रत्नकरण्डमें 'उत्सन्नदोष प्राप्त' के लक्षणरूप में उसकी स्थिति स्पष्ट होनेपर अथवा 'प्रीत्येते' के स्थानपर 'प्रदोषमुक' जैसे किसी पाठका आविर्भाव होनेपर मैं आप्तमीमांसाके साथ उसका कोई विरोध नहीं देखता हूं। और इसी लिये तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादिको उस समय पत्रों में प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह सब समीचीनधर्मशास्त्रकी अपनी प्रश्तावना के लिये सुरक्षित रक्खा गया था। हां, यह बात दूसरी है कि उक्त 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य के प्रक्षिप्त होने अथवा मूल ग्रन्थका वास्तविक अङ्ग सिद्ध न होनेपर प्रोफेसर साहबकी प्रकृत चर्चाका मूलाधार ही समाप्त हो जाता है; क्योंकि रत्नकरण्डके इस एक पद्यको लेकर ही उन्होंने आप्तमीमांसागत दोष -स्वरूप के साथ उसके विरोधकी कल्पना करके दोनों ग्रन्थोंके भिन्न कर्तृ स्वकी For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] रत्नकरण्डके कर्तत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय चर्चाको उठाया था-शेष तीन आपत्तियां तो उसमें करता है। रही सर्वज्ञता, उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं बादको पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होती रही कहा है इसका कारण यह जान पड़ता है कि आप्तहैं। और इस दृष्टिसे प्रोफेसर साहबने मेरे उस मीमांसामें उसकी पृथक् विस्तारसे चर्चा की है इसलिये पत्र-प्रेषणादिको यदि अपनी प्रथम आपत्तिके परिहार- उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा। श्लोक ६ में यद्यपि का एक विशेष प्रयत्न समझ लिया है तो वह स्वाभा- सब दोष नहीं पाते, किन्तु दोषोंकी संख्या प्राचीन विक है, उसके लिये मैं उन्हें कोई दोष नहीं देता । मैंने परम्परामें कितनी थी यह खोजना चाहिये । श्लोककी अपनी दृष्टि और स्थितिका स्पष्टीकरण कर दिया है। शब्दरचना भी समन्तभद्रके अनुकूल है, अभी और मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानोंको भेजा गया था विचार करना चाहिये।” (यह पूरा उत्तर पत्र है)। उनमेंसे कुछ का तो कोई उत्तर ही प्राप्त नहीं हुआ, "इस समय बिल्कुल फुरसतमें नहीं हूं....... कुछने अनवकाशादिके कारण उत्तर देने में अपनी यहां तक कि दो तीन दिन बाद आपके पत्रको पूरा असमर्थता व्यक्त की. कुछने अपनी सहमति प्रकट की पढ़ सका। ..... पद्यके बारेमें अभी मैंने कुछ भी और शेषने असहमति । जिन्होंने सहमति प्रकट की नहीं सोचा था, जो समस्यायें आपने उसके वारेमें उन्होंने मेरे कथनको 'बुद्धिगम्य तर्कपूर्ण' तथा युक्तिः उपस्थित की हैं वे आपके पत्रको देखने के बादही मेरे सामने आई हैं, इसलिये इसके विषय में जितनी वादको 'अतिप्रबल' बतलाते हुए उक्त छठे पद्यको संदि. गहराईके साथ आप सोच सकते हैं मैं नहीं, और ग्धरूपमें तो स्वीकार किया है। परन्तु जब तक किसी फिर मुझे इस समय गहराईके साथ निश्चित होकर भी एक प्राचीन प्रतिमें उसका अभाव न पाया जाय। सोचनेका अवकाश नहीं इसलिये जो कुछ मैं लिख तब तक उसे 'प्रक्षिप्त' कहने में अपना संकोच व्यक्त रहा हूं उसमें किसनी दृढ़ता होगी यह मैं नहीं कह किया है। और जिन्होंने असहमति प्रकट की है सकता फिर भी आशा है कि आप मेरे विचारों पर उन्होंने उक्त पद्यको ग्रन्थका मौलिक अङ्ग बतलाते हुए ध्यान देंगे।" उसके विषय में प्राय: इतनी ही सूचना की है कि वह हां, इन्हीं विद्वानों में से तीनने छठे पद्यको संदग्धि पूर्व पद्यमें वर्णित आप्तके तीन विशेषणोंमेंसे 'उत्सन्न- अथवा प्रक्षिप्त करार दिये जाने पर अपनी कुछ शंका दोष, विशेषरणके स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादिको लिये अथवा चिन्ता भी व्यक्त की है, जो इस प्रकार है:हुए है। और उस मूचनादि पर से यह पाया जाता है "(छठे पद्यके संदग्धि होनेपर) ७वें पद्यकी कि वह उनके सरसरी विचारका परिणाम है-प्रश्नके संगति आप किस तरह बिठलाएंगे और यदि वें अनुरूप विशेष ऊहा पोहसे काम नहीं लिया गया की स्थिति संदग्ध होजाती है तो ८वां पद्य भी अपने अथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका। आप संदग्धिताकी कोटि में पहुंच जाता है।" चुनांचे कुछ विद्वानोंने उसकी सूचना भी अपने पत्रोंमें "यदि पद्य नं० ६ प्रकरणके विरुद्ध है, तो की है जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं :- ७और भी संकटमें ग्रस्त हो जायेंगे। __"रत्नकरण्डश्रावकाचारके जिस श्लोककी ओर "नं०६ के पद्यको टिप्पणीकारकृत स्वीकार आपने ध्यान दिलाया है, उसपर मैंने विचार किया किया जाय तो मूलग्रन्थकारद्वारा लक्षणमें ३ विशेषण मगर मैं अभी किसी नतीजेपर नहीं पहुंच सका। देकर भी ७. ८में दोका ही समर्थन या स्पष्टीकरण , श्लोक ५ में उच्छिन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशीको प्राप्त किया गया पूर्व विशेषणके सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण कहा है, मेरी दृष्टिमें उच्छिन्नदोषको व्याख्या एवं पुष्टि नहीं किया यह दोषापत्ति होगी। शोक ६ करता है और आगमेशीकी व्याख्या श्लोक ७ इन तीनों आशंकाओं अथवा आपत्तियोंका For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 | शय प्राय: एक ही है और वह यह कि यदि छठे को संगत कहा जावेगा तो ७६ तथा पवें पद्यको भी असंगत कहना होगा । परन्तु बात ऐसी नहीं है । छठा पद्य ग्रन्थका अंग न रहने पर भी ७वें तथा पवें पद्यको असंगत नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ७वें पद्यमें सर्वज्ञकी, आगमेशीकी अथवा दोनों विशेषणोंकी व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसाकि अनेक विद्वानोंने भिन्न भिन्न रूपमें उसे समझ लिया है। उसमें तो उपलक्षणरूप से प्राप्तकी नाम - मालाका उल्लेख है, जिसे 'उपलालयते' पदके द्वारा स्पष्ट घोषित भी किया गया है, और उसमें आप्तके तीनों ही विशेषणों को लक्ष्य में रखकर नामोंका यथावश्यक संकलन किया गया है । इस प्रकारकी नाम - माला देनेकी प्राचीन समय में कुछ पद्धति जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती आचर्य कुन्दकुन्दके 'मोक्खपाहुड' में और दूसरा उत्तरवर्ती आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के 'समाधितंत्र' में पाया जाता है । इन दोनों ग्रन्थों में परमात्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका जो कुछ उल्लेख किया है वह ग्रन्थ क्रमसे इस प्रकार है मलरहियो कलचत्तो सिंदियो केवलो विसुद्धप्पा परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सास सिद्धो || ६ || निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥ अनेकान्त इन पद्यों में कुछ नाम तो समान अथवा समानार्थक हैं और कुछ एक दूसरे से भिन्न हैं, और इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्माको लक्षित करनेवाले नाम तो बहुत हैं, ग्रन्थकारोंने अपनी अपनी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार उन्हें अपने अपने ग्रन्थों में यथास्थान ग्रहण किया है । समाधितंत्र के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रने, तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावनावाक्य के द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे श्लोक में परमात्मा के नामकी वाचिका नाममालाका निदर्शन है । रत्नकरण्डकी टीकामें भी प्रभाचन्द्रा [ वर्ष ६ चार्यने 'आप्तस्य वाचिकां नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस प्रस्तावना वाक्यके द्वारा यह सूचना की है । ७ वें पद्यमें आप्तकी नाममालाका निरूपण है । परन्तु उन्होंने साथ में आप्तका एक विशेषण 'उक्तदोषैर्विवर्जितस्य' भी दिया है, जिसका कारण पूर्वमें उत्सन्नदोषकी दृष्टिसे आप्तके लक्षणात्मक पद्यका होना कहा जा सकता है; अन्यथा वह नाममाला एकमात्र 'उत्सन्नदोष आप्त' की नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' जैसे नाम सर्वज्ञ आप्तके, 'सार्व:' और 'शास्ता' जैसे नाम आगमेशी (परम हितोपदेशक) आप्तके स्पष्ट वाचक भी मौजूद हैं। वास्तवमें वह आप्तके तीनों विशेषणोंको लक्ष्य में रखकर ही संकलित की गई है, और इसलिये ७वें पद्यकी स्थिति ५वें पद्यके अनन्तर ठीक बैठ जाती है, उसमें असंगति जैसी कोई भी बात नहीं है । ऐसी स्थिति में ७ वें पद्यका नम्बर ६ होजाता है और तब पाठकोंको यह जानकर कुछ आश्चर्यसा होगा कि इन नाममालावाले पद्योंका तीनों ही ग्रन्थोंमें ठा नम्बर पड़ता है, जो किसी आकस्मिक अथवा रहस्यमय घटनाका ही परिणाम कहा जा सकता है। इस तरह ६ठे पद्यके अभाव में जब ७वां पद्य असंगत नहीं रहता तब वां पद्य असंगत हो ही नहीं सकता; क्योंकि वह ७ पद्य में प्रयुक्त हुए 'विरागः और 'शास्ता' जैसे विशेषण-पदोंके विरोधकी शंका के समाधानरूप में है । इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्डकी ऐसी कोई प्राचीन प्रतियां मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकीं है, जो प्रभाचन्द्रको टीकासे पहले की अथवा विक्रमकी ११ वीं शताब्दीको या उससे भी पहलेकी लिखी हुई हों। अनेकवार कोल्हापुर के प्राचीनशस्त्र भण्डारको टटोलने के लिये डा० ए०एन० उपाध्ये जीसे निवेदन किया गया; परन्तु हरबार यही उत्तर मिलता रहा कि भट्टारकजी मठमें मौजूद नहीं हैं, बाहर गये हुये हैं- वे अक्सर बाहर ही घूमा करते हैं- और बिना उनकी मौजूदगीके मठके शास्त्र भंडारको देखा नहीं जा सकता । For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] ऐसी हालत में रत्नकरण्डका छठा पद्य अभी तक मेरे विचाराधीन हो चला जाता है। फिलहाल, वर्तमान चर्चाके लिये, मैं उसे मूलग्रन्थका अंग रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व ( लेखक - डा० हीरालाल जैन, एम० ए० ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार और श्राप्तमीमांसा एक ही श्राचार्यकी रचनाऐं हैं, या भिन्न भिन्न, इस विषयपर मेरे 'जैन इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' शीर्षक निबन्धसे लगाकर अभी तक मेरे और पं० दरबारीलालजी कोठिया के छह लेख प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणों का विवेचन किया जा चुका 1 अब कोई नई बात सन्मुख आने की अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक होना प्रारम्भ हो गया है और मौलिकता केवल कटु-वाक्योंके प्रयोगमें शेष रह गई है । अतएव मैं प्रस्तुत लेख में संक्षेपतः केवल यह प्रकट करना चाहता हूं कि उक्त दोनों रचनाओं को एक ही आचार्य की कृतियां मानने में जो आपत्तियां उपस्थित हुई थीं उनका कहांतक समाधान हो सका है । मैंने अपने गत लेखके उपसंहारमें चार आपत्तियों का उल्लेख किया था जिनके कारण रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । प्रथम आपत्ति यह थी कि रत्नकरण्डानुसार आप्त में क्षुप्तिपासादि असातावेदनीय कर्मजन्य वेदनाओं का अभाव होता है, जबकि आतमीमांसा की कारका १३ में वीतराग सर्वज्ञके दुःखकी वेदना स्वीकार की गई है जो कि कर्म सिद्धान्तकी व्यवस्थाओं के अनुकूल है। पंडितजीका मत है कि उक्त कारिara ataराग विद्वान मुनिसे छठे मानकर ही प्रोफेसर सा० की चारों आपत्तियोंपर अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूं । और वह निम्नप्रकार है । (अगली किरणमें समाप्य ) 1 गुणस्थानवर्ती साधुका अभिप्राय है । किन्तु न तो वे यह बतला सके कि छठे गुणस्थानीय साधुको वीतराग व विद्वान् विशेषण लगानेका क्या प्रयोजन है, और न यह प्रमाणित कर सके कि उक्त गुणस्थान में सुख दुःखकी वेदना होते हुए पाप-पुण्यके बन्धका अभाव कैसे संभव है । और इसी बातपर उक्त कारिकाकी युक्ति निर्भर है । अतः उन दोनों प्रन्थोंके एक- कर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध बाधक है । दूसरी आपत्ति यह थी कि शक संवत् ६४७ से पूर्वका कोई उल्लेख रत्नकरण्ड श्रा० का नहीं पाया जाता और न उसका आप्तमीर्मासाके साथ एककर्तृत्व संबन्धी कोई स्पष्ट प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध है । यह आपत्ति भी जैसोकी तैसी उपस्थित है । तीसरी आपत्ति यह थी कि रत्नकरण्डका जो सर्व प्रथम उल्लेख शक संवत् ६४७ में वादिराज कृत पार्श्व - नाथ चरितमें पाया जाता है उसमें वह स्वामी समन्तभद्र-कृत न कहा जाकर योगीन्द्र - कृत कहा गया है । और वह उल्लेख स्वामी - कृत देवागम (आप्तमीमांसा) और देव कृत शब्दशास्त्र के उल्लेखोंके पश्चात् किया. गया है चूंकि हरिवंशपुराण व आदिपुराण जैसे प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों में 'देव' शब्दद्वारा देवनन्दि पूज्यपाद और उनके व्याकरण ग्रंथ जैनेन्द्र व्याकरणका ही उल्लेख पाया जाता है, अतः स्पष्ट है कि वादिराजने For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । भी उस बीचके श्लोक द्वारा देवनन्दिकृत जैनेन्द्र- पद आये हैं जिनका अभिप्राय 'अकलंक' 'विद्यानन्द' ही उल्लेख किया है। और उसके और देवनन्दि पूज्यपादकत 'सवार्थसिद्धि' से भी हो व्यवधान होनेसे योगीन्द्रकृत रत्नकरण्डका देवागमसे सकता है। श्लेष-काव्यमें दूसरे अर्थकी अभिएककतृत्व कदापि वादिराज-सम्मत नहीं कहा जा व्यक्ति पर्यायवाची शब्दों व नामैकदेशद्वारा की सकता। इस आपत्तिको पंडितजीने भी स्वीकार जाना साधारण बात है। उसकी स्वीकारताके लिये किया है, किन्तु उनको कल्पना है कि यहां 'देव' से इतना पर्याप्त है कि एक तो शब्दमें उस अर्थके देनेका आभिप्राय स्वामी समन्तभद्रका ग्रहण करना चाहिये। सामर्थ्य हो और उस अर्थसे किसी अन्यत: सिद्ध किन्तु इसके समर्थन में उन्होंने जो उल्लेख प्रस्तुत बातका विरोध न हो। इसीलिये मैंने इस प्रमाणको किये हैं उन सबमें 'देव' पद 'समन्तभद्र' पदके साथ सबके अन्तमें रखा है कि जब उपर्युक्त प्रमाणोंसे साथ पाया जाता है। ऐसा कोई एक भी उल्लेख रत्नकरण्ड प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी कृति सिद्ध नहीं नहीं जहां केवल 'देव' शब्दसे समन्तभद्रका अभिप्राय होता तब उक्त श्लोकमें श्लेषद्वारा उक्त आचार्यों व प्रकट किया गया हो। प्रन्थके संकेतको ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं योगीन्द्रसे समन्तभद्रका अभिप्राय ग्रहण करनेके रहती। यदि उक्त श्लोकमें कोई श्लेषाथै ग्रहण समर्थन में उन्होंने प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषके अवतरण न किया जाय तो उसकी रचना बहुत अटपटी प्रस्तुत किये हैं जिनमें समन्तभद्रको योगी व योगीन्द्र माननी पड़ेगी, क्योंकि उसकी शब्द-योजना सीधे कहा गया है। किन्तु पंडितजीने इस बात पर ध्यान वाच्य-वाचक सम्बन्धकी बोधक नहीं है। उदानहीं दिया कि उक्त कथानकमें समन्तभद्रको केवल हरणाथै केवल 'सम्यक्' के लिये 'वीतकलंक' शब्द उनके कपटवेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, का प्रयोग अप्रसिद्ध या अप्रयुक्त जैसा दोष उत्पन्न उनके जैनवेषमें कहीं भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं करता है, क्योंकि वह शब्द उस अथैमें रूढ़ या पाया जाता। सबसे बड़ी आपत्ति तो यह है कि सुप्रयुक्त नहीं है। ऐसी शब्दयोजना तभी क्षम्य समन्तभद्रके ग्रन्थकर्ताके रूपसे सैकड़ों उल्लेख या तो मानी जा सकती है जबकि उसके द्वारा रचयिताको स्वामी-या समन्तभद्र नामसे पाये जाते हैं, किन्तु कुछ और अर्थ व्यंजित करना अभीष्ट हो। श्लेष 'देव' या 'योगीन्द्र' रूपसे कोई एक भी उल्लेख रचनामें 'वीतकलंक' से अकलंकका अभिप्राय ग्रहण अभीतक सन्मुख नहीं लाया जा सका। फिर उनका करना तनिक भी आपत्तिजनक नहीं, तथा 'विद्या' बनाया हुआ न तो कोई शब्द-शास्त्र उपलब्ध है से विद्यानन्द व सवोर्थ-सिद्धिसे तन्नामक ग्रन्थकी और न उसके कोई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये सूचना स्वीकार करने में उक्त प्रमाणोंके प्रकाशानुसार जाते हैं। इसके विपरीत देवनन्दिकी 'देव' नामसे कोई कठिनाई दिखाई नहीं देती। प्रख्याति साहित्यमें प्रसिद्ध है, और उनका बनाया इस प्रकार रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्त वपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध भी है। मीमांसाके कर्तृत्वके विरुद्ध पूर्वोक्त चारों आपत्तियां अतएव वादिराजके उल्लेखोंमें सुस्पष्ट प्रमाणोंके ज्योंकी त्यों आज भी खड़ी हैं, और जो कुछ विपरीत 'देव' से और 'योगीन्द्र' से समन्तभद्रका ऊहापोह अबतक हुई है उससे वे और भी प्रबल व अभिप्राय ग्रहण करना निष्पक्ष आलोचनात्मक दृष्टि अकाटय सिद्ध होती हैं। से अप्रामाणिक ठहरता है। उपयुक्त प्रथम आपत्तिके परिहारका एक विशेष - अन्तिम बात यह थी कि रत्नकरण्डके उपान्त्य । प्रयत्न पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारद्वारा किया गय श्लोकमें बीतकलंक' 'विद्या' और 'सर्वार्थ-सिद्धि' था। उन्होंने रत्नकरएडश्रावकाचारके क्षुत्पिपासादि For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व पद्यके सन्बन्धमें जैन पण्डितोंका मत जानना प्रसूत होनेमें सन्देह पैदा करता है। जब स्वामीजी चाहा था कि क्या वे उस पद्यको प्रन्थका मौलिक अंश पूर्व पदमें प्राप्त-लक्षणके लिए, उत्सन्नदोष, सर्वज्ञ समझते हैं या प्रक्षिप्त। इस सम्बन्धमें उन्होंने जो और आगमेशी ये तीन विशेषण निर्धारित कर चुके पत्र घुमाया था उसे मैंने अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं और स्पष्ट बतला चुके कि इनके विना आप्तता होती ही देखा और न फिर इस बातका ही पता चला कि उन्हें नहीं, तब वे अगले ही पद्यमें आप्तका दूसरा ऐसा पण्डितोंका क्या मत मिला और उसपर उन्होंने क्या लक्षण कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं जिसमें उक्त तीनों निर्णय किया। किन्तु उनका वह पत्र प्रकृत विषयसे विशेषण न पाये जाते हों। अगले पद्यमें आप्तका जो इतना सम्बद्ध है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लक्षण दिया है, उसमें सर्वक्ष और आगमेशी ये दो वह सर्वथा साहित्य-विषयक है और उसमें कोई वैय- विशेषण देखने में नहीं आते, और इसलिये 'स' के क्तिक गोपनीय बात भी नहीं है। अतएव यदि मैं बाद 'अपि' शब्दको अध्याहृत मानकर यदि यह कहा आज उनके उस पत्रको यहां उपस्थित करूं तो आशा भी जाता कि 'जिसके ये सुधादिक नहीं, वह भी प्राप्त है उसमें कोई अनौचित्य न होगा और मान्य मुख्तार कहा जाता है, तो उसमें पूर्व पद्यका 'नान्यथा ह्याप्तता जी मुझपर क्र द्ध न होंगे। उनका वह पत्र इस भवेत् यह वाक्य बाधक पड़ता है। यदि यह प्रबल प्रकार था नियामक वाक्य न होता तो वैसी कल्पना की जा ___ "प्रिय महानुभाव, सस्नेह जयजिनेन्द्र । आज सकती थी। और यदि स्वामी समन्तभद्रको उत्सन्नमें आपके सामने रत्नकरण्डश्रावकाचारके एक पद्यके दोष आप्तका स्वरूप वहां कहना अभीष्ट होता तो वे सम्बन्धमें अपना कुछ विचार रखना चाहता हूं। प्राप्त मात्रके लक्षण कथन-जैसी सूचना न करके आप्त मात्रक लक्षण कथन आशा है आप उसपर गम्भीरता तथा व्यापक दृष्टि से वैसे प्राप्तकी लक्षण निर्देशको स्पष्ट सूचना करते, विचार करके मुझे शीघ्र ही उत्तर देने की कृपा करेंगे। अर्थात्-'यस्याप्तः स प्रकोत्यते' के स्थानपर 'यस्या वह पद्य 'क्षुत्पिपासा' नामका छठा पद्य है जिसमें तः स प्रदोष मुक्' जैसे किसी वाक्यका प्रयोग करते। श्राप्तका पुन: लक्षण कहा गया है, और जो लक्षण परन्तु ऐसा नहीं है। टीकाकार प्रभाचन्द्र भी इसमें पूर्व लक्षणसे भिन्न ही नहीं, किन्तु कुछ विरुद्ध भी कुछ सहायक नहीं होते। वे उक्त छठे पद्यको देते हुए पड़ता है, और अनावश्यक जान पड़ता है-खासकर प्रस्तावना वाक्य तो यह देते हैं-'श्रथ के पुनस्ते ऐसी हालत में जब कि पूर्व लक्षणको देते हये यहां तक दोषा ये तत्रोत्सन्ना इत्याशङ्कयाह' । परन्तु टीका करते कह दिया है कि 'नान्यथा ह्याप्तता भवेत' और साथमें हुए लिखते हैं-"एतेऽष्टादश दोषा यस्य न सन्ति स 'नियोगेन' पदका प्रयोग करके उसे और भी दृढ़ प्राप्तः प्रकीत्यैते प्रतिपाद्यते।” इससे यह दोषोंका किया गया है। यदि उसमें मात्र दोषोंका नामोल्लेख निर्देशमात्र अथवा उत्सन्नदोष प्राप्तका लक्षण न रहकर होता और 'यस्याप्तः स प्रकोाते' न कहा जाता. तो प्राप्त मात्रका ही दूसरा लक्षण हो जाता है जिसके पूर्व पद्यके साथ उसका सम्बन्ध जुड़ सकता था, जैसा लिये उन्होंने 'अपि' शब्दका भी उद्भावन नहीं किया कि नियमसारमें प्राप्तका स्वरूप देनेके बाद दोषोंके और दूसरी बहस छेड़ दी। साथ ही वैसी स्थितिमें नामोल्लेख वाली एक गाथा है। दोषों के नाम उक्त तब समन्तभद्र आगे 'सर्वज्ञ आप्त' और 'आगमेशी पद्यमें पूरे आये भी नहीं, और इसलिये उन्हें पूरा आप्त'का भी लक्षण प्रतिपादन करते, जो नहीं करनेके लिये चौथे चरणका उपयोग किया जा सकता पाया जाता। था। परन्तु वैसा न करके "यस्याप्तः स प्रकीत्यते" इससे उक्त छठे पद्य की स्थिति बहुत सन्दिग्ध जान इससे उक्त छठे पद्यकी स्थिति बहुत सन्दिर कहना स्वामी समन्तभद्र जैसों की लेखनीसे उसके वहां पड़ती है। और वह सन्देह और भी पुष्ट होता है For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त . [ वर्षे जब हम देखते हैं कि ग्रन्थभरमें अन्यत्र कहीं भी एक मेरे विचारोंसे सहमत न हो तो कृपया उन आधारों के दो लक्षण नहीं कहे गये हैं। आगम, तपोभृत, तथा युक्तिप्रमाणोंसे अवयत कीजिये जिनसे वे मूल त्रिमूढों और अष्टअङ्गों और स्मयादि सबके लक्षण प्रन्थके अङ्ग सिद्ध हो सकें। इस कृपा और कष्टके लिये एक एक पद्यमें ही दे दिये गये हैं। हो सकता है कि मैं आपका बहुत आभारी हूंगा। आशा है आप मेरी किसीने उत्सन्नदोषकी टिप्पणीके तौर पर इस पद्यको प्रस्तावनाके उक्त पृष्ठोंको देखकर मुझे शीघ्र ही उत्तर लिख रक्खा हो, और वह प्रभाचन्द्रसे पहले ही मूल देने की कृपा करेंगे।' प्रतियोंमें प्रविष्ट हो गया हो। यदि ऐसा सम्भव नहीं है, और आपकी रायमें यह मूलरूपमें समन्तभद्रको इसका मैंने तत्काल ही उन्हें यह उत्तर लिख भेजा कृति है, तो कृपया इसकी स्थिति जो सन्देह उत्पन्न था- "रत्नकरण्डश्रावकाचारको प्रस्तावनामें आपने कर रही है, उसे स्पष्ट कीजिये और सन्देहका निरसन जिन पद्योंको संदिग्ध बतलाया है उनका ध्यान मुझे कीजिये। इसलिये मैं आपका आभारी हंगा। और था ही। आपके आदेशानुसार मैने वह पूरा प्रकरण यदि आप भी मेरी ही तरह अब इसकी स्थितिको फिरसे देख लिया है। मैं आपसे इस बातपर पूर्णत: संदिग्ध समझते हैं और आपको भी इसे मलग्रन्थका सहमत हूं कि उन पद्योंकी रचना बहुत शिथिल प्रयत्नसे वाक्य कहने में संकोच होता है तो वैसा स्पष्ट लिखिये। हुई है, अतएव संकोच होतानोमालिनी हुई है, अतएव आप्तमीमांसादि ग्रन्थोंके कर्ता द्वारा उत्तर जितना भी शीघ्र बन सके देनेकी कृपा करें। उनके रचे जानेकी बात बिलकुल नहीं जंचती। किन्तु शीच नियलिये उसकी बीज रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वे मूल लेखककी न होकर -भवदीय जुगलकिशोर प्रक्षिप्त हैं इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं, विशेषत: श्री मुख्तारजीने यहां उक्त पद्यके सम्बन्धमें एक जब कि प्राचीनतम टीकाकारने उन्हें स्वीकार किया है, बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्नको उठाया था जिसका उक्त और कोई प्राचीन प्रतियां ऐसी नहीं पाई जाती जिनमें ग्रन्थ-कर्तृत्वके विषयसे बहत घनिष्ट सम्बन्ध है। वे पद्य सम्मिलित न हों। केवल रत्नकरण्डश्रावकाकिन्तु इसपर विद्वानोंके क्या मत आये, उनपर से चारको दृष्टि में रखते हुये वे पद्य इतने नहीं खटकते मुख्तार साहबका क्या निर्णय हुआ, और वह अभी जितने आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थोंके कतृत्वको ध्यानमें तक क्यों प्रकट नहीं किया गया, यह जिज्ञासा इस रखते हुए खटकते हैं। क्योंकि रत्नकरण्डकी रचनामें विषयके रुचियोंको स्वभावत: उत्पन्न होती है। मेरे वह तार्किकता दृष्टिगोचर नहीं होती। अतएव इस पास तो उक्त विषयकल स्पो रखता हा मस्तार विचार-विमर्शका परिणाम भी वही निकलता है कि साहबका एक प्रश्न उक्त पत्र लिखे जानेके कोई एक वर्ष रत्नकरण्डश्रावकाचार प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी कृति पश्चात् यह आया था कि-'रत्नकरण्डश्रावकाचारकी नहीं है।" प्रस्तावनामें पृष्ठ ३२ से ४१ तक मैंने जिन सात पद्यों- इस प्रश्रोत्तरको भी कोई डेढ दो वर्ष हो गये को संदिग्ध करार दिया है उनके सम्बन्धमें आपकी किन्तु अभी तक तरसम्बन्धी कोई मुख्तारजीका निर्णय क्या राय है ? क्या मेरे हेतुओंको ध्यानमें रखते हुए मुझे देखनेको सुनने नहीं मिला। तो भी इन सब पत्रोंको आप भी उन्हें संदिग्ध करार देते हैं, अथवा आपकी यहां प्रस्तुत करना वर्तमान विषयके निर्णयार्थ अत्य दृष्टिमें वे संदिग्ध न होकर मूल ग्रन्थके ही अङ्ग हैं ? न्त आवश्यक था। ताकि यह दिशा भी पाठकोंकी यह बात मैं आपसे जानना चाहता हूं। यदि आप दृष्टिसे ओझल न रहे। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कालोनी और मेरा विकार-पत्र आजकल जैन-जीवनका दिनपर दिन ह्रास होता भविष्यकी भयङ्करताका विचार करते हुए शरीरपर जा रहा है, जैनत्व प्राय: देखनेको नहीं मिलता-कहीं रोंगटे खड़े होते हैं और समझमें नहीं आता कहीं और कभी कभी किसी अंधेरे कोनेमें जुगनूके कि तब धर्म और धर्मायतनोंका क्या बनेगा। और प्रकाशकी तरह उसकी कुछ झलक सी दीख पड़ती है। उनके अभावमें मानव-जीवन कहां तक मानवजीवन जैनजीवन और अजनजीवनमें कोई स्पष्ट अन्तर नजर रह सकेगा !! नहीं आता। जिन राग-द्वेष, काम-क्रोध, छल-कपट दृषित शिक्षा-प्रणालीके शिकार बने हुए संस्कारझूठ-फरेब, धोखा-जालसाजी, चोरी-सीनाजोरी, विहीन जैनयुवक की प्रवृत्तियां भी आपत्तिके योग्य अतितृष्णा, विलासता. नुमाइशीभाव और विषय तथा हो चली हैं, वे भी प्रवाहमें बहने लगे हैं, धर्म और परिग्रहलोलुपता आदि दोषोंसे अजैन पीडित हैं उन्हीं धर्मायतनोंपरसे उनकी श्रद्धा उठती जाती है, वे अपने से जैन भी सताये जा रहे हैं। धर्मके नामपर किये लिये उनकी जरूरत ही नहीं समझते, श्रादर्शकी थोथी जानेवाले क्रियाकाण्डोंमें कोई प्राण मालूम नहीं होता बातों और थोथे क्रियाकाण्डोंसे वे ऊब चुके हैं, उनके अधिकांशमें जाब्तापूरी, लोकदिखावा अथवा दम्भका सामने देशकालानुसार जैन-जीवनका कोई जीवित ही सर्वत्र साम्राज्य जान पड़ता है। मूलमें विवेकके आदर्श नहीं है, और इसलिये वे इध न रहनेसे धर्मकी सारी इमारत डांवाडोल हो रही है। हुए जिधर भी कुछ आकर्षण पाते हैं उधरके ही हो जब धार्मिक ही न रहें तब धर्म किसके आधारपर रह रहते हैं। जैनधर्म और समाजके भविष्यको दृष्टिसे सकता है ? स्वामी समन्तभद्रने कहा भी है कि- ऐसे नवयुवकोंका स्थितिकरण बहुत ही आवश्यक है 'न धर्मो धार्मिकैर्विना'। अत: धर्मकी स्थिरता और और वह तभी हो सकता है जब उनके सामने हरसमय उसके लोकहित-जैसे शुभ परिणामोंके लिये सच्चे जैन-जीवनका जीवित उदाहरण रहे। . . 'धार्मिकोंकी उत्पत्ति और स्थितिकी ओर सविशेषरूपसे इसके लिये एक ऐसी जैनकालोनी-जैनबस्तीके ध्यान दियां ही जाना चाहिये, इसमें किसीको भी बसानेकी बड़ी जरूरत है जहां जैन जीवनके जीते विवाद के लिये स्थान नहीं है। परन्तु आज दशा जागते उदाहरण मौजूद हों-चाहे वे गृहस्थ अथवा उलटी है-इस ओर प्राय: किसीकाभी ध्यान नहीं है। साध किसी भी वगेके प्राणियोंके क्यों न हों जहां पर प्रत्युत इसके देशमें जैसी कुछ घटनाएं घट रही हैं सर्वत्र मूर्तिमान जैनजीवन नजर आए और उससे और उसका वातावरण जैसा कुछ क्षुब्ध और दूषित देखनेवालोंको जैनजीवनकी सजीव प्रेरणा मिले; हो रहा है उससे धर्म के प्रति लोगोंकी अश्रद्धा बढ़ती जहांका वातावरण शुद्ध-शांत-प्रसन्न और जैनजीवनके जा रही है, कितने ही धार्मिक संस्कारोंसे शून्य जन- अनुकूल अथवा उसमें सब प्रकारके सहायक हो; जहां मानस उसकी बगावतपर तुले हुए हैं और बहुतोंकी प्राय: ऐसे ही सज्जनोंका अधिवास हो जो अपने स्वार्थपूर्ण भावनाएं एवं अविवेकपूर्ण स्वच्छन्द- जीवनको जैन जीवनके रूपमें ढालने के लिये उत्सुक हों; प्रवृत्तियां उसे तहस-नहस करने के लिये उतारू हैं; और जहां पर अधिवासियोंकी प्रायः सभी जरूरतोंको पूरा इस तरह वे अपने तथा उसे देशके पतन एवं विनाश करनेका समुचित प्रबन्ध हो और जीव का मार्ग आप ही साफ़ कर रहे हैं । यह सब देखकर उठानेके यथासाध्य सभी साधन जुटाये गये हों; जहां For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ के अधिवासी अपनेको एक ही कुटुम्बका व्यक्ति समझें एक ही पिताको सन्तानके रूपमें अनुभव करें, और एक दूसरे के दुख-सुखमें बराबर साथी रहकर पूर्णरूप से सेवाभाव को अपनाएँ तथा किसीको भी उसके कष्टमें यह महसूस न होने देवें कि वह वहांपर अकेला है। समय-समयपर बहुतसे सज्जनोंके हृदय में धार्मिक जीवनको अपनाने की तरंगें उठा करती हैं और कितने ही सद्गृहस्थ अपनी गृहस्थी के कर्तव्योंको बहुत कुछ पूरा करने के बाद यह चाहा करते हैं कि उनका शेष जीवन रिटायर्डरूप में किसी ऐसे स्थानपर और ऐसे सत्सङ्ग में व्यतीत हो जिससे ठीक ठीक धर्मसाधन और लोक-सेवा दोनों ही कार्य बन सकें। परन्तु जब वे समाजमें उसका कोई समुचित साधन नहीं पाते और आस पासका वातावरण उनके विचारोंके अनुकूल नहीं होता तब वे यों ही अपना मन मसोसकर रह जाते हैं समर्थ होते हुए भी बाह्य परिस्थितियों के वश कुछ भी कर नहीं पाते, और इस तरह उनका शेष जीवन इधर उधरके धन्धों में फंसे रहकर व्यर्थ ही चला जाता है । और यह ठीक ही है, बीज में अंकुरित होने और अच्छा फलदार वृक्ष बननेकी शक्तिके होते हुए भी उसे यदि समयपर मिट्टी पानी और हवा आदिका समुचित निमित्त नहीं मिलता तो उसमें अंकुर नहीं फूटता और वह यों ही जीर्ण-शीग होकर नकारा हो जाता है । ऐसी हालत में समाजकी शक्तियों को सफल बनाने अथवा उनसे यथेष्ट काम लेनेके लिये संयोगोंको मिलाने और निमित्तोंको जोड़ने की बड़ी जरूरत रहतो है । इस दृष्टिसे भी जैनकालोनीकी स्थापना समाजके लिये बहुत लाभदायक है और वह बहुतों को सन्मार्गपर लगाने अथवा उनकी जीवनधाराको समुचितरूप से बदलने में सहायक हो सकती है। आज दो वर्ष हुए जब बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता मद्रास - प्रान्तस्थ आरोग्यवरम् के सेनिटोरियम में अपनी चिकित्सा करा रहे थे। उस समय वहां के वातावरण और ईसाई सज्जनोंके प्रेमालाप एवं सेवाकार्यो से a बहुत ही प्रभावित हुए थे । साथ ही यह मालूम कर के कि ईसाईलोग ऐसी सेवा संस्थाओं अनेकान्त [ वर्ष तथा आकर्षक रूप में प्रचुर साहित्यके वितरण - द्वारा जहां अपने धर्मका प्रचार कर रहे हैं वहां मांसाहारको भी काफी प्रोत्तेजन दे रहे हैं, जिससे आश्चर्य नहीं जो निकट भविष्य में सारा विश्व मांसाहारी हो जायः और इस लिये उनके हृदय में यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यदि जैनी समयपर सावधान न हुए तो असंभव नहीं कि भगवान महावीरकी निरामिष भोजनादिसम्बन्धी सुन्दर देशनाओं पर पानी फिर जाय और वह एकमात्र पोथी पत्रोंकी ही बात रह जाय । इसी चिन्ताने जैनकालोनीके विचारको उनके मानस में जन्म दिया और जिसे उन्होंने जनवरी सन १६४५ के पत्रमें मुझपर प्रकट किया। उस पत्रके उत्तर में २७ जनवरी माघमुदी १४ शनिवार सन १६४५ को जो पत्र देहलीसे उन्हें मैंने लिखा था वह अनेक दृष्टियों से अनेकान्त - पाठकों के जानने योग्य है। बहुत सम्भव है कि बाबू छोटेलाल जीको लक्ष्यकर के लिखा गया यह पत्र दूसरे हृदयों को भी अपील करे और उनमें से कोई माईका लाल ऐसा निकल आवे जो एक उत्तम जैन कालोनीकी योजना एवं व्यवस्थाके लिये अपना सब कुछ अपर्ण कर देवे, और इस तरह वीरशासनको जड़ोंको युगयुगान्तर के लिये स्थिर करता हुआ अपना एक अमर स्मारक कायम कर जाय । इसी सदुद्दे श्यको लेकर आज उक्त पत्र नीचे प्रकाशित किया जाता है । यह पत्र एक बड़े पत्रका मध्यमांश है, जो मौनके दिन लिखा गया था, उस समय जो विचार धारा-प्रवाहरूप से आते गये उन्हीं को इस पत्र में ि किया गया है और उन्हें अङ्कित करते समय ऐसा मालूम होता था मानों कोई दिव्य शक्ति मुझसे वह सब कुछ लिखा रही है। मैं समझता हूं इसमें जैन धर्म, समाज और लोकका भारी हित सन्निहित है । जैनकालोनी - विषयक पत्र "जैन कालोनी आदि सम्बन्धी जो विचार आपने प्रस्तुत किये हैं और बाबू अजितप्रसादजी भी जिनके लिये प्रेरणा कर रहे हैं वे सब ठीक हैं । जैनियोंमें सेवाभावकी स्पिरिटको प्रोत्तेजन देने और एक वर्ग For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] किसी सच्चे जैनियों अथवा वीरके सच्चे अनुयायियोंको तैयार करने के लिए ऐसा होना ही चाहिए। परन्तु ये काम साधारण बातें बनानेसे नहीं हो सकते, इनके लिये अपनेको होम देना होगा, दृढसङ्कल्प के साथ कदम उठाना होगा, 'कार्य साधयिष्यामि शरीरं पातयिष्यामि वा' को नीतिको अपनाना होगा, के कहने-सुनने अथवा मानापमानकी कोई पर्वाह नहीं करनी होगी और अपना दुख-सुख आदि सब कुछ भूल जाना होगा। एक ही ध्येय और एक ही लक्ष्य को लेकर बराबर आगे बढ़ना होगा । तभी रूढ़ियों का गढ़ टूटेगा, धर्मके आसनपर जो रूढ़ियां आसीन हैं उन्हें श्रासन छोड़ना पड़ेगा और हृदयों पर अन्यथा संस्कारोंका जो खोल चढ़ा हुआ है वह सब चुरचूर होगा। और तभी समाजको वह दृष्टि प्राप्त होगी जिससे वह धर्मके वास्तविकस्वरूपको देख संकेगी। अपने उपास्य देवताको ठीक रूप में पहचान सकेगी, उसकी शिक्षा के मर्मको समझ सकेगी और उसके आदेशानुसार चलकर अपना विकास सिद्ध कर सकेगी। इस तरह समाजका रुख ही पलट जायेगा और वह सच्चे अर्थों में एक धार्मिक समाज और एक विकासोन्मुख आदर्श समाज बन जायगा । और फिर उसके द्वारा कितनोंका उस्थान होगा, कितनोंका भला होगा, और कितनोंका 'कल्याण होगा, यह कल्पनाके बाहरकी बात है । इतना बड़ा काम कर जाना कुछ कम श्रेय, कम पुण्य अथवा कम धर्मकी बात नहीं है । यह तो समाजभर के जीवनको उठानेका एक महान आयोजन होगा। इसके लिये अपनेको बीजरूप में प्रस्तुत कीजिये । मत सोचिये कि मैं एक छोटा सा बीज । बीज जब एक लक्ष्य होकर अपनेको मिट्टी में मिला देता है, गला देता और खपा देता है, तभी चहुं ओरसे अनुकूलता उसका अभिनन्दन करती है और उससे वह लह लहाता पौधा तथा वृक्ष पैदा होता है जिसे देखकर दुनियां प्रसन्न होती है, लाभ उठाती है आशीर्वाद देती है; और फिर उससे स्वत: ही हजारों बीजोंकी नई सृष्टि हो जाती हमें वाक्पटु न होकर कार्यपटु होना चाहिये, जैनकालोनी और मेरा विचार पत्र १५ आदर्शवादी न बनकर आदर्शको अपनाना चाहिये और उत्साह तथा साहसकी वह अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिये जिसमें सारी निर्बलता और सारी कायरता भस्म हो जाय। आप युवा हैं, धनाढ्य हैं, धनसे लिप्त हैं, प्रभावशाली हैं, गृहस्थके बन्धनसे मुक्त हैं। और साथ ही शुद्धहृदय तथा विवेकी हैं, फिर आपके लिये दुष्करकायें क्या होसकता है ? थोड़ीसी स्वास्थ्य की खराबी से निराश होने जैसी बातें करना आपको शोभा नहीं देता। आप फलकी आतुरताको पहले से ही हृदयमें स्थान न देकर हंढ़ सङ्कल्प और Full will power के साथ खड़े हो जाइये, सुखी आराम तलब जैसे—जीवनका त्याग कीजिये और कष्ट सहिष्णु बनिये, फिर आप देखेंगे अस्वस्थता अपने आप ही खिसक रही है और आप अपने शरीर में नये तेज नये और नई स्फूर्तिका अनुभव कर रहे हैं। दूसरोंके उत्थान और दूसरोंके जीवनदानकी सच्ची सक्रिय भावनाएँ कभी निष्फल नहीं जातीं - उनका विद्युतका सा श्रसर हुए बिना नहीं रहता । यह हमारी अश्रद्धा है अथवा आत्मविश्वासको कमी है जो हम अन्यथा कल्पना किया करते हैं । मेरे खयाल में तो जो विचार परिस्थितयोंको देख कर आपके हृदय में उत्पन्न हुआ है वह बहुत ही शुभ है, श्रेयस्कार है और उसे शीघ्र ही कार्य में परिणत करना चाहिये। जहां तकमै समझता हूं जैन कालोनी के लिये राजगृह तथा उसके आस पासका स्थान बहुत उत्तम है । वह किसी समय एक बहुत बड़ा समृद्विशाली स्थान रहा है, उसके प्रकृत्ति प्रदत्त चश्मे - गर्म जलके कुण्ड - अपूर्व हैं । स्वास्थ्यकर हैं, और जनताको अपनी ओर आकर्षित किये हुए हैं । उसके पहाड़ी दृश्य भी बड़े मनोहर हैं और अनेक प्राचीन स्मृतियों तथा पूर्व गौरवकी गाथाओं को अपनी गोद में लिये हुए हैं। स्वास्थ्य की दृष्टिसे यह स्थान बुरा नहीं हैं। स्वास्थ्य सुधार के लिये यहां लोग महीनों आकर ठहरते हैं । वर्षाऋतु में मच्छर साधारणतः सभी स्थानोंपर होते हैं - यहां वे कोई विशेषरूपसे नहीं होते और जो होते हैं उसका भी कारण For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ सफाई का न होना है। अच्छी कालोनी बसने और तब वहां आवश्यकताके योग्य आदमियोंकी कमी नहीं सफाईका समुचित प्रबन्ध रहनेपर यह शिकायतभी सह रहेगी। यह हमारा काम करनेसे पहले का भयमात्र ज ही दूर होसकती है । मालूम हुआ यहां दरियागञ्ज में है। अतः ऐसे भयोंको हृदयमें स्थान न देकर और पहले मच्छरोंका बड़ा उपद्रव था गवर्नमेंटने ऊपरसे भगवान महावीरका नाम लेकर काम प्रारम्भ कर गैस वगैरह छुड़वाकर उसको शांत कर दिया और दीजिये। आपको जरूर सफलता मिलेगी और यह अब वह बड़ी रौनकपर है और वहां बड़े बड़े कोठी कार्य आपके जीवनका एक अमर कार्य होगा। मैं बंगले तथा मकानात और बाजार बन गए हैं। ऐसी अपनी शक्तिके अनुसार हर तरहसे इस कार्य में आपका हालतमें यदि जरूरत पड़ी तो राजगृहमें भी वैसे हाथ बटाने के लिये तय्यार हूं। वृद्ध हो जानेपर भी उपायोंसे काम लिया जा सकेगा; परन्तु मुझे तो आप मुझमें इसके लिये कम उत्साह नहीं पाएंगे। जरूरत पड़ती हुई ही मालूम नहीं होती। साधारण जनजीवन और जैनसमाजके उत्थानके लिये मैं इसे सफाईके नियमोंका सख्तीके साथ पालन करने और उपयोगी समझता हूं। करानेसे ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जायगा । लाला जुगलकिशोरजो ( काग़जी) आदि कुछ __अत: इसी पवित्र स्थानको फि से उज्जीवित सज्जनोंसे जो इस विषय में बातचीत हुई तो वे भी इस Relive करनेका श्रेय लीजिये, इसीके पुनरुत्थानमें विचारको पसन्द करते हैं और राजगृहको ही इसके अपनी शक्तिको लगाइये और इसीको जैन कालोनी लिये सर्वोत्तम स्थान समझते हैं। इस सुन्दर स्थान बनाइये । अन्यस्थानोंकी अपेक्षा यहां शीघ्र सफलताकी को छोडकर हमें दसरे स्थानकी तलाशमें इधर उधर प्राप्ति होगी। यहां ज़मीनका मिलना सुलभ है और का मिलना सुलभ ६ ओर भटकनेकी जरूरत नहीं। यह अच्छा मध्यस्थान कालोनो बसानेकी सूचनाके निकलते ही आपके नक्शे है-पटना, आरा आदि कितने ही बड़े बड़े नगर भी आदिके अनुसार मकानात बनानेवाले भी आसानीसे इसके आस पास हैं और पावापुर आदि कई तीर्थक्षेत्र मिल सकेंगे और उसके लिये आपको विशेष चिन्ता भी निकट में हैं। अत: इस विषय में विशेष विचार . नहीं करनी पड़ेगी। कितने ही लोग अपना रिटायर्ड करके अपना मत स्थिर कीजिये और फिर लिखिये । जीवन वहीं व्यतीत करेंगे और अपने लिये वहां यदि राजगहके लिये आपका मत स्थिर हो जाय तो मकानात स्थिर करेंगे। जिस संस्थाकी बुनियाद अभी पहले साह शान्तिप्रसादजीको प्रेरणा करके उन्हें वह कलकत्ते में डाली गई वह भी वहां अच्छी तरहसे चल जमींदारी खरीदवाइये. जिसे वे खरीदकर तीर्थक्षेत्रको सकेगी। कलकत्ते जैसे बड़े शहरोंका मोह छोड़िये देना चाहते हैं, तब वह जमीदारी कालोनीके काममें और इसे भी भुला दीजिये कि वहां अच्छे विद्वान नहीं आ सकेगी। मिलेंगे। जब आप कालोनी जैसा आयोजन करेंगे -जुगलकिशोर मुख्तार For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय की उपयोगिता एक पत्र और उसका उत्तर वर्णीभवन सागरके विद्यार्थी धन्यकुमार जैनने उससे जी कतराता था। पर अब यह अरुचि नहीं एक जिज्ञासापूर्ण पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने 'न्याय है। बल्कि अनुभव करता हूं कि न्यायशास्त्रका पढ़नेसे क्या लाभ है ?' इस प्रश्न पर प्रकाश डालने अध्ययन योग्य विद्वत्ता प्राप्त करनेके लिये बहुत की प्रेरणा की है। अत: उनके पूरे पत्र और अपने आवश्यक है उसके बिना बुद्धि प्रायः तर्कशील और उत्तरको नीचे दिया जाता है। . पैनी नहीं होती। अत: न्यायशास्त्रके अध्ययनसे "वर्तमान में छात्रोंको न्यायसे अरुचि सौ होती बड़ा लाभ है। प्रत्येक योग्य छात्र उससे अधिक जा रही है। यद्यपि बहुतसे छात्र जैन विद्यालयों में विद्वत्ता और साहित्य-सेवा का लाभ उठा सकता है शिक्षा प्राप्त करनेके कारण बाध्य होकर पढ़ते हैं। और साहित्यिक, दार्शनिक तथा सामान्य विद्वत्संसार परन्तु बहप्तसे छात्र केवल किसी प्रकार उत्तीर्ण होने में अपनी ख्यातिके साथ साथ अपना अमर स्थान का प्रयत्न करते हैं। मैं भी एक न्यायके छोटेसे बना सकता है। प्रसिद्ध दार्शनिक और साहित्यिक अन्धका पढ़नेवाला छात्र हैं। मुझे न्याय पढ़ते हुये विद्वान् राधाकृष्णन और राहुल सांकृत्यायन अपनी डेढ़ वर्षे होचुका। परन्तु मैं अभीतक न्यायकी उप दार्शनिक विद्वत्ता और रचनाओंके कारण ही आज योगिता नहीं समझ पाया। अत: कृपया मेरे "न्याय विश्वविख्यात हैं। अपनी समाजके पं० सुखलाल पढ़नेसे क्या लाभ है ?" इस प्रश्नपर प्रकाश डालें। जी, पं० महेन्द्रकुमार जी आदि विद्वान उक्त जगतमें ताकि मुझ ऐसे अल्पज्ञ छात्र न्याय पढ़नेसे लाभोंको ऐसे ही ख्याति प्राप्त विद्वान् कहे जा सकते हैं। समझकर उसे पढ़ने में मन लगावें। जबतक किसी मतलब यह है कि न्याय-विद्या बुद्धिको तीक्ष्ण करने विषयकी उपयोगिता समझमें नहीं आती तबतक के लिये बड़ी उपयोगी और लाभदायक श्रेष्ठ विद्या है उसके विषयमें कुछ भी प्रयास करना व्यर्थ सा होता और इस लिये उसका अभ्यास नितांत आवश्यक है। ____ यद्यपि हम यह नहीं कहते कि शिक्षासंस्थाओं में हमारा खयाल है कि वि० धन्यकुमारका यह पत्र पढ़ने वाले हरेक छात्रको जबरन् न्याय पढ़नेके लिये अपने वर्गके विचारोंका प्रकाशक है, जो कुछ विचार मजबूर किया ही जाय । जिनकी रुचि हो, अथवा न्यायके पढ़ने के बारे में उनने प्रकट किये हैं वही उचित आकर्षण ढंगसे न्याय पढ़नेकी उपयोगिता प्रायः अन्य न्याय पढ़नेवाले जैन-छात्रोंके भी होंगे। एवं लाभ बतला कर जिनकी रुचि बनाई जा सकती मैं भी जब न्याय पढ़ता था तो मुझे भी प्रारम्भमें हो उन्हें ही न्याय पढ़ाना उचित है। यह मानी हुई न्याय पढ़नेसे अरुचि रहा करती थी। क्षत्रचूड़ामणि बात है कि सभी छात्र नैयायिक, वैयाकरण, कवि, और चन्द्रप्रभचरित के पढ़ने में और उनके लगानेमें ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक, पुरातत्त्वविद् आदि नहीं जितनी स्वाभाविक रुचि होती थी उतनी परीक्षामुख बन सकते। उन्हें अपनी अपनी रुचिके अनुसार और न्यायदीपिकाके पढ़ने में नहीं। जब न्याय- ही बनने देना चाहिये। बनारस विद्यालयमें एक दीपिकाकी पंक्तियोंको रटकर सुनाना पड़ता था तब छात्र थे। वे न्यायाध्यापक जीके पास पढ़ते वक्त For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्षे पुस्तकको तो खोलके रख लेते थे, परन्तु उनकी दृष्टि देगा कि अपना और अपने बच्चों, बीबी श्रादिका बचाकर इधर कागज घोड़ा, बन्दर, हाथी, आदमी पेट भरने (भरण-पोषण करने) के लिये करता हूं। आदि के चित्र खींचते रहते थे। पीछे वे नैयायिक उससे पुनः पूछिये कि यदि तुम कामपर समयपर तो नहीं बन सके पर पेन्टर अच्छे बने। न पहुंचो या कभी न जाओ तो क्या हर्ज है ? वह ___यह जरूर है कि प्रारम्भमें छात्र इतने विचारक चट उत्तर देगा कि मालिक नफा होगा और मजदूरी तो नहीं होते कि वे अपने पठनीय विषयका अच्छी में से पैसे काट लेगा। इसी तरह किसी छात्रसे प्रश्न तरह स्वयं निर्णय कर सके और इसलिये उन्हें अपने करिये कि तुमने यदि अपना सबक याद न किया तो गुरुजनोंका परामर्श लेना अथवा निश्चित कोर्षके गुरुजी तुमसे क्या कहेंगे? वह उत्तर देगा कि वे अनुसार चलना आवश्यक होता है। यह एक प्रकार हमसे नाराज होंगे और हमें दण्ड देंगे। फिर से अच्छा भी है। क्योंकि अनुभवी गुरुजनोंका परा- पूछिये कि यदि तुमने अपना पाठ याद करके उन्हें मर्श अथवा अनेक विद्वानोंकी रायसे तैयार किया सुना दिया तो क्या होगा ? वह तुरन्त जबाब गया कोर्ष उस समय उन अनुभवहीन छात्रोंके लिये देगा कि हम उनकी नाराजीसे बच जावेंगे-वे पथ-प्रदर्शनका काम करता है। परन्तु गुरुजनोंको हम पर प्रसन्न रहेंगे और इसी तरह अपना पाठ परामर्श देते समय उनकी रुचिका खयाल अवश्य याद करते रहने पर हम परीक्षा में पास हो जावेंगे। रखना चाहिये और उन्हें पूरी तरह संतोषित करना यही सब बातें हमारे परीक्षामुख (न्यायशास्त्र के चाहिये, केवल एक दो बार कह देनेसे पिण्ड नहीं पहिले ग्रन्थ) में- 'हिताहितप्राप्तिपरिहार-समर्थ छुड़ा लेना चाहिये और न “बाबावाक्यं प्रमाणम्" हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्'- इस सूत्रमें रूपसे आदेशका आश्रय लेना चाहिये। उन्हें उतने बतलाई गई हैं। अन्य विद्वानोंका यह भी कहना प्रकारोंसे पाठ्य-विषयके लाभालाभ (गुण-दोष) को है कि श्रद्धाके अन्तर्गतभी सूक्ष्मतर्क निहित रहता है। बताना चाहिये जितनोंसे वह उनके गले उतर जाय कहनेका तात्पर्य यह है कि बालकों या मन भरजाय। आदि सबका दिमाग फुछ न कुछ तर्कशील स्वभाव ___ जहां तक मैं जानता हूं आजका न्यायशास्त्रका से ही होता है। अतएव प्रारम्भमें छात्रोंको शिक्षण भी सन्तोष-जनक और छात्ररुचि-वर्धक नहीं न्यायशास्त्रका शिक्षण प्रायः बातचीतके ढंगमें होता। प्रारम्भ में तो उसकी और भी बुरी दशा है। अथवा प्रश्नोत्तरके रूपमें दिया जाना चाहिए साथ पंक्तियोंका मात्र अर्थ करके उन्हें वे पंक्तियां रटने को में जल्दी समझमें आनेवाले अनेक उदाहरण भी, कहा जाता है। न्याय विषय एक तो वैसे ही रूखा जो आम तौर पर प्रसिद्ध हों, देना चाहिये। इससे है और फिर उसका शिक्षण भी रूखा हो तो कोमल छात्रोंको न्यायका पढ़ना अरुचिकर या भाररूप बुद्धि छात्रोंकी रुचि उसके अध्ययनमें कैसे हो सकती मालूम नहीं पड़ेगा- उसे वे रुचिके साथ पढ़ेंगे। है ? कोमल बुद्धि तो सहज-ग्राह्य चीजको बातचीत न्यायशास्त्रका शिक्षण वस्तुत: साहित्य प्रादिके के ढङ्गमें ग्रहण करना चाहती है। विद्वानोंका मत शिक्षणसे बिल्कुल जुदा है। उसके शिक्षकके लिये है कि प्रत्येक व्यक्तिकी बुद्धि में तर्क और उसको प्रतिदिनके पाठ्यविषय को पहले हृदयङ्गम समझने की शक्ति रहती है और वह हर काम में उसका (परिभावित) करना और फिर पढ़ाना बड़ा उपयोग करता है। एक मज़दरसे सवाल करिये कि आवश्यक है। ऐन मौके पर (उसी पढ़ाते समय तृ मज दूरी किस लिये करता है ? वह फौरन जवाब ही उसकी तैयारी नहीं होना चाहिये। ग्रन्थो । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ न्याय की उपयोगिता भावको अपनी बोलचालकी भाषा और शब्दोंमें न्यायशाला के शिक्षक को अपने दिमाग पर मुख्यतः ही प्रकट करना चाहिये। इससे जहां छात्रोंको जोर देना चाहिये। इतना प्रकृतोपयोगी प्रसङ्गानुन्याय पढ़नेमें अरुचि नहीं होगी वहां शिक्षकको सार कह कर अब मूल प्रश्न पर प्रकाश डाला जाता एक फायदा यह होगा कि वह स्वतन्त्र चिन्तक हैबनेगा- वह टीकादि ग्रन्थों में हुई भूलों के १-हम पहिले कह आये हैं कि हरेक व्यक्तिकी दुहराने एवं अनुसरण करने से बच जाता है। बुद्धि स्वभावत: कुछ न कुछ तर्कशील रहती है। पर अन्यथा वह गतानुगतिक बना रहेगा। उदाहरण न्यायशास्त्रके अध्ययनसे उस तकमें विकास स्वरूप न्यायदीपिकामें असाधारण धर्मको लक्षण होता है, बुद्धि परिमार्जित होती है, प्रश्न करने का लक्षण मानने वालों के लिये अव्याप्ति, और उसे जमा कर उपस्थित करनेका बुद्धिमें अतिव्याप्ति, असम्भव यह तीन दोष दिये गये हैं। माददा आता है। बिना तबकी बुद्धि कभी कभी इसकी हिन्दी टीकामें टीकाकार पं० खूबचन्दजी से ऊट पटांग- जीको स्पर्श न करने वाले प्रश्न कर असम्भव दोष का खुलासा करने में एक भूल हो गई बैठती है, जिससे व्यक्ति हास्यका पात्र बनता है। है। वहां कहा गया है २- न्याय ग्रन्थोंका पढ़ना व्यवहार कुशलता 'लक्ष्य और लक्षण ये दोनों एक ही अधिकरण के लिये भी उपयोगी है। उससे हमें. यह मालूम में रहते हैं, ऐसा नियम है। यदि ऐसा न मानोगे होजाता है कि दुनियामें भिन्न भिन्न विचारोंके तो घट का लक्षण पट भी मानना पड़ेगा परन्तु लोग हमेशासे रहे हैं और रहेंगे। यदि हमारे तु विचार ठीक और सत्य हैं और दूसरेके विचार प्रवादी के माने हुए लक्षण के अनुसार लक्ष्य तथा ठीक एवं सत्य नहीं हैं तो दर्शनशास्त्र हमें दिशा लक्षण का रहना एक ही अधिकरण में नहीं बन दिखाता है कि हम सत्यके साथ सहिष्णा भी बनें सकता। क्योंकि उसके मतानुसार लक्षण लक्ष्य और अपनेसे विरोधी विचार वालों को अपने में रहता है और लक्ष्य अपने अवयवों में रहता है। तर्कों द्वारा ही सत्यकी ओर लानेका प्रयत्न करें, जैसे पृथ्वी का लक्षण गन्ध है वह गन्ध पृथ्वी में । | जोर जबरदस्ती से नहीं। जैन दर्शन सत्यके साथ रहता है और पृथ्वी अपने अवयवों में रहती है। सहिष्ण है इसीलिये वह और उसका सम्प्रदाय इसी प्रकार सभी उदाहरणों में लक्ष्य तथा लक्षण में भिन्नाधिकरणता ही सिद्ध होती है। कहीं भी भारत में टिका चला आरहा है अन्यथा बौद्ध श्रादि एकाधिकरणता नहीं बनती। इसलिये इस दर्शनाकी तरह उसका टिकना अशक्य था। अन्धलक्षण के लक्षण में असम्भव दोप आता है। श्रद्धाको हटाने, वस्तुस्थितिको समझने और विभिन्न विचारोंका समन्वय करने के लिये न्याय न्यायदीपिकामें उक्त लक्षण के लक्षण में एवं दार्शनिक ग्रन्थोंका पढ़ना, मनन करना, चिन्तन जो असम्भव दोष कहा गया है वह शाब्द करना जरूरी है। न्याय ग्रन्थोंमें जो आलोचना सामानाधिकरण्य के अभाव को लेकर है, आर्थ पाई जाती है उसका उद्देश्य केवल इतना ही है सामानाधिकरण्य के अभाव को लेकर नहीं। इस सम्बन्ध में पं० वंशीधर जी व्याकरणाचायें कई वर्षे १ मैंने भी स्पष्ट किया है देखो न्यायदीपिका पृ० १० पूर्वस्पष्ट कर चुके हैं१ । परन्तु न्यायदीपिका के अनेक प्रस्ता०], पृ० १४१ [हिन्दी टीका] तथा परि० नं०७ शिक्षक अभी भी उक्त भूल को दुहराते हैं। अत: पृ० २३८ । For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनेकान्त कि सत्य का प्रकाशन और सत्य का ग्रहण हो । न्यायालय में भी झूठे पक्षकी आलोचना की ही जाती है। न्यायशास्त्रका अध्येता प्रायः परीक्षा चक्षु कहा जाने योग्य होता है । ३- इसके अलावा कार्यकारणभावका ज्ञान भी न्यायशास्त्र से होता है । जाड़ें। में रुई से भरा या ऊन से बना कपड़ा लोग क्यों पहनते हैं ? गरीब लोग आग जला जला कर क्यों तापते हैं ? इसका उत्तर है कि उन चीजोंसे ठंड दूर होती है— वे उसके कारण हैं और ठंड दूर होना उनका कार्य है और कारणसे कार्य होता है आदि बातोंका ज्ञान तर्कशास्त्र से होता है । यह अलग बात है कि जो तर्कशास्त्र नहीं पढ़ा उसे भी उक्त प्रकारका ज्ञान होता है परन्तु यह अवश्य है कि उसका ज्ञान तो देखा देखी है और तर्कशास्त्र के अभ्यासीका ज्ञान अनुमान प्रमाणसे स्वयं का निर्णीत ज्ञान है वह उसकी व्यवस्थित मीमांसा जानता है । ४- न्यायशास्त्र का प्रभाव क्षेत्र व्यापक है, व्याकरण, साहित्य, राजनीति, इतिहास, सिद्धान्त आदि सब पर इसका प्रभाव है । कोई भी विषय 'ऐसा नहीं है जो न्याय के प्रभाव से अछूता हो। व्याकरण और साहित्य के उच्च ग्रन्थों में न्यायसूर्य का तेजस्वी और उज्ज्वल प्रकाश सर्वत्र फैला हुआ मिलेगा। मैं उन मित्रों को जानता हूं जो व्याकरण और साहित्य के अध्ययन के समय न्याय के अध्ययनकी अपने में कर्मी महसूस करते हैं और उसकी आवश्यकता पर जोर देते हैं। इससे स्पष्ट है कि न्यायका पढ़ना कितना उपयोगी और लाभदायक है । और ५- किसी भी प्रकारकी विद्वत्ता प्राप्त करने किसीभी प्रकार के साहित्यनिर्माण करनेके चलता दिमाग़ चाहिये । यदि चलता दिमाग़ नहीं है तो वह न तो विद्वान बन सकता है और न लिये वर्ष ६ किसी तरह के साहित्य का निर्माण ही कर सकता है । और यह प्रकट है कि चलता दिमाग़ मुख्यतः न्याय शास्त्रसे होता है उसे दिमागको तीक्ष्ण एवं द्रुत गति से चलता करनेके लिये उसका अवलम्बन जरूरी है। सोने में चमक कसौटी पर ही की जाती है । अत: साहित्यसेवी और विद्वान बननेके लिये न्याय का पढ़ना उतनाही जरूरी है जितना आज राजनीति और इतिहासका पढ़ना जरूरी है । ६- न्यायशास्त्र में कुशल व्यक्ति सब दिशाओं में जासकता है और सब क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट उन्नति कर सकता है। वह असफल नहीं होसकता । सिर्फ शर्त यह कि वह न्याय ग्रन्थोंका केवल - वाही न हो । उसके रससे पूर्णत: अनुप्राणित हो । ७- निसर्गज तर्क कम लोगों में होता है । अधिकांश लोगों में तो अधिगमज तर्कही होता है जो साक्षात् अथवा परम्परया न्यायशास्त्र - तर्कशास्त्र के अभ्यास से प्राप्त होता है । अतएव जो निसर्गतः तर्कशील नहीं हैं उन्हें कभी भी हताश नहीं होना चाहिये और न्यायशास्त्र के अध्ययन द्वारा अधिगमज तर्क प्राप्त करना चाहिये । इससे वे न केवल अपनाही फायदा उठा सकते हैं किन्तु वे साहित्य और समाज के लिये भी अपूर्व देनकी सृष्टि कर सकते हैं । - समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द आदि जो बड़े बड़े दिग्गज प्रभावशाली विद्वानाचार्य हुये हैं . सब न्यायशास्त्र के अभ्यास से ही बने हैं । उन्होंने करके ही उत्तम उत्तम ग्रन्थ रत्न हमें प्रदान किये। न्यायशास्त्र रत्नाकरका अच्छी तरह अवगाहन जिनका प्रकाश आज जग जाहिर है और जो ह धरोहर के रूप में सौभाग्य से प्राप्त हैं। हमार कर्तव्य है कि हम उन रत्नोंकी श्रभाको अधिकाधिक रूपमें दुनियां के कोने कोने में फैलायें जिससे जैन शासनकी महत्ता और जैन दर्शनका प्रभाव लोकमें ख्यात हो । 1 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई ये कुछ चंद बातें हैं जिनसे न्यायके पढ़नेकी और लाभदायक विषय है जिसका अध्ययन लौकिक उपयोगिता और लाभोंपर कुछ प्रकाश पड़ सकता है। और पारमार्थिक दोनों दृष्टियोंसे आवश्यक हैअतः ज्ञात होता है कि न्याय एक बहुत उपयोगी उसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये । -दरबारीलाल कोटिया -: जैनसाहित्य महारथी :स्व. मोहनलाल दलीचन्द देसाई (ले०-श्री भंवरलाल नाहटा) शवजय, गिरनार आदि तीर्थोसे पवित्रित प्रीवियस. पासको। तदन्तर गोकुलदास तेजपाल सौराष्ट्र-काठियावाड़ देशने कई महान व्यक्तियोंको बोडिंगमें रहकर सन् १९०६ में बी० ए० की परीक्षा जन्म दिया जिनमें से वर्तमान युगके तीन जैन पास की। तेजस्वी नक्षत्रों - जो आज विद्यमान नहीं हैं- बी० ए० पासकर इन्होंने माधवजी कामदार एण्ड का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अध्यात्म साधनाके छोटभाई सोलीसिटर्सके यहां रु० ३०) मासिकमें श्रेष्ठतम साधकं श्रीमद् राजचन्द्र, जैन साहित्य नौकरी करली। वहां नौकरी करते हुए इन्होंने महारथी मोहनलाल दलीचन्द देसाई एवं लोक- एल० एल० बी० का अभ्यास चालू रखा और साढ़े साहित्य के महान लेखक मबेरचन्द मेघाणी ये तीनों तीन वर्ष में अर्थात् १९१० को जुलाईमें एल० एल० बी० इसी पवित्रभूमिके रत्न थे। इनमें जैनसाहित्यकी होगये। इसके बाद सेप्टेम्बर महीने में इन्होंने सेवा करने में श्रीयुत मोहनलाल दलीचन्द देसाईने वकालतकी सनद प्राप्त की उस समय आपको फीसके सतत प्रयत्न कर जो ठोसकृतियां जैन समाजको दी लिये सेठ हेमचन्द अमरचन्दसे कर्जके तौरपर इसके लिये जैनसमाज आपका सर्वदा ऋणी रहेगा। रुपये लेने पड़े थे जो पीछे सुविधानुसार लौटा दिये हिन्दी पाठकोंकी जानकारीके लिये श्रीयुत देसाईकी गये थे। सेवाओंका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जारहा है। श्रीयुत देसाई वकील होकर अपना स्वतंत्र - बीकानेर (काठियावाड़) रियासतके लूणसर व्यापार करनेलगे और सन् १९११ में पहिला विवाह गांवमें सन् १८८५ ई० के अप्रेल, मासमें इनका अभय चन्द कालीदासकी पुत्री मणि बहनसे हुआ जन्म हुआ था। ये दशा श्रीमाली जातिके जिससे लाभलक्ष्मी और नटवरलाल नामक दो श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन श्रीदलीचन्द देसाईके पुत्र सन्तानें हुई। मणिबहनका देहान्त होजाने पर सन् थे। उनकी माताका नाम उजानबाई था। इनके १९२० के दिसम्बर में प्रभावती बहिनके साथ आपका जीवननिर्माणमें राजकोटनिवासी श्रीयुत प्राणजीवन द्वितीय विवाह हुआ। जिससे रमणीकलाल और मुरारजी साहका विशेष हाथ रहा है, जो इनके जयसुखलाल नामके पुत्र और ताराबहिन व रमाबहिन मामा होते थे। पिताकी स्थिति अत्यन्त साधारण नामकी पुत्रियां उत्पन्न हुई। होने के कारण ५ वर्षको बाल्यावस्था में ही प्राणजीवन अपने व अपने परिवारके आजीविकाथै व्यापार मामा इन्हें अपने यहां ले आये। पढ़ाईका समुचित -वकालत या कोईभी धन्धा प्रत्येक व्यक्ति करता है प्रबन्ध करदिया, जिससे मामाके पास रहकर इन्होंने परन्तु आदर्श व्यक्ति वही कहा जासकता है जो For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनेकान्त वप ६ समाज और साहित्यसेवा में अधिकसे अधिक समय सह महत्त्वपूर्ण परिचय दिया है। इस भागमें कुल का भोग देता है। स्वर्गीय देसाई सच्चे लगनशील २८७ जैनकवि और ५४१ पद्यकृतियोंका परिचय और निरन्तर ठोस कार्यकर्ता थे । हाईकोर्टकी छुट्टियों में है, तदनन्तर गद्यग्रन्थोंकी सूची, कवि व कृतियोंको तो आप अधिकतर प्रवासमें आकर जैनहस्तलिखित अकारादिको सूचीक साथ १०१० पृष्ठाम अकारादिकी सूचीके साथ १०१० पृष्ठों में ग्रन्थ समाप्त प्रतियोंका अवलोकनकर विवरण लिखतेही पर अन्य हुआ है, जिसमें प्रारम्भमें ३२० पृष्ठको प्रस्तावना समय भी दिनरात उनका कार्य चालू रहता था। जराती भाषानो संक्षिप्त इतिहास' शीर्षकसे आफिसमें भी अपने पोथीपत्रे साथ रखते और जब भाषा साहित्यका इतिहास लिखा है जो विद्वानों के फुरसत मिली सरस्वती उपासनामें जुट जाते। घर लिये बड़े ही कामकी वस्तु है। इसके ५ वर्ष बाद पर भी जब सब लोग सोये रहते, देसाई महोदय द्वितीयभाग प्रकाशित हुआ, जिसमें १८वीं शताब्दीके रातमें दो दो बजे तक अपनी साहित्य-साधनामें १७६ कवियोंकी ४०१ कृतियोंका परिचय, गद्य-कृतियें संलग्न रहते थे। आलस्य-प्रमादको पासभी नहीं जैनकथाकोश, खरतर तथा अंचल गच्छकी फटकने देते थे, जहां कहींभी साहित्यिक कार्य होता पट्टावलिये, राजावली आदि परिशिष्टोंयुक्त ८४५ स्वयं तत्काल जा पहुंचते थे। आपने अपनी पृष्ठों में दिये हैं। तीसरा भाग दो खंडोमें है, जिनके साहित्य-साधनाकी सबसे अधिक सेवा श्रीजैन कुल २३४० पृष्ठ हैं। इसमें ५२० कवियोंके ११११ श्वेताम्बर कान्फ्रेन्सको दी। जैनश्वे० कौ० हेरल्डके कृतियोंका एवं १४५ ग्रन्थकारोंकी ५६६ गद्यकृतियोंका ७ वर्ष तक आप संपादक रहे। "जैनयुग" मासिक तथा २५४ अज्ञातकर्तृक गद्यकृतियोंका परिचय, १२८ का ५ वर्ष तक सम्पादन किया, जो अन्वेषण और पृष्ठकी कवि, कृति, स्थल एवं राजाओंआदिको अनुसाहित्यिक जैनपत्रों में अपना खास स्थान रखता था। क्रमणिका, २७२ पृष्ठोंमें देशियोंकी महत्त्वपूर्ण विस्तृत जैनसाहित्यसंशोधकके बाद उच्चकोटिके पत्रों में सूची सत्पश्चात् जनतर कवि एवं कृतियोंका परिचय, जैनयुगका ही नम्बर लिया जासकता था, यदि वह कतिपय गच्छोंकी परम्परा-पट्टावली श्रादिके पश्चात बन्द न होता तो अबतक न जाने कितना महत्त्वपूर्ण देसाई महोदय के ग्रन्थोंपर विद्वानोंके अभिप्राय जैनसाहित्य प्रकाशमें श्राजाता। प्रकाशित हैं। आपने इस ग्रन्थकी महत्त्वपूर्ण ५०० देसाई महोदयको जैनसाहित्यके प्रति प्रगाढ प्रेस पृष्ठकी प्रस्तावना+ लिखनेका विचार हमें सूचित किया और अनन्यभक्ति थी। गुजराती भाषा के लिये श्राप +इस प्रस्तावना के सम्बन्धमें हमें निम्नोक्त सूचनायें ने बहत कळ किया एवं जैन भाषासाहित्य के प्राचीन अपने पत्रोंमें दी थीं :ग्रन्थोंको गुर्जरभाषा-भाषी जनतामें प्रकाशमें लाने के १- ता० १२-१२-४७ के पत्र "प्रस्तावना ५०० पृथ् हेतु आपने हजारों पृष्ठों में "जैनगुर्जरकवियो" के नी लखवानी बाकी छे ते लखवानी छे ते माटे छटक तीन भाग प्रकाशित कर सैकड़ों जैन कवियोंको छूटक लखायु छे ते भेगु करवानु छ।" उच्चासन प्राप्त कराया एवं हजारों कृतियोंको विद्वत् २- ता० २७-१-४३ के पत्रमें "प्रस्तावना लिखी जारही समाजके सन्मुख रखकर गुर्जर-गिरा, जैनसाहित्य है पृ० ५०० करीब मुद्रांकित होगा।" जैन गुर्जर साहित्यका और जैनशासनकी अमूल्य सेवा की। जैनगर इतिहास" यह मेरी प्रस्तावनाका शीर्षक है, उसमें लवलीन कवियोंका प्रथमभाग सं०१६१२ में प्रकाशित हा, हूं समुद्रमंथन चल रहा है। क्या डालू क्या नहीं! जिसमें १३वीं शताब्दीसे १७वीं शताब्दीके अपभ्रंश, वाग्देवी सहाय करे और आप जैसेकु सहाय देनेकी प्रेरणा हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी भाषाके दि० श्वे० करे। अापका साहित्य-लेख परिश्रमके लिये हृदयपूर्वक जैनेतर कवि और उनकी रचनाओंका आदि अन्त- धन्यवाद देकर - लि. मा० सेवक मोहनलालका नमना।। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ स्व० मोहनलाल दलीचन्द . २३ था और उसके नोटिसभी तैयार होगये थे पर उनके आपने श्रीमद् यशोविजयजीका जीवनचरित्र एवं एकाएक अस्वस्थ हो जानेसे वह कार्य सम्पन्न न हो नयकर्णिका ग्रन्थ संकलित किये । सिंघी जैन ग्रन्थमाला सका। अगर यह प्रस्तावना प्रकाशित होजाती तो से प्रकाशित सिद्धिचन्द्रगणि कृत भानुचन्द्रचरित्रको जैनसाहित्यके सम्बन्धमें बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो भी इग्रेजीकी विस्तृत प्रस्तावनायुक्त सम्पादित किया। सकती थी। गुजरातीमें (१) जैनसाहित्य अने श्रीमन्तो नु कर्त्तव्य स्वर्गीय देसाई महोदयने अपनी सारी शक्ति (२) जिनदेवदर्शन (३) सामायिक सूत्र-रहस्य लगाकर जिस महान ग्रन्थको लिखा वह है- 'जैन (४) जैनकाव्यप्रवेश (५) समकितना ६७ बोल नी साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास ।' इस ग्रन्थकी पृष्ठसंख्या समाय (अर्थसहित) (६) जैनऐतिहासिक रासमाला १२५० और ६० चित्र हैं। इसमें भगवान महावीर (भा०१) (७) नयकर्णिका (5) उपदेशरत्नकोश से लेकर अबतकके साहित्यका इतिहास. छोटीमोटी (E) स्वामी विवेकानन्दना पत्रो (१०) श्रीसुजप्तवेलि(?) समस्त रचनाओंका उल्लेख एवं जैनाचार्यों, श्रावकों, इत्यादि पुस्तकें लिखीं एवं सम्पादन की। आदिको सभी धार्मिक, सामाजिक आदि प्रवृत्तियोंका इनके अतिरिक्त हमारी पुस्तक युग-प्रधान श्री संक्षेपमें किन्तु बड़ाही सारगर्मित एवं सुरुचिपूर्ण जिनचन्द्रसूरिकी आपने विस्तृत प्रस्तावना लिखी। लेखन बड़ी ही प्रमाणिकताके साथ किया गया है। श्रात्मानन्द-शताब्दी स्मारक ग्रन्थका आपने विद्वत्तायह ग्रन्थ विद्वान लेखकके महान धैर्य विद्वत्ता और पूर्वक सम्पादन किया। सामयिक पत्रों में समय लेखनकौशलका परिचायक है। इसके संकलनमें समय पर आपके शोधपूर्ण लेख आते रहते थे। लगा २० वर्षका श्रम सफल होगया। आज यह कविवर समयसुन्दर पर आपने विस्तृत खोज की प्रन्थ विद्वानों के लिये पथप्रदर्शक है। इसका हिन्दीभाषा. और सुन्दर निबन्ध लिखकर गुजराती साहित्य भाषी जनतामें प्रचार करने के लिये हिन्दीमें अनुवाद परिषदके यें अधिवेशनमें सुनाया, वह लेख होना परमावश्यक है। जैनसाहित्यसंशोधक एवं आनन्दकाव्यमहोदधिके देसाईजी ने स्वयं अकेले ग्रन्थों के लेखन एवं ७वें मौक्तिकमें भी चार प्रत्येक बुद्ध रासके साथ प्रकाशनमें आदिसे अन्ततक परिश्रम किया। उन्होंने छपा है । इसी प्रकार कवि ऋषभदासका विस्तृत निजी खर्चसे साहित्यिक यात्रायें की, ज्ञानभंडार देखे, परिचय वें मौक्तिकमें प्रकाशित हुआ है। हमारी पुस्तकें संग्रहीत की । लेखन, प्रफ अवलोकन, अनु- साहित्य प्रवृत्तिमें प्रधानत: (खासकर) महाकवि क्रमणिका-निर्माणादि समस्त कार्य बिना किसीकी समयसुन्दरजीकी कृतियां ही प्रेरणादात्री हुई और साहाय्यसे करना और अपने वकालत पेशेमें भी श्रीयुत देसाईके इस विद्वत्तापूर्ण लेखने हमें मार्ग संलग्न रहना उनकी जैनसाहित्य के प्रति महान प्रीति दिखाया। बम्बईकी पर्युषणपर्व-व्याख्यानमालामें एवं एक लग्नशील कितना काम कर सकता है भी आप बड़ी दिलचस्पीसे भाग लेते और जनताको इसका ज्वलंत उदाहरण है। वास्तव में देसाईजीकी अपने विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों द्वारा लाभान्वित सेवासे कान्फ्रेन्सका गौरव बढ़ा, यह स्वीकार करने में करते रहे हैं। संकोच नहीं होना चाहिये। सभा सोसाइटियोंसे आपको विशेष. प्रेम था। देसाईजीको अविश्रान्त लेखनी जैनसाहित्योद्धार- नागरी प्रचारिणी सभाके आप सदस्य थे ही। जैनधर्म प्रकाशनार्थ जीवन भर चली, जिसके फलस्वरूप प्रसारकसभा, श्रात्मानन्दसभा (भावनगर) और उपयुक्त ग्रन्थों एवं पत्रों के सम्पादकके अलावा 'सनातन जैनएज्युकेशनलबो. बम्बईके आप आजीवनजैनक भी' दो वर्षतक उपसम्पादक रहे। इंग्रेजीमें सभासद थे। जैन श्वे० कौन्फ्रेन्सकी स्टेंण्डिग For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त कमिटीके, महावीर जैन विद्यालयकी मैनेजिंग कमेटी के, श्रीमांगरोल जैनसभाको मैनेजिंग कमेटीके भी आप सदस्य थे । हमारे साथ आपका वर्षोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध था। फुरसत मिलने पर आप हमारे पत्रोंका विस्तृत उत्तर देते, आपके कतिपय पत्र. तो दस दस पन्द्रह पन्द्रह पेज लम्बे हैं । आप कई वर्षोंसे बीकानेर नेका विचार कर रहे थे । एकबार आपका आना निश्चित होगया था और आपकी प्रेरणा से हमने श्रीचिन्तामणिजीके भण्डार की प्राचीन प्रतिमाएँ भी प्रयत्न कर निकलवायीं इधर देसाई महोदय बम्बईसे बीकानेर के लिये रवाना होकर राजकोट भी आगये पर सालीके ब्याह पर रुक जाना पड़ा। इसप्रकार कईबार विचार करते करते सन १६४० में हमारे यहां पधारे और १५-२० दिन हमारे यहां ठहर के अविश्रांत परिश्रम कर हमारे संग्रहकी समस्त भाषाकृतियें ( रास, चौपाई आदि) एवं बीकानेर के अन्य समस्त संग्रहालयोंके रास चौपाई आदिके विवरण तैयार किये। जिनका उपयोग जैन गुर्जर कवियो भा० ३ में किया । इस ग्रन्थकी तैयारी में अत्यधिक मानसिक परिश्रम आदिके कारण सन् १६४४ में आपका मस्तिष्क शून्यवत् होगया और अन्त में २-१२-४५ के रविवार के प्रातः काल राजकोट में स्वर्ग सिधारे । आपने श्रीमद् यशोविजयजीकी समस्त लघुकृतियों का संग्रह किया था। उसे प्रकाशन करने के लिये किसी मुनिराजने देसाईं महोदय से सारी कृतियें लेकर उन्हींसे संकलन सम्पादन कराके प्रकाशित कीं पर सम्पादकका नाम देसाई महोदय का न रखकर प्रस्तावना में उल्लेखमात्र कर दिया देसाई महोदय के प्रति यह अन्यायही हुआ । यद्यपि स्वर्गीय देसाई महोदयको नामका लोभ तनिक भी नहीं था किन्तु नैतिकताके नाते ऐसा कार्य किसीभी मुनि कहलानेवाले तो क्या पर गृहस्थको भी उचित नहीं है | देसाई महोदय यह चाहते तो इस विषय में हस्तक्षेप कर सकते पर उन्हें नामकी परवाह नहीं, वर्ष ६ कामका ख्याल था और इसी दृष्टिसे उन्होंने कभी शब्दोच्चारण भी इस विषय में नहीं किया । हमारा कर्त्तव्य - आपने बारामासोंका परिश्रमपूर्वक विशाल संग्रह किया जिसे अपने मित्र मंजूलाल मजुमदार को दिया, वह अब तक अप्रकाशित है जिसे अवश्य प्रकाशित कराना चाहिये । देसाईजी बड़े परिश्रमी और अध्यवसायी थे जहां कहीं इतिहास, भाषा या साहित्य सम्बन्धी कोई महत्त्वपूर्ण कोई कृति मिलती स्वयं नकल कर लेते या संग्रह कर लेते थे । इस तरह आपके पास बड़ाही महत्त्वपूर्ण विशाल संग्रह होगया था । इस संग्रहकी सुरक्षाके हेतु हमने चैनपत्रादि में लेख एवं पत्रद्वारा कान्फ्रेंस आदिका ध्यान आकृष्ट किया पर अद्यावधि कार्य कुछभी हुआ प्रतीत नहीं होता । अब एक बार हम पुन: जैन० श्वे० कान्फ्रेंसका ध्यान निम्नोक्त बातोंकी तरफ आकृष्ट करते हैं आशा है, कान्फ्रेंस, उनके मित्र, सहयोगीवर्गे सक्रिय योगदानपूर्वक स्वर्गीय देसाई महोदय के प्रति फर्ज़ अदा करेंगे। श्वे० कान्फ्रेंस एवं चैनसमाजके कतिपय आवश्यक कर्त्तव्य इस प्रकार हैं। 1 १ - देसाईजी के संग्रहको सुरक्षित कर कान्फ्रेंस, उसे सुसम्पादित करवाके प्रकाशन आदि द्वारा सर्व सुलभ करे | २- उनके जीवनचरित्र व पत्रादि सामग्री जिनके पास हो संग्रहकर प्रकाशित करें । ३- उनकी स्मृति में एक स्मारक ग्रन्थ, विद्वानोंके लेख, संस्मरणादि एकत्र कर प्रकाशित करें । ४- उनकी स्मृति में एक ग्रन्थमाला चालू करें जो इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व और जैन स्थापत्यादि विषयों पर उत्तमोत्तम ग्रन्थ प्रकाशित करे । ५- आपके " जैन गुर्जर साहित्य के इतिहास " सामग्रीको इकठ्ठा कर एवं अधिकारी विद्वान. ' सम्पादित कराके प्रकाशन करना परमावश्यक है। की For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत गौरव प्राचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी (ले० पं० परमानन्द जैन, शास्त्री) जीवन-परिचय हिन्दी साहित्य के दिगम्बर जैन विद्वानों में पण्डित टोडरमल्लीका नाम खासतौर से उल्लेखनीय है । आप हिन्दी गद्य-लेखक विद्वानोंमें प्रथम कोटिके विद्वान हैं। विद्वत्ता के अनुरूप आपका स्वभावभी विनम्र और दयालु था। स्वाभाविक कोमलता और सदाचारिता आपके जीवन के सहचर थे । अहङ्कार तो प्रापको छू भी नहीं गया था । आन्तरिकभद्रता और वात्सल्यका परिचय आपकी सौम्य प्राकृतिको देखकर सहजही हो जाता था। आपका रहन-सहन बहुतही सादा था । साधारण अङ्गरखी, धोती और पगड़ी पहना करते थे । आध्यात्मिकताका तो आपके जीवनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था । श्री कुन्दकुन्दादि महान् श्रचायके श्राध्यात्मिक-ग्रन्थोंके अध्ययन, मनन एवं परिशीलनसे आपके जीवनपर अच्छा प्रभाव पड़ा हुआ था । अध्यात्मको चर्चा करते हुए आप आनन्द विभोर हो उठते थे, और श्रोता - जन भी आपकी वाणीको सुनकर गद्गद हो जाते थे । संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के आप अपने समय के अद्वितीय और सुयोग्य विद्वान थे । आपका क्षयोपशम कारी था, और वस्तुतत्त्वके विश्लेषण में आप बहुत ही दत्त थे । आपका आचार एवं व्यवहार विवेकयुक्त और मृदु था। - यद्यपि पण्डितजीने अपना और अपने माता पितादि कुटुम्बिनों का कोई परिचय नहीं दिया और अलौकिक जीवनपर ही कोई प्रकाश डाला है । फिर भी लब्धिसार ग्रन्थकी टीका - प्रशस्ति आदि सामग्रीपर से उनके लौकिक और आध्यात्मिक जीवन . का बहुत कुछ पता चल जाता है । प्रशस्ति के वे पद्य इस प्रकार हैं: मैं हूं जीवद्रव्य नित्य चेतनास्वरूप मेरो - लग्यो है अनादितै कलङ्क कर्ममलकौ, ताहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भये भयो है शरीरकौ मिलाप जैसौ खलकौ । रागादिक भावनिक पायकें निमित्त पुनिहोत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलकौ, ऐसें ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग बने तौ बने यहां उपाव निज थलको ||३६|| रमापति स्तुतगुन जनक जाकौ जोगीदास । - सोई मेरो प्रान है धारै प्रकट प्रकाश ||३७|| मैं तम अरु पुद्गलखंध, मिलिकेँ भयो परस्पर बंध । सो असमान जातिपर्याय, उपज्यो मानुष नाम कहाय ॥ मात गर्भ में सो पर्याय, करिकै पूरण अङ्ग सुभाय । बाहर निकसि प्रकट जबभयो, तब कुटुम्बको भेलो भयौ नाम धरयो तिन हर्षित होय, टोडरमल्ल कहें सब कोय ऐसौ यहु मानुष पर्याय, वधतभयो निज काल गमाय ॥ देस दुढाहड मांहि महान, नगर सवाई जयपुर थान । तामें ताको रहनौ घनो, थोरो रहनो ओढे बनो ॥ ४१ ॥ तिसपर्याय-विषै जो कोय, देखन जाननहारो सोय । मैं हूं जीवद्रव्य गुनभूप, एक अनादि अनंत अरूप ॥ कर्म उदयको कारण पाय, रागादिक हो हैं दुखदाय | ते मेरे औपाधिकभाव, इनिकौं विनशे में शिवराव ॥ वचनादिक लिखनादिकक्रिया, वर्णादिक अरुइन्द्रियहिया ये सब हैं पुगलका खेल, इनिमें नांहि हमारो मेल | ४४ || इन पद्योंपर से जहां उनका आध्यात्मिक जीवनपरिचय मिलता है वहां यह भी प्रकट है कि आपके लौकिक जीवनका नाम टोडरमल्ल था और पिताका नाम जोगीदास तथा माताका नाम रमादेवी था । दूसरे स्रोतों से यह भी स्पष्ट है कि श्राप खण्डेलवाल जाति के भूषण थे और आपके वंशज साहूकार For Personal & Private Use Only . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ । अनेकान्त [ वह कहलाते थे। पण्डितजी विवाहित थे और उनके दो विशिष्ट श्रोताजन आते थे। उनमें दीवान रतनचन्दजीर पुत्र थे। एकका नाम हरिचन्द और दूसरेका नाम अजबरायजी, त्रिलोकचन्दजी पाटनी, महारामजी३ गुमानीराम था। हरिचन्दको अपेक्षा गुमानीरामका त्रिलोकचन्दजी सोगानी, श्रीचन्दजी सोगानी और क्षयोपशम विशेष था, वह प्रायः अपने पिताके समान नेनचन्दजी पाटणीके नाम खासतौरसे उल्लेखनीय ही प्रतिभा सम्पन्न थे और इस लिये पिताके अध्ययन तत्त्वचर्चादि कार्यों में यथायोग्य सहयोग २ दीवान रतनचन्दजी और बालचन्दजी उस समय देते रहते थे। ये स्पष्टवक्ता थे और शात्रसभामें जयपुर के साधर्मियों में प्रमुख थे। बड़े ही धर्मात्मा और श्रोताजन उनसे खूब सन्तुष्ट रहते थे। इन्होंने पिता उदार सज्जन थे। रतनचन्दजीके लघुभ्राता वधीचन्दजी के स्वर्गगमनके दश बारह वर्षे बाद लगभग सं०१८३७ दीवान थे । दीवान रतनचन्दजी वि० सं० १८२१ से पहले ही में गुमानपंथकी स्थापना की थी। राजा माधवसिंह जीके समयमें दीवान पद पर श्रासीन हुए थे और वि० सं० १८२६ में जयपुरके राजा पृथ्वीसिंहके ____ इस गुमानपंथका क्या स्वरूपं था ? और उसमें किन किन बातोंकी विशेषता थी यह अभी ज्ञात नहीं हो समयमें थे, और उसके बादभी कुछसमय रहे हैं। पं० दौलत सका, जयपुर में गुमानपंथका एक मन्दिर बना हुआ रामजीने दीवान रतनचन्दजीकी प्रेरणासे वि० सं० है जिसमें पं० टोडरमल्ल जीके सभी ग्रंथोंकी स्वहस्त १८२७ में पं टोडरमल्लीकी पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी अधूरी टीकाको पूर्ण किया था जैसाकि उसकी प्रशस्तिके लिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। यह मंदिर उक्त पंथकी निम्नवाक्योंसे प्रकट है :'स्मृतिको आज भी ताजा बनाये हुये है। .. साधर्मिनमें मुख्य हैं रतनचन्द दीवान । __पंडित टोडरमल्ल जीके घर पर विद्याभिलाषियों पृथ्वीसिंह नरेशको श्रद्धावान सुजान ॥६॥ का खासा जमघट लगा रहता था, विद्याभ्यासके लिए तिनके प्रति रुचि धर्मसौं साधर्मिनसों प्रीत । घर पर जो भी व्यक्ति आता था उसे बड़े प्रेमके देव-शास्त्र-गुरुकी सदा उरमें महा प्रतीत ॥७॥ साथ विद्याभ्यास कराते थे। इसके सिवाय तत्वचर्चा श्रानन्द सुत तिनको सखी नाम जु दौलतराम । का तो वह केन्द्र ही बन रहा था। वहां तत्त्वचर्चाके भृत्य भूप को कुल वणिक जाके बसवे धाम ॥८॥ रसिक मुमुक्ष जन बराबर आते रहते थे और उन्हें कछु इक गुरु प्रतापत कीनों ग्रन्थ अभ्यास । आपके साथ विविध विषयोंपर तत्त्वचर्चा करके तथा लगन लगी जिन धर्मसौं जिन दासनको दास ॥६॥ अपनी शंकाओंका समाधान सनकर बड़ा ही संतोष होता था। और इस तरह वे पंडितजीके प्रेममय विनम्र तासू रतन दीवानने कही प्रीति धर येह । व्यवहारसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। आपके करिये टीका पूरणा उर धर धर्म सनेह ॥१०॥ शास्त्र प्रवचनमें जयपुरके सभी प्रतिष्ठित चतुर और तब टीका पूरी करी भाषा रूप निधान || कुशल होय चहुसंघको लहें जीव निज ज्ञान॥११॥ १ चुनाचे श्वेताम्बरी मुनि शाँतिविजयजी भी अपनी मानवधर्मसंहिता (शांतसुधानिधि) नामक पुस्तकके पृष्ठ १६७ अट्ठारहसै ऊपरै संवत सत्ताबीस ।। मगशिर दिन शनिवार है सुदि दोयज रजनीस ॥१३॥ में लिखते हैं । कि- “बीस पंथमें से फु(फू) टकर संबत १७२६ • में ये अलग हुए, जयपुरके तेरापंथियोंसे पं० टोडरमल्ल ३ महाराम जी अोसवालजातिके उदासीन श्रावक थे के पुत्र गुमानीराम जीने संवत १८३७ में गुमान पंथ बड़े ही बुद्धिमान थे और यह पं टोडरमल्ल जीके सा निकाला।" चर्चा करने में विशेष रस लेते थे। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ २७ है। बसवा निवासी पं०देवीदास गोधा को भी आपके रागादिक भावही बुरे हैं । सो या ऐसी समझ नाहीं पास कुछ समय तक तत्त्वचर्चा सुनने का अवसर यह पर द्रव्यनिका दोषदेखि तिनविर्षे द्वेषरूप उदासीप्राप्त हुआ था। नता करें है । सांची उदासीनता तौ वाका नाम है जो पं० टोडरमल्लजी केवल अध्यात्मग्रथोंके ही कोई भी परद्रव्यका गुण वा दोष न भासे, तात काहू वेत्ता या रसिक नहीं थे; किन्तु साथमें व्याकरण, को भला बुरा न जाने, परतै किछु भी प्रयोजन मेरा साहित्य, सिद्धान्त और दर्शनशास्त्रके अच्छे विद्वान नाहीं, ऐसा मानि साक्षिभूत रहै, सो ऐसी उदासीनता थे। आपकी कृतियोंका ध्यानसे समीक्षण करने पर ज्ञानी ही के होय ।” इस विषय में संदेहको कोई गुजायश नहीं रहती। __ (पृ० २४३-४) आपके टीका ग्रन्थोंकी भाषा यद्यपि ढूंढारी (जयपुरी) यहां पंडितजी ने सम्यग्दृष्टिकी आत्मपरिणतिरूप है फिर भी उसमें ब्रज भाषाकी पुट है और वह इतनी वस्तुतत्त्वका भी फितना सुन्दर विवेचन किया है जो परिमार्जित है कि पढ़ने वालोंको उसका सहज ही अनुभव करते ही बनता है । परिज्ञान हो जाता है। आपकी भाषामें प्रौढ़ता सरसता समकालीन धार्मिकस्थिति और विद्वद्गोष्ठी-- और सरलता है वह श्रद्धा नि:स्पृहता और नि:स्वार्थ भावना से ओत-प्रोत है जो पाठकोंको बहुत ही रुचि ___उस समय जयपुरकी ख्याति जैनपुरीके रूप में हो कर प्रतीत होती है। उसमें आकर्षण मधुरता और - रही थी, वहां जैनियोंके सात-आठ हजार घर थे, लालित्य पद पद में पाया जाता है और इसीसे जैन " जैनियोंकी इतनी गृहसंख्या उस समय सम्भवत: अन्यत्र समाजमें उसका आज भी समादर बना इशाह जैसा कहा भा नहीं था। इससे ब्रह्मचारा रामलालजाक कि उनके मोक्षमार्ग प्रकाशककी निम्न पंक्तियोंसे M" शब्दोंमें वह साक्षात् 'धर्मपुरी' थी। वहां के अधि कांश जैन राज्यके उच्च-पदोंपर नियुक्त थे, और वे. प्रकट है: राज्य में सर्वत्र शांति एवं व्यवस्थामें अपना पूरा पूरा __कोऊ कहेगा सम्यग्दृष्टि भी तो बुरा जानि सहयोग देते थे। दीवानरतनचन्द जी और बालचन्द परदव्यौं त्याग है। ताका समाधान- सम्यग्दृष्टि जी उनमें प्रमख थे। उस समय माधवसिंहजी प्रथम पर द्रव्यानिकों बुरा न जाने है। आप सरागभावकों । का राज्य चल रहा था, वे बड़े प्रजावत्सल थे। राज्य छोरे, तातै ताका कारणका भी त्याग हो है। में जीव-हिंसाकी मनाई थी। और वहां कलाल, वस्त विचारें कोई परद्रव्य तो भला बुरा है नाही। कमाई और वेश्याएं नहीं थीं। जनता प्राय: सप्तकोऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है। ताका उत्तर-परद्रव्य व्यसनसे रहित थी। जैनियोंमें उस समय अपने जोरावरी तैं क्योंई विगारता नाहीं। अपने भाव विगरें तब वह भी बाह्य निमित्त है। बहुरि वाका निमित्त प्रत्येक साधर्मी भाईके प्रति वात्सल्य तथा उदारताका धर्मके प्रति विशेष प्रेम और आकर्षण था और बिना भी भाव विगरें हैं । तातै नियमरूप निमित्त भी व्यवहार किया जाता था। जिनपूजन, शास्त्रस्वाध्याय नाहीं । ऐसे परद्रव्यका दोष देखना मिथ्या भाव है। तत्त्वचर्चा सामायिक और शास्त्रप्रवचनादि क्रियायों में श्रद्धा, भक्ति और विनयका अपूर्व दृश्य देखने में आता १ "सो दिल्लीसू पढ़ कर वसुवा अाय पाईं जयपुर में था। कितने ही स्त्री-पुरुष गोम्मटसारादि सिद्धांतथोड़े दिन टोडरमल्ल जी महाबुद्धिमानके पासि सुननेका ग्रन्थोंकी तत्त्वचर्चासे परिचित हो गये थे। महिलाएं निमित्त मिल्या, बसुवा गए" भी धार्मिक-क्रियाओंके सद्अनुष्ठानमें यथेष्ठ भाग लेने देखो सिद्धान्तसारकी टीकाप्रशस्ति लगी थीं। पं० टोडरमल्लजीके शास्त्र-प्रवचनमें For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५] श्रोताओंको अच्छी उपस्थिति रहती थी और जिनकी संख्या सातसौ-आठसौसे अधिक हो जाया करती थी । उस समय जयपुरमें कई विद्वान थे और पठन-पाठनकी सब व्यवस्था सुयोग्यरीतिसे चल रही थी। आज भी जयपुरमें जैनियोंकी संख्या कई सहस्र है और उनमें कितने ही राज्यके पदोंपर भी प्रतिष्ठित हैं । अनेकान्त सं० १८२१ में जयपुरमें इन्द्रध्वज पूजाका महान् उत्सव हुआ था । उस समयकी ब्रह्मचारी रामलाल जी की लिखी हुई पत्रिकासे १ ज्ञात होता है कि उसमें राज्य की ओर से सब प्रकारको सुविधा प्राप्त थी, और दरबारसे यह हुक्म आया था कि "थां की पूजाजी के अर्थ जो वस्तु चाहिजे सो ही दरबारसे ले जावो" इसी तरहको सुविधा वि० की १५वीं १६वीं शताब्दी में ग्वालियर में राजा डूङ्गरसिंह और उनके पुत्र कीर्तिसिंह के राज्य-कालमें जैनियोंको प्राप्त थी, और उनके राज्य में होने वाले प्रतिष्ठा महोत्सवों में राज्य की ओरसे सब व्यवस्था की जाती थी। [ वर्ष ६ है। इसमें आध्यात्मिक प्रश्नोंका उत्तर कितने सरल एवं स्पष्ट शब्दों में विनयके साथ दिया गया है, यह देखते ही बनता है । चिट्ठीगत शिष्टाचार सूचक निम्न वाक्य तो पण्डितजीको आन्तरिक भद्रता तथा वात्सल्य का खासतौर से द्योतक है "तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानंदकी वृद्धि चाहिये ।" गोम्मटसारादि की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाटीका - गोम्मटसारजीवकांड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार प णासार और त्रिलोकसार इन मूल - प्रन्थोंके रचयित आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती हैं । 'जो वीरनन्दि इन्द्रनदिके बत्स तथा अभयनन्दिके पुत्र थे । और जिनका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दी है । गोम्मटसार ग्रन्थपर अनेक टोकाएँ रची गई है किन्तु वर्तमानमें उपलब्ध टीकाओं में मन्दप्रबोधिक सबसे प्राचीन टीका है। जिसके कर्ता अभय चन्द्र सैद्धांतिक हैं। इस टीका आधार से ही केशववर्णने, जो अभयसूरिके शिष्य थे, कर्नाटक भाषामें 'जीवतत्त्वप्रबोधिका' नामकी टीका भट्टारक धर्म भूषणके रचनाएं और रचनाकाल - पं० टोडरमल्लजीकी कुल नौ रचनाएं हैं। उनके आदेश से शक सं० १२८१ ( वि० सं० १४१६ ) में नाम इस प्रकार हैं १- गोम्मटसारजीवकांडटीका, २- गोम्मटसारकर्मकाण्डटीका, ३- लब्धिसार-क्षपणासारटीका, ४- त्रिलोकसारटीका, ५- श्रात्मानुशासनटीका, ६-पुरुषार्थसिद्ध्युपायटीका, ७- अर्थसंदृष्टिअधिकार, - रहस्यपूर्ण चिट्ठी - और मोक्षमार्ग प्रकाशक । इनमें आपकी सबसे पुरानी रचना रहस्यपूर्ण चिट्ठी है जो कि विक्रम सम्बत् १८११ को फाल्गुणवदि पञ्चमीको मुलतान के अध्यात्मरसके रोचक खानचंदजी गङ्गाधरजी, श्रीपालजी, सिद्धारथजी आदि अन्य साधर्मी भाइयों को उनके प्रश्नोंके उत्तररूप में लिखी गई थी । यह चिट्ठी अध्यात्मरसकें अनुभव से श्रोत-प्रोत बनाई है। यह टीका कोल्हापुरके शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है और अभी तक अप्रकाशित है । मन्दप्रबोधिका और केशववर्णीकी उक्त कनड़ी टीकाका आश्रय लेकर भट्टारक नेमिचन्द्रने अपनी संस्कृत टीका बनाई है और उसका नाम भी कनड़ी टीकाकी तरह 'जीवतत्त्वप्रबोधिका' रक्खा गया है। यह टीकाकार नेमिचन्द्र मूलसंघ शारदागच्छ बलात्कारगणके विद्वान् थे, और भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे । भट्टारक ज्ञानभूषणका समय विक्रमको १६वीं शताब्दी है क्योंकि इन्होंने वि० सं० १५६० में 'तत्त्वज्ञानतरङ्गिणी नामक ग्रन्थको रचना की है। अतः टीकाकार नेमिचंद्र का भी समय वि० की १६ वीं शताब्दी है । इनकी जीवतत्त्वप्रबोधिका' टीका मल्लिभूपाल अथवा सालुव मल्लिराय नामक राजाके समय में लिखी गई है औ १ देखो, वीरवाणी अङ्क ३ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] जिनका समय डा० ए० एन० उपाध्येने ईसाकी १६ वीं शताब्दी का प्रथम चरण निश्चित किया है + । इससे भी इस टीका और टीकाकारका उक्त समय अर्थात् ईसाकी १६ वीं शताब्दीका प्रथमचरण व विक्रमकी १६ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध है । भ० नेमिचन्दकी इस संस्कृत टीका के आधार से पंडित टोडरमल्ल जीने अपनी भाषाटीका लिखो है। और उस टीकासे उन्होंने भ्रमवश: केशत्रवर्णीकी टीका समझ लिया है । जैसा कि जीवकाण्ड टीकाप्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है : केशववर्णी भव्य विचार, कर्णाटक टीका अनुसार । संस्कृत टीका कीनी एहु, जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु || : पंडित जीकी इस भाषाटीकाका नाम 'सम्यग्ज्ञान'चन्द्रिका' है जो उक्त संस्कृत टीकाका अनुवाद होते हुए भी उसके प्रमेयका विशद विवेचन करती है पंडित टोडरमल्ल जीने गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड लब्धिसार-क्षपणासार - त्रिलोकसार इन चारों ग्रंथों की टीकाएं यद्यपि भिन्न भिन्न रूप से की हैं किन्तु उन में परस्पर सम्बन्ध देखकर उक्त चारों ग्रंथों की टीकाओं को एक करके उनका नाम 'सम्यग्ज्ञान 'चन्द्रिका' रकखा है। जैसाकि पं० जी लब्धिसार भाषाटीका प्रशस्तिके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : "या विधि गोम्मटसार लब्धिसार ग्रंथनि की, भिन्न भिन्न भाषाटीका कीनी अर्थ गाय कै । इनिकै परस्पर सहाय पनौ देख्यौ । एक कर दई हम तनिको मिलायकें ॥ (पिछले २८ वें पृष्ठकी यह टिप्पणी है भूल से वहां न छप सकी) * अभयचन्द्रकी यह टीका पूर्ण है, और जीवकांडकी ३८३ गाथा तक ही पाई जाती है, इसमें ८३ नं० की गाथाकी टीका करते हुए एक 'गोम्मटसार पञ्चिका' टीकाका उल्लेख निम्न शब्दोंमें किया है । “अथवा सम्मूर्छनगर्भा 'पात्तान्नाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मटसारपञ्चिकाकारादीनाम+ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ + देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ भिप्रायः " आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ २६ सम्यग्ज्ञान - चन्द्रिका धरयो है याका नाम । सो ही होत है सफल ज्ञानानंद उपजाय कै ॥ कलिकाल रजनीमें अर्थको प्रकाश करे । यातै निज काज कोने इष्टभावमयकै ||३०|| किया है, अपनी ओरसे कषायवश कुछभी नहीं इस टीका में उन्होंने आगमानुसार हो अर्थ प्रतिपादन लिखा, यथा आज्ञा अनुसारी भये अर्थ लिखे या मांहि । कषाय करि कल्पना हम कछु कीनों नांहि ॥ ३३ ॥ टीकाप्रेरक श्रीरायमल्ल और उनकी पत्रिका — इस टीकाकी रचना अपने समकालीन रायमल्ल नामके एक साधर्मी श्रावकोत्तमकी प्रेरणासे की गई है जो विवेकपूर्वक धर्मका साधन करते थे१ । रायमल्ल जी बाल ब्रह्मचारी थे एक देश संयमके धारक थे । जैन धर्मके महान श्रद्धानी थे और उसके प्रचार में संलग्न रहते थे साथ ही बड़े ही उदार और सरल थे । उनके आचार में विवेक और विनयकी पुट थी । वे अध्यात्म शास्त्रोंके विशेष प्रेमी थे और विद्वानोंसे तत्त्व-चर्चा करने में बड़ा रस लेते थे पं० टोडरमल्लजीकी तत्त्व - चर्चासे वे बहुत ही प्रभावित थे । इनकी इस समय दो कृतियां उपलब्ध हैं - एक ज्ञानानंद निर्भर निजरस - श्रावकाचार और दूसरी कृति चर्चा - संग्रह है जो महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक चर्चाओं को लिये हुये है । इनके सिवाय दो पत्रिकायें भी प्राप्त हुई हैं जो 'वीरवाणी' में प्रकाशित हो चुकी हैं२। उनमें से प्रथम पत्रिकामें अपने जीवनकी प्रारम्भिक घटनाओंका समुल्लेख करते हुए पण्डित टोडरमल्ल जीसे गोम्मटसारकी टीका बनानेकी प्रेरणाकी गई है और वह सिंघाणा नगर में कब और कैसे बनी इसका पूरा विवरण दिया गया है। बह पत्रिका इस प्रकार है। - १ रायमल्ल साधर्मी एक, धर्मसंधैया सहित विवेक । सो नानाविध प्ररेक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो २ देखो, वीरवाणी वर्ष १ अङ्क २, ३ । For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] अनेकान्त । वर्ष "पीछे सेखावटीविर्षे सिंघाणा ना तहां टोडर- हजार टीका भई। पीछे सवाई जयपुर आये तहां मल्लजी एक दिली (ल्ली) का बड़ा साहूकार साधर्मी गोम्मटसारादिच्यारों मंथोंकू सोधि याको बहुत प्रति ताके समीप कर्म-कार्यके अर्थि वहां रहै, तहां हम गए उतराई। जहां सैली थी तहां तहां सुधाइ सुधाइ पधराई अर टोडरमल्लजीसे मिले, नाना प्रकारके प्रश्न ऐसे यां ग्रंथांका अवतार भया"। किये। ताका उत्तर एक गोम्मटसार नामा ग्रंथकी इस पत्रिकागत विवरण परसे यह स्पष्ट है कि साखिसू देते गए। ता ग्रन्थकी महिमा हम पूर्व सुणी उक्त सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाटीका तीन वर्षमें बनकर थी तासूविशेष देखी, अर टोडरमल्लजीका (के) ज्ञानकी समाप्त हुई थी जिसकी श्लोक संख्या पैसठ महिमा अद्भुत देखी, पीछे उनसूहम कही-तुम्हारे करीब है । और जिसके संशोधनादि तथा अन्य प्रतिया ग्रंथका परचै निमेल भया है, तुमकरि याकी योंके उतरवाने में प्राय: उतनाही समय लगा होगा। भाषाटीका होय तौ घणां जीवांका कल्याण होय अर इसीसे यह टीका सं० १८१८ में समाप्त हुई है। इस जिनधर्मका उद्योत होइ । अबही कालके दोष करि टीकाके पूर्ण होने पर पण्डितजी बहुत आल्हादित जीवांकी बुद्धी तुच्छ रही है तो आगै यात भी अल्प हुए और उन्होंने अपनेको कृतकृत्य समझा) साथ रहेगी। सातै ऐसा महान ग्रंथ पराक्रत साकी मल गाथा ही अन्तिम मङ्गलके रूपमें पञ्चपरमेष्ठीकी स्तुति की और पंद्रहस+ १५०० ताकी टीका संस्कृत अठारह हजार उन जैसी अपनी दशाके होनेकी अभिलाषा भी व्यक्त १८००० तावि अलौकिक चरचाका समूह संदृष्टि वा की? । यथागणित शास्त्रांको आम्नाय संयुक्त लिख्या है ताकी भाव आरंभो पूरण भयो शास्त्र सुखद प्रासाद । भासना महा कठिन है । अर याके ज्ञानकी प्रवर्ति पूर्व अब भये कृतकृत्य हम पायो अति थाल्हाद ॥ + + + + + + दीर्घकाल पर्यंत लगाय अब ताई नाहीं तो आगै भी अरहन्त सिद्ध सूर उपाध्याय साधु सर्व, याको प्रवर्ती कैसे रहेगी, तातें तुम या ग्रंथकी टीका अथैके प्रकाशी मङ्गलीक उपकारी हैं। करनेका उपाय शीघ्र करौ, सायुका भरोसा है नाहीं। तिनको स्वरूप जानि रागते भई भक्ति, पीछे ऐसें हमारे प्रेरकपणाका निमित्त करि इनके टीका कायकौं नमाय स्तुतिको उचारी है। करने का अनुराग भया । पूर्व भी याकी टीका करने धन्य धन्य तुमही सब काज भयो, का इनका मनोरथ था ही, पाछै हमारे कहनें करि विशेष कर जोरि बारम्बार बंदना हमारी है। मनोरथ भया, तब शुभदिन मुहूरत विष टीका करने मङ्गल कल्याण सुख ऐसो हम चाहत हैं, का प्रारम्भ सिंघाणा नग्रविष या । सो वे तो टीका होहु मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है। वणावते गए हम बांचते गये। बरस तीनमें गोम्मट यही भाव लब्धिसारटीका प्रशस्तिमें गद्यरूपमें सारथको अडतीसहजार ३८००० लब्धिसार-क्षप- प्रकट किया है। णासारग्रंथकी तेरहहजार १३००० त्रिलोकसारग्रंथ लब्धिसारकी टीका वि० सं० १८१८ की माघशुक्ला की चौदाहजार १४००० सव मिलिच्यारि ग्रंथांकी पैसठ - १"प्रारम्भ कार्यकी सिद्धि होने करि हम आपको + रायमल्लजीने गोम्मटसारकी मूल गाथा संख्या पंद्रह कृतकृत्य मानि इस कार्य करनेकी अाकुलता रहित होइ सुखी सौ १५०० बतलाई है जव कि उसकी संख्या सत्तरहसौ पांच भये, याके प्रसादतें सर्वश्राकुलता दरि होइ हमारे शीघ्र ही १७०५ है, गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ६७२ और जीवकांडकी स्वात्मज सिद्धि-जनित परमानन्दकी प्राप्ति होउ।" ७३३ गाथा सख्या मुद्रित प्रतियोंमें पाई जाती है। लब्धिसार टी० प्रशस्ति For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ) आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ ३१ पञ्चमीके दिन पूर्ण हुई है, जैसाकि उसके प्रशस्ति पद्यसे पदार्थका विवेचन बहुतही सरल शब्दोंमें किया गया स्पष्ट है: है। और जीवोंके मिथ्यात्वको छुड़ानेका पूरा प्रयत्न संवत्सर अष्टादशयुक्त, अष्टादशशत लौकिकयुक्त किया गया है, यह मल्लजीकी स्वतन्त्र रचना है। यह माघशुक्लपञ्चमिदिन होत, भयो ग्रन्थ पूरन उद्योत ॥ प्रन्थभी, जिसकी श्लोकसंख्या बीसहजारके करीब है; लब्धिसार-क्षपणासारको इस टीकाके अन्तमें सं०१८२१ से पहले ही रचा गया है। क्योंकि ब्रह्मचारी अर्थसंदृष्टि नामका एक अधिकार भी साथमें दिया रायमल्लजीने इन्द्रध्वज पूजाकी पत्रिकामें इसके रचे हुआ है, जिसमें उक्त ग्रन्थमें आनेवाली अङ्कसंदृष्टियों जानेका उल्लेख किया है। मालूम होता है कि यह और उनकी संज्ञाओं तथा अलौकिक गणितके करण- प्रन्थ बादको पूरा नहीं हो सका। सूत्रोंका विवेचन किया गया है। यह संदृष्टि अधिकार पुरुषार्थसिद्ध्युपाय टीकाउस संदृष्टि अधिकारसे भिन्न है जिसमें गोम्मटसार यह उनको अन्तिम कृति जान पड़ती है। यही जीवकाण्ड-कर्मकाण्डकी संस्कृतटीकागत अलौकिक कारण है कि यह अपूर्ण रह गयी। यदि आयुक्श गणितके उदाहरणों, करणसूत्रों, संख्यात, असंख्यात वे जीवित रहते तो वे अवश्य पूरी करते। बादको और अनन्तकी संज्ञाओं और अङ्कसंदृष्टियोंका विवेचन यह टीका श्रीरतनचन्दजी दीवानकी प्रेरणासे पण्डित स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें किया गया है, और जो 'अर्थ- दौलतरामजीने सं० १८२७ में पूरी की है। परन्तु उनसे संदृष्टि' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है। यद्यपि टीका उसका वैसा निर्वाह नहीं हो सका है, फिर भी उसका ग्रन्थोंके आदिमें पाई जाने वाली पीठिकामें ग्रन्थगत अधूरापन तो दूर हो ही गया है। संज्ञाओं एवं विशेषताओंका दिग्दर्शन करा दिया है उक्त कृतियोंका रचनाकाल सं० १८११ से १८१८ जिससे पाठकजन उस ग्रन्थके विषयसे परिचित हो तक तो निश्चित ही है। फिर इसके बाद और किवने सकें। फिर भी उनका स्पष्टीकरण करनेके लिये उक्त समय तक चला, यद्यपि यह अनिश्चित है, परन्तु फिर अधिकारोंकी रचना की गई है। इसका पर्यालोचन भी सं० १८२४ के पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है। करनेसे संदृष्टि-विषयक सभी बातोंका बोध हो जाता पं० टोडरमल्लजीकी ये सब रचनाएं जयपुर नरेश है। हिन्दी-भाषाके अभ्यासी स्वाध्याय-प्रेमी सज्जन माधवसिंहजी प्रथमके राज्यकालमें रची गई हैं। भी इससे बराबर लाभ उठाते रहे हैं। आपकी इन जयपुर नरेश माधवसिंह प्रथमका राज्य वि० सं० टीकाओंसे ही दिगम्बर समाजमें कर्मसिद्धान्तके पठन १८११ से १८२४ तक निश्चित माना जाता है। पाठनका प्रचार बढा है और इनके स्वाध्यायी सज्जन पंदौलतरामजीने जब सं०१८२७ में पुरुषार्थसिद्ध्युकर्मसिद्धान्तसे अच्छे परिचित देखे जाते हैं। इस पायकी अधूरी टीकाको पूर्ण किया तब जयपुरमें राजा सबका श्रेय पं० टोडरमल्लजीको ही प्राप्त है। पृथ्वीसिंहका राज्य था। अतएव संवत् १८२७ से आत्मानुशासन टीका पहले ही माधवसिंहका राज्य करना सुनिश्चित है। इसका निर्माण कब किया गया यह कुछ ज्ञात पंडितजीकी मृत्यु और समयनहीं हो सका। पंडित जीको मृत्यु कब और कैसे हुई यह विषय मोक्षमार्गप्रकाशक अर्सेसे एक पहेलीसा बना हुआ है। जैन समाजमें यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण है जिसकी जोड़का इस सम्बन्धमें कई प्रकारकी किंवदन्तियां प्रचलित हैं। इतना प्रांजल और धार्मिक-विवेचनापूर्ण दूसरा हिन्दी * देखो, 'भारत के प्राचीन राजवंश' भाग ३ पृ. गद्य अन्य अभी तक देखनेमें नहीं आया। इसमें २३६, २४० । For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] परन्तु उनमें हाथीके पैरतले दबवाकर मरवानेकी घटनाका बहुत प्रचार है । यह घटना कोरी कल्पना ही नहीं है, किन्तु उसमें उनकी मृत्युका रहस्य निहित है । पहिले मेरी यह धारणा थी कि इस प्रकारकी अकल्पित घटना पं० टोडरमल्लजी जैसे महान् विद्वानके साथ नहीं घट सकती; परन्तु बहुत कुछ अन्वेषण तथा उसपर काफी विचार करने के बाद अब मेरी यह दृढ़ धारणा होगई है कि उपरोक्त किम्बदन्ती असत्य नहीं है किन्तु वह किसी तथ्यको लिये हुये अवश्य है । जब हम उसपर गहरा विचार करते हैं और पं० जीके व्यक्तित्व तथा उनकी सीधी सादी भद्र परिणतिकी ओर भी ध्यान देते हैं; जो स्वप्न में भी कभी पीड़ा देने का भाव नहीं रखते थे, तब उनके प्रति विद्वेषवश अथवा उनके प्रभाव तथा व्यक्तित्व के साथ घोर ईर्षा रखनेवाले जैनेतर व्यक्तिके द्वारा साम्प्रदायिक व्यामोहवश सुझाये गये अकल्पित एवं अशक्य अपराधके द्वारा अन्धश्रद्धावश बिना किसी निर्णय यदि राजाका कोप सहसा उमड़ पड़ा हो, और राजाने पंडितजीके लिये बिना किसी अपराधके भी उक्त प्रकार से 'मृत्युदण्ड' का फतवा दे दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है जब हम उस समयकी भारतीय रियासतीय परिस्थितियों पर ध्यान देते हैं; और उनके अन्धश्रद्धावश किये गये अन्यायअत्याचारोंकी झांकीका अवलोकन करते हैं, तब अनेकान्त [ वर्षह उसमें आश्चर्यको कोई स्थान नहीं रहता। यही कारण है कि उस समयके विद्वानोंने राज्यके भय से उनकी मृत्यु आदिके सम्बन्धमें स्पष्ट कुछभी नहीं लिखा; क्योंकि रियासतों में खासतौर पर मृत्युभय और धनादिके अपहरणकी सहस्रों घटनायें घटती रहती हैं, और उनसे प्रजा में घोर आतंक बना रहता है; किन्तु आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं और अब प्रायः इस प्रकारको घटनायें कहीं सुननेमें नहीं श्राती । अब प्रश्न केवल समयका रह जाता है कि उक्त घटना कब घटी ? यद्यपि इस सम्बन्धमें इतनांही कहा जा सकता है कि सं० १८२१ और सं० १८०४ के मध्य में माधवसिंहजी प्रथमके राज्य काल में किसी समय घटी है, परन्तु उसकी अधिकांश सम्भावना सं० १८२४ में जान पड़ती है। चूंकि पं० देवीदास जोकी जयपुर से बसवा जाने, और उससे वापिस लौटनेपर पुनः पं० टोडरमल्लजी नहीं मिले, तब उन्होंने उनके लघुपुत्र पण्डित गुमानीरामजी के पासही तत्त्वचर्चा सुनकर कुछज्ञान प्राप्त किया, यह उल्लेख सं० १८२४ के बाद का है। और उसके अनन्तर देवीदास जी जयपुर में सं० १८३८ तक रहे हैं । वीर सेवामन्दिर ६-१-१६४८ सरसावा समन्तभद्रके भाष्यकी समस्या विचारकके लिये एक खास विचारणीय वस्तु बनी हुई है । अभीतक मैं स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि समन्तभद्र के द्वारा रचा गया जो भाष्य माना जाता है और जिसे तत्त्वार्थभाष्य अथवा गन्धहस्ति महाभाष्य कहा जाता है वह एक कल्पनामात्र है और उस कल्पना के जनक अभयचन्द्र सूरि हैं । परन्तु मैंने अपनी खोज को बन्द समन्तभद्र-भाष्य नहीं किया और जब समन्तभद्र तथा उनके ग्रथों के उल्लेखको लिये हुये कोई नया ग्रन्थ दृष्टि में आता है तोमैं बड़ी उत्सुकतासे उसे देखने में प्रवृत्त होता हूं । और यह जाननेको उत्सुक रहता हूं कि इसमें समन्तभद्रके तथाकथित भाष्यका उल्लेख तो नहीं है ? चुनांचे अभी हाल में 'लक्षणावली' में जिन ग्रन्थों के लक्षणोंका संकलन नहीं हुआ था उनके लक्षण For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] समयसार की महानता [ ३३ संकलन करनेकेलिये भास्करनन्दिकी हालमें प्रकाशित सं० १०५० में रचे गये 'पराणतिलक' में चामुण्डराय होकर प्राप्त तत्त्वार्थवृत्ति हाथमें आई। इस ग्रन्थकी की विशेष कृपाका उल्लेख किया है। यही चामुण्डराय प्रस्तावनामें पं० शान्तिराजजी शास्त्रीने समन्तभद्रके प्रसिद्ध गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके निर्माता और नेमिचन्द्र भाष्यके सम्बन्धमें विचार किया है । उन्होंने समन्तभद्र- सिद्धान्तचक्रवर्तीद्वारा अतिशय प्रशस्य हुए हैं। मतभाष्यके उल्लेखोंमें एक उल्लेख विद्वानोंके लिये खास लब यह कि चामुण्डरायका उक्त उल्लेख बहुत कुछ तौरसे विचारने योग्य और प्रसिद्ध उल्लेखोंसे प्राचीन प्रामाणिक और असन्दिग्ध है। उसमें दो वाताका एवं नया उपस्थित किया है। यह उल्लेख निम्न प्रकार स्पष्ट निर्देश है एक तो यह कि समन्तभद्रदेवने तत्त्वा. र्थभाष्य रचा हैं और दूसरी यह कि वह तर्कशास्त्र अभिमतमागिरे 'तत्त्वा ग्रन्थ है । नहीं कहा जा सकता कि भाष्यमं तर्कशास्त्रम' बरेदुवचो-। चामुण्डगयने समन्तभद्रके भाष्यका उल्लेख किल आधारसे किया ? क्या उन्हें उक्त ग्रन्थ प्राप्त था अथवा विभवदिनिलेगेसेद 'समं अनुश्र ति मात्र थी? इस सम्बन्धमें समन्तभद्रभाष्यतभद्रदेवर' समानरेबरुमोलरे ॥५॥ प्रेमी विद्वानोंको अवश्य विचार करना चाहिये और ___यह उल्लेख चामुण्डरायके प्रसिद्ध त्रिषष्टि लक्षण उसका अनुसन्धान करते रहना चाहिये। महापुराणका है जो कनड़ी भाषामें रचा गया है और ..उक्त उल्लेखमें एक बात यह भी ध्यान देने योग्य जिसे उन्होंने शक सं० १०० - वि० सं० १०३५ है कि समन्तभद्र वादिराजसूरिसे पूर्व भी 'देव' उपपदमें समाप्त किया है। चामुण्डाराय गंगनरेश के साथ स्मृत होते थे और 'समन्तभद्रदेव' इस नामसे राचमल्लके प्रख्यात मंत्री थे। राचमल्लका भी विद्वान उनका गुण कीर्तन करते थे। राज्यकाल वि० सं० १०३१ से २०४१ तक है। १०जनवरी, १९४८ दरबारीलाल कोठिया कनड़ी भाषाके प्रसिद्ध कवि रन्नने अपने वि० १ देखो, प्रेमीजीकृत -जैन साहित्य और इतिहास । समयसार की महानता ( प्रवक्ता- पूज्य श्रीकानजी) [पाठकगण, श्रीकानजी स्वामीसे अपरिचित नहीं करते रहते हैं । परन्तु अभी हालमें श्रीकानजी स्वामीका हैं। वे वर्तमान युगके उन सन्तोंमें हैं जो जडवादके 'आत्म-धर्म' में वह प्रवचन प्रकट हुआ है जिसे उन्होंजालसे व्याप्त इस विश्वमें श्राध्यात्मका उद्दीप्त दीपक ने गत श्रुतपञ्चमीके अवसरपर किया था। इस जलाये हुए हैं और जिसके प्रकाशको न केवल आस- प्रवचनमें श्रीकानजी महाराजने समयसार पर जो पास ही, अपितु भारतके सुदूरवर्ती अनेक कोनोंमें भी, उद्गार प्रकट किये हैं उनसे समयसारकी महानता अपने विद्वत्ता और मार्मिकतासे भरे हुए प्रवचनोंद्वारा और अगाधताका जैसा कुछ परिचय मिलता है वह प्रसृत कर रहे हैं। यों तो आप और आपका विवेको देखते ही बनता है। हम पाठकोंके लिये उनके इस संघ दोनों 'समयसार' के महत्व और उसकी अगाधता- प्रवचनके कुछ अंशको यहां दे रहे हैं।] को खूब अनुभव करते हैं तथा सदैव उसे प्रकट भी -स० सम्पादक For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष % 31 आज यह समयसार आठवीं वार पढ़ा जा रहा है तब यह समयसार शुद्धात्मतत्त्वको बतलाकर तत्त्वके -सभामें प्रवचनरूपसे आठवीं वार पढ़ा जा रहा है वियोगको भुला देता है और निश्चय स्वभावको प्रकट फिर भी यह कुछ अधिक नहीं है। इस समयसारमें करता है। ऐसा गूढ-रहस्य भरा हुआ है कि यदि इसके भावोंको समयसारका प्रारम्भ करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीवनभर मनन किया जाय तो भी इसके भाव पूरे देवने प्रारम्भिक मङ्गलाचरणमें कहा है कि- 'वदित्त प्राप्त नहीं किये जा सकते। केवलज्ञान होनेपर ही सव्वसिद्ध अनन्त सिद्ध भगवन्तोंको वंदना करता समयसारके भाव पूरे हो सकते हैं। समयसारके हूं, सब कुछ भूलकर अपने आत्मामें सिद्धत्वको स्थाभावका आशय समझकर एकावतारी हुआ जा सकता पित करता हूं। इस प्रकार सिद्धत्वका ही आदर किया है। समयसारमें ऐसे महान भाव भरे हुए हैं कि है। जो जिसकी बंदना करता है उसे अपनी दृष्टिमें श्रुतकेवली भी अपनी वाणीके द्वारा विवेचन करके श्रादर हुए विना यथार्थ वन्दना नहीं हो सकती। उसके सम्पूर्ण सारको नहीं कह सकते। यह प्रन्था अनन्त सिद्ध हो चुके हैं, पहिले सिद्ध दशा नहीं धिराज है. इसमें ब्रह्माण्डके भाव भरे हुए हैं। इसके थी और फिर उसे प्रगट किया, द्रव्य ज्योंका त्यों स्थित अन्तरङ्गके आशयको समझकर शुद्धात्माकी श्रद्धा ज्ञान- रहा. पर्याय बदल गया, इस प्रकार सब लक्ष्य में लेकर स्थिरताके द्वारा अपने समयसारको पूर्णता को जा अपने आत्मामें सिद्धत्वकी स्थापना की है, अपनी सकती है। भले ही वर्तमानमें विशेष पहलुओंसे जानने- सिद्ध दशाकी ओर प्रस्थान किया है। मैं अपने का विच्छेद हो; परन्तु यथार्थे तत्त्वज्ञानको समझने आत्मामें इस समय प्रस्थान-चिह्न स्थापित करता है योग्य ज्ञानका विच्छेद नहीं है। तत्त्वको समझनेकी और मानता हूं कि मैं सिद्ध हं अल्पकालमें सिद्ध होने शक्ति अभी भी है जो यथार्थ तत्त्वज्ञान करता है उसे वाला है। यह प्रस्थान-चिह्न अब नहीं उठ सकता; में एकावतारीपनका निःसन्देह निर्णय हो सकता है। सिद. ऐसी श्रद्धाके जम. जानेपर आत्मामें से __ भगवान कुन्दकुन्दाचायने महान् उपकार किये हैं। विकारका नाश होकर सिद्ध भाव ही रह जाता है। यह समयसार-शास्त्र इस कालमें भव्यजीवोंका महान् अब सिद्धके अतिरिक्त अन्य भावोंका आदर नहीं। आधार है। लोग क्रियाकाण्ड और व्यवहारके पक्ष- यह सुनकर हां करनेवाला भी सिद्ध है। मैं सिद्ध । पाती हैं, तत्त्वका वियोग हो रहा है, और निश्चय और तू भी सिद्ध है-इस प्रकार आचार्यदेवने सिद्धत्व स्वभावका अन्तर्धान हो गया है-वह ढक गया है; से ही मांगलिक प्रारम्भ किया है। तत्व.चर्चा शंका-समाधान [कितने ही पाठकों व इतर सज्जनोंको अनुसन्धानादि-विषयक शंकाएँ पैदा हुआ करती हैं और कभी कभी उनके विषयमें इधर उधर पूछा करते हैं। कितने ही को उत्तर नहीं मिलता और कितनोंको संयोगाभावके कारण पूछनेको अवसर ही नहीं मिलता, जिससे प्राय: उनकी शंकाएँ हृदयको हृदयमें हो विलीन हो जाया करती हैं और इस तरह उनकी जिज्ञासा अतृप्त ही बनी रहती है। ऐसे सब सज्जनोंकी सुविधा और लाभको दृष्टिमें रखकर 'अनेकान्त' में इस किरणसे एक 'शंका समाधान' स्तम्भ भी खोला जा रहा है जिसके नीचे यथासाध्य ऐसी सब शंकाओंका समाधान रहा करेगा। आशा है इससे सभी पाठक लाभ उठा सकेंगे। -सम्पादका For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समयसार की महानता १ शंका-कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने सं० १४५४ को लिखी अर्थात् साढ़े पांचसौ वर्ष 'विद्य नन्दमहोदय' नामका एक बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रीकी प्रति प्राप्त हुई है, जिसके उल्लेख उन्होंने स्वयं अपने श्लोकवार्तिक, है, जो मुद्रित अष्टसहस्रीमें सैकड़ों सूक्ष्म तथा स्थल अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में किये हैं। परन्तु उनके बाद अशुद्धिया आ - अशुद्धियों और त्रुटित पाठोंको प्रदर्शित करती है । यह होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि भी प्राचीन प्रतियोंकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण बड़े बड़े प्राचार्यो में से किसीने भी अपने प्रन्थों में है। इससे 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख नहीं किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके भंडारोंमें मिलनेकी अधिक प्राशा है, अन्वेषकोंको जीवनकाल तक ही रहा है-उसके बाद नष्ट होगया? उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये। १ समाधान-नहीं, विद्यानन्दके जीवन-कालके २ शंका-विद्वानोंसे सुना जाता है। कि बड़े बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है। विक्रमकी बारहवीं अनन्तवीर्य अर्थात् सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकतेरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान् वादी देवसूरिने लंकदेवके 'प्रमाणसंग्रह' पर 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' या अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा० पृ०,३४६ ) में 'प्रमाणसंग्रहालंकार' नामका वृहद् टीका-ग्रन्थ लिखा 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रथकी एक पंक्ति उद्धृत करके है परन्तु आज वह उपलब्ध नहीं होरहा। क्या उसके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है। यथा " अस्तित्व प्रतिपादक कोई उल्लेख हैं जिनसे विद्वानोंकी 'यत्त विद्यानन्द"""महोदये च "कालान्तरावि उक्त अनुश्रुतिको पोषण मिले ? स्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रती २ समाधान-हां, प्रमाणसंग्रहभाष्य अथवा यते" इति वदन संस्कारधारणयोरैकायमचकथत्। प्रमाणसंग्रहालंकारके उल्लेख मिलते हैं । स्वयं सिद्धिइससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' विनिश्चयटीकाकारने सिद्धिविनिश्चयटीकामें उसके विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीनसौ चारसो वर्ष जानने तथा कथन करनेकी सूचनाएँ की हैं। यथा अनेक जगह उल्लेख किये हैं और उसमें विशेष बाद तक भी विद्वानोंकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका (१) 'इति चर्चितं प्रमाणसंग्रहभाष्ये' -कसि० वेषय रहा है। आश्चर्य नहीं कि उसकी सैकडोंकापियां न हो पानेसे वह सब विद्वानोंको शायद प्राप्त नहीं हो वि० टी० लि०प०१२ । सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहस्री आदिको (२) 'इत्युक्त प्रमाणसंग्रहालंकारे'-सि० लि० ५० १६ । तरह वादिराज आदिने अपने ग्रंथों में उसके उद्धरण (३) 'शेषमत्र प्रमाणसंग्रहभाष्यात्प्रत्येयम्' -सि०प० प्रहण न किये हों । जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित है कि वह बनने के कईसौ वर्ष बाद तक विद्यमान रहा (४) 'प्रपंचस्तु नेहोक्तो प्रथगौरवात् प्रमाणसंग्रहहै। संभव है वह अबभी किसी लायब्रेरी या सरस्वती भाष्याज्ञेयः'-सिलि०प०६२१। भंडार में दीमकोंका भक्ष्य बना पड़ा हो। अन्वेषण ५) 'प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तम्'-सि० लि. ५० करनेपर अकलंक देवके प्रमाणसंग्रह तथा अनन्तवीये ११०३। की सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर (६) 'दोषो रागादिाख्यातः प्रमाणसंग्रहभाष्ये'शास्त्र भंडार में मिल जाय; क्योंकि उनके यहां शास्त्रों सिलि०प०१२२२ । की सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोंके हाथोंमें - रही है और अबभी कितने ही स्थानों पर चलती है * वीर सेवा मन्दिरमें जो सिद्धिविनिश्चय टीकाकी मुनि पुण्यविजयजीके अनग्रहसे वि० लिखित प्रति मौजूद है उसके पत्रों की संख्या डालीगई है। ३६२। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] इन संदिग्ध उल्लेखोंसे 'प्रमाण संग्रह भाष्य' अथवा 'प्रमाणसंग्रहालंकार' की अस्तित्वविषयका विद्वद्-अनुश्रुतिको जहां पोषण मिलता है वहां उसकी महत्ता. अपूर्वता और वृहत्ता भी प्रकट होती है। ऐसा पूर्वग्रन्थ मालूम नहीं इस समय मौजूद है अथवा नष्ट होगया है ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसी लायब्रेरी में मौजूद है तो उसका अनुसंधान होना चाहिये। कितने खेद की बात है कि हमारी लापरवाही से हमारे विशाल साहित्योद्यानमेंसे ऐसे ऐसे सुन्दर और सुगन्धित प्रन्थ- प्रसून हमारी नज़रोंसे ओझल हो गये । यदि हम मालियोंने अपने इस विशाल बाकी जागरूक होकर रक्षा की होती तो वह आज कितना हरा-भरा दिखता और लोग उसे देख देखकर जैन - साहित्यपर कितने मुग्ध और प्रसन्न होते । विद्वानों को ऐसे प्रन्थोंका पता लगानेका पूरा उद्योग करना चाहिये ! अनेकान्त ३ शंका - गोम्मटसार जीवकाण्ड और धवला में जो नित्यनिगोद और इतर निगोदके लक्षण पाये जाते हैं क्या उनसे भी प्राचीन उनके लक्षण मिलते हैं ? ३ समाधान - हां, मिलते है । तत्त्वार्थवार्तिकमें कलङ्कदेवने उनके निम्न प्रकार लक्षण दिये हैं 'त्रिकाले सभावयोग्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोताः, त्रसभावमवाप्ता श्रवाप्स्यन्ति ये तेऽनित्यनिगोताः । त०वा० पृ० १०० अर्थात् जो तीनों कालों में भी त्रसभावके योग्य नहीं हैं वे नित्यनिगोत हैं और जो प्रसभावको प्राप्त हुए हैं तथा प्राप्त होंगे वे अनित्यनिगोत हैं । ४ शंका- 'संजद' पदको चर्चाके समय आपने 'संजद पदके सम्बन्ध में अकलङ्कदेवका महत्वपूर्ण अभिमत' लेख में यह बतलाया था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक के इस प्रकरण में षट्खण्डागम के सूत्रोंका प्रायः अनुवाद दिया है । इसपर कुछ विद्वानों का [ वर्षे 8 कहना था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिकमें षट्खखडागमका उपयोग किया ही नहीं । क्या उनका यह कहना ठीक है ? यदि है तब आपने तत्त्वार्थवार्त्तिकमें षट्खण्डागमके सूत्रोंका अनुवाद कैसे बतलाया ? ४ समाधान - हम आपको ऐसे अनेक प्रमाण नोचे देते हैं जिनसे आप और वे विद्वान् यह माननेको बाध्य होंगे कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्त्तिक में षट्खण्डागमका खूब उपयोग किया है, यथा (१) एवं हि समयोऽवस्थितः सत्प्ररूपणायां कायानुवादे - "त्रसा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेव -तस्व० पृ० लिन इति" " यह षट्खण्डागमके निम्न सूत्रका संस्कृतानुवाद है"तसकाइया बीई दिय-पहुडि जाव अजोगि केवलि त्ति" । -षट्ख० १-१-४४ (२) 'आगमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणादेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता ।' -तस्वा० पृ० ५५ इसमें सत्प्ररूपणा २५ वें सूत्रकी ओर स्पष्ट संकेत है । (३) 'एवं हि उक्तमार्षे वर्गणायां विध नो आगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिवैस्र सिकबन्ध निर्देश: प्रोक्तः विषमरूक्षतायांच बन्धः समस्निग्धतायां समरूक्षतायां च भेदः इति तदनुसारेण सूत्रमुक्तम्' -तत्त्वा० पृ० २४२ यहां पांचवें वर्गेणा खण्डका स्पष्ट उल्लेख है । (४) 'स्यादेतदेवमागमः प्रवृत्तः । पंचेन्द्रिया असंज्ञिपंचेन्द्रियादारभ्य आ प्रयोगकेवलिन:' पृ० ६३ यह षट्खण्डागमके इस सूत्रका अक्षरश: संस्कृतानुवाद है"पंचिदिया सपिंचिंदिय - पहुडि जाव जोगिकेवल त्ति" -१-१-३७॥ इन प्रमाणोंसे असंदिग्ध है कि कलङ्कदेवने तत्त्वार्थवात्तिक में पट्खण्डागमका अनुवादादिरूपसे उपयोग किया है । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ) शका समाधान ५-शंका-मनुष्यगतिमें आठ वर्षकी अवस्थामें । अर्थात् 'वे साधु शरीरमें निर्मम हुए जहां सूर्य भी सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है, ऐसा कहा जाता है, अस्त हो जाता है वहां ठहर जाते हैं कुछ भी अपेक्षा इसमें क्या कोई पागम प्रमाण है ? नहीं करते। और वे किसीसे बन्धे हुए नहीं, स्वतन्त्र ५-समाधान-हां, उसमें आगम प्रमाण है। हैं, बिजलीके समान दृष्टनष्ट हैं, इसलिये अपरिग्रह हैं। तस्वार्थवार्तिकमें अकलङ्गदेवने लिखा है कि 'पर्या ७-शंका--लोग कहते हैं कि दिगम्बरजैन मुनि तक मनुष्य ही सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तक वर्षावास चतुर्मास) के अतिरिक्त एक जगह एक दिन मनुष्य नहीं और पर्याप्तक मनुष्य आठ वर्ष की अवस्था रात या ज्यादासे ज्यादा पांच दिन-रात तक ठहर से ऊपर उसको उत्पन्न करते हैं, इससे कममें नहीं। सकते हैं। पीछे वे वहांसे दूसरी जगहको जरूर यथा विहार कर जाते हैं। इसे वे सिद्धान्त और शास्त्रोंका 'मनुष्या उत्पादयन्तः पर्याप्त का उत्पादयन्ति नापर्या- कथन बतलाते हैं। फिर आचार्य शांतिसागरजी प्तकाः । पर्याप्तकाश्चाऽष्टवस्थितरुपयुत्पादयन्ति नाध- महाराज अपने संघ सहित वर्षभर शोलापुर शहर में स्तात् । -पृ०७१। क्यों ठहरे ? क्या कोई ऐसा अपवाद है ? . ६- शंका-दिगम्बर मुनि जब विहार कर रहे ७- समाधान--लोगोंका कहना ठीक है। दिगहों और रास्ते में सूर्य अस्त हो जाय तथा आस-पास म्बर जन मुनि म्बर जैन मुनि गांव में एक रात और शहरमें पांच रात कोई गांव या शहर भी न हो तो क्या विहार बंद तक ठहरते हैं। ऐसा सिद्धान्त है और उसे शाखोंमें करके वे वहीं ठहर जायेंगे अथवा क्या करेंगे ? बतलाया गया है। मूलाचारमें और जटासिंहनन्दिके वरांगचरितमें यही कहा है। यथा६-समाधान-जहां सूर्य अस्त होजायगा वहीं ठहर जायेंगे उससे आगे नहीं जायेंगे। भले ही वहां गामेयरादिवासी णयरे पंचाहवासिणोधीरा । गांव या शहर न हो। क्योंकि मुनिराज ईर्यासमिति सवणा फासुविहारी विवित्तएगंतवासी य ॥ के पालक होते हैं और सूर्यास्त होनेपर ईर्यासमितिका -मूला० ७८५ पालन बन नहीं सकता और इसीलिये सूर्य जहां उदय ग्रामैकरात्रं नगरे चं पञ्च समूपुरव्यग्रमनःप्रचाराः होता है वहांसे वे तव नगर या गांवके लिये विहार न किंचिदप्यप्रतिबाधमाना विहारकाले समिता करते हैं, जैसा आचार्य जटासिंहनन्दिने वरांङ्गचरितमें कहा है: विजिहः॥ -वरांग० ३०-४५ यस्मिंस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्य परन्तु गांव या शहरमें वर्षों रहना मुनियोंकेलिये न उत्सर्ग बतलाया और न अपवाद । स्तत्रैव संवासमुखा बभूवः।। भगवती आराधनामें मुनियों के एक जगह कितने यत्रोदयं प्राप सहस्ररश्मि-- काल तक ठहरने और बादमें न ठहरनेके सम्बन्धमें र्यातास्ततोऽ था पुरि वाऽप्रसंगाः॥ विस्तृत विचार किया गया है। लेकिन वहां भी एक जगह वर्षों ठहरना मुनियों के लिये विहित नहीं बतइसी बातको मुनियोंके आचार-प्रतिपादक प्रधान लाया। नौवें और दशवें स्थितिकल्पोंकी विवेचना प्रन्थ मूलाचारमें (७८४) निम्न रूपसे बतलाया है ' करते हुए विजयोदया और मूलाराधना दोनों टीकाओं __में सिर्फ इतना ही प्रतिपादन किया है कि नौवें कल्पमें ते शिम्ममा सरीरे जत्थत्थमिदा वसांत आणएदा। मनि एक एक ऋतमें एक एक मास एक जगह ठहरते सवणा अप्पडिवद्धा विज्जू तह दिट्टणट्ठा या ॥ हैं। यदि ज्यादा दिन ठहरें तो 'उद्गमादि दोषोंका For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] परिहार नहीं होता, वसतिकापर प्रेम उत्पन्न होता है, सुखमें लम्पटपना उत्पन्न होता है, आलस्य आता है, सुकुमारताकी भावना उत्पन्न होती है, जिन श्रावकों के यहां आहार पूर्व में हुआ था वहां ही पुनरपि आहार • लेना पड़ता है, ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये एक स्थान चिरकाल तक रहते नहीं हैं।' 'दशवें स्थितिकल्पमें चतुर्मासमें एक ही स्थानपर रहने का विधान किया है और १२० दिन एक स्थानपर रह सकनेका उत्सर्ग नियम बतलाया है । कमती बढ़ती दिन ठहरने का अपवाद नियम भी इसप्रकार बतलाया है कि श्रुतग्रहण, (अभ्यास) वृष्टिकी बहुलता शक्तिका अभाव, वैयावृत्य करना आदि प्रयोजन हों तो ३६ दिन और अधिक ठहर सकते हैं अर्थात् श्राषाढशुक्ला दशमीसे प्रारम्भ कर कार्त्तिक पौर्णमासीके आगे तीस दिन तक एक स्थानमें और अधिक रह सकते हैं । कम दिन ठहरने के कारण ये बतलाये हैं कि मरी रोग, दुर्भिक्ष, ग्राम अथवा देशके लोगोंको राज्य क्रान्ति अनेकान्त दिसे अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिकों में जाना पड़े, संधके नाशका निमित्त उपस्थित हो जाय आदि, तो मुनि चतुर्मासमें भी अन्य स्थानको विहार कर जाते हैं । विहार न करनेपर रत्नत्रयके नाशकी सम्भावना होती है । इसलिये आषाढ़ पूर्णिमा बीत जानेपर प्रतिपदा आदि तिथियों में दूसरे स्थानको जा सकते हैं और इसतरह एकसौबीस दिनोंमेंसे बीस दिन कम हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त वर्षों ठहरनेका वहां कोई अपवाद नहीं है । यथा "ऋतुषु षट्सु एकैकमेव मासमेकत्र वसतिरन्यदा विहरति इत्ययं नवमः स्थितिकल्पः । rasa चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहर्तुं क्षमः । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, [ वर्ष ६ अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः । पज्जो समण कप्पो नाम दशमः । वर्षा - कालस्य चतुषु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमण - त्यागः । स्थावरजङ्गमजीवाकुलो हि तदा क्षितिः तदा भ्रमणे महानसंयमः, वृष्टया शीतवातपातेन वात्मविराधना । पतेद्वाप्यादिषु स्थाणुकण्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नैर्जलेन कर्द्दमेन बाध्यत इति विंशत्यधिकं दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः । कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वासस्थानं, संयतानां आषाढ शुद्ध दशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्य । स्त्रिंशद्दिवसावस्थानम् । वृष्टिबहुलता, श्रतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्य करणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्ट--- कालः । मार्यां, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषोढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिष् दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विंशति- दिवसा एतदपेच्य हीनता कालस्य एष दशमः स्थिति-कल्पः ।" - विजयोदया टी० पृ० ६१६ । चायै शान्तिसागर महाराज सङ्घ सहित वर्षभर शोलापुर शहर में किस दृष्टि अथवा किस शास्त्र के आधारसे ठहरे रहे। इस सम्बन्धमें सङ्घको अपनी दृष्टि स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे भविष्य में दिग म्बर मुनिराजों में शिथिलाचारिता और न बढ़ जाय । - दरबारीलाल कोठिया For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध १-केन्द्रीय शिक्षा-संस्थाका उद्घाटन और है। इसकी ओर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिये। लेडी माउन्टबेटनका भाषण अच्छे नागरिक तैयार करनेके लिये जो लड़ाई हमें ___ लड़नी है उसमें इस बातका विशेष महत्व होगा। ___ गत १६ दिसम्बरको दिल्लीमें एक केन्द्रीय शिक्षा २-उद्योगसम्मेलनमें पं० नेहरूका अभिसंस्थाकी स्थापना होकर उसका उद्घाटन समारोह मनाया गया था । उद्घाटन महामाननीया लेडी मांउ- भाषणटबेटनने किया था। इस अवसरपर भाषण करते अभी हाल में १८ दिसम्बर १९४७ को उद्योग मंत्री हुए आपने राष्ट्रीय अध्यापकोंकी योग्यता और चरित्र डा० मुखर्जीद्वारा एक उद्योगसम्मेलन बुलाया गया था निर्माणपर महत्त्वपूर्ण जोर दिया। आपने कहा:- उममें भारतके प्रधान मंत्री पं० जवाहरलाल नेहरूने ___ 'इस केन्द्रीय शिक्षा-संस्थाका द्वार खोलते हुए औद्योगिक शान्तिकी आवश्यकता व उत्पादनमें वृद्धि मुझे बड़ी प्रसन्नता होरही है । यह कहना अत्युक्तिपूर्ण करने के महत्व पर जोर देते हुए एक विस्तृत अभिन होगा कि भारत के अध्यापकोंको योग्यतापर ही भाषण किया था। आपने कहा:भावी सभ्यताके प्रति भारतका कार्य-भार अधिकांशत: 'मैत्री-पूर्ण सहयोगमें हड़तालों तथा सालेबंदियों निर्भर करेगा। पिछले तीन महीनोंमें हमारा ध्यान को बन्द करके कुछ समय तक औद्योगिक शान्ति अधिकतर मनुष्योंका जीवन बचाने के कार्यमें लगारहा कायम रखना चाहिये। मौजूदा कितने ही आधारभूत है, किन्तु यह शिक्षा-संस्था खोलकर सरकारने स्पष्ट उद्योगोंका राष्ट्रीयकरण होना चाहिये । परन्तु समस्या कर दिया है कि कठिन समस्याओं में फंस जाने के कारण का अधिकतम हल यह हो सकता है कि सरकारको वह दीर्घ-कालीन रचनात्मक कार्य-क्रमके प्रति उदा- नये उद्योगोंकी ओर अधिक ध्यान देना चाहिये और सीन नहीं है। उन्हींका अधिक मात्रामें नियंत्रण होना चाहिये । यह शिक्षामंत्री महोदयने अपने भाषणमें बताया है। सब मैं इसलिये कहरहा हूं कि मैं वैज्ञानिक ढंगसे सोच कि यदि ११ वर्ष तकको अवस्था वाले प्राय: ३ करोड़ विचार करनेका आदी रहा हूं, मैं स्थिर रहनेकी अपेक्षा बालकोंकी प्रारम्भिक शिक्षा-व्यवस्था करनी है तो आगे बढ़नेकी बात सोचता हूं। आज कल व्यवसाइसके लिये ही भारी संख्यामें अध्यापकोंको आवश्यकता योंके सम्बन्धमें विचार करते समय लोग पूजीवापड़ेगी। और हर शिक्षित व्यक्तिसे इस कार्य में सहायता दियों, समाजवादियों अथवा कम्यूनिष्टोंकी बात सोचते लेनी होगी। शिक्षाके प्रसार-कार्यमें, क्या मैं शैक्षिक हैं। किन्तु ये बातें वर्तमान स्थिति पर कायम रहनेकी फल्मों तथा बेतारके माध्यमोंकी शिक्षाप्रद उपयोगिता हैं, आगे बढ़नेकी नहीं। यह विचारधारा गये-बीते का भी सुझाव रख सकती हूं मैं समझती हूं इस कार्यके युगकी हैं। और इसे हमें त्याग देना चाहिये । कुछ लिये उक्त दोनों ही साधनोंके विस्तारके लिये भारतमें प्रगति शोल दृष्टिकोण रखने पर हम साफ देखते हैं काफी बड़ा क्षेत्र है। कि यह एक महत्त्वपूर्ण संक्रान्तिकाल है जिसमें शक्ति हम सभी जान चुके हैं कि केवल पुस्तकीय के नये स्रोतोंका अनुसंधान किया जा रहा है । यह योग्यता तथा विशिष्ट कुशलता पर्याप्त नहीं है और प्रौद्योगिक क्रान्ति या वैद्यत्निक क्रान्ति है। किन्तु चरित्र-बलका उपार्जन भी परमावश्यक है । अध्यापक महत्त्व में इससेभी अधिक व्यापक है । इसमें दस पंद्रह गण अपने छात्रोंको, केवल अपनी योग्यतासे ही या बीस साल लग जायेंगे और आज का सभी कुछ महीं, बल्कि अपने चरित्रसे भी प्रभावित कर सकता पुराना पड़ जायगा । सम्भव है आज आप जिस For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] उद्योगको प्राप्त करनेकी चेष्टामें हों, कल उसका कोई महत्त्व ही न रह जाय । यदि आप भविष्य के खयालसे देखेंतो वर्तमानके कितने ही संघर्ष व्यर्थ जान पड़ने लगेंगे या उनका स्वरूप बदल जायेगा और तब आप अपनेको पुराने विचारोंकी गुलामी से मुक्त पाने लगेंगे जहां लायाजा मेरा ताल्लुक है, मैं देशकी बड़ी योजनाऔर किसी भी चीजसे ज्यादा महत्व देता हूं, मेरा विचार है कि देशमें इन्हींसे नयी सम्पत्ति प्राप्त होगी । जब कभी मैं भारतका कोई मानचित्र देखता हूं तो हिमालय पर्वत - श्रेणीपर मेरी दृष्टि पड़ती है और मैं उस अनन्तशक्तिकी बात सोचता हूं जो उस श्रेणीमें बेकार छिपी पड़ी है, जिसे काम में सकता है और जिसका यदि तेजी से विकास किया जासके तो जो सम्पूर्ण भारत को ही बदल सकती है यह शक्तिका आश्चर्य जनक और सम्भवत: संसार में सबसे महान् स्रोत है । इसी लिये मैं महान नदी घाटी योजनाओं, बांधों, विशाल जलकुण्डों तथा जलविद्युत - केन्द्रोंको अधिक महत्व देता हूँ । ये सब आपको आगे ले जायेंगे। पर शक्ति उत्पन्न करनेसे पहले हमें उसका नियंत्रण और उपयोग भी तो जानना चाहिये । अनेकान्त मुझे आशा है कि इस सम्मेलनमें कमसे कम यह ठोस परिणाम तो अवश्य निकलेगा कि हम लोग मैत्रीपूर्ण ढंग से काम आरम्भ करके एक अवधिके लिये ओद्योगिक शान्ति बनाये रखनेका फैसला कर लेगें और एक ऐसा ढंग निकाल लेंगे, जिससे प्रत्येक व्यक्ति के प्रति न्याय का व्यवहार होसके। इस बीचमें हम शान्तिपूर्वक बैठकर व्यापक नीतियोंके सम्बन्ध में सोच विचार कर सकेंगे । ४ जनवरी १६४८ को वर्मा कितने ही वर्षोंकी ब्रिटिश पराधीनताके जुएसे उन्मुक्त होकर सर्वतंत्र स्वतंत्र होगया । यह स्मरणीय रहे कि वर्माको यह स्वतंत्रता भारतकी तरह बिना रक्तपात किये ही प्राप्त होगई है । भारतद्वारा उसकी इस स्वतंत्रताका पूर्व स्वागत किया गया और भारतवर्षकी राजधानी देहलीमें विभिन्न स्थानोंपर इस स्वाधीनता दिवसके उपलक्ष में अनेक समारोहों का आयोजन किया गया। इस अवसर पर भारतवर्षके गवर्नरजनरल लार्ड माउण्ट बेटन, भारतके प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू, उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल, राष्ट्रपति डा० राजेन्द्रप्रसाद तथा मंत्रिमंडलके अन्य सदस्यों- जैसे सरदार बलदेवसिंह, डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डा० बी० आर० अम्बेदकर, राजकुमारी अमृतकौर, श्रीजगजीवनराम, डा० जानमथाई, श्री एन० गोपाल स्वामी अय्यंगर, डा० रीफ, बर्मास्थित हाई कमिश्नर, प्रोफेसर राधाकृष्णन, सर सी० बी० रमन, sro कालीदास नाग, और प्रोफेसर बी० एम० बरुआ ने सन्देश एवं भाषण दिये पण्डित नेहरू ने बर्माकी स्वतंत्रता को एशिया विशेष कर भारत के लिये बड़े महत्त्वकी घटना बतलाते हुए कहा- 'भारत व बर्माका परस्पर इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है कि यदि एक देशमें कुछ होता है तो दूसरे पर उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है । मुझे इसमें कुछ भी सन्देह नहीं हैं कि भविष्य में हमारा सम्बन्ध और भी अधिक घनिष्ठ होगा । यह सिर्फ हमारी एक जैसी भावनाका हो ३ सरकारी कागजातोंमे 'श्री' या 'श्रीमान' नहीं, बल्कि विश्व और एशियाकी घटनाओं का भी शब्दों का प्रयोग तकाजा है। शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब अन्य देशोंके साथ मिलकर हम सहयोगकी एक व्यवस्थाका निर्माण कर सकेंगे' । उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने अपने सन्देश में कहा - 'हम जानते हैं और अनुभव करते हैं कि [ वर्षे ६ ४ - हमारा पड़ोसी देश वर्मा स्वतंत्र और भारतद्वारा अपूर्व स्वागत - पंजाबको सरकारने आदेश जारी किये हैं कि अब से आगे समस्त सरकारी कागजात और फाइलों में 'मिस्टर' और 'एसक्कायर' इन अंग्रेजी शब्दों के स्थान में 'श्री' या 'श्रीमान्' शब्दों का प्रयोग किया जाय । For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] भारतकी स्वाधीनता अन्य उन देशोंकी स्वाधीनताकी भूमिकामात्र है, जो अभी पराधीनता में पड़े हुए हैं। इतिहास में भारत के बर्मा से निकटतम सम्बन्ध रहे हैं। लगभग एक शताब्दी तक दोनों ही देश विदेशी बेड़ियों में जकड़े रहे हैं । बर्माके आर्थिक जीवनमें भारतीयोंने जो हिस्सा लिया है वह कुछ थोड़ा नहीं है । हम सदासे बर्माके स्वाधीनता - संग्रामके प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति प्रकट करते रहे हैं। जैसे-जैसे वर्ष बीतते जायेंगे वैसे-वैसे स्वाधीनतामें साधीपनकी भावनाका विकास होता - विविध जायगा - - इसी तरह जिस तरह कि पराधीनताको बेड़ियों में जकड़े रहने पर भी इनके दृष्टिकोण में साम्य था । हमारी कामना है कि 'वर्मा पुनर्निर्माण तथा पुनस्संस्थापनके काय में प्रगति करे' । डा० राजेन्द्रप्रसाद ने जिन्होंने रंगूनके स्वाधीनता समारोह में बर्मा जाकर भारतका प्रतिनिधित्व किया, हिन्दीमें दिये हुए अपने सन्देशमें बर्मा राष्ट्रको भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी तरफसे. बिहारकी तरफ से जहां बुद्धको बोधिसत्त्वका ज्ञानका प्रकाश मिला था, सम्पूर्ण भारतकी तरफसे, विधानपरिषद की तरफ से और स्वयं अपनी तरफसे बधाई दी । लार्ड माउण्ट बैटनने बर्माके प्रति भारतकी सद्भा बना प्रकट करते हुए अपने महत्वके भाषण में कहाश्राज बर्माका स्वाधीनता दिवस है। मुझे प्रसन्नता है कि हमारे स्वाधीनता दिवसके कुछ समय बाद ही यह मनाया जारहा है। गत चार वर्षोंसे बर्माके मामलों में मैं घनिष्ठता से निरन्तर रुचि लेता रहा हूं और इस प्रकार वर्मा देश और वर्मी लोगोंके लिये मेरे हृदय में वास्तविक स्नेह उत्पन्न हो गया है। दक्षिण पूर्वी एशिया कमानके स्थापित होतेही वर्मा क्षेत्र के शासन प्रभार मुझे सौंप दिया गया था । ज्यों ज्यों जापा योंको हम पीछे हटाते थे त्यों त्यों यह क्षेत्र बढ़ता जाता था । वर्माको जापानसे मुक्त कराने के समय तक और इसके कुछ महीने बाद तक मैं इस प्रकार से धर्मा सैन्य गवर्नर था । ४१ इस अवसर पर मैं स्वर्गीय जनरल अगसानके प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करता हूं । वे देशभक्त थे और उनकी यह प्रबल अभिलाषा थी कि उनका देश सदा स्वतंत्र रहे और यही कारण था कि उन्होंने अपने आपको और अपनी वर्मी देशभक्त सेनाको जापान के विरुद्ध लड़नेके लिये मुझे सौंप दिया था । उन्होंने और उनकी सेनाने जो हमारी सेनाको सहायता दी वह बहुत सराहनीय थी। वर्मा मुक्त हो जाने के बाद उन्होंने उच्चकोटिकी राजनीतिका परिचय दिया । रंगून और कैन्डी में मेरी उनसे कई बार मुलाकात हुई। मुझे विश्वास होगया था । कि वे अवश्य ही देशके महान नेता बनेंगे। मुझे आशा थी कि कितने ही वर्षों तक वर्माका भाग्य - निर्माण करनेके लिये वे चिरकाल तक जीवित रहेंगे। उनकी भीषण हत्यासे हृदय विदारक क्षति पहुंची है। अपनी उपाधिके साथ बर्माका नाम सम्बद्ध करने का मुझे गौरव प्राप्त है । इस देश से मेरा घनिष्ठ सम्पर्क रहा है । इसलिये इस दिवसको विशिष्ट रूपसे मनाने के लिये मैं उत्सुक था । मेरी इच्छा थी कि भारत की रसे वर्माको कोई उपहार दिया जाय । कलकत्ताके अजायबघर में वर्माका एक राजसिंहासन रखा हुआ है । मांडलेमें लुटदाभवन में जब वर्माके नरेश थीवा गयेथे वे इसपर बैठे थे । यह उच्च सिंहासन सागौन लकड़ीका बना है और इसमें सोनेका प्रचुरतासे काम किया हुआ है। और नरेश थीवाके उस प्रसिद्ध सिंहासनका यह प्रतिरूप है । जब मैं हालही में लन्दन गया था तो मैंने सम्राट से इस सम्बन्ध में परामर्श किया भारत सरकार के इस प्रस्तावको उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे मान लिया कि बर्माकी स्वाधीनता के अवसरपर यह सिंहासन उसे भेंट कर दिया जाय । यह सिंहासन इतना भारी है कि यह यहां नहीं लाया जा सकता था । इसे कलकत्ता से ही सीधे रंगून भेज दिया जायेगा । मुझे आशा है कि मार्च में वर्मा जाने का मैं वर्मा प्रधान-मंत्रीका निमंत्रण स्वीकार कर सकूंगा । यदि ऐसा हुआ तो उस समय मैं स्वयं यह सिंहासन भेंट कर सकूँगा । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ कलकत्ताके सरकारी भवनमें सिंहासनभवनके कष्टपूर्ण घड़ियोंसे गुजरना पड़ रहा है । स्वतंत्रताके भागमें एक छोटासा तख्त पोश है। यहभी जन्मसे पूर्व कष्टोंका भोगना अनिवार्य है। फिर भी नरेश थीवाका है और १८८५ में वर्माके तृतीय युद्ध में कष्टोंसे स्वाधीनताका उदय होता है और कल्याण मांडलेके राजमहलसे लाया गया था। यही तख्तपोश होता है और मुझे आशा है कि भविष्यमें वर्मी जनता आपके सामने है जो कलकत्ता-स्थित राजसिंहासनके के लिये कल्याणकारी और रचनात्मक कार्य होगा। अतिरिक्त मैं सम्राट और भारतकी सरकार तथा भारत अतोतकी तरह भविष्यमें भी भारतीय राष्ट्र वर्मी राष्ट्रके के लोगोंकी ओरसे वर्मा-राजदूत की मार्फत वर्माके कंधोंसे कंधा लगा कर खड़ा होगा और. हमें सौभाग्य लोगोंको भेंट कर रहा हूं। इन दोनों उपहारोंके साथ या दुर्भाग्य जिसका भी सामना करना पड़े हम एक वर्मा के प्रति हम भारतकी सहृदयतापूर्ण शुभ कामनाऐं साथ ही उसका सामना करेंगे। भेजरहे हैं। हम री यह प्रबल आशा और दृढविश्वास है कि भविष्यमें वर्मा शान्ति और स्वतंत्रताके वाता ५-भगरान महावीरके जन्म दिवसकी वरणमें फूले फलेगा'। यू० पी० प्रान्तमें छुट्टीकी सरकारी घोषणा___ इसी अवसर पर पण्डित नेहरू ने दिल्लीके दर- पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि संयुक्तबारभवनमें दिये अपने अन्य भाषणमें वर्मा और प्रान्तको लोकप्रिय राष्ट्रीय सरकारने संयुक्तप्रान्तमें भारतके सम्बन्धोंपर प्रकाश डालते हुए कहा- भगवान महावीरके, जो अहिंसा और अपरिग्रहके ___ 'मैं भारतकी सरकार और जनताकी तरफसे वर्मी अनन्य उपासक तथा सर्वोच्च प्रचारक थे, जन्मदिनकी सङ्घके प्रजातन्त्रका अभिवादन करता हूं। केवल वर्मा एक दिनकी इस वर्षसे छुट्टे की घोषणा कर दी है। के लिये ही नहीं, बल्कि भारत तथा सम्पूर्ण एशियाके अब समस्त प्रांतमें महावीर-जयन्तीकी सार्वजनिक लिये यह एक महान् तथा पवित्र दिन है । हम भारतमें छुट्टी रहा करेगी। कई वर्षोंसे समाज और जैनसंदेश इससे विशेष रूपसे प्रभावित हुए हैं, क्योंकि न जाने आदि पत्र इस छुट्टीके लिये लगातार प्रयत्न कर रहे कितने वर्षोंसे हमारा वर्मासे सम्बन्ध रहा है। अतीत थे। यद्यपि यह छड़ी बहुत पहले ही घोषित हो जानी कालसे हमारे प्राचीन ग्रन्थों में वर्माको स्वर्ग देश कहा चाहिये थी फिर भी सरकारने अपनी लोक-प्रियताका जाता रहा है । अतीत कालमें ही किन्तु कुछ समय परिचय देकर जो सार्वजनिक छुट्टीकी घोषणा की है बाद हमने वर्माको एक संदेश दिया, जो भारतके उसके लिये हम समाजकी ओरसे उसे धन्यवाद दिये महान्तम पुत्र गौतम बुद्धका संदेश था । इस संदेशके विना नहीं रह सकते । अबतक निम्न स्थानोंमें महाकारण वर्मा और भारत इन २००० या कुछ अधिक वीर जयन्तीकी छुट्टी स्वीकृत हो चुकी है:- यू०पी०, वर्षों में एक अटूट बन्धनोंमें बंधे रहे हैं । अन्य बातोंके बिहार, सी० पी०, इन्दौर, रीवां, भोपाल, भरतपुर, अतिरिक्त इसमें शान्ति तथा सदाचरणका सन्देश बिजावर, बरार प्रान्त, अलवर, बून्दी, कोटा, ओरछा, था और आज अन्य किसी भी बातकी अपेक्षा शान्ति बीकानेर, अजयगढ़, अकलकोट, अलीराजपुर ओंध, और सदाचरणकी आवश्यकता है। और इस लिये अवागढ़, अजमतगढ़, अथोलिक, बडवानी, बाघाट, आज हम वर्माके प्रजातंत्रके अविर्भावका स्वागत बजाना, बालसीनौर, बालसन, वनेड़ा, बांसवाड़ा, करते हैं। बरवाला, भोट, बिलखा, बगलरा, बरम्बा, बोनई ___ अतीतमें हम दोनों ही काफी अरसे तक पृष्ठभूमिमें खंभात, छगभारवर, चम्बा, छतरपुर, चूड़ा, छोठा रहे हैं । हम दोनोंही हर्ष और विषादमें भागीदार रहे उदैपुर, चौमू, चुइरवान दासपला, दतिया, धार हैं और स्वाधीनता प्राप्तिके समय हम दोनोंको अनेक धरमपुर, धौलतपुर, ध्रांगधरा, धौल, दुजाना, डूगर For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] साहित्यपरिचय और समालोचन [ ४३ पुर, दांता, देवासजुनियर, देवाससीनीयर, घोड़ासर, भारतके शिक्षामंत्रीके कार्यालयसे प्रकाशित एक हिंडोल, हथवा, ईडर, जयपुर, जामनगर, झाबश्रा, विज्ञप्तिमें सूचित किया गया है कि १८५१ की लन्दन झालावाड़, मींद, जोधपुर, जूनागड़, जम्बूगोड़ा, प्रदर्शनीके शाही कमिश्नरोंद्वारा इसवर्ष भारतीय विश्वकरौली, कटोसन, कवर्धा, क्योंमर, खडौल, खजूर- विद्यालयों अथवा जिन संस्थाओं में विज्ञानकी शिक्षा गांव खंडेला, खनियाधाना, खिरासरा, कोठी, कोटरा- देनेका पोस्ट ग्रेजुएट विभाग विद्यमान है उनके विसांगानी, कुरुन्दवाड़ सीनियर, किशनगढ़, केकड़ी द्यार्थियोंको विज्ञान-सम्बन्धी अनुसन्धानके लिये एक खैरागढ़, कोल्हापुर, कन्केर कुरवई, लखतर, लाठी, छात्रवृत्ति दी जायगी। यह छात्रवृत्ति ३५० पौंड वालोम्बड़ी, लोधीका, लुनावाड़ा, महीयर, मलिया, मां- षिक होगी जो दो साल के लिये दी जायेगी। यह छात्रडवा, मांगरौल, मिरजजूनियर, मौहनपुर, मूली, वृत्ति उस विद्यार्थीको दी जायेगी, जिसने विश्व विद्यासुस्थान, मोहम्दी, मनिपुर, मानसा, मकराई, नागौद, लयका अपना पूरा कोर्स समाप्त कर लिया हो और नलागढ़, नन्दगांवराज नयागढ़, नरसिंहगढ़, नान- जिसमें मौलिक वैज्ञानिक अनुसन्धानकी प्रतिभा पाई पाड़ा, नाभा, पन्ना, जुनिया, पटना पाटौदी पंचकोट, जाती हो । निर्वाचित विद्यार्थीको कमिश्नरों द्वारा स्वीपादड़ी, परतापगढ़, पेथापुर, फल्टन, पोरबन्दर, कृत किसी भी विदेशी संस्थामें रहकर तात्त्विक अथवा रायसांकली, राजकोट, राजपीपला, रानासन, रतला- प्रयुक्त विज्ञानको किसी शाखामें अनुसन्धान करना म, सौलाना, शाहपुरा, सकती, समथर, सोंठ सायला, होगा। सीकर, सिरोही, सीतामऊ, सुदासना, थाना देवली, इस छात्रवृत्तिके लिये भारतीय डोमीनियम अथवा टोंक, बड़ियावला, बलासना, वरसोड़ा, घसादर, भारतीय रियासतोंके सभी ऐसे प्रजाजन आवेदनवीरपुर, विठ्ठलगढ़, बढ़वान, वाव, वाई पत्र भेज सकते हैं । जिनकी आयु १ मई १६४८ को २६ उनियारा और कुरुम्दवाड़ जूनियर। वर्षसे कम बैठती हो। भारतमें रहने वाले अथवा __ यदि इन स्थानोंके अतिरिक्त भी और कहीं छुट्टी विदेशमें रहनेवाले विद्यार्थियोंको अपने आवेदनपत्र स्वीकृत हुई हो तो पाठक सूचित करें। अब महावीर सम्बद्ध विश्वविद्यालय अथवा संस्थाके अधिकारियों जयन्तीकी छुट्टीके समारोहको सार्वजनिक रूपसे मनाने की सिफारिश सहित सम्बद्ध विश्वविद्यालय अथवा के लिये विशिष्ट आयोजन करना चाहिये और जैनि- संस्थाके जरिये प्रान्तीय सरकारों और स्थानीय अधि• योंको उस दिन अपना व्यापार तथा कारोबार बन्द कारियोंके जरिये अधिकसे अधिक १० मार्च १९४८ रखकर पूरी लगनके साथ महावीर जीवन के साथ तक भारत सरकारके शिक्षा-विभागके सैक्रेटरीके पास अपना सम्पर्क स्थापित करना चाहिये। भेज देना चाहिये । ६ वैज्ञानिक अनुसन्धानके लिये छात्र योग्य जैन छात्रों को इस दिशामें अवश्य बढ़ना प्रतियां चाहिये। साहित्य परिचय और समालोचन १-अनुभव प्रकाश-लेखक, स्व० पं० दीप- (मारवाड़) मूल्य, अनुभवन । चन्द शाह कासलीवाल। प्रकाशक, श्री मगनमल यह हिन्दीका एक महत्त्वपूर्ण संक्षिप्त आध्यात्मिक हेरालाल पाटनी दि० जैन पारमार्थिक दृष्ट, मारोठ गद्यग्रन्थ है । स्वाध्याय प्रेमियोंके लिये बहुत For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ उपयोगी है। इसकी प्रस्तावनामें पं० परमानन्द ५- खण्डेलवाल जैन हितेच्छुका पुराणाङ्कजैन शास्त्री, वीरसेवामन्दिर, सरसावाने लेखकके सम्पादक और प्रकाशक-पं० नाथूलाल जैन संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी रचनाओं पर साहित्यरत्न इन्दौर, सहसम्पादक पं० भंवरलाल जैन प्रकाश डाला है। इससे ज्ञात होता है कि लेखक न्यायतीर्थ जयपर। विक्रमकी अठारहवीं सदीके अन्तिम चरण (१७७६) __ यह उक्त पत्रका विशेषाङ्क अभी हाल में प्रकाशित के एक अनुभवी आध्यात्मिक विद्वान् हैं। यह हुआ है । इसमें पुराण और पुराणके विविध भागों, स्वाध्याय प्रेमियों के कामकी चीज़ है प्रयोजनों आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। स्व० २- जैनबोधकाचा १० वर्षाचा इतिहाम- पं० टोडरमल्लजी, जैनेन्द्रजी, नेमिचन्द्रजी ज्योतिषा चार्य, बा० अजितप्रसादजी एडवोकेट, पं० कैलाशचन्द्र लेखक- फूलचन्द हीराचन्द शाह, सोलापुर । प्रकाशक जीशास्त्री, बा० कामताप्रसादजी, पं० चैनसुखदासजी पं० वर्धमान पाश्वनाथ शास्त्री, मंत्री-ध० रावजी आदि अनेक लेखकोंकी सुन्दर और महत्वपूर्ण रचनाएँ सखाराम दोशी स्मारकमडल, सोलापुर । मूल्य ।-)। इसमें निबद्ध हैं। अङ्क पठनीय व सराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक मराठी जैन बोधकके साठ वर्षका संक्षिप्त इतिहास है। इसमें कब और किन सम्पादकों ६- तत्त्वार्थसूत्र-(सार्थ)सम्पादक पं लालबहादुर ने सेवा कार्य किया, यह बतलाया गया है। सामा- शास्त्री, प्रकाशक भा० दि० जैन सङ्घ मथुरा । मू०।-) जिक प्रवृत्तिका इससे कितना ही निदर्शन होता है। यह संस्करण पिछले सब संस्करणोंसे अपनी ३- विवरण-पत्रिका- प्रकाशक-दि० जैन अन्य विशेषता रखता है । वह यह कि पाठ करनेवाले स्त्री-पुरुषों और पाठशालाओंके बालक बालिकाओंके शिक्षा संस्था, कटनी (मध्यप्रान्त) । . लिये धारणयोग्य मूलार्थ इसमें दिया गया है, जिससे यह पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य उन्हें इसको पढ़ते पढ़ते ही उसका भावज्ञान होजावेगा द्वारा संस्थापितच संरक्षित दिगम्बर जैन शिक्षा संस्था भाषा बहुत सरल औ कटनीकी वि० सं० १६८८ से वि० सं० २००२ तक पुस्तक-समाप्तिके अन्तमें जो 'अज्ञरमात्रपदस्वरपन्द्रह वर्षोंकी रिपोर्ट है। इसमें संस्थाके विभिन्न होनं' 'दशाध्याये परिच्छिन्ने 'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं ये विभागों और उनके आय-व्यय, उन्नति आदिका तीन पद्य मूलमें ही मिला दिये गये हैं उनसे पाठकोंको संक्षिप्त विवरण दिया गया है जिससे ज्ञात होता है यह भ्रम हो सकता है कि वे तोनों पद्य सूत्रकारके ही कि संस्थाने थोड़े समयमें पर्याप्त प्रगति की है। बनाये हुये हैं ; परन्तु ऐसा नहीं है पहला पद्य ही ४- दिगम्बर जैनका स्वतन्त्रता अक सूत्रकारका है, अन्य दो पद्य तो पीछेसे सूत्रका माहा म्य प्रदर्शित करने के लिये किन्हीं टीकाकारादि विद्वानों सम्पादक-मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत। द्वारा जोड़ दिये गये हैं। अत: उन्हें मूलमें नहीं दिगम्बर जैन अपने विशेषाङ्कों के लिये प्रसिद्ध है। मिलाना था। हां उन्हें मूनसे पृथक् 'तत्त्वार्थसूत्रका यह विशेषांक भारतकी स्वतन्त्रता-प्राप्तिके उपलक्ष्यमें माहात्म्य' शीर्षक देकर उसके नीचे दिया जा सकता हाल में प्रकट हुआ है। कवरके मुख-पृष्ठपर स्वाधीन था। सुत्रकारका संक्षिप्त जीवन-परिचय भी रहता तो भारत और राष्ट्रीय झंडेके चित्रोंके साथ पं० नेहरू, और भी अच्छा था। फिर भी प्रस्तुत संस्करण जिस सरदार पटेल और राष्ट्रपति डा० राजेन्द्रप्रसादके उद्देश्यकी पूर्ति केलिये प्रकट किया गया है उसकी निसुन्दर चित्र हैं। तृतीय पृष्ठपर अहिंसाके पुजारी पूज्य श्चयही इससे पूर्ति होती है । ऐसा संस्करण निकालने वर्णी जी और महात्मा गांधीके भव्य चित्र हैं । लेख के लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों धन्यवादाह हैं। पठनीय हैं। कापडियाजीका प्रयत्न स्तुत्य है। -दरबारीलाल कोठिया लहा For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहबकी ७१वीं वर्षगांठका दान वीर-सेवा-मन्दिरके संस्थापक व अधिष्ठाता रनपुर, जैनकालिज सहारनपुर, स्याद्वाद महाविद्यालय श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपनी ७१ वीं काशी, दि० जैनसङ्घ मथुरा, ऋ० ब्रह्मचर्याश्रम मथुरा, वर्षगांठके अवसरपर गत मंगसिर सुदि ११ २५५) रु० सत्तके जैनसंस्कृत विद्यालय सागर, श्रीकुन्दकुन्द जैन का जो दान निकाला है और जिसे उन्होंने समान रूप हाईस्कूल खतौली, जैनबालाविश्राम आरा. जैनअनासे वितरित किया है वह जिन ५१ संस्थाओं आदिको थाश्रम देहली. नमि जैन औषधालय देहली, जैनदिया गया है उनके नामादि इस प्रकार हैं- मित्र मण्डल देहली. दिगम्बरजैन परिषद देहली, दि० ___श्रीसम्मेदशिखर, राजगृह. पावापुर, गिरनार जैन विद्वत्परिषद् बीना, जैनऔषधालय बड़नगर, शत्रुञ्जय, सोनागिर, कुन्थलगिरि, गजपंथा, हस्तिनापुर जैनकालिज बड़ौत, जैनसिद्धांतभवन श्रारा, महावीर द्रोणगिरि, रेशिंदेगिरि, महावीरजी, पञ्चायती जैन- जैनगुरुकुल कारञ्जा, दि० जैन महासभा देहली, मन्दिर सरसावा। जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बई. सत्यसमाज वर्धा. जैनअनेकान्त, आत्मधर्म, सङ्गम, वीर, वीरवाणी गुरुकुल व्यावर, वीर विद्यालय पपौरा, परिषद् जैनजैनमित्र, जैन सन्देश, जैनगजट (अंग्रेजी) खण्डेल- परीक्षा बोर्ड देहली (किसी भी परीक्षामें प्रथम आने वाल जैनहितेच्छु, जैन, जैनमहिलादर्श। वाले हरिजन या मुसलमानको पारितोषक), अतिथि ___ वीर सेवामन्दिर, जैन कन्यापाठशाला सरसावा, सेवासमिति सोनगढ़। जैनगुरुफुल सहारनपुर, जैनखैराती शफाखाना सहा -दरबारीलाल कोठिया - भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन " १. महाबन्ध-(महाधवल सिद्धान्त शास्त्र) प्रथम भाग। णिक रौमाँस) ४॥) हिन्दी टीका सहित १२) ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन २. करलक्खण-(सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद कहानियां) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देनेयोग्य ३) सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० . पथचिह्न-(हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । १) रेखाएं और निबन्ध । २) ३. मदनपराजय-कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) १० पाश्चात्त्य तकशाल-(पहला भाग) एफ० ए० के भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावनासहित । जिनदेवके कामके लाजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक। लेखक-भिक्षु जगदीशजी पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-५० काश्यप, एम० ए०. पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय राजकुमारजी सा०८) काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४॥) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने ११. कुन्दकुन्दाचायेके तीन रन-२)। वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्री एफ० ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । कवर पर महावीरस्वामी के जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तबसदि तथा अन्य ग्रन्थ का तिरंगा चित्र । ४/-) भण्डार कारकल और अलियूरके अलभ्य ताडपत्रीयग्रन्थोंका ... हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिर में तथा शास्त्रभंडारमें विरा जैन साहित्यका इतिहास तथा परिचय । २॥) जमान करनेयोग्य । १०) ६. आधुनिक जैन कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक वीर सेवामन्दिरके सब प्रकाशन यहांपर मिलते हैं । परिचय और सुन्दर रचनाएँ । ३॥) -प्रचारार्थपुस्तक मंगानेवाले महानुभावों को विशेषसुविधा। ७. मुक्ति-दूत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्य चरित्र (पौरा भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731. भारतकी महाविभूतिका दुःसह वियोग ! भारतकी जिस महाविमूति महात्मा मोहनदास कर्मचन्दजी गान्धीके आकस्मिक निधन-समाचारोंसे सारा विश्व एक दम व्याप्त हो गया है, सर्वत्र दुःखको लहर विद्य द्वेगसे फैल गई है. चार ओर हाहाकार मचा हुआ है-शोक छाया हुआ है और विदेशों तकमें जिस अघटित घटनाको महा आश्चर्यको दृष्टिसे देखा जा रहा है तथा उसपर शोक मनाया जा रहा है, उस दुःखप्रद दु:समाचार को अनेकान्तमें कैसे प्रकट किया जाय, यह कुछ समझमें नहीं आता! इस दुःसह वियोगके कारण हृदय दु:खसे परिपूर्ण है, लेखनी कांप रही है और इसलिये कुछ भी ठीक लिखते नहीं बनता वद्धि इस बातके समझने में हैरान और परेशान है कि जो महात्मा दिन-रात अविश्रान्तरूपसे भारतकी ही नहीं किन्तु विश्वकी नि:स्वार्थ भावसे सेवा कर रहा हो, सदा ही मानव-समाजकी उन्नतिके लिये प्रयत्नशील हो, हृदय में किसीके भी प्रति द्वेषभाव न रखता हो, एकनिष्टासे 'अहिमा और सत्यका पुजारी हो; अहिसाको कमोघ-शक्तिसे, बिना रक्तपातके ही जिसने भारतको स्वराज्य / लाया हो और जिसकी सारी शक्तियां उस साम्प्रदायिक विषको लोक-दृदयासे निकालने में लगी हो जो समाजको मूर्छित पतित और मरणोन्मुख किये हुये है, उस महापुरुषको मार डालनेका विचार किसी मानव हृदय में कैसे उत्पन्न हुआ ? कैसे उस लोकपूज्य लोकोत्तर परोपकारकी मृतिको तोड़ने के लिये किसी सजीव प्राणी का कदम आगे बढ़ा ? और कैसे 30 जनवरीकी सन्ध्याके समय पांच बजकर पांच मिनिटपर ईश-प्राथनाके लिये जाते हुए उस धर्मप्राण निःशस्त्र निरपराध वृद्ध महात्मापर तीनबार गोली चलाने के लिये किसी युवकका हाथ उठा !!! मालूम नहीं वह युवक कितना निष्टर, कितना कठोर, कितना निदय और कितना अधिक मानवतासे शून्य अथवा अमानुषिक हृदयको लिये हुए होगा. जो ऐसा घोर पापकर्म करने में प्रवृत्त हुआ है, जिसने सारे मानव-समाजको उसके नित्यके प्रवचनों सदुपदेशों सलाह-मशविरों और सक्रिय सहयोगोंसे होने वाले लाभोंसे एकदम वंचित कर दिया है। और इसलिये जिसे मानवसमाजका बहुत बड़ा हितशत्रु समझना चाहिये। गांधीजीने उस मराठा युवकका-जिसका नाम नाथूलाल विनायक गोडसे बतलाया जाता है कोई बिगाड़ नहीं किया, कोई अपराध नहीं किया और न उसके प्रति कोई दुव्यवहार ही किया है, फिर भी वह उनके प्रति ऐसा अमानुपिक कृत्य करने में प्रवृत्त हुआ अथवा मजबूर हुआ। जरूर इसके पीछे-पुश्तपर कोई भारी षड्यन्त्र है-कुछ ऐसे लोगोंकी बहुत बड़ी साजिश है जो सारे राजतन्त्रको ही एकदम बदलकर स्वयं सत्तारुढ होना चाहते हैं और इसलिये जो गान्धीजीको अपने मागेका प्रधान कण्टक समझ रहे थे। इस हृदयविदारक दुर्घटनासे भविष्य बड़ा ही भयंकर प्रतीत हो रहा है। अत: शासनारूढ़ नेताओं को शीघ्र ही षडयन्त्रका पता लगाते हुए अब आगे बहुप्तही सतक एवं सावधान रहने की जरूरत है और बड़े प्रयत्नके साथ गांधीजीके उस मिशनको पूरा करनेकी अवश्यकता है जिसे वे अभी अधूरा छोड़ गये हैं। गांधी जी तो भारत के हित के लिये अन्त में अपना खून तक देकर अमर हो गये। अब यह उनके अनुयायियोंका परम कर्तव्य है कि वे उनके मिशनको सब प्रकारसे सफल बनायें। इसी में भारतका हित है और यही महात्माजीका वास्तविक अर्थो में अमर स्मारक होगा। -सम्पादक मु० प्रका० पं० परमानन्दशास्त्री भारतीयज्ञानपीठ काशीके लिये अजितकुमार द्वारा अकलङ्कप्रेस सहारनपुर में मुद्रित For Personal & Private Use Only