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________________ किरण १ ] समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने अपेक्षाः स्यात् अवाच्यरूप ही है, स्व- पररूपादि चतुष्टयद्वयके सहार्पण की अपेक्षाः स्यात्सदवाच्यरूप है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा तथा युगपत्स्व-पर- स्वरूपादिचतुष्टय के कथनको शक्तिकी अपेक्षा; स्यात् असदवाच्य रूप ही है, पररूपादि-चतुष्टयको अपेक्षा तथा स्व पररूपादि चतुष्टयोंके युगपत् कहनेकी अशक्तिकी अपेक्षा; और स्यात् सदसदवाच्यरूप है, क्रमार्पित स्वपररूपादि चतुष्टय-द्वयकी अपेक्षा तथा सहार्पित उक्त चतुष्टयद्वयकी अपेक्षा। इस तरह सत् असत् आदिरूपविमिश्रित तत्व देखा जाता है और इसलिये हे वीर जिन ! वस्तुके अतिशायनसे (सर्वथा निर्देश द्वारा ) किञ्चित् सत्यानृतरूप और किञ्चित् असत्याऽनृतरूप वचन आपके ही युक्त है। आप ऋषिराजसे भिन्न जो दूसरे सर्वथा सत् आदि एकान्तवादी हैं उनके यह वचन अथवा इस रूप तत्त्व वनमें भी सम्भव नहीं है ।" (यदि यह कहा जाय कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष निरंश वस्तुका प्रतिभासी ही है, धर्मि-धर्मात्मकरूप जो सां वस्तु है उसका प्रतिभासी नहीं - उसका प्रतिभासी वह सविकल्पक ज्ञान है जो निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अनन्तर उत्पन्न होता है; क्योंकि उसीसे यह धर्मी है यह धर्म है ऐसे धर्मि- धर्म - व्यवहारकी प्रवृत्ति पाई जाती है । श्रतः सकल कल्पनाओं से रहित प्रत्यक्षके द्वारा निरंश स्वलक्षणका जो प्रदर्शन बतलाया जाता है वह प्रसिद्ध है, तब ऐसे प्रसिद्ध प्रदर्शन साधनसे उस निरंश वस्तुका प्रभाव कैसे सिद्ध किया जासकता है ? बौद्धके इस प्रश्नको लेकर आचार्य महोदय अगली कारिकाको अवतरित करते हुए कहते हैं -) प्रत्यक्ष-निर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितुं ह्यशक्यम् । विना च सिद्ध ेर्न च लक्षणार्थो न तावक- द्वेषिणि वीर ! सत्यम् ||३३|| ३ 'जो प्रत्यक्ष के द्वारा निर्देशको प्राप्त (निर्दिष्ट होनेवाला) हो - प्रत्यक्ष ज्ञानसे देखकर 'यह नीलादिक है इस प्रकार के वचन - विना ही अंगुलीसे जिसका प्रदर्शन कियाजाता हो - ऐसा तभी प्रसिद्ध है; क्योंकि जो प्रत्यक्ष कल्पक है—- सभी कल्पनाओं से रहित निर्विकल्पक है - वह दूसरोंको (संशयित विनेयों श्रथवा संदिग्ध व्यक्तियों को ) तत्त्व के बतलाने - दिखलाने में किसी तरह भी समर्थ नहीं होता है । ( इसके सिवाय ) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी असिद्ध है; क्योंकि (किसी भी प्रमाणके द्वारा ) उसका ज्ञापन अशक्य है - प्रत्यक्षप्रमाणसेतो वह इस लिये ज्ञापित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह पर प्रत्यक्षके द्वारा असंवेद्य है । और अनुमान प्रमाणके द्वारा भी उसका ज्ञापन नहीं बनता; क्योंकि उस प्रत्यक्ष के साथ अविनाभावी लिङ्ग (साधन) का ज्ञान असंभव है - दूसरे लोग जिन्हें लिङ्ग-लिङ्गी के सम्बन्धका ग्रहण नहीं हुआ उन्हें अनुमानके द्वारा उसे कैसे बतलाया जा सकता है ? नहीं बतलाया जा सकता । और जो स्वयं प्रतिपन्न है - निर्विकल्पक प्रत्यक्ष तथा उसके अविनाभावी लिङ्गको जानता है-उसको निर्विकल्पक प्रत्यक्षका ज्ञापन करानेके लिये अनुमान निरर्थक है । समारोपादिकी— भ्रमोत्पत्ति और अनुमानके द्वारा उसके व्यवच्छेदकी-बात कहकर उसे सार्थक सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि साध्य - साधनके सम्बन्धसे जो स्वयं अभिज्ञ है उसके तो समारोपका होना ही असंभव है और जो श्रभिज्ञ नहीं है उसके साध्य साधन सम्बन्धका ग्रहण ही सम्भव नहीं है, और इसलिये गृहीतकी विस्मृति जैसी कोई बात नहीं बन सकती । इस तरह अकल्पक प्रत्यक्षका कोई ज्ञापक न होनेसे उसकी व्यवस्था नहीं बनती; तब उसकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? और जब उसकी ही सिद्धि नहीं तब उसके द्वारा निर्दिष्ट होने वाले निरंश वस्तुतत्त्वको सिद्धि तो कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती । अतः दोनों ही सिद्ध ठहरते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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