SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [ वर्ष । सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन । युक्तं प्रतिद्वन्यनुबन्धि-मिथ न वस्तु ताहक त्वदृते जिनेदृक् ॥३०॥ . 'कोई वचन सत्याऽनृत ही है, जो प्रतिद्वन्द्वीसे मिश्र है- जैसे शाखा पर चन्द्रमाको देखो, जिसमें 'चन्द्रमाको देखो' तो सत्य है और 'शाखा पर' यह वचन विसंवादी होनेसे असत्य है-; दूसरा कोई वचन अनताऽनत ही है, जो अनुबन्धिसे मिश्र है - जैसे पर्वत पर चन्द्रयुगलको देखो, जिसमें 'चन्द्रयुगल' पचन जिस तरह असत्य है उसी तरह ‘पर्वत पर' यह वचन भी विसंवादि-ज्ञानपूर्वक होनेसे असत्य है । इस प्रकार हे वीर जिन ! आप स्याद्वादीके विना वस्तुके अतिशायनसे - सर्वथा प्रकारसे अभिधेयके निर्देश द्वारा- प्रवर्तमान जो वचन है वह क्या युक्त है ? - युक्त नहीं है । (क्योंकि स्याद्वादसे शून्य उस प्रकारका अनेकान्त वास्तविक नहीं है वह सर्वथा एकान्त है और सर्वथा एकान्त अवस्तु होता है।' सह-क्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरि-भेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् । आत्मान्तरं स्याद्भिदुरं समं च स्याचाऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ॥३१॥ 'विषय (अभिधेय) का अल्प-भूरि भेद-अल्पाऽनल्प विकल्प होनेपर अनृत (असत्य) भेदवान होता है-, जैसे जिस वचनमें अभिधेय अल्प असत्य और अधिक सत्य हो उसे 'सत्याऽनृत' कहते हैं, इसमें सत्य-विशेषणसे अनृतको भेदवान् प्रतिपादित किया जाता है। और जिस बचनका अभिधेय अल्प सत्य और अधिक असत्य हो उसे 'अनृताऽनृत' कहते हैं, इसमें अनृत विशेषणसे अनृतको भेदरूप प्रतिपादित किया जाता है। आत्मभेदसे अनृत भेदवान् नहीं होता-क्योंकि सामान्य-अनृतात्माके द्वारा भेद घटित नही होता। अनृतका जो आत्मान्तर-आत्मविशेष लक्षण है वह भेद-स्वभावको लिये हुए है-विशेषणके भेदसे, और सम (अभेद) स्वभावको लिये हुए है-विशेषणभेदके अभावसे । साथ ही ('च' शब्दसे) उभयस्वभावको लिये हुए है-हेतुद्वयके अर्पणाक्रमको अपेक्षा। (इसके सिवाय) अनृतात्मा अनभिलाप्यता (श्रवक्तव्यता) को प्राप्त है-एक साथ दोनों धर्मोका कहा जाना शक्य न होने के कारण; और (द्वितीय 'च' शब्दके प्रयोगसे) भेदि अनभिलाप्य, अभेदि-अनभिलाप्य और उभय (भेदाऽभेदि) अनभिलाप्यरूप भी वह हैअपने अपने हेतुको अपेक्षा। इसतरह अनृतात्मा अनेकान्तदृष्टिसे भेदाऽभेदकी सप्तभङ्गीको लिये हुए है।' न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्व-निषेध-गम्यम् । दृष्टं विमिथ तदुपाधि-भेदात्स्वमेऽपि नैतत्त्वषेः परेषाम् ॥३२॥ 'तत्त्व न तो सन्मात्र-सत्ताद्वैतरूप है और न असन्मात्र सर्वथा अभावरूप-है; क्योंकि परस्पर निरपेक्ष सत्तत्त्व और असत्तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता-किसी भी प्रमाणसे उपलब्धि न होनेके कारण उसका होना असम्भव है। इसी तरह (सत्. असत्, एक, अनेकादि) सर्वधर्मों के निषेधका विषयभूत कोई एक आत्मान्तरपरमब्रह्म-तत्त्वभी नहीं देखा जाता-उसका भी होना असम्भव है । हां, सत्वाऽसत्वसे विमिश्र परस्पराऽपेक्षरूप तत्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधिके-स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप तथा परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावरूप विशेषणोंके भेदसे है अर्थात् सम्पूर्णतत्त्व स्यात् सत्रूप ही है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा; स्यात् असद्रूप ही है, पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा स्यात् उभयरूप हो है, स्व-पररूपादिचतुष्टय-द्वंय के क्रमापणाकी Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy