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ॐ अहम्
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तत्त्व-प्रकाशक
0 0000०.. एक किरणका मूल्य ॥)
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नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वीरसेवामन्दिर (समन्तभदाश्रम), सरसावा जि० सहारनपुर पौष, वीरनिर्वाण-संवत् २४७३, विक्रम संवत् २००५,
जनवरी ११४८.
करण
समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावादवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् ।।
स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि स्वरूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥२६॥ ('अशेष तत्त्व सर्वथा अवाच्य है ऐसी एकान्त मान्यता होने पर) तत्त्व अवाच्य ही है ऐसा कहना प्रयथाप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञाके विरुद्ध- होजाता है; क्योंकि 'अवाच्य' इस पदमें ही वाच्यका भाव है - वह किसी बातको बतलाता है, तब तत्त्व सर्वथा अवाच्य न रहा। यदि यह कहा जाय कि तत्त्व स्वरूपसे प्रवाच्य ही है तो 'सर्व वचन स्वरूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध पड़ता है। और यदि यह के पररूपसे तत्त्व अवाच्य ही है तो 'सर्ववचन पररूपवाची है' यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध ठहरता है।'
[इस तरह तत्त्व न तो भावमात्र है, न अभावमात्र है, न उभयमात्र है, और न सर्वथा अवाच्य है, इन चारों मिथ्याप्रवादोंका यहां तक निरसन किया गया है। इसी निरसनके सामर्थ्य से सदवाच्यादि शेष मेथ्याप्रवादोंका भी निरसन हो जाता है। अर्थात् न्यायकी समानतासे यह फलित होता है कि न तो सर्वथा सदवाच्य तत्त्व है, न असदवाच्य, न उभयाऽवाच्य और न अनुभयाऽवाच्य ।]
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