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________________ अनेकान्त [ वर्षे ४ ॥ प्रत्यक्षकी सिद्धिके विना उसका लक्षणार्थ भी नहीं बन सकता-'जो ज्ञान कल्पनासे रहित है वह प्रत्यक्ष है। ('प्रत्य कल्पनापोढम्' 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्') ऐसा बौद्धोंके द्वारा किये गये प्रत्यक्ष-लक्षणका जो अर्थ प्रत्यक्षका बोध कराना है वह भी घटित नहीं हो सकता। अत: हे वीर भगवन् ! आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनका जो द्वेषी है-सर्वथा सत् आदिरूप एकान्तवाद है-उसमें सत्य घटित नहीं होताएकान्ततः सत्यको सिद्ध नहीं किया जा सकता।' कालान्तरस्थे क्षणिके ध्र वे वाऽपृथक्पृथक्त्वाऽवचनीयतायाम् । विकारहाने ने च कत-कार्ये वृथा श्रमोऽयं जिन! विद्विषां ते ॥३४॥ ‘पदाथके कालान्तरस्थायी होने पर-जन्मकालसे अन्यकाल में ज्योंका त्यों अपरिणामीरूपसे अवस्थित रहने पर-, चाहे वह अभिन्न हो भिन्न हो या अनिर्वचनीय हो, कर्ता और कार्य दोनों भी उसी प्रकार नहीं बन सकते जिस प्रकार कि पदार्थके सर्वथा क्षणिक अथवा ध्रव (नित्य) होने पर नहीं बनते१; क्योंकि तब विकारकी निवृत्ति होती है- विकार परिणामको कहते हैं, जो स्वयं अवस्थित द्रव्य के पूर्वाकारके परित्याग, स्वरूपके अत्याग और उत्तरोत्तराकारके उत्पादरूप होता है। विकारकी निवृत्ति क्रम और अक्रमको निवृत्त करती है। क्योंकि क्रम अक्रमकी विकारके साथ व्याप्ति (अविनाभाव सम्बन्धकी प्राप्ति) है। क्रम-अक्रमकी निवृत्ति क्रियाको निवृत करती है। क्योंकि क्रियाके साथ उनकी व्याप्ति है। क्रियाका अभाव होने पर कोई कर्त्ता नहीं बनता; क्योंकि क्रियाधिष्ठ स्वतंत्र द्रव्यके ही कर्तृत्वकी सिद्धि होती है। और कर्ताके अभावमें कार्य नहीं बन सकता-स्वयं समीहित स्वर्गाऽपवेगादिरूप किसी भी कार्यको सिद्धि नहीं हो सकती। (अत:) हे वीर जिन! आपके द्वेषियोंका- आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनसे द्वेष रखनेवाले (बौद्ध, वैशेषिक, नैय्यायिक, सांख्य आदि) सर्वथा एकान्तवादियोंका- यह श्रमस्वर्गाऽपवर्गादिकी प्राप्तिके लिये किया गया यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि रूप संपूर्ण दृश्यमान तपोलक्षण प्रयास-व्यर्थ है- उससे सिद्धान्तत: कुछ भी साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती।' [यहां तकके इस सब कथन-द्वारा प्राचार्य महोदय स्वामी समन्तभद्रने अन्य सब प्रधान प्रधान मतोंको सदोष सिद्ध करके 'समन्तदोष मतमन्यदीयम्' इस पाठवीं कारिकागत अपने वाक्यको समर्थित किया है। साथ ही, 'त्वदीयं मतमद्वितीयम्' (आपका मत-शासन अद्वितीय है) इस छठी कारिकागत अपने मन्तव्यको प्रकाशित किया है। और इन दोनोंके द्वारा 'त्वमेव महान इतीयत्प्रतिवक्तुमीशाः वयमा ('आप ही महान हैं। इतना बतलानेके लिये हम समर्थ हैं) इस चतुथै कारिकागत अपनी प्रतिज्ञाको सिद्ध किया है। १ देखो, इसी प्रन्थकी कारिका ८, १२, अादि तथा देवागमकी कारिका ३७, ४१ आदि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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