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इन संदिग्ध उल्लेखोंसे 'प्रमाण संग्रह भाष्य' अथवा 'प्रमाणसंग्रहालंकार' की अस्तित्वविषयका विद्वद्-अनुश्रुतिको जहां पोषण मिलता है वहां उसकी महत्ता. अपूर्वता और वृहत्ता भी प्रकट होती है। ऐसा पूर्वग्रन्थ मालूम नहीं इस समय मौजूद है अथवा नष्ट होगया है ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसी लायब्रेरी में मौजूद है तो उसका अनुसंधान होना चाहिये। कितने खेद की बात है कि हमारी लापरवाही से हमारे विशाल साहित्योद्यानमेंसे ऐसे ऐसे सुन्दर और सुगन्धित प्रन्थ- प्रसून हमारी नज़रोंसे ओझल हो गये । यदि हम मालियोंने अपने इस विशाल बाकी जागरूक होकर रक्षा की होती तो वह आज कितना हरा-भरा दिखता और लोग उसे देख देखकर जैन - साहित्यपर कितने मुग्ध और प्रसन्न होते । विद्वानों को ऐसे प्रन्थोंका पता लगानेका पूरा उद्योग करना चाहिये !
अनेकान्त
३ शंका - गोम्मटसार जीवकाण्ड और धवला में जो नित्यनिगोद और इतर निगोदके लक्षण पाये जाते हैं क्या उनसे भी प्राचीन उनके लक्षण मिलते हैं ?
३ समाधान - हां, मिलते है । तत्त्वार्थवार्तिकमें कलङ्कदेवने उनके निम्न प्रकार लक्षण दिये हैं
'त्रिकाले सभावयोग्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोताः, त्रसभावमवाप्ता श्रवाप्स्यन्ति
ये तेऽनित्यनिगोताः । त०वा० पृ० १००
अर्थात् जो तीनों कालों में भी त्रसभावके योग्य नहीं हैं वे नित्यनिगोत हैं और जो प्रसभावको प्राप्त हुए हैं तथा प्राप्त होंगे वे अनित्यनिगोत हैं ।
४ शंका- 'संजद' पदको चर्चाके समय आपने 'संजद पदके सम्बन्ध में अकलङ्कदेवका महत्वपूर्ण अभिमत' लेख में यह बतलाया था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक के इस प्रकरण में षट्खण्डागम के सूत्रोंका प्रायः अनुवाद दिया है । इसपर कुछ विद्वानों का
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कहना था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिकमें षट्खखडागमका उपयोग किया ही नहीं । क्या उनका यह कहना ठीक है ? यदि है तब आपने तत्त्वार्थवार्त्तिकमें षट्खण्डागमके सूत्रोंका अनुवाद कैसे बतलाया ?
४ समाधान - हम आपको ऐसे अनेक प्रमाण नोचे देते हैं जिनसे आप और वे विद्वान् यह माननेको बाध्य होंगे कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्त्तिक में षट्खण्डागमका खूब उपयोग किया है, यथा
(१) एवं हि समयोऽवस्थितः सत्प्ररूपणायां कायानुवादे - "त्रसा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेव
-तस्व० पृ०
लिन इति" " यह षट्खण्डागमके निम्न सूत्रका संस्कृतानुवाद है"तसकाइया बीई दिय-पहुडि जाव अजोगि केवलि त्ति" । -षट्ख० १-१-४४
(२) 'आगमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणादेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता ।' -तस्वा० पृ० ५५
इसमें सत्प्ररूपणा २५ वें सूत्रकी ओर स्पष्ट संकेत है ।
(३) 'एवं हि उक्तमार्षे वर्गणायां विध नो आगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिवैस्र सिकबन्ध निर्देश: प्रोक्तः विषमरूक्षतायांच बन्धः समस्निग्धतायां समरूक्षतायां च भेदः इति तदनुसारेण सूत्रमुक्तम्'
-तत्त्वा० पृ० २४२ यहां पांचवें वर्गेणा खण्डका स्पष्ट उल्लेख है । (४) 'स्यादेतदेवमागमः प्रवृत्तः । पंचेन्द्रिया असंज्ञिपंचेन्द्रियादारभ्य आ प्रयोगकेवलिन:' पृ० ६३ यह षट्खण्डागमके इस सूत्रका अक्षरश: संस्कृतानुवाद है"पंचिदिया सपिंचिंदिय - पहुडि जाव जोगिकेवल त्ति" -१-१-३७॥ इन प्रमाणोंसे असंदिग्ध है कि कलङ्कदेवने तत्त्वार्थवात्तिक में पट्खण्डागमका अनुवादादिरूपसे उपयोग किया है ।
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