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________________ किरण १] समयसार की महानता १ शंका-कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने सं० १४५४ को लिखी अर्थात् साढ़े पांचसौ वर्ष 'विद्य नन्दमहोदय' नामका एक बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रीकी प्रति प्राप्त हुई है, जिसके उल्लेख उन्होंने स्वयं अपने श्लोकवार्तिक, है, जो मुद्रित अष्टसहस्रीमें सैकड़ों सूक्ष्म तथा स्थल अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में किये हैं। परन्तु उनके बाद अशुद्धिया आ - अशुद्धियों और त्रुटित पाठोंको प्रदर्शित करती है । यह होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि भी प्राचीन प्रतियोंकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण बड़े बड़े प्राचार्यो में से किसीने भी अपने प्रन्थों में है। इससे 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख नहीं किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके भंडारोंमें मिलनेकी अधिक प्राशा है, अन्वेषकोंको जीवनकाल तक ही रहा है-उसके बाद नष्ट होगया? उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये। १ समाधान-नहीं, विद्यानन्दके जीवन-कालके २ शंका-विद्वानोंसे सुना जाता है। कि बड़े बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है। विक्रमकी बारहवीं अनन्तवीर्य अर्थात् सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकतेरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान् वादी देवसूरिने लंकदेवके 'प्रमाणसंग्रह' पर 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' या अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा० पृ०,३४६ ) में 'प्रमाणसंग्रहालंकार' नामका वृहद् टीका-ग्रन्थ लिखा 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रथकी एक पंक्ति उद्धृत करके है परन्तु आज वह उपलब्ध नहीं होरहा। क्या उसके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है। यथा " अस्तित्व प्रतिपादक कोई उल्लेख हैं जिनसे विद्वानोंकी 'यत्त विद्यानन्द"""महोदये च "कालान्तरावि उक्त अनुश्रुतिको पोषण मिले ? स्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रती २ समाधान-हां, प्रमाणसंग्रहभाष्य अथवा यते" इति वदन संस्कारधारणयोरैकायमचकथत्। प्रमाणसंग्रहालंकारके उल्लेख मिलते हैं । स्वयं सिद्धिइससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' विनिश्चयटीकाकारने सिद्धिविनिश्चयटीकामें उसके विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीनसौ चारसो वर्ष जानने तथा कथन करनेकी सूचनाएँ की हैं। यथा अनेक जगह उल्लेख किये हैं और उसमें विशेष बाद तक भी विद्वानोंकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका (१) 'इति चर्चितं प्रमाणसंग्रहभाष्ये' -कसि० वेषय रहा है। आश्चर्य नहीं कि उसकी सैकडोंकापियां न हो पानेसे वह सब विद्वानोंको शायद प्राप्त नहीं हो वि० टी० लि०प०१२ । सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहस्री आदिको (२) 'इत्युक्त प्रमाणसंग्रहालंकारे'-सि० लि० ५० १६ । तरह वादिराज आदिने अपने ग्रंथों में उसके उद्धरण (३) 'शेषमत्र प्रमाणसंग्रहभाष्यात्प्रत्येयम्' -सि०प० प्रहण न किये हों । जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित है कि वह बनने के कईसौ वर्ष बाद तक विद्यमान रहा (४) 'प्रपंचस्तु नेहोक्तो प्रथगौरवात् प्रमाणसंग्रहहै। संभव है वह अबभी किसी लायब्रेरी या सरस्वती भाष्याज्ञेयः'-सिलि०प०६२१। भंडार में दीमकोंका भक्ष्य बना पड़ा हो। अन्वेषण ५) 'प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तम्'-सि० लि. ५० करनेपर अकलंक देवके प्रमाणसंग्रह तथा अनन्तवीये ११०३। की सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर (६) 'दोषो रागादिाख्यातः प्रमाणसंग्रहभाष्ये'शास्त्र भंडार में मिल जाय; क्योंकि उनके यहां शास्त्रों सिलि०प०१२२२ । की सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोंके हाथोंमें - रही है और अबभी कितने ही स्थानों पर चलती है * वीर सेवा मन्दिरमें जो सिद्धिविनिश्चय टीकाकी मुनि पुण्यविजयजीके अनग्रहसे वि० लिखित प्रति मौजूद है उसके पत्रों की संख्या डालीगई है। ३६२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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