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अनेकान्त
। वर्ष
"पीछे सेखावटीविर्षे सिंघाणा ना तहां टोडर- हजार टीका भई। पीछे सवाई जयपुर आये तहां मल्लजी एक दिली (ल्ली) का बड़ा साहूकार साधर्मी गोम्मटसारादिच्यारों मंथोंकू सोधि याको बहुत प्रति ताके समीप कर्म-कार्यके अर्थि वहां रहै, तहां हम गए उतराई। जहां सैली थी तहां तहां सुधाइ सुधाइ पधराई अर टोडरमल्लजीसे मिले, नाना प्रकारके प्रश्न ऐसे यां ग्रंथांका अवतार भया"। किये। ताका उत्तर एक गोम्मटसार नामा ग्रंथकी इस पत्रिकागत विवरण परसे यह स्पष्ट है कि साखिसू देते गए। ता ग्रन्थकी महिमा हम पूर्व सुणी उक्त सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाटीका तीन वर्षमें बनकर थी तासूविशेष देखी, अर टोडरमल्लजीका (के) ज्ञानकी समाप्त हुई थी जिसकी श्लोक संख्या पैसठ महिमा अद्भुत देखी, पीछे उनसूहम कही-तुम्हारे करीब है । और जिसके संशोधनादि तथा अन्य प्रतिया ग्रंथका परचै निमेल भया है, तुमकरि याकी योंके उतरवाने में प्राय: उतनाही समय लगा होगा। भाषाटीका होय तौ घणां जीवांका कल्याण होय अर इसीसे यह टीका सं० १८१८ में समाप्त हुई है। इस जिनधर्मका उद्योत होइ । अबही कालके दोष करि टीकाके पूर्ण होने पर पण्डितजी बहुत आल्हादित जीवांकी बुद्धी तुच्छ रही है तो आगै यात भी अल्प हुए और उन्होंने अपनेको कृतकृत्य समझा) साथ रहेगी। सातै ऐसा महान ग्रंथ पराक्रत साकी मल गाथा ही अन्तिम मङ्गलके रूपमें पञ्चपरमेष्ठीकी स्तुति की और पंद्रहस+ १५०० ताकी टीका संस्कृत अठारह हजार
उन जैसी अपनी दशाके होनेकी अभिलाषा भी व्यक्त १८००० तावि अलौकिक चरचाका समूह संदृष्टि वा
की? । यथागणित शास्त्रांको आम्नाय संयुक्त लिख्या है ताकी भाव
आरंभो पूरण भयो शास्त्र सुखद प्रासाद । भासना महा कठिन है । अर याके ज्ञानकी प्रवर्ति पूर्व
अब भये कृतकृत्य हम पायो अति थाल्हाद ॥
+ + + + + + दीर्घकाल पर्यंत लगाय अब ताई नाहीं तो आगै भी
अरहन्त सिद्ध सूर उपाध्याय साधु सर्व, याको प्रवर्ती कैसे रहेगी, तातें तुम या ग्रंथकी टीका
अथैके प्रकाशी मङ्गलीक उपकारी हैं। करनेका उपाय शीघ्र करौ, सायुका भरोसा है नाहीं।
तिनको स्वरूप जानि रागते भई भक्ति, पीछे ऐसें हमारे प्रेरकपणाका निमित्त करि इनके टीका
कायकौं नमाय स्तुतिको उचारी है। करने का अनुराग भया । पूर्व भी याकी टीका करने
धन्य धन्य तुमही सब काज भयो, का इनका मनोरथ था ही, पाछै हमारे कहनें करि विशेष
कर जोरि बारम्बार बंदना हमारी है। मनोरथ भया, तब शुभदिन मुहूरत विष टीका करने
मङ्गल कल्याण सुख ऐसो हम चाहत हैं, का प्रारम्भ सिंघाणा नग्रविष या । सो वे तो टीका
होहु मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है। वणावते गए हम बांचते गये। बरस तीनमें गोम्मट
यही भाव लब्धिसारटीका प्रशस्तिमें गद्यरूपमें सारथको अडतीसहजार ३८००० लब्धिसार-क्षप- प्रकट किया है। णासारग्रंथकी तेरहहजार १३००० त्रिलोकसारग्रंथ
लब्धिसारकी टीका वि० सं० १८१८ की माघशुक्ला की चौदाहजार १४००० सव मिलिच्यारि ग्रंथांकी पैसठ -
१"प्रारम्भ कार्यकी सिद्धि होने करि हम आपको + रायमल्लजीने गोम्मटसारकी मूल गाथा संख्या पंद्रह कृतकृत्य मानि इस कार्य करनेकी अाकुलता रहित होइ सुखी सौ १५०० बतलाई है जव कि उसकी संख्या सत्तरहसौ पांच भये, याके प्रसादतें सर्वश्राकुलता दरि होइ हमारे शीघ्र ही १७०५ है, गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ६७२ और जीवकांडकी स्वात्मज सिद्धि-जनित परमानन्दकी प्राप्ति होउ।" ७३३ गाथा सख्या मुद्रित प्रतियोंमें पाई जाती है।
लब्धिसार टी० प्रशस्ति
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