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________________ किरण १ ) आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ ३१ पञ्चमीके दिन पूर्ण हुई है, जैसाकि उसके प्रशस्ति पद्यसे पदार्थका विवेचन बहुतही सरल शब्दोंमें किया गया स्पष्ट है: है। और जीवोंके मिथ्यात्वको छुड़ानेका पूरा प्रयत्न संवत्सर अष्टादशयुक्त, अष्टादशशत लौकिकयुक्त किया गया है, यह मल्लजीकी स्वतन्त्र रचना है। यह माघशुक्लपञ्चमिदिन होत, भयो ग्रन्थ पूरन उद्योत ॥ प्रन्थभी, जिसकी श्लोकसंख्या बीसहजारके करीब है; लब्धिसार-क्षपणासारको इस टीकाके अन्तमें सं०१८२१ से पहले ही रचा गया है। क्योंकि ब्रह्मचारी अर्थसंदृष्टि नामका एक अधिकार भी साथमें दिया रायमल्लजीने इन्द्रध्वज पूजाकी पत्रिकामें इसके रचे हुआ है, जिसमें उक्त ग्रन्थमें आनेवाली अङ्कसंदृष्टियों जानेका उल्लेख किया है। मालूम होता है कि यह और उनकी संज्ञाओं तथा अलौकिक गणितके करण- प्रन्थ बादको पूरा नहीं हो सका। सूत्रोंका विवेचन किया गया है। यह संदृष्टि अधिकार पुरुषार्थसिद्ध्युपाय टीकाउस संदृष्टि अधिकारसे भिन्न है जिसमें गोम्मटसार यह उनको अन्तिम कृति जान पड़ती है। यही जीवकाण्ड-कर्मकाण्डकी संस्कृतटीकागत अलौकिक कारण है कि यह अपूर्ण रह गयी। यदि आयुक्श गणितके उदाहरणों, करणसूत्रों, संख्यात, असंख्यात वे जीवित रहते तो वे अवश्य पूरी करते। बादको और अनन्तकी संज्ञाओं और अङ्कसंदृष्टियोंका विवेचन यह टीका श्रीरतनचन्दजी दीवानकी प्रेरणासे पण्डित स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें किया गया है, और जो 'अर्थ- दौलतरामजीने सं० १८२७ में पूरी की है। परन्तु उनसे संदृष्टि' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है। यद्यपि टीका उसका वैसा निर्वाह नहीं हो सका है, फिर भी उसका ग्रन्थोंके आदिमें पाई जाने वाली पीठिकामें ग्रन्थगत अधूरापन तो दूर हो ही गया है। संज्ञाओं एवं विशेषताओंका दिग्दर्शन करा दिया है उक्त कृतियोंका रचनाकाल सं० १८११ से १८१८ जिससे पाठकजन उस ग्रन्थके विषयसे परिचित हो तक तो निश्चित ही है। फिर इसके बाद और किवने सकें। फिर भी उनका स्पष्टीकरण करनेके लिये उक्त समय तक चला, यद्यपि यह अनिश्चित है, परन्तु फिर अधिकारोंकी रचना की गई है। इसका पर्यालोचन भी सं० १८२४ के पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है। करनेसे संदृष्टि-विषयक सभी बातोंका बोध हो जाता पं० टोडरमल्लजीकी ये सब रचनाएं जयपुर नरेश है। हिन्दी-भाषाके अभ्यासी स्वाध्याय-प्रेमी सज्जन माधवसिंहजी प्रथमके राज्यकालमें रची गई हैं। भी इससे बराबर लाभ उठाते रहे हैं। आपकी इन जयपुर नरेश माधवसिंह प्रथमका राज्य वि० सं० टीकाओंसे ही दिगम्बर समाजमें कर्मसिद्धान्तके पठन १८११ से १८२४ तक निश्चित माना जाता है। पाठनका प्रचार बढा है और इनके स्वाध्यायी सज्जन पंदौलतरामजीने जब सं०१८२७ में पुरुषार्थसिद्ध्युकर्मसिद्धान्तसे अच्छे परिचित देखे जाते हैं। इस पायकी अधूरी टीकाको पूर्ण किया तब जयपुरमें राजा सबका श्रेय पं० टोडरमल्लजीको ही प्राप्त है। पृथ्वीसिंहका राज्य था। अतएव संवत् १८२७ से आत्मानुशासन टीका पहले ही माधवसिंहका राज्य करना सुनिश्चित है। इसका निर्माण कब किया गया यह कुछ ज्ञात पंडितजीकी मृत्यु और समयनहीं हो सका। पंडित जीको मृत्यु कब और कैसे हुई यह विषय मोक्षमार्गप्रकाशक अर्सेसे एक पहेलीसा बना हुआ है। जैन समाजमें यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण है जिसकी जोड़का इस सम्बन्धमें कई प्रकारकी किंवदन्तियां प्रचलित हैं। इतना प्रांजल और धार्मिक-विवेचनापूर्ण दूसरा हिन्दी * देखो, 'भारत के प्राचीन राजवंश' भाग ३ पृ. गद्य अन्य अभी तक देखनेमें नहीं आया। इसमें २३६, २४० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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