SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १ ] जिनका समय डा० ए० एन० उपाध्येने ईसाकी १६ वीं शताब्दी का प्रथम चरण निश्चित किया है + । इससे भी इस टीका और टीकाकारका उक्त समय अर्थात् ईसाकी १६ वीं शताब्दीका प्रथमचरण व विक्रमकी १६ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध है । भ० नेमिचन्दकी इस संस्कृत टीका के आधार से पंडित टोडरमल्ल जीने अपनी भाषाटीका लिखो है। और उस टीकासे उन्होंने भ्रमवश: केशत्रवर्णीकी टीका समझ लिया है । जैसा कि जीवकाण्ड टीकाप्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है : केशववर्णी भव्य विचार, कर्णाटक टीका अनुसार । संस्कृत टीका कीनी एहु, जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु || : पंडित जीकी इस भाषाटीकाका नाम 'सम्यग्ज्ञान'चन्द्रिका' है जो उक्त संस्कृत टीकाका अनुवाद होते हुए भी उसके प्रमेयका विशद विवेचन करती है पंडित टोडरमल्ल जीने गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड लब्धिसार-क्षपणासार - त्रिलोकसार इन चारों ग्रंथों की टीकाएं यद्यपि भिन्न भिन्न रूप से की हैं किन्तु उन में परस्पर सम्बन्ध देखकर उक्त चारों ग्रंथों की टीकाओं को एक करके उनका नाम 'सम्यग्ज्ञान 'चन्द्रिका' रकखा है। जैसाकि पं० जी लब्धिसार भाषाटीका प्रशस्तिके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : "या विधि गोम्मटसार लब्धिसार ग्रंथनि की, भिन्न भिन्न भाषाटीका कीनी अर्थ गाय कै । इनिकै परस्पर सहाय पनौ देख्यौ । एक कर दई हम तनिको मिलायकें ॥ (पिछले २८ वें पृष्ठकी यह टिप्पणी है भूल से वहां न छप सकी) * अभयचन्द्रकी यह टीका पूर्ण है, और जीवकांडकी ३८३ गाथा तक ही पाई जाती है, इसमें ८३ नं० की गाथाकी टीका करते हुए एक 'गोम्मटसार पञ्चिका' टीकाका उल्लेख निम्न शब्दोंमें किया है । “अथवा सम्मूर्छनगर्भा 'पात्तान्नाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मटसारपञ्चिकाकारादीनाम+ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ + देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ भिप्रायः " आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी Jain Education International [ २६ सम्यग्ज्ञान - चन्द्रिका धरयो है याका नाम । सो ही होत है सफल ज्ञानानंद उपजाय कै ॥ कलिकाल रजनीमें अर्थको प्रकाश करे । यातै निज काज कोने इष्टभावमयकै ||३०|| किया है, अपनी ओरसे कषायवश कुछभी नहीं इस टीका में उन्होंने आगमानुसार हो अर्थ प्रतिपादन लिखा, यथा आज्ञा अनुसारी भये अर्थ लिखे या मांहि । कषाय करि कल्पना हम कछु कीनों नांहि ॥ ३३ ॥ टीकाप्रेरक श्रीरायमल्ल और उनकी पत्रिका — इस टीकाकी रचना अपने समकालीन रायमल्ल नामके एक साधर्मी श्रावकोत्तमकी प्रेरणासे की गई है जो विवेकपूर्वक धर्मका साधन करते थे१ । रायमल्ल जी बाल ब्रह्मचारी थे एक देश संयमके धारक थे । जैन धर्मके महान श्रद्धानी थे और उसके प्रचार में संलग्न रहते थे साथ ही बड़े ही उदार और सरल थे । उनके आचार में विवेक और विनयकी पुट थी । वे अध्यात्म शास्त्रोंके विशेष प्रेमी थे और विद्वानोंसे तत्त्व-चर्चा करने में बड़ा रस लेते थे पं० टोडरमल्लजीकी तत्त्व - चर्चासे वे बहुत ही प्रभावित थे । इनकी इस समय दो कृतियां उपलब्ध हैं - एक ज्ञानानंद निर्भर निजरस - श्रावकाचार और दूसरी कृति चर्चा - संग्रह है जो महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक चर्चाओं को लिये हुये है । इनके सिवाय दो पत्रिकायें भी प्राप्त हुई हैं जो 'वीरवाणी' में प्रकाशित हो चुकी हैं२। उनमें से प्रथम पत्रिकामें अपने जीवनकी प्रारम्भिक घटनाओंका समुल्लेख करते हुए पण्डित टोडरमल्ल जीसे गोम्मटसारकी टीका बनानेकी प्रेरणाकी गई है और वह सिंघाणा नगर में कब और कैसे बनी इसका पूरा विवरण दिया गया है। बह पत्रिका इस प्रकार है। - १ रायमल्ल साधर्मी एक, धर्मसंधैया सहित विवेक । सो नानाविध प्ररेक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो २ देखो, वीरवाणी वर्ष १ अङ्क २, ३ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy