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________________ किरण १ ] किसी सच्चे जैनियों अथवा वीरके सच्चे अनुयायियोंको तैयार करने के लिए ऐसा होना ही चाहिए। परन्तु ये काम साधारण बातें बनानेसे नहीं हो सकते, इनके लिये अपनेको होम देना होगा, दृढसङ्कल्प के साथ कदम उठाना होगा, 'कार्य साधयिष्यामि शरीरं पातयिष्यामि वा' को नीतिको अपनाना होगा, के कहने-सुनने अथवा मानापमानकी कोई पर्वाह नहीं करनी होगी और अपना दुख-सुख आदि सब कुछ भूल जाना होगा। एक ही ध्येय और एक ही लक्ष्य को लेकर बराबर आगे बढ़ना होगा । तभी रूढ़ियों का गढ़ टूटेगा, धर्मके आसनपर जो रूढ़ियां आसीन हैं उन्हें श्रासन छोड़ना पड़ेगा और हृदयों पर अन्यथा संस्कारोंका जो खोल चढ़ा हुआ है वह सब चुरचूर होगा। और तभी समाजको वह दृष्टि प्राप्त होगी जिससे वह धर्मके वास्तविकस्वरूपको देख संकेगी। अपने उपास्य देवताको ठीक रूप में पहचान सकेगी, उसकी शिक्षा के मर्मको समझ सकेगी और उसके आदेशानुसार चलकर अपना विकास सिद्ध कर सकेगी। इस तरह समाजका रुख ही पलट जायेगा और वह सच्चे अर्थों में एक धार्मिक समाज और एक विकासोन्मुख आदर्श समाज बन जायगा । और फिर उसके द्वारा कितनोंका उस्थान होगा, कितनोंका भला होगा, और कितनोंका 'कल्याण होगा, यह कल्पनाके बाहरकी बात है । इतना बड़ा काम कर जाना कुछ कम श्रेय, कम पुण्य अथवा कम धर्मकी बात नहीं है । यह तो समाजभर के जीवनको उठानेका एक महान आयोजन होगा। इसके लिये अपनेको बीजरूप में प्रस्तुत कीजिये । मत सोचिये कि मैं एक छोटा सा बीज । बीज जब एक लक्ष्य होकर अपनेको मिट्टी में मिला देता है, गला देता और खपा देता है, तभी चहुं ओरसे अनुकूलता उसका अभिनन्दन करती है और उससे वह लह लहाता पौधा तथा वृक्ष पैदा होता है जिसे देखकर दुनियां प्रसन्न होती है, लाभ उठाती है आशीर्वाद देती है; और फिर उससे स्वत: ही हजारों बीजोंकी नई सृष्टि हो जाती हमें वाक्पटु न होकर कार्यपटु होना चाहिये, जैनकालोनी और मेरा विचार पत्र Jain Education International १५ आदर्शवादी न बनकर आदर्शको अपनाना चाहिये और उत्साह तथा साहसकी वह अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिये जिसमें सारी निर्बलता और सारी कायरता भस्म हो जाय। आप युवा हैं, धनाढ्य हैं, धनसे लिप्त हैं, प्रभावशाली हैं, गृहस्थके बन्धनसे मुक्त हैं। और साथ ही शुद्धहृदय तथा विवेकी हैं, फिर आपके लिये दुष्करकायें क्या होसकता है ? थोड़ीसी स्वास्थ्य की खराबी से निराश होने जैसी बातें करना आपको शोभा नहीं देता। आप फलकी आतुरताको पहले से ही हृदयमें स्थान न देकर हंढ़ सङ्कल्प और Full will power के साथ खड़े हो जाइये, सुखी आराम तलब जैसे—जीवनका त्याग कीजिये और कष्ट सहिष्णु बनिये, फिर आप देखेंगे अस्वस्थता अपने आप ही खिसक रही है और आप अपने शरीर में नये तेज नये और नई स्फूर्तिका अनुभव कर रहे हैं। दूसरोंके उत्थान और दूसरोंके जीवनदानकी सच्ची सक्रिय भावनाएँ कभी निष्फल नहीं जातीं - उनका विद्युतका सा श्रसर हुए बिना नहीं रहता । यह हमारी अश्रद्धा है अथवा आत्मविश्वासको कमी है जो हम अन्यथा कल्पना किया करते हैं । मेरे खयाल में तो जो विचार परिस्थितयोंको देख कर आपके हृदय में उत्पन्न हुआ है वह बहुत ही शुभ है, श्रेयस्कार है और उसे शीघ्र ही कार्य में परिणत करना चाहिये। जहां तकमै समझता हूं जैन कालोनी के लिये राजगृह तथा उसके आस पासका स्थान बहुत उत्तम है । वह किसी समय एक बहुत बड़ा समृद्विशाली स्थान रहा है, उसके प्रकृत्ति प्रदत्त चश्मे - गर्म जलके कुण्ड - अपूर्व हैं । स्वास्थ्यकर हैं, और जनताको अपनी ओर आकर्षित किये हुए हैं । उसके पहाड़ी दृश्य भी बड़े मनोहर हैं और अनेक प्राचीन स्मृतियों तथा पूर्व गौरवकी गाथाओं को अपनी गोद में लिये हुए हैं। स्वास्थ्य की दृष्टिसे यह स्थान बुरा नहीं हैं। स्वास्थ्य सुधार के लिये यहां लोग महीनों आकर ठहरते हैं । वर्षाऋतु में मच्छर साधारणतः सभी स्थानोंपर होते हैं - यहां वे कोई विशेषरूपसे नहीं होते और जो होते हैं उसका भी कारण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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