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के अधिवासी अपनेको एक ही कुटुम्बका व्यक्ति समझें एक ही पिताको सन्तानके रूपमें अनुभव करें, और एक दूसरे के दुख-सुखमें बराबर साथी रहकर पूर्णरूप से सेवाभाव को अपनाएँ तथा किसीको भी उसके कष्टमें यह महसूस न होने देवें कि वह वहांपर अकेला है। समय-समयपर बहुतसे सज्जनोंके हृदय में धार्मिक जीवनको अपनाने की तरंगें उठा करती हैं और कितने ही सद्गृहस्थ अपनी गृहस्थी के कर्तव्योंको बहुत कुछ पूरा करने के बाद यह चाहा करते हैं कि उनका शेष जीवन रिटायर्डरूप में किसी ऐसे स्थानपर और ऐसे सत्सङ्ग में व्यतीत हो जिससे ठीक ठीक धर्मसाधन और लोक-सेवा दोनों ही कार्य बन सकें। परन्तु जब वे समाजमें उसका कोई समुचित साधन नहीं पाते और आस पासका वातावरण उनके विचारोंके अनुकूल नहीं होता तब वे यों ही अपना मन मसोसकर रह जाते हैं समर्थ होते हुए भी बाह्य परिस्थितियों के वश कुछ भी कर नहीं पाते, और इस तरह उनका शेष जीवन इधर उधरके धन्धों में फंसे रहकर व्यर्थ ही चला जाता है । और यह ठीक ही है, बीज में अंकुरित होने और अच्छा फलदार वृक्ष बननेकी शक्तिके होते हुए भी उसे यदि समयपर मिट्टी पानी और हवा आदिका समुचित निमित्त नहीं मिलता तो उसमें अंकुर नहीं फूटता और वह यों ही जीर्ण-शीग होकर नकारा हो जाता है । ऐसी हालत में समाजकी शक्तियों को सफल बनाने अथवा उनसे यथेष्ट काम लेनेके लिये संयोगोंको मिलाने और निमित्तोंको जोड़ने की बड़ी जरूरत रहतो है । इस दृष्टिसे भी जैनकालोनीकी स्थापना समाजके लिये बहुत लाभदायक है और वह बहुतों को सन्मार्गपर लगाने अथवा उनकी जीवनधाराको समुचितरूप से बदलने में सहायक हो सकती है।
आज दो वर्ष हुए जब बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता मद्रास - प्रान्तस्थ आरोग्यवरम् के सेनिटोरियम में अपनी चिकित्सा करा रहे थे। उस समय वहां के वातावरण और ईसाई सज्जनोंके प्रेमालाप एवं सेवाकार्यो से a बहुत ही प्रभावित हुए थे । साथ ही यह मालूम कर के कि ईसाईलोग ऐसी सेवा संस्थाओं
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अनेकान्त
[ वर्ष
तथा आकर्षक रूप में प्रचुर साहित्यके वितरण - द्वारा जहां अपने धर्मका प्रचार कर रहे हैं वहां मांसाहारको भी काफी प्रोत्तेजन दे रहे हैं, जिससे आश्चर्य नहीं जो निकट भविष्य में सारा विश्व मांसाहारी हो जायः और इस लिये उनके हृदय में यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यदि जैनी समयपर सावधान न हुए तो असंभव नहीं कि भगवान महावीरकी निरामिष भोजनादिसम्बन्धी सुन्दर देशनाओं पर पानी फिर जाय और वह एकमात्र पोथी पत्रोंकी ही बात रह जाय । इसी चिन्ताने जैनकालोनीके विचारको उनके मानस में जन्म दिया और जिसे उन्होंने जनवरी सन १६४५ के पत्रमें मुझपर प्रकट किया। उस पत्रके उत्तर में २७ जनवरी माघमुदी १४ शनिवार सन १६४५ को जो पत्र देहलीसे उन्हें मैंने लिखा था वह अनेक दृष्टियों से अनेकान्त - पाठकों के जानने योग्य है। बहुत सम्भव है कि बाबू छोटेलाल जीको लक्ष्यकर के लिखा गया यह पत्र दूसरे हृदयों को भी अपील करे और उनमें से कोई माईका लाल ऐसा निकल आवे जो एक उत्तम जैन कालोनीकी योजना एवं व्यवस्थाके लिये अपना सब कुछ अपर्ण कर देवे, और इस तरह वीरशासनको जड़ोंको युगयुगान्तर के लिये स्थिर करता हुआ अपना एक अमर स्मारक कायम कर जाय । इसी सदुद्दे श्यको लेकर आज उक्त पत्र नीचे प्रकाशित किया जाता है । यह पत्र एक बड़े पत्रका मध्यमांश है, जो मौनके दिन लिखा गया था, उस समय जो विचार धारा-प्रवाहरूप से आते गये उन्हीं को इस पत्र में ि किया गया है और उन्हें अङ्कित करते समय ऐसा मालूम होता था मानों कोई दिव्य शक्ति मुझसे वह सब कुछ लिखा रही है। मैं समझता हूं इसमें जैन धर्म, समाज और लोकका भारी हित सन्निहित है । जैनकालोनी - विषयक पत्र
"जैन कालोनी आदि सम्बन्धी जो विचार आपने प्रस्तुत किये हैं और बाबू अजितप्रसादजी भी जिनके लिये प्रेरणा कर रहे हैं वे सब ठीक हैं । जैनियोंमें सेवाभावकी स्पिरिटको प्रोत्तेजन देने और एक वर्ग
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