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अनेकान्त
खड़ी हैं, और जो कुछ ऊहापोह अब तक हुई है उससे और भी प्रबल व अकाट्य सिद्ध होती हैं ।"
कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहें, परन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रो० साहब अपनी उक्त चार आपत्तियों में से किसीका भी अब तक समाधान अथवा समुचित प्रतिवाद हुआ नहीं मानते; बल्कि वर्तमान ऊहापोहके फलस्वरूप उन्हें वे और भी प्रबल एवं काट्य सममने लगे हैं । अस्तु ।
अपने वर्तमान लेखमें प्रो० साहबने मेरे दो पत्रों और मुझे भेजे हुए अपने एक पत्रको उद्धृत किया है इन पत्रों को प्रकाशित देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुईउनमेंसे किसीके भी प्रकाशनसे मेरे क्रुद्ध होने जैसी तो कोई बात ही नहीं हो सकती थी, जिसकी प्रोफेसर साहबने अपने लेखमें कल्पना की है; क्योंकि उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मैं तो स्वयं ही उन्हें 'समीचीन धर्मशास्त्र' की अपनी प्रस्तावना में प्रकाशित करना चाहता था-चुनांचे लेखके साथ भेजे हुए पत्रके उत्तर में भी मैंने प्रो० साहबको इस बातकी सूचना कर दी थी। मेरे प्रथम पत्रको, जो कि रत्नकरण्डके ‘क्षुत्पिपासा' नामक छठे पद्यके संबन्ध में उसके प्रन्थका मौलिक अङ्ग होने न होने-विषयक गम्भीर प्रश्नको लिये हुए है, उद्धृत करते हुए प्रोफेसर साहबने उसे अपनी "प्रथम आपत्तिके परिहारका एक विशेष प्रयत्न" बतलाया है, उसमें जो प्रश्न उठाया है उसे 'बहुत ही महत्वपूर्ण' तथा 'रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषय से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया है और 'तीनों ही पत्रोंको अपने लेख में प्रस्तुत करना वर्तमान विषय के निर्णयार्थ अत्यन्त श्रावश्यक सूचित किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने अपने प्रथम पत्रके उत्तर में प्राप्त विद्वानोंके पत्रों आदि के आधारपर उक्त पद्यके विषय में मूलका अङ्ग होने न होने की बाबत और समूचे ग्रन्थ ( रत्नकरण्ड)
विषय में क्या कुछ निर्णय किया है । इसी जिज्ञासाको, जिसका प्रो० सा० के शब्दों में प्रकृत विषय से रूचि रखनेवाले दूसरे हृदयों में भी उत्पन्न
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होना स्वाभाविक है, प्रधानता लेकर ही मैं इस लेख के लिखने में प्रवृत्त हो रहा हूं ।
सबसे पहले मैं अपने पाठकोंको यह बतला देना चाहता हूं कि प्रस्तुत चर्चाके वादी प्रतिवादी रूपमें स्थित दोनों विद्वानोंके लेखोंका निमित्त पाकर मेरी प्रवृत्ति रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यपर सविशेषरूप से विचार करने एवं उसकी स्थितिको जांचने की ओर हुई और उसके फलस्वरूप ही मुझे वह दृष्टि प्राप्त हुई जिसे मैंने अपने उस पत्रमें व्यक्त किया है जो कुछ विद्वानों को उनका विचार मालूम करनेके लिये भेजा गया था और जिसे प्रोफेसर साहबने विशेष महत्वपूर्ण निर्णयार्थ आवश्यक समझकर अपने वर्तमान लेखमें उद्धृत किया है । विद्वानोंको उक्त पत्रका भेजा जाना प्रोफेसर साहबकी प्रथम आपत्ति के परिहारका कोई खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहबने समझा है; बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बातका निर्णय करना था कि 'समीचीन धर्मशास्त्र' में जो कि प्रकाशनके लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकारका व्यवहार किया जाय — उसे मूलका अङ्ग मान लिया जाय या प्रक्षिप्त । क्योंकि रत्नकरण्डमें 'उत्सन्नदोष प्राप्त' के लक्षणरूप में उसकी स्थिति स्पष्ट होनेपर अथवा 'प्रीत्येते' के स्थानपर 'प्रदोषमुक' जैसे किसी पाठका आविर्भाव होनेपर मैं आप्तमीमांसाके साथ उसका कोई विरोध नहीं देखता हूं। और इसी लिये तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादिको उस समय पत्रों में प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह सब समीचीनधर्मशास्त्रकी अपनी प्रश्तावना के लिये सुरक्षित रक्खा गया था। हां, यह बात दूसरी है कि उक्त 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य के प्रक्षिप्त होने अथवा मूल ग्रन्थका वास्तविक अङ्ग सिद्ध न होनेपर प्रोफेसर साहबकी प्रकृत चर्चाका मूलाधार ही समाप्त हो जाता है; क्योंकि रत्नकरण्डके इस एक पद्यको लेकर ही उन्होंने आप्तमीमांसागत दोष -स्वरूप के साथ उसके विरोधकी कल्पना करके दोनों ग्रन्थोंके भिन्न कर्तृ स्वकी
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