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________________ अनेकान्त [ वर्ष । भी उस बीचके श्लोक द्वारा देवनन्दिकृत जैनेन्द्र- पद आये हैं जिनका अभिप्राय 'अकलंक' 'विद्यानन्द' ही उल्लेख किया है। और उसके और देवनन्दि पूज्यपादकत 'सवार्थसिद्धि' से भी हो व्यवधान होनेसे योगीन्द्रकृत रत्नकरण्डका देवागमसे सकता है। श्लेष-काव्यमें दूसरे अर्थकी अभिएककतृत्व कदापि वादिराज-सम्मत नहीं कहा जा व्यक्ति पर्यायवाची शब्दों व नामैकदेशद्वारा की सकता। इस आपत्तिको पंडितजीने भी स्वीकार जाना साधारण बात है। उसकी स्वीकारताके लिये किया है, किन्तु उनको कल्पना है कि यहां 'देव' से इतना पर्याप्त है कि एक तो शब्दमें उस अर्थके देनेका आभिप्राय स्वामी समन्तभद्रका ग्रहण करना चाहिये। सामर्थ्य हो और उस अर्थसे किसी अन्यत: सिद्ध किन्तु इसके समर्थन में उन्होंने जो उल्लेख प्रस्तुत बातका विरोध न हो। इसीलिये मैंने इस प्रमाणको किये हैं उन सबमें 'देव' पद 'समन्तभद्र' पदके साथ सबके अन्तमें रखा है कि जब उपर्युक्त प्रमाणोंसे साथ पाया जाता है। ऐसा कोई एक भी उल्लेख रत्नकरण्ड प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी कृति सिद्ध नहीं नहीं जहां केवल 'देव' शब्दसे समन्तभद्रका अभिप्राय होता तब उक्त श्लोकमें श्लेषद्वारा उक्त आचार्यों व प्रकट किया गया हो। प्रन्थके संकेतको ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं योगीन्द्रसे समन्तभद्रका अभिप्राय ग्रहण करनेके रहती। यदि उक्त श्लोकमें कोई श्लेषाथै ग्रहण समर्थन में उन्होंने प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषके अवतरण न किया जाय तो उसकी रचना बहुत अटपटी प्रस्तुत किये हैं जिनमें समन्तभद्रको योगी व योगीन्द्र माननी पड़ेगी, क्योंकि उसकी शब्द-योजना सीधे कहा गया है। किन्तु पंडितजीने इस बात पर ध्यान वाच्य-वाचक सम्बन्धकी बोधक नहीं है। उदानहीं दिया कि उक्त कथानकमें समन्तभद्रको केवल हरणाथै केवल 'सम्यक्' के लिये 'वीतकलंक' शब्द उनके कपटवेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, का प्रयोग अप्रसिद्ध या अप्रयुक्त जैसा दोष उत्पन्न उनके जैनवेषमें कहीं भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं करता है, क्योंकि वह शब्द उस अथैमें रूढ़ या पाया जाता। सबसे बड़ी आपत्ति तो यह है कि सुप्रयुक्त नहीं है। ऐसी शब्दयोजना तभी क्षम्य समन्तभद्रके ग्रन्थकर्ताके रूपसे सैकड़ों उल्लेख या तो मानी जा सकती है जबकि उसके द्वारा रचयिताको स्वामी-या समन्तभद्र नामसे पाये जाते हैं, किन्तु कुछ और अर्थ व्यंजित करना अभीष्ट हो। श्लेष 'देव' या 'योगीन्द्र' रूपसे कोई एक भी उल्लेख रचनामें 'वीतकलंक' से अकलंकका अभिप्राय ग्रहण अभीतक सन्मुख नहीं लाया जा सका। फिर उनका करना तनिक भी आपत्तिजनक नहीं, तथा 'विद्या' बनाया हुआ न तो कोई शब्द-शास्त्र उपलब्ध है से विद्यानन्द व सवोर्थ-सिद्धिसे तन्नामक ग्रन्थकी और न उसके कोई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये सूचना स्वीकार करने में उक्त प्रमाणोंके प्रकाशानुसार जाते हैं। इसके विपरीत देवनन्दिकी 'देव' नामसे कोई कठिनाई दिखाई नहीं देती। प्रख्याति साहित्यमें प्रसिद्ध है, और उनका बनाया इस प्रकार रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्त वपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध भी है। मीमांसाके कर्तृत्वके विरुद्ध पूर्वोक्त चारों आपत्तियां अतएव वादिराजके उल्लेखोंमें सुस्पष्ट प्रमाणोंके ज्योंकी त्यों आज भी खड़ी हैं, और जो कुछ विपरीत 'देव' से और 'योगीन्द्र' से समन्तभद्रका ऊहापोह अबतक हुई है उससे वे और भी प्रबल व अभिप्राय ग्रहण करना निष्पक्ष आलोचनात्मक दृष्टि अकाटय सिद्ध होती हैं। से अप्रामाणिक ठहरता है। उपयुक्त प्रथम आपत्तिके परिहारका एक विशेष - अन्तिम बात यह थी कि रत्नकरण्डके उपान्त्य । प्रयत्न पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारद्वारा किया गय श्लोकमें बीतकलंक' 'विद्या' और 'सर्वार्थ-सिद्धि' था। उन्होंने रत्नकरएडश्रावकाचारके क्षुत्पिपासादि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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