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________________ अनेकान्त [वर्षे पुस्तकको तो खोलके रख लेते थे, परन्तु उनकी दृष्टि देगा कि अपना और अपने बच्चों, बीबी श्रादिका बचाकर इधर कागज घोड़ा, बन्दर, हाथी, आदमी पेट भरने (भरण-पोषण करने) के लिये करता हूं। आदि के चित्र खींचते रहते थे। पीछे वे नैयायिक उससे पुनः पूछिये कि यदि तुम कामपर समयपर तो नहीं बन सके पर पेन्टर अच्छे बने। न पहुंचो या कभी न जाओ तो क्या हर्ज है ? वह ___यह जरूर है कि प्रारम्भमें छात्र इतने विचारक चट उत्तर देगा कि मालिक नफा होगा और मजदूरी तो नहीं होते कि वे अपने पठनीय विषयका अच्छी में से पैसे काट लेगा। इसी तरह किसी छात्रसे प्रश्न तरह स्वयं निर्णय कर सके और इसलिये उन्हें अपने करिये कि तुमने यदि अपना सबक याद न किया तो गुरुजनोंका परामर्श लेना अथवा निश्चित कोर्षके गुरुजी तुमसे क्या कहेंगे? वह उत्तर देगा कि वे अनुसार चलना आवश्यक होता है। यह एक प्रकार हमसे नाराज होंगे और हमें दण्ड देंगे। फिर से अच्छा भी है। क्योंकि अनुभवी गुरुजनोंका परा- पूछिये कि यदि तुमने अपना पाठ याद करके उन्हें मर्श अथवा अनेक विद्वानोंकी रायसे तैयार किया सुना दिया तो क्या होगा ? वह तुरन्त जबाब गया कोर्ष उस समय उन अनुभवहीन छात्रोंके लिये देगा कि हम उनकी नाराजीसे बच जावेंगे-वे पथ-प्रदर्शनका काम करता है। परन्तु गुरुजनोंको हम पर प्रसन्न रहेंगे और इसी तरह अपना पाठ परामर्श देते समय उनकी रुचिका खयाल अवश्य याद करते रहने पर हम परीक्षा में पास हो जावेंगे। रखना चाहिये और उन्हें पूरी तरह संतोषित करना यही सब बातें हमारे परीक्षामुख (न्यायशास्त्र के चाहिये, केवल एक दो बार कह देनेसे पिण्ड नहीं पहिले ग्रन्थ) में- 'हिताहितप्राप्तिपरिहार-समर्थ छुड़ा लेना चाहिये और न “बाबावाक्यं प्रमाणम्" हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्'- इस सूत्रमें रूपसे आदेशका आश्रय लेना चाहिये। उन्हें उतने बतलाई गई हैं। अन्य विद्वानोंका यह भी कहना प्रकारोंसे पाठ्य-विषयके लाभालाभ (गुण-दोष) को है कि श्रद्धाके अन्तर्गतभी सूक्ष्मतर्क निहित रहता है। बताना चाहिये जितनोंसे वह उनके गले उतर जाय कहनेका तात्पर्य यह है कि बालकों या मन भरजाय। आदि सबका दिमाग फुछ न कुछ तर्कशील स्वभाव ___ जहां तक मैं जानता हूं आजका न्यायशास्त्रका से ही होता है। अतएव प्रारम्भमें छात्रोंको शिक्षण भी सन्तोष-जनक और छात्ररुचि-वर्धक नहीं न्यायशास्त्रका शिक्षण प्रायः बातचीतके ढंगमें होता। प्रारम्भ में तो उसकी और भी बुरी दशा है। अथवा प्रश्नोत्तरके रूपमें दिया जाना चाहिए साथ पंक्तियोंका मात्र अर्थ करके उन्हें वे पंक्तियां रटने को में जल्दी समझमें आनेवाले अनेक उदाहरण भी, कहा जाता है। न्याय विषय एक तो वैसे ही रूखा जो आम तौर पर प्रसिद्ध हों, देना चाहिये। इससे है और फिर उसका शिक्षण भी रूखा हो तो कोमल छात्रोंको न्यायका पढ़ना अरुचिकर या भाररूप बुद्धि छात्रोंकी रुचि उसके अध्ययनमें कैसे हो सकती मालूम नहीं पड़ेगा- उसे वे रुचिके साथ पढ़ेंगे। है ? कोमल बुद्धि तो सहज-ग्राह्य चीजको बातचीत न्यायशास्त्रका शिक्षण वस्तुत: साहित्य प्रादिके के ढङ्गमें ग्रहण करना चाहती है। विद्वानोंका मत शिक्षणसे बिल्कुल जुदा है। उसके शिक्षकके लिये है कि प्रत्येक व्यक्तिकी बुद्धि में तर्क और उसको प्रतिदिनके पाठ्यविषय को पहले हृदयङ्गम समझने की शक्ति रहती है और वह हर काम में उसका (परिभावित) करना और फिर पढ़ाना बड़ा उपयोग करता है। एक मज़दरसे सवाल करिये कि आवश्यक है। ऐन मौके पर (उसी पढ़ाते समय तृ मज दूरी किस लिये करता है ? वह फौरन जवाब ही उसकी तैयारी नहीं होना चाहिये। ग्रन्थो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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