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________________ ३८ ] परिहार नहीं होता, वसतिकापर प्रेम उत्पन्न होता है, सुखमें लम्पटपना उत्पन्न होता है, आलस्य आता है, सुकुमारताकी भावना उत्पन्न होती है, जिन श्रावकों के यहां आहार पूर्व में हुआ था वहां ही पुनरपि आहार • लेना पड़ता है, ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये एक स्थान चिरकाल तक रहते नहीं हैं।' 'दशवें स्थितिकल्पमें चतुर्मासमें एक ही स्थानपर रहने का विधान किया है और १२० दिन एक स्थानपर रह सकनेका उत्सर्ग नियम बतलाया है । कमती बढ़ती दिन ठहरने का अपवाद नियम भी इसप्रकार बतलाया है कि श्रुतग्रहण, (अभ्यास) वृष्टिकी बहुलता शक्तिका अभाव, वैयावृत्य करना आदि प्रयोजन हों तो ३६ दिन और अधिक ठहर सकते हैं अर्थात् श्राषाढशुक्ला दशमीसे प्रारम्भ कर कार्त्तिक पौर्णमासीके आगे तीस दिन तक एक स्थानमें और अधिक रह सकते हैं । कम दिन ठहरने के कारण ये बतलाये हैं कि मरी रोग, दुर्भिक्ष, ग्राम अथवा देशके लोगोंको राज्य क्रान्ति अनेकान्त दिसे अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिकों में जाना पड़े, संधके नाशका निमित्त उपस्थित हो जाय आदि, तो मुनि चतुर्मासमें भी अन्य स्थानको विहार कर जाते हैं । विहार न करनेपर रत्नत्रयके नाशकी सम्भावना होती है । इसलिये आषाढ़ पूर्णिमा बीत जानेपर प्रतिपदा आदि तिथियों में दूसरे स्थानको जा सकते हैं और इसतरह एकसौबीस दिनोंमेंसे बीस दिन कम हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त वर्षों ठहरनेका वहां कोई अपवाद नहीं है । यथा "ऋतुषु षट्सु एकैकमेव मासमेकत्र वसतिरन्यदा विहरति इत्ययं नवमः स्थितिकल्पः । rasa चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहर्तुं क्षमः । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, Jain Education International [ वर्ष ६ अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः । पज्जो समण कप्पो नाम दशमः । वर्षा - कालस्य चतुषु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमण - त्यागः । स्थावरजङ्गमजीवाकुलो हि तदा क्षितिः तदा भ्रमणे महानसंयमः, वृष्टया शीतवातपातेन वात्मविराधना । पतेद्वाप्यादिषु स्थाणुकण्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नैर्जलेन कर्द्दमेन बाध्यत इति विंशत्यधिकं दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः । कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वासस्थानं, संयतानां आषाढ शुद्ध दशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्य । स्त्रिंशद्दिवसावस्थानम् । वृष्टिबहुलता, श्रतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्य करणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्ट--- कालः । मार्यां, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषोढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिष् दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विंशति- दिवसा एतदपेच्य हीनता कालस्य एष दशमः स्थिति-कल्पः ।" - विजयोदया टी० पृ० ६१६ । चायै शान्तिसागर महाराज सङ्घ सहित वर्षभर शोलापुर शहर में किस दृष्टि अथवा किस शास्त्र के आधारसे ठहरे रहे। इस सम्बन्धमें सङ्घको अपनी दृष्टि स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे भविष्य में दिग म्बर मुनिराजों में शिथिलाचारिता और न बढ़ जाय । - दरबारीलाल कोठिया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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