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किरण १ ]
आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी
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है। बसवा निवासी पं०देवीदास गोधा को भी आपके रागादिक भावही बुरे हैं । सो या ऐसी समझ नाहीं पास कुछ समय तक तत्त्वचर्चा सुनने का अवसर यह पर द्रव्यनिका दोषदेखि तिनविर्षे द्वेषरूप उदासीप्राप्त हुआ था।
नता करें है । सांची उदासीनता तौ वाका नाम है जो पं० टोडरमल्लजी केवल अध्यात्मग्रथोंके ही कोई भी परद्रव्यका गुण वा दोष न भासे, तात काहू वेत्ता या रसिक नहीं थे; किन्तु साथमें व्याकरण, को भला बुरा न जाने, परतै किछु भी प्रयोजन मेरा साहित्य, सिद्धान्त और दर्शनशास्त्रके अच्छे विद्वान नाहीं, ऐसा मानि साक्षिभूत रहै, सो ऐसी उदासीनता थे। आपकी कृतियोंका ध्यानसे समीक्षण करने पर ज्ञानी ही के होय ।” इस विषय में संदेहको कोई गुजायश नहीं रहती।
__ (पृ० २४३-४) आपके टीका ग्रन्थोंकी भाषा यद्यपि ढूंढारी (जयपुरी) यहां पंडितजी ने सम्यग्दृष्टिकी आत्मपरिणतिरूप है फिर भी उसमें ब्रज भाषाकी पुट है और वह इतनी वस्तुतत्त्वका भी फितना सुन्दर विवेचन किया है जो परिमार्जित है कि पढ़ने वालोंको उसका सहज ही अनुभव करते ही बनता है । परिज्ञान हो जाता है। आपकी भाषामें प्रौढ़ता सरसता समकालीन धार्मिकस्थिति और विद्वद्गोष्ठी-- और सरलता है वह श्रद्धा नि:स्पृहता और नि:स्वार्थ भावना से ओत-प्रोत है जो पाठकोंको बहुत ही रुचि
___उस समय जयपुरकी ख्याति जैनपुरीके रूप में हो कर प्रतीत होती है। उसमें आकर्षण मधुरता और
- रही थी, वहां जैनियोंके सात-आठ हजार घर थे, लालित्य पद पद में पाया जाता है और इसीसे जैन
" जैनियोंकी इतनी गृहसंख्या उस समय सम्भवत: अन्यत्र समाजमें उसका आज भी समादर बना इशाह जैसा कहा भा नहीं था। इससे ब्रह्मचारा रामलालजाक कि उनके मोक्षमार्ग प्रकाशककी निम्न पंक्तियोंसे
M" शब्दोंमें वह साक्षात् 'धर्मपुरी' थी। वहां के अधि
कांश जैन राज्यके उच्च-पदोंपर नियुक्त थे, और वे. प्रकट है:
राज्य में सर्वत्र शांति एवं व्यवस्थामें अपना पूरा पूरा __कोऊ कहेगा सम्यग्दृष्टि भी तो बुरा जानि
सहयोग देते थे। दीवानरतनचन्द जी और बालचन्द परदव्यौं त्याग है। ताका समाधान- सम्यग्दृष्टि जी उनमें प्रमख थे। उस समय माधवसिंहजी प्रथम पर द्रव्यानिकों बुरा न जाने है। आप सरागभावकों ।
का राज्य चल रहा था, वे बड़े प्रजावत्सल थे। राज्य छोरे, तातै ताका कारणका भी त्याग हो है।
में जीव-हिंसाकी मनाई थी। और वहां कलाल, वस्त विचारें कोई परद्रव्य तो भला बुरा है नाही। कमाई और वेश्याएं नहीं थीं। जनता प्राय: सप्तकोऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है। ताका उत्तर-परद्रव्य
व्यसनसे रहित थी। जैनियोंमें उस समय अपने जोरावरी तैं क्योंई विगारता नाहीं। अपने भाव विगरें तब वह भी बाह्य निमित्त है। बहुरि वाका निमित्त प्रत्येक साधर्मी भाईके प्रति वात्सल्य तथा उदारताका
धर्मके प्रति विशेष प्रेम और आकर्षण था और बिना भी भाव विगरें हैं । तातै नियमरूप निमित्त भी
व्यवहार किया जाता था। जिनपूजन, शास्त्रस्वाध्याय नाहीं । ऐसे परद्रव्यका दोष देखना मिथ्या भाव है। तत्त्वचर्चा सामायिक और शास्त्रप्रवचनादि क्रियायों में
श्रद्धा, भक्ति और विनयका अपूर्व दृश्य देखने में आता १ "सो दिल्लीसू पढ़ कर वसुवा अाय पाईं जयपुर में था। कितने ही स्त्री-पुरुष गोम्मटसारादि सिद्धांतथोड़े दिन टोडरमल्ल जी महाबुद्धिमानके पासि सुननेका ग्रन्थोंकी तत्त्वचर्चासे परिचित हो गये थे। महिलाएं निमित्त मिल्या, बसुवा गए"
भी धार्मिक-क्रियाओंके सद्अनुष्ठानमें यथेष्ठ भाग लेने देखो सिद्धान्तसारकी टीकाप्रशस्ति
लगी थीं। पं० टोडरमल्लजीके शास्त्र-प्रवचनमें
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