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________________ २६ । अनेकान्त [ वह कहलाते थे। पण्डितजी विवाहित थे और उनके दो विशिष्ट श्रोताजन आते थे। उनमें दीवान रतनचन्दजीर पुत्र थे। एकका नाम हरिचन्द और दूसरेका नाम अजबरायजी, त्रिलोकचन्दजी पाटनी, महारामजी३ गुमानीराम था। हरिचन्दको अपेक्षा गुमानीरामका त्रिलोकचन्दजी सोगानी, श्रीचन्दजी सोगानी और क्षयोपशम विशेष था, वह प्रायः अपने पिताके समान नेनचन्दजी पाटणीके नाम खासतौरसे उल्लेखनीय ही प्रतिभा सम्पन्न थे और इस लिये पिताके अध्ययन तत्त्वचर्चादि कार्यों में यथायोग्य सहयोग २ दीवान रतनचन्दजी और बालचन्दजी उस समय देते रहते थे। ये स्पष्टवक्ता थे और शात्रसभामें जयपुर के साधर्मियों में प्रमुख थे। बड़े ही धर्मात्मा और श्रोताजन उनसे खूब सन्तुष्ट रहते थे। इन्होंने पिता उदार सज्जन थे। रतनचन्दजीके लघुभ्राता वधीचन्दजी के स्वर्गगमनके दश बारह वर्षे बाद लगभग सं०१८३७ दीवान थे । दीवान रतनचन्दजी वि० सं० १८२१ से पहले ही में गुमानपंथकी स्थापना की थी। राजा माधवसिंह जीके समयमें दीवान पद पर श्रासीन हुए थे और वि० सं० १८२६ में जयपुरके राजा पृथ्वीसिंहके ____ इस गुमानपंथका क्या स्वरूपं था ? और उसमें किन किन बातोंकी विशेषता थी यह अभी ज्ञात नहीं हो समयमें थे, और उसके बादभी कुछसमय रहे हैं। पं० दौलत सका, जयपुर में गुमानपंथका एक मन्दिर बना हुआ रामजीने दीवान रतनचन्दजीकी प्रेरणासे वि० सं० है जिसमें पं० टोडरमल्ल जीके सभी ग्रंथोंकी स्वहस्त १८२७ में पं टोडरमल्लीकी पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी अधूरी टीकाको पूर्ण किया था जैसाकि उसकी प्रशस्तिके लिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। यह मंदिर उक्त पंथकी निम्नवाक्योंसे प्रकट है :'स्मृतिको आज भी ताजा बनाये हुये है। .. साधर्मिनमें मुख्य हैं रतनचन्द दीवान । __पंडित टोडरमल्ल जीके घर पर विद्याभिलाषियों पृथ्वीसिंह नरेशको श्रद्धावान सुजान ॥६॥ का खासा जमघट लगा रहता था, विद्याभ्यासके लिए तिनके प्रति रुचि धर्मसौं साधर्मिनसों प्रीत । घर पर जो भी व्यक्ति आता था उसे बड़े प्रेमके देव-शास्त्र-गुरुकी सदा उरमें महा प्रतीत ॥७॥ साथ विद्याभ्यास कराते थे। इसके सिवाय तत्वचर्चा श्रानन्द सुत तिनको सखी नाम जु दौलतराम । का तो वह केन्द्र ही बन रहा था। वहां तत्त्वचर्चाके भृत्य भूप को कुल वणिक जाके बसवे धाम ॥८॥ रसिक मुमुक्ष जन बराबर आते रहते थे और उन्हें कछु इक गुरु प्रतापत कीनों ग्रन्थ अभ्यास । आपके साथ विविध विषयोंपर तत्त्वचर्चा करके तथा लगन लगी जिन धर्मसौं जिन दासनको दास ॥६॥ अपनी शंकाओंका समाधान सनकर बड़ा ही संतोष होता था। और इस तरह वे पंडितजीके प्रेममय विनम्र तासू रतन दीवानने कही प्रीति धर येह । व्यवहारसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। आपके करिये टीका पूरणा उर धर धर्म सनेह ॥१०॥ शास्त्र प्रवचनमें जयपुरके सभी प्रतिष्ठित चतुर और तब टीका पूरी करी भाषा रूप निधान || कुशल होय चहुसंघको लहें जीव निज ज्ञान॥११॥ १ चुनाचे श्वेताम्बरी मुनि शाँतिविजयजी भी अपनी मानवधर्मसंहिता (शांतसुधानिधि) नामक पुस्तकके पृष्ठ १६७ अट्ठारहसै ऊपरै संवत सत्ताबीस ।। मगशिर दिन शनिवार है सुदि दोयज रजनीस ॥१३॥ में लिखते हैं । कि- “बीस पंथमें से फु(फू) टकर संबत १७२६ • में ये अलग हुए, जयपुरके तेरापंथियोंसे पं० टोडरमल्ल ३ महाराम जी अोसवालजातिके उदासीन श्रावक थे के पुत्र गुमानीराम जीने संवत १८३७ में गुमान पंथ बड़े ही बुद्धिमान थे और यह पं टोडरमल्ल जीके सा निकाला।" चर्चा करने में विशेष रस लेते थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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