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________________ २० अनेकान्त कि सत्य का प्रकाशन और सत्य का ग्रहण हो । न्यायालय में भी झूठे पक्षकी आलोचना की ही जाती है। न्यायशास्त्रका अध्येता प्रायः परीक्षा चक्षु कहा जाने योग्य होता है । ३- इसके अलावा कार्यकारणभावका ज्ञान भी न्यायशास्त्र से होता है । जाड़ें। में रुई से भरा या ऊन से बना कपड़ा लोग क्यों पहनते हैं ? गरीब लोग आग जला जला कर क्यों तापते हैं ? इसका उत्तर है कि उन चीजोंसे ठंड दूर होती है— वे उसके कारण हैं और ठंड दूर होना उनका कार्य है और कारणसे कार्य होता है आदि बातोंका ज्ञान तर्कशास्त्र से होता है । यह अलग बात है कि जो तर्कशास्त्र नहीं पढ़ा उसे भी उक्त प्रकारका ज्ञान होता है परन्तु यह अवश्य है कि उसका ज्ञान तो देखा देखी है और तर्कशास्त्र के अभ्यासीका ज्ञान अनुमान प्रमाणसे स्वयं का निर्णीत ज्ञान है वह उसकी व्यवस्थित मीमांसा जानता है । ४- न्यायशास्त्र का प्रभाव क्षेत्र व्यापक है, व्याकरण, साहित्य, राजनीति, इतिहास, सिद्धान्त आदि सब पर इसका प्रभाव है । कोई भी विषय 'ऐसा नहीं है जो न्याय के प्रभाव से अछूता हो। व्याकरण और साहित्य के उच्च ग्रन्थों में न्यायसूर्य का तेजस्वी और उज्ज्वल प्रकाश सर्वत्र फैला हुआ मिलेगा। मैं उन मित्रों को जानता हूं जो व्याकरण और साहित्य के अध्ययन के समय न्याय के अध्ययनकी अपने में कर्मी महसूस करते हैं और उसकी आवश्यकता पर जोर देते हैं। इससे स्पष्ट है कि न्यायका पढ़ना कितना उपयोगी और लाभदायक है । और ५- किसी भी प्रकारकी विद्वत्ता प्राप्त करने किसीभी प्रकार के साहित्यनिर्माण करनेके चलता दिमाग़ चाहिये । यदि चलता दिमाग़ नहीं है तो वह न तो विद्वान बन सकता है और न लिये Jain Education International वर्ष ६ किसी तरह के साहित्य का निर्माण ही कर सकता है । और यह प्रकट है कि चलता दिमाग़ मुख्यतः न्याय शास्त्रसे होता है उसे दिमागको तीक्ष्ण एवं द्रुत गति से चलता करनेके लिये उसका अवलम्बन जरूरी है। सोने में चमक कसौटी पर ही की जाती है । अत: साहित्यसेवी और विद्वान बननेके लिये न्याय का पढ़ना उतनाही जरूरी है जितना आज राजनीति और इतिहासका पढ़ना जरूरी है । ६- न्यायशास्त्र में कुशल व्यक्ति सब दिशाओं में जासकता है और सब क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट उन्नति कर सकता है। वह असफल नहीं होसकता । सिर्फ शर्त यह कि वह न्याय ग्रन्थोंका केवल - वाही न हो । उसके रससे पूर्णत: अनुप्राणित हो । ७- निसर्गज तर्क कम लोगों में होता है । अधिकांश लोगों में तो अधिगमज तर्कही होता है जो साक्षात् अथवा परम्परया न्यायशास्त्र - तर्कशास्त्र के अभ्यास से प्राप्त होता है । अतएव जो निसर्गतः तर्कशील नहीं हैं उन्हें कभी भी हताश नहीं होना चाहिये और न्यायशास्त्र के अध्ययन द्वारा अधिगमज तर्क प्राप्त करना चाहिये । इससे वे न केवल अपनाही फायदा उठा सकते हैं किन्तु वे साहित्य और समाज के लिये भी अपूर्व देनकी सृष्टि कर सकते हैं । - समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द आदि जो बड़े बड़े दिग्गज प्रभावशाली विद्वानाचार्य हुये हैं . सब न्यायशास्त्र के अभ्यास से ही बने हैं । उन्होंने करके ही उत्तम उत्तम ग्रन्थ रत्न हमें प्रदान किये। न्यायशास्त्र रत्नाकरका अच्छी तरह अवगाहन जिनका प्रकाश आज जग जाहिर है और जो ह धरोहर के रूप में सौभाग्य से प्राप्त हैं। हमार कर्तव्य है कि हम उन रत्नोंकी श्रभाको अधिकाधिक रूपमें दुनियां के कोने कोने में फैलायें जिससे जैन शासनकी महत्ता और जैन दर्शनका प्रभाव लोकमें ख्यात हो । 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527251
Book TitleAnekant 1948 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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