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शय प्राय: एक ही है और वह यह कि यदि छठे को संगत कहा जावेगा तो ७६ तथा पवें पद्यको भी असंगत कहना होगा । परन्तु बात ऐसी नहीं है । छठा पद्य ग्रन्थका अंग न रहने पर भी ७वें तथा पवें पद्यको असंगत नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ७वें पद्यमें सर्वज्ञकी, आगमेशीकी अथवा दोनों विशेषणोंकी व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसाकि अनेक विद्वानोंने भिन्न भिन्न रूपमें उसे समझ लिया है। उसमें तो उपलक्षणरूप से प्राप्तकी नाम - मालाका उल्लेख है, जिसे 'उपलालयते' पदके द्वारा स्पष्ट घोषित भी किया गया है, और उसमें आप्तके तीनों ही विशेषणों को लक्ष्य में रखकर नामोंका यथावश्यक संकलन किया गया है । इस प्रकारकी नाम - माला देनेकी प्राचीन समय में कुछ पद्धति जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती आचर्य कुन्दकुन्दके 'मोक्खपाहुड' में और दूसरा उत्तरवर्ती आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के 'समाधितंत्र' में पाया जाता है । इन दोनों ग्रन्थों में परमात्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका जो कुछ उल्लेख किया है वह ग्रन्थ क्रमसे इस प्रकार है मलरहियो कलचत्तो सिंदियो केवलो विसुद्धप्पा परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सास सिद्धो || ६ || निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥
अनेकान्त
इन पद्यों में कुछ नाम तो समान अथवा समानार्थक हैं और कुछ एक दूसरे से भिन्न हैं, और इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्माको
लक्षित करनेवाले नाम तो बहुत हैं, ग्रन्थकारोंने अपनी अपनी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार उन्हें अपने अपने ग्रन्थों में यथास्थान ग्रहण किया है । समाधितंत्र के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रने, तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावनावाक्य के द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे श्लोक में परमात्मा के नामकी वाचिका नाममालाका निदर्शन है । रत्नकरण्डकी टीकामें भी प्रभाचन्द्रा
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[ वर्ष ६
चार्यने 'आप्तस्य वाचिकां नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस प्रस्तावना वाक्यके द्वारा यह सूचना की है । ७ वें पद्यमें आप्तकी नाममालाका निरूपण है । परन्तु उन्होंने साथ में आप्तका एक विशेषण 'उक्तदोषैर्विवर्जितस्य' भी दिया है, जिसका कारण पूर्वमें उत्सन्नदोषकी दृष्टिसे आप्तके लक्षणात्मक पद्यका होना कहा जा सकता है; अन्यथा वह नाममाला एकमात्र 'उत्सन्नदोष आप्त' की नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' जैसे नाम सर्वज्ञ आप्तके, 'सार्व:' और 'शास्ता' जैसे नाम आगमेशी (परम हितोपदेशक) आप्तके स्पष्ट वाचक भी मौजूद हैं। वास्तवमें वह आप्तके तीनों विशेषणोंको लक्ष्य में रखकर ही संकलित की गई है, और इसलिये ७वें पद्यकी स्थिति ५वें पद्यके अनन्तर ठीक बैठ जाती है, उसमें असंगति जैसी कोई भी बात नहीं है । ऐसी स्थिति में ७ वें पद्यका नम्बर ६ होजाता है और तब पाठकोंको यह जानकर कुछ आश्चर्यसा होगा कि इन नाममालावाले पद्योंका तीनों ही ग्रन्थोंमें ठा नम्बर पड़ता है, जो किसी आकस्मिक अथवा रहस्यमय घटनाका ही परिणाम कहा जा सकता है। इस तरह ६ठे पद्यके अभाव में जब ७वां पद्य असंगत नहीं रहता तब वां पद्य असंगत हो ही नहीं सकता; क्योंकि वह ७ पद्य में प्रयुक्त हुए 'विरागः और 'शास्ता' जैसे विशेषण-पदोंके विरोधकी शंका के समाधानरूप में है ।
इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्डकी ऐसी कोई प्राचीन प्रतियां मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकीं है, जो प्रभाचन्द्रको टीकासे पहले की अथवा विक्रमकी ११ वीं शताब्दीको या उससे भी पहलेकी लिखी हुई हों। अनेकवार कोल्हापुर के प्राचीनशस्त्र भण्डारको टटोलने के लिये डा० ए०एन० उपाध्ये जीसे निवेदन किया गया; परन्तु हरबार यही उत्तर मिलता रहा कि भट्टारकजी मठमें मौजूद नहीं हैं, बाहर गये हुये हैं- वे अक्सर बाहर ही घूमा करते हैं- और बिना उनकी मौजूदगीके मठके शास्त्र भंडारको देखा नहीं जा सकता ।
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