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वर्ष ३, किरण ३
पौष, वीर नि० सं०२४६६
अनेकान्त
वार्षिक मूल्य ३)
जनवरी १९४०
श्रीबाहुबली स्वामी
इस कामदेवोपम सवाङ्ग सुन्दर बलिष्ठ पुरुषने निदारुण कायक्लेशमें वर्षके वर्ष बिता डाले। लोग देखकर हा हा खाते थे और निस्तब्ध रह जाते थे। उसकी स्पृहणीय काया मिट्टी बनी जा रही थी । स्त्रियाँ उस निनिमीलित नेत्र, मग्न-मौन, शिलाकी भांति खड़े हुए पुरुष-पुंगवके चरणोंको धो-धोकर वह पानी अाँखों लगाती थीं। उसके चरणोंके पासकी मिट्टी औषधि समझी जाती थी। पर वह सब श्रोरसे विलग, अनपेक्ष, बन्द-आँख बन्द-मुख, मलिन देह, कृश-गात, तपस्यामें लीन था।
_जैनेन्द्र
TECTROLOLORD
OPLOADITORIEOFODROPIONORMOOHINOOROSONIOXONTONTERCORROROFOONICTIGEGENORE सम्पादक
संचालकजुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरमावा (सहारनपुर) कनॉट सकस पो० बो० नं०४८ न्यू देहली। ROMOKISHORTONSIDDROIDALEGAOSINORGALTHOKOND DISTIGORMONTROHGDEIOENOONDO
पाटन नीर राकापसयोध्या 2 गोयलीय
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GIONACHOOL
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विषय-सूची
१. सिद्धसेन स्मरण ...
२. पुरुषार्थ (कविता) - [ले० श्री० मैथिलीशरण गुप्त
३. धवलादि श्रुत- परिचय [सम्पादकीय...
४. सुधार संसूचन.
२. उस दिन ( कहानी ) - श्री "भगवत् "
६. जैनधर्म की विशेषता [ श्रा सूरजभान वकील
७. वीर शासनाँक पर सम्मतियाँ...
८. वास्तविक महत्ता [ श्रीमद् राजचन्द्र ....
२. ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश [ मुनि श्री कवी सागरजी
१०. द्रव्य-मन [ पं० इन्द्रचन्द शास्त्री....
११. अति प्राचीन प्राकृत "पंच संग्रह " [ पं० परमानन्द ...
१२. जैन और बौद्ध निर्वाण में अन्तर [ श्री जगदीशचन्द्र एम. ए. १३. एक महान साहित्य सेवीका वियोग [ सम्पादकीय...
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܀
-व्यवस्थापक
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अनेकान्तकी फाइल
अनेकान्तके द्वितीय वर्ष की किरणोंको कुछ फाइलोंकी साधारण जिल्द बंधवालो गई हैं। १२ वीं किरण कम हो जानेके कारण फाइलें थोड़ी ही बन्ध सका हैं । अतः जो बन्धु पुस्तकालय या मन्दिरों में भेंट करना चाहें या अपने पास रखना चाहें वे २ || ) रु० मनियार्डर से भिजवा देंगे तो उन्हें सजिल्द अनेकान्तकी फाइल भिजवाई जा सकेगी ।
२६५
जो सजन अनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जाने के कारण जिल्द बन्धवाने में असमर्थ हैं उन्हें १२वीं किरण छोड़कर प्रत्येक किरणके लिये चार थाना और विशेषांक के लिए आठ श्राना भिजवाना चाहिए तभी प्रदेशका पालन हो सकेगा ।
- व्यवस्थापक
भूल
मशीन पर छपते हुए किनने हो फार्मों में पृ० २६१ पर लेखक प्रोफेसर जगदीशचन्दजी के 'प्रोफेसर' में से "प्रोफे" तर निकल गये हैं कृपया सुधार लीजियेगा ।
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ॐ अहम
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ ....... सम्पादन-स्थान-बीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर । प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली
देहली
किरण ३ पौष पर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १९६६
सिद्वसन-स्मरणा जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥
-हरिवंशपुराणे, जिनसेनसूरिः श्रीसिद्धसेनाचार्यकी निर्दोष सूक्तियाँ जगत्प्रसिद्ध बोधस्वरूप भ० वृषभदेवकी सूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धि को बोध देती है--उसे विकसित करती हैं ।
प्रवादि करि-यथानी केशरी नय-केशरः । सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्प-निखरांकुरः॥
__ --श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः जो प्रवादिरूपी हाथियों के समूह के लिये विकल्परूप नुकीले नखोंसे युक्त और नयरूप केशरोंको धारण किये हुए केशरीसिंह हैं, वे श्रीसिद्धसेन कवि जयवन्त हों-अपने प्रवचनद्वारा मिथ्यावादियोंके मतोंका निरसन करते हुए, सदा ही लोक-हृदयों में अपना सिक्का जमाए रखें।
मदुक्ति-कल्पलतिकां सिंचन्त: करुणामृतैः । कवयः सिद्धसेनाद्या वर्धयन्तु हृदिस्थिताः ॥
-यशोधरचरिते, मुनि कल्याणकीर्तिः हृदय में स्थित हुए श्रीसिद्धसेन-जैसे कवि मेरी उक्तिरूपी छोटीमी कल्पलताको करुणाऽमतसे सींचते हुए उसे वृद्धिंगत करें--अर्थात् मैं सिद्धसेन-जैसे महा प्रभावशाली कवियों को अधिकाधिक-रूपसे हृदयमें धारण करके अपनी वाणीको उत्तरोत्तर पुष्ट और शक्ति सम्पन्न बनाने में समर्थ होऊ ।
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...... पुरुषार्थ
ले-कविवर श्री मैथिलीशरण गुप्त] पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो, मनुज-जीवन में जयके लिये, हृदयकी सब दुर्बलता तजो ।
प्रथम ही दृढ़ पौरुष चाहिये। प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो,. . विजय तो पुरुषार्थ बिना कहाँ, ___ सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो ? कठिन है चिर-जीवन भी यहाँ। प्रगतिके पथमें विचरो उठो,
भय नहीं, भवसिन्धु तरो, उठो, पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो ॥ "
(२) न पुरुषार्थ बिना कुछ स्वार्थ है, यदि अनिष्ठ अड़ें अड़ते रहें, न पुरुषार्थ बिना परमार्थ है।
विपुल विघ्न पड़ें पड़ते रहें। समझ लो यह बात यथार्थ है, हृदयमें पुरुषार्थ रहे भरा, . कि पुरुषार्थ वही पुरुषार्थ है। __ जलधि क्या, नभ क्या, फिर क्या धरा । भुवनमें सुख-शान्ति भरो उठो, दृढ़ रहो, ध्रुवधेय्य धरो, उठो
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो ।। न पुरुषार्थ बिना वह स्वर्ग है, . यदि अभीष्ट तुम्हें निज सत्व है, न पुरुषार्थ बिना अपवर्ग है।
प्रिय तुम्हें यदि मान-महत्व है। न पुरुषार्थ बिना क्रियता कहीं, यदि तुम्हें रखना निज नाम है,
न पुरुषार्थ बिना प्रियता कहीं। जगतमें करना कुछ काम है । सफलता वर-तुल्य बरो उठो,
मनुज ! तो श्रमसे न डरो, उठो, ____ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ (४)
(८) न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ, प्रकट नित्य करो पुरुषार्थ को, ___ सफलता वह पा सकता कहाँ ? हृदयसे तज दो सब स्वार्थ को । अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
यदि कहीं तुमसे परमार्थ हो, न उसमें यश है न प्रताप है ।
यह विनश्वर देह कृतार्थ हो । न कृमि-कीट-समान मरो, उठो, सदय हो, पर दुख हरो, उठो,
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥
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धवलादि श्रुत-परिचय
[ सम्पादकीय ]
धवल - जयधवल के रचयिता
( २ )
ग विशेषाङ्क में यह बतलाया जा चुका है कि धवल-जयधवल मूल ग्रन्थ न होकर संस्कृत - प्राकृत भाषा - मिश्रित टीकाग्रन्थ हैं, परन्तु अपने अपने मूल ग्रन्थोंको साथमें लिये हुए है। साथ ही, यह भी बतलाया जा चुका है कि वे मूलग्रन्थ कौन हैं, किस भाषा के हैं, कितने कितने परिमाणको लिए हुए हैं और किस किस श्राचार्य के द्वारा निर्मित हुए हैं अथवा उनके अव तारकी क्या कुछ कथा इन टीका-ग्रन्थों में वर्णित है, इत्यादि । आज यह बताया जाता है कि धवल के रचयिता वीरसेनाचार्य और जयधवलके रचयिता वीरसेन
तथा जिनसेनाचार्य कौन थे, किस मुनि-परम्परा में उत्पन्न हुए थे, टीकोपयुक्त सिद्धान्त विषयक ज्ञान उन्हें कहांसे प्राप्त हुआ था और उनका दूसरा भी क्या कुछ परिचय इन टीकाग्रन्थों परसे उपलब्ध होता है ।
श्रीवीरसेनाचार्य
धवल के अन्तमें एक प्रशस्ति लगी हुई है, जो नवगाथात्मिका है और जिसके रचयिता स्वयं श्री वीरसेनाचार्य जान पड़ते हैं, क्योंकि उसमें अन्तमंगल के तौर पर मंगलाचरण करते हुए 'मए' (मया) और 'महु' ' (मम) जैसे पदों का प्रयोग किया गया है और ग्रन्थसमाप्ति के ठीक समयका बहुत सूक्ष्मरूपसे - उस वक्तकी ग्रहस्थिति तकको स्पष्ट बतलाते हुए - उल्लेख किया है ।
इस प्रशस्तिकी १ली, ४थी और पूर्वीीं, ऐसी तीन गाथाश्रोंसे वीरसेनाचार्यका कुछ परिचय मिलता है । पहली गाथासे मालूम होता है कि एलाचार्य सिद्धान्त विषय में वीरसेन के शिक्षा गुरु थे— इस सिद्धान्तशास्त्र (षट्खण्डा
गम) का विशेष बोध उन्हें उन्होंके प्रसादसे प्राप्त हुआ था, और इसलिये इस विषयका उल्लेख करते हुए वीरसेनाचार्यने उन एलाचार्य के अपने ऊपर प्रसन्न होनेकी भावना की है— प्रकारान्तरसे यह सूचित किया है कि 'जिन श्रीएलाचार्यसे सिद्धान्त-विषयक ज्ञान को प्राप्त करके मैं उनका ऋणी हुआ था, उनके उस ऋणको आज मैं ब्याज (सूद) सहित चुका रहा हूँ, यह देखकर वे मुझ पर प्रसन्न होंगे । चौथी और पांचवी दो गाथाओं में यह बतलाया है कि जिन वीरसेन मुनि भट्टारकने यह टीका ( धवला ) लिखी है वे आचार्य श्रानन्दीके शिष्य तथा चन्द्रसेनके प्रशिष्य थे और 'पंचस्तूप' नामके मुनिवंश में उत्पन्न हुए थे— उस
*धवला में श्रन्यत्र - 'कर्म' नामके अनुयोगद्वार में"वैयावृत्य के भेदोंका वर्णन करते हुए, मुनिकुलके १ पंच स्तूप, २ गुहावासी, ३ शालमूल, ४ अशोकवाट, ५ खंडकेसर, ऐसे पंच भेद किये हैं । यथा
" तत्थ कुलं पंचविहं पंचथूहकुलं, गुहावासीकुलं सालमूलकुलं असोगवादकुलं खंडकेस रकुल चेदि ।”
'पंच स्तूप' नामक मुनिवंश के मुनियों का मूलनिवासस्थान पंचस्तूपों के पास था, ऐसा इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के 'पंच स्तूयनिवासादुपागता येऽनगारिणः" जैसे
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अनेकान्त
[पौष, पीर-निर्वाण सं०२४६६
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वंशरूपी आकाशमें सूर्यके समान थे । साथ ही, सिद्धांत, राहुके साथ मंगल कुम्भराशिमें था, चन्द्रमा मीनराशि छंद, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण (न्याय)-विषयक का और शुक्र कुम्भराशिका था; जगतुंगदेव (गोविन्द शास्त्रोंमें वे निपुण थे । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि तृतीय) आसन छोड़ चुके थे और उनके उत्तराधिकारी वीरसेनके दीक्षागुरु चन्द्रसेनाचार्य के शिष्य आर्यनन्दी राजा बोद्दणाराय (अमोघवर्ष प्रथम) जो कि नरेन्द्रचूड़ाथे और इसलिये उनकी गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्य मणि थे, राज्यासनपर श्रारुढ हुए उसका उपभोग से प्रारम्भ होती है-एलाचार्यसे नहीं। एलाचार्यके कर रहे थे । प्रशस्तिकी कुछ मांथाओंमें लेखकोंकी कृपाविषयमें यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे से कोई कोई पद अशुद्ध पाये जाते हैं। प्रो० हीरालाल पंचस्तूपान्वयमें उत्पन्न हुए थे-वे मात्र सिद्धान्त- जीने भी, 'धवला' का सम्पादन करते हुए उनका विषयमें वीरसेनके विद्यागुरु थे, इतना ही यहां स्पष्ट अनुभव किया है और अपने यहांके प्रवीण ज्योतिर्विद जाना जाता है । इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें उन्हें चित्रकूट- श्रीयुत पं० प्रेमशंकरजी दबेकी सहायतासे प्रशस्तिके पुरका निवासी लिखा है, इससे भी वे पंचस्तूपान्वयी ग्रहस्थिति विषयक उल्लेखोंका जांच पड़ताल के साथ मुनियोंसे भिन्न जान पड़ते हैं।
संशोधनकार्य किया है, जो ठीक जान पड़ता है। साथ प्रशस्तिकी शेष गाथाओं में से दूसरीमें 'वृषभसेन' ही, यह भी मालूम किया है कि चूंकि केतु हमेशा राहुसे का, तीसरीमें अर्हत्सिद्धादि परमेष्ठियोंका अन्त्यमंगल- सप्तम स्थान पर रहता है इसलिये केतु उस समय के तौर पर स्मरण किया गया है और अन्तकी चार सिंहराशि पर था। और इस तरह प्रशस्तिपरसे ग्रन्थकी गाथाओंमें टीकाकी समाप्तिका समय, उस समयकी जन्मकुण्डलीकी सारी ग्रहस्थिति स्पष्ट हो जाती है । अस्तु, राज्यस्थितिका कुछ निर्देश करते हुए, दिया है- अर्थात् यह पूर्ण प्रशस्ति अपने संशोधित रूप-सहित, जिसे यह बतलाया है कि यह धवला टीका शक संवत् ७३८ ब्रैकट (कोष्ठक)में दिखलाया गया है, श्राराकी प्रतिके ' में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशीके दिन उस समय समाप्त अनुसार इस प्रकार हैकी गई है जब कि तुलालग्नमें सूर्य बृहस्पति के साथ था जस्स से(प)साएण मए सिद्धतमिदं हि अहिलढुंदी तथा बुधका वहां अस्त था, शनिश्चर धनुराशिमें था,,
(लिहिद)। वाक्यसे पाया जाता है। इसीसे उन मुनियोंके वंशकी महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्स ॥१॥ 'पंचस्तूपान्वय' संज्ञा पड़ी; परन्तु ये पंचस्तूप कहां थे, वंदामि उसह लेणं तिहुवणजिय-बंधवं सिवं संतं । इसका कोई ठीक पता नहीं चलता । साथ ही, उक्त श्रु- णाण-किरणाबहासिय-सयल-इयर-तम पणासियं दिट्ठ॥२ तावतारमें उद्धृत पुरातन वाक्यों के “पंचस्तूप्यास्ततः अरहंतपदो ( अरहंतो) भगवंतो सिद्धा सिद्धापसिसेना:"पंचस्तृप्यास्तु सेनानां" जैसे अंशोंसे यह भी द्धयाइरिया । साहू साहू य महं पसी( सि )यंतु जाना जाता है कि पंचस्तूपान्वय सेनसंघका ही विशेष भडारया सव्वे ॥ ३ ॥ अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जवकम्मस्स अथवा नामान्तर है । वीरसेनकी गणना भी सेनसंघके चंदसेखस्स । तह णत्वेण पंचत्थूहएणयभाणुणा आचार्यों में ही की जाती है-सेनसंघकी पट्टावली में मुणिणा ॥ ४॥ सिद्धंत-छंद जोइस-बायरण-पमाणउनके नामका निर्देश है।
सत्थ णिवुणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण॥५
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- वर्ष ३, किस ]
नयादिश्रुत-परिचय
अनीसम्मि सासिय(सतसए) विकसरायस्मिए किस) प्रथमकी पांच मामा की शोना सब पद्य सुसंगरमो ( सगणामे )।
संस्कृत भाषाके हैं। इसके रचयिता वीरसमके शिष्य पा(या)से सुतेरसीए भाव (गु)-विलो धवल-पल ॥ जिनसेन हैं और इसमें टीका-नाम, अन्त्य-मंगलाचरण जगतु गर्दवरज्जे रियम्हि कुंभन्हि राहुणा की।
तथा ग्रन्थकी समानिके समयादिकी सूचनाओंके साथ सूरे तुलाए संतं (ते)गुरुम्हि कुलबिल्लाए होने ॥
बीरसेन और जिनसेन दोनों प्राचार्योक्म कुछ-कुछ मरिचावम्हि यात)रिणघुत्ते सिंग्घे सुक्कम्मि मि मीण)
चय भी दिया हुआ है । श्रीवीरसेनाचार्य के परिचयचंदम्मि।
विपायक मुख्य पद्य माराके सिद्धान्त-भवनकी प्रतिके कत्तियमाले एसा टीका हु ममाणिला (या) धवला ॥ अनुसार इस प्रकार हैं :बोहणरायरिंदे णरिंदचूडामणिम्हि भुंजते ।
* श्रीवीरसेन इत्यात्त भट्टारक-पृथुमथः । सिद्धधनयमस्थिय मुरुप्पसागण विगता सा ॥६॥
पारदृश्वाधिविद्यानां साचादिव स केवली ॥१॥ इन प्रशस्ति के बाद एक संगमका प्रशस्ति पत्र
प्रीणित-प्राणिसंपत्तिराकांताशेषगोचरा । और सा है, जो संभातः कामाचा किनी शिष्य
भारती भारतीवाज्ञा पखण्डे यस्य नाऽस्खलन ॥२०॥ की--मा: जिनसेन मी--ति नाग पता है, और वह
यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थमामिनीं । इस प्रकार है:--
जाता सर्वज्ञसभावे निरारेका मनीषिणः ॥२१॥ श-ग्रीति शादेशावरलिरिधेय राद्धान्तविद्भिः
यं प्राहुः प्रस्बोध-दीधिति-प्रसरोदयं ।
श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमं ॥२२॥ साक्षान्सर्वज्ञ एवेत्यवति मनिनिमम स्तुपातो (वाणैः)
प्रसिद्ध सिद्ध सिद्धांत-वाधिवाधौत शुद्धधीः । यो दृष्टी विश्वविद्यानिधिरिति जाति प्राप्त भट्टारकाख्यः
साद्धं प्रत्येकबुद्धैर्यः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः ॥२३॥ स नं. बरगी जयति पर भित्रकारः ॥१॥
28 पहली गाथा टीका नामादि-विषयक है और इ. बतलाया ... को शब्द
वह निम्न प्रकार है; शेष गाथाएँ श्रुतदेवताके म्परणा
दिमे सम्बन्ध रखती हैंरूप, सामानमा .... ' के रूप और चार .
एन्थ समापइ धवलियतिहुवणभवणा पसिद्धमाहप्पा । देगा---ग्रनमा रि ...
पाहुडसुत्ताणमिमा जयधवला सरिणया टीका ॥१॥ ना..
इस पद्यसे पहले वीरसेन-विषयक दो पद्य और वा . : ...... .......
सार हैं. जो निम्न प्रकार हैंसमान .. .... ..... भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनं । अपना का .....
.. भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनं (१) ॥१७॥
भासीदास ददामन्नभव्यसत्वकुमुदतीं । जो संस्कारमा
त् मुदती कमीशो यः शशांक इव पुष्कलः ॥१८॥
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.. अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
पुस्तकानां चिरंतानां गुरुवमिह कुर्वता।
प्रशिष्य तथा आर्यनन्दीके शिष्य थे और उन्होंने अपने ये नातिशायिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥२४॥
कुल, गण तथा सन्तान (शिष्यसमूह) को अपने यस्तपोदीप्तकिरणैभन्यांभोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेनः पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥२५॥
गुणोंसे उज्वल किया था। प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योप्यार्यनंदिनां ।
___ यह परिचय कुछ अतिशयालंकारसे युक्त होनेपर कुलं गणं च संतानं स्वगुणैरुदजिज्वलत् ॥२६॥ __ भी बहुत कुछ तथ्यपूर्ण जान, पड़ता है और इसका
इन पद्योंमें बतलाया है कि-'श्री वीरसेनाचार्य कितना ही अनुभव वीरसेनाचार्यकी धवला और जयभट्टारक पदकी महाख्यातिको प्राप्त थे और साक्षात् धवला ऐसी दोनों टीकाओंको देखनेसे हो सकता है । केवलीकी तरह अधिकांश विद्याोंके पारदृष्टा थे । उनकी इस परिचय में भी वीरसेनको पंचस्तपान्वयी चन्द्रसेनके अशेष विषयोंसे परिपूर्ण तथा प्राणिसम्पत्तिको-प्राणियों प्रशिष्य तथा आर्यनन्दीके शिष्य सूचित किया है । साथ में उत्कर्षको प्राप्त मानवसंततिको अथवा प्राणिसमूहको- ही, एलाचार्यका गुरुरूपसे कोई उल्लेख ही नहीं किया, संतुष्ट करनेवाली भारती(वाणी)सिद्धान्तागमके षट्खण्डों जिसका यह स्पष्ट अर्थ जान पड़ता है कि वीरसेनाचार्यमें उसी प्रकारसे निर्बाध प्रवर्तती थी जिस प्रकार कि भरत की गुरुपरम्परा उक्त चन्द्रसेनाचार्यसे ही प्रारंभ होती है, चक्रवर्तीकी अाशाभरतक्षेत्रके छहोखण्डोंमें अखण्डितरूप एलाचार्यसे नहीं-एलाचार्यसे उन्हें प्रायः षट्खण्डासे वर्तती थी अर्थात् जिस तरह भरत चक्रीकी अाशा गमविषयक ज्ञानकी ही प्राप्ति हुई थी, जयधवलंके श्राछहों खण्डोंमें प्रमाण मानी जाती थी उसी तरह वीरसेना- धारभूत कषायप्राभूत के ज्ञानकी प्राप्ति नहीं । चार्यकी वाणीभी षटखण्डागमके विषयमें प्रमाण मानी वीरसेनाचार्य जयधवलाको पूरी नहीं कर सके, वे जाती थी। उनकी सर्वपदार्थों में प्रवेश करनेवाली स्वाभाविक उसका पूवार्ध ही–जो कि प्रायः २० हज़ार श्लोक बुद्धिको देखकरबुद्धिमान लोग सर्वज्ञके विषयमें शंकारहति परिमाण है-लिख पाये थे कि उनका स्वर्गवास होगया, होगये थे । वे प्रकर्षरूपसे स्फुरायमान ज्ञानकी किरणोंके और इसलिये उत्तरार्धको-जो कि ४० हज़ार श्लोकप्रसारको लिये हुए थे और इसलिये विद्वान् जन उन्हें परिमाण है--उनके शिष्य वीरसेनने लिखकर समाप्त श्रुत केवली तथा प्रज्ञाश्रमणोंमें उत्तम कहते थे। उनकी किया है । समाप्तिका समय शक संवत् ७५६ फाल्गुन बुद्धि प्रसिद्ध और सिद्ध ऐसे सिद्धान्त-समुद्रके जलसे शुक्ला दशमीके पूर्वान्हका है,जबकि नन्दीश्वर महोत्सवके धुलकर शुद्ध हुई थी, और इसलिये वे तीव्र बुद्धि के अवसर पर अर्थात् अष्टान्हिका पर्वमें-महान् पूजाधारक प्रत्येक बुद्धोंके साथ स्पर्धा करते थे। उन्होंने विधान प्रवर्त रहा था, और गुर्जरराजा अमोघवर्षका प्राचीन पुस्तकोंके गौरवको बढ़ाया था और वे अपने राज्य था । उन्हींके राज्यके वाटग्राम नगर में यह सूत्रार्थपूर्वके सभी पुस्तकशिष्यों-पुस्तकपाठियों अथवा पुस्तकों- दर्शिनी 'जयधवला' ट का, जिसे 'वीरसेनीया' नाम भी द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवालोंमें बढ़े चढ़े थे। वे मुनिराज- दिया गया है, उक्त समय पर समाप्त की गई है, जैसा रूपी सूर्य अपने तपकी देदीप्यमान किरणोंसे भव्यजनरूपी कि प्रशस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट है- . कमलोंको विकसित करते हुए पंचस्तूपान्वयरूपी अाकाश- इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । में सविशेष रूपसे उद्योतको प्राप्त हुए थे । वे चन्द्रसेनके वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥६॥
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वर्ष ३, किरण ३]
धवलादि श्रुत-परिचय
२११:
फाल्गुने मासि पूर्वान्हे दशम्यां शुक्लपक्षके। .. और साथ ही आपकी 'धवला' भारतीको स्पष्टरूपसे प्रवर्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥७॥
नमस्कार भी किया है । वीरसेनके शिष्य होनेसे ये भी अमोघवर्षराजेन्द्र-प्राज्यराज्य-गुणोदया।
पंचस्तूपान्वयी आचार्य हैं और इसलिये इनकी भी निष्ठिता प्रचयं (?) यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८॥ गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्यसे प्रारम्भ होती है-एलाचाषष्ठिरेवसहस्राणि ग्रन्थानां परिमाणतः। यसे नहीं। 'विद्वद्रत्नमाला' में उसका एलाचार्यसे श्लोकानुष्टभेनात्र निर्दिष्टान्यनुपूर्वशः ॥६॥ प्रारम्भ होना जो लिखा है वह ठीक नहीं है । विभक्तिः प्रथमस्कंधो द्वितीयः संक्रमोदयौ । ___ जयधवलाकी उक्त प्रशस्तिमें, वीरसेनका परिचय उपयोगश्च शेषास्तु तृतीयः स्कन्ध इष्यते ॥१०॥ . . देनेके बाद, जिनसेनको वीरसेनका शिष्य बतलाते हुए, एकान्नषष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । जो परिचयका प्रथम पद्य दिया है वह इस प्रकार हैसमतीतीषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥११॥ तस्य शिष्यो भवेच्छीमान् जिनसेनः समिधीः । यह बात ऊपर बतलाई जाचुकी है कि धवला
भाविद्धावपि यत्करणौ विद्वौ ज्ञानशलाकया ॥ २७ ॥ टीका शकसंवत ७३८में बनकर सम
इससे मालूम होता है कि श्रीजिनसेन वीरसेनाचा बाद ही यदि जयधवला टीका प्रारम्भ करदी गई थी,
र्यके तीव्र बुद्धि शिष्य थे। साथ ही, यह भी मालूम जिसका उसके अनन्तर प्रारम्भ होना बहुत कुछ स्वा
होता है कि आप अाविद्धकर्ण थे अर्थात् आपके दोनो भाषिक जान पड़ता है, तो यह कहना होगा कि जय
कान बिंधे हुए थे, फिर भी आपके कान पुनः ज्ञानधवलाके निर्माण में प्रायः २१ वर्षका समय लगा है।
शलाका से विद्ध किये गये थे, जिसका भाव यही च कि इसका एक तिहाई भाग ही वीरसेनाचार्य लिख
जान पड़ता है कि मुनि-दीक्षाके बाद अथवा पहले पाये थे, इसलिये वे धवलाके निर्माण के बाद प्रायः
श्रापको गुरुका खास उपदेश मिला था और उससे ७ वर्ष तक जीवित रहे हैं, और इससे उनका अस्तित्व
आपको बहुत कुछ प्रबोधकी प्राप्ति हुई थी। काल प्रायः शक संवत ७४५ तक जान पड़ता है।
आप बाल-ब्रह्मचारी थे—बाल्यावस्थासे ही आपने - इस तरह यह वीरसेनाचार्यका धवल-जयधवलके
* आदिपुराणके वे पद्य इस प्रकार हैं:आधार पर संक्षिप्त परिचय है । अब जिनसेनाचार्य के परिचयको भी लीजिये।
श्रीवीरसेन इत्यात्त-भट्टारकपृथुप्रथः । श्री जिनसेनाचार्य
स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ।।५।। जयधवलके उत्तरार्धके निर्माता ये जिनसेनाचार्य लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं। वे ही जिनसेनाचार्य हैं जो प्रसिद्ध श्रादिपुराण ग्रंथके । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥५६॥ रचयिता हैं और प्रायः भगवज्जिनसेनके नामसे उल्ले- सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । खित किये जाते है । श्रादिपुराणमें भी इन्होंने "श्री- मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ ५७ ॥ वीरसेन इत्यात्त भट्टारकपृथुप्रथः' इत्यादिं वाक्योंके द्वारा धवला भारती तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । श्रीवीरसेनाचार्यका अपने गुरुरूपसे स्मरण किया है धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥ ५६ ।।
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[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया था। अतिसुन्द- यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोभूत तपोगुणैः । राकार और अतिचतुर न होने पर भी सरस्वती श्राप न कृशत्वं हि शारीरं गुणैरेव कृशः कृशः ॥ ३२ ॥ पर मुग्ध थी और उसने अनन्ये-शरण होकर उस समय यो नाग्रहीकापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । श्रापका ही श्राश्रय लिया था। साथ ही, श्रासन्न भव्य तथाप्यध्यात्म विद्याब्धेः परं पारमशिश्रियत् ॥३३॥ होने की वजहसे, मुक्तिलक्ष्मीने स्वयंवराकी सरह उत्सुक ज्ञानाराधनया यस्य गतः कालो निरन्तरं । होकर आपके कण्ठमें श्रुतमाला डाली थी । इस अलं- ततो ज्ञानमयं पिण्डं यमाहुस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥ कुत भावको प्रशस्तिके नीचे लिखे पद्योंमें प्रकट किया जिनसेनने जयधवला टीका के उत्तर-भागको अपने गया है
गुरु (वीरसेन ) की आज्ञासे लिखा था। गुरुने उत्तरयस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका। - भागका बहुत कुछ वक्तव्य प्रकाशित किया था। उसे स्वयंवरितुकामेव श्रौति मालामयूयुअत् ॥ २८ ॥ देखकर ही अल्प वक्तव्यरूप यह उत्तरार्ध अापने पर्ण येनानुचरितं कास्वाद ब्रह्मवतमखंडितम् । किया है, जो प्रायः प्राकृत भाषामें है और कहीं कहीं स्वर्ववरविधानेन चित्रमूडा सरस्वती ॥ २६॥ संस्कृत मिश्र भाषाको लिये हुए हैं; ऐसा आप स्वयं यो नातिसुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः। प्रशस्ति के निम्न पद्यों द्वारा सूचित करते हैं-- तथाप्यनभ्यशरणाऽयं सरस्वत्युपा चरत् ॥३०॥ तेनेदमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् ।।
"जिनसेन स्वभावसे ही बुद्धिमान, शान्त और विनयी लिखितं विशंदेरेभिरक्षरः पुण्य शासनम् ॥३५॥ . थे, और इन ( बुद्धि, शांति, विनय ) गुणोंके द्वारा गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते ।
आपने अनेक प्राचार्योका आराधन किया था-अर्थात् तन्निरीच्याल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन परितः ॥ ३६॥ इन गुणों के कारण कितने ही प्राचार्य उस समय श्राप प्रायः प्राकृतभारत्या क्वचित्संस्कृतमिश्रया । पर प्रसन्न थे। आप शरीरसे यद्यपि पतले-दुबले थे, तो मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रंथविस्तरः ॥३७॥ भी तपोगुण के अनुष्ठानमें कभी नहीं करते थे । शरीरसे कुछ आगे चलकर आपने यह प्रकट करते हुए कृश होने पर भी आप गुणोंमें कृश नहीं थे। आपने कि 'सर्वशोदित इस सत्य प्रवचन में, जोकि प्रस्पष्ट तथा कपिल सिद्धान्तोंको-सांख्यतत्त्वोंको-ग्रहण नहीं किया मृष्ट (पवित्र ) अक्षरोंको लिये हुए हैं, अत्युक्त अनुक्तऔर न उनका भले प्रकार चिंतन ही किया,तो भी आप दुरुक्तादिक-जैसी कोई बात नहीं है, अपनी टीकाके अध्यात्म-विद्या-समुद्रके उत्कृष्ट पारको पहुंच गये थे। सम्बन्धमें यह भी बतलाया है कि थोड़े ही अक्षरों द्वारा श्रापका समय निरन्तर ज्ञानाराधनमें ही व्यतीत हुआ सूत्रार्थका विवेचन करनेमें हम जैसोंकी टीका उक्त, करता था, इसीसे तत्त्वदर्शीजन श्रापको ज्ञानमय पिण्ड अनुक्त और दुरुक्तका चिन्तन करने वाली (वार्तिकरूप) कहते थे। इन सब बातोंके द्योतक पद्य, प्रशस्ति में, इस टीका नहीं हो सकती। इसलिये पूर्वापर-शोधन के साथ प्रकार हैं
हम जैसीका जो शनैः शनैः (शनकैस् ) टीकन है, धीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिकाः गुणाः। उसीको बुधजन टीकारूपसे ग्रहण करें, यही हमारी सूरीनाराधयंति स्म गुणैराराध्यते न कः ॥ ३१॥ पद्धति है । साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि छद्म
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३,
किरण : ३]
लादिश्रुत-परिचय
के साथ 'श्रीपाल - सम्पादिता' भी बतलाया हैश्रीवीरप्रभुभाषितार्थघटना निर्लोडितान्यागम
स्थताके दोष के कारण जो कुछ इस टीकामें दुरुक्त रूपसे रचा गया हो वह सब आगम धनी विद्वानोंके द्वारा परिशोधन किये जानेके योग्य है और जो निर्दोष है वही ग्रहण किया जाना चाहिये । यथा - * श्रत्युक्तं किमिद्दास्त्यनुक्तमथवा किं वा दुक्तारुिदकं, सर्वज्ञोदित सूनृत प्रवचने प्रस्पष्टष्टाक्षरे । तत्सूत्रार्थविवेचने कतिपयैरेवाचरे मांटशां उक्तानुक्तदुरुक्त चिन्तनपरा टीकेति कः संभवः ॥ ४१ ॥ तत्पूर्वापरशोधनेन शनकैर्यन्मादृशां टीकनं, सा टीकेत्यनुगृह्यतां बुधजनैरेषा हि नः पद्धतिः । afafeve दुरुक्तमत्र 'रचितं छाद्मस्थ्यदोषोदयात्. तर सर्व परिशोध्य मागमधनैर्ग्राह्य च यन्निस्तुषं ॥४२॥
इन पद्यो में श्राए हुए 'मादृश' (हम जैसोंकी) और 'नः' 'हमारी) शब्दोंसे यह बात साफ़तौरसे उद्घोषित होती है कि यह प्रशस्ति जयधवला टीकाके उत्तरभागके रचयिता स्वयं श्रीजिनसेनाचार्यकी बनाई हुई है और इसके द्वारा उन्होंने श्रात्म-परिचय दिया है, जिससे विज्ञ पाठक श्राचार्य महोदयकी शारीरिक, मानसिक और बुद्धयादि विषयक स्थितिका बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं ।
प्रशस्तिमें टीकाका नाम कहीं 'वीरसेनीया' और कहीं 'जयधवला' दिया है । साथ ही, अन्तिम पद्यसे पहले निम्न श्राशीर्वादात्मक पद्यमें उसे अन्य विशेषणों
* इस पथसे पूर्वके तीन पद्य इस प्रकार हैं:ग्रन्थच्छायेति यत्किंचिदत्युक्तमिह पद्धतौ । क्षन्तुमर्हथ तत्पूज्या दोषं ह्यर्थी न पश्यति ||३८|| गाथासूत्राणि सूत्राणि चूर्णिसूत्रं तु वार्तिकं । टीका श्री वीरसेनीया शेषाः पद्धतिपंजिकाः ||३९|| ते सूत्रसूत्र तद्वृत्तिविवृती वृत्तिपद्धती । कृत्स्नाकृत्स्नश्रुतव्याख्ये ते टीकापंजिके स्मृते ||४०
२१३..
न्याया श्रीजिनसेनसन्मुनिवरैरादर्शितार्थं स्थितिः । टीका श्रीजयचिन्हितोरुधला सूत्रार्थसंयोतिनी, स्थेयादारविचन्द्रमुज्वल तपः श्रीपालसंपादिता ॥४३॥
इस परसे श्रीयुत पं० नाथूराम जी प्रेमीने अपनी 'विद्वद्रस्नमाला' में यह निष्कर्ष निकाला है कि—
“वास्तवमें कषायप्राभृतकी जो वीरसेन और जिनसेनस्वामीकृत ६० हजार श्लोक - प्रमाण टीका है, उस का नाम तो 'वीरसेनीया' है; और इस वीरसेनीया टीकासहित जो कषायप्राभृतके मूल सूत्र और चूर्णिसूत्र, वार्तिक वगैरह अन्य श्राचार्योंकी टीकाएँ हैं, उन सबके संग्रहको 'जयधवला' टीका कहते हैं । यह संग्रह 'श्रीपाल' नामके किसी आचार्यने किया है, इसीलिये जयधवलाको 'श्रीपाल सम्पादिता' विशेषण दिया है।"
प्रेमीजीका यह निष्कर्ष ठीक नहीं है, और उसके निकाले जाने की वजह यही मालूम होती है कि उस समय आपके सामने पूरी प्रशस्ति नहीं थी । आपको आगे पीछे के कुछ ही पद्य उपलब्ध हुए थे, जिन्हें श्रापने अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है । जान पड़ता है आप उन्हीं पद्योंको उस समय पूरी प्रशस्ति समझ गये हैं और उन्हीं के आधारपर शायद आपको यह भी खयाल होगया है कि यह प्रशस्ति 'श्रीपाल ' आचार्यकी बनाई है । परन्तु बात ऐसी नहीं है । यह प्रशस्ति श्रीपाल श्राचार्यकी बनाई हुई नहीं है, जैसा कि ऊपरके अवतरणोंमें 'माशां' आदि शब्दोंसे प्रकट है । और न श्रीपाल के उक्त संग्रह का नाम ही 'जयधवला' टीका है। बल्कि वीरसेन और जिनसेनकी इस ६० हजार श्लोक संख्यावाली टीकाका असली नाम ही 'जयधवला' है, ऐसा खुद जिनसेन ने प्रशस्तिके उक्त पथ नं० १ व ११ में स्पष्ट रूपसे
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२१४
.... अनेकान्त
पौष, वीर-निर्वाण सं०२१६०
सूचित किया है । वीरसेनस्वामीने चूकि इस टीकाको 'धवला' है । धवलासे मिलता-जुलता ही नाम जयधवला प्रारम्भ किया था और इसका एकतिहाई भाग (२० है, जो उनकी दूसरी टीकाके लिये बहुत कुछ समुचित हज़ार श्लोक) लिखा भी था। साथ ही, टीकाका शेष प्रतीत होता है । और इस दूसरी टीकाके 'जयइ धवलंगभाग, आपके देहावसानके पश्चात्, आपके ही प्रकाशित तेथे' इत्यादि मंगलाचरणसे भी इस नाम की कुछ ध्वनि वक्तव्यके अनुसार पूरा किया गया है, इसलिये गुरु- निकलती हैं । अतः इन सब बातोंसे टीकाका असली भक्ति से प्रेरित होकर श्रीजिनसेनस्वामीने इस समूची नाम 'वीरसेनीया' न होकर 'जयधवला' ठीक जाम टीकाको श्रापके ही नामसे नामांकित किया है और पड़ता है। 'वीरसेनीया एक विशेषण है जो पीछे से 'वीरसेनीया' भी इसका एक विशेषण दिया है। इन्द्र- जिनसेनके द्वारा इस टीकाको दिया गया है। . नन्दिकृत 'श्रुतावतार' और विबुध श्रीधरकृत 'गद्य- अब रही 'श्रीपाख-संपादिका विशेषणकी बात, श्रुतोवतार' के उल्लेखोंसे भी इसी बातका समर्थन होता है उससे प्रेमीजीके उक्त निष्कर्षको कोई सहायता नहीं कि वीरसेन और जिनसेनकी बनाई हुई ६० हजार श्लोक मिलती । श्रीपाल नामके एक बहुत बड़े यशस्वी विद्वान संख्यावाली टीकाका नाम ही 'जयधवला' टीका है.। जिनसेनके समकालीन हो गये हैं। प्रशस्तिके अन्तिम यथा
पद्यमें अापके यशकी ( सत्कीर्तिकी) उपमा भी दी गई 'जयधवलैवं षष्ठिसहस्त्रग्रन्थोऽभवट्टीका। है । वह पद्य इस प्रकार है
- -इन्द्रनन्दिश्रुतावतार . सर्वशंप्रतिपादितार्थगणभृत्सूत्रानुटीकामिमां,
अमुना प्रकारेण षष्ठिसहस्रप्रमिता जयधवला- येऽन्यस्यन्ति बहुश्रुताः श्रुतगुरुं संपूज्य वीरं प्रभु। . नामाङ्किता टीका भविष्यति ।
ते नित्योज्वलपद्मसेनपरमाः श्रीदेवसेनार्चिताः, . .
-श्रीधर-गद्यश्रुतावतार० भासन्ते रविचन्द्रभासिसुसपाः श्रीपालसत्कीर्तयः ॥४४॥ - यदि प्रेमीजी द्वारा सूचित उक्त संग्रहका नाम ही आदि पुराण में भी आपके निर्मल गुणोंका कीर्तन 'जयधवला' होता तो उसकी श्लोकसंख्या ६० हज़ार किया गया है और आपको भट्टाकलंक तथा पात्रकेसरीन होकर कई लाख होनी चाहिये थी। परन्तु ऐसा नहीं जैसे विद्वानोंकी कोटि में रखकर यह बतलाया गया है है। ऊपर के अवतरणों एवं प्रशस्ति के पद्य नं०६ में कि आपके निर्मल गुण हारकी तरहसे विद्वानों के हृदयमें साफ़ तौरसे ६० हजार श्लोक संख्याका ही जयधवलाके श्रारूंढ रहते हैं । यथासाथ उल्लेख है-साक्षात् देखनेपर भी वह इतने ही भट्टाकलंक श्रीपान पात्रकेसरिणां गुणाः । प्रमाण की जान पड़ती है । और भी अनेक ग्रन्थों में इस विदुषां हृदयारूदा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥ टीकाका नाम जयधवला ही सूचित किया है * । इसके इससे स्पष्ट है कि श्रीपाल एक ऐसे प्रभावशाली सिवाय, वीरसेन स्वामीकी दूसरी सिद्धान्त-टीकाका नाम आचार्य थे जिनका सिक्का अच्छे-अच्छे विद्वान् लोग * : ये कृत्वा धवला जयादिधवला सिद्धान्तटीकं सती मानते थे। जिनसेनाचार्य भी आपके प्रभावसे प्रभावित :: वन्दध्वं वरवीरसेन-जिनसेनाचार्य वर्यान्धुधान् थे। उन्होंने अपनी इस टीकाको लिखकर श्राप ही से ..... -सपणासारटीकायां, माधवचन्द्रः उसका सम्पादन. (संशोधनादिकार्य) कराना उचित
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वर्ष ३, किरण ३)
धवलादि श्रुत-परिचय
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समझा है और इस तरह पर एक गहन विषयके सैद्धा- के बड़े भक्त थे, यह पाया जाता है। परन्तु जिनसेनन्तिक ग्रन्थकी टीका पर एक प्रसिद्ध और बहुमाननीय स्वामी महाराज अंमोघवर्षको किस गौरवभरी दृष्टि से विद्वानके नामकी ( सम्पादनकी ) मुहर प्राप्त करके उसे देखते थे, उनपर कितना प्रेम रखते थे और उनके विशेष गौरवशालिनी और तत्कालीन विद्वत्समा जके गुणोंपर कितने अधिक मोहित अथवा मुग्ध थे, इस बात लिए और भी अधिक उपयोगिनी तथा अादरणीया का पता अभी तक बहुत ही कम विद्वानोंको मालूम बनाया है। यही 'श्रीपाल-सम्पादिता' विशेषणका होगा, और इसलिये इसका परिचय पाठकोंको प्रशस्तिरहस्य जान पड़ता है । और इसलिये इससे यह स्पष्ट है के निम्न लिखित पद्यों परसे कराया जाता है, जिसमें कि एक सम्पादकको किसी दूसरे विद्वान लेखककी कृति- गुर्जरनरेन्द्र ( महाराज अमोघवर्ष ) की यशोगान करके का उसके इच्छानुसार सम्पादन करते समय, ज़रूरत उन्हें अाशिर्वाद दिया गया हैहोनेपर, उसमें संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन, स्पष्टीकरण,
गुर्जरनरेन्द्रकीर्तेरन्तःपतिता शशांकशुभ्रायाः । । भाषा-परिमार्जन और क्रम-स्थापन आदिका जो कार्य
गुप्तैव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीर्तिः ॥१२ करना होता है, यथासम्भव और यथावश्यकता, वह
गुर्जरयशःपयोब्धौ निमज्जतीन्दौ विलक्षणं लक्ष्म। सब कार्य इस टीकामें विद्वद्रत्न श्रीपाल द्वारा किया गया
___ कृतमलिमलिनं मन्ये धात्रा हरिणापदेशेन ॥१३॥ है। उनकी भी इस टीका में कहीं कहीं पर ज़रूर कलम भरत-सगरादि नरपति यशांसितारानिभेव संहृत्य । : लगी हुई है । यही वजह है कि उनका नाम सम्पादकके
. गुर्जरयशसो महतःकृतावकाशो जगत्सृजा नूनम् ॥१४ रूपमें खास तौरसे उल्लेखित हुआ है । अन्यथा, श्रीपाल
इत्यादिसकलंनृपतीनतिपेशप्य पयः पयोधिनेत्था आचार्यने पूर्वाचार्योंकी सम्पूर्ण टीकाअोंका एकत्र संग्रह
गुर्जर नरेन्द्रकीतिः स्थेयादाचन्द्रतारमिह भुयने ॥ १५ करके उस संग्रहका नाम 'जयधवला' रक्खा, इस कथनकी कहींसे भी उपलब्धि और पुष्टि नहीं होती।
इन पद्योंमें यह बतलाया और कहा है कि 'गुर्जर जिनसेनके समकालीन विद्वानों में पद्मपेन, देवपेन,
नरेन्द्र ( महाराज अमोघवर्ष ) की शशांक-शुभ्रकीति
के भीतर पड़ी हुई गुप्तनपति ( चन्द्रगुप्त ) की कीति और रविचन्द्र नामके भी कई विद्वान् हो गये हैं । यह
गुप्त ही होगई है-छिप गई है-और शक राजाकी बात ऊपर उद्धृत किये हुए प्रशस्तिके अन्तिम पद्यसे
कीति मच्छरकी गुन गुनाहटकी उपमाको लिए हुए है। ध्वनित होती है। गुर्जर नरेन्द्र महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) जिनसेन
मैं ऐसा मानता हूँ कि गुर्जर-नरेन्द्रके यशरूपी क्षीरसमुद्रमें
डूबे हुए चन्द्रमामें विधाताने हरिण. (मृगछाला ) के स्वामीके शिष्योंमें थे, इस बातको स्वयं जिनसेनने अपने पार्थ्याभ्युदयके संधि-वाक्योंमें प्रकट किया है; और वह पद्य इस प्रकार है- ' गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण-प्रशस्तिके एक पद्यमें यह यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविभवत, .. सूचित किया है कि महाराज अमोधवर्ष श्रीजिनसेन- पादाम्भोजरजःपिशंगमुकुट प्रत्यपरत्नद्युतिः । स्वामीके चरणकमलोंमें मस्तकको रखकर अपने संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं, पवित्र मानते थे । इससे अमोघवर्ष जिनसेन- स श्रीमान् जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ।।
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बहाने से मानो एक बेढंगा अलि मलिन चिन्ह बना दिया है और भरत, सगर आदि चक्रवर्ती राजानोंके यशोंका तारा के प्रकाशके सदृश संहार करके जगसृष्टा गुर्जर-नरेन्द्र के महान् यशको फैलने और प्रका शित होने का अवसर दिया है । इनको आदि लेकर और भी सम्पूर्ण राजानोंसे बढ़कर क्षीरसमुद्रके फेन ( भाग ) की तरह गुर्जर - नरेन्द्रकी शुभ्रकीर्ति, इस लोक में, चन्द्र-तारा की स्थिति पर्यन्त स्थिर रहे । यद्यपि इस वर्णनमें कवित्व भी शामिल है, तो भी इससे इतना ज़रूर पाया जाता है कि महाराज अमोघ वर्ष, जिनका दूसरा नाम नृप तुङ्ग था, एक बहुत बड़े प्रतापी, यशस्वी, उदार, गुणी, गुणक्ष, धर्मात्मा, परोपकारी और जैनधर्मके एक प्रधान आश्रयदाता सम्राट
* इस आशीर्वादके बाद निम्न पथ द्वारा जैनशासनका जयघोष किया गया है । और उसे अजयमाहात्म्य, विशासित कुशासन और मुक्तिलचणैकशासन जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण किया है । इस पद्यके बाद ही प्रशस्ति में वीरसेन और जिनसेनादि-सम्बन्धी वे सब पद्य दिये हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है:
अनेकान्त
जयत्यजय्य महात्म्मं विशासित कुशासनम् । शासनं जैनमुद्भासि मुक्तिलक्ष्म्यैक शासनम् ॥ १६
[पौष, वीर - निर्वाण सं० २४६६
+
होगये हैं । आपके द्वारा तत्कालीन जैन समाज और स्वयं जिनसेनाचार्य बहुत कुछ उपकृत हुए हैं और आपके उदार गुणों तथा यशकी धाकने श्राचार्य महोदय के हृदय में अच्छा घर बना लिया था । इसीसे प्रशस्तिमें गुरु वीरसेनसे भी पहले आपके गुणोंका कीर्तन किया गया है। जान पड़ता है, आपके विशेष सहयोग और आपके राज्यकी महती सुविधाओंके कारण ही 'जयधवला' का निर्माण हो सका है, और इसीसे प्रशस्तिके ८ वें पद्यमें, जो ऊपर उद्धृत किया जा चुका है, इस टीकाका 'अमोघवर्ष राजेन्द्र प्राज्यराज्य-गुणोदया', यह भी एक विशेषण दिया गया है ।
इस प्रकार यह धवल- जयधवल के रचयिता श्रीवीरसेन जिनसेन श्राचार्योंका, उनकी कृतियों तथा समकालीन राजादिकों सहित, धवल जयधवल के आधार पर संक्षिप्त परिचय है ।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०७ - १ - १६४०
+ गणितसारसंग्रहके कर्ता महावीर थाचार्यने भी श्रापकी प्रशंसा में कुछ पद्य लिखे हैं और कितने ही शिलालेखों श्रादिमें आपके गुणोंका परिचय पाया जाता है ।
सुधार - संसूचन
(१) 'अनेकान्त' की गत दूसरी किरणके पृ० १८६ की तीसरी पंक्तिके प्रारम्भ में जो "लिखकर उसे " शब्द छपे हैं उनके स्थान पर पाठक जन “ अपने प्रास्ताविक शब्दों के साथ” ये शब्द बना लेवें। और पृष्ठ १८७ की प्रथम पंक्तिके शुरु में तथा पृ० १६६ के दूसरे कालमकी १७वीं पंक्तिके अन्तमें इनवेर्टडकामाज़ ("...") लगा देवें, जिससे गोत्र विचार सम्बन्धी उद्धृत मूल लेखको दूसरे विद्वानका समझने में कोई भ्रम न रहे ।
(२) 'अनेकान्त' की गत दूसरी किरण के पृ० १६८ पर जो फुटनोट छपा है उसके सम्बन्ध में जयपुरसे श्री मांगीलालजी कानूंगा यह सूचित करते हैं कि- "जैनमतानुसार बृहस्पति "जैनमत प्रचारक" न हुए हों लेकिन हिन्दुधर्मकी पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड अध्याय १३ मुद्रित नवलकिशोर प्रेस लखनऊ में बृहस्पतिको जैनमत प्रचारक माना है । —लेखकका लेख हिन्दू मतकी पुस्तकोंके आधार पर है इसलिये 'समझकी ग़लती या भूतका परिणाम नहीं है ।" अतः उक्त फुटनोटमें "समझकी" के स्थान पर "हिन्दु पुराणकार की " बना लेवें । - सम्पादक
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उस दिन -
लेखक:-श्री भगवत्' जैन
___ 'आज 'धन' ही सब-कुछ है ! भाई, भाई का क़त्ल कर देता है ! -रेज़ीमें बुराई नहीं दिखाई देती ! | इन्साफ़को बालाए-ताक रखकर मासूमोंके हकको हलाक कर दिया जाता है ! ज़िबह कर दिया जाता है ग़रीबोंकी दुनिया को ! किस लिए......? "पैसेके लिए ! धनके लिए !! मगर उस दिन यह बात नहीं | थी, कतई नहीं !!'
स्व क्ष-आकाश ! शरीर को सुखद धूप ! नगर आवश्यक प्रयोग ! हलवाहक अपनी धुनमें मस्त !
" से दूर रम्य-प्राकृतिक, पथिकोंके पद-चिन्ह उसे पता नहीं, कोई देख रहा है, या क्या है ? से बनने वाला-गैर-कानूनी मार्ग; पगडण्डी! जरूरत भी क्या ?.. ... इधर-उधर धान्य- उत्पादक,हरे-भरे तथा अंकुरित- कुछ-देर खड़ा रहा ! लालायित-दृष्टिको स्वतंत्र
खेत ! जहां तहां अनवरत परिश्रम के आदी; विश्व किए हुए ! अचल, मंत्र-मुग्ध, या रेखांकित-चित्र के अन्न-दाता–कृषक ! ... ' 'कार्य में संलग्न और की भांति !... . सरस तथा मुक्त-छन्द की तानें आलापने में व्यस्त ! . अचानक हलवाहककी दृष्टि पड़ी-नर पुगव, स-घन वृक्षों की छाया में विश्राम लेने वाले-सुन्दर, धन्यकुमार पर ! कैसा प्यारा सुहावना-मुँह !...... मधु-भाषी पशु-पक्षियों के जोड़े ! श्रवन प्रिय, मधु. सुदर्शन ! मनमें एक स्फूर्ति सी पैदा हुई, उमंग-सी स्वर से निनादित वायु-मण्डल ! ''और समीरकी पनपी ! इच्छा हुई--'कुछ बातें की जाऐं, सत्कार प्राकृतिक आनन्द-दायक झंकृति !!!... किया जाए !!....."अपरिचित है तो क्या, है तो
.महा-मानव धन्यकुमार चला जा रहा था, उसी प्रभावशाली ?...... पगडण्डी पर ! प्रकृतिकी रूप-भंगिमाको निरखता, .. विचारों का संघर्ष ! प्रसन्न और मुद्रित होता हुआ ! क्षण-प्रति-क्षण धन्यकुमारने देखा, हलवाहक प्रेम-पूर्ण-नेत्रोंसे जिज्ञासाएँ बढ़ती चलती ! हृदय चाहतो-'विश्व उसकी ओर देख रहा है ! उसकी मजबूत-भुजाएँ की समस्त ज्ञातव्यताएँ उसमें समा जाएँ! सभी शिथिलसी होती जा रही हैं ! परिश्रमसे विरक्त-सा, कला कौशल्य उससे प्रेम करने लगें!"नया स्तन ठगा-सा वह ज्यों-का-त्यों खड़ा रह गया है !...... जो ठहरा ! सुख और दुलारकी गोदमें पोषण पाने दो कदम आगे बढ़कर वह कहने लगा-मन बाला!
की अभिलाषा-'क्या यह कला मुझे सिखा __सामनेके खेतमें हल चलाया जा रहा था !... सकते हो ? ठिठककर रुक गया, देखने लगा--कृषक-कलाका फूल-से झड़े ! उसने अनुभव किया स्वर्गीय
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ सुख ! बात कर सकनेका अवसर उसे स्वतः ही कुछ देर ! इच्छा पर काबू किए हुए ! किन्तु... मिला ! अविलम्ब, यथा-साध्य स्वरको मृदु बनाते विचार आया-'व्यर्थ बैठनेसे क्या लाभ ? तबहुए बोला-'हाँ, हाँ! अवश्य...! लेकिन एक तक हल चलानेका अभ्यास किया जाए तो कैसा? शर्त है-- ...!'
खाली पड़ा है-वह !' दरिद्रताने बात परी करनेका साहस छीन हृदयकी उत्कण्ठाने प्रस्तावका समर्थन किया ! लिया ! हृदय विवश ! धन्यकुमार क्षण-भर चुप, वह आगे बढ़ा ! हल चलाने लगा !... देखता-भर रहा उसकी ओर ! शर्त' सुनाना उसके टिख ! टिख !! टिख !!! लिए अब अनिवार्य था-कलाकार जो बनना था ! हलवाहकका सर्वांग-अनुसरण था ! निरापबोला--'क्या ?
राध पृथ्वीका वक्षस्थल विदीर्ण होने लगा ! हलमें हलवाहकको प्रोत्साहन मिला ! बचे-खुचे लगा हुआ नुकीला-लोह करने लगा अपनी निर्दधैर्यको बटोर कर कहने लेगा- ..."यही कि आप यताका सफल-प्रदर्शन ! ... मेरा आतिथ्य स्वीकार करें ? मैं भी उच्च-वर्ण-श्रा- बैल, नवीन-हलवाहकके संरक्षकत्वमें चारक-ही हूँ !...'
छह कदम ही आगे बढ़े थे, कि......! और देखने लगा संशयात्मक-दृष्टि से धन्य- ठक्"! कुमारके भव्य-मुखकी तरफ़ ! जैसे अपनी प्रान्त- रुक गया हल !"क्या हुआ ? धन्यकुमार रिकताकी पूर्ति खोज रहा हो !...
देखने लगा-हलके रुकनेका आकस्मिक-सबब ! एक छोटी-सी नीरवता !
देखा-'पृथ्वीके गर्भमें एक कढाह-दानवकी पाहा कि आतिथ्यको अस्वीकार करदें ! ले- तरह-हल के मार्गमें बाधक बना अड़ा हुआ है ! किन कला-शिक्षणका लोभ...?-कहना पड़ा-- खोद कर निकाल बाहर करनेके विचारसे वह 'स्वीकार है मित्र!'
मिट्टी हटाने लगा नवनीत जैसे कोमल हाथोंसे !
"पर......? 'आप विराजिए--ज़रा ! मैं पात्र बनानेके आश्चर्य-सीमा लाँघने लगा ! कढ़ाहमें अपार लिए पल्लव एकत्रित कर लाऊँ--तबतक !' हलवा- धन-राशि भरी हुई थी ! “सोचने लगा भोला-सा हकने बैठने-योग्य स्थानकी ओर संकेत करते हुए, धन्यकुमार-..'अनधिकार चेष्टा थी मेरी ! विना स-भक्ति निवेदन किया!
उसकी आज्ञाक हल छूना ही नहीं चाहिए था'अच्छा !' -धम्यकुमार बैठ गया ! भोजन मुझे ! छिपाकर रखा हुआ-धन मैंने व्यक्त कर भार मालुम हो रहा था--और विलम्ब असह- दिया ! अवश्य, असन्तुष्ट होगा-वह !!... नीय ! पर विवशता सामने अड़ी थी ! लेकिन पश्चातापसे झुलसे हुए मनने तिलमिला दिवा दृष्टि थी हल-बैल पर !...
उसे ! जल्दी-जल्दी मिट्टी डालकर छिपाने लगा ! 'हलवाहक चला गया ! धन्यकुमार बैठा रहा, और जैसेका तैसा करा -बैठा अपने स्थान पर !
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वर्ष ३, किरणः].
....उस दिन
२१३
जैसे कुछ हुआ ही, नहीं १ . था ! वहींसे घूमकर बोला-'जा रहा हूँ-अब !!
अपने स्थानसे हटा ही नहीं !! -और हाथ जोड़ लिए! ... * *
हलवाहकका जैसे आशा-स्वप्न भागा जा रहा दोनों बैठे ! दरिद्रता द्वारा सलभ रुखेसो हो ! हाथ-जोड़े, जब तक धन्यकुमार दृष्टिसे प्रोमल किन्तु प्रेम-पूर्ण भोजनके लिये ! दोनों खा रहे
न होगया, खड़ा रहा। थे-मौन ! विचार-धाराएँ शतलजकी भाँति वेग
फिर........ ? वती हो बह रहीं थीं । विपरीत, एक-दसरीसे। निराशा, अन्यमनस्क लिए आगया. अपने काम
पर! ___ हलवाहक सोच रह! था-भाजका दिन धन्य है ! एक महा-पुरुषके साथ भोजन करनेका ।
टिख ! टिख !!........ सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है !' .
बैल बढ़े कि-'ठक् !' अटक गया—कुछ ! और उधर- 'मैं अपराधी हूँ ! उसके धनको मजबूत-हार्थोने मिट्टी हटाकर देखा-धनसे भरा मैंने देख लिया, भूल की न ?... अभी उसे पता हुआ
हुआ-कढ़ाह ! नहीं है ! पता होने पर "....! बस, खा-पीकर चल
___दरिद्र-श्रमीकी आँखें चौंधियाने लगीं--इतना देना ही ठीक है-अब ! फिर देखा जाएगा
धन ?... कलाका शिक्षण...!"
__ सोचने लगा--'यह उसी महा-भाग्यके चमहलवाहक चाहता—'जिन्दगी-भर इसी तरह,
त्कारका द्रव्य है ! मेरा क्या है- इसमें ?... खाते रहे ! वियोग न आए ! और धन्यकुमार
अगर मेरा होता तो..... पूर्वज जोतते आए, सोचता—'कब खाना खत्म हो, कब छुट्टी मिले !'
मैंने जबसे होश-सम्हाला जोता--कभी एक पैसा
नहीं निकला ! आज इतना-धन !"न, मेरा इस भोजन हो चुकने पर प्रसन्नता-भरे स्वरमें हलवाहक बोला-'आपने मेरी प्रार्थनाका आदर
___ पर कोई अधिकार नहीं, उसी का है ! उसे ही दे किया ! अब मैं भी कला सिखाने के लिए उद्यत हूँ ! १
देना मेरा कर्तव्य !, .."आइए!"
..और वह भागा, बे-तहासा,उसे लौटाने के धन्यकुमार पर घोर-संकट ! क्या करे अब ? ' घबराकर बोला- 'बात यह है, मुझे अब जल्दी है। पहुँचना भी तो है ! फिर कभी सीख लंगा !' मन, आशंकामें उलझा हुआ था, न ? भय भी
और चलने लगा अपने पथ पर ! हलवाहक था अपराधका ! यदि पंख होते तो वह कहाँ-कारहस्यसे अनभिज्ञ ! निर्निमेष देखता हुआ, बोला- कहाँ पहुँचा होता ! तो भी उसने गतिमें सामर्थ्याऐसा क्यों ?
नुसार वृद्धि की थी ! मुड़-मुड़ कर देखता जाता-- धन्यकुमार दश-बारह क़दम आगे जा चुका 'कहीं आ तो नहीं रहा !'
लिए!
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२२०
बहुत दूर निकल गया !--भया-कुल- चित्त धन्यकुमार ! विश्वास जम गया कि 'अब आएगा नहीं
गया है, उसे ले आइए !' • 'मेरा धन ?'
लेकिन 'विश्वास' का धरातल बालुकी दीवार की तरह अस्थायी निकला । कानोंने सुना, आँखों ने देखा -- वह पुकारता हुआ, भागता हुआ आ रहा है ! सच, चला रहा है इसी ओर !
धन्यकुमारका होश ! सारा शरीर बेंतकी भाँति काँप उठा ! रुक गया जहाँ का वहाँ ! वह आया !
• धन्यकुमार ने समझा जैसे उसका अन्त समय है, काल सामने खड़ा है !
पर इसके मुँह पर रौद्रता क्यों नहीं ? वही बातें कर रहे हैं !"
दीन-भाव, वही श्रद्धा-दृष्टि !!
'आप लौट चलिए ! आपका धन वहाँ रह
ال:
'हाँ ! आपका ही...!'
'मेरे पास तो शरीर पर इन वस्त्रोंके अतिरिक्त और कुछ भी न था !"
'ठीक है ! लेकिन वह कढ़ाह - जो खेतकी मिट्टी के नीचे दबा निकला है -- आपके भाग्य चमकारका ही प्रसाद है !'
[पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६६
तो आज ही न निकलकर पूर्वजोंके सामने नि लता, या मैं इतने दिनोंसे इसे जोत रहा हूँ ! ... पहिले भी निकल सकता ! मगर आप विश्वास कीजिए कभी एक कौड़ी नहीं निकली ! धन आपका है, आप उसके मालिक ! मेरे लिए मिट्टी ! चलिये !'
'मैंने कहा न, धन मेरा नहीं है ! मैं उसके विषयमें कुछ नहीं जानता !"
'न जानिए ! पर उसे हटा लीजिए ! मेरे ऊपर से व्यर्थका भार उठे !'
'लेकिन वह मेरा हो तब न ?”
'धन आपका, और फिर आपका ! आप कैसी
'वह मेरा नहीं है -- भाई ! तुम्हारे खेतमें जो कुछ हैं, सब तुम्हारा हूँ !'
'यह नहीं मान सकता -- मैं ! अगर मेरा होता,
अनैकान्त
'भाई ! धन तुम्हारा है, मेरा नहीं !"
मेरा ? जिसने दरिद्रताकी गोद में बैठकर जिन्दगी बिताई ! इतनी उम्र हुई – इतना धन स्वप्नमें भी नहीं देखा ! दरिद्रताका उपहास कर रहे हैं -- .
आप !
बात, धन्यकुमारके मनमें शूल-सी चभी ! बोला -- 'अच्छा, मेरा ही सही ! लेकिन मैं अब उसे तुम्हें देता हूँ ! प्रेम मानते हो, तो स्वीकार करो -- उसे !'
हलबाहकके अधरोंमें स्पन्दन हुआ, कुछ शब्द -- कण्ठसे बाहिर श्रनेके लिए उद्यत हुए ! पर वह बोल न स्वका !
चप रह गया !!!
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जैनधर्मकी विशेषता
[लेखक-श्री० बा० सूरजभान वकील]
नधर्म और अन्य धर्मों में श्राकाश पातालका सा निर्जीव कठ पुतलियोंक तरह वही नाच नाचना स्वी"अंतर है। जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है । उसका कार किया जावे, ज्ञानधारी जीवके स्थानमें अचेतन जड आधार वस्तु-स्वभाव है । जीव और अजीव संसार में दो बनकर ही रहा जावे । संसारमें तो जो कुछ हो रहा है ही प्रकार के पदार्थ हैं । जीव सुख दुख का अनुभव वह संसारकी वस्तुत्रोंके अपनेर स्वभावानुसार ही हो रहा करता है, सुख चाहता है और दुख दूर करनेका उपाय है वस्तु अनन्त हैं जिन सबका एक ही संसारमें स्थित करता है । दुख इसका निज स्वभाव नहीं है, तब ही होने, गतिशील होने, और स्वभावानुसार क्रिया करते यह दुख के कारणोंको दूर कर परमानन्द प्राप्त कर रहनेसे उनको आपसमें अनेक प्रकारका संयोग, वियोग, सकता है । दुख इसका विभाव भाव है जो अजीवके और संघर्ष होत । रहता है, जिनसे उनके स्वभावानुसार संयोगसे ही इसको प्राप्त हो रहा है । वह संयोग किस नाना प्रकार के परिवर्तन, पर्यायों और परिस्थितियोंका प्रकार पैदा होता है, किस प्रकार इस संयोगका पैदा अलटन-पलटन होता रहता है। वस्तु स्वभावकी खोज होना रोका जासकता है और जो संयोग हो चुका है करने वाले वैज्ञानिक लोग वस्तुओंके इन्हीं अटल परिवह कैसे दूर किया जा सकता है दूर होने अथवा निर्बध वर्तनोंके कुछ एक नियमों की जानकारी करके ही उनके हो जाने पर जीवकी क्या दशा हो जाती है, क्या परमा- नियमानुसार उनसे काम लेने लगते हैं, जिनके इन नन्द प्राप्त होने लग जाता है, इन्हीं सबकार्यकारी बातों थोड़ेसे आविष्कारोंसे ही लोग अचम्भेमें पड़ जाते हैं को नैनशास्त्रोंमें वैज्ञानिक रीतिसे सात तत्वोंके नामसे और इनके इन अाविष्कारोंको भी किसी अलौकिक बताकर जीवको उसके कल्याण का रास्ता सुझाया है। शक्ति अर्थात् यंत्रों मंत्रोंका ही कृत्य मान लेते है ।
और जोर देकर समझाया है कि वही शास्त्र, वही कथन, मनुष्य जब जगतमें जाते हैं तो वहां तरह २ के वही उपदेश, और वही श्राज्ञा मानने योग्य है जो वस्तु वृक्ष, पौदे, और बेलें फैली हुई देखकर उनके तरह२ के स्वभावके अनुकूल हो, तर्क और हेतु द्वारा खंडित न सुन्दर २ पत्ते, फूल और फल अवलोकन कर बहुत ही होता हो, कल्याणका मार्ग बताने वाला हो, सब ही हैरान होते किं यहाँ यह अद्भुत वस्तु किसने बना जीवोंका हित करने वाला हो और पक्षपातसे रहित हो। दी। इनमें जो बुद्धिमान होते हैं वे तो खोज करने पर जगतमें किसी एक परमेश्वर या अनेक देवी देवताओं-" यह मालूम कर लेते हैं कि अपनी २ किम्मके बीजोंके का राज्य नहीं है, जिनकी श्राज्ञा आँख मींचकर शिरो- बीजोंसे ही यह सब पेड़ उगे हैं । इमलीके पेड़ पर जो धार्य की जावे, उनको राज़ी रखने और उनके कोपसे बीज लगे । उन बीजोंसे जो भी पेड़ उगे हैं उनके पत्ते बचनेके वास्ते उलटा सीधा जैसा वह नाच नचावें फूल और फल सब समान हैं, इसी प्रकार नीमके बीजों
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२२२
अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४१६
से भी जो वक्ष उगे हैं उनके पत्ते, फूल और फल भी लमें तरह २ के पौदे और फल फूल देखकर एकदम
आपसमें समान है यही हाल अन्य सब वृक्षों, पौदों और यही मानने लगता है कि ऐसी कोई अलौकिक शक्ति बेलोंका है । इससे वह समझ लेता है कि भिन्न२ प्रकार- ज़रूर है जो इस जंगल में ऐसे २ वृक्ष, पौदे और बेलें के वृक्ष, और पौदे, और बेलें किमी अलौकिक शक्तिके बनाकर, उनपर ऐसे २ सुंदर पत्ते, फूल, और फल द्वारा पैदा नहीं किये जाते हैं। किन्तु अपने २ बीजके लगाती है, जिनको देखकर अक्ल दंग रह जाती है । स्वभावसे ही वे भिन्न प्रकारके पैदा होते हैं, जिनपर उनकी ऐसा विचार आते ही वह उस अलौकिक शक्ति के प्रभाअपनी ही अपनी तरहके पत्ते फूल और फल लगते हैं । वसे काँप उठता है और उसको प्रसन्न कर उसके द्वारा इस अपनी बातको निश्चय करनेके वास्ते जब वह जंगलों अपने कार्य सिद्ध करनेकी फ़िकरमें लग जाता है, कल्पसे तरह २ के बीज बटोर कर घर ले जाता हैं और अपने नाके घोड़े दौड़ाता है और सिवाय इसके और कुछ
आँगनमें डालकर उनको पानी देता है तो वहां भी भी सूझ नहीं पाता है कि जिस प्रकार अपनेसे प्रबल जंगलके समान प्रत्येक बीजसे उस ही प्रकारके पौदे, पत्ते मनुष्यकी खुशामद कर बड़ाई गाकर और उसको उसके फूल और फल पैदा होते हैं, जिस प्रकारका वह बीज इच्छित पदार्थकी भेंट चढ़ा उसको खुशकर उससे अपना होता है, तव वह अपनी इस बातका पूर्ण श्रद्धान कार्य सिद्ध कर लिया जाता है, इस ही प्रकार इन कर लेता है कि इन तरह २ के वृक्षों, पौदों, बेलों और अलौकिक शक्तियोंको भी प्रसन्न करलिया जाता है। उनके सुन्दर २ पत्तों, फूलों, और फलोंको बनाने वाली यही संसारके अनेक धर्मोकी बुनियाद है, जो जैनकोई अलौकिक शक्ति नहीं है किन्तु यह सब अपनी२ धर्मसे बिल्कुल ही विपरीत है । जैनधर्म ऐसी अलौकिक क्रिस्मके बीजोंके स्वभावसे ही बन जाते हैं जिनको उनके शक्तियोंको नहीं मानता है, इस ही कारण वह तो किसी अनुकूल हवा,मिट्टी, पानी आदि मिलनेसे उसी बीजकी भी अलौकिक शक्तिकी खुशामद करने और उसको भेंट किस्मका पौदा उग श्राता है, दूसरी किस्मका नहीं इस चढ़ाने के स्थानमें बबूल के बीजसे बबूल और नीमके कारण अब वह जब भी जिस किस्मका फल पैदा करना वीजसे नीम पैदा होनेके समान निश्चयरूप अपने ही चाहता है, तभी उस किस्मका बीज बोकर इच्छित किये हुए . प्रत्येक बुरे, भले कर्मका फल फूल फल पैदा कर लेता है और दूसरोंको भी इस प्रकार भोगना बताकर अपने ही कर्मोकी सम्हाल रखने, फल फूल पैदा करना सिखा देता है। इसी ही से यह अपनी ही नियतों, ( भावों और परिणामों ) को शुभ सिद्धान्त स्थिर हो जाता है कि जो कोई कांटेदार बबूल और उत्तम बनाये रखनेकी शिक्षा देता है जिस प्रकार का बीज बोता है उसकी ज़मीनमें काँटेदार बबलका आगमें ऊँगली देनेसे हाथ जलेगा ही, कड़वी वस्तु ही पेड़ उगता है, जो नीमका बीज बोता है उसके यहां खानेसे मुँह कड़वा होगा ही, अाँखमें लाल मिर्च पड़ कड़वे नीमका वृक्ष और जो मीठे आमकी गुठली बोता जानेसे जलन पैदा होगी ही, इस ही प्रकार हमारे प्रत्येक है उसके यहां मीठे श्रामका ही वृक्ष उगता है, इसमें कृत्यका फल हमको भोगना पड़ेगा ही, इसमें कोई फल किसी भी अलौकिक शक्तिका कोई दखल नहीं है। देनेवाला नहीं पायगा, किन्तु जिस कृत्यका जो फल
परन्तु जो बुद्धिसे काम लेना नहीं चाहता वह जंग- है वह वस्तु स्वभावके अनुसार आपसे आप अवश्य
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वर्ष ३, किरण ३]
जैनधर्मकी विशेषता
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निकलेगा ही। .
चार बुद्धिसे कुछ काम ही न लेना हो, तब तो जो कुछ जो लोग बुद्धिसे काम न लेकर एकदम अलौकिक भी किया जाय उसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है। शक्तियोंकी कल्पना कर लेते हैं वे यदि मनुष्य-भक्षी जो न हो वह ही थोड़ा है। । होते हैं तो वे इन अलौकिक शक्तियों अर्थात् अपने मनुष्यकी बलिके बाद गाय, घोड़ा, बकरा, आदि कल्पित देवी देवताओंको भी मनुष्यकी ही बलि देकर पशुओंकी बलिका ज़माना अाया जो अबतक जारी है । प्रसन्न करनेकी कोशिश करते हैं । अबसे कुछ समय हाँ इतने जोरोंके साथ नहीं है जितना पहले था। मुसपहले अमरीका महाद्वीपमें ऐसे भी प्रान्त थे जहाँके लमानी धर्म तो विदेशी धर्म है, उसको छोड़कर जब निवासी अपने प्रान्तके बड़े देवताको हज़ारों मनुष्योंकी हम अपने हिन्दू भाइयोंके ही धर्मपर विचार करते हैं बलि देकर खुश करना चाहते थे, परन्तु बलिके वास्ते तो वेदोंमें तो यज्ञके सिवाय और कोई विधान ही नहीं एकदम हज़ारों मनुष्योंका मिलना मुश्किल था, इस मिलता है जिसमें आग जलाकर पशु पक्षियोका होम कारण अनेक प्रान्तवालोंने मिलकर यह सलाह निकाली, करना होता है । अस्तु, वेदोंको तो लोग बहुत कठिन कि बलि देने के समयसे कुछ पहले हम लोग आपसमें बताते हैं इसी कारण बहुत ही कम पढ़े जाते हैं परन्तु युद्ध किया करें, इस युद्ध में एक प्रान्तके जो भी मनुष्य मनुस्मृति तो घर घर पढ़ी जाती है और मानी भी जाती दूसरे प्रान्त वालोंकी पकड़में श्राजावें वे सब बलि चढ़ा- है, उसमें तो यहांतक लिखा हुआ है कि पशु पक्षी सब दिये जावें । बस यह युद्ध इस ही कार्यके वास्ते होता यज्ञके वास्ते ही पैदा किये जाते हैं । यज्ञके वास्ते विद्वान था, हार जीत या अन्य कुछ लेने देनेके वास्ते नहीं। ब्राह्मणोंको स्वयम् अपने हाथसे पशु पक्षियोंका बध इस प्रकारकी बलि देना जब कुछ समय तक जारी करना चाहिये, यह उनका मुख्य कर्म है । इस हीमें रहता है तो मनुष्योंमें मनुष्यका मांस भक्षण करना छूट ईश्वरकी प्रसन्नता और सबका कल्याण है । जानेपर भी देवताको बलि देना बहुत दिन तक बराबर जैनधर्म इसके विपरीत इस प्रकारके सब ही अनुजारी रहता है, मनुष्य अपनी लौकिक प्रवृत्तियोंमें तो ष्ठानोंको महा अधर्म और पाप ठहराता है । किसी जीव समयानुकूल जल्द ही बहुत कुछ हेर फेर करते रहते हैं की हिंसा करने या दुख देनेमें कैसे कोई धर्म या पुण्य परन्तु देवी देवताओंकी पूजा भक्ति और अन्य भी हो सकता है, इस बातको विचार बुद्धि किसी प्रकार धार्मिक कार्योंमें परिवर्तन करनेसे डरते रहते हैं । इन भी स्वीकार करनेको तैयार नहीं हो सकती है। न ऐसा कार्योंको तो बहुत दिनों तक ज्योंका त्यों ही करते रहते कोई जगतकर्ता ईश्वर या देवी देवता ही हो सकता है हैं, यही कारण है कि भारतवर्ष में भी मनुष्यका मांस जो जीवोंकी हिंसासे प्रसन्न होता हो। इसके सिवाय जैनखानेवाले न रहने पर भी बहुत दिनों तक जहाज़ आदि धर्म तो पुकार २ कर यही शिक्षा देता है कि तुम्हारी चलाते समय मनुष्यकी बलि देना बराबर जारी रहा। भलाई बुराई जो कुछ भी हो रही है या होने वाली है, सुनते हैं कि कहीं किसी देशमें कोई समय ऐसा भी वह सब तुम्हारे अपने ही कर्मोंका फल है । तुम्हारे कर्मों रहा है जब आपने ही पुत्र आदिककी बलि देकर भी का वह फल किसीके भी टाले नहीं टल सकता, न कोई देवताको प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती थी। जब वि- सुख दे सकता है और न दुख ही । इस कारण अपने.
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भनेकान्त
[पौष, वीर निर्वाण सं०२४६६
को अशरण समझकर और किसी भी अलौकिक शक्ति की पूजा बंदनासे बिल्कुल ही विलक्षण है । का भय न कर एक मात्र अपने ही कर्मों के ठीक रखने लोकमें भिन्न २ परिस्थितियोंके कारण समय २ की कोशिशमें लगे रहो, यही एकमात्र तुम्हारा कर्तव्य पर तरह २ की विलक्षण रीतियाँ जारी होती हैं, जैसे है। रागद्वेष ही एक मात्र जीवके शत्रु हैं, ये ही उसके कि आजकल हिन्दुस्थानमें स्वदेशी वस्तुओंके ग्रहण विभाव भाव हैं जिनसे इसको दुख होता है और संसार और विदेशी वस्तुओंके त्याग और विशेष कर हाथके में भ्रमण करना पड़ रहा है । जितना २ भी कोई जीव कते सूतसे हाथसे बने हुए ही वस्त्र पहनने का भारी प्रा. रागद्वेषको कम करता है उतना २ ही उसको सुख न्दोलन हो रहा है । होते २ ऐसी ऐसी रीतियाँ हो बहुत मिलता है और बिल्कुल ही राग द्वेष दूर होने पर समय तक जारी रहने पर विचार शन्य लोगोंके वास्ते उसका सारा विभाव भाव दूर होकर उसका असली धर्मका अंग बनजाती हैं और उनकी ज़रूरत न रहने स्वभाव प्रकट होजाता है और परमानन्द प्राप्त होजाता पर भी, यहाँ तक की हानिकर हो जाने पर भी वह नहीं है । इस ही कारण प्रत्येक जैनीको अपने अन्दर वैराग्य छोड़ी जाती हैं । धर्म समझकर तब भी उनकी पालना भाव लानेके वास्ते परमवीतराग परमात्माओंकी, और ही होती रहती है अन्य सब ही धर्म जो बिना विचार जो इस परम वीतरागताकी साधनामें लगे हुए हैं ऐसे आँख मींचकर ही माने जाते हैं उनमें ऐसी २ अनेकों साधुओंकी उपासना करते रहना ज़रूरी है, यही जैनि- रूढ़ियाँ धर्मका रूप धारण कर लेती हैं, यहाँतककी इन योंकी पूजा भक्ति है जो उनके वीतरागरूप गुणोंको याद रूढ़ियोंका संग्रह ही एक मात्र धर्म हो जाता है । जो कर कर अपने भावोंमें भी वीतरागता लानेके वास्ते की बिल्कुल ही बेज़रूरत यहाँ तक कि हानिकर होजाने जाती है । इस प्रकार जैनियोंकी और अन्य धर्मियोंकी पर भी सेवन की जाती हैं और धर्म समझी जाती हैं। पूजा भक्ति में भी धरती आकाशका अंतर है । अन्यम. जैनधर्म ऐसी रूढ़ियोंके माननेको लोक मूढेता बताकर ती रागी द्वेषी देवताओंकी पूजा करते हैं और जैनी सबसे प्रथम ही उनके त्यागका उपदेश देता है । यहाँ वीतरागियोंकी। अन्यमती अपने लौकिक कार्योंकी तक कि जैनधर्मका सच्चा श्रद्धान होना ही उस समय सिद्धि के वास्ते और अपने राग द्वेषको पूरा करानेके ठहराया है जब कि मूढ़ता या अविचारिता छोड़कर वास्ते उनको पूजते हैं और जैनी लौकिक कार्योंका राग- प्रत्येक बातको बुद्धिसे विचार कर ही ग्रहण किया जावे द्वेष छोड़ उनके समान अपने अंदर भी वीतरागता और सब ही अलौकिक रूढ़ियोंको जिन्होंने धर्मका स्वरूप लाने के वास्ते ही उनका गुणानुवाद गाता है, यही ग्रहण कर लिया हो, परन्तु धर्मका तथ्य उनमें कुछ उनकी पूजा है । वह अपने इष्ट देवोंको प्रसन्न करना भी न हो बिल्कुल भी ग्रहण न किया जावे । मूढ दृष्टि नहीं चाहता है, न वे किसीके किये प्रसन्नया अप्रसन्न होना अर्थात् बिना विचारे किसी रूढ़ि को धर्म मान हो ही सकते है, क्योंकि वे तो परम वीतरागी हैं । इस लेनेको तो जैनधर्ममें महादोष बताया है जिससे भदान कारण जैनी तो उनके वीतरागरूप गुणोंको याद कर तकका भ्रष्ट होना ठहराया है। अपने में भी वीतरागताका उत्साह पैदा करनेकी कोशिश किसी समय राष्ट्रोंमें महायुद्ध छिड़जाने पर लोगों करता है, यही उसकी पूजा बंदना है जो अन्यमतियों- को युद्ध के लिये उत्साहित करनेके लिये यह आन्दोलन
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वर्ष ३, किरण ३]
... ... ................जैनधर्मकी विशेषता ....... .
..२२५
उठाया गया कि युद्ध में मरने वालोंको स्वर्ग प्राप्त होता यह एक ज़रूरी धर्म सिद्धान्त होगया, पतिके साथ जल है, होते २ यही रूढ़ि प्रचलित होकर धर्म सिद्धान्त बन- मरनेवाली ऐसी स्त्रियोंकी कबर ( समाधि ) भी पजी गई है और मनुस्मृति जैसे हिन्दूधर्म ग्रन्थमें यहाँतक जाने लगी परन्तु जैनधर्म किसी तरह भी इस कृत्यको लिख दिया गया है कि युद्ध में मरनेवालोंके लिये मरण धर्म नहीं मान सकता है, किन्तु बिल्कुल ही अमानुषिक संस्कारोंकी भी ज़रूरत नहीं, उनकी तो वैसे ही शुभगति' और राक्षसी कृत्य ठहराकर महा पाप ही बताता है । हो जाती है । परन्तु जैनधर्म ऐसी उल्टी बातको हरगिज़ चाहे सारा भारत इस कृत्यकी बड़ाई गाता हो परन्तु नहीं मान सकता है, युद्ध महा-कषायसे ही होनेके जैनधर्म तो इसकी बड़ी भारी निंदा ही करता है । कारण और दूसरोंको मारते हुए ही मरने के कारण इस ही प्रकार किसी समय विशेषरूपसे यद्ध आदिमें युद्ध करते हुए मरनेवाला तो अपने इस कृत्यसे किसी लगजाने के कारण लोगोंको पूजन भजन श्रादिका समय प्रकार भी ऐसा पुण्य प्राप्त नहीं कर सकता है जिससे न मिलनेसे उस समय के लिये पजन भजन आदिका उसको अवश्य ही स्वर्गकी प्राप्ति हो, किन्तु महा हिंसाके यह कार्य कुछ ऐसे ही लोगोंको सौंप दिया गया था जो भाव होने के कारण उसको तो पापका ही बंध होगा और शास्त्रोंके ही पठन पाठनमें और पूजापाठ में ही अधिक, दुर्गतिको ही प्राप्त होगा । हाँ, यह ठीक है कि संसारमें लगे रहते थे और ब्राह्मण कहलाते थे या कहलाने वह वीर समझा जायगा और यशको ज़रूर प्राप्त होगा। लगे थे । होते होते लोग इस विषयमें शिथिलाचारी
इस ही प्रकार किसी समय एक एक पुरुषकी होगये और आगेको भी पूजा पाठ श्रादिका कार्य उन अनेक स्त्रियाँ होनेके कारण इस भारत भूमिमें स्त्रियाँ ही लोगोंके जिम्मे होगया। पूजन-पाठ, जप-तप और अपने चारित्रमें अत्यन्त शंकित मानी जाने लगी थीं। ध्यान आदि धार्मिक सब ही अनुष्ठान लोंगोंकी तरफ़से 'स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्यभाग्यं देवो न जानाति कुतो इन ही ब्राह्मणों के द्वारा होकर पुण्यफल इनका उन मनुष्यः' स्त्री चरित्रकी बुराईमें ऐसे २ कथनोंसे सब ही लोगोंको मिलना माना जाने लगा जिनसे अपनी फीस शास्त्र भरे पड़े है । उस ही समय स्रियाँ पैरकी जूतीसे लेकर ये ब्राह्मण लोग यह अंनष्ठान करें। यही रूढी भी हीन मानी जाने लगी थीं । तब पुरुषके मरने पर अबतक जारी है और धर्मका सिद्धान्त बनगई है, परन्तु उसकी स्त्री खुली दुराचारिणी होकर अपने पति के नामको जैनधर्म किसी तरह भी ऐसा सिद्धान्त मानने को तय्यार बट्टा लगावे इस डरसे पुरुषोंने अपनी ज़बरदस्तीसे नहीं हो सकता है । वह तो पाप पुण्य सब अपने ही स्त्रियोंको अपने मृतक पतिकै साथ जल मरनेका महा भावों और परिणामों द्वारा मानता है। मैं खाऊँगा तो भयानक रिवाज जारी किया था और यह आन्दोलन मेरा पेट भरेगा दूसरा खायगा तो दूसरेका, यह हर्गिज़ उठाया गया था कि जो स्त्री अपने पति के साथ जल नहीं हो सकता है कि खाय कोई ओर पेट भरे दूसरेका, मरेगी वह अवश्य स्वर्ग जावेगी और इस पुण्यसे पूजा पाठ करै कोई और उसका पुण्य मिले दूसरेको । अपने पतिको भी चाहे वह नरक ही जानेवाला हो अपने ऐसी मिथ्या बातें जैनधर्म किसी तरह भी नहीं मान साथ स्वर्ग ले जायगी। फल इस आन्दोलनका यह सकता है। हुआ कि धड़ाधड़ स्त्रियां जीती जल मरने लगी और हिन्दुओंमें ब्राह्मणों द्वारा सब ही धार्मिक अनुष्ठान
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कराये जाने की रूढ़ी ज़ोरोंके साथ प्रचलित होजानेपर यह भी रूढ़ी होगई कि ईश्वर या किसी भी देवी देवताको यहाँ तक कि नवग्रह श्रादिको भी जो कुछ भेंट करना हो तो वह ब्राह्मणको दे देनेसे ही ईश्वरको या देवी देवताको पहुँच जाती है, फिर इस बातने यहाँ तक जोर पकड़ा कि मरे हुए मनुष्यको अर्थात् पित्रोंको भी जो कुछ खाना कपड़ा, खाट पीढ़ा, दूध पीनेको गाय, सवारीको घोड़ा आदि पहुँचाना हो वह ब्राह्मणोंको देनेसे ही पित्रोंके पास पहुँच जायगा, चाहे वे पितर कहीं हों, किसी लोकमें हों और चाहे जिस पर्याय में हों। यहाँ तक कि वे सब चीज़ें ब्राह्मण के घर रहते हुऐ भी और ब्राह्मण द्वारा उनको भोगा जाता देखा हुआ भी यह ही माना जाने लगा कि वे पित्रोंको पहुँच गई हैं। जैनधर्म ऐसी श्रद्धाको किसी तरह भी नहीं मान सकता है । किन्तु माननेवालोंकी बुद्धि पर श्राश्चर्य करता है ।
ऐसे महा अंधविश्वास के ज़माने में बिना किसी प्रकारके गुणोंके एकमात्र ब्राह्मण के घर पैदा होने से ही ऐसा पूज्य ब्राह्मण माना जाना जैसे उसके पढ़े लिखे और पूजा पाठ श्रादि करनेवाले पिता और पितामह ये कोई भी आश्चर्य की बात नहीं हो सकती है। फल इसका यह हुआ कि ब्राह्मण के घर पैदा होनेवालोंको किसी भी प्रकारके गुण प्राप्त करने की ज़रूरत न रही । बिल्कुल ही गुणहीन दुराचारी और महामूर्ख भी ब्राह्मण के घर पैदा होनेसे पूज्य माना जाने लगा और अबतक माना जाता है । उनके गुणवान पिता और पितामह की तरह इन गुणहीनोंको देनेसे भी उसही तरह ईश्वर और सब ही देवताओं को भेंट पूजा पहुँच जाना माना जाता है, किसी बात में भी कोई फ़रक़ नहीं श्राने पाया है । इन गुणहीनोंका भी वही गौरव, वहीं पूजा प्रतिष्ठा और ईश्वर और देवी देवताओंका एजेंटपना बना हुआ
अनेकान्त
[पौष, वीर निर्वाण सं० २०६६
है जैसे इनके गुणवान माता पिताओंका था । इस अंधेरको भी जैनधर्म किसी तरह नहीं मान सकता है, इस कारण जैन शास्त्रों में श्रीश्राचार्योंको इस बातका भारी खंडन करना पड़ा है और सिद्ध करना पड़ा है। कि मनुष्य जाति सब एक है, उसमें भेद सिर्फ़ वृत्तिकी वजहसे ही जाता है। जो जैसी वृत्ति करने लगता है वह वैसा ही माना जाता है । जन्मसे यह भेद किसी तरह भी नहीं माने जा सकते हैं । श्रादिपुराण, पद्मपुराण, उत्तरपुराण, धर्मपरीक्षा, वरांगचरित, और प्रमेयकमलमार्तंड में ये सब बातें बड़े ज़ोर के साथ सिद्ध की गई हैं। जैसा कि अनेकान्त वर्ष २, किरण ८ में विस्तार के साथ इन ग्रन्थोंके श्लोकों सहित दिखाया गया है ।
गुणहीन ब्राह्मणोंने अपनी जन्मसिद्ध प्रतिष्ठा कायम रखने के वास्ते अपने अपने बाप दादा आदि महान् पुरुषात्रों की बड़ाई और जगत में उनकी मानमर्यादाका बड़ा भारी गीत गाना शुरू करदिया, हरएकने अपने पुरुषाओं को दूसरोंसे अधिक प्रतिष्ठित और माननीयसिद्ध करने के सिवाय अपनी प्रतिष्ठा और पूजाका अन्य कोई मार्ग ही न देखा । जिससे उनके आपसमें भी द्वेषाग्नि भड़क उठी और एक दूसरेसे घृणा होनें लग गई । हमारे पुरुषा तो ऐसे पूज्य, पवित्र और धर्मनिष्ठ थे कि भुक के पुरुषों के हाथका भोजन भी नहीं लेते थे, इससे आपसमें एक दूसरे के हाथका भोजन खाना और बेटी व्यवहार भी बन्द होगया और ब्राह्मणोंकी अनेक जा तियाँ बन गई, जिनका एक दूसरेसे कुछ भी वास्ता न रहा। अपने अपने पुरुषात्रोंकी बड़ाई गा-गाकर अपनी जातिको ऊँचा और दूसरोंकी जातिको नीचा सिद्ध करना ही एकमात्र इनमें गुण रह गया ।
किसी प्रकारके गुण प्राप्त किये बिना जन्मसे ही
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वर्ष ३, किरण ३]
जैनधर्मकी विशेषता
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अप पुरुषात्रोंकी मानमर्यादाके अधिकार प्राप्त करनेकी गया, जगह जगह के भँगड़ इस ही कार्यके लिये मंदिरोंयह बीमारी महामारीकी तरह क्षत्रियोंमें भी फैली, उनमें में जमा होने लग गये। देखो अविचारिताके कारण भी अपने अपने पुरुषाओंकी बड़ाई गानेसे भेदभाव कहाँसे कहाँ मामला पहुँच गया और धर्मस्वरूप क्यासे पैदा होगया और अनेक जातियाँ होकर वैमनस्य बढ़ क्या बनगया । ब्राह्मणोंने अपनी विलक्षणता, बड़ाई गया । यही बीमारी फिर वैश्योंको भी लगी और होते और प्रतिष्ठा कायम रखनेके वास्ते अपने हाड माँसके होते शूद्रोंमें भी पहुंच गई जिसका फल यह हुआ कि शरीरको महान् शुद्ध और पवित्र स्थापित कर, दूसरोंकी अब हिन्दुत्रोंकी चार हज़ार जातियाँ ऐसी हैं जिनमें छूतसे अलग रहना शुरू करदिया, यदि किसी भलसे
आपसमें रोटी बेटी व्यवहार नहीं होता है और सब ही कोई उनके शरीर या वस्त्रको छदे तो महान पातक होगुण नष्ट होकर एकमात्र यह भेदभाव कायम रखना ही जावे, तुरन्त ही दोबारा स्नान करें, कपड़े धोवें और धर्म कर्म रह गया है । यही वर्णाश्रमधर्म कहलाता है आचमन कर और तुलसी पत्र आदि चबाने के द्वारा जिसका हिन्दुत्रोंको भारी मान है बिना किसी प्रकारकी अपनेको पवित्र बनावें, किसीके भी हाथका न खावें, शास्त्र विद्या या धर्म कर्मके जब एक मात्र ब्राह्मणके घर अपने ही हाथसे पकाकर खावें । इस प्रकार आत्मशुद्धि जन्म लेनेसे ही पूज्यपना और पुरुषाओंके सब अधिकार का स्थान शरीरशुद्धिने लेलिया और यही एकमात्र धर्म मिलने लग गये, यजमानोंसे ही जीवनकी सब ज़रूरतें बन गया। पूरी होने लग गई, किसी प्रकारकी भी आजीवकाकी परन्तु गृहस्थीके वास्ते स्वपाकी रहना बहुत कोई ज़रूरत न रही तो ब्राह्मणोंको बिल्कुल ही बेफ़िकरी कठिन है, इस कारण लाचार होकर फिर कुटुम्ब वालों होगई और बेकार पड़े रहने के सिवाय कुछ काम न रहा। के हाथका और फिर अपनी जाति वालोंके हाथका भी परन्तु आपसमें स्पर्धाका होना तो ज़रूरी ही था । हम खाना शुरू होगया । दूर प्रदेश में जाना पड़ा तो उसके दूसरोंसे अधिक पूज्य माने जावें, यह खयाल आना तो लिये दूधमें श्रोसने हुए आटेसे जो खाना बने उसको लाज़मी ही था, इसके सिवाय अपने ब्राह्मणपनेको बाहर लेजानेकी भी खुल्लस करनी पड़ी। फिर कहीं २ क्षत्रिय और वैश्योंसे पृथक् ज़ाहिर करते रहना भी बिना दूधमें उसने एक मात्र घीमें पकाया पकवान भी ज़रूरी था,ठाली और बेकार तो थे ही इस कारण किसी बाहर ले जाना जायज़ होगया । श्रात्म शुद्धिका सब नदी या तालाबके किनारे जाकर खूब अच्छी तरह मामला छूटकर जब एक शरीर शुद्धि और खानपानकी मल मलकर अपने शरीरको धोते रहने, नित्य अच्छी छूत अछूत ही एक मात्र धर्म रह गया तो इसकी बड़ी तरह धो धोकर धौत वस्त्र पहनने, शरीर पर चन्दन देखभाल रहने लग गई । जो कोई छूत छातके इन
और मस्तकपर तिलक लगानेमें ही बिताने लगे । खाली नियमोंको तोड़े वही धर्म भ्रष्ट माना गया और एक दम तो थे ही दिन कैसे बितावें, इस कारण भंग घोट घोटकर अलग कर दिया गया । ब्राह्मणोंकी अनेक जातियाँ हैं पीना. घरस और सुल्फ़ेका दम लगाना और बेसुध जिनमें गौड़ आदि कुछ जातियोंके सिवाय बाकी सब होकर पड़े रहना, यह ही उनके धर्मका अंग बन गया, जायियाँ मांस खानेको धर्म विरुद्ध नहीं समझती हैं। यहाँ तक कि धर्म मंदिरोंमें नित्य यही काम होने लग-इन माँसाहारियोंमें भी जो अधिक धर्मनिष्ट है वे जब
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भनेकान्त
(पौष, वीर निर्वाण सं०२४९९
नदी या तालाब परसे स्नान करके आते हैं तो मार्गमें शिक्षा देता है, जिसने धर्म-साधन में अभी कदम भी बड़ा विचार इस बातका रखते है कि कोई उनके शरीर नहीं रक्खा है उसको भी जैनधर्म तो सर्व प्रकार या वस्त्रसे न छू जाय और यदि कोई छू जाता है तो नशोंसे दूर रहना ज़रूरी बताता है। तुरन्त वापिस जाकर नहाते हैं । यदि भोजन बनाने के अब रही स्नान और शरीर शुद्धिकी बात, यह भी वास्ते कोई मछली या अन्य कोई माँस उनके पास हो हिंदूधर्म में ही धर्म माना जा सकता है । जैनधर्म में नहीं; तो उससे वे अपवित्र नहीं होंगे, किन्तु किसीके छू जानेसे जैनधर्म तो श्रात्म शुद्धिको ही धर्म ठहराता है और उस ज़रूर अपवित्र हो जायेंगे । इस ही प्रकार माँस मछली- ही के सब साधन सिखाता है । शरीरको तो महा अशुद्ध के पकानेसे उनकी रसोई अपवित्र न होगी, न मांस और अपवित्र बताकर उसके प्रति अशुचि भावना रखना मच्छी खानेसे उनको कोई अपवित्रता आवेगी, परन्तु ज़रूरी ठहराता है । मनुष्यका यह शरीर जो हाड उनकी रसोई बनाई और खाते समय अगर कोई मनुष्य माँस रुधिर श्रादिसे बना है, बिष्टा मूत्र बलग़म और चाहे वह ब्राह्मण ही हो परन्तु उनकी जातिका न हो पीप आदिकी जो थैली है वह तो सात समुद्रोंके पानीसे अभी स्नान करके श्राया हो, कपड़े भी पवित्र हों, तो भी धोने पर भी पवित्र नहीं हो सकता है। किन्तु इसके यदि वह मनुष्य उनकी रसोई के चौकेकी हदके अन्दरकी छूनेसे तो पवित्र जल भी अपवित्र हो जाता है, इस धरतीको भी छू दे, तो वह रसोई भ्रष्ट होकर खाने योग्य कारण स्नान करना किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता न रहेगी।
है । पद्मनन्दि पचीसीमें तो श्राचार्य महाराजने अनेक - "जैनधर्म ऐसी बातोंसे कोसों दूर है । भंग, धतूरा, हेतुत्रोंसे स्नान करने को महापाप और अधर्म ही ठहराया चरस और गाँझा आदि मादक पदार्थ जो बुद्धिको भ्रष्ट है। परन्तु गृहस्थी लोगोंको जिस प्रकार अपनी आजीकरने वाले हैं उनको तो कुव्यसन बताकर जैन-धर्म सब विकाके वास्ते खेती,व्यापार,फ़ौजी नौकरी और कारीगर' से पहले ही उनके त्यागने की शिक्षा देता है, जो वस्तु आदि अनेक ऐसे धंधे करने जरूरी होते हैं जिनमें जीव मनुष्यको मनुष्य नहीं रहने देती उसकी विचार शक्तिको हिंसा अवश्य होती है, इस ही से वे सावद्य कर्म कहलाते भ्रष्ट करती है, उसका सेवन करना तो किसी प्रकार भी हैं। जिस प्रकार गृहस्थीको अपने रहनेके मकानको धर्म नहीं हो सकता है । ऐसी वस्तु तो सब ही मनुष्यों माड़ना बुहारना और लीपना पोतना ज़रूरी होता है को त्यागने योग्य हैं ।, परन्तु कैसे आश्चर्यकी बात है यद्यपि मकानकी इस सफाई में भी जीव हिंसा ज़रूर होती कि हिंदुअोंके बहुतसे त्यागी और साधु वैरागी तो ज़रूर है परन्तु गृहस्थीके लिये यह सफ़ाई रखना भी ज़रूरी ही इन मादक पदार्थों का सेवन करते हैं । और गृहस्थी है। ऐसा ही अपने कपड़ों और शरीरको धोना और लोग भी उनकी संगतिसे यह कुव्यसन ग्रहण करने लग साफ़ रखना भी उसके लिये ज़रूरी है । शरीर उसका जाते हैं। सब हिंदू मंदिरोंमें यह व्यसन ज़ोर शोरसे वास्तवमें महा निंदनीय और अपवित्र पदार्थोंका बना चलता रहता है, ऐसे व्यसनियोंका जमघट उनके मंदि- हुआ है परन्तु उससे उसका मोह नहीं छूटा है, ऐसा रोंमें लगा रहता है । इसके विपरीत जैनधर्स ऐसी बातों ही अपने कपड़ों और मकानसे भी मोह नहीं छूटा है, को पाप बताता है और ऐसी संगतिमे भी दूर रहनेकी और न इन्द्रियों के विषय ही छूटे हैं । इस कारण मकान
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वर्ष ३, किरण ३ ] )
मायको, वस्त्रोंको और शरीरको सब ही को सुंदर बनाये रखनेके वास्ते झाड़ना, पोंछना, लीपना, पोतना और धोना यह सब काम करना उसके लिये ज़रूरी हैं । जिनमें जीव हिंसा जरूर होती है परन्तु गृहस्थी के ये सब कार्य उसके लिये जरूरी होने पर भी किसी तरह भी धर्म कार्य नहीं होसकते हैं, हैं तो यह सब त्यागने योग्य ही, जो संसारी और गृहस्थी होने के नातेसे ही ज़रूरी हो रहे हैं । इस ही कारण ज्यों ही वह गृहस्थी किंचित्मात्र भी पापोंका त्याग शुरू करता है, अणुव्रती कर दूसरी प्रतिमा ग्रहण करता है, तब ही से उसको स्वानके त्यागका भी उपदेश मिलने लग जाता है | · अव्वल तो भोगोपभोग परिमाण व्रतमें उसको शरीर के श्रृङ्गार श्रादिके त्यागमें स्नानको भी एक प्रकारका इंद्रियोका व्यसन और भोग बताकर कुछ २ समय के लिये त्यागको कहा गया है । फिर प्रोषधोपवासके दिन तो अवश्य ही स्नान और शरीर श्रृङ्गारका त्यागना ज़रूरी ठहराया है। इस ही प्रकार ज्यों २ वह इंद्रियोंके विषय और हिंसा त्यागकी तरफ़ बढ़ता जाता है । इन्द्रिय संयम और प्राण संयम करने लगता है त्यों २ वह स्नान करना भी छोड़ता जाता है । यहाँ तक कि मुनि होने पर तो वह स्नान या अन्य किसी प्रकार शरीरको धोना पूछना या साफ़ करना या बिल्कुल ही छोड़ देता है । स्नान करना या अन्य किसी प्रकार शरीर को शुद्ध रखना किसी प्रकार भी पारमार्थिक धर्मका कोई अंग नहीं हो सकता है वह एक मात्र इन्द्रियोंका विषय और शरीरका मोह ही है जो गृहस्थियोंको इसी कारण करना ज़रूरी होता है कि वे अपनी इन्द्रियोंके विषयोंको श्रौर शरीर के मोहको त्यागने में समर्थ होते हैं। लाचार हैं और मोहके कारण बेबस हो रहे हैं। परन्तु जो इन्द्रियोंके forest र मोहको पाप समझकर त्यागने में समर्थ हो
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जैनधर्मकी विशेषता
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सकते हैं वे जितना २ उनका मोह घटता है उतना २ स्नानको और शरीरकी सफ़ाईको त्यागते जाते हैं । यहाँ तक कि मुनि होने पर तो स्नान करना और शरीर धोना पोंछना बिल्कुल ही त्याग देते हैं। यही नहीं वे तो टट्टी जाकर कमण्डलुके जिस पानीसे गुदा साफ़ करते हैं; उस ही से हाथ धोकर फिर मिट्टी श्रादि मलकर किसी दूसरे शुद्ध पानीसे हाथोंको पवित्र करना भी जरूरी नहीं समझते हैं । उन ही अपवित्र हाथोंसे शास्त्र तकको छूते रहते हैं । कारण कि शरीरकी शुद्धि धर्म नहीं है और न हाड माँससे बने शरीरकी शुद्धि हो ही सकती है । धर्म तो एकमात्र आत्मशुद्धिं करता ही है जो राग द्वेष आदि कषायों और इन्द्रियों के विषयों को दूर करनेसे ही होती है । तब ही तो जैनधर्ममें दस लक्षण कथन में शौच धर्म मात्रको शरीर शुद्धि न बताकर आत्माको कषायोंसे शुद्ध करना और विशेषकर लोभ कषायका निर्मूल करना ही शौचधर्म बताया है । संसारकी वस्तु
से ग्लानि करना भी जुगुप्सा नामकी कषाय ठहरा - या है और जैनधर्मका श्रद्धान करनेके वास्ते शुरू में ही श्रद्वान के श्रंगस्वरूप चिकित्सा अर्थात् ग्लानि न करना ज़रूरी बताया है। विशेषकर जैनधर्मके मुनि और साधु जिनका तन अत्यन्त ही मलिन रहता है, जो आँखों और दाँतों तकका मैलनहीं छुड़ाते हैं और न टट्टी जाकर अपने हाथ ही मटियाते हैं उनसे किसी भी प्रकारकी घृणा न करना, उनको किसी भी प्रकार अपवित्र या अशुद्ध न समझना किन्तु राग द्वेष और विषय कषायों के मैलसे रहित होकर अपनी श्रात्माको शुद्ध करने के लिये शरीरका ममत्व छोड़ ग्रात्म ध्यानमें लगे रहने वाले शरीरसे मैले कुचैले इन सांधु मुनियोंको ही परम पवित्र और • शुद्ध समझना सिखाता है ।
मनुष्यों का जीवन या साधन दो प्रकारका होता है,
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
एक लौकिक या सांसारिक और दूसरा धार्मिक या श्रा- पोंछते ही हैं । जो अांखों और दांतों तकका भी मैल नहीं ध्यात्मिक । लौकिक जीवन जो कोई जितना भी अधिक छुड़ाते हैं । जो सजे सजाये महल मकान, अत्यंत जगपरिग्रही, अधिक सम्पत्तिवान् वैभवशाली, ठाठ बाट और मगाती और चहल पहल करती हुई मनुष्योंसे भरी शान शौकतसे रहने वाला, साफ सुथरे, चमक दमक आबादी, साफ सुथरी रहने वाली सुंदर २ स्त्रियां और
और तड़क झड़कके सामानसे सुसज्जित, अनेक महल सब ही वैभव छेड़कर जंगलमें जा विराजते हैं, धरती मकान, बाग़ बग़ीचे, हाथी घोड़े, नाल की पालकी, नौकर पर सोते हैं, खाकपर लेटते हैं, सर्दी, गर्मी, डांस मच्छर चाकर बांदी गुलाम रखने वाला । अनेक प्रकारकी के दुख सहते हैं और कुछ भी परवाह नहीं करते हैं । सुंदर २ स्त्रीरत्नोंसे जिसके महल भरे हुये, अनेक देशों लौकिक साधना वालेको तो अपनी इन्द्रियों और
और अनेक राजाओंपर जिसकी हकूमत चलती हो । देश कषायोंको पुष्ट करना होता है,इस कारण वो अपने शरीविदेश विजय करता फिरता हो, बड़ा भारी जिसका दब- रको भी साफ और सुंदर बनाये रखनेकी कोशिश करता दबा हो वही बड़ा है, पज्य है और प्रशंसनीय है, स्तुति है और अपने महल मकान और अन्य सब वस्तुओंको और विरद गानेके योग्य है । वह अपने शरीरसे जितनी भी झाड़ता पौंछता रहता है वह तो अपनी प्यारी स्त्रियों भी ममता करे थोड़ी है । शरीरकी पुष्टिके वास्ते सत्तर नौकरों चाकरों और हाथी घोड़ों आदि पशुओंको भी प्रकारके भोजन खाता हो। अनेक वैद्य जिसके लिये साफ़ सुंदर देखना चाहता है, इस कारण आप भी अत्यंत पौष्टिक और सुस्वादु औषधियां बनानेमें लगे बार २ नहा-धोकर सुंदर २ वस्त्रों और अलंकारोंसे रहते हों, अनेक चाकर और चाकरनियां जिसके शरीर सुसज्जित होता है और अपनी स्त्रियों, नौकरों, पशुत्रों, को चिकना मुलायम और सुंदर बनानेमें नाना प्रकारके महल मकानों, और सभी सामानको धो-पूछकर साफ . तेलों और उबटनोंसे उसके शरीर का मर्दन करें, दिन में कराता रहता है और तरह २ के सामानसे सजाता कई २ बार नहलाते रहते हों और कई२ बार नवीन रहता है । इसके विपरीत अध्यात्म-साधना वालेको वस्त्र बदलते रहते हों, उस ही का संसारी जीवन सबसे अपने शरीर और तत्सम्बन्धी अन्य सब ही भोगों तथा उत्कृष्ट और बढ़िया है।
सब ही सामानसे मुँहमोड़ एक मात्र अपनी आत्माको . परन्तु आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन इससे बिल- रागद्वेष और विषय कषायोंके मैलसे दूर कर शुद्ध और कुल ही विपरीत है । वह जीवन सबसे उत्कृष्ट तो साधु- पवित्र बनानेकी ही धुन होती है । ओं का होता है, जिनके पास परिग्रहके नामसे तो एक इस प्रकार जैन-धर्मके अनुसार तो जितना भी कोई लँगोटी मात्र भी नहीं होती है । शास्त्र तो धर्मका ज्ञान शरीरका मोह छोड़, उसके प्रति सदा अशुचि भावना प्राप्त करनेके लिये, पीछी जीव जन्तुओंके प्राण संयम रख, उसके धोने, मांजने और साफ व शुद्ध करने के के लिये और कमण्डलमें पानी टट्टी जाकर गुदा सान बखेड़ेमें न पड़कर अपनी प्रात्माके ही शुद्ध करने में करनेके लिये है, इसके सिवाय उनको सब ही प्रकारके लगता है, उतना ही वह धर्मात्मा और आध्यात्मिक है, सामानका त्याग होता है । शरीरने निर्ममत्व होकर जो और जितना २ कोई इस शरीरको धो माँजकर सुंदर न स्नान करते हैं, न किसी दूसरी प्रकार उसको माइते बनानेमें मन लगाता है उतना २ ही वह संसारी है ।
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जैनधर्मकी विशेषता
वर्ष २, किरण ३ ]
मुनिका जीवन सर्वथा आध्यात्मिक जीवन है, लौकिक जीवनका उसमें लेश भी नहीं है, इस कारण वह शरीर को किंचित मात्र भी धोता मांजता नहीं है। ऋणुव्रती का जीवन धार्मिक और लौकिक दोनों ही प्रकार मिश्रित रूप होता है, जितना २ वह धार्मिक होता है, उतना २ तो वह शरीरको धोता मांजता नहीं, किंतु विषय कषायों के ही दूर करनेकी फिक्र करता है और जितना २ वह लौकिक हो जाता है, उतना २ वह शरीरको भी सुँदर नाता है और अन्य प्रकार भी अपनी विषय कषायोंको पुष्ट करता है । इस अणुव्रती श्रावकको शास्त्रकारोंने दूसरी प्रतिमासे ग्यारहवीं प्रतिमातक दस श्रेणियों में विभाजित किया है । इन श्रेणियों में उत्तरोत्तर जितनी २ किसीकी लौकिक प्रवृत्ति कम होती जाती है और अध्यात्म बढ़ता जाता उतना ही उतना शरीरका धोना मांजना सिंगार करना और पुष्ट करना भी उसका कम होता जाता है । ब रहा पहली प्रतिमा वाला जो श्रद्धानी तो होगया है किन्तु चरित्र अभी कुछ भी ग्रहण नहीं किया है। किंचित् मात्र भी जिसने अभी त्याग नहीं किया है, किंतु त्याग करना चाहता ज़रूर है, वह नित्य प्रति शरीरको धोता, मांजता, शृंगार करता और पुष्ट करता ज़रूर है । अन्य भी सब प्रकारकी विषयकषायों में पूर्ण रूपसे लगा भी जरूर होता है परन्तु इन को धर्म विरुद्ध और लोक साधना मात्र समझ कर त्यागना जरूर चाहता है इससे भी घटिया जिसको धर्म का श्रद्धान ही नहीं हुआ है, निरा मिथ्यात्वी ही है वह तो अपनी विषय कषायोंकी पुष्टिको श्रौर अपने शरीर को धो-मांजकर सुंदर रखने और पुष्ट बनानेको ही अपना मुख्य कर्त्तव्य और अपने जीवनका मुख्य ध्येय समझता है ।
अब जरा खाने पीनेकी शुचिक्रियापर भी ध्यान
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दीजिये और जाँच कीजिये कि इस विषय में भी हिन्दु धर्म और जैनधर्म में क्या अन्तर है। हिन्दुत्रोंके महा मान्य ग्रन्थ मनुस्मृति में हर महीने पितरोंका श्राद्ध करना और उसमें मांसका भोजन बनानेकी बहुतही ज्यादा ताकीदकी गई है और यहांतक लिखा है कि श्राद्धसे नियुक्त हुआ जो ब्राह्मण मांस खानेसे इन्कार करदे वह इस महा अपराधके कारण हरबार पशु जन्म धारण करेगा उनके इस ही महामान्य ग्रन्थमें यह भी लिखा है कि यदि कोई द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लहसुन और अन्य भी अनेक बनस्पति जिनका ब्यौरा उसमें दिया है खाले, खाना तो दूर रहा खानेका मनमें विचार भी कर ले तो वह पतित हो जाता है । अर्थात् बिना प्रायश्चितके शुद्ध नहीं हो सकता है । अब विचार कीजिये कि यह दोनों कथन कैसे संगत होसकते हैं ब्राह्मण व अन्य वे जातियां जो माँस खाना उचित मानती हैं बहुधा शिकारी कुत्तोंसे या अन्य शिकारी जानवरोंसे मारा हुत्रा पशु पक्षी, इसी प्रकार चांडाल श्रादि व्याधोंसे मारा हुआ मांस शुद्ध समझती हैं और ग्रहण कर लेती हैं, मुसलमान क़साईकी दुकानसे बकरेका मांस भी ले जाती हैं परन्तु वह मांस कपड़े उतारकर ही पकाया और खाया जावेगा, यहांतक कि जिस चौकेमें वह मांस पकता हो, उस चौके की धरतीको भी यदि कोई उन्हींकी जातिका पुरुष शुद्ध कपड़े पहने हुए भी छूदे तो सारी रसोई भ्रष्ट हो जावेगी,
सभी हिन्दु, जिनमें अब बहुतसे जैनी भी शामिल हैं, चौकेसे बाहर कपड़े पहने हुए यहाँ तक कि कोई २ तो जूते पहने हुए भी पानी दूध, चाय और ग्राम अमरूद अंगूर अनार आदि फल तथा और भी अनेक पदार्थ खा पी लेते हैं । इस ही प्रकार बहुधा हिन्दु और जैनी जो मुसलमान के घरका दूध और घी खाते हैं वे भी रोटी चौकेसे बाहर खानेसे पतित समझे जाते हैं ।
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अनेकान्त
[ पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
सबकी बाबत हम नहीं कह सकते परन्तु बहुधा ऐसे हैं मोटे रूपसे विचार क नेसे तो यह ही मालूम होता जो मुसलमान और अछूतोंके हाथसे साग सब्जी लेकर है कि हमारे जैनी भाई हिंदुओंकी ऐसी जातियोंका जब खाते हैं उनसे ली हुई साग सब्जी कच्ची तो वे चौकेसे बिलकुल ही मांस त्यागी हैं, अनुकरण कर इस विषय में बाहर कपड़े पहने भी खा लेते हैं परन्तु पकायेंगे उसको सभी नियम आँख मींचकर उन्हीं के अनुसार पालने चौकमें कपड़े निकाल कर ही और खायेंगे भी कपड़े लग गये। हिंदुओंमें उनके नियम सारे हिन्दुस्तान में निकाल कर ही । यदि कपड़े पहने खालें तो महा भ्रष्ट प्रायः एक समान नहीं है। प्रान्त २ में भिन्न २ रूपसे पापी और पतित माने जायें । मुसलमान साग सब्जी बरते जाते हैं । हमारे जैनी भाई भी जिस जिस बेचने वाले हमारी आंखोंके सामने अपने मिट्टीके लोटे प्रान्तमें रहते हैं उस २ प्रान्तके हिंदुओंके अनुसार ही से साग सब्जी पर पानी छिड़कते हैं, चाकुसे काटते प्रवर्तते हैं और इस ही को महाधर्म समझते हैं । अजब तराशते हैं, हाथसे तोड़ते हैं, और हममें से बहुतसे उन गुल गपाड़ा मचा हुआ है । कोई भी सिद्धांत स्थिर से मोल लेकर खाते हैं । यह सच है कि घर जाकर उन नहीं हो पाता है । को धो लेते हैं परन्तु जो पानी दिन भर उनपर छिड़का जैनधर्ममें हिंसा, चोरी, झूठ, परस्त्रीसेवन और जाता रहा है वह तो उन साग सब्जियोंके अन्दर ही परिग्रह ये ही महापाप बताये हैं । इनही पापोंके त्यागके प्रवेश कर जाता है और इसी गरजसे उन पर छिड़का वास्ते अनेक विधिविधान ठहराये हैं । जो जितना जाता है कि जिससे वे हरी भरी रहें । तब धोनेसे तो वह इन पापोंको करता है वह उतना ही पापी है और जो पानी निकल नहीं सकता है, तो भी धोकर वह साग जितना भी इन पापोंसे बचता है वह उतना ही धर्मात्मा . सब्जी खाने योग्य हो जाती है, इनमें से. मूली गाजर है। परन्तु जबसे जैनियोंने अपने हिन्दु भाइयोंके केला अनार अमरूद अादि जो फल कच्चे ही प्रभावमें आकर--(हिन्दू २५ करोड़ और जैनी ११ खाने होते हैं वे तो चौकेसे बाहर भी सब जगह कपड़े लाख ही रहजानेसे-उनका प्रभाव पड़ना तो जरूरी पहने हुए ही खा लिये जाते हैं, यहां तक कि जूता था ही) धर्मात्मा और अधर्मी, शुद्ध और पातकीका पहने हुए भी खा लिये जाते हैं । परन्तु पकाये जायेंगे निर्णय करने के वास्ते अपने इन २५ करोड़ हिन्दु चौकेमें कपड़े निकाल कर ही और पकाकर भी खाये भाइयोंका ही सिद्धान्त ग्रहण कर लिया है, तबसे जायेंगे निकाल कर ही । इस प्रकार - यह मामला जैनियोंमें भी यदि कोई कैसा ही चोर, दगाबाज़, अठा, ऐसा विचित्र है कि जिसका कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं फरेबी, परस्त्रीलम्पट, वेश्यागामी, महापरिग्रही, धनहोता है । यदि यह कहा जाय कि अग्निका सम्बन्ध लोलुपी, यहाँ तक कि अपनी दस बरसकी बोटीसी होनेसे ही ऐसी शुचि क्रियाका करना ज़रूरी हो जाता है बेटीको धनके लालचसे ६० बरसके बूढ़े खूसटको बेच तो चने मटरके बूट और मूंगफलीके होले, तो जंगलमें कर उसका जीवन ही नष्ट भ्रष्ट कर देने वाला हो, कहाँ भी भून कर खा लिये जाते हैं । अनेक प्रकारके चबैने तक कहें, चाहे जो कुछ भी करता हो। जिसको कहते और चिड़वे भी इस ही प्रकार खा लिये जाते हैं। इस शर्म श्राती है परन्तु चौकेके नियमोंको अपने प्रान्तको प्रकार कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं हो पाता है। प्रचलित रीतिके अनुसार पालता हो तो वह पातकी
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वर्ष ३, किरण ३]
जैनधर्मकी विशेषता
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नहीं है। किंतु यदि वह उपरोक्त पाँचों पापोंको करने देना चाहिये, यदि वह तपस्या करने लगे तो उसको वाला दूसरोंकी अपेक्षा और भी सख्तीके साथ इन जानसे मार डालना चाहिये । परन्तु जैनधर्ममें यह नियमोंको पालता है तो वह धर्मात्मा है और प्रशंसनीय बात नहीं है । श्री समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि चांहै । और जो जो इन पांचों पापोंसे बहुत कुछ बचता डालका पुत्र भी जैनधर्मका श्रद्धान करले तो देव समाहै, यहाँ तक कि शास्त्रानुसार पांचों अणुव्रत पालता है न हो जाता है । इस ही से श्राप बिचारले कि जैनधर्म परन्तु चौके के नियम अपने प्रान्त और अपनी जातिके में और हिन्दूधर्ममें कितना आकाश पातालका अंतर अनुसार नहीं पालता है, दृष्टान्तरूप जिस प्रान्तमें रोटी है । बाह्य शुद्धि और सफ़ाई रखना वेशक गृहस्थोंके कपड़े उतारकर और चौकेमें बैठकर ही खाई जाती है, वास्ते ज़रूरी है । परन्तु उसका कोई सिद्धान्त ज़रूर उस प्रान्तका रहनेवाला पक्का अणुव्रती अगर चौकेसे होना चाहिये, जिसके आधार पर उसके नियम स्थिर बाहर दूसरे पवित्र और शुद्ध मकानमें रोटी लेजाकर किये जावें । उन्मत्तकी तरहसे कहीं कुछ और कहीं शुद्ध और पवित्र कपड़े पहने हुए खा लेता है तो वह कुछ करनेसे तो मखौल ही होता है; कारज कोई भी महा पतित और अधर्मी गिना जाता है।
सिद्ध नहीं होसकता है। इस कारण विचारवान पुरुषोंको ___ इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक दृष्टान्त दिए जा उचित है कि अापसमें विचार-विनिमय करके जैन-धर्मासकते हैं जिनमें जैनियोंमें उन पापोंसे बचनेकी बहुत नुसार इसका कोई सिद्धान्त और नियम स्थिर करें जो शिथिलाचारिता श्रागई है जिनको जैनधर्ममें पाप सब ही प्रान्तों और जातियों के वास्ते एक ही हो । कहीं ठहराया है । एक मात्र इन प्रान्तीय बाह्य क्रियाओंका कुछ और कहीं कुछ जैसा अब हो रहा है,यह न रहे और करना ही धर्म रह गया है, जिससे ढौंग और दिखावा यदि यही बात स्थिर करनी हो कि जिस-जिस प्रान्तमें बहुत बढ़ गया है । वास्तविकधर्मका तो मानों बिल्कुल अन्य हिंदुओंका जो वर्ताव है वही जैनियोंको भी रखना लोप ही होता जारहा है । अन्य मतियों के सिद्धान्तों पर चाहिये, जिससे उन लोगोंको जैनियोंसे घृणा न हो, तो या बिना विचारे रूढ़ियों पर चलनेसे तो जैनधर्म किसी चौकेकी इस शुद्धि-सफ़ाई और छूतछातके इन सब तरह भी नहीं टिक सकता है । इसी कारण आचार्योंने नियमोंको धार्मिक न ठहराकर बिल्कुल ही लौकिक घोजैनियोंको अमूढदृष्टि रहने अर्थात् बिना बिचारे अाँख षित कर दिया जाय, जिससे जैनियोंको इस चौका-शुद्धि मींचकर ही किसी रीति पर चलनेसे मना किया है। के अतिरिक्त आत्म-कल्याण रूप धर्मसाधनकी भी दुनियाके लोगोंकी रीस न कर निर्भय होकर अपनी फिकर होने लगजाये । धर्मात्मा और अधर्मात्माकी क
आत्माके कल्याण के रास्ते पर ही चलनेका उपदेश सौटी यह चौकेकी अद्भुत शुद्धि नरह कर पंच पापोंका दिया है।
त्याग ही उसकी जाँचकी कसौटी बन जाय । हिन्दूधर्म कहता है कि जिसने ब्राह्मण के घर जन्म इस विषय में बहुत कुछ लिखनेकी ज़रूरत है, परन्तु लिया है वह गुणवान न होता हुअा भी, हीन कार्य अभी इस विषयको छोड़कर हम यह जानना चाहते हैं करता हुआ भी पूज्य, परन्तु शूद्रके घर जन्म लेने वाला कि हमारे विचारवान विद्वान भी कुछ इस तरफ ध्यान यदि वेदका कोई शब्द भी सुनले तो उसका कान फोड़ देते हैं या नहीं। या बुरा भला जो कुछ होरहा है तथा
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'अनेकान्त
[पौष, वीर-मिर्वाण सं०२४६६
होता रहेगा, उसीके धक्के मुक्केसे जैनियोंमें भी जो कुछ है कि हमारे हिन्दू भाइयोंमें जिन जिन बुरी भली बातों. परिवर्तन होगा उसको ही होने देना उचित समझते हैं। का प्रचार होगा वे सब बातें समयके प्रभावसे आगे भी निर्जीवकी तरहसे दूसरी शक्तियोंके ही प्रवाहमें बहते आहिस्ता आहिस्ता जैनियोंमें भी अाती रहेंगी; कारण रहना पसन्द करते हैं, खुद कुछ नहीं करना चाहते हैं। कि जैनियोंने इस विषयमें जैनसिद्धान्तानुसार कोई ___ अन्तमें हम इतना कह देना ज़रूरी समझते हैं कि नियम स्थिर नहीं कर रखा है, किन्तु जिस जिस आज-कल सब ही जातियोंमें परिवर्तन बड़े वेगसे होरहा प्रान्तमें हिन्दुओंका जो व्यवहार है उस ही का अनुसरण है। परिवर्तनसे खाली कोई नहीं रह सकता है। वह परि- करना अपना धर्म मान लिया है यहाँ तक कि जो बातें वर्तन बिगाड़ रूप हो या संधार रूप, यह कोई नहीं कह जैन धर्मके प्रतिकूल भी हैं उनका भी अनुकरण दृढ़ता सकता है । हाँ, इतनी बात ज़रूर है कि जो अपना के साथ किया जाता है, जैसा कि राजपतानेमें ब्याह परिवर्तन श्राप नहीं करेंगे किन्तु दूसरोंके ही प्रवाहमें शादीमें जलेबियोंका बनाना और जीमना जिमाना, बहना चाहेंगे उनका अस्तित्व कुछ नहीं रहेगा। उचित बड़ी हृदय विदारक मौतमें भी सबका नुकता जीमना तो यही है कि जो भी रूढ़ियाँ जैनधर्मके विरुद्ध हममें और जिमाना आदि । यदि जैनियोंकी यही प्रगति और
आगई हैं उनको दूर कर हम अपना सुधार जैन अनुकरणशीलता रही और अपना कोई अलग अस्तित्व सिद्धान्तानुसार करलें । यदि ऐसा नहीं करेंगे और दूसरों स्थिर न किया गया तो नहीं मालूम हिन्दू भाईयोंके के ही परिवर्तनमें परिवर्तन होना पसन्द करते रहेंगे तो प्रवाहमें बहते बहते हम अपने धर्मकी सारी विशेषताको
जैनधर्मका रहा सहा अस्तित्व भी नहीं रहेगा। खोकर कहाँसे कहाँ पहुँच जाये और किस गढ़ेमें जा___ आप यह बात देख रहे हैं कि जबसे गांधी महाराज- पड़ें। ने अछूतोंसे अछूतपन न रखनेका आन्दोलन चलाया आजकल तो ऐसा होरहा है कि प्रचलित रूढ़ियोंके है और कांग्रेसने इसका बीड़ा उठाया है, तबसे अनेक विरुद्ध अपने हिन्दू भाइयोंका अनुकरण जब कुछ थोड़े हिन्दुओंने तदनुसार ही वर्तना शुरू करदिया है और ही जैनी भाई शुरू करते हैं तब तो सेठ साहूकार और अनेक जैनी भी उनके प्रभावमें आ तदनुसार ही प्रवर्तने बिरादरीके पँच रूढ़ियोंकी दुहाई देकर उनको बहुत लग गये हैं । इस ही प्रकार अनेक हिन्दू बैरिस्टरों,वकीलों कुछ बुरा भला कहने लग जाते हैं, विद्वान लोग भी डाक्टरों, और जजों आदिने मेज़ पर रोटी खाना शुरू उनकी हाँ में हां मिलाकर धर्मचला धर्मचलाकी रट करदिया है तो अनेक अंग्रेज़ी पढ़े जैनी भी उनकी देखा लगाने लग जाते हैं । फिर जब कुछ अधिक लोग इस देखी ऐसा ही करने लग गये हैं । इस ही प्रकार बहुधा नवीन मार्गपर चलने लग जाते हैं तो लाचार होकर हिन्दुओंमें बरफ़ और सोडावाटर पीने का प्रचार देख सब ही पंच और पंडित भी चुप हो जाते हैं । पंचम जिसके बनाने में हिन्दू मुसलमान, छुत अछुत सब ही का कालमें तो ऐसा होना ही है ऐसा कहकर संतोष कर लेते हाथ लगता है, हमारे कुछ जैनी भाई भो इनको ग्रहल हैं। इस प्रकारकी गड़बड़ जैनआतिमें बहुत दिनोंसे करनेमें आनाकानी नहीं करते हैं । इसी प्रकारके अन्य होती चली आरही है, यदि कोई सुधारवादी इस विषयमै भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं निमसे यह स्पष्ट कुछ आवाज़ उठासा भी है और विद्वानोको इसमें योग
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जैनधर्मकी विशेषता
वर्ष ३, किरण ३ ]
देनेके लिये ललकारता है तो ये विद्वान लोग एकदम घबरा उठते हैं, सोचते हैं कि अबतक तो कर्तव्यहीन
कर्मण्य, साहसहीन, और शिथिलाचारी होकर प्रमाद की नींद ले रहे थे, अनपढ़ पंचों और सेठ साहूकारोंकी हांमें हां मिलाकर, प्रचलित रूढ़ियों को ही जैनधर्म बताकर, बिना करे कराये ही वाहवाही ले रहे थे, व कुछ इन सभी रीति रिवाजोंकी जांच कर किस प्रकार उन मेंसे किसीको जैनधर्मके अनुकूल और किसीको प्रतिकूल सिद्ध करनेका भारी बोझा उठावें, किस प्रकार जैन सिद्धान्तोंके अनुसार उनके सब व्यवहार स्थिर करके कोई उचित नियम बनावें । इस कारण वह घबराकर इस ही में अपनी बचत समझते हैं कि सुधारकी श्रावाज उठानेवालों को श्रद्धानी और शिथिलाचार फैलानेवाला बताकर विचारहीन जनताको उनके विरुद्ध करदें और लोगोंकी मानी हुई प्रचलित रूढ़ियों को ही धर्म ठहसकर
वीरशासनाङ्क' पर
(३) पं० अजितकुमारजी शास्त्री, मुलतान सिटी -
"अनेकान्तका वीर शासनाङ्ग मिला । देखकर प्रसन्नता हुई । इसका सम्पादन अच्छे परिश्रमके साथ हुआ है, उसमें आपको अच्छी सफलता भी मिली है । इस अंक में बा० जयभगवानजी वकीलका 'स्वत्य अनेकान्तात्मक है' शीर्षक लेख अच्छा पठनीय है । 'यापन संघका साहित्य' लेख भी अन्वेपण के लिये उपयोगी है। 'जैनलक्षणावलि' का प्रकाशन जैन साहित्यकी एक संग्रहणीय वस्तु है । और भी कई लेख पठनीय हैं। वृद्ध अवस्थामें भी आप युवकोंसे बढ़कर परिश्रम कर रहे हैं यह नवयुवक साहित्य सेवियोंके लिये आदर्श है। "
वाहवाही प्राप्त करलें ।
यह कोई नवीन बात नहीं है, सदासे ऐसा ही होता चलाः श्राया है अकर्मण्य लोग सदा ऐसा ही किया करते हैं जिससे सुधारकी प्रगति में बड़ी बाधा आती है । परन्तु जो सच्चे सुधारक हैं, वे इन सब चोटोंको सहकर मरते मरते अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ते हैं और एक न एक दिन कामयाब ही होते हैं और उन ही से यश पाते हैं जो उनको अधर्मी और महापापी कह कर बदनाम किया करते थे । प्रवाह में बहने वालोंका अपना कोई अस्तित्व तो होता ही नहीं है, प्रवाह पूर्वको चला तभी पूर्व और प्रवाह पश्चिमको चला तो वे भी पश्चिमको बहने लग गये, उधरके ही गीत गाने लग गये। इस प्रकार महा अकर्मण्य बने रहने से ही, प्रत्येक समय में और प्रत्येक दशा में वाहवाही लेते रहे ।
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कुछ सम्मतियाँ
(५) श्री० भगवत्स्वरूपजी जैन 'भगवत्'
"वीर शासन को देखकर मुग्ध होगया ! इतना अच्छा, महत्वपूर्ण विशेषाङ्क निकट भविष्यमें शायद ही आँखों के आगे आए । 'अनेकान्त' जैन समाजकी जहाँ त्रुटिकी पूर्ति के रूप में है, वहाँ हम लोगोंके लिए गौरवकी चीज़ भी ! उसका सम्पादन, लेखचयन, प्रकाशन क़रीब क़रीब सब कलात्मक है !
वह जितना विद्वानोंको मननीय, और रिसर्चका मैटर देता है, उतना ही बाह्याकृतिसे मुझ जैसोंको लुभा भी लेता होगा, इसमें शायद भूल नहीं । इस के लिए समाजकी तीनों सफल शक्तियाँ - सम्पादक, संचालक और प्रकाशक - आदरकी पात्री हैं।"
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वास्तविक महत्ता बहुतसे लोग लक्ष्मीसे महत्ता मानते, हैं बहुतसे महान् कुटम्बसे महत्ता मानते हैं, बहुत से पुत्रसे महत्ता मानते हैं, तथा बहुतसे अधिकारसे महत्ता मानते हैं। परन्तु यह उनका मानना विवेकसे विचार करनेपर मिथ्या सिद्ध होता है ।ये लोग जिसमें महत्ता ठहराते हैं उसमें महत्ता नहीं, परन्तु लघुता है । लक्ष्मीसे संसारमें खान, पान, मान, अनुचरोंपर आज्ञा और वैभव ये सब मिलते हैं, और यह महत्ता है, ऐसा तुम मानते होगे । परन्तु इतने से इसकी महत्ता नहीं माननी चाहिये । लक्ष्मी अनेक पापोंसे पैदा होती है । यह आनेपर पीछे अभिमान बेहोशी और मूढ़ता पैदा करती है। कटम्ब समदायकी महत्ता पाने के लिये उसका पालन पोषण करना पड़ता है। उससे पाप और दुःख सहन करना पड़ता है । हमें उपाधिसे पाप करके इसका उदर भरना पड़ता है। पुत्रसे कोई शाश्वत . नाम नहीं रहता। इसके लिये भी अनेक प्रकारके पाप और उपाधि सहनी पड़ती है। तो भी इससे अपना क्या मंगल है ? अधिकारसे परतंत्रता और अमलमद आता है, और इससे जुल्म, अनीति रिश्वत और अन्याय करने पड़ते हैं, अथवा होते हैं । फिर कहो इसमें क्या महत्ता है ? केवल पाप जन्य कर्मकी। पापी कर्मसे आत्माकी नीच गति होती है। जहाँ नीच गति है वहाँ महत्ता नहीं परन्तु लघुता है। ___ आत्माकी महत्ता तो सत्य वचन, दया, क्षमा, परोपकार और समतामें है । लक्ष्मी इत्यादि तो कर्म महत्ता है। ऐसा होनेपर भी चतुर पुरुष लक्ष्मीका दान देते हैं। उत्तम विद्याशालायें स्थापित करके पर-दुःख-भंजन करते हैं । एक विवाहित स्त्रीमें ही सम्पूर्ण वृत्तिको रोककर परस्त्रीकी तरफ पुत्री भावसे देखते हैं । कुटम्बके द्वारा किसी समुदायका हित करते हैं । पुत्र होनेसे उसको संसारका भार देकर स्वयं धर्ममार्गमें प्रवेश करते हैं । अधिकारके द्वारा विचक्षणतासे आचरणकर राजा और प्रजा दोनोंका हित करके धर्म नीतिका प्रकाश करते हैं । ऐसा करनेसे बहुतसी महत्तायें प्राप्त होती हैं सही, तो भी ये महत्तायें निश्चित नहीं हैं । मरणका भय सिरपर खड़ा है, और धारणायें धरी रह जाती हैं। संसारका कुछ मोह ही ऐसा है कि जिससे किये हुये संकल्प अथवा विवेक हृदयोंमेंसे निकल जाते हैं। इससे यह हमें निःसंशय समझना चाहिये, कि सत्य वचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य और समता जैसी
आत्म महत्ता और कहींपर भी नहीं है। शुद्ध पाँच महाव्रतधारी भिक्षुकने जो ऋद्धि और महत्ता प्राप्त की है, वह ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्ती ने भी लक्ष्मी, कुटम्बी, पुत्र अथवा अधिकारसे नहीं प्राप्त की, ऐसी मेरी मान्यता है।
-श्रीमद् राजचन्द्र
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ज्ञात-वंशका रूपान्तर
जाट-वंश
(लेखक-मुनिश्री कवीन्द्रसागरजी, बीकानेर) [ प्रस्तुत लेखका सम्बन्ध इतिहाससे है। ज्ञातवंश' का रूपान्तर 'जाटवंश' कैसे हुआ ? क्यों हुआ ? इसके पक्ष में क्या क्या प्रमाण हैं ? आदि बातोंकी चर्चा इस लेखमें कीगई है। साथ ही, इस बात की भी मीमांसा की गई है कि भगवान महावीरदेवके ज्ञातवंश का मूल क्या है ? यह लेख इतिहास-मर्मज्ञोंके लिये एक नई विचार-सामग्री उपस्थित करता है । आशा है विद्वान पाठक इस सम्बन्धमें ऊहापोह करेंगे एवं भगवान महावीर के ज्ञातवंश के सम्बन्ध में अधिकाधिक प्रकाश डालेंगे।] . ज्ञात वंश
की धर्मपत्नी वाशिष्ठ गोत्रवाली श्रीमती त्रिशला गरुषोत्तम भगवान महावीरकी जीवन-घटनासे क्षत्रियाणीकी कुतिमें संक्रमित कराऊं । यह विचार
असंबद्ध होनेके कारण जैन एवं जैनेतर इतिहास- कर इन्द्रने अपने पदाति-सेना के अधिपति हरि. लेखकोंकी दृष्टि में ज्ञातवंश प्रसिद्ध ही नहीं अति नैगमेषी देवको इसके लिये आज्ञा की । वह इन्द्रकी प्रसिद्ध है। कल्पसूत्र नामके जैनागममें बताया गया आज्ञा पाकर अपनी दिव्य गतिसे भारतमें आकर है कि 'जम्बूद्वीपके दक्षिणार्थ भारतवर्ष में माहण- देवानन्दाकी कुक्षिमेंसे भगवान महावीरका अपकुण्डग्राम नामक नगरमें कोडालस गोत्रके ऋषभ- हरण करके त्रिशलाके गर्भ में संक्रमित कर देता है, दत्त ब्राह्मणकी जालन्धर गोत्रवाली धर्मपत्नी श्री और त्रिशलाके गर्भ में की लड़कीको देवानन्दाकी देवानंदाकी कुक्षिमें भगवान महावीरदेवके गर्भ- कुक्षिमें संक्रमित कर देता है।' रूपसे अवतरित होने पर, देवपति इन्द्र नमस्कार यहां सूत्रकारने साफ २ शब्दोंमें घोषणा की है, करके सोचने लगा कि तीनों कालोंमें अहंतादि-पद- कि ज्ञातवंश उच्च-गोत्र-सम्पन्न है। उसमें काश्यपधारी पुरुषोत्तम, भिक्षुक ब्राह्मण आदि कुलोंमें गोत्र आदि कई मोत्र भी हैं। साथ ही, वह वंश नहीं आते हैं। यह भी सम्भव है कि अनन्तकाल महापुरुषों के जन्म लेने योग्य है। भिक्षुक-ब्राह्मण वंश बीतने पर नाम-गोत्रके उदयमें आनेसे अहंतादि- नीच गोत्र-सम्पन्न है और अहंतादि महापुरुषोंके पद-धारी भिक्षुक-ब्राह्मणादि कुलोंमें आयें, किन्तु वे जन्म लेने योग्य नहीं है। यहां ये प्रश्न स्वाभाविक योनि-निष्क्रमण-द्वारा जन्म नहीं ले । अतः मेरा ही उत्पन्न होते हैं कि, ज्ञातवंशको उच्चगोत्र सम्पन्न कर्तव्य है कि भगवान महावीरको देवनन्दाकी और ब्राह्मणवंशको नीचगोत्रसम्पन्न क्यों माना ? कुक्षिमेंसे निकालकर क्षत्रिय-कुंड-ग्राम नगरमें क्या इसमें श्रमण-ब्राह्मण-संघर्षकी झलक नहीं ज्ञातवंशीय क्षत्रियोंमें काश्यपगोत्रवाले सिद्धार्थ मालूम होती ? और ज्ञातवंश का भविष्य क्या
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२३८ ]
अनेकान्त
[पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६
इसी संघर्ष के कारण अन्धकारमय नहीं हुआ ? प्रद्युम्नकुमार अपने रूपसे मस्त है, फिर भी हे नारद, इन प्रश्नोंका उत्तर नीचेकी पंक्तियोंमें यथाशक्य मैं असहाय हूँ। दूसरे अंधक वृष्णि लोग वास्तवमें और यथास्थान दिया जायगा।
महाभाग, बलवान और पराक्रमी हैं। हे नारद, ज्ञातवंश का मूल
वे लोग राजनैतिक बलसे संपन्न रहते हैं। वे जिसके
पक्षमें होजाते हैं उसका काम सिद्ध हो जाता है, अन्वेषण करने पर 'ज्ञाताधर्मकथा' आदि
और जिसके पक्षमें वे नहीं रहते उसका अस्तित्व जैन आगमोंमें 'ज्ञातकुमारों' के दीक्षित होने के
नहीं रहता। यदि आहुक और अक्रूर किसीके संबंधमें संक्षिप्त नाममात्र, देखनेको मिलता है।
पक्षमें हों तो उसका कौन काम दुष्कर है? और यदि जैनेतर साहित्यमें-महाभारत ग्रंथमें-इस वंशकी
वे विपक्षमें हों तो उससे अधिक विपत्ति ही क्या हो उत्पत्तिकी रूपरेखा कुछ स्पष्ट रूपसे दिखाई देती है,
सकती है। इसलिये दोनों दलोंमेंसे मैं निर्वाचन जब कि यदुकुलतिलक महाराजा कृष्ण वासुदेव
नहीं करसकता। हे महामुने, इन दोनों दलोंमें मेरी नारद महामुनिसे राज्यशासन-पद्धतिका परामर्श
हालत उन दो जुआरियों की माताके समान हैं, जो करते हुए कहते हैं:
अपने दोनों लड़कोमेंसे किसी एक लड़केके जीतने दास्यमैश्वर्यबादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम् ।
की या हारनेकी भी आकांक्षा नहीं कर सकती। अथ भोक्तास्मि भोगाना, वाग्दुरुक्तानि च क्षमे ॥५॥
तो हे नारद, तुम मेरी अवस्था और ज्ञातियोंकी बलं संकर्षणे नित्यं, सौकुमार्य पुनगर्दै । अवस्था पर विचार करो। कृपया मुझे कोई ऐसा रूपेण मत्त: प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद ।। . उपाय बताओ कि जो दोनोंके लिये श्रेयस्कर हो । अन्ये हि सुमहाभागा, बलवन्तो दुरासदाः ।
मैं बहुत दुःखी हो रहा हूँ। नित्योत्थानेन संपन्ना, नारदान्धकवृष्णयः ॥ यस्य न स्युनहि स स्याद् ,यस्य स्यु: कृत्स्नमेव तत।
नारद उवाच द्वयोरेनं प्रचरतो, वृणोम्येकतरं न च ॥
आपत्योः द्विविधाः कृष्ण,बाह्याश्चाभ्यंतराश्च ह । स्यातां यस्याहुकाक्रू रौ, किं नु दुःखतरं ततः।
प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय, स्वकृता यदिवान्यतः ॥ यस्य चापि न तौ स्यातां, किं नु दुःखतरं ततः ॥
सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यं, कृच्छा स्वकर्मजा । सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामुने ।
अक्रूर-भोज-प्रभवाः सर्वे ह्येते तदन्वयाः ॥ नैकस्य जयमाशंसे, द्वितीयस्य पराजयं ॥
अर्थहतोहि कामाद्वा, बीभत्सयापि वा । ममैवं क्लिश्यमानस्य, नारदोमयदर्शनात् ।
आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम् ॥ वक्तुमर्हसि यच्छ्यो , ज्ञातीनामात्मनस्तथा ॥
कृतमूलमिदानं तद् , ज्ञातिशम्दसहायवत् । अर्थात हे नारद, मैं ऐश्वर्य पाकर भी
न शक्यं पुरा दातुं, वान्तमन्नमिव स्वयम् ॥
बभ्रूग्रसेनतो राज्य, नाप्तुं शक्यं कथंचन । ज्ञातियोंका दासत्व ही करता हूं, यद्यपि मैं अच्छे
शाति-भेद-भयात्कृष्ण, त्वया चापि विशेषतः ॥ वैभव या शासनाधिकारको भोग करता हूँ नारदजीने कहा कि 'हे कृष्ण, गणतंत्रमें दो तो भी मुझे उनके कठोर शब्द सुनने ही प्रकारकी आपत्तियां रहती हैं। एक बाह्य दूसरी पड़ते हैं। यद्यपि संकर्षणमें बल और गदमें आभ्यंतर । जिनकी उत्पत्ति बाहरी दुश्मनोंसे होती सुकुमारता-राजसी ठाठ-प्रसिद्ध ही है और है वे बाह्य कहलाती हैं और जो अन्दरसे अपने ही
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वर्ष ३, किरण ३ ]
साथियोंके – सदस्योंके – आपसी विरोधसे होती हैं वे अभ्यंतर मानी जाती हैं। यहां जो आपत्ति है. वह आभ्यंतर है । वह सदस्यों के अपने कर्मों से उत्पन्न हुई हैं। अक्रूर–भोजादि और उनके सब संबंधियों ने धनके लोभसे, किसी कामना से अथवा बीरता की ईर्ष्या, स्वयं प्राप्त ऐश्वर्यको दूसरोंके हाथों सौंप दिया है । जिस अधिकारने जड़ पकड़ ली है और जो ज्ञाति शब्द की सहायता से और भी दृढ़ हो गया है, उसे वमन किये हुए अनकी भाँति वापिस नहीं ले सकते । बभ्रू उग्रसेनसे राज्याधि - कार पाना किसी भी तरहसे शक्य नहीं है । ज्ञाति भेदके भयसे हे कृष्ण, तुम भी विशेष सहायता नहीं कर सकते । यदि उग्रसेनको अधिकारच्युत करनेके समान दुष्कर कार्यकी भी सिद्धि करलीजाय तो महाक्षय, व्यय और विनाश तक हो जानेकी संभावना है। इस जटिल समस्याको तुम लोहेके शस्त्रोंसे नहीं बल्कि कोमल शस्त्रोंसे निर्विरोध सुलझा सकोगे । कृष्णजीने पूछा, कि इन मृदु लोह शस्त्रों को मैं कैसे जान सकू ? तब नारद जी ने जवाब में कहा:
ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लघूनि च । गिरा त्वं हृदयं वाचं, शमयस्व मनांसि च ॥ + + + भेदाद् विनाशः संघस्य, संघमुख्योऽसि केशव । यथा त्वां प्राप्य नोत्सी, देव संधे तथा कुरु ॥ + + + धनं यशश्च ह्योयुष्यं स्वपक्षोद्भावनं तथा । ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरु ॥ आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो । घाडगुण्यस्य विधानेन, यात्रायां न विधौ तथा ॥ यादवा कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः । तवायत्ता महाबाहो, लोकालोकेश्वराश्च ये ॥
ज्ञातवंशका रूपान्तर जोटवंश
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अर्थात् - कड़वी और ओछी बातें कहने की इच्छावाले ज्ञातियोंकी वाणीसे अपने हृदय और वाणीको शांत रखो। साथ ही अपने उत्तरसे उनके मनको प्रसन्न रक्खो । केवल भेदनीतिसे संघका नाश होता है । हे केशव, तुम संघके मुखिया हो । अथवा संघने तुमको प्रधानरूप से चुना है । इस लिये तुम ऐसा काम करो, कि जिससे ज्ञातियोंका धन, यश, आयुष्य, स्वपक्षपुष्टि एवं अभिवृद्धि होती रहे । हे राजेन्द्र, भविष्य संबन्धी नीतिमें, वर्तमानकालीन नीतिमें एवं शत्रुत्राकी नीति से आक्रमण करनेकी कलासे और दूसरे राज्योंके साथ यथोचित वर्ताव करनेकी विधिमें एक भी बात ऐसी नहीं है, जो तुम्हे मालूम न हो । हे महाबाहो, समस्त यादव, कुकुर, भोज, अंधकवृष्णि, उनके सब लोग और लोकेश्वर अपनी उन्नति एवं संपनता के लिए तुम्हीं पर निर्भर है।
महाभारतके कथनका सारांश
महाभारत में उपलब्ध हुए उक्त प्रमाणका सारांश यह है, कि यदुवंशके दो कुलों - अंधक और वृष्णि--- ने एक राजनैतिक संघ स्थापित किया था । उसमें दो दल थे, जिनमेंसे एककी तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेनजी थे । श्री कृष्ण के दलवाले लोग बलवान, बुद्धिमान होते हुए भी प्रमादी और ईर्ष्यालु प्रकृति के थे । अतः दूसरे दलके मुकाबिलेमें वाद-विवाद के समय श्रीकृष्णको अधिक परेशानी होती थी। इसी परेशानीको मिटाने के उपाय के लिए श्रीकृष्ण जी ने नारद जीसे परामर्श किया था ।
*महाभारत के संदर्भके उपरिलिखित उद्धरण श्रीयुत् काशीप्रसाद जायसवाल कृत 'हिंदू राज्यतंत्र' से लिये गये है ।
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अनेकान्त
[ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६
श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी थे
साम्राज्यवादी संध यह बात महाभारतसे ही सिद्ध है कि, श्री- जब श्रीकृष्णजीका संघ अपने एक राजनैतिक कृष्ण प्रजातंत्रवादी थे । और उनके विरोधी सिद्धांतके आधार पर अपना प्रभाव बढ़ाने लगा, दुर्योधन, जरासंध, कंस, शिशुपाल आदि शासक तो दूसरा साम्राज्यवादी संघ अपना आतंक राजालोग साम्राज्यवादी सिद्धांतके पक्षपाती थे। जमानेके लिये प्रजाको पीड़ित करने लगा। प्रजाइसीलिए उनका श्रीकृष्णके साथ हमेशा विरोध तंत्री सिद्धांतोंसे ज्ञातिसंघने पीड़ित प्रजाकी रक्षा रहता था। विरोधियोंसे संघर्ष सफलतापूर्वक कर की, पीड़ितोंकी रक्षा करनेसे उसका क्षत्रियत्व सकनेके लिए एवं समाजकी सुख-शांतिके स्थायि- स्वयं सिद्ध होगया । इसीलिये कल्पसूत्रमें " नायात्वके लिये श्रीकृष्णने एक संघ स्थापित किया णं खत्तियाणं " पद पड़ा हुआ उचित ही प्रतीत था। संघके सदस्य आपसमें संबंधी होते हैं। उन होता है। श्रीकृष्णके ज़मानेसे ही क्षत्रियोंके ज्ञातिमें परस्पर ज्ञातिका-सा संबन्ध होता है। इसलिए संघकी नीव पड़ी, जो आगे चलकर शातिसंघके रूप उस संघका नाम " ज्ञाति संघ” प्रसिद्ध हुआ। में परिणत होगई। कोई भी राजकुल या जाति शातिसंघमें शामिल
ज्ञातवंश के गोत्र होसकती थी। वह संघ व्यक्तिप्रधान नहीं होता ज्ञातवंशमें काश्यप वाहिक आदि कई गोत्र था। अतः उसमें शामिल होते ही सदस्योंकी जाति मौजूद थे। यह बात हमें भगवान महावीर के या वंशके पूर्व नामोंकी कोई विशेषता नहीं रहती पिता सिद्धार्थ क्षत्रियके परिचयसे जाननेको मिलथी। सब सदस्य जातिके नामसे पहचाने जाते थे। ती है। जैसे कि-"नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्यस्स समयके प्रभाव से उनमें भी कई एक राजवंशके खत्तियस्स कासवगुत्तस्य ।” यहाँ यदि कोई ऐसी शंको लोग साम्राज्यवादी विचारोंके होगये, और करे कि "नायाणं" इत्यादिका 'प्रसिद्ध क्षत्रियों में 'सम्राट' या 'राजा' उपाधिको धारण करने लगे। काश्यप गोत्रवाला सिद्धार्थ क्षत्रिय' ऐसा अर्थ किया सब दूसरे प्रजातंत्रवादी ज्ञाति के लोग 'राजन्य' कह- जाय तो नाय-ज्ञात का अर्थ विशेष्य नहीं रहता, लाने लगे। जातिके विधान, नियम और शासन- विशेषण होता है। तो फिर ज्ञातवंश कैसे सिद्ध प्रणालीमें विश्वास रखने वाले लोग आगे चलकर होगा ? इसका उत्तर यह है, कि नाय-ज्ञात विशे'शाति' उपाधि वाले हुए।
षण नाम नहीं बल्कि विशेष्य नाम है। इसीलिये 'ज्ञांश् अवबोधने' इस धातु से यदि 'ज्ञात' तो भगवान महावीरके लिए जैनसूत्रोंमें 'नायपुत्त' शब्दकी उत्पत्ति मानी जाय तो इसका सीधा अर्थ प्रयोग मिलता है। यदि 'नाय' शब्द प्रसिद्ध अर्थका प्रसिद्धताका सूचक है। कहीं कहीं 'ज्ञात' शब्द ही द्योतक माना जाय तो 'नत्यपुत्त' का अर्थ देखनेमें आता है, वह 'जानकार' अर्थका सूचक प्रसिद्धपुत्र' ही होगा, जो प्रसंगमें असंगत है। है। सभी अर्थ यथासंभव समुचित प्रयुक्त किये भगवान महावीरका ज्ञातवंश जासकते हैं।
भ० महावीरका ज्ञातवंश महाभारत के प्रजा
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ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश
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तंत्रवादी ज्ञातसंघ से भिन्न नहीं है, क्योंकि ज्ञाति थी-प्रयोगों में संस्कृतके 'ज्ञ' का 'ज' एवं 'त' का संघके जो सिद्धांत महाभारतके उपर्युक्त श्लोकों में 'ट' उच्चारण हुआ मिलता है । न्याय-व्यादेखने को मिलते हैं, वे ही सिद्धांत ज्ञातवंशी करण-तीर्थ पंडित वेचरदासजी ने कई प्राचीन भगवान महावीरके सांसारिक एवं त्यागीजीवनमें प्राकृत व्याकरणोंके आधार पर जो नया 'प्राकृत देखनेको मिलते हैं। जैसे कि एकेश्वरवाद, व्याकरण' बनाया है, उसमें नियम लिखा है किईश्वरकर्तृत्ववाद, स्त्री-शूद्रके मोक्ष के लिये अनधि- _ "संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से कारित्ववाद आदि वादों का भगवान ने प्रतिवाद होता है, और यदि वह 'ज्ञ' पदके मध्यमें हो तो किया है। साथ ही, विरोधियों के विचारोंको भी उसका 'ज' होता है, जैसे कि संजा-संज्ञा-सण्या।" विवेक-पूर्वक अपनाने की सहिष्णुताको रखने पृष्ठ ४१
__ऊपर लिखे नियम से 'ज्ञात' के 'ज्ञा' का 'जा' वाले स्याद्वाद का, कर्मप्रधानवादका, किसी को । कष्ट न देनेके रूप में अहिंसावाद का और इसी ।
होना स्वाभाविक ही नहीं नियमानुकूल भी है। ' प्रकार के और भी अनेक सुन्दर वादों का सुचारु
सम्राट अशोककी धर्मलिपि
___प्राचीन शिलालेखोंमें सम्राट अशोककी जो रूप से प्रतिपादन तथा व्यवहार उनके जीवन में धर्मलिपियां अंकित हैं, उनमें तकार का और
ओतप्रोत मिलता है। ये बातें ऐसी हैं, जो सारे संयक्त तकारका टकार हुआ मिलता है, और जैनासंसार की प्रजामें अशान्तिको मिटानेवाली
गमोंकी भाषा में उस स्थानपर प्राकृत प्रक्रिया और शान्तिको देनेवाली हैं। देनेवाली हैं।
के अनुसार तकार का डकार हुआ और संयुक्त हमारे जीवन-संस्कार भी हमें अपने पूर्वजोंकी त्तकारकां 'त' ही हुआ मिलता है:एक प्रकारकी बहुमूल्य देनगियां है। भगवानका अशोकलिपि आगमभाषा संस्कृत पुण्य जीवन-कल्पतरु ज्ञातवंशकी दिव्य भूमिको
पाटिवेदना पडिवेअणा प्रतिवेदना हत का श्रेय-भागी बनाता है। भगवान के व. पटिपाति पडिवत्ति प्रतिपाति तीर्ण होने पर हिरण्यसे, सुवर्णसे, धनसे, धान्यसे, कट कड, कय कृत राज्यसे, साम्राज्य-संपत्ति सं, और भी अनेक प्रकार मट मड, मय मृत से बढ़नेवाला वह ज्ञातवंश आज कहां है किस कटव, कटविय कायव्व कर्तव्य
कित्ति
कीर्ति रूपमें है ? यह पुरातत्वके अभ्यासियोंके लिए परम किात, किाट अन्वेषणीय विषय है।
अशोकलिपि के इन उदाहरणों से 'ज्ञात' ज्ञात का जाट
शब्दमें पड़े हुए तकार का टकार होना भी प्रमाणित रूपान्तर परिस्थितिको देखते हुए करीब दो होता है । इस हालत में यह बात भली प्रकार हजार वर्ष हुए, 'ज्ञात' का 'जाट' हो गया प्रतीत मानी व जानी जा सकती है कि अशोक के जमाने होता है। क्योंकि दो हजार वर्ष पूर्वकी प्राकृत में 'ज्ञात' शब्द का रूपान्तर 'जार' बन गया हो भाषाके जो कि सर्वसाधारणकी बोलचालकी भाषा तो कोई ताज्जुब नहीं।
-प्रा०का० पृ०३८
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अनेकान्त
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रूपान्तर होना परिस्थितिके अनुकूल संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनीय
बौद्ध आचार्यों की सत्संगति से किसी खास के धातुपाठमें 'जट' धातुको देखकर भी अनुमान कारणवश सम्राट अशोक बौद्ध धर्मावलम्बी होता है कि उस समय 'ज्ञात' का अपभ्रंश 'जाट' हो गया था। उसने बौद्ध धर्म का भारत में काफी र
* रूपसे लोकमें पूर्णतया प्रचलित होगया होगा।
__ और अपने पूर्व भावों की प्रजातन्त्रीय संगठन प्रचार किया था। धर्मकी आज्ञाओंको शिला पर अंकित करवाकर उन्हें अपने देशमें सर्वत्र
के भावोंकी-भी रक्षा कर रहा होगा। इस हालत
में 'जाट' शब्दको संस्कृत साहित्य वाले कैसे प्रचारित किया था। “यथाराजा तथा प्रजा" के
छोड़ देते ? 'जाट' शब्दकी प्रकृति भावानुकूल न्यायसे अन्यान्य लोगोंके साथ ज्ञातवंशके कई लोगोंका बौद्ध धर्मावलम्बी होजाना भी सम्भा
उन्हें निर्माण करनी ही पड़ी, जो 'जट' धातुके वित है। उस समय संस्कृत शब्द 'ज्ञात' का 'जाट'
___ रूपमें आज भी हमारे सामने मौजूद है। प्राकृत हो जाना भी परिस्थिति के अनुकूल ही
विशेष इतिहास
__'ज्ञात' और 'जाट'की एकरूपता जाननेके बाद प्रतीत होता है।
उसके विशेष इतिहासको देखते हैं, तो काश्यप रूपान्तर हो जाने पर भी अर्थभेद नहीं आदि गोत्र ज्ञात-जाट वंशमें समान रूपसे मिलते
ज्ञात शब्द का जो भावार्थ था, वह 'जाट' हैं। भगवान महावीरके पिता ज्ञात वंशके काश्यपशब्दमें वैसे ही ज्यों का त्यों सन्निहित है जैसे 'ज्ञात' गोत्रीय थे, तो जाट वंशमें भी काश्यप-गोत्र शब्द का भावार्थ उसके रूपान्तर 'जाति' शब्द में। आज भी मौजूद है। "ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ ऊपर की पंक्तियों में यद्यपि संस्कृत 'ज्ञात' का दि नार्थ वेस्टर्न प्रॉविसेज ऑफ आगरा एण्ड अपभ्रंश 'जाट' साबित किया गया है, पर वह अवध” नामक ऐतिहासिक ग्रंथमें मिस्टर डब्ल्यू संस्कृत के दायरे में भी अपनी हस्ती पूर्ववत् कुर्क साहिब लिखते हैं, कि दक्षिणी-पूर्वी प्रान्तों बनाये रखता है, जैसे कि
के जाट अपनेको दो भागोंमें विभक्त करते हैंसंघातवाच्ये . जटधातुतोऽसौ, शिवि-गोत्रीय और काश्यप-गोत्रीय। घज्प्रत्ययेनाधिकृतार्थकेन । सिद्धोऽनुरूपार्थकजाटशब्दो
'वाहिक कुल' भी, जोकि पूर्वकालमें भगवान ऽपभ्रंशितो निर्दिशति स्ववृत्तम् ।।
महावीरके परमभक्त महाराजा श्रोणिकका था, अर्थात्-संघातवाची 'जट' धातु से घबू आज जाट-वंशमें एक जातिके रूपमें मौजूद है। प्रत्यय आने पर 'ज्ञात' शब्द के अधिकृत अर्थ में इसके प्रमाणके लिए शब्दचिंतामणि नामक 'जाट' शब्द समर्थक सिद्ध हुआ। अपभ्रंश हो प्रसिद्ध कोश का ११६३ वां पृष्ठ देखने काबिल है । जाने पर भी वह अपने पूर्व चरित को-ज्ञात शब्द महाराजा श्रेणिकने वैशालीके महाराजा चेटक के मूलस्वरूप को बताता ही है। ... से उनकी कन्या सुज्येष्ठाकी मँगनीकी थी, उसका
* समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासवगुत्तेणं . . . . 'सिद्धत्थे
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ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश
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वर्णन हारिभद्रीय आवश्यक-वृत्ति पृष्ठ ६७७ में . एक कपोल कल्पना आता है। उसका उदाहरण इस प्रकार है:-... महाराजा श्रेणिक भगवान महावीरदेवके परम
दूभो विसज्जिओ वरगो, त भणइ चेडगो-किह हं वाहियकुले भक्तोमें से एक थे। आपका जैन होना ब्राह्मणों को देमित्ति पडिसिद्धो।
बड़ा अखरता था। इसलिये ब्राह्मणों ने उनके अर्थात्-महाराजा चेटकने अपनी कन्या
| बाहीक कुलके संबन्धमें एक कपोल कल्पना सुज्यष्ठाको मगनी करनेवाले महाराजा श्रणिकक महाभारत, कर्णपर्व ८ में निन्न प्रकार जोड़ दी हैंदूतको कहा कि, क्या मैं वाहिककुलमें अपनी
वाहिश्च नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचको । . कन्याको दूंगा ? ना! ना!! ऐसा प्रतिषेध करके तयोरपत्यं वाहीका, नैषा सृष्टिः प्रजापतेः॥ दूतको विसर्जित कर दिया।
___ अर्थात्-विपाशा पंजाबकी व्यास नदी के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके रचयिता किनारे पर 'वाहि' और 'होक' नामके दो पिशाच कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रजी महाराज रहते थे। उनकी संतान वाहीक कहलाई। उनकी भी ऊपर लिखी बातको इस प्रकार लिखते हैं सृष्टि प्रजापति ब्रह्मा से नहीं हुई। . चेटकोऽप्प ब्रीदेवमनात्मशस्तव प्रभुः।
श्रमण-ब्राह्मण-संघर्ष वाहोक-कुलजो वांछन् , कन्यां हैहयवंशजाम् ॥ . __साम्प्रदायिक असहिष्णुता मनुष्यकी बुद्धि पर
–त्रि० श० च० पर्व १०, सर्ग ६, पृ० ७८ । परदा डाल देती है । भगवान महावीर और अर्थात-चेटक इस प्रकार बोले कि तेरा राजा महात्मा गौतमबुद्धकी धार्मिक क्रांतिने प्रचलित अपना स्वरूप भी नहीं जानता है, जो वाहीक कुल ब्राह्मणसमाजके गुरुडमवादकी हंबग बातोंको में पैदा होकर हैहयवंश की कन्याको चाहता है। निस्सार साबित कर दिया था। लोगोंकी चेतना अस्तु ।
उषःकालके सुनहरे प्रभातमें जागृत हो उठी थी। *"क्या मैं अपनी कन्याको वाहीक कुलमें दूँ ? ना" चेटक महाराजाके ये शब्द क्या वाहीक कुलकी निम्नता नहीं जाहिर करते ? यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। इसके उत्तरमें इतना ही लिखना काफी होगा कि रुक्मिणी-हरणके समय श्रीकृष्णके लिए रुक्मी-कुमार का यह कहना कि “मेरी बहन ग्वालेको नहीं ब्याही जा सकती," इस वाक्यके भाव पर पाठक विचार रुक्मो शिशुपालका साथी था। उसकी इच्छा थी कि रुक्मिणीका विवाह शिशुपालसे हो । श्रीकृष्ण शिशुपालके विरोधी थे। राजाओंका नियम है कि, मित्रका मित्र उनका भी मित्र होता है और मित्रका शत्रु उनका भी शत्रु होता है। इसी शत्रुतासे प्रेरित होकर रुक्मीने ऐसा कहा था। इससे श्रीकृष्णका उच्चत्व-नीचत्व सिद्ध नहीं होता। ठीक ऐसी ही बात श्रेणिकके कुलके लिए महाराजा चेटककी है। चेटक प्रधान जैन था, और श्रेणिक कट्टर तब बौद्ध धर्मावलम्बी था। यह नियम-सा है कि, एक संप्रदाय वाला दूसरे संप्रदाय वालेको नीची दृष्टिसे देखता है और अपने भाव जाति, कुल, वंश, देश, स्वभाव आदिकी ओटमें किसी न किसी तरहसे व्यक्त कर ही देता है। चेटकके वचनोंमें भी यही भाव निहित हैं, जो कि जबरन व्याहके बाद श्रेणिकके जैन हो जाने पर मिटे दिखाई देते हैं। अधिक क्या एक कुलका ब्राह्मण दूसरे कुलके ब्राह्मणों को आज भी तो हीन समझता है। इसलिए चेटकका कथन वाहीक कुलकी निम्नता नहीं साबित करता।
महाभारत जिसे, कि हम आज देखते हैं, यह तीन बार में और कम से कम तीन आदमियों-द्वारा बना है । आरम्भ में पांडवों के समकालीन श्रीव्यासजी द्वारा जो ग्रन्थ बना वह 'जय' नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें केवल पांडवोंका हिमालयकी ओर जाने तक का ज़िक्र था। दूसरी बार श्री वैशंपायन ने उसमें राजा जनमेजय तक की घटनाओं का संग्रह कर दिया और उसका नाम 'भारत' कर दिया। आगे जैन-बौद्ध-काल में सूतपुत्र सौनिक ने काफी वृद्धि की और उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बौद्ध-जैन-आदि धर्मों की और उनके अनुयायियों की काफी बुराई की और गिराने की चेष्टा की। यह बात महाभारत-मीमांस में पाठक देख सकते हैं।
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अनेकान्त
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यह बात ब्राह्मणोंके लिये असह्य थी। उन्होंने फिर जातिगत हो गया। इसलिये उन धर्मोके उनकी तक-संगत-युक्तियोंसे निर्वाक् होकर जैन व अनुयायी क्षत्रिय वर्णको क्षत्रिय माननेसे ही बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंको नास्तिक, उनके अनु- ब्राह्मणोंने इनकार कर दिया । स्मृतियोंमें लिख यायियोंको पिशाचोंकी संतान, और उनकी तीर्थ- दिया, कि "कलो सन्ति न क्षत्रियाः”– कलियुगमें भूमियोंको अनार्यभूमि आदि आदि उपाधियोंसे क्षत्रिय होते ही नहीं । ब्राह्मणोंने, अपने इस प्रचार विभूषित (?) कर दिया था। उस समय श्रमण- से यथावांच्छित परिणाम न निकलते देख, एक ब्राह्मण संघर्ष अपनी पराकाष्ठाको पहुँच चुका था। चाल और चली । साम्राज्यवादी विचारोंवाले __ श्रमण-ब्राह्मण संघर्षकी तत्कालीन परिस्थितिको चहाण, पडिहार, सोलंकी आदि उत्तरी भारतके देखते हुए कई लोग अनुमान कर बैठते हैं, कि,
कई क्षत्रियोंको आबू पर्वत पर यज्ञ समारोहमें
. जहां ब्राह्मणोंने जैन-बौद्धोंको अनार्य, पिशाच,
निमन्त्रित किया । उनमें कई ज्ञातवंशी भी नास्तिक आदि बताया, वहां श्रमण-सम्प्रदाय
शामिल हुये थे उन सबको ब्रह्मणोंने, उन पर अपनी वालोंने उन्हें "ब्राह्मणाः धिग्जातयः"कहना-लिखना
भेद नीति चलाते हुए, अग्निकुली विशेषण देकर शुरू कर दिया। जिसकी छाया भगवान महावीरके
एक नये कुलकी स्थापना करदो । और इस समागर्भ-परिवर्तनकी घटनामें स्पष्टरूपसे झलक रही।
रोहमें जिन क्षत्रियोंने उनका साथ न दिया उनसे है। जिस ब्राह्मण-जातिके इन्द्रभूति आदि गण
उनका विरोध करा दिया। इसका फल यह हुआ धरोंको जाति-सम्पन्न और कुल-सम्पन्न जैन आगमों
कि, अग्निकुली, ब्रह्मकुली आदि क्षत्रिय राजपूत' में बताया गया है, उन्हीं में भगवान महावीरके
जैसे चमत्कारिक नामको धारण कर अपने ही प्रसंगमें ब्राह्मणों को धिग्जाति-नीची जाति वाले
वंशके भाइयोंसे घृणा करने लगे। उस घृणाका बताना एक समस्या है। जैनधर्म और बौद्धधर्मके साथ ब्राह्मणोंका
.. शिकार कई ज्ञात वा जाटवंश वालोंको भी विरोध पहिले तो सिद्धांत-भेदसे हुआ था, पर वह
होना पड़ा।
* मथुराके प्रसिद्ध ऐतिहासिक कङ्काली टीलेसे प्राप्त योगपट्टोंमें भगवान महावीरकी गर्भ-परिवर्तनकी घटनासे अंकित एक यागपट्ट मिला है । यह आजकल लखनऊ म्यूज़ियममें मौजूद है। उसकी रचना ऐतिहासिक लोग दोहज़ार वर्ष पूर्वको बताते हैं ।
पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊने अपने 'भारतके प्राचीन राजवंश' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थमें इस घटना पर अच्छा प्रकाश डाला है और वह 'परमारवंशकी उत्पत्ति के रूप में इस प्रकार है:
"परमारवंश की उत्पत्ति राजा शिवप्रसाद (सितारेहिन्द) अपने इतिहास-तिमिर-नाशक'के प्रथम भागमै लिखते हैं कि 'जब विधर्मियोंका अत्याचार बहुत बढ़गया तब ब्राह्मणोंने अबु'दगिरि (आबू) पर यज्ञ किया और मन्त्रबल से अग्निकुण्ड में से क्षत्रियोंके चार नये वंश उत्पन्न कियेपरमार, सोलको, चौहान और पडिहार ।' अबुल फजलने अपनी आईने अकबरी में लिखा है कि 'जब नास्तिकोंका उपद्रव बहुत बढ़ गया तब आबू पहाड़ पर ब्राह्मणोंने अपने अग्निकुण्डसे परमार, सोलंकी, चौहान, और पडिहार नामके चार बैश उत्पन्न किये। पद्मगुप्त ने अपने नवसाहसांकचरित्रके ग्यारहवें सर्गमें परमारोंकी उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है:
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'धर्मविद्वेषकी प्रधानता से जैन बौद्धकालके बाद ब्राह्मणोंने और उनके अनुयायियोंने 'जाट क्षत्रिय नहीं हैं,' यह कहना प्रारम्भ करदिया । वरना क्या कारण है कि राजपूत परमारोंको तो क्षत्रिय रूपसे और जाट परमारोंको क्षत्रियेतर रूप से माना जाय ? इस धार्मिक विद्वेषने न केवल जाटोंको ही अपमानित किया बल्कि उनके जैसे कई विशुद्ध क्षत्रियवन्शोंको भी नहीं छोड़ा। इसीसे तो विदेशी आक्रामकोंने पुण्यभूमि भारतको पराधीन बनाकर उसे दासताको जंजीरोंसे जकड़ दिया । • जाटोंका व्यवहारादि
प्रायः स्वतन्त्र विचारके होनेसे जाट लोगोंने जैसे ब्राह्मणोंको गुरु माननेका विरोध किया ठीक वैसे ही अपने बाप दादों की कीर्ति गानेवाले भाट-चारणोंको भी प्रोत्साहन नहीं दिया । अपनी वीरताके प्रचण्ड कारनामों को भी उन्होंने लेखबद्ध नहीं किया। उनमें से जो साम्राज्यवादी होगये, जिनका प्रभुत्व संसारहृतातस्यैकदाधेनुः कामसूर्गाधिसुनुना ।
[ २४५
व्यापी होगया, श्रेणिक, कोणिक, संप्रति, समुद्रगुप्त आदि जाटवन्शीराजाओं को इतिहास-लेखकोंने 'राजपूत' बना दिया । ब्राह्मणोंकी भेदनीतिसे आपसी विद्वेष पैदा होगया । समयप्रवाहने भी कुछ साथ न दिया । इन सब कारणोंसे जाट स्वयं भी आत्म-सम्मान भूलने लगे ।
कर्नल टॉड जैसे अनुभवी लेखकको इसीलिये अपने टॉडराजस्थानमें लिखना पड़ा कि -
ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश
"जिन जाट वीरोंके पराक्रमसे एक समय समस्त संसार कांप गया था, आज उनके वंशधरगण राजपूताना और पंजाब में खेती करके अपना गुजर करते हैं x x x X अब इनको देखकर अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि, ये खेतिहर जाट उन्हीं प्रचण्ड वीरोंके वन्शधर हैं जिन्होंने एकदिन आधे एशिया और योरोपको हिला दिया था ।
पर्शियन - हिस्ट्री के लेखक जनरल कनिंघमने कार्तवीर्यार्जुनेनैव जमदग्नेरनीयत ॥६५॥
X
X
X
X ·
अथाथर्व विदामाद्य, समंत्रामाहुति ददौ । विकसद् विकट ज्वाला, जटिले जातवेदसि ॥६७॥
ततः क्षणातसकोदण्डः, किरीटी कांचनाङ्गदः । उज्ज गामाग्नितः कोऽपि सहेम कवचः पुमान् ॥ ६८||
अर्थात् – इक्ष्वाकु वंशियोंके पुरोहित वशिष्ठ ऋषिकी कामधेनु गायको गाधिसुत विश्वामित्र ने चुराया । तब अथर्ववेद के
ज्ञाताओं में प्रथम मुनि वशिष्ठने फैलती हुई विकट ज्वालाओंसे उत्पन्न भयंकर अग्निमें मंत्र सहित आहुतियां दीं। इससे झटपट धनुर्धारी, मुकुटवाला, स्वर्णादवाला, एवं सोनेके कवचवाला कोई एक पुरुष अग्नि से पैदा हुआ ।
परमार इति प्रापत्स मुनेर्नामचार्थवत् । मीलितान्य नृपच्छत्र, मातपत्रं च भूतले ॥ ७१ ॥
अर्थात् - उसने वशिष्ठके दुश्मनोंका नाश करडाला, अतः ऋषिने प्रसन्न हो 'परमार' ऐसा सार्थक नाम देदिया। यही बात पाटनारायण के मंदिर के १३४४ के शिला लेखमें आई है। वैसीही आबू परके अचलेश्वरके मंदिरमें लगे लेखपर भी अंकित है । वशिष्ठ-विश्वामित्रकी लड़ाईका वर्णन बाल्मीकि रामायण में भी है । परन्तु उसमें अग्निकुंडसे उत्पन्न होने के स्थान पर नंदिनी गोद्वारा मनुष्योंका उत्पन्न होना और साथही उन मनुष्योंका शक, यवन, पल्हव आदि जातियोंके म्लेच्छ होना भी लिखा है धनपालने १०७० के करीब तिलकमंजरी बनाई थी उसमें भी इनकी उत्पत्ति अग्निकुंड से ही लिखी है।
अनेक विद्वानोंका मत है कि, ये लोग ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णकी मिश्रित संतान थे । अथवा ये विधमीं थे और ब्राह्मणों द्वारा शुद्ध किये जाकर ये क्षत्रिय बनाये गये । तथा इसी कारण से इनको 'ब्रह्मक्षत्रकुलीनः' लिख कर इनकी उत्पत्तिके लिए अग्निकुंडकी कथा बनाई गई ।"
भारत के प्रा० रा० वंश प्र० भाग पृ० १७७-७८
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अपनी पुस्तक में यहांतक लिख दिया है, कि "जाट लोग एक ओर राजपूतों के साथ और दूसरी ओर अफगानोंके साथ मिलगये हैं । किन्तु यह छोटी छोटी जाट-जातिकी शाखा सम्प्रदाय पूर्वीय अंचल के राजपूत और पश्चिमीय अंचल - अफ़ग़ान १- और बलूची के नाम से अभिहित
हैं ।"
अनेकान्त
जाटों की वर्तमान सत्ता
कर्नल टॉडके शब्दों में जहां ज्ञातों-जाटोंकी राजनैतिक हानि हुई वहां कनिंघम के शब्दों में उनकी सामाजिक जनसंख्या की भी काफी हानि हुई है। फिर भी ज्ञात- जाट वंशकी सत्ता आज भी भारतमें आदरकी दृष्टिसे देखी जाती है । भरतपुर, पटियाला, नाभा, धौलपुर, मुरसान, झींद, फरीद कोट आदि कई राजस्थानोंमें जाटवंशीय राजा, महाराजा ही राज्य करते हैं । वे लोग अपने आपको जाट कहलाने में ही अपना गौरव समझते हैं। पंजाब और यू०पी० में जाटोंकी इज्जत राज पूतोंसे भी बढ़ी चढ़ी है। पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह इसी वंशका कोहेनूर था ।
[ पौष, वीर निवाण सं० २२६६
धमें महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री पी० सी० वैद्यने हिस्ट्री आव मीडीयावल हिन्दू इण्डिया में काफ़ी मीमांसा की है, और साबित किया है, कि जाट लोग हूणों की संतान नहीं, प्रत्युत हूणों को जीतनेवाले थे ।
जाट हूणों आदिकी संतान नहीं कई भ्रांत लेखकोंने जाटोंको हूणोंकी संतान सिथियनों की संतान बना दिया है। पर बात पुरातत्व सर्वथा अप्रमाणित है । इस संब
और
...
"जाट गूजर और मराठा इन तीनों में ( · ) जाटोंका वर्णन सबसे पुराना है। महाभारतके कर्णपर्व में इनका वर्णन 'जंटिका' नामसे मिलता है । उनका दूसरा वर्णन हमको "अजय जर्टो हूणान् ” वाक्यमें मिलता है, जोकि पांचवीं सदीके चन्द्रके व्याकरणमें है, और यह प्रकट करता है कि, जाट हूणोंके संबन्धी ही नहीं किन्तु शत्रु थे। जाटोंने हूणोंका सामना किया और उनको परास्त किया, अतः वे पंजाब के निवासी ही होंगे और धावा करनेवाले तथा घुस पड़ने वाले नहीं । क्या उपर्युक्त वाक्य यह साबित करता है, कि मन्दसौर के शिलालेखवाला यशो - धर्मन जिसने, कि हूणोंको लगातार परास्त किया था, जाट था ? वह जाट होगा । क्योंकि यह मालूम हो चुका है कि जाट मालवा - मध्यभारत में सिन्धकी भांति पहुँच चुके थे ।" ( हिस्ट्री ऑफ मीडीयावल हिन्दूइण्डिया, पृ० ८७-८८)
इसी विषय में 'जाट इतिहास' में पृष्ठ ५९ पर लिखा है: --
१ - जैनसूत्रों में आनेवाली आद्र कुमारकी कथा में श्रद्र के देशके राजा का श्रेणिकके सभा के संबंध पर जनरल कनिंघम के ऊपर लिखे विचार क्या कुछ प्रकाश नहीं डालते ? जरूर डालते हैं। भाद्र कदेश वर्तमानका 'एडन बंदर' अथवा इटली के मुसोलिनी की फासिस्ट नीति का शिकार बने हुए अल्बानियाके पास के 'एड्रियाटिक' से हो सकता है। आद्रक राजा के पूर्वज भारत से उधर गये द्दों और वहां राज्य कायम करके रहने लग गये हों। श्रेणिक के पूर्वजोंसे उनका कोई संबंध हो और वह आपसमें बराबर आदान प्रदानके जरिये बना हुआ हो, इसका कोई ताज्जुब नहीं है । अनार्य देशमें रहनेसे आद्र के राजा आदि अनार्य माने गये हों यह भी होसकता है । कुछभी हो आर्द्र के राजा और श्रेणिक महाराजका प्रेम सकारण ही होगा । संभावित कारणोंमें पूर्वसंबंध भी एक कारण हो सकता है । सूयगडांग सूत्रके दूसरे श्रुतस्कंध के छठे माइकाध्ययनको नियुक्ति इस संबंध में कुछ प्रकाश डालती है।
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वष ३, किरण ३ ]
ज्ञातवंशका रूपान्तर जोटवंश
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"जाट न हूणों की संतान हैं, और न शक युद्धग्रन्थोंमें लम्बे क़द, सुन्दर चेहरा, पतली लम्बी सिथियनोंकी, किन्तु वे विशुद्ध आर्य हैं। ऊपरके नाक, चौड़े कन्धे, लम्बी भुजाएं, शेरकी सी कमर उद्धरण से यह पूर्णतया सिद्ध होजाता है, किन्तु और हिरनकीसी पतली टांगोंवाली जाति बतइससे भी अधिक गहरा उतरा जाय तो पता लाया है, (जैसी कि यह प्राचीन समयमें थी) चलता है, कि बेचारे हूणों और शकोंके आक्रमणों आधुनिक समयमें पंजाब, राजपूताना और का जबतक नाम-निशान तक न था, जाट उस काश्मीरमें खत्री, जाट और राजपूत जातियोंके समय भी भारतमें आबाद थे । पाणिनी जो ईसा नामसे पुकारी जाती है । ( पृष्ठ ३२ ) । से, प्रायः ८०० वर्ष पहिले हुआ है उसके व्याकरण मिस्टर नेसफील्ड साहबने यहांतक जोर ( धातु पाठ ) में 'जट' शब्द आता है, जिसके कि देकर लिखा है :माने संघके होते हैं। पंजाबमें 'जाट' की अपेक्षा “If appearance goes for anything 'जट' अथवा 'जट्ट' शब्दका प्रयोग अबतक होता the Jats could not but be Aryans." है। अरबी यात्री अलवरूनी तो यहाँ तक लिखता "यदि सूरत शकल कुछ समझी जानेवाली है कि 'श्रीकृष्ण' जाट थे। मि० ई० बी० हेवल चीज़ है, तो जाट सिवा आर्योंके कुछ और हो लिखते हैं:
नहीं सकते।" - "Ethonographin investigations भाषाविज्ञान के अनुसार जातियोंके पहचाननेshow that the Indo-Aryan type desc- की जो तरकीब है, उसके अनुसार भी जाट आर्य ribed in the Hindu epic-tu tall. fair हैं। इसके प्रमाणमें मिस्टर सरहेनरी एम० इलि. complexioned, long headed race, यट के० सी० बी० "डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज with narrow prominent noses, broad ऑफ दी नार्थ वेस्टर्ने प्राविसेज ऑफ इंडिया" shoulders, long arms, thin waists like में लिखते हैं :lion and thin legs like deer is now (as "बहत समय हुआ मैंने करांचीसे पेशावर तक it wis in the earliest times) most यात्रा करके स्वयम् अनुभव कर लिया है, कि जाट confined to Kashmere, the लोग कछ खास परिस्थितियोंके सिवा अन्य शेष Punjab and Rajputana and represen- जातियोंसे अधिक पृथक् नहीं है। भाषासे जो ted by the Kattris, Jets. and Rajp- कारण निकाला गया है वह जाटोंके शुद्ध आर्यवंश nts. (Page 32 ) The History of Ary- में होनेके जोरदार पक्षमें हैं। यदि वे सिथियनeu Rule in India by F. B. Havell. विजेता थे, तो उनकी सिथियन भाषा कहाँके लिए
अर्थात्-मानवतत्वविज्ञानकी खोज बतलाती चली गई ? और ऐसा कैसे हो सकता है, कि वे है, कि भारतीय आर्यजाति जिसको कि हिन्दू. अब आर्य भाषाको, जोकि हिन्दीकी एक शाखा
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[ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६
है, बोलते हैं, तथा शताब्दियोंसे बोलते चले आये been affiliated to their society, I
think that the two now form common stock the distinction between Jat
and Rajput being social rather than ethnic: I believe that the families of
that common stock whom the tide of
हैं। पेशावर में डेराजाट और सुलेमान पर्वतमाला के पार कच्छ गोंडवामें यह भाषा हिन्दकी या जाटकी भाषाके नामसे प्रसिद्ध है। जाटोंके आर्यवंशमें होनेके सिद्धांत को यदि कतई एक ओर फेंक दिया जावे तो इसके विरुद्ध बहुत ही जोरदार प्रमाण दिये जावेंगे, जैसे कि अबतक कहीं नहीं दियेगये हैं। शारीरिक गठन और भाषा ऐसी चीजें हैं, जोकि केवल क्रियात्मक समानता के आधार पर एकतरफ़ नहीं रक्खी जा सकतीं। खासकर जब कि वे शब्द जिनपर कि समानता अवलम्बित है हमारे सामने आते हैं तो वे यूनानी या चीनियोंसे भिन्न पाये जाते है ।"
fortune has raised to practical importance have become Rajputs almost by more virtue of their rise, and that their descendents have retained the
title and its previleges on the condlition strictly enforced of observing the rules by which the higher are distinguished from the lower in the Hindu scale of precedence of preser ving their purity of blood by refusing its marriage with the families of lower social rank of regidly abstaining from degrading occupation. Those who transgressed these rules have fallen from their higher position and ceased to be Rajputs; while such families as attaining & dominent position in their history began to affect social exclusiveness and to observe the rules have become not only Rajas, but Rajputs or sons of Rajas".
अर्थात - किन्तु चाहे जाट और राजपूत पहिले भिन्न थे या नहीं, और चाहे कुछ भी प्राचीन
अनेकान्त
मिस्टर च्यार्जीलेथमके एथोनोलोजी आफ़ इंडिया पृष्ठ २५४ के एक नोटसे जाट - राजपूत के संबंध पर इसतरह प्रकाश पड़ता है – “ The Jat in blood is neither more nor less than a converted Rajput, and vice versa; a Rajput may be a Jat of the aucient faith. '
32
अर्थात- जाट रक्तमें परिवर्तन किये हुए राजपूतसे न तो अधिक ही है, और न कम ही है । किन्तु अदल बदल हैं। एक राजपूत प्राचीन धर्मका पोलन करनेवाला एक जाट होसकता है ।"
मिस्टर इबटसन जाट और राजपूतों के संबंध में एक और दिलचस्प बात लिखते हैं:
"But whether jats and Rajputs were or were not originally and whatever aboriginal elements may have
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वर्ष ३, किरण ३]
ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश
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रस्मरिवाज उनकी सोसाइटीमें बर्ती जाने लगी, "Though to my mind the term मेरे विचार.से अब ये दोनों जातियां एक उभय- Rajput is an occupational rather than निष्ठ स्टॉक बनाती हैं। जाट और राजपतोंकी ethological repression." मित्रता केवल रस्म रिवाजों को है नकि जातीयता अर्थात्-मेरे मस्तिष्कमें यह बात आती है, की । मैं विश्वास करता हूँ कि इस मिश्रित स्टाकके कि राजपूत शब्द एक जातीयताका बोधक होने वे खानदान जिनको भाग्यने राजनैतिक उन्नतिमें की बनिस्बत पेशेका बोधक है।" अग्रसर कर दिया, वे अपनो उन्नतावस्थाको प्राप्त
उपसंहार होनेसे ही 'राजपूत' कहलाने लगे, और उनके
. वर्तमानका जाटवंश जैन आगम-संमत ज्ञातवंशजोंने इस उपाधिको बड़ाईके साथ सीमित कर
वंशको रूपान्तर है या कुछ और । इस विषय दिया और छोटी जातियोंने मित्रताका सूचक बना
में आशा है कि विद्वान लोग अपने मन्तव्य दिया। साथ ही अपने रक्तको शुद्ध कहकर निम्न
जाहिर करेंगे। ज्ञातवंशमें जैसे जैनधर्मका प्रचार श्रेणीके लोगोंसे विवाह-संबन्ध करना बन्द कर
था ठीक वैसे ही कुछ वर्ष पहले तक जाटोंमें जैन दिया । पुनर्विवाहकी मनाही करदी। जिन लोगोंने
धर्मकी उपासना रही है। अंचलगच्छकी पट्टावली इन नियमोंको नहीं माना वे अपनी स्थितिसे गिर.
में सूचित जाखडिया गच्छ क्या जाटोंकी बीकागये और राजपूत कहे जानेसे वंचित रहे । ऐसे पशमें बसी हुई जाखखिया जातिसे संबन्ध कुटुम्ब जिन्हें कि अपने राज्यमें ऊंचे दर्जे मिल
नहीं रखता होगा ? तथा गच्छ्रके वर्तमान साधु गये उन्होंने उन सारे नियमोंका पालन शुरू कर
समुदायके मुख्य नेता-गुरु श्रीमान् बृद्धिचन्द्र दिया । वे राजा ही नहीं राजपुत्र यानी राजाके
जी महाराज भी इस जाटवंशके कोहेनूर थे, यह बेटे बनगये।
नहीं भूलना चाहिये । इस सम्बन्धमें विद्वान लोग मिस्टर इबटसन 'राजपूत' शब्द का अर्थ इस और अधिक प्रकाश डालनेकी सफल चेष्टा करेंगे, तरह से करते हैं :
ऐसी आशा की जाती है । इतिशम् ।
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द्रव्य-मन
( लेखक पं० इन्दचन्द्र जैन शास्त्री)
अनेकान्तकी ७वीं तथा हवी किरणमें 'श्रुतज्ञान- बीचमें २-वायें प्राहक और क्षेपककोष्ठोंके बीच
का आधार' शीर्षक लेखमें भावमनके ऊपर में, ३-फुफ्फुसीया धमनीमें, ४-वृहत धमनीमें। कुछ प्रकाश डाला गया है। किन्तु अभीतक द्रव्य. फुप्फुस रक्तको शुद्ध करनेवाले अंग हैं। इन मनके ऊपर प्रकाश नहीं डालागया है । द्रव्यमनका अंगोंमें रक्त शुद्ध होकर नालियों द्वारा (दो विषय प्रायः अन्धकारमें ही है । जैन सिद्धान्तमें शिरायें दाहिने फुप्फुससे आती हैं, और दो इस विषय पर अलग कोई कथन नहीं मिलता है। वायसे ) वायें ग्राहक कोष्ठ में लौट आता है। भर अभीतक लोगोंकी यह धारणा है कि मनका काम जानेपर कोष्ठ सिकुड़ने लगता है और रक्त उसमें हेयोपादेय का विचार करना है । परन्तु आजकल- से निकलकर वायें कोष्ट में प्रवेश करता है । रक्तके के विज्ञानवादी इस सिद्धान्तको नहीं मानते हैं। इस कोष्ठमें पहुंचने पर कपाटके किवाड़ ऊपरको सभी डाक्टर और वैद्य भी आज इस बातको उठकर बन्द होने लगते हैं। और जब कोष्ठ सिद्ध करते हैं कि हृदयका काम हेयोपादेयका सिकुड़ता है, तो वे पूरे तौरसे बन्द हो जाते हैं, विचार करना नहीं है।
जिससे रक्त लौटकर ग्राहक कोष्टमें नहीं जासकता
क्षेपककोष्ठके सिकुड़ने से रक्त बृहत् धमनोमें जाता ...आजकलके विज्ञान के अनुसार रक्त-परिचालक यंत्रको ही 'हृदय' कहते हैं । यह हृदय मांससे
है। वृहत् धमनीसे बहुतसी शाखोए फूटती हैं,
जिनके द्वारा रक्त समस्त शरीरमें पहुँचता है। बनता है तथा दो फुफ्फुसों (फेफड़ों ) के बीचमें वक्षके भीतर रहता है। यह हृदय पूर्ण शरीरमें इस तरहसे रक्त हृदयसे चलकर शरीरभरमें रक्तका संचालन करते हुए दो महाशिराओं द्वारा घूमकर फिर वापिस हृदयेमें ही लौट आता है। दाहिने कोष्ठमें वापिस आजाता है। ज्योंही इस इस परिभ्रमणमें १५ सेकण्डके लगभग लगते हैं। कोठरी में भर जाता है, वह सिकुड़ने लगती है. हृदय नियमानुसार सिकुड़ता और फैलता इसलिये रक्त उसमेंसे निकलकर क्षेपककोष्टमें रहता है । फैलने पर रक्त उसमें प्रवेशकरता है और
सिकुड़ने पर रक्त उसमें से बाहर निकलता है । जब चलाजाता है।
हृदय संकोच करता है, तो वह बड़े वेगसे रुधिरको हृदयमें चार कपाट होते हैं
धमनियोंमें धकेलता है । हृदयके संकोच और १-दाहिने ग्राहक और क्षेपक कोष्ठोंके प्रसारसे एक शब्द उत्पन्न होता है, जो छातीके
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वर्ष ३, किरण ३]
पास सुनाई दिया करता है । इसी धड़कनके बम्द होनेसे या रक्तगति बन्द होने से मृत्यु हो जाती है । इसीको आज कल हार्ट फेल कहते हैं ।
हृदयका इस प्रकार जितना भी वर्णन मिलता है, वह सब रक्त संचालन से ही मतलब रखता है, हृदय रक्तका ही केन्द्रस्थान है ।
""
इसके विपरीत जैन सिद्धान्तमें मनका लक्षण निम्नप्रकार किया है – आचार्य पूज्यपादने द्रव्य मनका सामान्य लक्षण “पुद्गल विपाकिकर्मोदया पेक्षं द्रव्यमनः ( सर्वा - २ - ११ ) अर्थात पुद्गल विपाकी कर्मोदयकी अपेक्षा अथवा अंगोपांग नामानामकर्मके उदयसे द्रव्यमनकी रचना होती है। इसी विषयको आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्तीने, हृदयका स्थान बताते हुए जीवकांडमें कहा है कि
हिदि होदिहु दव्यमणं वियसिय- श्रट्टच्छदारविंदं वा । गोगुदयादो मवगाणखंध दो खियमा ||४४२ || — अंगोपांग नाम कर्मके उदयसे मनोवर्गणा के स्कन्धों द्वारा हृदयस्थान में आठ पांखड़ीके कमल के आकार में द्रव्यमन उत्पन्न होता है ।
इस गाथा के द्वारा मनका स्थान तथा उसकी उत्पत्तिका कारण बताया गया है । आजकलके वैज्ञानिक भी मनका स्थान वक्षस्थल या हृदय बताते हैं । तथा हृदय के आकारको भी बन्द मुट्ठी के सदृश बताया करते हैं । जैनाचार्योंने मनका आकार कमलाकार बताया है । इस प्रकार प्रकट रूपसे दोनों कथनों में विरोध मालूम होता है । परन्तु विचारकर देखा जाय तो इसमें कोई विरोध की बात नहीं हैं। जैनाचार्योंने आठ पांखड़ीके कमलका दृष्टान्त दिया है, इसका यह तात्पर्य
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कभी भी नहीं लिया जा सकता कि ठीक अष्टदल कमलके सदृश ही होना चाहिए। यह तो केवल ata करानेके लिए दृष्टान्तमात्र है । यदि हम मांसके बने हुए हृदयमें वैसी ही पांखुड़ी तथा रज आदि खोजने लगजावें तो हमको निराशही होना पड़ेगा । पुस्तकों में दिए हुए हृदयके चित्र देखनेसे ज्ञात होता है कि जो जैनाचार्योंने कमलका दृष्टान्त दिया है, वह बन्द मुट्ठीके दृष्टान्त से अच्छा है । इसलिए आकार के विषय में विशेष विवाद नहीं हो सकता ।
सैद्धान्तिक ग्रन्थों में किसी भी जैनाचार्य ने मन काकार्य रक्तसंचालन नहीं बताया । श्राचार्य पूज्यपादने
गुणदोष विचारस्मरणादि व्यापारेषु इद्रियांनपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवद् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गतं करणमिति” (सर्वा० १-१४)
इस वाक्यके द्वारा मनको गुण दोष बिचार स्मरणादिमें कारण बताया है। बृहद्रव्य संग्रहमें भी " द्रव्यमनस्तदाधारेण शिक्षाला पोपदेशादि ग्राहकं” इत्यादि पद मिलते हैं । इन प्रमाणोंसे शिक्षा, उपदेश आदि मनका व्यापार सिद्ध होता है । परन्तु वैज्ञानिक इस बातको स्वीकार नहीं करते । वैज्ञानिकोंके कथनानुसार यह सब कार्य मस्तिष्कका ही है। विचारना, स्मरण करना आदि विवेक सम्बन्धी सभी कार्य मस्तिष्कसे ही होते हैं । मस्तिष्कको संवेदनका केन्द्र माना गया है । यह मस्तिष्क आठ अस्थियोंसे निर्मित कपालके भीतर होता है। इस मस्तिष्क में बहुत से अंग होते हैं । उनमें से कुछ अंगोंके द्वारा हम विचार करते हैं। उन्हींके द्वारा हमको सुख, दुख,
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द्रवयमन
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२५२ ]
अनेकान्त
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गरमी, सर्दीका ज्ञान होता है। उन्हींकी सहायता छोड़ा गया । इस ठंडे पानीसे त्वचाके संवेदनिक से हमको शब्द, रस, सुगन्ध दुर्गन्ध आदिका कणों पर एक विशेष प्रकारका प्रभाव पड़ा या बोध होता है। इन सबका संवेदन अलग अलग परिवर्तन हुआ । इस परिवर्तनकी सूचना त्वगीया नाड़ियों द्वारा होता है।
तारों-द्वारा सुषुम्नाके पास तुरन्त पहुंचती है। ___ मस्तिष्क से १२ जोड़े नाड़ियोंके लगे रहते है। ऊर्ध्वशाखा की नाड़ियां सुषुम्नाके ऊपरी भागसे पहिला जोड़ा गंधसे सम्बन्ध रखता है। हरएक निकलती है। ये तार पाश्चात्य मूलों द्वारा सुषुम्नातरफ बालों सरीखी पतली २० नाड़ियाँ रहती है। में घुसते हैं। सुषुम्ना में इन तारोंकी छोटी २ ये घ्राणनाड़ियाँ कहलाती हैं। नासिकाके घ्राण शाखायें तो सैलोंके पास रह जाती हैं, परन्तु वे प्रदेश से प्रारम्भ होती हैं और कपालके घ्राण खण्ड स्वयं शीघ्र ही सुषुम्नाके बायें भागमें पहुंचकरसे जुड़ती हैं।
सुषुम्नाशीर्षक और सेतुमें होते हुए स्तम्भ में ___ दूसरा जोड़ा-दृष्टि नांड़ियां कहलाती हैं। पहुँचती हैं। स्तम्भ-द्वारा वायें थैलेमसमें पहुंचते तीसरा जोड़ा भी नेत्रचालिनी नाड़ियाँ कहलाती हैं और यहीं रहजाते हैं, यहांसे फिर नये तार हैं। चौथे जोड़ेका भी नेत्र की गति से संबन्ध है। निकलते हैं, जो ऊपर चढ़कर वायें सम्वेदनाक्षेत्र पांचवाँ जोड़ा तथा छठा जोड़ा आँखकी गतिसे में पहुँचते हैं, वहाँ सम्वेदन हुआ करता है। सम्बन्ध रखता है । सातवाँ जोड़ा चेहरेकी पेशियों सम्वेदनक्षेत्रका सम्बन्ध गति क्षेत्रकी सेलोंसे की गति से सम्बन्ध रखता है। आठवाँ जोड़ेका तथा मानसक्षेत्रकी सेलोंसे रहा करता है। यदि सुननेसे सम्बन्ध है इन्हें श्रावणी नाड़ियाँ कहते हैं। हम ठंडे जलको पसन्द नहीं करते तोगति क्षेत्र नवमें जोड़े का जिह्वा और कंठसे सम्बन्ध है। मानसक्षेत्रको आज्ञा देता है कि हाथ उस क्षेत्रसे दसवें जोड़ेका स्वर, यन्त्र, फुप्फुस, हृदय, आमा- हट जावे, तो हाथ वहाँसे हट जाता है । यह सब शय, यकृतादि अंगोंसे सम्बन्ध है । और ग्यारहवां मस्तिष्कका कार्य है। मस्तिष्कके और भी बहुतसे तथा बारहवां जोड़ा जिह्वाके अंगोंसे सम्बन्ध कार्य होते हैं, उनका उल्लेख इस लेख में उपयोगी रखता है।
नहीं है। हमारी मुख्य पाँच ज्ञान इन्द्रियां हैं, स्पर्शन मस्तिष्कके इस विवेचनसे यह स्पष्ट होजाता ( त्वचा) रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण इन पांचों है कि सभी प्रकारका सम्वेदन मस्तिष्कके द्वारा इन्द्रियोंसे केन्द्रगामी तार प्रारम्भ होकर सुषुम्ना हुआ करता है। हृदयका काम सम्वेदन करना नाड़ी द्वारा मस्तिष्कमें पहुंचते हैं। मस्तिष्कके भी किसी भी तरह सिद्ध नहीं हो सकता। बहुतसे हिस्से माने गये हैं। चक्षु, कर्ण, घ्राण अब विचारना यह है कि जैन सिद्धान्तसे
आदिके केन्द्रगामी तार नाड़ियों द्वारा मस्तिष्कके हृदयके वर्णनमें किसी तरह विरोध दूर होसकता ज्ञानके केन्द्रोंमें जाते हैं।
है या नहीं ? इसके पूर्व यदि हम यह विचारल कल्पना कीजिए आपके हाथ पर ठंडा पानी कि हृदय और मस्तिष्कका कोई घनिष्ठ सम्बन्ध
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द्रव्यमन
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है या नहीं ? अथवा मस्तिष्क स्वतन्त्र संवेदन जैनाचोर्योंने पांचों इद्रियोंके साथ मनको भी कर सकता है या कि नहीं ? तो ज्यादा अच्छा इन्द्रिय रूपमें स्वीकार किया है, किन्तु यह मनअन्य होगा।
इन्द्रियोंकी तरह भीतर रहनेके कारण दृष्टिगोचर ___ मस्तिष्कका सम्बन्ध हृदय और फुप्फुस दोनों नहीं होता, इसलिये इसे अनिन्द्रिय अथवा अन्तःनाड़ियोंसे होता है । भयमें मस्तिष्कके हृदयकेन्द्रका करण कहो है । 'करण' का अर्थ इन्द्रिय, और दबाव हृदय परसे कम होता है, हृदय बड़ी तेजी- 'अन्तः'का अर्थ भीतर होता है । इसलिए भीतरकी से धड़कने लगता है, भयमें विचारनेकी शक्ति नहीं इन्द्रिय यह साफ अर्थ है। आचार्य पूज्यपादने रहती है। जिनके हृदयमें रोग होता है उनकी "अनिन्द्रियं मन: अंत:करण मित्यनर्थान्तरम्" धारणाशक्ति तथा विचारनेकी शक्ति बहुत कम हो ऐसा लिखा है । तथा कोई अनिन्द्रियका अर्थ जाती है। इसी प्रकार जब हृदयसे कमजोरीके
___ "इन्द्रिय का अभाव" न ले लें, इसीलिए आचार्य कारण ठीक समय पर रक्तको उचित मात्रा मस्तिष्क
महोदयने अनुदरा कन्याका उदाहरण देकर यह में नहीं पहुंचती तो मस्तिष्कका वर्द्धन भी ठीक नहीं
स्पष्ट कर दिया है कि यहां सद्भाव रूप ही अर्थ होता, और वह ठीक २ काम भी नहीं करसकता। लेना चाहिये।। पांचों इन्द्रियोंका कार्य पृथक् २ है, इनके द्वारा
____ मनका विषय अन्य इन्द्रियोंकी तरह निश्चित इन्द्रियसम्बन्धी ज्ञान मस्तिष्कमें होता है । स्पर्शन
करदिया गया है । आचार्य पूज्यपादने स्पष्ट इन्द्रियसे ठंडा गरम आदिका बोध होता है, तथा
कहा है किचक्षुसे रूपका, इसीप्रकार अन्य इन्द्रियोंसे संवेदन होता है। इन इन्द्रियोंके अलावा और भी तो बहुत
___ "गुणदोष विचार स्मरणादिव्यापारेषु से संवेदन होते हैं। वह किसका कार्य होगा? इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवद्" अर्थात् गुणदोष पांचों इन्द्रियोंका विषयतो निश्चित तथा परिमित के विचारने में, स्मृति आदि व्यवसायमें इन्द्रियों है, उनके द्वारा अपने विषयको छोड़कर अन्य की अपेक्षा नहीं होती यह तो मनका ही विषय है। प्रकारके संवेदनकी संभावना ही नहीं है। भय, जिसप्रकार स्पर्शन इन्द्रियद्वारा ऊष्णताका हर्ष, सुख, दुख इत्यादिका संवेदन इन इन्द्रियोंके संवेदन नहीं होता, वह तो संवेदन करनेमें कारण द्वारा संभव नहीं है, परन्तु इनका संवेदन होता है (यह मैं पहिले बता चुका हूं कि किसप्रकार अवश्य है । साथमें यह भी निश्चित है कि मस्तिष्क संवेदन होता है ) इन्द्रियोंका कार्य खुद संवेदन स्वयं किसीका संवेदन नहीं करता, वह तो प्रेरणाके करनेका नहीं है। इसीप्रकार मन भी एक इन्द्रिय द्वारा ही संवेदन करता है। बिना स्पर्शन इन्द्रिय- है, वह स्वयं संवेदन न करके अपना सीधा काम की सहायताके गरमी-सर्दीका संवेदन स्वयं मस्तिष्कसे कराता है। मस्तिष्कसे सीधा काम मस्तिष्क कभी भी नहीं करसकता । इसी प्रकार कराते हुए भी वह कार्य मनका ही कहलाता है। भय-हर्ष आदिके विषयमें भी समझना चाहिये। जिस प्रकार रूपका अनुभव मस्तिष्क द्वारा ही
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अनेकान्त
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होता है, परन्तु "आँखने देखा" ऐसा व्यवहार की उत्पतिका कारण बताया है। इन्द्रियोंको मतिकिया जाता है।
ज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान नहीं बताया। पंचाध्यापदार्थोकी किरणे पहिले आँखकी कनीनका- यीकारने मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान मन पर पड़ती हैं। वहाँसे चक्षुके भीतर प्रवेश करती बताया है। हैं, जल, रस, तारा, ताल, तथा स्वच्छ गाढ़े द्रवमें- दूरस्थानानिह समक्षमिव वेत्ति हेलया यस्मात्। . से होकर अन्तरीय दृष्टि पटल अथवा ज्ञानी परदे केवल मेवमनसादवधिमन:पर्ययद्वयं ज्ञान ।। ७०५॥ पर पड़ती हैं। ज्ञानी परदेमें चक्षुकी नाड़ीको उनके अर्थात्-अवधि और मनः पर्ययज्ञान केवल द्वारा प्रोत्साहन मिलता है, वह प्रोत्साहन मस्तिष्क मनसे दूरवर्ती पदार्थोंको लीलामात्रसे प्रत्यक्ष में पहुँचकर दृष्टिकेन्द्रके पुष्पको जागृत करता है। जानलेते हैं। यहां मनकी सहायताका और कुछ पश्चात हमें देखनेका ज्ञान होता है। यह नेत्रानु- अर्थ नहीं है, केवल यही अर्थ है कि द्रव्यमनके ? भवका तरीका है। इसीप्रकार मनके लिए भी आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्ययज्ञान होता है । मनसमझना चाहिए। अत: व्यवहारमें यदि मनका इन्द्रियसे मन:पर्यय ज्ञानका और कुछ भी प्रयोकाम हेयोपादेयरूप कहाजाय तो अनुचित नहीं जन नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रिय निरपेक्ष होता है। समझना चाहिए।
नीचेकी गाथा से इस अर्थकी और भी पुष्टि हो जैनाचार्योंने भी मनको कारण ही बताया है। जाती है।
अपिकिं वाभिनिवोधक बोधद्वैतं तदादिम यावत् । प्रदेशोंमें संवेदन होता है। आचार्य पूज्यपादने स्वात्मानुभूति समये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् ॥ ७०६ ॥ . "यतो मनो व्यापारोहिताहित प्राप्तिपरिहारपरीक्षा' . अर्थात्-केवल स्वात्मानुभूतिके समय जो ऐसा ही कहा है। मनका व्यापार हिताहित-प्राप्ति- ज्ञान होता है, वह यद्यपि मतिज्ञान है तो भी वह परिहारमें होता है, इसका अर्थ यह नहीं लिया वैसाही प्रत्यक्ष है जैसा कि आत्मभाव सापेक्ष जासकता कि यह व्यापार मनके भीतर ही हुआ प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। करता है। इसी बातको उमास्वामीने बहुत ही स्पष्ट यहां मतिज्ञानको भी जब इन्द्रियोंकी अपेक्षा कर दिया है-तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायमें मति- नहीं होती, उस समय प्रत्यक्ष कहा है, फिर यदि स्मृति-संज्ञा-चिन्ता अभिनिवोध-रूप मतिज्ञान कैसे मन:पर्ययज्ञानको मनइन्द्रियकी सहायतासे माने उत्पन्न होता है ? इसका कारण बतानेके लिये तो उसे प्रत्यक्ष कैसे कह सकेंगे। "तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम्" इस सूत्रकी रचना गोमटसार-जीवकाण्डकी ३७० वी गाथामें की है। इस सूत्रमें बताया गया है कि मतिज्ञानके अवधिज्ञानके स्वामीका वर्णन करते हुए यह भी उत्पन्न करनेके लिये स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु, बताया है कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान शंखादिक श्रोत्र और मन ये छह वहिरंग कारण हैं"। यहां चिन्होंके द्वारा हुआ करता है, तथा भवप्रत्यय प्राचार्यने अन्य इन्द्रियोंकी तरह मनको भी ज्ञान- अवधिज्ञान संपूर्ण अंगमें होता है । इसका स्पष्ट
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वर्ष ३, किरण ३ ]
अर्थ तत्रस्थ आत्मासे ही है । इसीप्रकार मन:पर्याय ज्ञानभीद्रव्यमनके आत्मप्रदेशों में होता है। ऐसाही समझना चाहिये । अतः यह शंका नहीं हो सकती कि मन:पर्ययज्ञानका संवेदन मनमें होता है या मन इन्द्रिय उसमें काम करती है । अतः मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञान मनमें नहीं होते किन्तु मन केवल निमित्त कारण ही है । वृहद् द्रव्यसंग्रह में " द्रव्यमनस्तदाधारेण शिक्षाला पोपदेशादि ग्राहकं" इस तृतीयान्तपदसे
द्रव्य-मन
ही अर्थ निकलता है। यदि टीकाकारको " मनमें" यह अर्थ अभीष्ट होता तो सप्तमीका पंद दिया जासकता था ।
यहां यहभी शंका नहीं करना चाहिये कि जैनाचार्यों ने हृदयका मुख्यकार्य रक्तसंचालनका वर्णन नहीं किया । क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें सिद्धान्तका ही वर्णन किया जायगा, शरीरशास्त्र की यहां अपेक्षा नहीं है । नाकका काम सुगन्धज्ञानके अलावा श्वास आदि कार्य भी है। जिह्वा का रसज्ञानके साथ शब्दोच्चारण आदि कार्य हैं, परन्तु सभीके वर्णनकी सब जगह अपेक्षा नहीं होती । हां, वैद्यक शास्त्रोंमें इसका वर्णन किया गया है ।
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इन्द्रपर भी असर पड़ता है। तेज सुगन्धिसे दिमाराके साथ नाक भी झनझना जाती है । किसी पदार्थको बहुत देर तक देखते रहने से आखें दर्द करने लगती हैं। उसी प्रकार किसी तरह के भयानक विचारों से अथवा भयसे हृदयकी गतिपर असर पड़ता है, हृदय धकधकाने लगता है, इससे मालूम पड़ता है ये सब गुण हृदयके हैं । अन्यथा हृदय पर असर नहीं पड़ना चाहिए था । जिस प्रकार सुगन्धि घ्राणका कार्य मानाजाता है, क्योंकि उस का असर घ्राण पर पड़ता है । उसी प्रकार भय आदिका असर हृदयपर पड़ता है, इसलिए ये सब हृदय कार्य माने जाने चाहिएँ ।
जिस इन्द्रियका जो कार्य होता है, उस कार्य की अधिकता या तेजीसे मस्तिष्क के साथ साथ
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डा० त्रिलोकीनाथवर्मा शरीरविज्ञानके प्रामाणिक लेखक माने जाते हैं । आपने "स्वास्थ्य और रोग" नामक एक सुन्दर पुस्तक लिखी है, इसी पुस्तकके ७८१ वें पृष्ठ पर आपने लिखा है कि "मन सम्बन्धी जितनी बातें हैं वे सब मस्तिष्कके द्वारा होती हैं। विचार अनुभव, निरीक्षण, ध्यान, स्मृति, बुद्धि, ज्ञान, तर्क या विवेक ये सब मनके गुण हैं।
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sro त्रिलोकीनाथ के इस कथन से हमारी और भी पुष्टि हो जाती है । इसलिये जैन सिद्धान्तमें माने हुए मनके लक्षण में किसी तरह विरोध नहीं
आता ।
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आति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह'
(लेखक पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
लप्तप्राय दिगम्बर जैन ग्रन्थोंमेंसे 'पंचसंग्रह' इनमेंसे पहली गाथामें बताया है कि 'जीवस्थान
ॐनामका एक अति प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ अभी और गुणस्थान-विषयक सारयुक्त कुछ गाथाओंको हालमें उपलब्ध हुआ है। इस ग्रन्थकी यह उपलब्ध दृष्टिवादसे १२ वें अंगसे लेकर कथन करता प्रति सं० १५२७ की लिखी हुईहै, जो टवक नगरमें हूँ।' और दूसरी गाथा में यह बताया गया है कि माघवदी ३ गुरुवारको लिखी गई थी। इसकी पत्र 'दृष्टिवादसे निकले हुए बंध, उदय और सत्वरूप संख्या ६२ है, आदि और अन्तके दोपत्र एक ओर प्रकृतिस्थानोंके महान् अर्थको पुनः प्रसिद्ध पदोंके ही लिखे हुए हैं और हासिये में कहीं कहींपर द्वारा संशोपसे कहता हूँ। इससे स्पष्ट है कि संस्कृतमें कुछ टिप्पणी भी वारीक अक्षरोंमें दी इस ग्रन्थकी अधिकांश रचना दृष्टिवादनामक हुई है। इस टिप्पणीके कर्ता कौन हैं ? यह ग्रन्थ १२ वें अंगसे सार लेकर और उसकी कुछ गाथा. प्रति पर से कुछभी मालूम नहीं होता । ग्रन्थमें ओंको भी उधृत करके कीगई है। प्रथकी प्राकृत गाथाओंके सिवाय, कहीं कहीं पर कुछ श्लोकसंख्या दोहजारके लगभग है। इसमें जुदेप्राकृत गद्य भीदिया हुआ है। ग्रन्थके अन्तमें जुदे पांच प्रकरणोंका संग्रह कियागया है, इसी. कोई प्रशस्ति लगीहई नहीं है और न ग्रन्थकर्ताने लिये इसका नाम 'पंचसंग्रह' सार्थक जान पड़ता किसी स्थलपर अपना नाम ही व्यक्त किया है। है। वे प्रकरण इस प्रकार हैंऐसी स्थितिमें यह ग्रन्थ कब और किसने बनाया ? १ जीवस्वरूप, २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३ कर्मआदि बातें विचारणीय और अन्वेषण किये जानेके स्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका । ग्रन्थको आद्योयोग्य हैं।
पान्त देखने और तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन - इस ग्रन्थकी रचना दृष्टिवाद नामके १२वें अङ्ग- का
करनेसे यह बहुत ही महत्वपूर्ण और प्राचीन से कुछ गाथाएं लेकर कीगई हैं, जैसाकि उसके जान पड़ता है । दिगम्बर जैनसमाजमें उपलब्ध चतुर्थ और पंचम अधिकारमें क्रमशः दीगई
र गोम्मटसार और संस्कृतपंचसंग्रह से यह बहुत निम्न दो गाथात्रोंसे प्रकट है:
अधिक प्राचीन मालुम होता है । इस ग्रंथकी बहुत सुणह इह जीव गुणसन्निहि सुठाणे सुसार जुत्ताओ।
सी गाथाओंका संग्रह गोम्मटसारादि ग्रन्थोंमें वोच्छ कदि वइयाओ गाहाओ दिट्ठिवादाओ॥
कियागया है, जिसे विस्तारकं साथ फिर किसी सिद्धपदेहि महत्थं बंधोदय सत्त पयडि ठाणाणि ।। स्वतन्त्र लेख द्वारा प्रकट करनेका विचार है। वोच्छ पुण संखेवेणणिस्संदं दिट्टिवादा दो ॥ पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा प्रणीत 'षट्
४-३, ५-२ खण्डागम्' पर 'धवला' और 'जयधवला' टीकाके
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वर्ष ३, किरण ३]
रचियता आचार्य वीरसेनने अपनी धवलाटीकामें इस ग्रन्थकी कितीही गाथाए' 'उक्तं च रूप से या बिना किसी संकेत के उधृत की हैं - अथवा यों कहिये कि जिन गाथाओं को अपने कथन की पुष्टिमें प्रमाणरूप से पेश किया है उनमें से बहुतसी गाथायें प्राकृत पंचसंग्रहकी हैं। धवलाका जो सत्प्ररूपणा विषयक अंश अभी हालमें मुद्रित हुआ है उसमें उधृत २१४ पद्योंमें से अधिकांश गाथाएं ऐसी हैं जो ज्योंकी त्यों अथवा थोड़ेसे पाठभेदादिके साथ इस ग्रन्थ में पाई जाती हैं। ये प्रायः इसी परसे उद्घृत जान पड़ती हैं । अभीतक किसीको पता भी
था कि ये किस प्राचीन ग्रन्थपरसे उद्धृत की गई हैं । उनमें से कुछ गाथाएं नमूने के तौर पर नीचे दी जाती हैं :
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गइ कम्म- विणिवत्ता जाजेट्ठा सागई मुणेयव्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छति हु सागई होइ ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, ४९ गइ-कम्म-विणिव्वत्ता जाचेट्ठा सागई मुणेयव्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छति तिय गई होइ ॥ -धवला० ८४, पृ० १३५ तं मिच्छत्तं जमसद्दद्दणं तचाय होइ प्रत्थाणं । संसइदमभिगहियं अणभिगाहियंतुं तृतिविहं ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, ७ तं मिच्छत्तं जहम सद्दर्यं तच्चाण होइ अत्याएँ । संसइदमभिग्गहियं श्रभिग्गहिदं तितंतिविहं ॥ - धवला १०७, पृ० १६२ वेदस्सुदीरणाए बालत्तं पुणणियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरुस एउंस य वेति तत्र हवदि वेदों ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, १०१ पुणणियच्छदे बहुसो ।
हवइ बेश्रो IT
- घवला ८९, पृ० १४१
वेदस्सुदोरणाए बालत्तं थी-पुं- एविय
वेत्तित
अति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह '
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जिन गाथाओं में कुछ अधिक पाठ-भेद पाया जाता है उन्हें नीचे दिया जाता है:
छम्मासाउगसेसे उप्पन्न जेसि केवलं नाणं । तेणियमा समुग्धायं सेसेसु इवंति भयपिज्जा ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, २०० छम्मा साउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं गाणं । स- समुग्धाओ सिज्झर सेसा भज्जा समुग्धाए ॥
- धव०, १६७, पृ० ३०३ सुट्ठमासु पुढविसु जोइसवण - भवण - सम्वइत्थीसु । वारसमिच्छोवादे सम्माइट्ठिस्सणत्थि उववादो || - प्रकृत पं०, १, १९३ जोइस-वण- भवण-सत्व- इत्थीसु । सम्माहट्टी दुजो जीवो ||
सुढिमासु पुढबी देसु समुप्पज्जइ
- धव०, १३३, पृ० २०९ इसी तरह प्राकृत पंचसंग्रह के प्रथम 'जीवस्वरूप' प्रकरणकी २३, ६६, ६९, ७१, ७५, ७७, ७८, ७९, ८०, ८८, १५६, नं० की गाथाएं धवलाटीकाके उक्त मुद्रित अंश में १२१, १३४, १३५, १३७, ८६, १४६, १५०, १५२, १५२, १४०, १९६, २१२ नम्बर पर ज्यों की त्यों अथवा कुछ मामूली से शब्द परिवर्तन के साथ पाई जाती हैं ।
इन गाथाओं के सिवाय, १०० गाथाएं और भी धवलाके उक्त मुद्रित अंशमें उपलब्ध होती हैं। इस तरह कुल ११६ गाथाएं उक्त अंशमें पंचसंग्रहकी पाई जाती हैं, जिनमें से उक्त १०० गाथाए ऐसी हैं जिनका प्रोफेसर हीरालालजीने अपनी प्रस्तावना में धवलाटीकापर से गोम्मटसार में संग्रह किया जाना लिखा है। ये गाथाएं गोम्मटसारमें तो कुछ कुछ पाठ-भेदके साथ भी उपलब्ध होती हैं, परन्तु पंचसंग्रहमें प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं - पाठ-भेद नहीं के बराबर है और जो
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२५८ ]
है वहभी प्रायः लेखकों की कृपाका फल जान पड़ता है । इनके अलावा 'धवला' टीकाके अप्रकाशित भागमें भी कुछ गाथाएं पंचसंग्रहकी उपलब्ध होती हैं । जिनका पता मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीकी धवला-विषयक नोटबुक से चला, और जिनमें से दो गाथाएं यहां नमूने के तौरपर उद्घृत की जाती है :
बेयण कसाय उव्विय मारयति समुग्धाओ । तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवली च ॥ - प्राकृत पंच सं० १, १९६ वेयणकसाय वेउब्वियश्रो मरणंतिय समुग्धादो, तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवली तु ॥
अनेकान्त
[ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६
ग्रन्थ बनाया है । परन्तु प्रस्तुत 'प्राकृत पंचसंग्रह ' की जो प्रति मेरे पास है, उसमें कर्ता का कोई नाम नहीं है । इधर 'दि० जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ नामकी पुस्तकमें वीरसेनाचार्य के ग्रन्थों में 'पंचसंग्रह' का कोई नाम नहीं है, और न अभी तक कहीं किसी ग्रन्थमें इस प्रकारका उल्लेखही उपलब्ध होता है, जिससे इस ग्रन्थको वीरसेनाचार्यकी कृति माना जा सके । मालूम होता है। बाबा दुलीचन्दजीने, जिनकी सूची के आधार पर उक्त बृहत् सूची तैयार हुई अपनी सूची में. जनश्रुति आदि के आधार पर ऐसा लिखदिया है। उस सूचीमें और भी बहुत से ग्रन्थ तथा ग्रन्थकर्ताओंके विषय में गल्ती हुई है, जिसे फिर किसीसमय प्रकट करने का प्रयत्न किया जायगा । इसके सिवाय आचार्य श्रमितगतिने वि० सं० २०७३ में जो अपना संस्कृत पंचसंग्रह बनाया है और जो प्राय: इसीके आधारपर बनाया गया है, उसमें भी पंचसंग्रहके नामके सिवाय श्राचार्य वीरसेनका कोई जिकर नहीं है । अतः इस प्राकृत पंचसंग्रह कर्ता आचार्यधीरसेन मालूम नहीं होते । यदि वीरसेन इसके कर्ता होते तो धवला टीकामें पंचसंग्रहकी जो गाथायें 'उक्तंच' रूपसे दीगई हैं। उनमें से किसी में भी कोई विशेष पाठ-भेद न होता पंच- संग्रहकी १८४वीं गाथाका धवला में पूर्वार्ध तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध नहीं मिलता, जिससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि धवलाकी तरह पंचसंग्रह ग्रन्थ के कर्ता भी आचार्य वीरसेन ही होते तो यह संभव नहीं था कि वे अपने एक ग्रंथ में जिस पद्यको जिस रूपमें लिखते उसे अपने दूसरे ग्रंथ में 'उक्तंच' रूपसे देकर भी इतना अधिक बदल
- धव० आरा प्र० पृ० १९५ गाणावरण चउकं दंसणतिग मंतरायगे पंच । ता होति सघाई सम्म संजलण खोकसायाय ॥ - प्राकृत पंच सं०, ४ ९६, पृ० ३५ गाणावरणचउकं दंसणतिग मंतरायगा पंच ताहति देशघादी सम्मं संजलय गोकसायाय ॥ -धवला० आरा प्र० पृ० ३८०
इस सब तुलना पर से स्पष्ट है कि आचार्य वीरसेनके सामने ‘पंच संग्रह' जरूर था, इसीसे उन्होंने उसकी उक्त गाथाओं को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी 'धवला' टीका शक सं० ७३८ (विक्रम सं० ८७३) में पूर्ण की है । अत: यह निश्चित है कि पंचसंग्रह इससे पहलेका बना हुआ है ।
पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'जैन सिद्धान्त भास्कर, के ५ वें भागकी चतुर्थ किरणमें 'दि० जैन ग्रन्थोंकी बृहत्सूची' नामका एक लेख प्रकट किया था, उसमें 'सिद्धान्त ग्रंथ' उपशीर्षक के नीचे आचार्य वीरसेन के ग्रंथोंमें 'पंच संग्रह' का भी नाम दिया गया है, जिससे मालूम होता है कि आचार्य वीरसेनने पंचसंग्रह नामका भी कोई
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अति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह'
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देते जसाकि निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है:- दसणमोह उवसामगोदु चदुसुविगई सुबोइम्बो। पम्हा पउम सवण्णा सुक्का पुणकास कुसमसंकासा ।
पंचिंदिओय सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तों ॥ वणंतरं च एदेहवंति परिपरिमिता अणंतावा ।।
-प्राकृत पंच सं०, १, २०४ -प्राकृत पंच सं०.१,१८४
दसण मोहक्खवणा पट्ठवगो कम्म भूमि जादोदुं । पम्मा पउम सवण्ण। सुक्का पुणकास कुसम संकासा।
णियमा मणुस गदीए निट्ठव गो चावि सव्वत्थ ।। किण्हादि दव्व लेस्सा वण्ण विसेसो मुणेयन्वो ॥
-कसाय पाहुड०१०६ धवला आरा प्र० पृ० ६५
दसण मोहक्खवणा पट्टवगो कम्मभूमि जादोदु । अतः आचार्य वीरसेन इस पंच-संग्रहके कर्ता णियमा मणुसगदीए निट्टवगोचावि सव्वत्थ ॥ नहीं हो सकते और अब इस ग्रन्थके रचनाकाल
-प्राकृत पंच सं०, १, २०२
खवणाए पट्ट वगोजम्हिभवे णियमदोतदो अण्णे। के विषयमें जो कुछ भी तुलनात्मक अध्ययन से
णादिक्कदितिण्णिभवे धसण मोहम्मि खीणम्मि ॥ मालूम होसका है उसे नीचे प्रकट किया जाता है:
-कसाय पाहुड, १०९ कसायप्राभृतके रचयिता आचार्य गुगधर हैं, खवणाए पढवगो जम्मि भवे णियम दो तदोअन्न ।।
णादिक्कदि तिन्नि भवं दसणमोहम्मि खीणम्मि ।। जिन्हें प्राचार्यपरम्परासे लोहाचार्यके बाद,
प्राकृत पंच सं०, १, २०३ अंगों और पूर्वोका अवशिष्ट एकदेशरूप श्रुतका
कषाय प्राभृतका रचनाकाल यद्यपि निर्णीत परिज्ञान प्राप्त हुआ था और जो ज्ञानप्रवाद ना
नहीं है तो भी इतना तो निश्चित ही है कि इसकी मक पाँचवें पूर्वस्थित दशम वस्तुके तीसरे पाहुडके
रचना कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले हुई है। साथ ही पारगामी विद्वान थे उन्होंने श्रुतके विनष्ट होने
यह भी निश्चत है कि गुणधराचार्य पूर्ववित् थे के भयसे तथा प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर
और उनके इस ग्रंथ की रचना सीधीज्ञानप्रवाद १८० गाथाओंमें 'कषाय प्राभृत' की रचना की,
पूर्वके उक्त अंशपरसे स्वतन्त्र हुई है-किसी और इन्हीं गाथाओंकी सम्बन्धसूचक एवं वृत्ति
दूसरे आधार को लेकर नहीं हुई। अतः यह रुपक ५३ विवरणगाथाओंकी और भी रचना
कहना होगा कि उक्त तीनों गाथाएँ कषायप्राभूत की। इसतरह से कषाय प्राभृतको कुल गाथाएँ
की ही हैं और उसी परसे पंचसंग्रहमें उठाकर संख्या में २३३ हैं, जिन्हें उक्त मुख्तारसाहबकी
रक्खी गई हैं। इससे इतना तो स्पष्ट होजाता है जयधवला विषयक नोट-बुकपर से देखने और
कि पंचसंग्रह की रचना कषायप्राभूतके बाद पंचसंग्रह की गाथाओंके साथ तुलना करने से
किसी समय हुई है। मालूम हुआ कि दर्शनमोह का उपशम और
पंचसंग्रहमें पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकके क्षपणाके स्वरूपका निर्देश करनेवाली कषाय ।
दार्शनिक आदि ११ भेदोंके नामोंका निर्देश प्रोभूतकी तीन गाथाएँ 'पंचसंग्रह' में प्रायः ज्यों
करनेवाली एक गाथा १६३ नम्बरपर पाई की त्यों पाई जाती है और वे इस प्रकार हैं:
. जाती है और उक्त गाथा आचार्य कुंदकुंदके दंसण मोह स्सुवसामगो दु चदु सुवि गदीसु बोद्धम्बो। पंचिंदिओय सण्णी णियमोसो होइपज्जत्तो ॥ 'चारित्र प्राभूत में भी नं० २२ पर उपलब्ध होती
-कसाय पाहुड० ९१ है। यह गाथा दोनों ग्रन्धकारोंमेंसे किसी एकने
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अनेकान्त
[ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६
जरूर उद्धृत की है, बहुत सम्भव है कि आचार्य संदृष्टि भी दी है, जिससे गाथाओंमें दीगई बातोंका कुन्दकुन्दने पंचसंग्रहसे उदधृत की हो, और यह भी अच्छी तरहसे स्पष्टीकरण होजाता है, परन्तु सम्भव है कि चारित्र प्राभृतसे पचसंग्रहकारने इस ग्रन्थके कर्ता कौन हैं-उनका क्या नाम है और उठाकर रक्खी हो; परन्तु बिना किसी विशेष उनकी गुरुपरम्परा क्या है ? तथा इस ग्रन्थकी प्रमाणके अभी इस विषयमें कुछ भी नहीं कहा रचना कहाँ और कब हुई है ? आदि बातें अन्ध. जासकता है तो भी इससे इससे इतना तो ध्वनित कारमें होनेसे उनके विषयमें अभी विशेष कुछभी है कि पंचसंग्रहकी रचना कुन्दकुन्दसे पहले या नहीं कहा जोसकता है, इसके लिये ग्रंथकी प्राचीन कुछ थोड़े समय बाद ही हुई होगी। हाँ इतना प्रतियोंकी तलाश होनी चाहिये । दिगम्बर-श्वेताजरूर कहा जासकता है कि ५वीं शताब्दीसे पहले म्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके ग्रन्थभण्डारोंमें इसके इसकी रचना हुई है, क्योंकि विक्रमकी छठी लिये अन्वेषण होने की बड़ी जरूरत है । बहुत शताब्दीके पूर्वार्धके विद्वान आचार्य देवनन्दी संभव है कि उक्त ग्रंथकी पं० आशाधरजी से (पूज्यपाद) ने अपनी सर्वार्थसिद्धिकी वृत्तिमें पहलेकी प्रतियाँ उपलब्ध हो जाय, जिनपर कर्तादि
आगमसे चक्षुइन्द्रियको अप्राप्यकारी सिद्ध की प्रशस्तिभी साथमें अंकित हो । क्योंकि पं० करते हुए पंचसंग्रहकी १६८ नम्बरकी गाथा उधृत आशाधरजीने भगवती आराधनापर · 'मूलाकी है, जिससे स्पष्ट है कि पंचसंग्रह पूज्यपादसे राधना दर्पण' नामकी जो टीका लिखी है उसके पहले बना हुआ है । वह गाथा इस प्रकार है:- ८ वें आश्वासमें "तथाचोक्तं" वाक्यके
पुढे सुणेइ सर्द अपुढे पुण पस्सदै रूपम् । साथ इस पंचसंग्रह ग्रन्थकी ६ गाथाएँ उद्धृत की फास रसंच गंध बद्धं पुढे वियाणादि ॥ . है। जो पंचसंग्रह के तीसरे अधिकारमें नं० ६० इसके सिवाय, श्वेताम्बरीय सम्प्रदायमें 'कर्म प्रकृति' के कर्ता शिवशर्मका समय विक्रमकी ५ वीं
से ६५ तक ज्यों की त्यों दर्ज हैं अतः अन्वेषण शताब्दी माना जाता है, उनका संग्रह किया हुआ
करनेपर इस ग्रन्थकी प्रस्तुत प्रतिसे भी अधिक एक 'शतक' नामका प्रकरण है उसमें बंधके कथन
प्राचीन ऐसी प्रतियोंके मिलनेकी बहुत बड़ी संभाकी प्रधानता होनेसे उसका बंधशतक नाम रूढ वना
वना है। जिनपरसे कर्तादिका परिचय प्राप्त हो होगया है। इस ग्रन्थमें पंचसंग्रहकी बहुत
सके, और प्रकृत विषयके निर्णय करनेमें विशेष गाथायें पाई जाती हैं, जिनका विशेष परिचय
सहायता मिल सके। आशा है विद्वान्गण मेरे एक दूसरे ही लेखमें देनेका विचार है अस्तु, यदि इस निवेदनपर अवश्य ध्यानदेंगे। और खोज शिवशर्मका उक्त समय ठीक है तो कहना होगाकि द्वारा ग्रन्थकी और भी प्राचीन प्रतियाँ उपलब्ध रचना विक्रम की ५ वीं शताब्दीसे पहले हुई है। होनेपर उनका विशेष परिचय प्रकट करनेकी कृपा
इस सब तुलनात्मक विवेचनपरसे स्पष्ट है कि करेंगे, अथवा मुझे उनकी सूचना देकर यह 'पंच संग्रह' उपलब्ध दिगम्बर-श्वेताम्बर कर्म . साहित्यमें बहुत प्राचीन है। इसमें डेढ़ हजारके अनुगृहात कर
वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, करीष गाथाओंका अच्छा संकलन है। साथमें, अंक
ता०१३-१-१९४०
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जैन और बौद्ध निर्वाणमें अन्तर
[ ले०–श्री. प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए..]
सितम्बर १९३९ के अनेकान्त (२-११) में मैंने जैन बौद्ध साहित्य बहुत विस्तृत है। कभी कभी तो
और बौद्धधर्म एक नहीं' नामक एक लेख लिखा उसमें एक ही विषयका भिन्न २ रूपसे प्रतिपादन देखने था, जिसमें ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी "जैन और में आता है। ऐसी हालतमें बौद्धवाङ्मयका गहरा बौद्ध तत्वज्ञान" नामकी पुस्तककी समालोचना करते अध्ययन किये बिना, ऊपर ऊपरसे दो चार ग्रन्थोंको हुए यह बताया था कि ब्रह्मचारीजीका जैन और बौद्ध पढ़कर अपना कोई निर्णय देना यह बड़ी भारी भूल है। धर्मको एक बताना निरा भ्रम है। मेरे लेखके उत्तरमें निर्वाणके सम्बन्धमें भी बौद्धग्रन्थों में विविधतायें देखने में ब्रह्मचारीजीने ३० नवम्बर १९३६ के जैन मित्र ने कुछ आती हैं । यही कारण है कि युरोपियन विद्वानोंमें भी शब्द भी लिखे हैं, जिनमें कहा गया है कि मैं उनकी इस विषयमें मतभेद पाया जाता है । कुछ विद्वान पुस्तक भूमिका-सहित श्राद्योपांत पढ़ लेता तो उनसे निर्वाणको शून्यरूप-अभावरूप-मानते हैं । जिसमें असहमत न होता । मैं ब्रह्मचारीजीसे कह देना Hardy, Childers, James D' Alwis चाहता हूँ कि मैंने उक्त पुस्तक अच्छी तरह आद्योपांत आदि हैं। दूसरे इसका विरोध करते हैं और कहते हैं पढ़ ली है, लेकिन फिर भी मैं उनसे सहमत न हो कि बौद्धोंका निर्वाण भी ब्राह्मणोंकी तरह शाश्वत और सका। मैं समझता हूँ शायद कोई भी विद्वान् इस अचल है । इस विभागमें Maxmullar, Stcherबातको मानने के लिये तैयार न होगा कि 'जैन और batsky आदि हैं । हम यहां इस वाद-विवादमें गहरे बौद्ध धर्म एक हैं और उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है।” नहीं उतरना चाहते, केवल इतना ही कहना चाहते हैं । अपने पिछले लेखमें मैंने विस्तार पूर्वक बौद्धोंकी श्रात्मा कि यदि बौद्धोंका निर्वाण अच्युत और स्थायी है तो सम्बन्धी मान्यताका दिग्दर्शन कराते हुए बताया है उन्हें निर्वाणके लिये बहुत सी उपमायें मिल सकती कि उसकी जैनसिद्धान्तसे जरा भी तुलना नहीं की थीं, उन्होंने दीपककी उपमा ही क्यों पसंद की ? जा सकती । बौद्ध ग्रन्थों में मांसोल्लेख आदिके सम्बन्धमें "निब्बति धीरा यथायं पदीपो' ( संयुत्त २३५)भी मैंने उक्त लेखमें चर्चा की है । दुःख है कि ब्रह्मचारी प्रदीपके समान धीर निर्वाण पाते हैं ( बुझ जाते हैं ; जी उन आक्षेपोंका कुछ भी उत्तर न दे सके। “सीतीभूतोऽस्मि निव्वुतो" ( विनय १-८) निर्वृत ___अब ब्रह्मचारीजीकी मान्यता है कि “निर्वाणका हो जानेसे मैं शीतल हो गया हूँ (ठंडा हो गया हूँ । स्वरूप जो कुछ बौद्ध ग्रन्थोंमें झलकता है वही जैन “पदीपस्स एव निधानं विमोक्खो आहु चेतसो" शास्त्रोंमें है।" इस लेखमें इसी विषय पर चर्चा की आदि बौद्ध पाली ग्रन्थोंके उल्लेखोंसे मालूम होता है कि जायगी।
बौद्ध लोग प्रदीपनिर्वाणकी तरह आत्म निर्वाणको ही
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
निर्वाण मानते थे । फिर यदि अकलंक आदि जैन advisedly, for though the Pali texts प्राचार्योंने बौद्धोंकी इस मान्यताका खंडन किया है तो have entirely for many years in public उन्होंने कौनसा अन्याय किया है ? ब्रह्मचारीजीका जो libraries, they are only now beginning यह कथन है कि "अकलंक आदि जैन प्राचार्योंने जैसा to be understood. Buddhims of Pali बौद्धधर्मका खंडन किया है वैसा बौद्ध धर्म मज्झिम- Pitakas is not only a different thing निकाय आदि प्राचीन पाली पुस्तकोंमें नहीं है" वह from Buddhism as hitherto commonly भूलसे खाली नहीं है। अपने कथनकी पुष्टिमें ब्रह्मचारी received, but is antagonistic to it." जी ने W. Rys Davids के कथन का उल्लेख अर्थात् जबसे बौद्धोंके प्राचीन साहित्यकी खोज हुई है, किया है। लेकिन W. Rys. Davids का अभि- तबसे बहुत सी बातोंपर नया प्रकाश पड़ा है। यद्यपि प्राय यह बिलकुल नहीं है कि जैन और ब्राह्मण ग्रन्थ- पाली साहित्य वर्षोंसे पब्लिक लाइबेरियोंमें मौजूद था, कारोंने बौद्धधर्मका अनुचित खंडन किया है या उन्होंने लेकिन लोगोंने उसे अभी समझना शुरु किया है बौद्ध धर्मके विषयमें जो कहा है वह भ्रमपूर्ण है । उन्हों- इत्यादि । ने 'सेक्रेड बुक्स आफ्न दि ईस्ट'में बौद्धोंके कुछ ग्रंथोंका इससे Rys. Davids का कहना यही है कि अंग्रेज़ीमें अनुवाद किया है। ये अनुवाद उन्होंने आज लोगोंकी बौद्धधर्मके विषयमें जो मिथ्या धारणायें थीं, से साठ बरस पहले यानी सन् १८८० में किये थे । इन वे अब पाली साहित्यके प्रकाशमें आने के कारण दूर की भूमिकामें W. Rys. Davids ने Gegerly होती जा रही हैं। इससे उनका आक्षेप युरोपियन तथा Burnouf आदि युरोपियन विद्वानोंकी समा. विद्वानोंपर है । जो बौद्धधर्मको ठीक ठीक न समझकर लोचना करते हुये उनकी भूलें बताई हैं। इसी सिल- उसपर टीका टिप्पणी करते हैं। इसका यह मतलब सिलेमें W. Rys. Davids ने बताया है कि जबसे कदापि नहीं कि अकलंक आदि विद्वानोंने बौद्ध धर्मका बौद्धोंका पाली साहित्य प्रकाशमें पाया है तबसे बौद्ध ग़लत खण्डन किया है। दुःख है कि ब्रह्मचारीने पूर्वाधर्मके सम्बन्धमें लोगोंको नई बातें मालूम हुई हैं और पर संबंधका ध्यान रखकर, केवल उनके एक वाक्यको लोग बौद्ध धर्मको ठीक २ समझने लगे हैं। वह उल्लेख पढ़कर अपना मत बना लिया है। निम्न प्रकारसे है:
यही बात पणिकवादके लिये भी कही जा सकती ___It is not too much to say that the है। जैन और ब्राह्मण ग्रंथकारोंने बौद्धोंके क्षणिक वादमें discovery of early Buddhism has जो कृत-प्रणाश, अकृत-कर्म-भोग, भवभंग, स्मृतिभंग placed all previous knowledge of the आदि दोष दिखाये हैं, वे कुछ निर्मूल नहीं है। क्षणिक subject in an entirely new light, and वाद बौद्ध मानते हैं। एक तरह यों कहिये कि 'क्षणिक has turned the flank, so to speak of वाद' के बिना बौद्ध धर्म टिका नहीं रह सकता। इस most of the existing literature on लिए ब्रह्मचारीजीका यह लिखना कि 'पाली प्राचीन Buddhism.I use the term "discovery" पुस्तकों में सर्व वस्तुओंको नाशवान नहीं कहा" भ्रमसे
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वव
३,
किरण ३
जैन और बौद्ध निर्वाण में अन्तर
खाली नहीं है । बौद्ध ग्रन्थोंमें एक कथा श्राती है । 'एक बार किसी चोरने एक आदमीके आम चुरा लिये । श्रामका मालिक चोरको पकड़कर राजाके पास लेगया, चोरने राजासे कहा 'महाराज, जो फल इस आदमीने लगाये थे वे दूसरे थे और जो मैंने चुराये हैं वे दूसरे हैं। अतएव मैं दण्डका भागी नहीं हूँ । इसपर राजाने कहा "यदि ग्रामोंका मालिक थाम नहीं लगाता तो तू चोरी कैसे कर सकता" इसलिए तू दण्डका भागी अवश्य है ।' कहने का अभिप्राय यह है कि उस समय भी क्षणभंगवाद मौजूद था । इसी लिये तो जैन विद्वानोंने उसमें 'श्रकृत-कर्म-भोग' नामका दोष दिया है। और वास्तवमें 'देखा जाय त यह ठीक ही है । कारण कि क्षणिकवाद बौद्धों की मजबूत भित्ति है । जिसपर अनात्मवाद और शून्यवाद नामक सिद्धांत रक्खे गये हैं । इस लिए ह मानना पड़ेगा कि क्षणिकवादका सिद्धांत पहला है। हाँ उसे तार्किक रूप भले ही बादमें दिया गया हो, जैसा कि रत्न-कीर्ति, शान्तरक्षित श्रादि बौद्ध विद्वानोंने अपने 'क्षणभंग - सिद्धि' 'तत्त्वसंग्रह' श्रादि ग्रंथों में किया है।
ब्रह्मचारीजीकी एक बात रह जाती है। वह यह कि बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणको 'प्रजातं' और 'श्रमतं' ( अमृतं ) क्यों कहा ? ब्रह्मचारीज को शायद विदेशीय विद्वानों पर बहुत श्रद्धा है । इसलिए हम इसका उत्तर Childers के शब्दों में ही देंगे | Childers द्ध धर्म एक बड़े द्वि न् हो गये हैं; उन्होंने बौद्ध धर्मका एक कोश भी लिखा है । Childers का कहना है कि बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणकी दो अवस्थायें बताई गई हैं-- एक अर्हत् अवस्था जो आनन्द स्वरूप है, दूसरी शून्यरूप -- श्रभावरूप अवस्था, जो अर्हत् अवस्थाकी चरम सीमा है ( The state of bliss
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ful sanctification and ship and the annihilation of existence in which अर्हत् ship ends.) आगे चलकर वे लिखते हैं " अब देखना है कि बौद्ध धर्मका उद्देश्य क्या है ?” " अर्हत् अवस्थाकी प्राप्ति बौद्धधर्मका अंतिम उद्देश्य नहीं है। क्योंकि अर्हत् अवस्था नित्य अवस्था नहीं है; घर्हत् श्रमुक समय बाद काल धर्मको प्राप्त होते हैं । इस बात की पुष्टिमें बौद्धग्रन्थों में सैंकड़ों उल्लेख मिलते हैं कि अर्हत् मरण के पश्चात् जीवित नहीं रहते, बल्कि उनका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है" -
But since श्रर्हत्s die, भर्हत् ship is not an eternal state, & therefore it is not the goal of Buddhims. It is almost superfluous to add that not only is there no trance in the Buddhist scriptures of the containing to exist after death, but it is deliberately stated in innumerable passages that the does not live again after death, but ceases to exist उक्त विद्वान्का कथन है कि अर्हत् अवस्था 'सो पादिसे सनिव्वाण' अथवा 'किलेस परिनिव्वाण' की अवस्था है, जिसमें सब क्लेशोंका चय हो जाता है, और जहाँ केवल पंच स्कंध शेष रहते हैं । इस अवस्थाको बौद्ध ग्रन्थोंमें 'श्रजात' 'श्रमत' 'अनुत्तर' 'कुतोभय' आदि विशेषण दिये हैं। लेकिन बौद्धोंका निर्वाण अभी इससे और धागे है । उस निर्वाणको बौद्ध ग्रंथों में 'अनुपादिलेसनिव्वाण' अथवा 'खंध परिनिव्वाण' के नामसे कहा गया है । यह वह अवस्था है, जो अहंत् अवस्थाकी चरम सीमा है । यहाँ समस्त स्कंधोंका--रूप, वेदना, विज्ञान संज्ञा और
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संस्कारका--क्षय हो जाता है। जैसे दीपका निर्वाण हो जाता है और वह शान्त हो जाता है, वैसे ही अर्हत् भी शान्त हो जाता है । उसका 'नाम रूप' कुछ भी बाक़ी नहीं रहता, उसका 'भाव निरोध' हो जाता है । यह ऐसी अवस्था है जिसकी उपमा 'शब्द रहित भग्न घंटे' ( noiseless broken gong ) से दी गई है
ट जाने से निःशब्द हो जाता है, वैसी ही अवस्था निर्वाण प्राप्त करने पर अर्हतुकी भी हो जाती है । श्रागे चलकर Childers ने स्पष्ट लिखा है ।
"A great number of expressions are used with reference to fat which leave no room to doubt that it is the absolute extinction of being, the annihilation of the individual being. ...The Simile of fire is the strongest possible way of expressing annihilation intelligibly to all"
र्थात् बौद्ध ग्रन्थों में जो निर्वाणके सम्बन्ध में उल्लेख आते हैं, उनसे यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता है कि अस्तित्व पूर्ण विनाशकी अवस्था ही निर्वाण है ।... तथा श्रमिके बुझनेकी जो निर्वाणसे उपमा दी गई है, वह शून्यत्व के अभावको व्यक्त करनेका सबसे ज़ोरदार तरीका है ।
हम यहां यह बता देना चाहते हैं कि हरेक धर्म और दर्शन में अलग विशेषतायें हुया करती हैं। जैसे वेदान्तकी विशेषता ब्रह्मवाद है, जैनदर्शनकी स्याद्वाद है, वैसे ही बौद्ध धर्मकी विशेषता क्षणिकवाद और शून्यवाद में ही है । जैसे ब्रह्मवाद और स्याद्वादके निकाल देने पर वेदान्त और जैनदर्शन में कुछ नहीं रह जाता, वैसे ही क्षणभंगवाद और शून्यवादके निकाल देने पर बौद्धधर्म में कुछ नहीं रहता। इतना ही नहीं, बल्कि क्षणवाद और शून्यवादके सिद्धांत, बौद्धदर्शन में बहुत अच्छी तरह 'फिट' होते हैं । हम इन वादोंकी परस्पर तुलना अवश्य कर सकते हैं, किन ब्रह्मवाद, शून्यवाद
अनेकान्त
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और जैनियोंका निर्वाण आदि सबको एक नहीं बता सकते । महायान सम्प्रदायने शून्यवादको 'अन्तद्वयरहित' 'चतुस्कोटिविनिर्मुक्त' 'मध्यम प्रतिपदा' श्रादि विशेषण देकर उसे ब्रह्मवादके अत्यन्त समीप लानेका प्रयत्न किया, जिसका फल यह हुआ कि कालांतर में महायान अपना स्वतन्त्र अस्तित्व ही खो बैठा । कारण स्पष्ट है कि जब तक कोई वस्तु अद्भुत अथवा नई होती है, तभी तक लोगोंका ध्यान उसकी थोर श्राकर्षित होता है। ख़ैर !
इसके अलावा यह भी ध्यान रखनेकी बात है कि इस तरह तो वेदान्त, सांख्य आदि दर्शनोंके मोक्ष सि. द्धान्तको और जैन दर्शनके मोतसिद्धान्तको भी एक मानना चाहिये, क्योंकि ये सब दर्शनकार भी मोतको अचल, स्थिर आदि मानते ही हैं।
असल में बात तो यह है कि ब्रह्मचारी जी अपना मत बनाने में जल्दी बहुत करते हैं । जहाँ उनको कोई बात दिखाई दी, वे झट, उस पर अपना निर्णय दे डालते हैं, उसपर अधिक विचार नहीं करते । जब ब्रह्मचारी जी 'जैन-बौद्ध-तत्वज्ञान' जैसी महत्व पूर्ण पुस्तक लिखने बैठे, तब उन्हें बौद्ध शास्त्रोंका काफ़ी समय तक अभ्यास अवश्य करना चाहिये था । उनको, बौद्ध शास्त्रों में श्रात्मा मोक्ष यदि सम्बन्ध जो अनेक प्रकारके भिन्न भिन्न उल्लेख आते हैं, उन सबको एकत्रित कर उनपर विचार जरूर करना चाहिये था | बादमें जैनधर्मसे मिलान करनेकी जिम्मेवारीका काम अपने सिर पर उठाना उचित था । अन्तमें हम यह भी बता देना चाहते हैं कि इस विषय की चर्चा करने में हमारा जरा भी अन्यथा भाव नहीं है। बल्कि ब्रह्मचारीजी के प्रति हमारा बहुत श्रादरका भाव है । हम यही चाहते हैं कि ब्रह्मचारी जी अपने ग्रहको छोड़ दें । 'जैन और बौद्ध धर्म एक नहीं हैं— कमसे कम श्रात्मा और निर्वाण सम्बन्धी मान्यताएँ तो उनकी बहुत ही भिन्न हैं । यदि ब्रह्मचारीजी इस बातको मान जाएँ तो हम अपना परिश्रम सफल समझेंगे ।
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টুজি সুভুক্ষু জ্ঞপ্রিব্লজার স্থিতি
[सम्पादकीय] गातो संसारमें बराबर संयोग-वियोग चला और उनका शुभ नाम है मुनिश्री 'चतुरविजय' जी
करता है। हजारों मनुष्य प्रतिदिन जन्म लेते आपका जन्म प्राग्वाट (नीसा पोरवाड) जातिमें हैं और हजारों ही मरणको प्राप्त हो जाते हैं । जो बड़ौदाके पासके छाणी गाँवमें चैत्र शुक्ला प्रतिजन्मा है उसको एक दिन मरना जरूर है, ऐसा पदा विक्रम संवत् १९२६ के दिन हुआ था । अटल नियम होते हुए किसीका भी वियोग कोई आपका गृहस्थ जीवनका नाम चुनीलाल था, माता
आश्चर्यकी वस्तु नहीं और न वह प्राज्ञोंके दृष्टि- का नाम जमनाबाई और पिताका नाम मलुकचन्द कोणानुमार दुःख शोकका विषय ही होना चाहिये, था। और भी आपके तीन भाई तथा तीन बहिने फिर भी जिनका सारा जीवन सेवामय व्यतीत थीं। करीब २० वर्षको अवस्थामें ज्येष्ठशुक्ला होता हो और जो खासकर साहित्य-सेवाके द्वारा दशमी वि० सं० १६४६ को आपने श्री विजयानन्द निरन्तर ही स्थिर लोकसेवा किया करते हों उनका सूरि ( आत्माराम ) जी के साक्षात् शिष्यप्रवर्तक अचानक वियोग साहित्य प्रेमियों, साहित्य सेवियों, मुनि श्रीकान्तिविजयजीक पास बड़ौदा रियासत साहित्यसे उपकृत होनवालों एवं साहित्य संसार के डभोई नगरमें दीक्षा ग्रहणकी थी, और उसी को बहुत ही अखरता है, और इसलिये सभी उनके समय आपका नाम 'चतुरविजय' रक्खा गया था। प्रति श्रद्धांजलि अर्पण करके अपनी कृतज्ञता व्यक्त दीक्षासे पूर्व आपकी शिक्षा गुजरातीकी प्रायः किया करते हैं । ऐसा ही एक कर्तव्य आज मेरे ७ वीं कक्षा तक ही हुई थी और उस समय आप सामने भी उपस्थित है जिसका पालन करता पुरानी रीतिके हिसार कताबमें भी निपुण थे । हुआ मैं 'अनेकान्त' के पाठकों को एक ऐसे महाम् शेष सब शिक्षा आपकी दीक्षाके बाद हुई है, जिससाहित्य-सेवीका कुछ परिचय कराना चाहता हूँ का प्रधान श्रेय उक्त प्रवत्तकजी को है,जो आज भी जिनका हालमें ही -१ली दिसम्बर सन् १९३६ को अपनी वृद्धावस्थामें मौजूद हैं। आपने संस्कृत, ७० वर्षकी अवस्थामें सेवा करते करते पाटन शह- प्राकृत, अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओंका तथा रमें देहावसान हुआ है।
काव्य, छंद, अलंकारादि-विषयक कितने ही शास्त्रोंसाहित्यसेवी दो प्रकारके होते हैं,-एक वे जो का अभ्यास किया था। न्यायका भी थोड़ासा लोकोपयोगी नतन पुष्ट साहित्यका सजन (निर्माण) अभ्यास किया था,आगमिक एवं शास्त्रीय विषयों के करते हैं और दूसरे वे जो ऐसे पुरातन साहित्यका साथ सम्बन्ध रखनेवाले अनेक प्रकरण ग्रन्थोंका संशोधन, संरक्षण, सम्पादन और प्रकाशन किया अध्ययन करके आपने उन्हें कण्ठस्थ कर लिया करते हैं । जिन महानुभावका यहाँ परिचय कराना था और प्राय: सभी मुख्य मुख्य आगम ग्रंथोंको है वे प्रायः दूसरी कोटिके साहित्य-सेवियोंमेंसे थे, देख डाला था, इससे आगमिकादि विषयों में
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आपका प्रवेश अति गम्भीररूप धारण कर गया था ।
न्यायशास्त्रादि विषयक अभ्यास कम होनेपर भी, रात दिन सतत स्वाध्याय परायण होने से, प्रायः प्रत्येक विषयमें आपका अच्छा अनुभव होगया था । सामान्यतया किसीको ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि आपका इन विषयों में कम अभ्यास है ।
जहाँ कहीं भी आप रहते थे आपका दिन-रात विद्या- व्यासंग चलता था। आपके स्वभाव में नम्रता, कार्य में सतर्कता, परिणतिमें सत्यग्राहिता और व्य बहार में शुद्धता थी । साथ ही, आपके हृदयमें सदैव जिज्ञासावृत्ति और शास्त्रोद्धारकी उत्कट भावना बनी रहती थी । सत्र के साथ आपका प्रेमका बर्ता था और आप दूसरे साहित्यसेवियों को यथाशक्य अपना वाँछित सहयोग प्रदान करनेमें कभी आना-कानी नहीं करते थे । इन्हीं सब गुणोंके कारण मुनिजिनविजय और पं० सुखलालजी जैसे प्रकाण्ड विद्वान आपके प्रभाव से प्रभावित थे । पं० सुखलालजीने हाल में जो आपके कुछ संस्मरण 'प्रबुद्ध जैन ' नामके गुजराता पत्र में प्रकट किये हैं उनमें इस बात को स्वीकार किया है और स्पष्ट लिखा है कि- " आपकी नम्रता, जिज्ञासा और 'निखाताने मुझे बाँध लिया इस सत्यग्राही प्रकृतिने मुझे विशेष वश किया। पुस्तकों का संशोधन और सम्पादन कार्य करने में मुझे जो अनेक प्रेरक बल प्राप्त हुए हैं उनमें स्वर्गवासी मुनि श्री चतुरविजयजीका स्थान खास महत्व रखता है, इस दृष्टि मैं उनका हमेशा कृतज्ञ रहा हूँ ।"
आजसे कोई २०-२५ वर्ष पहले आप मुद्रित ग्रंथोंकी प्रस्तावना संस्कृत भाषा में ही लिखा करते
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थे । एकबार पं० सुखलालजीने उसकी अनुपयोगिता व्यक्त करते हुए कड़ी आलोचना की, जिसे आप कोई खास विरोध न करते हुए, पी गये और उसके बाद से ही आपने संस्कृत में प्रस्तावना लिखनेकी पृथाको प्राय: बदल डाला, जिसके फलस्वरूप उनके तथा उनके शिष्य के प्रकाशनों में आज अनेक महत्वकी ऐतिहासिक वस्तुएँ गुजराती भाषाद्वारा जाननी सुगम होगई हैं, ऐसा पं० सुखलालजी अपने उक्त संस्मरणात्मक लेख में सूचित करते हैं । और यह स्व० मुनिजीकी सत्याग्राही परिणतिका एक नमूना है, जिसने पं० सुखलालजीको विशेष प्रभावित किया था । अस्तु ।
अनेकान्त
सद्गत मुनि श्री चतुरविजयजी के जीवनका प्रधान लक्ष प्राचीन साहित्यकी सेवा था, जिसके लिये आप दीक्षा से लेकर अन्त समय तक — - कोई ५१ वर्ष पर्यंत - बड़ी ही तत्परता और सफलता के साथ बराबर कार्य करते रहे हैं। आप जहां कहीं भी जाते थे पहले वहां के शास्त्र भंडारोंकी जांच पड़ताल करते थे, जो भंडार अव्यवस्थित हालत में होते थे उनकी सुव्यवस्था कराते थे, ग्रन्थों की लिस्ट सूची तैयार करते थे, ग्रन्थोंको टिकाऊ कागज के कवर में लिपटवाते, गत्तोंके भीतर रखाते और अच्छे वेष्टनों में बंधवाते थे, उन पर लिस्ट के अनुसार नम्बर डालते थे और उन्हें सुरक्षित अलमारियों, पेटियों अथवा बोक्सों में क्रमशः विराजमान करते थे । जो ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होते थे अथवा अलभ्य और दुष्प्राप्य जान पड़ते थे उनकी सुन्दर नई कापियाँ स्वयं करते और कराते थे ! दूसरेकी की हुई कापियोंका संशोधन करते थे, इस तरह आपके द्वारा तथा आपकी प्रेरणाको पाकर
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वर्ष ३, किरण ३]
एक महान साहित्यसेवीका वियोग
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छोटे बड़े सैंकड़ों शास्त्र भण्डारोंका उद्धार हुआ 'भारतीय जैनश्रमण संस्कृति अने लेखनकला' नाम है और वे जनताके लिये उपयोगी तथा विद्वानों- की जो महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है वह सब आपके के लिये सरलतासे काम आने योग्य बने हैं। ही लेखनकला-विषयक अनुभवोंका फल है, ऐसा पाटन, बड़ौदा और लिम्बड़ी आदिके जो बड़े बड़े मुनि पुण्यविजयजी अपने पत्रमें सूचित करते हैं। ज्ञान भण्डार आज सुव्यवस्थित अवस्थामें पाये इस परसे उक्त पुस्तकका परिचय करने वाले जाते हैं, उनकी सुव्यवस्थित सूचियाँ बनकर प्रका- विद्वान इस बातका सहजमें ही अनुभव कर सकते शित हुई हैं और जगत उनसे जो आज भारी हैं कि श्री चतुरविजयजीको लेखनकला और लाभ उठा रहा है वह सब आपके और आपके लिपियोंके विकासादि विषयक कितना विशाल गुरुदेव प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराजके तथा गम्भीर परिज्ञान था । और यह सब उन्हें परिश्रमका ही फल है--इस कार्यमें सबसे अधिक उनके हजारों हस्तलिखित ग्रन्थोंके अवलोकन हाथ आपका ही रहा है।
और मनन परसे ही प्राप्त हुआ था। __ आपने सैंकड़ों ग्रन्थोंकी प्रतियाँ अपने हाथसे समाजमें मुद्रण कलाके प्रचारका प्रारम्भ होने लिखी हैं और दूसरोंकी लिखी हुई प्रतियोंका संशो- पर आपने ग्रंथोंके प्रकाशनकी ओर खास ध्यान धन किया है । संशोधन कार्यमें आप खूब दक्ष थे, दिया था और यह काम आपका साहित्य सेवा आपको प्राचीन लिपियोंकी ठीक वाचनकला की ओर दूसरा महान क़दम था । इसके फल स्वआती थी । और इसी तरह प्रति लेखन-कलामें भी रूप ही आत्मानन्द जैन सभा भावनगरकी ओरसे आप निपुण थे । आपकी हस्तलिपि बड़ी ही सुन्दर 'आत्मानन्द जैनग्रन्थरत्नमाला' का निकलना एवं दिव्य रूपा थी, आपने बहुतसे लेखकोंको प्रारम्भ हुआ। इस ग्रन्थमालाके आप मुख्य प्राण अपने हाथतले रखकर उन्हें लेखन-कला सिखलाई ही नहीं किन्तु सर्वस्व थे। ग्रन्थमालामें अब तक है, कई अच्छे मर्मज्ञ लेखक तैयार किये हैं और ८८ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से बृहत्कल्प उनसे हजारों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ कराई हैं । अपने सूत्रादि कितने ही ग्रन्थ बड़े महत्वके हैं। इन ग्रंथों लिखे हुए और अपने हाथके नीचे दूसरोंसे लिखाये में से अधिकांशका सम्पादन आपके द्वारा तथा हुए तथा अपने द्वारा संशोधित हुए ग्रन्थोंका एक आपके प्रभावसे हुआ है । आप क़रीब २९ वर्ष बहुत बड़ा समूह आपने पं० श्रीकान्तिविजयजीके तक ग्रन्थमालाका सतत कार्य करते रहे हैं ! इस नाम पर स्थापित बड़ौदा और छाणीके ज्ञान समय कई ग्रन्थोंकी प्रेस कापियां छपानेके लिये भण्डारोंमें स्थापित किया है । बड़ौदाका भंडार तैयार मौजूद हैं, बृहत्कल्पके ( जिसके पांच खंड इतना अधिक पूर्ण और उपयोगी संग्रह लिये हुए निकल चुके हैं ) पूरा छप जानेके बाद आपका है कि पं० सुखलालजीने उसे 'चाहे जिस विद्वान्का विचार 'निशीथसूत्र' तैयार करनेका था और फिर मस्तक नमानेके लिये काफी' लिखा है । कथारत्नकोश तथा मलयगिरि-व्याकरण आदि
आपके शिष्योत्तम मुनि श्री पुण्यविजयजीने दूसरे भी अनेक ग्रन्थोंको हाथमें लेनेका विचार
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थां, ऐसा मुनिपुण्यविजयजी सूचित करते हैं। ही समान बना जाना। मुनि पुण्यविजयजी १३ _'प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी ऐतिहासिक ग्रन्थ वर्षकी अवस्थामें आपके श्रीचरणों में आकर माला' भी आपके ही प्रभावसे चलती थी जिसमें दीक्षित हुए थे। और आज उन्हें करीब ३१ वर्ष मुनि श्री जिनविजयजीके द्वारा सम्पादित होकर आपके सत्संग एवं अनुभवोंसे लाभ उठाते और विज्ञप्तित्रिवेणी, कृपारसकोश, प्राचीन जैनलेख- आपके साथ काम करते होगये हैं । आपने पुत्रकी संग्रह आदि कितने ही महत्वके ऐतिहासिक ग्रंथ तरह उनके पालन तथा शिक्षणादिका बड़ा ही प्रकाशित हुए हैं।
सत्त्रयत्न किया है, और यह सब उसीका सत्फल ____ गायकवाड ओरियंटल सिरीजमें प्रकाशित है जो आज उनमें आपके प्रायः सभी गुण मूर्ति
ह पराजय' का सम्पादन भी आपका ही किया मान तथा विकसित नज़र आते हैं और वे आपके हुआ है। और भी कई ग्रन्थमालाओंमें आपने सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अभिमान उन्हें छूकर ग्रन्थ सम्पादनका कार्य किया है। श्राद्धगुण विव- नहीं गया, वही सेवाभावकी स्पिरिट उनके रोम रणका गुजराती अनुवाद भी आप कर गये हैं। रोममें बसी हुई है और वे दूसरे साहित्यसेवियों अनेक विद्वानोंको साहित्य सेवाके कार्यो में आप को उनके कार्यमें सहयोग प्रदान करना अपना अच्छी सहायता दिया करते थे। आपके ही द्वारा बड़ा कर्तव्य समझते हैं। मुझे समय समय पर देश-विदेशके अनेक विद्वानोंको पाटनके भंडारोंके आपसे अनेक ग्रन्थोंकी सहायता प्राप्त होती रही दर्शन और अनेक अलभ्य ग्रंथोंका सिलना सुलभ है। अभी 'जैन लक्षणावली' के लिये कुछ ग्रन्थ हा है। आपके गुरु श्रीकान्तिविजयजीके उपदेश कीमतसं भी कहींसे नहीं मिल रहे थे, से निर्मित हुए 'हेमचन्द्राचार्य-जैनज्ञानमन्दिर' का उन्हें भावनगर तथा बड़ौदासे भिजवाया और जो उद्घाटनोत्सव पाटनमें गत अप्रैल मासमें लिखा कि जब तक आपका कार्य पूरा न हो जाय हुआ था और जिसका परिचय अनकान्तकी तब तक आप उन्हें खुशीसे रख सकते हैं। इस पिछली ७वीं किरणमें दिया जा चुका है उसमें भी उदार व्यवहारके लिये मैं उनका बहुत आभारी आपका प्रधान हाथ रहा है।
हूँ। ऐसे सत्पात्रको अपने उत्तराधिकारमें देकर ___इस तरह मुनि श्रीचतुरविजयजीने अपनी स्व० मुनि श्रीचतुरविजयजीने बड़ी ही चतुराईका ५१ वर्षकी लम्बी प्रव्रज्या-पर्यायमें ग्रन्थोंके संशो- काम किया है और अपने सेवा कार्योंके धन, संरक्षण, सम्पादन और प्रकाशनादिके द्वारा भव्य भवन पर सुवर्णकलश चढ़ा दिया है । और प्राचीन साहित्यके उद्धाररूपमें बहुत बड़ी साहित्य इसलिये आपके अवसानसे साहित्य ससारको सेवा की है । शरीरके निर्बल हो जानेपर भी जहां बहुत बड़ी क्षति पहुँची है वहाँ आपकी इस आपने अपना यह सेवाकार्य नहीं छोड़ा, आप प्रतिमूतिपूजाको देखकर सन्तोष होता है और युवकों जैसा उत्साह रखते थे और इसलिये जीवन भविष्यके लिये बहुत कुछ आशा बधती है । के प्रायः अन्त समय तक–अन्तिम एक सप्ताहको इस सत्प्रवृत्तिमय जीवनसे दिगम्बर जैनछोड़कर आप अपने उक्त कर्तव्यका पालन करते समाजके मुनिजन एवं दूसरे त्यागीजन यदि कुछ हुए और साथ ही संयमी जीवनका निर्वाह करते शिक्षा ग्रहण करें और दि० जैन साहित्य के उद्धार हुए परलोकवासी हुए हैं।
का बीड़ा उठावें और उसे अपने जीवनका प्रधान ... इस सब सेवाकार्य के अतिरिक्त और भी लक्ष बनावें, तो कितना अच्छा हो ?
जो बड़ा कार्य आपने अपने जीवनमें किया है बीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०२०-१-१९४० वह अपने शिष्य मुनिपुण्यविजयजी को अपने
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वीर-सेवा-मन्दिरको सहायता
हाल में वीरसेवामन्दिर सरसावाको २८) रु० की सहायता निम्न सज्जनोंकी ओरसे प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार-महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं:
५) पं० वन्शीधर जी जैन व्याकरणाचार्य बीना जि० सागर ५) ला० वन्शीधर सुमेरचन्द जी जैन, बैलनगंज, आगरा (चि० प्रतापचन्दके विवाहको खुशीमें) ५) दिगम्बर जैन समाज, पानीपत (दशलक्षण पर्व पर दानमें निकाली हुई रकममेंसे) ५) बा० मुख्तारसिंहजी जैन बी. ए. सी. टी. असिस्टेंट मास्टर गवर्नमेंट हाई स्कूल, मुजफ्फर
नगर (माताजीके स्वर्गवासके उपलक्षमें निकाले हुए दानमें से)।
अधिष्ठाता वीर-सेवा-मन्दिर
सरसावा जि० सहारनपुर
महावीर
सरल-जैन-ग्रन्थमाला, जबलपुर
बालकों का सचित्र हिन्दी मासिक पत्र है। की ही पुस्तकें आज प्रायः सभी जैन स्कूलों और इसमें हिन्दी संसारके सुप्रसिद्ध लेखकों और पाठशालाओं में पढ़ाई जाती हैं। पुस्तके मँगाते कवियोंकी सुन्दर रचनाये रहती हैं । बालकोपयोगी रोचक और अनूठी गद्यपद्य पुस्तकोंके लेखकोंको
समय ध्यान रखिये कि वे 'सरल जैनग्रन्थमाला' समुचित पुरस्कार दिया जाता है।
द्वारा प्रकाशित हैं। १२) की पुस्तके मँगाने पर
"महावीर"बालमासिक पत्र साल भर बिना मूल्य आज ही ग्राहक बनिये । वार्षिक मूल्य सवा रुपया और एक प्रतिका दो आना।
मिलेगा। पता-महावीर, जबलपुर आज ही आर्डर भेजिये।
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________________ Regd. No. L. 4328 अन्धोंको बस्ती = [-“माहिर" अकबराबादी] यह दुनिया भी इलाही किस कदर नादान दुनिया है / यहाँ हर चीज़ पर बातिल का इक नापाक परदा है। यहाँ हर वक्त जुल्मोजोरका इक शग्ल जारी है / यहाँ खुश रहके भी इन्सान व आहोजारी है // यहाँ नादार को नादार कहना इक कयामत है / यहाँ कल्लाशको ज़रदार कह देना मुरव्वत है / यहाँ जुहदो तकुद् सको समझते हैं रियाकारी / यहाँ दींदारियोंका नाम है ऐने गुनहगारी // यहाँ हर झठको सच और सचको झठ कहते हैं। यहाँ इन्सानियतके भेसमें शैतान रहते हैं // यहाँ मुल्लाए मस्जिद ही है ठेकेदार जन्नतका / यहाँ इसके सिवा हासिल किसे है हक़ इबादत का // यहाँ दिलदारियोंका रूप भरती है जफाकारी / वही है यारे सादिक जिसको आए कारे ऐय्यारी // वही है दोश्त जो साथी हो शग्ले ऐशो इशरत में / जो नेकीकी तरफ ले जाए दुशमन है हकीकत में // यहाँ हँसनेको सब हँसते हैं बेकारोंकी किस्मत पर / मगर रोना नहीं आता है बेचारोंकी किस्मत पर / / यहाँ की रीतको देखा यहाँको प्रीतको समझा। खदाको भल जाए जो वही है आकिले दाना / चल इस बस्ती से ऐ माहिर' यह इक अन्धोंकी बस्ती है। यहाँ हर गुल को बढ़ बढ़ कर ज़बाने खार डसती है / / वीर प्रेस श्रॉफ इडिए पा कनॉट सर्कन, न्यू देहल