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________________ २१८ अनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ सुख ! बात कर सकनेका अवसर उसे स्वतः ही कुछ देर ! इच्छा पर काबू किए हुए ! किन्तु... मिला ! अविलम्ब, यथा-साध्य स्वरको मृदु बनाते विचार आया-'व्यर्थ बैठनेसे क्या लाभ ? तबहुए बोला-'हाँ, हाँ! अवश्य...! लेकिन एक तक हल चलानेका अभ्यास किया जाए तो कैसा? शर्त है-- ...!' खाली पड़ा है-वह !' दरिद्रताने बात परी करनेका साहस छीन हृदयकी उत्कण्ठाने प्रस्तावका समर्थन किया ! लिया ! हृदय विवश ! धन्यकुमार क्षण-भर चुप, वह आगे बढ़ा ! हल चलाने लगा !... देखता-भर रहा उसकी ओर ! शर्त' सुनाना उसके टिख ! टिख !! टिख !!! लिए अब अनिवार्य था-कलाकार जो बनना था ! हलवाहकका सर्वांग-अनुसरण था ! निरापबोला--'क्या ? राध पृथ्वीका वक्षस्थल विदीर्ण होने लगा ! हलमें हलवाहकको प्रोत्साहन मिला ! बचे-खुचे लगा हुआ नुकीला-लोह करने लगा अपनी निर्दधैर्यको बटोर कर कहने लेगा- ..."यही कि आप यताका सफल-प्रदर्शन ! ... मेरा आतिथ्य स्वीकार करें ? मैं भी उच्च-वर्ण-श्रा- बैल, नवीन-हलवाहकके संरक्षकत्वमें चारक-ही हूँ !...' छह कदम ही आगे बढ़े थे, कि......! और देखने लगा संशयात्मक-दृष्टि से धन्य- ठक्"! कुमारके भव्य-मुखकी तरफ़ ! जैसे अपनी प्रान्त- रुक गया हल !"क्या हुआ ? धन्यकुमार रिकताकी पूर्ति खोज रहा हो !... देखने लगा-हलके रुकनेका आकस्मिक-सबब ! एक छोटी-सी नीरवता ! देखा-'पृथ्वीके गर्भमें एक कढाह-दानवकी पाहा कि आतिथ्यको अस्वीकार करदें ! ले- तरह-हल के मार्गमें बाधक बना अड़ा हुआ है ! किन कला-शिक्षणका लोभ...?-कहना पड़ा-- खोद कर निकाल बाहर करनेके विचारसे वह 'स्वीकार है मित्र!' मिट्टी हटाने लगा नवनीत जैसे कोमल हाथोंसे ! "पर......? 'आप विराजिए--ज़रा ! मैं पात्र बनानेके आश्चर्य-सीमा लाँघने लगा ! कढ़ाहमें अपार लिए पल्लव एकत्रित कर लाऊँ--तबतक !' हलवा- धन-राशि भरी हुई थी ! “सोचने लगा भोला-सा हकने बैठने-योग्य स्थानकी ओर संकेत करते हुए, धन्यकुमार-..'अनधिकार चेष्टा थी मेरी ! विना स-भक्ति निवेदन किया! उसकी आज्ञाक हल छूना ही नहीं चाहिए था'अच्छा !' -धम्यकुमार बैठ गया ! भोजन मुझे ! छिपाकर रखा हुआ-धन मैंने व्यक्त कर भार मालुम हो रहा था--और विलम्ब असह- दिया ! अवश्य, असन्तुष्ट होगा-वह !!... नीय ! पर विवशता सामने अड़ी थी ! लेकिन पश्चातापसे झुलसे हुए मनने तिलमिला दिवा दृष्टि थी हल-बैल पर !... उसे ! जल्दी-जल्दी मिट्टी डालकर छिपाने लगा ! 'हलवाहक चला गया ! धन्यकुमार बैठा रहा, और जैसेका तैसा करा -बैठा अपने स्थान पर !
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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