________________
जैनधर्मकी विशेषता
वर्ष २, किरण ३ ]
मुनिका जीवन सर्वथा आध्यात्मिक जीवन है, लौकिक जीवनका उसमें लेश भी नहीं है, इस कारण वह शरीर को किंचित मात्र भी धोता मांजता नहीं है। ऋणुव्रती का जीवन धार्मिक और लौकिक दोनों ही प्रकार मिश्रित रूप होता है, जितना २ वह धार्मिक होता है, उतना २ तो वह शरीरको धोता मांजता नहीं, किंतु विषय कषायों के ही दूर करनेकी फिक्र करता है और जितना २ वह लौकिक हो जाता है, उतना २ वह शरीरको भी सुँदर नाता है और अन्य प्रकार भी अपनी विषय कषायोंको पुष्ट करता है । इस अणुव्रती श्रावकको शास्त्रकारोंने दूसरी प्रतिमासे ग्यारहवीं प्रतिमातक दस श्रेणियों में विभाजित किया है । इन श्रेणियों में उत्तरोत्तर जितनी २ किसीकी लौकिक प्रवृत्ति कम होती जाती है और अध्यात्म बढ़ता जाता उतना ही उतना शरीरका धोना मांजना सिंगार करना और पुष्ट करना भी उसका कम होता जाता है । ब रहा पहली प्रतिमा वाला जो श्रद्धानी तो होगया है किन्तु चरित्र अभी कुछ भी ग्रहण नहीं किया है। किंचित् मात्र भी जिसने अभी त्याग नहीं किया है, किंतु त्याग करना चाहता ज़रूर है, वह नित्य प्रति शरीरको धोता, मांजता, शृंगार करता और पुष्ट करता ज़रूर है । अन्य भी सब प्रकारकी विषयकषायों में पूर्ण रूपसे लगा भी जरूर होता है परन्तु इन को धर्म विरुद्ध और लोक साधना मात्र समझ कर त्यागना जरूर चाहता है इससे भी घटिया जिसको धर्म का श्रद्धान ही नहीं हुआ है, निरा मिथ्यात्वी ही है वह तो अपनी विषय कषायोंकी पुष्टिको श्रौर अपने शरीर को धो-मांजकर सुंदर रखने और पुष्ट बनानेको ही अपना मुख्य कर्त्तव्य और अपने जीवनका मुख्य ध्येय समझता है ।
अब जरा खाने पीनेकी शुचिक्रियापर भी ध्यान
२३१
दीजिये और जाँच कीजिये कि इस विषय में भी हिन्दु धर्म और जैनधर्म में क्या अन्तर है। हिन्दुत्रोंके महा मान्य ग्रन्थ मनुस्मृति में हर महीने पितरोंका श्राद्ध करना और उसमें मांसका भोजन बनानेकी बहुतही ज्यादा ताकीदकी गई है और यहांतक लिखा है कि श्राद्धसे नियुक्त हुआ जो ब्राह्मण मांस खानेसे इन्कार करदे वह इस महा अपराधके कारण हरबार पशु जन्म धारण करेगा उनके इस ही महामान्य ग्रन्थमें यह भी लिखा है कि यदि कोई द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लहसुन और अन्य भी अनेक बनस्पति जिनका ब्यौरा उसमें दिया है खाले, खाना तो दूर रहा खानेका मनमें विचार भी कर ले तो वह पतित हो जाता है । अर्थात् बिना प्रायश्चितके शुद्ध नहीं हो सकता है । अब विचार कीजिये कि यह दोनों कथन कैसे संगत होसकते हैं ब्राह्मण व अन्य वे जातियां जो माँस खाना उचित मानती हैं बहुधा शिकारी कुत्तोंसे या अन्य शिकारी जानवरोंसे मारा हुत्रा पशु पक्षी, इसी प्रकार चांडाल श्रादि व्याधोंसे मारा हुआ मांस शुद्ध समझती हैं और ग्रहण कर लेती हैं, मुसलमान क़साईकी दुकानसे बकरेका मांस भी ले जाती हैं परन्तु वह मांस कपड़े उतारकर ही पकाया और खाया जावेगा, यहांतक कि जिस चौकेमें वह मांस पकता हो, उस चौके की धरतीको भी यदि कोई उन्हींकी जातिका पुरुष शुद्ध कपड़े पहने हुए भी छूदे तो सारी रसोई भ्रष्ट हो जावेगी,
सभी हिन्दु, जिनमें अब बहुतसे जैनी भी शामिल हैं, चौकेसे बाहर कपड़े पहने हुए यहाँ तक कि कोई २ तो जूते पहने हुए भी पानी दूध, चाय और ग्राम अमरूद अंगूर अनार आदि फल तथा और भी अनेक पदार्थ खा पी लेते हैं । इस ही प्रकार बहुधा हिन्दु और जैनी जो मुसलमान के घरका दूध और घी खाते हैं वे भी रोटी चौकेसे बाहर खानेसे पतित समझे जाते हैं ।