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________________ २३० अनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ एक लौकिक या सांसारिक और दूसरा धार्मिक या श्रा- पोंछते ही हैं । जो अांखों और दांतों तकका भी मैल नहीं ध्यात्मिक । लौकिक जीवन जो कोई जितना भी अधिक छुड़ाते हैं । जो सजे सजाये महल मकान, अत्यंत जगपरिग्रही, अधिक सम्पत्तिवान् वैभवशाली, ठाठ बाट और मगाती और चहल पहल करती हुई मनुष्योंसे भरी शान शौकतसे रहने वाला, साफ सुथरे, चमक दमक आबादी, साफ सुथरी रहने वाली सुंदर २ स्त्रियां और और तड़क झड़कके सामानसे सुसज्जित, अनेक महल सब ही वैभव छेड़कर जंगलमें जा विराजते हैं, धरती मकान, बाग़ बग़ीचे, हाथी घोड़े, नाल की पालकी, नौकर पर सोते हैं, खाकपर लेटते हैं, सर्दी, गर्मी, डांस मच्छर चाकर बांदी गुलाम रखने वाला । अनेक प्रकारकी के दुख सहते हैं और कुछ भी परवाह नहीं करते हैं । सुंदर २ स्त्रीरत्नोंसे जिसके महल भरे हुये, अनेक देशों लौकिक साधना वालेको तो अपनी इन्द्रियों और और अनेक राजाओंपर जिसकी हकूमत चलती हो । देश कषायोंको पुष्ट करना होता है,इस कारण वो अपने शरीविदेश विजय करता फिरता हो, बड़ा भारी जिसका दब- रको भी साफ और सुंदर बनाये रखनेकी कोशिश करता दबा हो वही बड़ा है, पज्य है और प्रशंसनीय है, स्तुति है और अपने महल मकान और अन्य सब वस्तुओंको और विरद गानेके योग्य है । वह अपने शरीरसे जितनी भी झाड़ता पौंछता रहता है वह तो अपनी प्यारी स्त्रियों भी ममता करे थोड़ी है । शरीरकी पुष्टिके वास्ते सत्तर नौकरों चाकरों और हाथी घोड़ों आदि पशुओंको भी प्रकारके भोजन खाता हो। अनेक वैद्य जिसके लिये साफ़ सुंदर देखना चाहता है, इस कारण आप भी अत्यंत पौष्टिक और सुस्वादु औषधियां बनानेमें लगे बार २ नहा-धोकर सुंदर २ वस्त्रों और अलंकारोंसे रहते हों, अनेक चाकर और चाकरनियां जिसके शरीर सुसज्जित होता है और अपनी स्त्रियों, नौकरों, पशुत्रों, को चिकना मुलायम और सुंदर बनानेमें नाना प्रकारके महल मकानों, और सभी सामानको धो-पूछकर साफ . तेलों और उबटनोंसे उसके शरीर का मर्दन करें, दिन में कराता रहता है और तरह २ के सामानसे सजाता कई २ बार नहलाते रहते हों और कई२ बार नवीन रहता है । इसके विपरीत अध्यात्म-साधना वालेको वस्त्र बदलते रहते हों, उस ही का संसारी जीवन सबसे अपने शरीर और तत्सम्बन्धी अन्य सब ही भोगों तथा उत्कृष्ट और बढ़िया है। सब ही सामानसे मुँहमोड़ एक मात्र अपनी आत्माको . परन्तु आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन इससे बिल- रागद्वेष और विषय कषायोंके मैलसे दूर कर शुद्ध और कुल ही विपरीत है । वह जीवन सबसे उत्कृष्ट तो साधु- पवित्र बनानेकी ही धुन होती है । ओं का होता है, जिनके पास परिग्रहके नामसे तो एक इस प्रकार जैन-धर्मके अनुसार तो जितना भी कोई लँगोटी मात्र भी नहीं होती है । शास्त्र तो धर्मका ज्ञान शरीरका मोह छोड़, उसके प्रति सदा अशुचि भावना प्राप्त करनेके लिये, पीछी जीव जन्तुओंके प्राण संयम रख, उसके धोने, मांजने और साफ व शुद्ध करने के के लिये और कमण्डलमें पानी टट्टी जाकर गुदा सान बखेड़ेमें न पड़कर अपनी प्रात्माके ही शुद्ध करने में करनेके लिये है, इसके सिवाय उनको सब ही प्रकारके लगता है, उतना ही वह धर्मात्मा और आध्यात्मिक है, सामानका त्याग होता है । शरीरने निर्ममत्व होकर जो और जितना २ कोई इस शरीरको धो माँजकर सुंदर न स्नान करते हैं, न किसी दूसरी प्रकार उसको माइते बनानेमें मन लगाता है उतना २ ही वह संसारी है ।
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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