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वर्ष ३, किरण ३ ] )
मायको, वस्त्रोंको और शरीरको सब ही को सुंदर बनाये रखनेके वास्ते झाड़ना, पोंछना, लीपना, पोतना और धोना यह सब काम करना उसके लिये ज़रूरी हैं । जिनमें जीव हिंसा जरूर होती है परन्तु गृहस्थी के ये सब कार्य उसके लिये जरूरी होने पर भी किसी तरह भी धर्म कार्य नहीं होसकते हैं, हैं तो यह सब त्यागने योग्य ही, जो संसारी और गृहस्थी होने के नातेसे ही ज़रूरी हो रहे हैं । इस ही कारण ज्यों ही वह गृहस्थी किंचित्मात्र भी पापोंका त्याग शुरू करता है, अणुव्रती कर दूसरी प्रतिमा ग्रहण करता है, तब ही से उसको स्वानके त्यागका भी उपदेश मिलने लग जाता है | · अव्वल तो भोगोपभोग परिमाण व्रतमें उसको शरीर के श्रृङ्गार श्रादिके त्यागमें स्नानको भी एक प्रकारका इंद्रियोका व्यसन और भोग बताकर कुछ २ समय के लिये त्यागको कहा गया है । फिर प्रोषधोपवासके दिन तो अवश्य ही स्नान और शरीर श्रृङ्गारका त्यागना ज़रूरी ठहराया है। इस ही प्रकार ज्यों २ वह इंद्रियोंके विषय और हिंसा त्यागकी तरफ़ बढ़ता जाता है । इन्द्रिय संयम और प्राण संयम करने लगता है त्यों २ वह स्नान करना भी छोड़ता जाता है । यहाँ तक कि मुनि होने पर तो वह स्नान या अन्य किसी प्रकार शरीरको धोना पूछना या साफ़ करना या बिल्कुल ही छोड़ देता है । स्नान करना या अन्य किसी प्रकार शरीर को शुद्ध रखना किसी प्रकार भी पारमार्थिक धर्मका कोई अंग नहीं हो सकता है वह एक मात्र इन्द्रियोंका विषय और शरीरका मोह ही है जो गृहस्थियोंको इसी कारण करना ज़रूरी होता है कि वे अपनी इन्द्रियोंके विषयोंको श्रौर शरीर के मोहको त्यागने में समर्थ होते हैं। लाचार हैं और मोहके कारण बेबस हो रहे हैं। परन्तु जो इन्द्रियोंके forest र मोहको पाप समझकर त्यागने में समर्थ हो
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जैनधर्मकी विशेषता
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सकते हैं वे जितना २ उनका मोह घटता है उतना २ स्नानको और शरीरकी सफ़ाईको त्यागते जाते हैं । यहाँ तक कि मुनि होने पर तो स्नान करना और शरीर धोना पोंछना बिल्कुल ही त्याग देते हैं। यही नहीं वे तो टट्टी जाकर कमण्डलुके जिस पानीसे गुदा साफ़ करते हैं; उस ही से हाथ धोकर फिर मिट्टी श्रादि मलकर किसी दूसरे शुद्ध पानीसे हाथोंको पवित्र करना भी जरूरी नहीं समझते हैं । उन ही अपवित्र हाथोंसे शास्त्र तकको छूते रहते हैं । कारण कि शरीरकी शुद्धि धर्म नहीं है और न हाड माँससे बने शरीरकी शुद्धि हो ही सकती है । धर्म तो एकमात्र आत्मशुद्धिं करता ही है जो राग द्वेष आदि कषायों और इन्द्रियों के विषयों को दूर करनेसे ही होती है । तब ही तो जैनधर्ममें दस लक्षण कथन में शौच धर्म मात्रको शरीर शुद्धि न बताकर आत्माको कषायोंसे शुद्ध करना और विशेषकर लोभ कषायका निर्मूल करना ही शौचधर्म बताया है । संसारकी वस्तु
से ग्लानि करना भी जुगुप्सा नामकी कषाय ठहरा - या है और जैनधर्मका श्रद्धान करनेके वास्ते शुरू में ही श्रद्वान के श्रंगस्वरूप चिकित्सा अर्थात् ग्लानि न करना ज़रूरी बताया है। विशेषकर जैनधर्मके मुनि और साधु जिनका तन अत्यन्त ही मलिन रहता है, जो आँखों और दाँतों तकका मैलनहीं छुड़ाते हैं और न टट्टी जाकर अपने हाथ ही मटियाते हैं उनसे किसी भी प्रकारकी घृणा न करना, उनको किसी भी प्रकार अपवित्र या अशुद्ध न समझना किन्तु राग द्वेष और विषय कषायों के मैलसे रहित होकर अपनी श्रात्माको शुद्ध करने के लिये शरीरका ममत्व छोड़ ग्रात्म ध्यानमें लगे रहने वाले शरीरसे मैले कुचैले इन सांधु मुनियोंको ही परम पवित्र और • शुद्ध समझना सिखाता है ।
मनुष्यों का जीवन या साधन दो प्रकारका होता है,