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________________ २२८ भनेकान्त (पौष, वीर निर्वाण सं०२४९९ नदी या तालाब परसे स्नान करके आते हैं तो मार्गमें शिक्षा देता है, जिसने धर्म-साधन में अभी कदम भी बड़ा विचार इस बातका रखते है कि कोई उनके शरीर नहीं रक्खा है उसको भी जैनधर्म तो सर्व प्रकार या वस्त्रसे न छू जाय और यदि कोई छू जाता है तो नशोंसे दूर रहना ज़रूरी बताता है। तुरन्त वापिस जाकर नहाते हैं । यदि भोजन बनाने के अब रही स्नान और शरीर शुद्धिकी बात, यह भी वास्ते कोई मछली या अन्य कोई माँस उनके पास हो हिंदूधर्म में ही धर्म माना जा सकता है । जैनधर्म में नहीं; तो उससे वे अपवित्र नहीं होंगे, किन्तु किसीके छू जानेसे जैनधर्म तो श्रात्म शुद्धिको ही धर्म ठहराता है और उस ज़रूर अपवित्र हो जायेंगे । इस ही प्रकार माँस मछली- ही के सब साधन सिखाता है । शरीरको तो महा अशुद्ध के पकानेसे उनकी रसोई अपवित्र न होगी, न मांस और अपवित्र बताकर उसके प्रति अशुचि भावना रखना मच्छी खानेसे उनको कोई अपवित्रता आवेगी, परन्तु ज़रूरी ठहराता है । मनुष्यका यह शरीर जो हाड उनकी रसोई बनाई और खाते समय अगर कोई मनुष्य माँस रुधिर श्रादिसे बना है, बिष्टा मूत्र बलग़म और चाहे वह ब्राह्मण ही हो परन्तु उनकी जातिका न हो पीप आदिकी जो थैली है वह तो सात समुद्रोंके पानीसे अभी स्नान करके श्राया हो, कपड़े भी पवित्र हों, तो भी धोने पर भी पवित्र नहीं हो सकता है। किन्तु इसके यदि वह मनुष्य उनकी रसोई के चौकेकी हदके अन्दरकी छूनेसे तो पवित्र जल भी अपवित्र हो जाता है, इस धरतीको भी छू दे, तो वह रसोई भ्रष्ट होकर खाने योग्य कारण स्नान करना किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता न रहेगी। है । पद्मनन्दि पचीसीमें तो श्राचार्य महाराजने अनेक - "जैनधर्म ऐसी बातोंसे कोसों दूर है । भंग, धतूरा, हेतुत्रोंसे स्नान करने को महापाप और अधर्म ही ठहराया चरस और गाँझा आदि मादक पदार्थ जो बुद्धिको भ्रष्ट है। परन्तु गृहस्थी लोगोंको जिस प्रकार अपनी आजीकरने वाले हैं उनको तो कुव्यसन बताकर जैन-धर्म सब विकाके वास्ते खेती,व्यापार,फ़ौजी नौकरी और कारीगर' से पहले ही उनके त्यागने की शिक्षा देता है, जो वस्तु आदि अनेक ऐसे धंधे करने जरूरी होते हैं जिनमें जीव मनुष्यको मनुष्य नहीं रहने देती उसकी विचार शक्तिको हिंसा अवश्य होती है, इस ही से वे सावद्य कर्म कहलाते भ्रष्ट करती है, उसका सेवन करना तो किसी प्रकार भी हैं। जिस प्रकार गृहस्थीको अपने रहनेके मकानको धर्म नहीं हो सकता है । ऐसी वस्तु तो सब ही मनुष्यों माड़ना बुहारना और लीपना पोतना ज़रूरी होता है को त्यागने योग्य हैं ।, परन्तु कैसे आश्चर्यकी बात है यद्यपि मकानकी इस सफाई में भी जीव हिंसा ज़रूर होती कि हिंदुअोंके बहुतसे त्यागी और साधु वैरागी तो ज़रूर है परन्तु गृहस्थीके लिये यह सफ़ाई रखना भी ज़रूरी ही इन मादक पदार्थों का सेवन करते हैं । और गृहस्थी है। ऐसा ही अपने कपड़ों और शरीरको धोना और लोग भी उनकी संगतिसे यह कुव्यसन ग्रहण करने लग साफ़ रखना भी उसके लिये ज़रूरी है । शरीर उसका जाते हैं। सब हिंदू मंदिरोंमें यह व्यसन ज़ोर शोरसे वास्तवमें महा निंदनीय और अपवित्र पदार्थोंका बना चलता रहता है, ऐसे व्यसनियोंका जमघट उनके मंदि- हुआ है परन्तु उससे उसका मोह नहीं छूटा है, ऐसा रोंमें लगा रहता है । इसके विपरीत जैनधर्स ऐसी बातों ही अपने कपड़ों और मकानसे भी मोह नहीं छूटा है, को पाप बताता है और ऐसी संगतिमे भी दूर रहनेकी और न इन्द्रियों के विषय ही छूटे हैं । इस कारण मकान
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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