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वर्ष ३, किरण ३]
जैनधर्मकी विशेषता
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अप पुरुषात्रोंकी मानमर्यादाके अधिकार प्राप्त करनेकी गया, जगह जगह के भँगड़ इस ही कार्यके लिये मंदिरोंयह बीमारी महामारीकी तरह क्षत्रियोंमें भी फैली, उनमें में जमा होने लग गये। देखो अविचारिताके कारण भी अपने अपने पुरुषाओंकी बड़ाई गानेसे भेदभाव कहाँसे कहाँ मामला पहुँच गया और धर्मस्वरूप क्यासे पैदा होगया और अनेक जातियाँ होकर वैमनस्य बढ़ क्या बनगया । ब्राह्मणोंने अपनी विलक्षणता, बड़ाई गया । यही बीमारी फिर वैश्योंको भी लगी और होते और प्रतिष्ठा कायम रखनेके वास्ते अपने हाड माँसके होते शूद्रोंमें भी पहुंच गई जिसका फल यह हुआ कि शरीरको महान् शुद्ध और पवित्र स्थापित कर, दूसरोंकी अब हिन्दुत्रोंकी चार हज़ार जातियाँ ऐसी हैं जिनमें छूतसे अलग रहना शुरू करदिया, यदि किसी भलसे
आपसमें रोटी बेटी व्यवहार नहीं होता है और सब ही कोई उनके शरीर या वस्त्रको छदे तो महान पातक होगुण नष्ट होकर एकमात्र यह भेदभाव कायम रखना ही जावे, तुरन्त ही दोबारा स्नान करें, कपड़े धोवें और धर्म कर्म रह गया है । यही वर्णाश्रमधर्म कहलाता है आचमन कर और तुलसी पत्र आदि चबाने के द्वारा जिसका हिन्दुत्रोंको भारी मान है बिना किसी प्रकारकी अपनेको पवित्र बनावें, किसीके भी हाथका न खावें, शास्त्र विद्या या धर्म कर्मके जब एक मात्र ब्राह्मणके घर अपने ही हाथसे पकाकर खावें । इस प्रकार आत्मशुद्धि जन्म लेनेसे ही पूज्यपना और पुरुषाओंके सब अधिकार का स्थान शरीरशुद्धिने लेलिया और यही एकमात्र धर्म मिलने लग गये, यजमानोंसे ही जीवनकी सब ज़रूरतें बन गया। पूरी होने लग गई, किसी प्रकारकी भी आजीवकाकी परन्तु गृहस्थीके वास्ते स्वपाकी रहना बहुत कोई ज़रूरत न रही तो ब्राह्मणोंको बिल्कुल ही बेफ़िकरी कठिन है, इस कारण लाचार होकर फिर कुटुम्ब वालों होगई और बेकार पड़े रहने के सिवाय कुछ काम न रहा। के हाथका और फिर अपनी जाति वालोंके हाथका भी परन्तु आपसमें स्पर्धाका होना तो ज़रूरी ही था । हम खाना शुरू होगया । दूर प्रदेश में जाना पड़ा तो उसके दूसरोंसे अधिक पूज्य माने जावें, यह खयाल आना तो लिये दूधमें श्रोसने हुए आटेसे जो खाना बने उसको लाज़मी ही था, इसके सिवाय अपने ब्राह्मणपनेको बाहर लेजानेकी भी खुल्लस करनी पड़ी। फिर कहीं २ क्षत्रिय और वैश्योंसे पृथक् ज़ाहिर करते रहना भी बिना दूधमें उसने एक मात्र घीमें पकाया पकवान भी ज़रूरी था,ठाली और बेकार तो थे ही इस कारण किसी बाहर ले जाना जायज़ होगया । श्रात्म शुद्धिका सब नदी या तालाबके किनारे जाकर खूब अच्छी तरह मामला छूटकर जब एक शरीर शुद्धि और खानपानकी मल मलकर अपने शरीरको धोते रहने, नित्य अच्छी छूत अछूत ही एक मात्र धर्म रह गया तो इसकी बड़ी तरह धो धोकर धौत वस्त्र पहनने, शरीर पर चन्दन देखभाल रहने लग गई । जो कोई छूत छातके इन
और मस्तकपर तिलक लगानेमें ही बिताने लगे । खाली नियमोंको तोड़े वही धर्म भ्रष्ट माना गया और एक दम तो थे ही दिन कैसे बितावें, इस कारण भंग घोट घोटकर अलग कर दिया गया । ब्राह्मणोंकी अनेक जातियाँ हैं पीना. घरस और सुल्फ़ेका दम लगाना और बेसुध जिनमें गौड़ आदि कुछ जातियोंके सिवाय बाकी सब होकर पड़े रहना, यह ही उनके धर्मका अंग बन गया, जायियाँ मांस खानेको धर्म विरुद्ध नहीं समझती हैं। यहाँ तक कि धर्म मंदिरोंमें नित्य यही काम होने लग-इन माँसाहारियोंमें भी जो अधिक धर्मनिष्ट है वे जब