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________________ २२६ कराये जाने की रूढ़ी ज़ोरोंके साथ प्रचलित होजानेपर यह भी रूढ़ी होगई कि ईश्वर या किसी भी देवी देवताको यहाँ तक कि नवग्रह श्रादिको भी जो कुछ भेंट करना हो तो वह ब्राह्मणको दे देनेसे ही ईश्वरको या देवी देवताको पहुँच जाती है, फिर इस बातने यहाँ तक जोर पकड़ा कि मरे हुए मनुष्यको अर्थात् पित्रोंको भी जो कुछ खाना कपड़ा, खाट पीढ़ा, दूध पीनेको गाय, सवारीको घोड़ा आदि पहुँचाना हो वह ब्राह्मणोंको देनेसे ही पित्रोंके पास पहुँच जायगा, चाहे वे पितर कहीं हों, किसी लोकमें हों और चाहे जिस पर्याय में हों। यहाँ तक कि वे सब चीज़ें ब्राह्मण के घर रहते हुऐ भी और ब्राह्मण द्वारा उनको भोगा जाता देखा हुआ भी यह ही माना जाने लगा कि वे पित्रोंको पहुँच गई हैं। जैनधर्म ऐसी श्रद्धाको किसी तरह भी नहीं मान सकता है । किन्तु माननेवालोंकी बुद्धि पर श्राश्चर्य करता है । ऐसे महा अंधविश्वास के ज़माने में बिना किसी प्रकारके गुणोंके एकमात्र ब्राह्मण के घर पैदा होने से ही ऐसा पूज्य ब्राह्मण माना जाना जैसे उसके पढ़े लिखे और पूजा पाठ श्रादि करनेवाले पिता और पितामह ये कोई भी आश्चर्य की बात नहीं हो सकती है। फल इसका यह हुआ कि ब्राह्मण के घर पैदा होनेवालोंको किसी भी प्रकारके गुण प्राप्त करने की ज़रूरत न रही । बिल्कुल ही गुणहीन दुराचारी और महामूर्ख भी ब्राह्मण के घर पैदा होनेसे पूज्य माना जाने लगा और अबतक माना जाता है । उनके गुणवान पिता और पितामह की तरह इन गुणहीनोंको देनेसे भी उसही तरह ईश्वर और सब ही देवताओं को भेंट पूजा पहुँच जाना माना जाता है, किसी बात में भी कोई फ़रक़ नहीं श्राने पाया है । इन गुणहीनोंका भी वही गौरव, वहीं पूजा प्रतिष्ठा और ईश्वर और देवी देवताओंका एजेंटपना बना हुआ अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २०६६ है जैसे इनके गुणवान माता पिताओंका था । इस अंधेरको भी जैनधर्म किसी तरह नहीं मान सकता है, इस कारण जैन शास्त्रों में श्रीश्राचार्योंको इस बातका भारी खंडन करना पड़ा है और सिद्ध करना पड़ा है। कि मनुष्य जाति सब एक है, उसमें भेद सिर्फ़ वृत्तिकी वजहसे ही जाता है। जो जैसी वृत्ति करने लगता है वह वैसा ही माना जाता है । जन्मसे यह भेद किसी तरह भी नहीं माने जा सकते हैं । श्रादिपुराण, पद्मपुराण, उत्तरपुराण, धर्मपरीक्षा, वरांगचरित, और प्रमेयकमलमार्तंड में ये सब बातें बड़े ज़ोर के साथ सिद्ध की गई हैं। जैसा कि अनेकान्त वर्ष २, किरण ८ में विस्तार के साथ इन ग्रन्थोंके श्लोकों सहित दिखाया गया है । गुणहीन ब्राह्मणोंने अपनी जन्मसिद्ध प्रतिष्ठा कायम रखने के वास्ते अपने अपने बाप दादा आदि महान् पुरुषात्रों की बड़ाई और जगत में उनकी मानमर्यादाका बड़ा भारी गीत गाना शुरू करदिया, हरएकने अपने पुरुषाओं को दूसरोंसे अधिक प्रतिष्ठित और माननीयसिद्ध करने के सिवाय अपनी प्रतिष्ठा और पूजाका अन्य कोई मार्ग ही न देखा । जिससे उनके आपसमें भी द्वेषाग्नि भड़क उठी और एक दूसरेसे घृणा होनें लग गई । हमारे पुरुषा तो ऐसे पूज्य, पवित्र और धर्मनिष्ठ थे कि भुक के पुरुषों के हाथका भोजन भी नहीं लेते थे, इससे आपसमें एक दूसरे के हाथका भोजन खाना और बेटी व्यवहार भी बन्द होगया और ब्राह्मणोंकी अनेक जा तियाँ बन गई, जिनका एक दूसरेसे कुछ भी वास्ता न रहा। अपने अपने पुरुषात्रोंकी बड़ाई गा-गाकर अपनी जातिको ऊँचा और दूसरोंकी जातिको नीचा सिद्ध करना ही एकमात्र इनमें गुण रह गया । किसी प्रकारके गुण प्राप्त किये बिना जन्मसे ही
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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