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________________ २३२ अनेकान्त [ पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ सबकी बाबत हम नहीं कह सकते परन्तु बहुधा ऐसे हैं मोटे रूपसे विचार क नेसे तो यह ही मालूम होता जो मुसलमान और अछूतोंके हाथसे साग सब्जी लेकर है कि हमारे जैनी भाई हिंदुओंकी ऐसी जातियोंका जब खाते हैं उनसे ली हुई साग सब्जी कच्ची तो वे चौकेसे बिलकुल ही मांस त्यागी हैं, अनुकरण कर इस विषय में बाहर कपड़े पहने भी खा लेते हैं परन्तु पकायेंगे उसको सभी नियम आँख मींचकर उन्हीं के अनुसार पालने चौकमें कपड़े निकाल कर ही और खायेंगे भी कपड़े लग गये। हिंदुओंमें उनके नियम सारे हिन्दुस्तान में निकाल कर ही । यदि कपड़े पहने खालें तो महा भ्रष्ट प्रायः एक समान नहीं है। प्रान्त २ में भिन्न २ रूपसे पापी और पतित माने जायें । मुसलमान साग सब्जी बरते जाते हैं । हमारे जैनी भाई भी जिस जिस बेचने वाले हमारी आंखोंके सामने अपने मिट्टीके लोटे प्रान्तमें रहते हैं उस २ प्रान्तके हिंदुओंके अनुसार ही से साग सब्जी पर पानी छिड़कते हैं, चाकुसे काटते प्रवर्तते हैं और इस ही को महाधर्म समझते हैं । अजब तराशते हैं, हाथसे तोड़ते हैं, और हममें से बहुतसे उन गुल गपाड़ा मचा हुआ है । कोई भी सिद्धांत स्थिर से मोल लेकर खाते हैं । यह सच है कि घर जाकर उन नहीं हो पाता है । को धो लेते हैं परन्तु जो पानी दिन भर उनपर छिड़का जैनधर्ममें हिंसा, चोरी, झूठ, परस्त्रीसेवन और जाता रहा है वह तो उन साग सब्जियोंके अन्दर ही परिग्रह ये ही महापाप बताये हैं । इनही पापोंके त्यागके प्रवेश कर जाता है और इसी गरजसे उन पर छिड़का वास्ते अनेक विधिविधान ठहराये हैं । जो जितना जाता है कि जिससे वे हरी भरी रहें । तब धोनेसे तो वह इन पापोंको करता है वह उतना ही पापी है और जो पानी निकल नहीं सकता है, तो भी धोकर वह साग जितना भी इन पापोंसे बचता है वह उतना ही धर्मात्मा . सब्जी खाने योग्य हो जाती है, इनमें से. मूली गाजर है। परन्तु जबसे जैनियोंने अपने हिन्दु भाइयोंके केला अनार अमरूद अादि जो फल कच्चे ही प्रभावमें आकर--(हिन्दू २५ करोड़ और जैनी ११ खाने होते हैं वे तो चौकेसे बाहर भी सब जगह कपड़े लाख ही रहजानेसे-उनका प्रभाव पड़ना तो जरूरी पहने हुए ही खा लिये जाते हैं, यहां तक कि जूता था ही) धर्मात्मा और अधर्मी, शुद्ध और पातकीका पहने हुए भी खा लिये जाते हैं । परन्तु पकाये जायेंगे निर्णय करने के वास्ते अपने इन २५ करोड़ हिन्दु चौकेमें कपड़े निकाल कर ही और पकाकर भी खाये भाइयोंका ही सिद्धान्त ग्रहण कर लिया है, तबसे जायेंगे निकाल कर ही । इस प्रकार - यह मामला जैनियोंमें भी यदि कोई कैसा ही चोर, दगाबाज़, अठा, ऐसा विचित्र है कि जिसका कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं फरेबी, परस्त्रीलम्पट, वेश्यागामी, महापरिग्रही, धनहोता है । यदि यह कहा जाय कि अग्निका सम्बन्ध लोलुपी, यहाँ तक कि अपनी दस बरसकी बोटीसी होनेसे ही ऐसी शुचि क्रियाका करना ज़रूरी हो जाता है बेटीको धनके लालचसे ६० बरसके बूढ़े खूसटको बेच तो चने मटरके बूट और मूंगफलीके होले, तो जंगलमें कर उसका जीवन ही नष्ट भ्रष्ट कर देने वाला हो, कहाँ भी भून कर खा लिये जाते हैं । अनेक प्रकारके चबैने तक कहें, चाहे जो कुछ भी करता हो। जिसको कहते और चिड़वे भी इस ही प्रकार खा लिये जाते हैं। इस शर्म श्राती है परन्तु चौकेके नियमोंको अपने प्रान्तको प्रकार कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं हो पाता है। प्रचलित रीतिके अनुसार पालता हो तो वह पातकी
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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