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वर्ष ३, किरण ३]
जैनधर्मकी विशेषता
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नहीं है। किंतु यदि वह उपरोक्त पाँचों पापोंको करने देना चाहिये, यदि वह तपस्या करने लगे तो उसको वाला दूसरोंकी अपेक्षा और भी सख्तीके साथ इन जानसे मार डालना चाहिये । परन्तु जैनधर्ममें यह नियमोंको पालता है तो वह धर्मात्मा है और प्रशंसनीय बात नहीं है । श्री समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि चांहै । और जो जो इन पांचों पापोंसे बहुत कुछ बचता डालका पुत्र भी जैनधर्मका श्रद्धान करले तो देव समाहै, यहाँ तक कि शास्त्रानुसार पांचों अणुव्रत पालता है न हो जाता है । इस ही से श्राप बिचारले कि जैनधर्म परन्तु चौके के नियम अपने प्रान्त और अपनी जातिके में और हिन्दूधर्ममें कितना आकाश पातालका अंतर अनुसार नहीं पालता है, दृष्टान्तरूप जिस प्रान्तमें रोटी है । बाह्य शुद्धि और सफ़ाई रखना वेशक गृहस्थोंके कपड़े उतारकर और चौकेमें बैठकर ही खाई जाती है, वास्ते ज़रूरी है । परन्तु उसका कोई सिद्धान्त ज़रूर उस प्रान्तका रहनेवाला पक्का अणुव्रती अगर चौकेसे होना चाहिये, जिसके आधार पर उसके नियम स्थिर बाहर दूसरे पवित्र और शुद्ध मकानमें रोटी लेजाकर किये जावें । उन्मत्तकी तरहसे कहीं कुछ और कहीं शुद्ध और पवित्र कपड़े पहने हुए खा लेता है तो वह कुछ करनेसे तो मखौल ही होता है; कारज कोई भी महा पतित और अधर्मी गिना जाता है।
सिद्ध नहीं होसकता है। इस कारण विचारवान पुरुषोंको ___ इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक दृष्टान्त दिए जा उचित है कि अापसमें विचार-विनिमय करके जैन-धर्मासकते हैं जिनमें जैनियोंमें उन पापोंसे बचनेकी बहुत नुसार इसका कोई सिद्धान्त और नियम स्थिर करें जो शिथिलाचारिता श्रागई है जिनको जैनधर्ममें पाप सब ही प्रान्तों और जातियों के वास्ते एक ही हो । कहीं ठहराया है । एक मात्र इन प्रान्तीय बाह्य क्रियाओंका कुछ और कहीं कुछ जैसा अब हो रहा है,यह न रहे और करना ही धर्म रह गया है, जिससे ढौंग और दिखावा यदि यही बात स्थिर करनी हो कि जिस-जिस प्रान्तमें बहुत बढ़ गया है । वास्तविकधर्मका तो मानों बिल्कुल अन्य हिंदुओंका जो वर्ताव है वही जैनियोंको भी रखना लोप ही होता जारहा है । अन्य मतियों के सिद्धान्तों पर चाहिये, जिससे उन लोगोंको जैनियोंसे घृणा न हो, तो या बिना विचारे रूढ़ियों पर चलनेसे तो जैनधर्म किसी चौकेकी इस शुद्धि-सफ़ाई और छूतछातके इन सब तरह भी नहीं टिक सकता है । इसी कारण आचार्योंने नियमोंको धार्मिक न ठहराकर बिल्कुल ही लौकिक घोजैनियोंको अमूढदृष्टि रहने अर्थात् बिना बिचारे अाँख षित कर दिया जाय, जिससे जैनियोंको इस चौका-शुद्धि मींचकर ही किसी रीति पर चलनेसे मना किया है। के अतिरिक्त आत्म-कल्याण रूप धर्मसाधनकी भी दुनियाके लोगोंकी रीस न कर निर्भय होकर अपनी फिकर होने लगजाये । धर्मात्मा और अधर्मात्माकी क
आत्माके कल्याण के रास्ते पर ही चलनेका उपदेश सौटी यह चौकेकी अद्भुत शुद्धि नरह कर पंच पापोंका दिया है।
त्याग ही उसकी जाँचकी कसौटी बन जाय । हिन्दूधर्म कहता है कि जिसने ब्राह्मण के घर जन्म इस विषय में बहुत कुछ लिखनेकी ज़रूरत है, परन्तु लिया है वह गुणवान न होता हुअा भी, हीन कार्य अभी इस विषयको छोड़कर हम यह जानना चाहते हैं करता हुआ भी पूज्य, परन्तु शूद्रके घर जन्म लेने वाला कि हमारे विचारवान विद्वान भी कुछ इस तरफ ध्यान यदि वेदका कोई शब्द भी सुनले तो उसका कान फोड़ देते हैं या नहीं। या बुरा भला जो कुछ होरहा है तथा