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________________ २२० बहुत दूर निकल गया !--भया-कुल- चित्त धन्यकुमार ! विश्वास जम गया कि 'अब आएगा नहीं गया है, उसे ले आइए !' • 'मेरा धन ?' लेकिन 'विश्वास' का धरातल बालुकी दीवार की तरह अस्थायी निकला । कानोंने सुना, आँखों ने देखा -- वह पुकारता हुआ, भागता हुआ आ रहा है ! सच, चला रहा है इसी ओर ! धन्यकुमारका होश ! सारा शरीर बेंतकी भाँति काँप उठा ! रुक गया जहाँ का वहाँ ! वह आया ! • धन्यकुमार ने समझा जैसे उसका अन्त समय है, काल सामने खड़ा है ! पर इसके मुँह पर रौद्रता क्यों नहीं ? वही बातें कर रहे हैं !" दीन-भाव, वही श्रद्धा-दृष्टि !! 'आप लौट चलिए ! आपका धन वहाँ रह ال: 'हाँ ! आपका ही...!' 'मेरे पास तो शरीर पर इन वस्त्रोंके अतिरिक्त और कुछ भी न था !" 'ठीक है ! लेकिन वह कढ़ाह - जो खेतकी मिट्टी के नीचे दबा निकला है -- आपके भाग्य चमकारका ही प्रसाद है !' [पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६६ तो आज ही न निकलकर पूर्वजोंके सामने नि लता, या मैं इतने दिनोंसे इसे जोत रहा हूँ ! ... पहिले भी निकल सकता ! मगर आप विश्वास कीजिए कभी एक कौड़ी नहीं निकली ! धन आपका है, आप उसके मालिक ! मेरे लिए मिट्टी ! चलिये !' 'मैंने कहा न, धन मेरा नहीं है ! मैं उसके विषयमें कुछ नहीं जानता !" 'न जानिए ! पर उसे हटा लीजिए ! मेरे ऊपर से व्यर्थका भार उठे !' 'लेकिन वह मेरा हो तब न ?” 'धन आपका, और फिर आपका ! आप कैसी 'वह मेरा नहीं है -- भाई ! तुम्हारे खेतमें जो कुछ हैं, सब तुम्हारा हूँ !' 'यह नहीं मान सकता -- मैं ! अगर मेरा होता, अनैकान्त 'भाई ! धन तुम्हारा है, मेरा नहीं !" मेरा ? जिसने दरिद्रताकी गोद में बैठकर जिन्दगी बिताई ! इतनी उम्र हुई – इतना धन स्वप्नमें भी नहीं देखा ! दरिद्रताका उपहास कर रहे हैं -- . आप ! बात, धन्यकुमारके मनमें शूल-सी चभी ! बोला -- 'अच्छा, मेरा ही सही ! लेकिन मैं अब उसे तुम्हें देता हूँ ! प्रेम मानते हो, तो स्वीकार करो -- उसे !' हलबाहकके अधरोंमें स्पन्दन हुआ, कुछ शब्द -- कण्ठसे बाहिर श्रनेके लिए उद्यत हुए ! पर वह बोल न स्वका ! चप रह गया !!!
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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