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________________ जैनधर्मकी विशेषता [लेखक-श्री० बा० सूरजभान वकील] नधर्म और अन्य धर्मों में श्राकाश पातालका सा निर्जीव कठ पुतलियोंक तरह वही नाच नाचना स्वी"अंतर है। जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है । उसका कार किया जावे, ज्ञानधारी जीवके स्थानमें अचेतन जड आधार वस्तु-स्वभाव है । जीव और अजीव संसार में दो बनकर ही रहा जावे । संसारमें तो जो कुछ हो रहा है ही प्रकार के पदार्थ हैं । जीव सुख दुख का अनुभव वह संसारकी वस्तुत्रोंके अपनेर स्वभावानुसार ही हो रहा करता है, सुख चाहता है और दुख दूर करनेका उपाय है वस्तु अनन्त हैं जिन सबका एक ही संसारमें स्थित करता है । दुख इसका निज स्वभाव नहीं है, तब ही होने, गतिशील होने, और स्वभावानुसार क्रिया करते यह दुख के कारणोंको दूर कर परमानन्द प्राप्त कर रहनेसे उनको आपसमें अनेक प्रकारका संयोग, वियोग, सकता है । दुख इसका विभाव भाव है जो अजीवके और संघर्ष होत । रहता है, जिनसे उनके स्वभावानुसार संयोगसे ही इसको प्राप्त हो रहा है । वह संयोग किस नाना प्रकार के परिवर्तन, पर्यायों और परिस्थितियोंका प्रकार पैदा होता है, किस प्रकार इस संयोगका पैदा अलटन-पलटन होता रहता है। वस्तु स्वभावकी खोज होना रोका जासकता है और जो संयोग हो चुका है करने वाले वैज्ञानिक लोग वस्तुओंके इन्हीं अटल परिवह कैसे दूर किया जा सकता है दूर होने अथवा निर्बध वर्तनोंके कुछ एक नियमों की जानकारी करके ही उनके हो जाने पर जीवकी क्या दशा हो जाती है, क्या परमा- नियमानुसार उनसे काम लेने लगते हैं, जिनके इन नन्द प्राप्त होने लग जाता है, इन्हीं सबकार्यकारी बातों थोड़ेसे आविष्कारोंसे ही लोग अचम्भेमें पड़ जाते हैं को नैनशास्त्रोंमें वैज्ञानिक रीतिसे सात तत्वोंके नामसे और इनके इन अाविष्कारोंको भी किसी अलौकिक बताकर जीवको उसके कल्याण का रास्ता सुझाया है। शक्ति अर्थात् यंत्रों मंत्रोंका ही कृत्य मान लेते है । और जोर देकर समझाया है कि वही शास्त्र, वही कथन, मनुष्य जब जगतमें जाते हैं तो वहां तरह २ के वही उपदेश, और वही श्राज्ञा मानने योग्य है जो वस्तु वृक्ष, पौदे, और बेलें फैली हुई देखकर उनके तरह२ के स्वभावके अनुकूल हो, तर्क और हेतु द्वारा खंडित न सुन्दर २ पत्ते, फूल और फल अवलोकन कर बहुत ही होता हो, कल्याणका मार्ग बताने वाला हो, सब ही हैरान होते किं यहाँ यह अद्भुत वस्तु किसने बना जीवोंका हित करने वाला हो और पक्षपातसे रहित हो। दी। इनमें जो बुद्धिमान होते हैं वे तो खोज करने पर जगतमें किसी एक परमेश्वर या अनेक देवी देवताओं-" यह मालूम कर लेते हैं कि अपनी २ किम्मके बीजोंके का राज्य नहीं है, जिनकी श्राज्ञा आँख मींचकर शिरो- बीजोंसे ही यह सब पेड़ उगे हैं । इमलीके पेड़ पर जो धार्य की जावे, उनको राज़ी रखने और उनके कोपसे बीज लगे । उन बीजोंसे जो भी पेड़ उगे हैं उनके पत्ते बचनेके वास्ते उलटा सीधा जैसा वह नाच नचावें फूल और फल सब समान हैं, इसी प्रकार नीमके बीजों
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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