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________________ वर्ष ३, किरण ३ ] अति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह' [२५६ देते जसाकि निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है:- दसणमोह उवसामगोदु चदुसुविगई सुबोइम्बो। पम्हा पउम सवण्णा सुक्का पुणकास कुसमसंकासा । पंचिंदिओय सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तों ॥ वणंतरं च एदेहवंति परिपरिमिता अणंतावा ।। -प्राकृत पंच सं०, १, २०४ -प्राकृत पंच सं०.१,१८४ दसण मोहक्खवणा पट्ठवगो कम्म भूमि जादोदुं । पम्मा पउम सवण्ण। सुक्का पुणकास कुसम संकासा। णियमा मणुस गदीए निट्ठव गो चावि सव्वत्थ ।। किण्हादि दव्व लेस्सा वण्ण विसेसो मुणेयन्वो ॥ -कसाय पाहुड०१०६ धवला आरा प्र० पृ० ६५ दसण मोहक्खवणा पट्टवगो कम्मभूमि जादोदु । अतः आचार्य वीरसेन इस पंच-संग्रहके कर्ता णियमा मणुसगदीए निट्टवगोचावि सव्वत्थ ॥ नहीं हो सकते और अब इस ग्रन्थके रचनाकाल -प्राकृत पंच सं०, १, २०२ खवणाए पट्ट वगोजम्हिभवे णियमदोतदो अण्णे। के विषयमें जो कुछ भी तुलनात्मक अध्ययन से णादिक्कदितिण्णिभवे धसण मोहम्मि खीणम्मि ॥ मालूम होसका है उसे नीचे प्रकट किया जाता है: -कसाय पाहुड, १०९ कसायप्राभृतके रचयिता आचार्य गुगधर हैं, खवणाए पढवगो जम्मि भवे णियम दो तदोअन्न ।। णादिक्कदि तिन्नि भवं दसणमोहम्मि खीणम्मि ।। जिन्हें प्राचार्यपरम्परासे लोहाचार्यके बाद, प्राकृत पंच सं०, १, २०३ अंगों और पूर्वोका अवशिष्ट एकदेशरूप श्रुतका कषाय प्राभृतका रचनाकाल यद्यपि निर्णीत परिज्ञान प्राप्त हुआ था और जो ज्ञानप्रवाद ना नहीं है तो भी इतना तो निश्चित ही है कि इसकी मक पाँचवें पूर्वस्थित दशम वस्तुके तीसरे पाहुडके रचना कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले हुई है। साथ ही पारगामी विद्वान थे उन्होंने श्रुतके विनष्ट होने यह भी निश्चत है कि गुणधराचार्य पूर्ववित् थे के भयसे तथा प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर और उनके इस ग्रंथ की रचना सीधीज्ञानप्रवाद १८० गाथाओंमें 'कषाय प्राभृत' की रचना की, पूर्वके उक्त अंशपरसे स्वतन्त्र हुई है-किसी और इन्हीं गाथाओंकी सम्बन्धसूचक एवं वृत्ति दूसरे आधार को लेकर नहीं हुई। अतः यह रुपक ५३ विवरणगाथाओंकी और भी रचना कहना होगा कि उक्त तीनों गाथाएँ कषायप्राभूत की। इसतरह से कषाय प्राभृतको कुल गाथाएँ की ही हैं और उसी परसे पंचसंग्रहमें उठाकर संख्या में २३३ हैं, जिन्हें उक्त मुख्तारसाहबकी रक्खी गई हैं। इससे इतना तो स्पष्ट होजाता है जयधवला विषयक नोट-बुकपर से देखने और कि पंचसंग्रह की रचना कषायप्राभूतके बाद पंचसंग्रह की गाथाओंके साथ तुलना करने से किसी समय हुई है। मालूम हुआ कि दर्शनमोह का उपशम और पंचसंग्रहमें पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकके क्षपणाके स्वरूपका निर्देश करनेवाली कषाय । दार्शनिक आदि ११ भेदोंके नामोंका निर्देश प्रोभूतकी तीन गाथाएँ 'पंचसंग्रह' में प्रायः ज्यों करनेवाली एक गाथा १६३ नम्बरपर पाई की त्यों पाई जाती है और वे इस प्रकार हैं: . जाती है और उक्त गाथा आचार्य कुंदकुंदके दंसण मोह स्सुवसामगो दु चदु सुवि गदीसु बोद्धम्बो। पंचिंदिओय सण्णी णियमोसो होइपज्जत्तो ॥ 'चारित्र प्राभूत में भी नं० २२ पर उपलब्ध होती -कसाय पाहुड० ९१ है। यह गाथा दोनों ग्रन्धकारोंमेंसे किसी एकने
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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